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से पहचान लिया और उनको मालुम हो गया, तो वे उस गाँव में नहीं रहते थे, चले जाते थे उस गाँव-नगर को छोड़कर ! दुनिया में अपरिचित होकर जीना उनका लक्ष्य होता था ।
आत्मसाधक को परिचय बाधक - घातक :
अनामी और अरूपी आत्मतत्त्व की पहचान कर, आत्मरमणता कर, ज्ञानानन्द, आत्मानन्द का अनुभव करना है; तो नाम और रूप से प्राप्त होनेवाला क्षणिक और तुच्छ आनन्द का त्याग करना ही होगा । परद्रव्य का, परपर्याय का परिचय त्यागना ही होगा । परद्रव्य के परिचय से सुख प्राप्त करने की अनादिकालीन बुरी आदत, कुटेव छोड़नी ही होगी । 'अब मुझे परद्रव्य से सुख नहीं पाना है, परपर्याय से सुख नहीं पाना है - यह निर्णय होना चाहिए। यदि आत्मतत्त्व की सच्ची पहचान हो जाती है तो फिर परभाव का कर्तृत्व रहता ही नहीं है । वह तो अपने ही आत्मस्वरूप में रहता है । उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने कहा
है
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एम जाणीने रे ज्ञानदशा भजी, रहीए आप स्वरूप, पर - परिणतिथी रे धर्म न छांडीए, नवि पडीए भवकूप..... श्री सीमंधर साहिब सांभलो... आप - स्वरूप में रहना है, यानी आत्मज्ञान में ही रहना है । पर - परिणति में यदि गये, तो धर्म भी गया समझना और संसार - सागर में डूबना होगा । परद्रव्य, परपर्याय की रमणता ही अधर्म है, पाप है... यह बात आत्मज्ञानी समझता है । परद्रव्य को अपना द्रव्य मानना, बड़ी भूल :
उपाध्यायश्री विनयविजयजी दूसरे श्लोक में यही बात कहते हैं
अबुधैः परभावलालसा - लसदज्ञानदशावशात्मभिः । परवस्तुषु हा स्वकीयता, विषयावेशवशाद् विकल्पते ॥ २ ॥ 'परभाव की लालसा में डूबे हुए मूर्ख और अज्ञानी आदमी, इन्द्रियजन्य आवेगों को परवश होकर, परायी वस्त में अपनापन मानते हैं ।'
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जो अबुध - अज्ञानी लोग होते हैं, उनको तो स्वभाव और परभाव का भी ज्ञान नहीं होता है । न वे स्वभाव' का विज्ञान जानते हैं, न वे परभाव की बात जानते हैं । बाह्य धर्मक्रियाएँ कितनी भी करते हों, परंतु यदि वे स्वभाव और परभाव की बातों से अनभिज्ञ हैं, तो वे मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं। क्योंकि वे पाँच इन्द्रियों के आवेगों को परवश हो ही जाते हैं और परद्रव्यों को, परपुद्गलों को अपना मानते
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शान्त सुधारस : भाग १
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