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शांतसुधारस ! संतप्त हृदय के लिए दिलासा, निराश मन को आशा... अशांत आत्मा को आराम,
थके हारे प्राणी को विश्राम...! सत्रहवीं सदी के अंत में और अट्ठारहवीं सदी के आरंभ में गुजरात की गरिमामयी धरती की गोद में पैदा हुए... पले हुए, ज्ञान-ध्यान एवं परमात्मभक्ति की धूनी रमानेवाले उपाध्यायश्री विनयविजयजी महाराज, सुप्रसिद्ध महोपाध्यायश्री यशोविजयजी वाचक के समकालीन - सहाध्यायी थे। श्री विनयविजयजी की प्रकांड और प्रचंड बुद्धि प्रतिभा का परिचय उनके द्वारा सर्जित लोकप्रकाश जैसे दीर्घकाय संस्कृत ग्रंथों के माध्यम से हो सकता है... जबकि भक्ति के भावों की नमी उनके द्वारा रचित स्तवन सिद्धारथ ना रे नंदन विनवू, के शब्दों में छलकती है और वैराग्य-सभर अध्यात्म का प्रकाश कहाँ करूँ मंदिर, कहाँ करूँ दमरा' शीर्षक के पद में झलकता है । तो 'शान्तसुधारस सा अद्भुत, अनूठा गेय काव्य उनके बाह्य-भीतरी विरक्त व्यक्तित्व की बहुआयामी विशेषताओं का खजाना बन कर खुलता है... खिलता है । यह उनकी सिरमोर रचना है । १६ भावनाओं के भीतरी विश्व को चिंतन-मनन
और मंथन का रूप देकर शांतसुधारस वैसा नाम उपाध्यायजी ने दिया है । १६ भावनाओं के सोलह प्रकरण है । उसमें छंदोबद्ध श्लोक एवं सोलह गीतिकाएँ - गेय काव्यों को समाविष्ट किया गया है । विरक्त जीवन के रसभरपूर गायक श्री विनयविजयजी ने इस ग्रंथ में शुभ भावों का वैभव भर दिया है।
श्रृंगार रस - मिलन - विरह, रुठना - मनाना... इन भावों को शब्दों में गुंफित करना या काव्यों में कैद करना कोई बहुत मुश्किल
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