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मोक्ष यहीं पर है ! भगवान उमास्वातिजी ने आगे बढ़कर कहा है - निर्जितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकार-रहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥ २३८ ।। 'जिन्होंने मद और काम को जीत लिया है, जो मन-वचन-काया के विकारों से मुक्त हैं, परपदार्थों की आशायें जिनकी नष्ट हो गई हैं, वैसे सुविहित योगी के लिए तो यहीं पर ही मोक्ष है ! तात्पर्य यह है - - मान-सन्मान की आशा छोड़ देना है, - आदर-सत्कार की अपेक्षा त्याग देना है, - प्रिय वचन की आशंसा झटक देना है, - अनुकूलताओं की उत्सुकता उखाड़ फेंकना है, और - किये हुए उपकारों के बदले की आशा नहीं रखना है । - मद और मदन पर विजय प्राप्त करना होगा । क्योंकि मन को आत्यंतिक
रूप से अस्वस्थ बनानेवाले यदि कोई है तो ये मद और मदन है । मान और
काम ! - वैसे, मनोविकारों को दूर करने पड़ेंगे । - वचन-विकारों को भी मूल से नष्ट करने होंगे । - काया के विकारों का भी मूलोच्छेद करना होगा ।
यह सब योगीपुरुष कर सकते हैं, और वे ही मोक्षसुख सदृश प्रशमसुख का अनुभव कर सकते हैं । इसी भव में प्रशमसुखानुभव का उत्सव होता रहता है !
भवतु सततं सतामिह भवेऽयम् ।' श्री विनयविजयजी ऐसी भावना व्यक्त करते हैं – “भवतु प्रशमसुख का अनुभव... उत्सव सतत चलता रहे ! होता रहे !' __ इसी जन्म में, अपने भी वैसा प्रशमसुख का अमृतपान करते रहें और उत्सव मनाते रहें - यही शुभ कामना । ___ आज बस, इतना ही -
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शान्त सुधारस : भाग १
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