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ऐसे विचार भी आर्तध्यान हैं । ऐसे विचार मन की शान्ति को नष्ट करते हैं। ऐसे विचार मन की प्रसन्नता को जला देते हैं । ऐसे विचार विवेक को जला देते हैं । रौद्रध्यान : __ आर्तध्यान से बढ़कर रौद्रध्यान होता है । हिंसा के, मृषा के, चोरी के, मैथुन के, परिग्रह के तीव्र पाप विचार रौद्रध्यान होता है । जिस मन में आर्तध्यान और रौद्रध्यान चलता रहता है उस मन में शुभ भावनायें नहीं रहती हैं । शुभ भावनायें पैदा ही नहीं होती हैं।
रौद्रध्यान बहुत ही खतरनाक है । घोर अशान्ति तो पैदा करता ही है, साथ साथ घोर पापकर्म बँधवाता है। उन पापकर्मों को भोगने के लिए नरक में जाना पड़ता है । घोर असह्य दुःख भोगने पड़ते हैं वहाँ । वर्तमान जीवन में अनेक प्रकार की तीव्र अशान्ति और परलोक में तीव्र कोटि के दुःख । असंख्य वर्ष तक घोर शारीरिक - मानसिक पीड़ा भोगनी पड़ती है । इसलिए रौद्रध्यान से बचते रहो। रौद्रध्यान की प्रचंड आग से बचकर जीना है ।
पहला रौद्रध्यान है हिंसाविषयक । तीव्र वैरभावना से प्रेरित होकर जीव की हिंसा करने के सतत विचार करना रौद्रध्यान है । जीव छोटा हो या बड़ा ! मारने के इरादे से उसे मारते हैं... अथवा मारने का सतत विचार चलता रहता है ।
वैसे मृषावाद के सतत विचार भी रौद्रध्यान होता है । सतत झूठ बोलने के विचार मनुष्य करता रहता है, तब वह रौद्रध्यान बन जाता है । मषावाद की तरह मैथुन-अब्रह्म सेवन के सतत विचार भी रौद्रध्यान होता है । रौद्रध्यान की यह आग सर्वभक्षी होती है । जीवन का सब कुछ जला देती है। कुछ भी नहीं बचता... सिवाय राख... भस्मीभूत बने गुणों की राख । राख में से समता के अंकर कैसे पैदा हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । इसलिए आर्तध्यान और रौद्रध्यान से बचना हैं । दोनों दुर्ध्यान की जननी : विषय लोलुपता :
शायद आपके मन में प्रश्न पैदा होगा कि मन में क्यों - किस वजह से आर्तध्यान और रौद्रध्यान पैदा होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर इसी श्लोक में उपाध्यायजी ने दे दिया है ! जो जीवात्मा विषय लोलुपी होता है उसके मन में आर्त-रौद्रध्यान पैदा होते हैं । मानसे विषय लोलुपात्मनाम् । पाँच इन्द्रियों के असंख्य विषय होते हैं । उन विषयों की आसक्ति ही दुर्ध्यान
शान्त सुधारस : भाग १
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