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ने माता
वह कुछ बोला नहीं । मेरी बात, क्या पता उसके मन में जँची होगी या नहीं । वासनाविवश मनुष्य हितकारी ज्ञानी पुरुषों की बात प्रायः मान नहीं सकता है । वह दुःखी और अशान्त ही बना रहता है । मोह - विषाद का विष उसके मन में फैलता जाता है । एक दिन उसके भावप्राण नष्ट हो जाते हैं... और वह दुर्गति में चला जाता है ।
यशःकीर्ति की वासना :
ता-पिता को प्रेम दिया, दुःख में सहायता की.... i
मोह - विषाद के विष का एक दारुण विकार होता है, यशःकीर्ति का, मानसम्मान का । धन-संपत्ति होने पर भी मान-सम्मान नहीं मिलता है तो मनुष्य अशान्त रहता है, बेचैन रहता है । मान-सम्मान और यशःकीर्ति पाने के उपाय वह खोजता रहता है ! वह पाने के लिए जो कुछ भी अच्छा-बुरा करना पड़े, वह करने के लिए तत्पर हो जाता है। दंभ और कपट करता है । हिंसा और चोरी भी करता है । वैसे दान भी देता है और परोपकार भी करता है ।
यह सब करने पर यदि लोग उसकी प्रशंसा करते हैं तो वह खुश होता है, थोड़ा अभिमानी बनता है, दूसरों का कभी-कभी तिरस्कार भी करता है । और यदि सब कुछ करने पर भी लोग उसकी प्रशंसा नहीं करते हैं तो वह नाराज हो जाता है । उसकी निंदा करनेवालों के प्रति रोषायमान होता है । उनकी कटु आलोचना करता है । यह सब करने में उसका मन अति व्याकुल रहता है । न मन का सुख होता है, न मन की प्रसन्नता रहती है ।
यशः कीर्ति की तीव्र इच्छावाले लोग 'सत्ता' का सिंहासन प्राप्त करना चाहते
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हैं | विधानसभा में या लोकसभा में जाना चाहते हैं । इसलिए चुनाव लड़ते हैं। चुनाव में लड़ते हुए कई गलत उपाय करते हैं । जीतने के लिए वे क्याक्या नहीं करते ? आप लोग अच्छी तरह जानते हो । न वे शान्ति पाते हैं, न परिवार को शान्ति दे पाते हैं । घोर अशान्ति के विषचक्र में वे फँस जाते हैं ।
शारीरिक आरोग्य की वासना :
मोह - विषाद का विष मनुष्य को सही विचार नहीं करने देता है । वह नहीं समझने देता है कि धन-संपत्ति की प्राप्ति लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है ! पत्नी... पुत्र... आदि की प्राप्ति भी अंतराय कर्म के क्षयोपशम से होती
शान्त सुधारस : भाग १
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