SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं । देवलोक में उत्पन्न होते हैं । श्रीकृष्ण के प्रति अपार राग होने से, उन्होंने देवलोक में उत्पन्न होते ही, अपने अवधिज्ञान के प्रकाश में देखा कि श्रीकृष्ण का जन्म कहाँ हुआ है ? कृष्ण को उन्होंने तीसरी नरक में देखे। वासुदेव मरकर नरक में ही जाते हैं । ऐसा सिद्धांत है । कृष्ण वासुदेव थे । बलराम-देव ने अपनी दैवीशक्ति से दूसरा शरीर बनाया और वे श्रीकृष्ण को मिलने तीसरी नरक में गये । कृष्ण को आलिंगन कर बोले : मेरे भाई, मैं तुम्हारा भाई बलराम हूँ | तुम्हारी रक्षा करने मैं पाँचवे ब्रह्म-देवलोक से यहाँ आया हूँ । बोलो, तुम्हारे लिए मैं क्या करूँ ?' कृष्ण कुछ भी बोले, उसके पहले देव ने कृष्ण को उठाये । परंतु उठाते ही कृष्ण का शरीर पारे की तरह विशीर्ण होकर जमीन पर गिर पड़ा । जमीन पर गिरते ही पुनः शरीर जैसा था वैसा बन गया । श्रीकृष्ण ने खड़े होकर बलरामदेव को नमस्कार किया । देव ने कहा - 'मेरे भाई, भगवान नेमनाथ ने कहा था कि वैषयिक सुख दुःखदायी होते हैं । आज मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। हे वासुदेव, कर्मों से आप नियंत्रित हो, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले जा नहीं सकता, परंतु तुम्हारे मन की खुशी के लिए मैं यहाँ तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ । __ कृष्ण ने कहा - 'भैया, आपके यहाँ रहने से मुझे कोई लाभ होनेवाला नहीं है । आप रहेंगे, तो भी मैंने जितना नरक का आयुष्य-कर्म बाँधा है, उतना भोगना ही पड़ेगा । मुझे अकेले को भोगना पड़ेगा। आप यहाँ नहीं रहें । मेरे कर्म मुझे भोगने दो। बलराम के हृदय में बहुत दुःख हुआ। वे वापस देवलोक में चले गये । अकेला ही स्वर्ग में, नरक में और मोक्ष में जाता है : इक्को संचदि पुण्णं, इक्को भुंजेदि विविहसुरसोक्खं । इक्को खवेदि कम्म, इक्को विय पावए मोक्खं ॥ 'अकेला जीव पुण्य बाँधता है, अकेला जीव देवलोक का सुख भोगता है, अकेला ही जीव कर्मों की निर्जरा करता है और अकेला ही जीव मोक्ष पाता है । इसलिए, दूसरों की ओर नहीं देखते हुए आत्महित भी अकेले ही कर लेना चाहिए। प्रशमरति में भगवान् उमास्वातीजी ने कहा है : एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकाहितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥ १५३ ॥ मैं अकेला हूँ ! पैदा होता हूँ अकेला और मरता भी अकेला ही हूँ । नरक | २६६ शान्त सुधारस : भाग १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy