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________________ 'अहो ! अहो ! हुँ मुजने कहुँ, नमो मुज ! नमो मुज... रे ! अपनी आत्मा का परमात्मस्वरूप, परमानन्दस्वरूप देख लिया... और वे अपनी ही आत्मा को नमस्कार करने लगे ! 'नमो मुज, नमो मुज !' बोलते हुए नाचने लगे ! इसी को कहते हैं योगी का उत्सव ! प्रशमभाव के अमृतपान का उत्सव ! प्रशमसुख यानी मोक्षसुख : उपाध्यायजी ने जिस 'प्रशमरस' के सुधापान के उत्सव की बात कही है.... वह बहुत ही रहस्यभूत और अद्भुत बात है। इस प्रशमरस' के विषय में महाज्ञानी भगवान उमास्वातीजी ने 'प्रशमरति ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में प्रशमसुख' को उन्होंने प्रत्यक्ष मोक्षसुख बताया है स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् । प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न व्ययप्राप्तम् ॥ २३७॥ 'स्वर्ग के सुख परोक्ष हैं और मोक्ष का सुख तो अत्यंत परोक्ष है, जब कि प्रशमसुख प्रत्यक्ष है, स्वाधीन है और शाश्वत् है !' इस पृथ्वी पर, इस संसार में यदि मोक्षसुख चाहिए तो वह है प्रशम का सुख ! जिन आत्माओं के पास, जिन महात्माओं के पास यह 'प्रशमसुख' है, उन्हें स्वर्ग के सुखों की इच्छा नहीं रहती, उन्हें मोक्ष के सुख की भी तमन्ना नहीं होती ! वे तो 'मोक्षेऽपि अनिच्छः' होते हैं ! यह प्रशमसुख पाने के लिए किसी भी तरह की गुलामी नहीं करनी है, तुम्हारी ही अंतरात्मा में से वह सुख मिल जायेगा। मिलने के बाद उस सुख का अनुभव करने के लिये इन्द्रियों की परवशता भी नहीं होगी, चूँकि यह सुख इन्द्रियातीत होता है । आत्मा का सुख, आत्मा से ही, आत्मा को, आत्मा में महसूस करना है ! तुम चाहो जितना प्रशमसुख भोगो, वह कभी भी कम नहीं होने का ! यह सुख है ही कुछ ऐसा कि ज्यों ज्यों उसे भोगते चलें, त्यों त्यों वह बढ़ता ही रहता है ! इस प्रशमसुख की प्राप्ति होने पर, भौतिक-वैषयिक सुखों की इच्छा ही मृतप्रायः हो जाती है । अपूर्व एवं अद्भुत प्रशमसुख में डूबी हुई आत्मा मोक्षसुख की अनुभूति में गहरे उतरती है और भव्य उत्सव मनाती है ! अनित्य भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only १३७ www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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