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________________ I थे । उनको सब प्रकार की सुविधायें उपलब्ध थी । मैने उनको पूछा : यहाँ तुम्हें शान्ति मिली है न ? शान्ति से धर्म आराधना होती है न ? उन्हों ने कहा : बार बार घर - स्वजन - परिवार याद आता है, मन में राग-द्वेष होते हैं ।' जिस परिवार ने, जिन स्वजनों ने इन वृद्धों को, उनके ही घरों में से निकाल दिये थे, आश्रम में भेज दिये थे, जो स्वजन उन का मुँह देखना भी नहीं चाहते... उन स्वजन - परिजनों के प्रति अभी भी उन वृद्धों को ममत्व था ! प्रेम था ! ऐसा प्रेम करनेवाले मन को 'प्रेतहत' नहीं कहें तो क्या कहें ? जो मन प्रेतहत नहीं होता है, जो मन मूढ़ नहीं होता है, जो मन ज्ञानविज्ञान से वासित होता है, वह तो पहले से ही संसार के पदार्थों को परिवर्तनशील समझ लेता है, वैषयिक सुखों को दुःखदायी समझ लेता है और उनका त्याग कर संयममार्ग पर, चारित्रमार्ग पर चल देता है । वैषयिक सुखों को एवं स्वजन परिजनों का त्याग कर देता है । वह इंतजार नहीं करता है कि जब विषयसुख चले जायेंगे, जब स्नेही - स्वजन मुँह मोड़ लेंगे, जब शरीर और इन्द्रियाँ अशक्त हो जायेंगी... तब संसार का त्याग करेंगे ! जब वैसी स्थिति का निर्माण होगा, तब प्रेतहत मन की तृष्णा, ममता द्रढ़ हो गयी होगी ! अपने हृदय में परिवार आदि सभी वैभवों का बार बार विचार कर, व्यर्थ मोहित होता रहता है ! इसी द्रष्टि से उपाध्यायजी महाराज ने कहा है : मूढ जीव का मोह : मूढ मुह्यसि मूढ मुह्यसि मुधा, १०० विभवमनुचिन्त्य हृदि सपरिवारम् । कुशशिरसि नीरमिव गलदनिलकम्पितं, विनय जानीहि जीवितमसारम् ॥ 'उपाध्यायजी अपने स्वयं को संबोधित करते हुए कहते है : 'विनय, तू जीवन को असार जान, निःसार जान । क्योंकि जीवन क्षणिक है... अति अल्पकालीन है और चंचल है । घास के पत्ते पर रहे हुए जलबिंदु जैसा है। पवन का एक झोंका आने पर वह जलबिंदु गिर जाता है, वैसे महाकाल का एक धक्का लगने पर जीवन समाप्त हो जाता है। इसलिए जीवन के प्रति, वैभवों के प्रति, शरीर और स्वजनों के प्रति व्यर्थ मोहित मत हो । अपने हृदय में ईन क्षणिक पदार्थों के विचार कर व्यर्थ राग-द्वेष करता है । तेरी यह मूढ़ता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only शान्त सुधारस : भाग १ www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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