SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीकृष्ण की कहाँ और कैसी मृत्यु हुई ? एक घोर-भयंकर जंगल में मृत्यु हुई । अपने ही भ्राता के द्वारा मृत्यु हुई । पास में कोई नहीं, बलराम भी नहीं ! कैसी अशरणता ? अशरणता का इससे बढ़कर कौन-सा दृष्टांत मिलेगा इस दुनिया में ? जिनधर्म ही शरण : चारित्रधर्म ही शरण : ग्रंथकार उपाध्यायश्री विनयविजयजी कहते हैं : स्वजनजनो बहुधा हितकामं प्रीतिरसैरभिरामम् । मरणदशावशमुपगतवन्तम्, रक्षति कोऽपि न सन्तम् । विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मशरणम् । अनुसंधीयतां रे शुचितर चरण-स्मरणम् ॥७॥ विनय. 'हितकारी और प्रीतिपात्र सज्जन लोग, जब मृत्यु के महासागर में डूबते होते हैं. तब कोई भी स्वजन उनको बचा नहीं सकते । इसलिए हे आत्मन, तु महामंगलकारी जिनधर्म की ही शरण ले लें और अत्यंत निर्मल चारित्रधर्म का स्मरण कर । यह धर्म ही तुझे बचा सकेगा। कितनी सच्ची-वास्तविक बात कही है ग्रंथकार ने ? श्रीकृष्ण को मृत्यु से कोई नहीं बचा सका ! बलराम भी बचा नहीं पाये । वैसे बलराम को वासुदेव के ऊपर अनहद-अपार प्रेम होता है। श्रीकृष्ण भी प्रीतिपात्र युगपुरुष थे। लाखोंकरोड़ों जीवो के हितकारी थे, फिर भी वे बच नहीं पाये । बलराम का व्यामोह और दीक्षा : __बलराम पानी लेकर श्रीकृष्ण के पास आये, तब कृष्ण की मृत्यु हो चुकी थी। परंतु बलदेव मानने को तैयार नहीं थे कि कृष्ण मर गये हैं । ६ महीने तक श्रीकृष्ण को जीवित मानते हुए, उनके मृतदेह को उठाकर पृथ्वी पर फिरते रहे। उस समय बलराम का सारथि सिद्धार्थ, जो कि दीक्षा लेकर, संयम धर्म की अच्छी आराधना कर देव बना था, उसने अवधिज्ञान से देखा कि बलराम अत्यंत व्यथित हैं और कृष्ण को जीवित मानकर, उनका मृतदेह उठाकर फिर रहे थे । देव को याद आया कि मुझे बलराम ने दीक्षा की अनुमति देते समय मेरे से वचन माँग लिया था कि : तू चारित्रधर्म के प्रभाव से देवलोक में देव बने और जब मुझे आपत्ति आये तब तू आना और मुझे प्रतिबोधित करना । मुझे इस समय उनके पास जाना चाहिए और प्रतिबोध देकर, कृष्णमोह दूर कराकर, शान्त सुधारस : भाग १ १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy