________________
हृदयमंदिर में परिपूर्ण आत्मा की रमणता हो :
आत्मा की परमात्मदशा प्राप्त करने के लिए अपने हृदय में परम आत्मा का चिंतन करें, दर्शन करें, ध्यान करें । आत्मा ज्ञान-दर्शन- चारित्रमय विशुद्ध सत्ता है । चैतन्यमय सत्ता है । उसका स्वरूप इस प्रकार है।
अरसमरुवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥
जीवस्स नत्थि वण्णोण विगंधो ण रसोण विय कासो । ण विरुवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ॥
हमारी इन्द्रियाँ जानती हैं शब्द को, रूप को, गंध को, रस को और स्पर्श को ! हमारी आत्मा को शब्दादि से कोई संबंध नहीं है । चैतन्य से शब्दादि का संबंध कम करने के लिए, तोड़ने के लिए कुछ प्रयोग करने होंगे ।
1
आँख खुली है, रूप देख रहे हैं । आँख बंद की, रूप दिखना बंद हो जायेगा ।
-
--
-
कान खुले हैं, शब्द सुन रहे हैं। कान बंद किये, शब्द सुनने बंद हो जायेंगे ।
नाक खुला है, गंध आती है। नाक को बंद किया, गंध आनी बंद हो जायेगी ।
जीभ सक्रिय है, रस का अनुभव होता है। जीभ पर कुछ न डालो, कोई रसानुभूति नहीं होगी ।
किसी वस्तु को स्पर्श किया तो स्पर्श का अनुभव होता है । किसी को छुओ ही मत, अकेले में रहो, स्पर्श का अनुभव नहीं होगा ।
इस प्रकार इन्द्रियों को कुछ समय के लिए विषयों के संपर्क से दूर रखें 1 बार-बार ऐसा प्रयोग करते रहें । इन्द्रियों का विषयों के साथ जो संपर्क होता है, संपर्क - जन्य राग-द्वेष होते हैं, वे कम करते रहें ।
आँखें बंद कर, ४८ मिनट ध्यान करें । अरूप की स्थिति का अनुभव करें । आत्मा अरूपी है | अरूप की अनुभूति आत्मा की अनुभूति है । प्रश्न : ध्यान में आलंबन चाहिए न ? आलंबन रूपी होगा !
उत्तर : सही बात है, परंतु आलंबन का रूप ऐसा होना चाहिए कि रागद्वेष न हो ! ज्योतिस्वरूप आत्मा का आलंबन लें, वीतराग - मूर्ति का आलंबन लें ! रूप सामने हो फिर भी राग-द्वेष न हो, वैसी स्थिति प्राप्त करने की है । रूप पुद्गल का है, आत्मा अरूपी है, यह ज्ञानोपयोग सदा रहे, वैसा अभ्यास करना होगा । शब्द, रूप, रसादि के साथ चेतना नहीं जुड़नी चाहिए । चेतना की
एकत्व - भावना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
२७९
www.jainelibrary.org