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________________ कर, राजा-रानी भावविभोर हो गये। वंदन करने लगे। रानी की बंधी हुई केश की राशि खुल गई । स्त्री रत्न के सिर के बाल लंबे होते थे, और रानियाँ बाल कटवा कर बोब्ड़ हेयर नहीं करवाती थी ! रानी के लंबे बाल मुनि के चरण को छू गये । रानी ने तूर्त ही अपने बाल खींच लिये, वंदन पूर्ण कर, राजा - रानी चल दिये । परंतु मुनि के मन को रानी के केश का स्पर्श भा गया ! उनके मन में विचारों की परंपरा चली : 'जिस स्त्री रत्न के बालों का स्पर्श इतना सुखद है, उसके शरीर का स्पर्श कितना सुखद होगा ! ऐसा स्त्री रत्न चक्रवर्ती राजा को ही मिलता है ! मुझे ऐसे स्त्रीरत्न का स्पर्श चाहिए, इसलिए मुझे चक्रवर्ती राजा होना चाहिए । मेरी घोर तपश्चर्या से मैं चक्रवर्ती राजा बनने का स्वप्न सिद्ध कर सकता हूँ । उस साधु ने संकल्प किया : मेरी इस तपश्चर्या का यदि मुझे फल मिलेगा तो मुझे चक्रवर्ती राजा का पद मिलो !' इसको शास्त्रीय भाषा में 'नियाणा' कहते हैं । तीर्थंकरों ने नियाणा नहीं करने का उपदेश दिया है ! परंतु क्षणिक सुखों का राग-मोह, इस तरह नियाणा करवा देता है ! क्षणिक-अनित्य सुखों का प्रबल आकर्षण ऐसी भूल करवाता है ! इसलिए 'अनित्यभावना का पुनः पुनः चिंतन करते रहना है । धर्म का अवमूल्यन : धर्मप्राप्ति नहीं : दूसरे जन्म में उस साधु को चक्रवर्ती पद मिला, यानी वह चक्रवर्ती बना, परंतु चक्रवर्ती का भव समाप्त होने पर उस को नरक में जाना पड़ा । ऐसा एक शाश्वत् नियम है कि चक्रवर्ती राजा, यदि उत्तरावस्था में चक्रवर्ती पद का त्याग कर, साधु नहीं बन जाता है तो वह नरक में ही जाता है । साधु बन जाता है तो वह मोक्ष पाता है अथवा देवलोक में उत्पन्न होता है । __ क्षणिक सुखों के मोह से, वे सुख पाने के लिए धर्म का सौदा करनेवालों को वे सुख तो मिलते हैं, परंतु धर्म नहीं मिलता है ! चूंकि वह क्षणिक सुखों का उच्च मूल्यांकन करता है, धर्म का अवमूल्यन करता है ! धर्म को देकर वह क्षणिक सुखों को खरीदता है न ? ___ धर्म का सौदा कर पाये हुए सुखों में मनुष्य इतना मोहांध बन जाता है, इतना मोहमूढ़ बन जाता है कि उसको धर्म अच्छा ही नहीं लगता, उसके जीवन में धर्म होता ही नहीं । पापों से ही उसका जीवन भर जाता है । | अनित्य भावना ११९ ११९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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