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भगवान नेमिनाथ के उपदेश ने उनकी आत्मा को जाग्रत कर दी और वे साधु बन गये । उनके साथ साथ श्रीकृष्ण की रानियाँ रूक्मिणी, जांबवती वगैरह ने भी प्रभु के पास दीक्षा ले ली । श्रीकृष्ण ने प्रभु को पूछा : _ 'भगवंत, द्वैपायन द्वारिका का दहन कब करेगा ?' भगवंत ने कहा : कृष्ण, द्वैपायन आज से बारह वर्ष के बाद द्वारिका को जलायेगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण मन में सोचने लगे : समुद्रविजय वगैरह धन्य बन गये कि जिन्होंने पहले ही
चारित्रधर्म स्वीकार कर लिया, मैं ही धिक्कारपात्र हूँ कि मैं राजसुख में लुब्ध होकर . संसार में पड़ा रहा हूँ। . सर्वज्ञ भगवंत ने श्रीकृष्ण को कहा : कृष्ण, वासुदेव कभी चारित्रधर्म ले ही नहीं सकते हैं । क्योंकि वासुदेव जो होते हैं वे नियाणां से ही होते हैं । नियाणा से प्राप्त वासुदेवत्व, चारित्र नहीं लेने देता है । इतना ही नहीं, वासुदेव अधोगामीनरकगामी होते हैं । हे कृष्ण, मृत्यु के बाद तुम तीसरी वालुकाप्रभा' नाम नरक में जाओगे।
यह सुनकर कृष्ण अति दुःखी हो गये । उनके मुँह पर अति ग्लानि छा गई। तब भगवंत ने कहा : हे वासुदेव, तुम दुःखी मत हो। तुम नरक का आयुष्य पूर्ण कर, इस भरतक्षेत्र में जन्म लोगे और तीर्थंकर बनोगे ।
कृष्ण ने पूछा : भगवंत, मेरे भ्राता बलराम की मुक्ति कब होगी ?'
कृष्ण, मृत्यु के बाद बलराम ब्रह्मदेव लोक में देव बनेंगे । देव का आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर वे मनुष्यजन्म पायेंगे । पुनः वे देव बनेंगे । वहाँ का आयुष्य पूर्ण होने पर इस भरतक्षेत्र में उत्सर्पिणी काल में मनुष्यजन्म पायेंगे । राजा बनेंगे और उस समय तुम तीर्थंकर बनोगे । तुम्हारे तीर्थ में ही वे दीक्षा लेंगे और मुक्ति पायेंगे।
भगवंत ने जो भविष्यकथन किया, इससे कृष्ण कुछ आश्वस्त हुए । उन्होंने भगवंत को वंदना की । वे नगर में आये । पुनः उन्होंने नगर में घोषणा करवाकर लोगों को धर्मआराधना में विशेष रूप से प्रवृत्त किये। . द्वैपायन मरकर अग्निकुमार देव बना :
द्वैपायन तापस उग्र तपश्चर्या करने लगा था । उसकी मृत्यु हुई, वह अग्निकुमार-निकाय में देव हुआ । पूर्वजन्म की दृढ़ की हुई वैरभावना जाग्रत हुई और वह द्वारिका में आया । उसने देखा तो द्वारिका के नगरजन विशेष रूप
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शान्त सुधारस : भाग १
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