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________________ I संसार के इस स्वरूप का चिंतन करना है । चिंतन करोगे तभी यह 'संसारभावना' बनेगी । तभी संसार का मोह, संसार की आसक्ति टूटेगी । संसारभावना का यही प्रयोजन है । इस ग्रंथ के प्रारंभ में ही ग्रंथकार ने 'नीरन्ध्रे भवकान ने...' संसार को भयंकर जंगल बताया है ! आश्रवों के बरसते बादल बताये हैं, जंगल में फैली हुई कर्मों की लताएँ बताई हैं, मोह का व्यापक प्रगाढ़ अंधकार बताया है । इस प्रकार संसारस्वरूप का दर्शन करवा कर ज्ञानीपुरुष जीवों को संसार से विरक्त बनाना चाहते हैं । मोहासक्ति तोड़ना चाहते हैं । भ्रमणा के सुखों से जीवों को मुक्त करना चाहते हैं । संसारभावना के पहले श्लोक में ग्रंथकार उपाध्यायजी ने संसार को दो उपमाएँ दी हैं : * संसार जंगल में दावानल सुलग रहा है, * संसार के रेगिस्तान में मृगतृष्णा मरीचिका दिख रही है । लोभ का दावानल और विषयतृष्णा की मृगतृष्णा ! ये दो बातें बताई हैं । इन दो बातों पर चिंतन करना है । - लोभ का दावानल : दावानल उसको कहते हैं जो कभी नहीं बुझता । जब तक जंगल में लकड़ियाँ होती हैं तब तक दावानल जलता ही रहता है । लकड़ियों के साथ जो छोटेबड़े जीव आग की लपटों में आ जाते हैं, वे भी जल कर मर जाते हैं। लोभतृष्णाआसक्ति दावानल जैसी है। संसार में जीवों की विषयासक्ति, वैषयिक तृष्णा... विषयों का लोभ कभी शान्त नहीं होता है । 'लाभ' की लकड़ियाँ लोभ के दावानल को प्रज्वलित रखती हैं। जैसे जैसे विषयलाभ होता जाता है वैसे लोभ बढ़ता जाता है । 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है : जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढ | I जैसे जैसे द्रव्यलाभ होता जाता है, वैसे वैसे लोभ बढ़ता जाता है । लाभ लोभवृद्धि का कारण है । इच्छाओं का कोई अन्त नहीं होता है । इच्छाएँ अनन्त होती हैं । 'उत्तराध्ययन सूत्र के कापिलीय - अध्ययन में, 'कपिल' नाम के केवलज्ञानी स्वयं अपना दृष्टांत देकर समझाते हैं कि इच्छाओं का अन्त नहीं होता । एक दासी से प्रेम हो गया था, उसको संतुष्ट करने के लिए थोड़ा सोना लेने कपिल राजा के पास गये थे... परंतु एक करोड़ स्वर्णमुद्राओं की प्राप्ति से संसार भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only १८५ www.jainelibrary.org
SR No.003661
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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