________________
वही आत्मा ही सर्वकल्याणरूप है और वही सुखभंडार है, वही शुद्ध चिद्रूप है और वही परम शिव है !
वही मेरा परमानन्द है, वही सुखदायक है, वही परम चैतन्य है और वही गुणसागर है !
वही मेरा परम आह्लाद है... वही वीतराग-वीतद्वेष है... सोऽहम्... सोऽहम्... सोऽहम्। मैं वही हूँ... मैं वही हूँ... मैं वही हूँ । __ यह प्रशमरस के अमृतपान से जो भीतर में उत्सव घटित होता है, उसका काव्य है, आनंदोर्मि का गीत है । चिदानन्द ही मस्ती में स्फूरित शब्दावली है !
आपको उत्सव... भीतर का उत्सव मनाना है ? तो आप बाहर के उत्सवों का मोह त्याग कर, भीतर में चले जायं । समग्रतया भीतर में चले जायं, कुछ १५/२० मिनिट के लिए, आधे घंटे के लिए... भीतर में स्थिर होकर, ये पाँच श्लोक गाइये । ज्योतिस्वरूप आत्मा की कल्पना कर, ये पाँच श्लोकों का गान करिये। भीतर का उत्सव एकान्त में: ___ यदि आप ऐसा आनन्द से भरपूर उत्सव मनाता चाहते हो, तो पहला काम रागी-द्वेषी लोगों की भीड़ से दूर जाना होगा । इसीलिए पहाड़ों पर अपने तीर्थ बने हैं। बीहड़ जंगलों में अपने तीर्थ बने हैं ! परंतु वर्तमान में तो वहाँ भी लोगों की भीड़ रहने लगी है ! इसलिए जहाँ लोग नहीं जाते हैं, बहुत कम लोग जाते हैं वैसे पहाड़ पर चले जाओ। जैसे कि तारंगाजी के ऊपर सिद्धशिला की गुफा में या कोटिशिला की गुफा में जाकर बैठे... अथवा गिरनार की कोई गुफा पसंद कर, वहाँ एकाध-आधा घंटा बैठो... और उत्सव मना लो ! अथवा राणकपुर के कोई निर्जन मंदिर में अथवा पहाड़ों... में जाकर बैठ जायं और उत्सव मना लो! __इस उत्सव में एकान्त और मौन चाहिए ही । वाणी का मौन और विचारों का मौन !
पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु योगिनां मौनमुत्तमम् !' पुद्गल भावों में मन की प्रवृत्ति नहीं होना, योगीपुरुषों का उत्तम मौन होता है। जब आपका मन, आपकी बद्धि आत्मभावों में ही लीन बनती है. फिर मन पुद्गल भावों में जायेगा ही कैसे ?
अपनी प्राचीन परंपरा में साधक पुरुष, श्रावक हो या साधु हो, गृहस्थ हो या | १३४
शान्त सुधारस : भाग १
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org