________________
मन की बात भाँप गये । उन्होंने एक दिन अजीजान से कहा : मेरे जीवन का एक ही ध्येय है । अंग्रेजों को भारत-भूमि से मार भगाना । यदि सचमुच तुम मुझे प्यार करती हो तो मेरे इस श्रेष्ठ लक्ष्य में तुम्हें समर्पित होना पड़ेगा। अजीजान तैयार हो गई। किन्तु समर्पण इतनी सरल प्रक्रिया नहीं है कि उसे योंही निबाहा जा सके। अजीजान ने अपनी सारी संपत्ति स्वाधीनता संग्राम में लगा दी । स्वयं को गुप्तचर सेवाओं में समर्पित किया। अजीजान को भयंकर कपट एवं आपत्तियों का सामना करना पड़ा। किन्तु वह ध्येय के प्रति अविचल बनी रही ! सच्चे प्रेम की पवित्रता ने उसके हृदय की वासनाओं धो दी थी । एक नर्तकी का मन विषयलोलुपता से मुक्त हुआ तो उसने कितना महान् कर्तव्य निभाया ? एक प्रसंग वज्रस्वामी के जीवन का :
ऐसी ही, परंतु आध्यात्मिक – धार्मिक घटना, भगवान महावीर स्वामी के धर्मशासन में आचार्यश्री वज्रस्वामी के जीवन में घटी थी । वज्रस्वामी ज्ञानी थे, दैवी शक्ति के धारक थे और अति रूपवान थे । उस समय, एक नगर में एक श्रेष्ठी कन्या रुक्मिणी ने मनोमन संकल्प किया था कि मैं शादी करूँगी तो वज्रस्वामी के साथ करूँगी । उसके पिता श्रेष्ठी धनावह करोडपति थे। लडकी अति प्यारी थी । उसकी इच्छा पूर्ण करने का निर्णय किया । वे पिता - पुत्री नहीं जानते थे कि जैन साधु शादी नहीं करते हैं, स्त्री को छूते भी नहीं हैं ।
जब वज्रस्वामी उस नगर में पहुँचे कि जहाँ धनावह श्रेष्ठी रहते थे, धनावह को और उसकी पुत्री रुक्मिणी को मालुम हुआ कि वज्रस्वामी नगर के बाहर उद्यान में रुके हैं । श्रेष्ठी, पुत्री एवं करोडों की संपत्ति लेकर वज्रस्वामी के पास जाते हैं । वज्रस्वामी को नम्रता से प्रणाम कर धनावह कहते हैं : हे सत्पुरुष, यह मेरी पुत्री रुक्मिणी है । उसने जब से आप की प्रशंसा सुनी है तब से आपके साथ शादी करने का संकल्प किया है । मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी पुत्री का स्वीकार करें और इस संपत्ति का भी स्वीकार करें। - वज्रस्वामी ने मधुर वाणी में कहा : महानुभाव, हम जैन साधु हैं । हम शादी नहीं कर सकते । हमें ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना होता है । हमारा जीवनध्येय आत्मा की मुक्ति का है। कर्मबंधनों से आत्मा को मुक्त करने के लिए हम भीतरी संघर्ष कर रहे हैं। जब आत्मा मुक्त होगी, तब पूर्ण सुख की प्राप्ति होगी। हे श्रेष्ठी, तुम्हारी पुत्री का मेरे प्रति यदि विशुद्ध प्रेम है तो, जिस मुक्तिमार्ग पर मैं चल रहा हूँ, उस मार्ग पर वह भी चले । परंतु मुक्तिमार्ग पर चलने के लिए विषयलोलुपता का मन-वचन-काया से त्याग करना पड़ता है ।
प्रस्तावना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org