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कर्मों की पराधीनता...परवशता बड़ी दुःखदायी होती है । जीवात्मा की इच्छाओं को, अभिलाषाओं को कौन पूर्ण नहीं होने देता है ? जीवात्मा को अपनी इच्छाओं से विपरीत जीना पड़ता है, किसकी वजह से ? कर्मसत्ता ऐसी अदृश्य सत्ता है कि उसने समग्र संसार पर अपना आधिपत्य स्थापित कर रखा है । कोई उसके
आधिपत्य को नष्ट नहीं कर सकता है। हाँ, जो जीवात्मा प्रबुद्ध बनता है और कर्मों के बंधनों को तोड़ने के लिए कृतनिश्चयी बनता है, वह स्वाधीन-स्वतंत्र बन सकता है । उग्र पुरुषार्थ करना पड़ता है । सतत पुरुषार्थ करना पड़ता है । दुःखों से जो डरता नहीं है और कर्मजनित सुखों से जो ललचाता नहीं है, वही कर्मों के बंधन तोड़ सकता है ! कर्मदत्त सुखों का जो त्याग कर देता है और कर्मजन्य दुःखों का प्रतिकार किये बिना, समताभाव से सहन करता है, वह आत्मा स्वाधीन बनती है, परमात्मस्वरूप प्राप्त करती है। जनम-जनम में नये-नये स्प:
चार गतियों में जीवों को कैसे-कैसे नये रूप करने पड़ते हैं-जानते हो ? रोजाना अथवा कभी-कभी याद करने चाहिए वे रूप ! कभी पृथ्वी का रूप, कभी पानी का रूप, कभी अग्नि का रूप, कभी वायु का रूप, कभी वनस्पति का रूप...कभी बेइन्द्रिय जीवों का रूप, कभी तेइन्द्रिय का, कभी चउरिन्द्रिय का, तो कभी पंचेन्द्रिय का रूप धारण करता है जीव ! कभी देव बनकर सुखोपभोग किया, कभी नरक में नारकी बनकर घोर दुःख सहन किये...कभी पश-पक्षी बनकर त्रास सहन किये, तो कभी मनुष्य के विविध रूप धारण किये हैं।
न सा जाइ, न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुआ जत्थ सव्वे जीवा अनन्तसो ॥ ऐसी कोई जाति नहीं है, ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसा कोई स्थान नहीं है और ऐसा कोई कुल नहीं है कि जहाँ सभी जीव अनंत बार जन्मे नहीं हो और मरे नहीं हो। __संसार एक रंगमंच है, उसके ऊपर जीव सदैव अभिनय करते रहते हैं। कर्म होते हैं डायरेक्टर-दिग्दर्शक ! कर्म जिस प्रकार नचाये उस प्रकार जीव नाचते रहते हैं ! कभी पुत्र का रूप लेकर नाचता है, तो कभी भाई का रूप लेकर नाचता है । कभी वही पिता या शत्रु का रूप लेकर नाचता है । कभी माता का, तो कभी पत्नी का, कभी बहन का, तो कभी पुत्री का रूप लेकर संसार के रंगमंच पर
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शान्त सुधारस : भाग १
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