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- नौकर अपनी नौकरी चली न जायें, इसलिए चिंतित रहता है । ___ यह सब आर्तध्यान है ! ऐसा आर्तध्यान मनुष्य के मन में चलता रहता है न ? छोटी-बड़ी वस्तु के विषय में, मित्र-स्नेही के विषय में ऐसा आर्तध्यान चलता रहता है । बस, यह आर्तध्यान की आग भीतर में जलाती रहती है ! यदि भीतर में नहीं जलना है तो आर्तध्यान मत करो। प्रिय-इष्ट के संयोग-वियोग के विचार नहीं करें।
३. इष्ट की तरह अनिष्ट भी होते हैं, अप्रिय भी होते हैं । मनुष्य के जीवन में कुछ अनिष्ट - अप्रिय लगा हुआ होता है ! नहीं चाहता है, फिर भी अप्रिय होता है । उसका वह वियोग चाहता है ! यह अप्रिय चला जायें तो अच्छा ! यह अनिष्ट चला जायें तो अच्छा! ऐसी इच्छा चलती रहती है। कुछ उदाहरणों से बात समझाता हूँ - - पति को पत्नी अनिष्ट है, अप्रिय है, वह पत्नी का वियोग चाहता है, - पत्नी को पति अप्रिय है, वह पति का वियोग चाहती है, - सेठ को नौकर अप्रिय है, वह नौकर को निकालना चाहता है, - लड़के को माता-पिता अप्रिय हैं, वह अलग करना चाहता है, - किसी को घर अनिष्ट लगता है, घर छोड़ना चाहता है...
इस प्रकार कई छोटी-बड़ी वस्तुएँ होती हैं, जो छोड़ना चाहता है, छोड़ नहीं सकता है ! कुछ व्यक्तियों को छोड़ना चाहता है, छोड़ नहीं सकता है । छोड़ने के लिए या छूटने के लिए जो जो विचार करता है, वह आर्तध्यान होता है ।
और आर्तध्यान भीतर में जलन-आग पैदा करता है । शान्ति को, विवेक को जला देता है।
४. मनुष्य अनिष्ट-अप्रिय की कल्पना करता रहता है। कभी कुछ अनिष्ट होगा तो ? अप्रिय होगा तो? ऐसी कल्पनायें करना भी आर्तध्यान है । मनुष्य करता रहता है ऐसी कल्पनायें ! - पैसे चले जायेंगे तो? - शरीर में रोग पैदा होंगे तो ? - स्वजन छोड़कर चले जायेंगे तो ? - चोरी हो जायेगी तो? - कोई कलंक आ जायेगा तो ?
प्रस्तावना
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