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- मैं नारकी नहीं हूँ। - मैं जानवर नहीं हूँ। - मैं श्रीमंत नहीं हूँ, मैं गरीब नहीं हूँ।
मैं रोगी नहीं हूँ, मैं निरोगी नहीं हूँ । - मैं मूर्ख नहीं हूँ, मैं बुद्धिमान नहीं हूँ । - मैं रूपवान नहीं हूँ, मैं कुरूप नहीं हूँ। - मैं यशस्वी नहीं हूँ, मैं बदनाम नहीं हूँ ।
मैं इन सभी रूपों से परे हूँ ! ये सभी रूप कर्मजन्य हैं, परभावजन्य हैं, पुद्गलजन्य हैं । इसलिए इन सभी रूपों में ममत्व, आसक्ति नहीं करना है ।
वैसे ही, पुण्य और पाप को भी समान समझें । न पुण्य में राग करें, न पाप में द्वेष करें । पुण्यकर्म और पापकर्म – दोनों परभाव है, दोनों पौद्गलिक है । दोनों बंधन है । पुण्यकर्म सोने की जंजीर है, पापकर्म लोहे की बेड़ी है ! कहा गया है -
पुण्य पाप दोय सम करी जाणो, भेदम जाणो कोउ, जिम बेड़ी कंचन लोढानी, बंधनस्प दोउ । पुण्यकर्म में हर्षित नहीं होना है और पापकर्म में शोकाकुल नहीं होना है । दोनों अवस्था परद्रव्य की है, परभाव की है, इस दृष्टि से दोनों समान हैं ! जैसे एक मनुष्य कुए में गिरकर मरता है, दूसरा पर्वत के शिखर पर से गिरकर मरता है ! मृत्यु दोनों समान हैं, फिर भी दो प्रकार माने जाते हैं न ? वैसे पुण्य-पाप दो प्रकार परभाव के माने गये हैं।
कोउ कूप में पडि मुवे जिम, कोउ गिरि झंपा खाय, मरण बे सरिखा जाणिये पण, भेद दोउ कहेवाय । पुण्य-पाप-पुद्गलदशा इम, जे जाणे समतुल,
शुभ किरियाफल नवि चाहे ए, जाण अध्यातम मूल । आत्मा के एकत्व और समत्व के चिंतन में पुण्य-पाप को कर्मपुद्गल समझ कर, दोनों को समान मान कर, उनसे आत्मा की अलिप्तता का भाव दृढ़ करना है । आध्यात्मिक चिंतन में न पुण्य का महत्त्व है, न पाप का महत्त्व है । आत्मभाव, दोनों से मुक्त है।
शुभ-पवित्र धर्मक्रिया करने की है, परंतु ममत्वभाव नहीं करना है । इससे नया कर्मबंध नहीं होता है । मैं पुद्गलभावों का कर्ता भी नहीं हूँ और कारयिता
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शान्त सुधारस : भाग १]
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