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________________ स्फुरति चेतसि भावनया विना, न विदुषामपि शान्तसुधारसः । न च सुखं कृशमयमुना विना, जगति मोहविषाद - विषाकुले || उपाध्यायजी कहते हैं : 'भले ही आप विद्वान हो, शास्त्रज्ञ हो, परंतु यदि आप भावनाओं में रममाण नहीं हो, भावनाओं से भावित नहीं हो, तो आपके मन में शान्त-सुधा का उपशम-रस का आस्वाद नहीं कर सकोगे । मोह - विषाद से भरा हुआ है यह संसार, यह जगत्, उसमें आप अंशमात्र भी सुख नहीं पा सकोगे ।' उपाध्यायजी ने विद्वानों को, पंडितों को लक्ष्य बना कर यह बात कही है । उन्होंने पंडितों को भी तीव्र राग-द्वेष में व्याकुल, अशान्त और संतप्त देखे होंगे । 'अरे, इतने हजारों शास्त्र पढ़ने के बाद, पढ़ाने के बाद भी ये पंडित, ये विद्वान क्यों शोकविह्वल हैं ? क्यों शोकसंतप्त हैं ? क्यों दुःखी हैं ? क्यों रुदन करते हैं ? ऐसे प्रश्न उनके मन में पैदा हुए होंगे। प्रश्नों का समाधान उन्होंने यह खोज निकाला कि 'भावनाओं से जो अपने मन को भावित नहीं करते, वे विद्वान होते हुए भी राग-द्वेष में उलझ जाते हैं । अशान्ति और उद्वेग से भर जाते हैं । चूँकि संसार तो मोह - अज्ञान के जहर से भरा-पूरा है ही ! वैसे संसार में भावनाओं के चिंतन के बिना सुख का एक अंश भी मिलना संभव नहीं, शान्ति की एक क्षण मिलना भी संभव नहीं । उपाध्यायजी महाराज 'अनित्य' आदि बारह भावनाओं के विषय में और 'मैत्री' आदि चार भावनाओं के विषय में यह ग्रंथ लिखते हैं शान्तसुधारस ! हर मनुष्य के जीवन में भावनाओं के चिंतन की अनिवार्यता प्रतिपादित करते हुए वे यह बात कह रहे हैं । विद्वान् लोग भी भावनाओं के बिना सुख और शान्ति नहीं पा सकते हैं, तो फिर जो शास्त्रज्ञ नहीं है, विद्वान् नहीं हैं, उनको सुख-शान्ति कैसे मिल सकती है ? बुध हो या अबुध हो, धनी हो या निर्धन हो, प्राज्ञ हो या अज्ञ हो, भीतर का सुख, भीतर की शान्ति उसी को मिल सकती है; जो भावनाओं का चिंतन करते रहते हैं, प्रतिदिन करते रहते हैं। हर प्रसंग पर, हर घटना पर, भावनाओं की दृष्टि से जो देखते हैं, सोचते हैं, वे कभी अशान्त और उद्विग्न नहीं बनते । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि अति व्याकुल क्यों बने थे ? उपाध्यायजी की एक बात सदैव याद रखना - 'जगति मोहविषादविषाकुले।' यह दुनिया मोह - विषाद के जहर से व्याप्त है। दुनिया में सर्वत्र मोह - विषाद का १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only शान्त सुधारस : भाग १ www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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