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हो, अ-जन्मा बन सकते हो । संसार तो रहेगा ही । वह जैसे अनादि है वैसे अनन्त है । ऐसे संसार में से जीवात्मा बाहर निकल सकता है । चौथी बात पर अभी दो-तीन दिन चिंतन-मनन करेंगे। संसार की चार गतियों में दुःख ही दुःख है ! जो कुछ भी सुख लगता है वह सुख नहीं है, सुखाभास है ! मात्र मृगजल है ! मेघधनुष्य के क्षणिक रंग हैं। वास्तविकता जो है वह दुःखों की है। सर्वप्रथम 'नरक' के दुःखों को बताता हूँ । तीर्थंकर भगवंतों ने तो कहा है कि हम (आत्मा) अनेक बार नरक में गये हैं ! नरक के घोर दुःख सहे हैं, परंतु अपन जैसे स्वर्ग को भूल गये हैं वैसे नरक को भी भूल गये हैं । शास्त्रों में, धर्मग्रंथों में नरक के दुःखों का वर्णन पढ़ने में आता है।
प्रश्न : क्या वास्तव में नरक है या मात्र कल्पना है ?
उत्तर : हमारा तो इस विषय में संपूर्ण निःशंक निर्णय है नरक के अस्तित्व का! स्वर्ग के अस्तित्व का । मात्र कल्पना नहीं है । नरक के दुःख :
अपनी आत्मा ने नरक में कैसे-कैसे दुःख भोगे हैं, मैं संक्षेप में आज बताता हूँ । सर्वप्रथम १० प्रकार की क्षेत्रवेदनाएँ बताता हूँ । (१) प्रतिसमय आहारादि पुद्गलों के साथ जीव का जो बंधन होता है, वह प्रदीप्त
अग्नि से भी ज्यादा दुःखदायी होता है। ऊँट और गधे की चाल (चलने का ढंग) से भी नारकी के जीवों की चाल अति अशुभ होती है । तप्त लोहे जैसी भूमि के ऊपर पैर रखने से जो वेदना होती है, उससे बहुत ज्यादा वेदना, नरक की भूमि पर चलने से होती
है, जो वेदना असह्य होती है । (३) नरक के जीवों का संस्थान (आकार) अति विकृत होता है । जैसे कटे हुई
पंखवाले पक्षी ! (४) दीवार पर से गिरते पुद्गलों की वेदना, शस्त्र की धार से भी ज्यादा पीड़ाकारी
होती है। (५) नरक के जीवों का वर्ण भयंकर मलिन होता है । अंधकार जैसा काला होता
है । वहाँ का भूमिभाग, श्लेष्म-विष्टा-मूत्र-कफ वगैरह बीभत्स पदार्थों से लिप्त जैसा होता है । मांस, केश, नख, हड्डियाँ, चमड़ी आदि से जैसे आच्छादित हो, वैसी स्मशानभूमि जैसा होता है ।
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संसार भावना
२०५५
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