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________________ उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने 'अमृतबेल' की सज्झाय में इस प्रकार चार शरण स्वीकार करने का बताया है । शरणागति का भाव दृढ़ करने के लिए : शरणागति के भाव को हृदय में दृढ़ करने के लिए, प्राचीन गुजराती भाषा में श्री चिदानंदजी रचित सरल काव्य के कुछ अंश बताता हूँ, आप लोग कंठस्थ भी कर सकते हैं और प्रतिदिन स्वाध्याय कर सकते हैं। १. परमातम सोइ आतमा, अवर न दूजो कोय, परमातम कुं ध्यावते, एह परमातम होय । २. परमातम एह ब्रह्म है परम ज्योति जगदीश, ___पर-सुं भिन्न निहारीए, जोइ अलख सोइ इस। ३. जो परमातम सिद्ध में, सोही आतममांही, ___ मोह-मयल दृग लग रह्यो, तामें सूझत नाही । ४. आतम सो परमातमा परमातम सोइ सिद्ध, बीच की दुविधा मिट गई, प्रगट भई निज रिद्ध । ५. मैं ही सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम, मैं ही ध्याता ध्येय को, चेतन मेरो नाम । ६. मैं ही अनंत सुख को धनी, सुख में मोही सोहाय, ___ अविनाशी आनंदमय, सोहं त्रिभुवनराय । ७. शुद्ध हमारो स्प है, शोभित सिद्ध समान, गुण अनंत करी संयुत, चिदानंद भगवान । ८. जैसो शिव पे तहि वसे, तेसो या तनमांही. निश्चय दृष्टि निहारतां, फेर रंच कछ नाही । ९. काहे कुं भटकत फिरे ? सिद्ध होने के काज, राग-द्वेषकुं त्याग दे, भाई, सुगम इलाज । १०.परमातम-पद को धनी, रंक भयो, दिल लाय, राग-द्वेष की प्रीति से, जनम अकारथ जाय । ११. राग-द्वेष के नासतें, परमातम परकास, राग-द्वेष के भासते, परमातम पद-नास । १२.लाख बात की बात यह, ताकु दियो बताय, जो परमातम-पद चहे, राग-द्वेष तज भाय ! १८१ । अशरण भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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