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उपाध्यायश्री विनयविजयजी, पहली अनित्य भावना को 'पुष्पिताग्रा' छंद में गाते हैं :
वपुरिवपुरिदं विदभ्रलीलापरिचितमप्यतिभङ्गुरं नराणाम् ।
तदतिभिदुरयौवनाविनीतं भवति कथं विदुषां महोदयाय ? ॥७॥ शरीर की अनित्यता :
उपाध्यायजी सर्वप्रथम शरीर की अनित्यता बताते हैं । क्यों कि जीवात्मा को सब से ज्यादा शरीर के उपर प्रेम होता है । शरीर, अपना शरीर सब से ज्यादा प्रिय होता है । राग का, ममत्व का, आसक्ति का मुख्य केन्द्र शरीर होता है !
'शरीर कहें देहं कहें काया कहें या तन' कहें... सभी एकार्थक शब्द हैं । शरीरप्रेम, देहममत्व, काया-माया अथवा तन-आसक्ति... कुछ भी कहो अर्थ एक ही है। और यह शरीर प्रेम ही सभी पापों का, सभी दुष्कृत्यों का मूल कारण है । यह काया की माया ही अशान्ति, क्लेश और संतापों की जननी है ।। __ अज्ञानी मनुष्य, मूढ़ जीवात्मा शरीर को ही आत्मा मानता है । 'देहात्मभाव में ही जीता है । शरीर विनाशी है और आत्मा शाश्वत् है, अविनाशी है, यह सत्य उसने पाया नहीं होता है। इसलिए वह कभी शरीर की विनाशिता, क्षणभंगुरता, अनित्यता का विचार नहीं करता है ! जैसे कि शरीर शाश्वत् हो, अविनाशी हो, वैसा समझकर वह जीता है ।। ___ आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य अपनी आँखों से अनेक शरीरों को जलते हुए देखता है, जमीन में गड़ते हुए देखता हैं... पशुओं का भक्ष्य बनते देखता है, फिर भी वह अपने शरीर की करूणान्तिका का विचार नहीं करता है । और जब वह क्षण सामने आती है, शरीर को विनाश-क्षण आती है तब वह भयभीत हो जाता है, घबरा जाता है । अति दुःख का अनुभव करता है ।
किसी मासूम बच्चे की मृत्यु देखकर, किसी तरूण की या युवक की मृत्यु देखकर, यह शरीर पानी के बुलबुले जैसा क्षणभंगुर है, ऐसा विचार क्यों नहीं आता है ? भले ही शरीर यौवन के उन्माद से उन्मत्त हो, बलवान् हो, फिर भी एक क्षण में क्या वह मिट्टी में नहीं मिल जाता है ? संसार में ऐसे द्रश्य क्या नहीं दिखायी देते हैं ? फिर भी मूढ़ जीवात्मा का शरीर-मोह टूटता नहीं है ! यह बड़ा आश्चर्य है ! इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने सर्वप्रथम 'शरीर की अनित्यता, शरीर की क्षणभंगुरता
शान्त सुधारस : भाग १
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