Book Title: Puratana Prabandha Sangraha
Author(s): Jinvijay
Publisher: ZZZ Unknown
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002629/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिं घी जै न ग्रन्थ मा ला x=x=x=x= ॥ ग्रन्थांक २ ॥ ४४४४४ प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थसम्बद्ध पुरातन प्रबन्ध संग्रह KKE DALCANDJIS श्री डालचचजी सिघा सिंघी जैन ज्ञानपीठ * क ल क त्ता 卐 संस्थापक श्री बहादुरसिंहजी सिंधी EXEX सञ्चालक श्री जिनविजय मुनि [ मूल्य-साधारण प्रति ४-८-०; विशिष्ट प्रति ५-०-०.] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ・ Jam Education International स्वर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी जन्म वि. सं. १९२१, मार्ग वदि ६ स्वर्गवास वि. सं. १९८४, पोष सुदि ६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला -द्वितीय (२) मणि 0000000000 DALCANDJI SINGI श्री डालचन्द जी सिंघार आ.श्री. कैलाससागर मृरि ज्ञान मंदिर श्री महावीर जैन आरामदा सा. क्र. प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थसम्बन्ध पुरातन प्रबन्ध संग्रह Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, कथात्मक - इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध बहु उपयुक्त पुरातनवाङ्मय तथा नवीन संशोधनात्मक साहित्यप्रकाशिनी जैन ग्रन्थावलि। कलकत्रानिवासी खर्गस्थ श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी की पुण्यस्मृतिनिमित्त तत्सुपुत्र श्रीमान् बहादुरसिंहजी सिंघी कर्तृक संस्थापित तथा प्रकाशित सम्पादक तथा सञ्चालक जिनविजय मुनि अधिष्ठाता-सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन सम्मान्य सभासद-भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर पूना, तथा गजरात साहित्यसभा अहमदाबाद; भूत पूर्वाचार्य-गूजरात पुरातत्त्वमन्दिर अहमदाबाद; जैन वाङ्मयाध्यापक विश्वभारती, शान्तिनिकेतन संस्कृत, प्राकृत, पाली, प्राचीन गूर्जर आदि अनेकानेक ग्रंथ संशोधक-सम्पादक । ग्रन्थांक २ प्राप्तिस्थान संचालक-सिंघी जैन ग्रन्थमाला भारतीनिवास, नं०.१८, अहमदाबाद (गूजरात). " | सिंघीसदन, ४८, गरियाहाट रोड, बालीगंज, कलकत्ता. 'स्थापनाब्द सर्वाधिकार संरक्षित. [वि० सं० १९८६ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थसम्बद्ध पुरातन प्रबन्ध संग्रह प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थगत प्रबन्धोंके साथ सम्बन्ध और समानता रखनेवाले अनेकानेक पुरातन प्रबन्धोंका विशिष्ट संग्रह । - सम्पादक जिनविजय मुनि मूल पाठ विशेषनामानुक्रम-पद्यानुक्रमणिकादियुक्त प्रकाशन-कर्ता अधिष्ठाता-सिंघी जैन ज्ञानपीठ कलकत्ता विक्रमाब्द १९९२ ] प्रथमावृत्ति, एक सहस्र प्रतिः [ १९३.६ क्रिष्टाब्द Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SINGHI JAINA SERIES A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF MOST IMPORTANT CANONICAL, PHILOSOPHICAL, HISTORICAL. LITERARY, NARRATIVE ETC. WORKS OF JAINA LITERATURE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD VERNACULAR LANGUAGES, AND STUDIES BY COMPETENT RESEARCH SCHOLARS, FOUNDED AND PUBLISHED BY SRĪMĀN BAHADUR SINGHJI SINGHĨ OF CALCUTTA IN MEMORY OF HIS LATE FATHER SRI DALCANDJI SINGHİ. GENERAL EDITOR JINAVIJAYA MUNI ADHISTEĀTĀ: SINGHI JAINA JNĀNAPITHA, SANTINIKETAN. HONORARY MEMBER OF THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE OF POONA AND GUJRAT SAHITYA SABHA OF AHMEDABAD; FORMERLY PRINCIPAL OF GUJRAT PURATATTVAMANDIR OF AHMEDABAD; EDITOR OF MANY SANSKRIT, PRAKRIT, PALI, APABHRAMSA, AND OLD GUJRATI WORKS. NUMBER 2 TO BE HAD FROM SANCĀLAKA, SINGHI JAINA GRANTHAMÄLÄ BHARATINIVAS, ELLIS BRIDGE AHMEDABAD. (GUJRAT)) SINGHI SADAN, 48, GARIYAHAT ROAD, BALLYGUNGE, CALCUTTA Founded ] AU rights reserved [1931. A. D. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PURĀTANA PRABANDHA SANGRAHA - A COLLECTION OF MANY OLD PRABANDHAS SIMILAR AND ANALOGOUS TO THE MATTER IN THE PRABANDHACINTAMANI; INDICES OF THE VERSES AND PROPER NAMES: A SHORT INTRODUCTION IN HINDI DESCRIBING THE MSS. AND MATERIALS USED IN PREPARING THIS PART, ALONG WITH PLATES. BY JINAVIJAYA MUNI SINGHI PROFESSOR OF JAINA CULTURE AT VISVABHĀRATI SANTINIKETAN. ORIGINAL TEXT I. IN SANSKRIT AND PRAKRIT WITH INDICES OF THE VERSES AND PROPER NAMES. II. AN INDEX OF PROPER NAMES OF PRABANDHACINTAMANI. PUBLISHED BY THE ADHISTHĀTĀ-SINGHI JAINA JÑANAPITHA CALCUTTA. V. E. 1992 ] First edition, One Thousand Copies. [ 1936 A. D. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थकी प्रस्तुत आवृत्तिका संकलन । इस ग्रन्थका संकलन और प्रकाशन निम्न प्रकार, ५ भागोंमें, पूर्ण होगा। (१) प्रथम भाग. भिन्न भिन्न प्रतियोंके आधार पर संशोधित-विविध पाठान्तर समवेत-मूलग्रन्थ; १ परिशिष्ट; मूलग्रन्थ और परिशिष्टमें आये हुये संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषामय पद्योंकी अकारादिक्रमानुसार सूचि; पाठ संशोधनके लिये काममें लाई गईं पुरातन प्रतियोंका सचित्र वर्णन । (२) द्वितीय भाग. प्रबन्धचिन्तामणिगत प्रबन्धोंके साथ सम्बन्ध और समानता रखनेवाले अनेकानेक पुरातन प्रबन्धोंका __ संग्रह; पद्यानुक्रमसूचि; विशेष नामानुक्रम; संक्षिप्त प्रस्तावना और प्रबन्ध संग्रहोंकी मूल प्रतियोंका सचित्र परिचय। (३) तृतीय भाग. पहले और दूसरे भागका संपूर्ण हिंदी भाषान्तर । (४)चतुर्थ भाग, प्रबन्धचिन्तामणिवर्णित व्यक्तियोंके साथ सम्बन्ध रखनेवाले शिलालेख, ताम्रपत्र, पुस्तकप्रशस्ति आदि जितने समकालीन साधन और ऐति प्रमाण उपलब्ध होते हैं उनका एकत्र संग्रह और तत्परिचायक उपयुक्त विस्तृत विवेचन; प्राक्कालीन और पश्चात्कालीन अन्यान्य ग्रन्थों में उपलब्ध प्रमाणभूत प्रकरणों, उल्लेखों और अवतरणोंका संग्रह; कुछ शिलालेख, ताम्रपत्र और प्राचीन ताडपत्रोंके चित्र । (५) पञ्चम भाग, प्रबन्धचिन्तामणिग्रथित सब बातोंका विवेचन करनेवाली विस्तृत प्रस्तावना-जिसमें तत्कालीन ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक और राजकीय परिस्थितिका सविशेष ऊहापोह और सिंहावलोकन किया जायगा । अनेक प्राचीन मंदिर, मूर्तियां इत्यादिके चित्र भी दिये जायेंगे। THE SCHEME OF THE WORK OF PRABANDHACINTĀMAŅI [The work will be completed in five parts. ] Part I. A critical Edition of the original Text in Sanskrit with various readings based on the most reliable MSS.; An Appendix; An alphabetical Index of all Sanskrit, Prākrit and Apabhramba verses occurring in the text and the appendix; A short Introduction in Hindi describing the MSS. and materials used for the construction of the text along with plates. Part II. A collection of many old Prabandhas similar and analogous to the matter in the Prabandhacintāmaņi; Indices of the verses, and proper names; A short Introduction in Hindi describing the MSS. and materials used in preparing this Part, along with plates. Part III. A complete Hindi Translation of Parts I and II. Part IV. A collection of epigraphical records, viz. stone inscriptions, copper plates, colophons and Praśastis from the contemporary MSS.; all available historical data dealing with the Persons described or referred to in the Prabandhacintāmaņi along with a critical account in Hindi of the above, as also many plates. and A collection of authoritative referrences and quotations from other works. Part V. An elaborate general Introduction surveying the historical, geographical, social, political and religious conditions of that period; with plates. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Amolanddarduatemalendarmedamadardaradematrustrnstarratimated-ndradhemamlestandardarodemoradasterstematarnakimedia ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः॥ अस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ निवसन्त्यनेके तत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसदृशा धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सच्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः॥ बाल्य एवागतो यो हि कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्यां धृतधर्मार्थनिश्चयः ॥ कुशाग्रया खबुद्ध्यैव सद्वृत्त्या च सुनिष्ठया । उपाय॑ विपुलां लक्ष्मी जातो कोट्यधिपो हि सः॥ तस्य मन्नुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । पतिव्रता प्रिया जाता शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीबहादुरसिंहाख्यः सद्गुणी सुपुत्रस्तयोः । अस्त्येष सुकृती दानी धर्मप्रियो धियां निधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवताऽनेन प्रिया तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यदीपेन प्रदीप्तं यद्गृहाङ्गणम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्ति ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् बाहुर्यस्य हि दक्षिणः ॥ नरेन्द्रासंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुवीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः॥ अन्येऽपि बहवश्वास्य सन्ति स्वस्रादिवान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धोऽयं ततो राजेव राजते ॥ अन्यच्चसरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्येष सदाचारी तचित्रं विदुषां खलु ॥ न गर्यो नाप्यहंकारो न विलासो न दुष्कृतिः। दृश्यतेऽस्य गृहे वापि सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ भक्तो गुरुजनानां यो विनीतः सजनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽस्ति प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिज्ञोऽयं विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादिसाहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः ॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचारार्थ सुशिक्षाया व्ययत्येष धनं धनम् ॥ गत्वा सभा-समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदाङ्कितः । दत्त्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहयति कर्मठान् ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । करोत्ययं यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन खपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं यः कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग्-ज्ञानरुचिः परम् । तस्मात्तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थं यतनीयं मया वरम् ॥ विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदस्खमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थं स्थाने शान्तिनिकेतने । सिंघीपदाङ्कितं जैनज्ञानपीठमतीष्ठिपत् ॥ . श्रीजिनविजयो विज्ञो तस्याधिष्ठातृसत्पदम् । स्वीकर्तुं प्रार्थितोऽनेन शास्त्रोद्धाराभिलाषिणा ॥ अस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूयाति मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वञ्जनकृताल्हादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥ wolanetamoleedomskamstemstondondometamolenatamolometowolammamataonlonelawstametamokamediastamatouslemstonelammelanslamstemstonstamodamlomaharalentinuatustometimatemstonstemstonstimate Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः॥ antanslatemalonilonistamitemalanitamatamolanakamstondkamkandlanslamala स्वस्ति श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नानी पुरिका तत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमच्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः ॥ तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूत् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः ॥ मुञ्ज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन्महाकुले । किं वय॑ते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः ॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसंहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक्सौजन्यभूषिता ॥ क्षत्रियाणीप्रभापूर्णा शौर्यदीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्वैव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् ॥ सूनुः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरति प्रियः । रणमल्ल इति ह्यन्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहंसनामात्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः ।। अष्टोत्तरशताब्दानामायुर्यस्य महामतेः । स चासीद् वृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक्, कृतो जैनमतानुगः॥ दौर्भाग्यात्तच्छिशोर्खाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढेन ततस्तेन त्यक्तं सर्वं गृहादिकम् ॥ तथा चपरिभ्रम्याथ देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा कृत्वाऽऽचारान् सुदुष्करान् ॥ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्त्वगवेषिणा ॥ अधीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न-नूतनकालिकाः ॥ येन प्रकाशिता नैका ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः । लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः॥ यो बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च सत्कृतः । जातः स्वान्यसमाजेषु माननीयो मनीषिणाम् ॥ यस्य तां विश्रुतिं ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात्स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयशिक्षणालयः । विद्यापीठ इतिख्यातः प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ आचार्यत्वेन तत्रोचैनियुक्तो यो महात्मना । विद्वज्जनकृतश्लाघे पुरातत्त्वाख्यमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत्पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे यस्तत्संस्कृतिमधीतवान् ॥ तत आगत्य सँलग्नो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तः येन स्वराज्यपर्वणि ॥ क्रमात्तस्माद् विनिर्मुक्तः प्राप्तः शान्तिनिकेतने । विश्ववन्द्यकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते ॥ सिंघीपदयुवं जैनज्ञानपीठं यदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ॥ श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च यस्तस्य पदेऽधिष्ठातृसझके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् शोधयन् जैनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वजनकृताल्हादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥ SAMP Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारात्मा क्षमामूर्तिः साधुश्रेष्ठो गुणिप्रियः । यो मम परमः पूज्यो गुरुवत् , शिष्यवत्सलः ॥ यस्य शिक्षाप्रसादेन प्राप्ता मया विशिष्टदृक् । यया दृष्टो ग्रन्थराशिरीदृक् पौरातनो महान् ॥ सुगृहीतनाम्नस्तस्य प्रवर्तकशिरोमणेः । कान्तिविजयपादस्य पावने करपङ्कजे ॥ अनन्यभक्तिभावेन विनम्रशिरसा मया । पुरातनप्रबन्धानां संग्रहोऽयं समर्प्यते ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसंग्रह विषयानुक्रमणिका । प्रास्ताविक वक्तव्य प्रास्ताविक-टिप्पनीसूचितपरिशिष्टसंग्रह १. विक्रमार्कप्रबन्धाः . ६१ विक्रमार्कसत्त्वप्रबन्धः (B. ) S४ दरिद्रयप्रबन्धः ( B. BR ) S५ वीकमद्यूतकारप्रबन्धः ( B. ) ६६ स्त्रीसाहसप्रबन्धः ( B. ) ७ स्त्रीचरित्रप्रबन्धः (P.) Se देहलक्षणप्रबन्धः (B.. ) S९ मनि-मनुप्रबन्धः (B. B. ) ६११ विक्रमपुत्रविक्रमसेनसम्बन्धप्रबन्धः ( B. G. ) ६१२ विक्रमसम्बन्धे रामराज्यकथाप्रबन्धः ( B.P.G. ) $१३ C. संग्रहगतं विक्रमवृत्तम्....... २. ११९ सातवाहनप्रबन्धः (P.) .... .... USIAN G. संग्रहे सातवाहनसम्बन्धि गाथावृत्तम्. ०३. १२० वनराजवृत्तम्. (G). ४. ६२१ लाखाकवृत्तम्. ( G. ) ५. १२२ मुञ्जराजप्रबन्धः (P... ) ६. ६२४ श्रीमानतुङ्गाचार्यप्रबन्धः ( B. B. ) .... 9460 ४७. १२८ माघपण्डितप्रबन्धः (BR) .... .... ८. १३१ कुलचन्द्रप्रबन्धः (B. ) ९. १३२ षड्दर्शनप्रबन्धः ( B. BR ) १०. १३३ नीलपटवधप्रबन्धः (B. ) ११. ६३४ भोज - गाङ्गेययोः प्रबन्धः (B...) १२. १३५ भोजदेव - सुभद्राप्रबन्धः (B. ). ६ ६३६ G. संग्रहगतं भोजवृत्तम्. १३. ९४७ धाराध्वंसप्रबन्धः (B.. ) १४. १४९. सिद्धराजौदार्यप्रबन्धः, ( B. ).. .... .... **** www. For Private Personal Use Only 0000 www. .... .... .... www. .... .... www. .... Ge 6330 0900 8900 **** www. www. .... 0980 .... **** 9000 .... .... .... .... .... 8000 **** 9000 8000 .... 90.0 2000 0000 .... .... www. 3000 १-२५ २६-३२ १ २ m 4 "" ४ " ५ au&o am 23 * 21 2 ११ १२ .१३ १५ १७ १८ १९ " २० 17 27 २३ २४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ १५. ६५१ मदनब्रह्म-जयसिंहदेवानीतिप्रबन्धः ( B. ) १६. ६५३ श्रीदेवाचार्यप्रबन्धः ( BR. ) .... १७. ६५६ आरासणीयनेमिचैत्यप्रबन्धः ( P. ) .... १८. ६५७ फलवर्द्धितीर्थप्रबन्धः ( P. BR. ) .... १९. ६५८ मत्रिसान्तूप्रबन्धः ( B. BR. ) .... २०. १५९ मत्रिउदयनप्रबन्धः ( P.) .... २१. ६१ वसाहआभडप्रबन्धः ( B. BR. P.) २२. ६६२ मं० सज्जनकारितरैवततीर्थोद्धारप्रबन्धः ( P.) .... २३. ६६३ महं आंबाकारितगिरिनारपाजप्रबन्धः ( P.) .... ६६४ P. संग्रहे सोनलवाक्यानि..... ६६५ G. संग्रहे सिद्धराजसम्बन्धिवृत्तम्. ....... .... $७४ G. संग्रहे हेमचन्द्रसूरिसंबन्धिवृत्तम्. ...... २४. ६७९ कुमारपालराज्यप्राप्तिप्रबन्धः ( P.).... २५. ६८१ राणक आम्बडप्रबन्धः (P.). .... २६. ६८३ कुमारपालकारितामारिप्रबन्धः ( B. P.) २७. ६८४ कुमारपालदेवतीर्थयात्राप्रबन्धः ( B. ) . २८. ६८६ कुमारपालपूर्वभवप्रबन्धः ( B. ) .... २९. ६८७ द्वात्रिंशद्विहारप्रतिष्ठाप्रबन्धः ( BR. ) ८८ G. संग्रहे कुमारपालसम्बन्धिवृत्तम्. .... ३०. ६१०४ अजयपालप्रबन्धः ( P.) .... १०६ G. संग्रहगतं अजयपालवृत्तम्. .... ३१. ६१०८ धर्मस्थैर्ये सजनदण्डपतिप्रबन्धः ( B. ) ३२.६१०९ मत्रियशोवीरप्रबन्धः ( P.) .... .... G. संग्रहे यशोवीरोल्लेखः .... ३३. ६११२ विमलवसतिकाप्रबन्धः ( B.) .... ३४. ६११४ लूणिगवसहीप्रबन्धः ( B. BR. ) .... ३५. ६११५ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः ( B. BR. P. Ps. ) - ६१४९ P. संग्रहे वस्तुपाल-तेजःपालविशेषवर्णनम्. .... B. संग्रहे , , सम्बन्धिकाव्यानि..... ६१५८ G. संग्रहगतं, " " वृत्तम्. .... ६१७६ " " " " " वीरधवलवृचम्..... ६१७७" " वीसलदेववृत्तम्..... .... .... .... .... Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ ३६. १९८८ विश्वासघातकविषये नन्दपुत्रप्रबन्धः (B. ) १८९ G. संग्रहे नन्दनु पोल्लेख...... ३७, ९१९० वलभीभङ्गप्रबन्धः (P.) $१९३ G. संग्रहे वलभीभङ्गवृत्तम्. ३८. ११९६ श्रीमाताप्रबन्धः **** $१९७ G. संग्रहगतं श्रीमातावृत्तम्. ३९. ११९८ जगद्देवप्रबन्धः (G. ) ४०. ११९९ पृथ्वीराजप्रबन्धः (B. P . ) २०१ G. संग्रह पृथ्वीराजविषयकवृत्तम्. ४१. ९२०२ जयचन्द्र प्रबन्धः **** **** .... 0.00 **** .... .... .... .... www **** www. .... .... .... .... २०६ G. संग्रहे जयचन्द्रनृपवृत्तम्. .... ४२. १२०७ वराहमिहिरवृत्तम्. ४३. १२०८ नागार्जुनप्रबन्धः ४४. २१० पादलिप्तसूरिप्रबन्धः (B. ) २१३ G. संग्रहे पादलिप्तसूरिवृत्तम्. ४५. १२१४ अभयदेवसूरिप्रबन्धः ( B. BR ) ४६. ६२१६ वाग्भटवैद्यवृत्तम्. ( G. ) ४७, १२१९ रैवततीर्थप्रबन्धः (P.) ४८. ९२२० देव्यम्बाप्रबन्धः ( B. BR ) ४९. १२२१ उज्जयन्ततीर्थात्मकरणप्रबन्धः (P. ) ५०. ९२२२ वज्रस्वामिकारितशत्रुञ्जयोद्धारप्रबन्धः (P.) ५१. ९२२४ कपर्दियक्ष - जावडिप्रबन्धः (BR) ५२. ९२२५ लाखणराउलप्रबन्धः ( B. P . ) ५३. ९२२८ चित्रकूटोत्पत्तिप्रबन्धः ( P. ) ) ५४. १२२९ श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः (B ) ५५. ९२३१ सिद्धर्षिप्रबन्धः ( B. BR ) ५६. ६२३२ शान्तिस्तवप्रबन्धः (P.) ५७, १२३३ न्याये यशोवर्मनृपप्रबन्धः ( B. B. P . ) ५८. १२३४ अम्बुचीचनृपप्रबन्धः ( B. BR. P. ) ५९. ९२३५ विधिविषये उदाहरणम्. (P.) ६०. १२३६ परोपकारविषये उदाहरणम्. (P.) ६१. ९२३७ उद्यमविषये उदाहरणम्. (P.) **** .... .... **** **** .... .... **** **** 9500 .... .... .... .... 2230 .... .... 8000 .... .... 6000 .... www. .... www. For Private Personal Use Only .... .... .... .... 8000 4240 .... .... 3000 www. 2030 .... ...D .... 0000 www. www. 9300 **** .... .... 9000 **** .... .... 8.30 .... 9*** 2000 .... .... 0000 .... 1000 .... 3.2. .... .... .... www. .... B000 2000 0000 **** .... **** .... 2000 .... www. .... .... .... 0404 .... .... .... .... .... **** **** **** 1024 **** .... .... .... **** .... 8020 www. .... ८१ ८२ ८२ ८३ ८४ * 11 ८५ ८६ ८७ ૯૮ ९० 99 ९१ ९२ ९४ ९५ ९६ ९७ = 19 ९८ ९९ १०० १०१ १०३ 99 १०५ १०७ 19 १०८ १०९ ११० "2 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......... १११ . ११२-११५ ११६-१३४ ६२. ६२३८ दानविषये उदाहरणम्. ( P..) .... ...... .... ६३. ६२३९, कर्णवाराविषये उदाहरणम्. ( P.).... ... ........ .... ६२४० G. संग्रहगता अवशिष्टा प्रबन्धाः ........ ............. ६२५८ परिशिष्टम्-प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः .... ., G. संज्ञकसंग्रहस्यान्ते. पातसाहिनामावलिः, ......... .... P. संज्ञकसंग्रहस्सान्तिमोल्लेखः ............. ...... पुरातनप्रबन्धसंग्रहस्य अकाराद्यनुक्रमेण पद्यानुक्रमणिका पुरातनप्रबन्धसंग्रहान्तर्गतविशेषनाम्नां सूचिः प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थान्तर्गतविशेषनाम्नां सूचिः १३८-१५४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन प्रबन्ध सङ्ग्रह प्रास्ताविक वक्तव्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] [पुरातनप्रबन्धसंग्रह A (पशाप्रथादस्तिनावापबधशकामालानामनगरविवाशिनामियविक्रसमागरापना। नामाधाडानापानादातसमासस्याप्रतिभाणानामपन्नाशीनमधतिमासानिक्षत्र वनविद्यातामनायत विद्यादेवी आराध्यालापानियम संयामनयाराधितासाप्रद्यकी बपतिदावारा किंमत यंदावटियाक्तवाशावरा ययातीवाष्ठविद्या प्रायोश्रीकालकावाटो:तमतस्यविद्याधारानामगारावानिामा शिशस्त्रससंघनित मानगर यागत निक्रियाज्ञानावितसापादोदकं एि खतधाष्टिनालाधना सरसरिता गनाकारश्वयुरूपदवकालमर्वगाव शिधकामाखमागताप्रथिनाटा गधाम किमतशियनोक्तंशुमयादादक तयाधीत अद्ययुसवादि। पतगुरक्षयादर्थवादशकरांतरसुवाश्यांना समानधनादशानना सरितासात ययादानवतदक्षत्रामवितारसारखा सायकलयुसमकंदपातमन्नमय पनिकोमलयागिराखलायाछत्रायुश्चन्दानाव्यामयाचिकानिळसदनमगमत | ----"गुरुलिसवाकथयताअष्टित्वष्टामाश्रष्टिनाकालनागंरश्नमा सार्वग्रासनमंगलदोमवावसतिमागुरुसक्कासनवाहीलीभादसिनामतमाशारीराव यविणकामकललोकस्यूदाणात्यष्टिाधयमन्तिरारामनार्षदीहित मंडनानिधयम नि:यायाचितच्चालायिसविद्याजानबाकदाजन्नार्थप्रश्चापिताविहानागंतवालाच निालीन वारिलोकांवरिनमरीकानादापतित्याका मानचिनसमर्य्यिनानिावणिक जानेनाचिनमयानवरोमगरमध्यकता व्यवहामिलियsamanaaप्रियायोगानिममतिनिििवधिक खननवप्रियायाम्पानामावतानावयमालाकत्यानयनामिनयदेमा न हमनेनावणमादिनिका पिनगरम भातापायान्यायाबदाकायाताकणवारामपाककाताकनाधनमानकभित्रकला वारामतनस्य धावियताकदिवायगेहेमaulaम्पमा वामनावजवनयाकामयाकमधाममायाकाभकारीरलनाय लियाबाहनायरवनवितानगरमामलाममांकमवाजवलीकानाममातरम्यसमानयनाबविमधिनक रुखेन्पत्याला लाथाकायनमन्यानामावलिसमितस्पसवालवामिासमयातायकारव्यायामहाशपिनियतिमदनककारपिनेकरिति खनन वववक्लिबिवन्तलक हरहिमलालज्यसभापविनाशाकलवाराकविनायवहारिणवचारण्याकरिता पिनाशनाःतेमसभायातकवयंसाक्षी कातम्पनियाायारमनमायनामातव्यातनम्वनामउरालोकोविराज्यवतमममनिधि। गावाबावन्नामानिनायनानमारपिरजानिशानादितिरन्यासननिनवाaamaनाबालिगमा कानयिममर्पयामारानियाज्यालयामतेकरमा विशवराज पाल्पा निर्विवनितीनमष्टियो ग्या निरवानिमसविनानियावयासपनिमाकनारीख स्वजातीयतःसन्याँकर्मवाजमा सामाार्यवाहलाका परनाक मिशिपिरनानासाव्यविनायजामवर्यनागनानानिमार जी उपाधियनजदलनामान नियामोनल्लावीन गावाबउकसयाग । जास्वविहलमुत्लसरायकराबाहारामिरंगागिरनारकामानिमा सरिजमानामगाशाकामबरनटानासानाजनियानाजानारमारवमयाना क रमानवमीसगोलमा शिकंधिया हहिहिदिवलवासमामिन बंगासिगयमानेमनमोजिमबाहबनिश्वकएनाविवशनवनिमननाबमानवशानिशुमावश्नहोत्यकारकरिसिगमार R.लवार कमानिहरनणणगिरनारमानाहाकालरावणबानमकया गिरनाराबाहनराकराबाउलोगनरामयाणहरमहाराणा यानि पाजेमलवका कारयनिरुकाध्यमगियानिगममा रिहमणामावरमनायम्हालंारिबालाबासवगरगहायलग्यमन लमनोमनबहसपलायाश्कमिसनमुबमारतामयामावदान बढ़वारी-मारतानवासातीनेनरामालागावहिमित्तागव्या Jansamsuजिीम-श्रीमानवस्रयानमा हिना माहि-सामस्वभाज। समानावनायनाडमासामीगिरनारममाताब जापरलीज 130 माविबालविनश्यामिर१५ नो मायाकारणानामावदेवतासानगुणवहनमालककामाम दाराज योग्यसूशाला "का.११.२४ मिनस्वृत्तिककथाह सिविनापामारीमननियमनामामेछापानमधानानामहामाया विकाराकेन्वयकामाला लामोमाधाराबायकास/SHAवकिचिनकायकोवलमलमारिनामसहानदीननसेमंद हलासविमुकतानिगमाकनाहीवाससानाकादमवावासा वाढण्यासावकारागारनिवासचमोति विधायकविशिषशायरानायलसारमा निगमकथायामिकामालीनानामिप्यारालदिनानियवामि। माविलायलपसिधाकामयासहवारामुवाशधिकाम बिनबुधसिलवार सबसस्त्रामसत्तायांचा विaralgण जिवद्यानमा ससमय वितिक्रियावादवादिदेजात शिपातीयविधमहाविपीनायिशिलाहगारवामिानिसमावशिवनाविवरचाणायाभिाव दिलायनवावस्यविधानावराणमतवानकारखाननिशिराझा मिली मदिरामबावाणंगुलीसनाकादिवाकत मगिणीचकोनीमकार्यकारिठीमावाविमा शिवनवव स्वाशगजांवलिथलोहिन्दीमारिवानाको कालिमायशित शिवण्यासावधमारितामधवाविवयायोथिमिमाया रामmamaniansformemutnumनावट या मानि। नाशकापकब्जदिशवाराणसीरीनवटोलमश्तिीसद्विादशयोजना समायोजिएडमिजोराछुतचोयाबिसवाद्वारा उधकातितम्पकसि। दवीधरेमनीतियात्रीशयमगरवाया न्याधिशालामा वामहामवालीबाया मजलामरिणामाऽतिमापकदाध्यिमामिनामशविरार्दप्रति चावासमाययायागामयोगशिकरणीकानकासीवादमीमहाबिनिनवतम्यूदिकोणिदाकामिलसिनाबाविसापुरात विद्याधारानामुद्धि जमनामिनिकाययजनभायमिलिमाटवाकामावलिमसामयालेसयासिदिवास्यक्किनमोकदमीयत-मनामदिनी चित्रपामासावरील विश्वामिरेममाकी सयालयानिमिवथोलीसातनीकरणाननाती ममानितानानामुक्कामददिलपाटाकलतराविशतावधी दिसतायो विद्याचारोजामामायबतिभावामाणिवाही मनाम दिनराकथाांक्षायनसायहकारवादीवरचानावराणाधवलयदंगा। P संग्रह-पत्र १,३०, १२ के द्वितीय पृष्ठकी प्रतिकृतियां। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] [पुरातनप्रबन्धसंग्रह सचिनेविषानचयेनेवरगृहाशाजानेनघुनराजनानामहडम्बरमततोलनरईमानदंचयपोजायकोयपिनश्विासप्रेसनं नानपराकारायूलालदास्पाइदाजयनारानवनिरयलकास्नकालमानीदासप्तशेव्यांच्या विना निर्मादायल्पानिकवायसंप्रमनिया "भप्राय असावाहियदेवयममान सत्रहमदेशरिजानांच्यावकाशंजान शनिवात्सवसावन -1102 प्रवीवपल प्रबाशयावान श्री नारावाराणहिलपुरखवय्यस्यांगजन्मालाशचंड प्रसादमदनसुरुधियामंगस्नस्यसाम/आशाराजाच्य। Nag:दिलनवममकानागपञ्च निकशाकंवानल विषमलावरच्याद्याशाचनपश्वासपालनबंशसुपालान्य मिनायामासान स्यपचार सुचाममंत्रीरूणियामदेवोपरःश्वसुपालखती यशवजयानाव्यःसनासाकश्मा कश्माऊरधनादवाहसोहगायनेजुकाव्य कारखा वालदेवीनेषांक्रमादिमा सशसोदशाश्वम शानभुवनछिपिक्षानविनम्नमझानासटिकनान हिमानिमन्लाम वादसम्मा३श्रीवसुपालपनीलनसादेवीनिविऋनाजग निजि पलस्यप-नीवपमदेवानिसकांना लूलिगमनदेवावल्या बाबाजानो।आसरानमत्रीधवलकमामासानबचासकमः। मुनाबनापियवसायंकरुनधनाच्या प्रयन्तीयोगणकयानाकामिन पमानिनादेशसामनियमचरिग्रहेनाकास्मिानाया नियाज्यं विनधारात्यकिकारामिापदानिमावःसनलगाकरिष्मानायनानसमाया लिस्नमुनालणसाहनामा स्वकधावानिशमस्याइका नवीरमवारधवालोमानइनोलवणमादनवारममानामनुज्ञापित्यका महनायामाना व्यननिधनसिंहाकाईबिक नहलालवणाप्रसादात मारणायानस्ययाइसंध्यायांप्रविष्टाश्ताकाटुंबिका कानावकालिकाशेषावशिनाने । निकालाकारयामशिष्यविनासाहतोकोतयानिमाडको पिनविशनिइनोलवणप्रसारनचिनिनावानेनममकानाकामानापुरममन्त्रणमा अहबाट स्नेहवानासोनिकचंदन्याननिविनिन्य प्रकटोकालभतेनास्यचिनिः किमधीखतावठक्तनाचा परस्पर प्रीमिर्जानासनोनिनावादिद। बाप्रहित नासकमेतील घडीमामा कानारालिमादनासराज्यचिनी कन्नानुपमा विकलः अघलवणप्रसादेनजामा साथ दश बिलबईमा नभएकाईपारेखमीसारवशरस्यपानाशेसियदंचमहवपटरनपसिनादिचनमारकृत्यपारणकं करिष्यामिसिंघलेना निदेचनप्रक्झिनाःमाशांना स्वृषिना एकस्यनारानलेदेव नमस्कत्यानवाना हिनष्ठाःमानब शराविशयाका तानाज्ञानेनविणोगनिभाने अप्रविधानबाजानानामहाविदादश्रीसीसंधानमकन्यपश्चासगवनष्पाजीव गमात्रामाहाचा विचशिकिलावनी विजया छडरी किया करू-खंडोनामनयनिजोनसनीयानावसेश्यनियमदेवाजीचाहनानुनावानवविजानासाासाउवद्यार्षिकारमा शिदीकिनादेशानांवचीकाटिमायुप्रनिपाल्पवयति नितिन ब्यनारणावरानवखुपालालपमदेव्योग्रनिःप्रकारका इनिश्रावस्तुपाव लागुरुपायवालिविनोनपुनःनिबुग्यास सिचालकसहवचनकमाक्षिक किलपवानिया पंचकवानपंचकमिश्र पदनानवरविविविकानांवाला निवाघाटबावादिनी नामुखासनानांप्रमिनिस्वाधवानपोधनाना दिवानासहखशनमदा चदिगंबराएनिशादिमिश्राविकानीमराणाननास मामांचषशोसिमानाबानानिसनीलिमा गझनी चःसहवाथ उसमानामधारष्टा महागाधामःचानानिलकास्त्रघासननि मानवानांश्रिीचनुपालश्यकत्ताद्ययात्रासखायमानदकराननानामा anानिशीलताका कविजनउननीनारनीवस्तापुत्रीमा श्रीवसूणा कशालयनियमाका मननिवेद्या दामूकल्पहकपःसका। हलमुमनसानाधुजा साथिभोजपवरमामादनएलेजगनिध्यक्त निनारहाणीयायिावनिश्रीनिवासाहिदिनपरिसराकारनामा: शा वसपालकिनिभवसनियोधयन्यारवणाअस्पाअस्माकथुयानुरुषजनिनःको विचापलादीघानिःशवाशषलोक पूणरणनवास मामूलनामाननीयारामुरदमुवामान्यदधनिकारसचिवमविणे खडी श्रारखपालनवनावदान्यन नियममुका निकालिनिंदका निनिसवाधानप्रनापःपुनःनिर्विकामचिनिम्मर जिम महसांबुद्धिमताधिनायफजीचयनीहदानमसमंकाला दिनमासुजस्त्र किंचिन्ननवास्त्रियन गतः श्रीमहपालप्रिय।।१२महंप याशाचारेलालनी नंदयनार निकलवानाचि वशीकर्वनायकाताषयनामुनीसुदयनाचिनसनांजायनासंख. हितीकरानाभवनानसमुदामाशगदकानेवारतकामाझमालवमान मंगाक विष्णेयमलायाथ लंगतानानानीलामबाबमा भाकरासपनामाप्रशासखिमःस्वभमानाकाननाद्यामद्यवादिमानवमासमयानगासनवनापामय विश्वकर्थनापत पीयानाकारोकिळामारठाएकामपंचाबामखरामा निसिपना कासवानाकामयतालहवाका विष्णानिमानसावालाला नातनपुरूषामा मारिमा विद्यानिकामक्रामयाबीनभावनाशिनी निकालक्रयवक्षाका लाया नियामाची पानापानाप्रनिमगछमाताकी निचरोगपरचकना फिदिवास्या निमारस्यारवस्त्रविडीवसुसाश्वप्रनिछाजानीठानय यादवदेश यात्रा सार मिलापध्यानष असाथ -साधिनानिमीनिरिक्षकलाकारणासापानागुरुनाशकाचाशन लीलाकलिनी किलानेगाहावदामिप्रनाममा नवनि अचनियविनायतमा सामनामांशिवाहिक रसेवर ma-Bाम नियमिडया:सवमा सलामोनसमावरिलायमानधास्तावादियोरिणा सिवितारामहिवन छानिन्नामिकमन मिमिखयो सडकबाल कासलमाननगदेवसविस्वीमयताचविचारात निकितिपक्षमनसायमा सरणाचावडनमक्कादाजादेव रिचवतमान रितारा मकाईमिनरनिवमइसेही धारवाशिसिरियायवाउवासनिणयान स्थानकातहीन तुल अनवनवचिनामनामाशिवायदोबारामम्मीद्वारका धशासपायुप्मा विकाशानवशनारामनरखानाविनवाद्यावाणिलीनानामधिभरणादायमानिएकनाथासनिसकारायाचित महायोलमुराचारणागावूटनायाद्यानुमानारामवाडपापोडहावदिशायनापापक्षागारमा गम्पिोनीनानमयाबणकानदबाताव अत्यारिकासमानामा गुरुनिलकृणाबलो भयोधीप्टका मोहितपनोमव्हानाम्यवान नेहरादेमवनवकलास्वाद्याताकानाचीपरहीम Pटीक संकलनस्यापिलिनबासनानका मतिनातिनाधिनायरियासक्रमाश्रमदनसिवनम योरयावद्या कथाप्रसादं काम 78 B संग्रह-पत्र ३२ (प्रथमपृष्ठ ), ४१ (प्रथमपृष्ठ ), ७५ (द्वितीयपृष्ठ) की प्रतिकृतियां । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सिंघी जैन ग्रन्थमाला ] ga કાયાના રાસામી િસિાનીમાના અirnar) कवि की दिश सभ्यमिश्रान Toda न्या दिका यत्रयी दिनानिमिलिि उपाल सदावादावा पानामा पाश्रि ि जति विकारेका दिमा संविष्यति करके बिमाि निि लोनी निव n भनि हानमाला दावा करावा विविसी ट्रिक अ जमी तिम् ना नर्म अन्दा लिए क्षेत्र म काि वैशा वारा व्यवहारिकस अक्षतानारिकानिक यति નાનાં उद्यापास पाल महिला पाट विराणी माघाति राज यदि सामान माय य ग रा ३ भा menne राजा स्ववि ४ को नाम श्रीनामद नागविशदियो विकास श्रात नाशकाता क म किंतुजिश्रारणात निमाबि पो तिजुषा निरा समय श्रादवी श्री साम० विवदनं विलन्या सरायकेला तारादनादिना नानीमा श्रीदे पुष्यमिनि या बुडी ग य सारा गानुनाणिनि। उधर मर्वराराम यमाणानि स्वास् विद्या दामिना ग काशन मदाननावितामनदादाय दकियानकर्मी ज्याक्यात स रामद चिना पर लेखी आश्वीयतामा समीर पाना होग में बाबा न २ देश परोलि बेलाबामा विचाराना कार्म विसायेन विदि समारे कितमः स क विवि का जान समस यल ली थी श्री समराया का यो बालेर दास पापा को दिया जो जाबादिनाससंदक पापा ममुद्रोविरा दारा जलदः याद पनि दिनानी याच्यमानादानाकिया करार पारण करिक स्मार पिलं प्रस्ट पारिए पासितवममा सिके पनियादार वाता॥श्रीमयाबादी यानी सिद्धराजः सागर बनपरिगर्जा का सातवा कार्य का पुण्या यह निहार पाशन योजना साका वतीयस्थापकदानादिममदिन दान मिला पिलानायक यातानं दरि इनार सिग (कानालाई नरमादाविदले बादाम निहाल कर श्रीधनुमिदमुच बिलमा यात्रा तेन दिनरात दिया या विजकस्य निर्मलय वामदासी मामलो कालो समयमा किलार शिविरमा रुसमा लिंगिटक लिंग या पायजमन जेल निहिता हिलाल या विराया सोही काराको पानीमा मयाममा पिता द्वारा श्री काही निकषक निरीचगः समा पर लगा ऐसा 3)ज दातानुमोदि कट ५१०४ सम चलितः तथ नावनात [पुरातनप्रवन्धसंग्रह 33-Lennial दासासित विपत्तिः पतिः स्फुरति का एल र नीति यत्रातिप्राये वेतन यस्पडमा वृक्ष्यतेत्तस्पृहारोनलग निदान माग माता व्यत्तस्याददे विनययं नोब कोच रूमः खप नारासक्ताः परमे को पिनलभः एकदा कस्तो निरसरियामति श्रवणाचि निकोलास र्वष्ठतां गोल कोरा मो शिलाम्रद वा पितगोलक दया के तीर दिला करफाटयित्वा वादनामिति स्त्रायोजन पाहत एक चित्रणिपातयित्वा निरितसेनानि ज्ञानेन समंज रातले सर्वकमल खिलाने कारणहरु किन कुर्वन पालितः सूर्यः सचानक नावावर जाने प्रियनपुरादिमाक दिनादितः खादनात सर्वावलोकन विपुल कादिर्व एक पिताना मापन करते तदनना हेरेको निगमका निर कार्या एवं सम पाराय वयमपिता लिखनाकारिता एकसा भा चिंतयति ततः ततः कियनानि पि दोन तपासादिमा घाम नो नीद किंपुनःप्राः सोजन्या पति का दिशाविनापिविपरि प निजनि यमक्सर के सिया मूलकस्य राजा लिली लो म श्रीविनम येसूर ये सिद्धा याददी अन्यदाका विनश्यक यमनमा नाशि प्रिया राम निविदेतान जितेन वाले टेककेमाने मर्यापितः राजन देश मकस्थलणार थकवा राजाने चाण्यश्रीमय मा नदाला निद्यतनाएं घराकर किरा सपकालवाका नहर क महाशिकचा जिलाध भाजनतिर भित्र मक्किविदित भाषा फिनिक् मामामारुतामयेऽवस्तिभितनत्वाशितादातया मासिकः प्रका सर्वे प्रयासमा माहात्सर्वकं शिरपुरनाथः इति श काया यानि यहियान एकलये डिश चितै सोनी चैत मणिपाठ सति लबजाणी उपगार कांति प्रतिकार आद्य किंड न १-२ प्रबन्धचिन्तामणि संक्षेपके आद्यन्त पृष्ठ ३ B संग्रहका अन्तिम पृष्ठ । दियाश्कंद मतल कांही कमरेतो र नर ना प Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थमाला] [पुरातनप्रबन्धसंग्रह PURPRIMARHIROHRISPRIRAIPURNAMEntenामHEHEARTHRINARDAN JEEGREE साविकमासनायिकाकामिनिदातांताधिावानसकसमन्वमणिमाता कामामामाथिकवायायामानामागवावक्षया ताकायकायसनारयानादालागवछावाकधण्याचारगदानास्यवशातायाचितावासकाकभितायागभवनमानसमासपातालहरकाधमानाबाद द्विायषितरह शु गतामातालतम्रदिवासाभधातवाहलकदादिकाढलेताहयातिन्यापकानाराष्ट्रपश्यतिमधिमिवातनाशकाबERE साहात्याशखकाटाहकायाकपातासामवश्वासपातनावमाशवाहामन्यतयतिबोधमिनियमिापसादसेनानिनिया याचिधाताला तिवमाजाविधालगावलक्दाविलायांपादन] कथासाटनमावितायावदाराडारेक्षतावादासालानायतमनस्ववयन राधमानदक्षिकार्यकलाबालादितीयायातका सीमाहादिमित्रासातविकमारवाशांचा यशामायामाहासापालाल, वालामालियामाहौवनामीतिलकलादलीजेपी । वाचसामनाराकसम्यमारणकारयसिमकासाविसंघननीकारा निसिप्रापबनिका समाधानावनाहानमनाय्ययनरिकाड्यानविकीक साताकालदेविकामागिताताकहासकंपादशारिवामानाशिवाजविवाद सरायमाथामविसापासाचनाहरपायव्यतिबहावाहाक माइसीविकामालागतकोशलदामाराजानित्यमझा विपक्ष शखियाशिवायखनावकष्टाहप्रायासादियाममा माहता निराकीमाकपवमन्नासाकविकमाकदिधिकाला सागधि सितमशीयालयकदाधिकमाकोनिमशासच्यभवल्याटकंसकारहलादमीसंगतदायरकायावावाविद्यावदीयामिलिमामिचावर्तिनाति जमातलाशाशालीवधर्मशमनिवस्यानमालाधायाश्या सानिधानस्याधिदनावेतीमातारानागाजयकारातिएका पायोमुतसविडापाकाधराशायी संघधिवकलकारणवजावाटपादादा नकाराराप्रकारातिश्रावामारणायबितिमीसवपूर्वतनकादादविधाकाविसाजनाप्रशिक्षार्थमा हितलाईकाकासासमारगतामारजीचार्यगाहशाराजासमीपनगवशिष्टीममागनासावाससमीरगनाअनयमनकारशावकाचार्यकारणीधासमयी कालाननमाnिeताजलालाबारुकादीनासा बजानामइलाजीकाशसंपाइथएवासखाण अलावदाना 12HPIRIDमारादिदिनियातमारिकालावदीजपत्रमदावन साटिलिगामासंशराजीवकाशति नात टिटिशनखरमागधालावदीनवाबीन यासाहितिवर्षपराकोटलतासरावाणीधशादिवशिनकदुखद उपानसाडिनसरदीनोराजधामासराजांकाएसया-वापताइपछुशिक्षितीयांबरपालपुरमानान बलकामा निसरदसिंहलाम्पानदानपातसाहितिवर्ष राज्य दलणावतीनटारादरमागतसंस्खागावणमुरादनतरला प्रायागामास्तितितमात्राधास्वदिहितीयायामहमूदपानमारिजाताविषयमराज्यनाबारामाजावर कापन्जवाबशावातमादिपराजनामाजनिभाला नमोनि याडयन G संग्रह-आदि और अन्तके पृष्ठों की प्रतिकृतियां । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । ६१. प्रबन्धचिन्तामणिसम्बद्ध पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह रातन-प्रबन्ध-सङ्ग्रह नामका यह ग्रन्थ प्रबन्धचिन्तामणिके द्वितीय भागके रूपमें प्रकाशित किया जा रहा है, इसलिये इसका पूरा नाम हमने 'प्रवन्धचिन्तामणिसम्बद्ध-पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह' ऐसा रखा है। प्रबन्धचिन्तामणिके सम्पादन करनेका जबसे हमने सङ्कल्प किया, तभीसे उसके साथ सम्बन्ध रखनेवाली, साहित्यिक और ऐतिहासिक, सब प्रकारकी यथाप्राप्य साधन-सामग्रीके सङ्कलित करनेका प्रयत्न शुरू किया। भिन्न भिन्न प्रकारके और भिन्न भिन्न विषयके जैन ग्रन्थोंका अवलोकन करते हुए, हमने देखा कि कई उपदेशात्मक और कथात्मक ग्रन्थों में भी इस विषयकी कितनी ही सामग्री छुपी हुई पडी है। कई ग्रन्थ, जिनका मुख्य विषय तो है आचारप्रतिपादक, लेकिन उनमें भी, इस प्रकारकी कुछ इतिहासोपयोगी बातें लिखी हुई मालूम दीं। इसलिये हमने सोचा कि यदि यह सब सामग्री, चाहे उसमें कुछ अधिक विशेषता या नवीनता न भी हो, उन उन ग्रन्थों में से चुन चुन कर एकत्रित की जाय और उसे एक संग्रहके रूपमें प्रकट कर दी जाय, तो इस विषयके विद्वानों और विद्यार्थिओं-दोनोंको संशोधनादि कार्य करनेमें बहुत कुछ सरलता और नवीनता प्राप्त हो सकेगी। इस विचारसे प्रेरित होकर, हमने उन उन ग्रन्थोंमेंसे इस सामग्रीको, एक एक करके चुनना शुरू किया। हमारी पूर्व कल्पना थी कि इस सामग्रीको, प्रबन्धचिन्तामणिके परिशिष्टके रूपमें, उसी ग्रन्थके अन्तमें, दे दी जायगी। लेकिन एकत्रित करते करते हमें वह सामग्री इतनी विस्तृत मालूम देने लगी कि जिससे उसको, प्रबन्धचिन्तामणि ही जितने बडे, अलग ग्रन्थ के रूपमें, दूसरे भागके तौर पर, निकालनेका निश्चय करना पडा । उस निश्चयानुसार, प्रस्तुत द्वितीय भाग उस सामग्रीसे समलङ्कृत होता; लेकिन पाठक देखेंगे कि इसमें वह सामग्री भी नहीं है। इसमें जो सामग्री उपस्थित की जा रही है वह उससे भिन्न संग्रह ग्रन्थोंमेंकी है; और वह सामग्री, अब इसके बादके ग्रन्थमें, तीसरे भागमें, प्रकाशित होगी। ऐसा होने में कारण यह है कि-ज्यों ज्यों हम इस विषयमें अधिक खोज करते गये त्यों त्यों हमें कुछ और भी अधिक उपयुक्त और स्वतंत्र ग्रन्थात्मक कितनीक सामग्री प्राप्त होने लगी। पाटण, पूना, भावनगर, अहमदाबाद, राजकोट वगैरह स्थानोंसे हमें कुछ ऐसे पुराने ग्रन्थ मिल आये, जो खास कर प्रबन्धचिन्तामणि-ही-के ढंगके स्वतंत्र संग्रहरूप मालूम दिये, लेकिन जिनमें कर्ता वगैरहका कोई उल्लेख नहीं पाया गया। इनमें कोई कोई संग्रह तो बहुत पुरातन मालूम दिये-शायद प्रबन्धचिन्तामणिकी रचनासे भी पुरातन । जब हमने इन संग्रहोंका परस्पर मिलान करके देखा तो, इनमें कुछ प्रकरण तो ऐसे मिले जो एक दूसरे संग्रहके साथ शब्दशः साम्य रखते हैं। कई प्रकरण परस्पर न्यूनाधिक वर्णनवाले मालूम दिये । कोई प्रकरण किसी में कुछ पाठ-फेर वाला है, तो कोई किसीमें कुछ भाषा-भेद वाला है। और, कितनेएक प्रकरण एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न भी हैं और नवीन भी हैं। इनमें कोई कोई प्रकरण ऐसे भी दिखाई दिये जो प्रबन्धचिन्तामणिगत उस प्रकरणके साथ सर्वथा एकता रखते हैं। कुछ प्रकरण ऐसे हैं जो प्र० चिं० में तो नहीं हैं लेकिन प्रबन्धकोशमें हैं। और कोई कोई प्रकरण प्र. चिं. या प्र० को० की पूर्तिके लिये ही लिखे गये हों ऐसे मालूम देते हैं। इस प्रकारके इन संग्रहोंमेंसे, हमने कुछ पूर्ण और कुछ अपूर्ण ऐसे समूचे ५ संग्रहोंका प्रस्तुत ग्रन्थके लिये, पृथक् तारण किया है । इनमेंके प्रायः बहुतसे प्रबन्धों या प्रकरणोंका सम्बन्ध, किसी-न-किसी रूपमें प्र. चिं. के साथ है। जो कुछ थोडेसे प्रकरण ऐसे भी हैं जिनका सीधा सम्बन्ध उक्त ग्रन्थके साथ नहीं है, तथापि उनका रंगढंग और पु.प्र. प्रस्ता. १ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह विषय-वर्णन उसी प्रकारका है। इसलिये हमने उनको भी, अलग न निकालकर उनके सजातीय प्रकरणों के साथ, इस संग्रहमें शामिल ही रखना उपयुक्त समझा है । इनमेंसे कुछ तो ऐतिहासिक प्रकरण हैं, जो, चाहे जिस दृष्टिसे महत्त्वके ही गिने जाते हैं; और कुछ लोककथात्मक हैं जिनका विशेषत्व, हमारे देशके प्राचीन सामाजिक संस्कार और लौकिक व्यवहारकी दृष्टिसे, अवश्य ही अनुशीलनीय है। ६२. संग्रह ग्रन्थोंका सामान्य परिचय , पाठक देखेंगे कि, प्रस्तुत ग्रन्थके, प्रथम पृष्ठ पर, शिरोलेखके नीचे ही चतुष्कोण रेखाके भीतर [P. B. Br. G. Ps. सज्ञकसङ्ग्रहग्रन्थेभ्यः सङ्ग्रहीतः] ऐसी पंक्ति हमने लिखी है। इसका अर्थ यह है कि इस पुरातनप्रबन्धसंग्रहमें जितने प्रबन्ध या प्रकरण हैं, वे, जिनको हमने P. B. Br. G. Ps. ऐसी संज्ञा दी है उन पुराने लिखे हुए संग्रह ग्रन्थों परसे सङ्कलित किये गये हैं । इन संग्रहोंमें ये सब प्रकरण या प्रबन्ध, उस क्रममें नहीं लिखे हुए हैं जिसमें हमने उन्हें यहां छपवाया है । यहां पर जो इनका क्रम दिया गया है वह प्रबन्धचिन्तामणिके अनुसरणके रूपमें है । प्र० चिं० में जो प्रबन्ध या प्रकरण जिस क्रममें आया है उसी क्रममें हमने इन प्रकरणोंको मुद्रित किया है। यह भी ध्यानमें रहे कि ये सब प्रकरण सभी संग्रहों में नहीं मिलते। कोई प्रकरण किसी संग्रहमें मिलता है तो कोई किसीमें । कोई कोई प्रकरण एकाधिक संग्रहमें भी मिलता है । एवं कोई प्रकरण एक संग्रहमें एक ढंगसे लिखा हुआ मिलता है तो दूसरे संग्रहमें दूसरे ढंगसे । इस प्रकार इन ५ संग्रहोंमें परस्पर जितनी समानता है उतनी ही विभिन्नता भी है। एक हिसाबसे ये न एक-कर्तृक हैं, न एक-कालिक हैं, न एक-क्रमिक हैं । तथापि हैं ये सब समान-उद्देशक और समान-विषयक । इनमें से कौन प्रकरण, किस संग्रहमें मिलता है उसका ज्ञापन करानेके लिये, प्रत्येक प्रकरणके शिरोलेखके साथ, P. B. G. आदि तत्तत् संग्रहका निर्देशक सङ्केताक्षर दे दिया है । एकाधिक संग्रहमें जो कोई प्रकरण मिला और यदि उसमें कुछ पाठ-भेद प्राप्त हुआ तो उसे हमने या तो पाद-टिप्पनीमें उद्धृत कर दिया है, या प्रचलित पंक्ति-ही-में, चतुष्कोण रेखावृत करके, प्रक्षिप्त कर दिया है । अर्थानुसन्धानका ठीक विचार कर, जहां जैसा उचित मालूम दिया वहां वैसा किया गया है। ३. संग्रह ग्रन्थोंका विशेष परिचय . (१) P संज्ञक संग्रह-संघके भण्डारके नामसे पहचाने जानेवाले पाटणके प्रसिद्ध जैन ग्रन्थागारमेंसे प्राप्त ३० पन्नोंका यह एक बहुत जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थ है। वर्तमानमें, इसकी प्राप्ति हमें, विद्याविलासी साहित्योपासक मुनिवर श्रीपुण्यविजयजीके द्वारा हुई है इसलिये इसका संकेत हमने, पाटण और पुण्यविजयजी दोनोंकी स्मृतिमें, P अक्षरसे किया है । इस प्रतिका दर्शन सबसे पहले हमको कोई सन् १९१४ - १५ में हुआ था जब हमने पाटणके उक्त भण्डारके सब ग्रन्थोंका, एक एक करके, सूक्ष्म अवलोकन किया था और प्रशस्ति आदि ऐतिहासिक साधनोंके, सर्व प्रथम, टिप्पन करने शुरू किये थे। यह प्रति उस समय, उक्त भण्डारमें यों ही अनुल्लिखित-सी और अज्ञात-सी पडी थी । हमने इस पर रेपर वगैरह चढाकर और उस पर प्रबन्धसंग्रह ऐसा नाम लिख कर व्यवस्थित रूपसे रख दिया । तब हमें यह खयाल नहीं था कि भविष्यमें, किसी दिन, इस प्रबन्धसंग्रहका हमारे ही हाथसे, ऐसा समुद्धार होगा। हमें इसकी स्मृति भी नहीं रही । पीछेसे, जब हमने इस सिंघी जैन ग्रन्थमालाका प्रारम्भ किया और उसमें प्रबन्धचिन्तामणि-ही-को पहले हाथमें लिया तब, हमारी प्रार्थना पर उक्त मुनि श्रीपुण्यविजयजीने और और ग्रन्थोंके साथ इस संग्रहको भी भेज दिया, जिसकी प्राप्ति हमें एक बहुमूल्य रत्नके जितनी प्रीतिकर प्रतीत हुई। इस संग्रहको मुख्य रख कर ही हमने इस प्रस्तावित संग्रहका संकलन करना आरंभ किया। ... इस प्रतिके कुल ३० पन्ने हैं। पहले पन्नेकी पहली पूंठी बिना लिखी-कोरी रखी गई है । दूसरी पूंठीके दाहिने भागपर ३३ इंच चौडाई और ४३ इंच लंबाई वाला, जिनप्रतिमाका एक बहुरंगी चित्र आलेखित है । पाठकोंको Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । ३ इस चित्रके दर्शनका प्रत्यक्ष लाभ हो इसलिये हमने, पन्ने के अतिरिक्त, चित्रकी पूरी नापका भी एक हाफ्टोन ब्लॉक अलग बनवा कर उसकी छबी इसके साथ दे दी है । तदुपरान्त, १ ले, १२ वें और अन्तिम ३० वें पन्नेकी द्वितीय पृष्ठि ( पूंठी ) के चित्र भी हम साथमें दे रहे हैं जिससे इस प्रतिके अक्षर, पंक्ति और लिखावट आदिकी, पाठकोंको प्रत्यक्षवत्, ठीक ठीक कल्पना हो सके । प्रतिके पन्नोंकी लंबाई प्रायः १२ इंच और चौडाई ४३ इंच है । पंक्तियों और अक्षरोंका परिमाण सब पन्नोंमें एक-सा नहीं है । किसी पृष्ठ पर १३ पंक्तियां, किसी पर १४, किसी पर १५ और किसी किसी पर १९-२० तक हैं । अन्तिम पृष्ठपर लिपिकर्ताने जो अपनी परिचायक पंक्ति लिखी है उसे हमने ग्रन्थान्तमें, पृष्ठ १३६ पर, मुद्रित कर दिया है । इस पंक्तिके लेखसे मालूम होता है कि‘संवत् १५२८ वें वर्षके मार्गसिर मासकी १४ - वदि या सुदि सो नहीं लिखा- सोमवार के दिन, कोरण्ट गच्छके सावदेव सूरके शिष्य मुनि गुणवर्धनने, मुनि उदयराजके लिये इसकी प्रतिलिपी की' । लेकिन प्रतिका साद्यन्त अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि यह पूरी प्रति मुनि गुणवर्धनकी लिखी हुई नहीं है । इसकी लिखावट दो तीन तरहकी मालूम दे रही है । प्रथम पत्रसे लेकर १५ वें पत्रके प्रारम्भकी दो पंक्तियों तककी लिखावट किसी दूसरेके हाथकी है - और फिर उसमें भी दो तरहकी कलम मालूम देती है- और उससे आगेकी सब लिखावट मु गुणवर्धन हाथी है । प्रतिका लेख कुछ अव्यवस्थित और अशुद्धप्राय है । कहीं कहीं त्रुटित भी है । कई स्थलों पर लिपिकर्ताने अक्षरों तथा पंक्तियोंकी पूर्तिके लिये'. .' इस प्रकारकी अक्षरशून्य कोरी जगह रख छोडी है । ७ पकी दूसरी पृष्ठि पर तो पूरी ४-५ पंक्तियां ही इस प्रकार खाली रखी हुई हैं। इससे दो बातें सूचित होती हैं - एक तो यह कि यह पूरी प्रति एक साथ और एक हाथसे नहीं लिखी गई; इसका प्रारंभ किसी दूसरेने किया और समापन किसी दूसरेके हाथसे हुआ। दूसरी बात यह है कि इसका मूल आदर्श भी कोई एक ही संग्रह न होकर जुदा जुदा दो तीन संग्रह होने चाहिए । सिवा इसके, मूल आदर्शोंमेंसे कोई प्रति ऐसी भी मालूम देती है जो त्रुटित या खण्डित हो । ऐसा होना यह ज्ञात कराता है कि वह प्रति तालपत्रात्मक होनी चाहिए और उसका कुछ अंश नष्ट-भ्रष्ट और कोई पत्र विलुप्त हो गया होना चाहिए । तालपत्र लिखित पुरातन ग्रन्थों में प्रायः ऐसा होता रहता है । उनके उद्धार स्वरूप, जो पीछेसे कागज पर ग्रन्थ लिखे गये, उनमें ऐसे खण्डित या त्रुटित भागकी सूचना करनेवाले अनेक रिक्त स्थान, जिस उस ग्रन्थमें देखे जाते हैं। इसके उपरान्त, यह प्रति भी बहुत जीर्ण दशाको प्राप्त हो गई है और प्रायः प्रत्येक पन्नेका, बायें ओरका, ऊपरका कुछ हिस्सा, जो या तो आगसे कुछ जल गया हो या पानीसे कुछ सड गया हो, नष्ट हो रहा है । इससे हमको तत्तत् स्थलोंपर कुछ अक्षर या शब्द और भी अधिक छोड देने पडे हैं । पृष्ठ ११.१४.३४.३५.४१.४८.५० आदि पर जो पंक्तियोंके बीच बीचमें '.. . 'ऐसे अक्षरच्युत बिंदुमात्र वाले पंक्त्यंश रखे गये हैं वे इसी बातके सूचक हैं । इस प्रतिका आयुष्य अब बहुत नहीं है । इसके लिखनेमें जो स्याही प्रयुक्त हुई है उसमें क्षारकी मात्रा बहुत अधिक होनेसे वह कागजको पूरी तरह खा गई है । जितनी दफह इसे हाथ लगाया जाता है उतनी ही दफह इसके कागजके टुकडे खिरते जाते हैं और पन्ने टूटते जाते हैं । सिर्फ प्रारम्भके ५-७ पन्ने कुछ ठीक हालत में हैं; पिछले पन्नों की स्थिति उत्तरोत्तर खराब हो रही है । १४. P संग्रहका आन्तर परिचय हम ऊपर लिख आये हैं कि, प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रबन्धों या प्रकरणोंका जो क्रम दिया गया है वह मूल संग्रहोंके क्रममें नहीं है । यहां पर हमने उनको प्र० चिं० के क्रममें मुद्रित किया है । मूल संग्रहोंमें, वे इससे भिन्न रूपमें, आगे पीछे, लिखे हुए हैं। प्रस्तावित संग्रहका क्रम कैसा है, और कौन प्रकरण किस पन्नेमें, कहांसे प्रारंभ होता है और कहां समाप्त होता है, इसका दिग्दर्शन करानेवाली सूची नीचे दी जाती है जिससे संग्रहगत प्रबन्धक्रम, और उसका आन्तरिक परिचय भी, पाठकोंको ठीक ठीक हो जायगा । For Private Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रा० एस० ४१-४२ ३४ १०...२...१० Alle kl kl १८ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह P संज्ञक प्रतिमें लिखित प्रकरणानुक्रम प्रस्तुत ग्रन्थमें मुद्रित-क्रम प्रबन्धनाम पत्र.पृष्ठि.पंक्ति प्रबन्धक प्रकरणांक पृष्ठांक १ *पादलिप्ताचार्य प्रबन्ध प्रा० १...२...१ स० ३...१...१४ २ *रत्नश्रावक प्रबन्ध प्रा० ३...१...१४ स० ५...२... ६ ३ उज्जयन्ततीर्थआत्मकरण प्र० (प्रा० ६२२१ स० ६...१...१२ ४ मुञ्जराज प्रबन्ध ६.......१२ ७...२...६ ५ २२-६२३ १३-१५ ५ अमारिविषये कुमारपाल प्र० प्रा० .२... ७ स० ८...१... ५ ६८३ ६ राणकआंबड प्रबन्ध प्रा० ८...१... ५ स० ९...२... ७ ६८१-८२ ७ रामराज्योपरि कथा प्रा० ९...२... ७ स७ १०...१... ७ ६१२ ८-९ रैवततीर्थोद्धार तथा पाज प्रबन्ध {प्रा० २०....... २२ स० १०...२...१० २२-२३ ६६२-६६३ १० आरासणसत्कनेमिचैत्य प्र० स० ११...१... ७ ११ रैवततीर्थ प्रबन्ध प्रा० ११...१... ७ स० ११...२... ३ ६२१९ १२ फलवर्द्धिकातीर्थ प्रबन्ध प्रा० ११...२...३ स. ११...२... ९ ६५७ १३ पृथ्वीराज प्रबन्ध प्रा० ११...२...१० स. १२...२... ९ ४० ६१९९-१२०० ८६-८७ १४ जयचन्द प्रबन्ध प्रा० १२...२... ९ ४१ ६२०२-२०५ ८८-९० स० १४...१...८ १५ शत्रुञ्जयोद्धार प्रबन्ध प्रा० १४...१... ८ ५० ६२२२-१२२३ स० १५...१...२ १६ मंत्रियशोवीर प्रबन्ध प्रा० १५...१...३ ६१०९-६११० स० १६...१... ७ ४९-५१ १७ सातवाहन प्रबन्ध प्रा० १६...१... ८ स० १६...२... ६ १८ शान्तिस्तव प्रबन्ध प्रा० १६...२.... स० १७...१...२ ६२३२ * ये दोनों प्रबन्ध, राजशेखर सूरिके प्रबन्धकोशमेंके हैं। पिछले प्रबन्धके अन्तमें उल्लेख है कि रत्नश्रावकप्रबन्धो विसर्जिताः (तः?) श्रीराजशेखरसूरिभिर्मलधारिगच्छीयर्विरचितः।' प्रबन्धकोशमें आ जानेसे अर्थात् ही हमने इनको प्रस्तुत ग्रन्थमें स्थान देना अनावश्यक समझा। इस कथाके बाद, सिद्धराजकी स्तुतिविषयक निम्नलिखित सुप्रसिद्ध श्लोक लिखा हुआ है महालयो महायात्रा महास्थानं महासरः। यत्कृतं सिद्धराजेन क्रियते तन्न केनचित् ॥१॥ इसके बाद वे दो तीन पंक्तियां लिखी हुई हैं, जो प्रस्तुत संग्रहमें, विक्रमप्रबन्धके १० वें प्रकरणमें हमने (पृष्ठ ५, पंक्ति १९-२३) दी हैं । इसमें प्रारम्भकी पंक्ति 'अन्यदा एकं पण्डितं द्विजं कणावचयं कुर्वाणं विक्रमादित्यः प्राह-।' इस प्रकार है; और दोनों गाथाओंमें कुछ थोडासा पाठ-भेद भी नजर आता है। इस प्रतिमें ये गाथाएं इस प्रकार हैं निअउअरपूरणम्मि असमत्था किं च तेहिं जाएहिं । सुसमत्था जे न परोवयारिणो तेह(हिं)वि न किंचि ॥१॥ तेह (हिं)वि न किंचि भणिए विक्कमराएण देवदेवेण । दिन्नं मायंगसयं एगा कोडी हिरण्णस्स ॥२॥ । * विक्रमके साथ सम्बन्ध रखनेवाले, जितने प्रकरण हमको इन संग्रहोंमें मिले, उन सबको हमने, इस ग्रन्थमें, 'विक्रमप्रबन्ध' ऐसा एक मुख्य शिरोलेख दे कर, उसके अवान्तर प्रकरणों के रूप में सङ्कलित किया है । इसलिये यह 'रामराज्योपरि कथा'वाला प्रस्तुत प्रतिमेंका प्रकरण भी, इस १ संख्यावाले मुख्य प्रबन्धके अन्तर्गत एक प्रकरण-खण्ड है। ऐसा ही आगे भी वस्तुपाल आदिके प्रबन्धमें समझना चाहिए। इस प्रबन्धके बाद, एक वह श्लोक लिखा हुआ है जिसमें, सिद्धराजने देवसूरिके कथनसे सिद्धपुरमें, एक चतुर्दारवाले जैन मन्दिरके बनवानेका उल्लेख है। प्रस्तुत प्रन्थमें, वह श्लोक (क्रमांक ९६) पृष्ठ ३० पर, मुद्रित है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । ५८-६९ {प्रा० २०........ . . . १०९-११० १९ शत्रुञ्जय माहात्म्य प्रबन्ध प्रा० १७...१...३ ६१२२-६९४८ स० २०...१...१४ - [वस्तुपाल प्रबन्धान्तर्गत उत्तर भागा] २० लूणिगवसही प्रबन्ध प्रा० २०...१...१४ xx स० २०...१...१८ २१ मयूर सर्प प्रबन्ध (प्रा० २०...१...१८ स० २०...२... ५ २२ मंत्रि उदयन प्रबन्ध प्रा० २०...२... ५ स० २१...१... ६ २३ वसाह आभड प्रबन्ध प्रा० २१.......६ २१ ६ ६१ ३३ स० २१...२...२ २४ श्रीमाता प्रबन्ध (प्रा० २१...२...२ __३८ १९६ ८४ स० २१...२...२० २५-२६ तारणगढप्रासादरक्षण तथा {स. २२...२... ९ प्रा० २१...२...२० ४७-४८ अजयपाल प्रबन्ध २७ वस्तुपाल प्रबन्ध [१] आशराज प्रबन्ध' प्रा० २२...२...१२ स. २२...२...१७ [२] वस्तुपाल प्रबन्धान्तर्गत पर्वभाग प्रा० २२...२...१८ ३५ ११७-६१२२ स० २४...२... ७ [३] वस्तुपाल प्रबन्धगत परिशिष्टात्मक-/प्रा० २४...२...." ६९-७१ रस० २५...१...१८ ___ अन्तिम वर्णन २८ विधिविषयक उदाहरण प्रा० २५...२...१ ६२३५ स० २६...१... ७ २९ स्त्रीचरित्र प्रबन्ध प्रा० २६...१.... स. २६...२...२ [विक्रमचरित्रान्तर्गत] || इस प्रबन्धका समावेश वस्तुपाल प्रबन्धके अन्तर्गत होता है। यह इस जगह बिना किसी पूर्वसंबन्धके यों ही शुरू होता है। इसका आदि वाक्य 'श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं लिख्यते' ऐसा है और उसके बाद, फिर वे सब पद्य लिखे हैं जो इस संग्रहमें १५७ से लेकर १६५ तकके क्रमांकमें दिये हुए हैं। इसके बाद, उसीके आगेके १२३ वें प्रकरणवाला वर्णन चालू होता है जो आखिरमें १४८ वें प्रकरण साथ, समाप्त होता है। यह एक प्रकारसे वस्तुपालप्रबन्धका उत्तरभाग है। पूर्वभाग आगे जा कर लिखा है, जो २७ वें प्रबन्धमें मिलता है। यह प्रबन्ध इस P संग्रहके अतिरिक्त BR संग्रहमें भी लिखा हुआ है, और वह कुछ जरा विस्तृत रूपमें है। इसलिये हमने प्रस्तुत ग्रंथमें, उसीको मुख्य स्थान दिया है और इस प्रतिवाले प्रबन्धको उसकी पाद-टिप्पनीके रूपमें उद्धृत कर दिया है।-देखो पृष्ठ ५३ परकी पहली टिप्पनी। 1 इस प्रबन्धको हमने छोड दिया है । एक तो इसका सम्बन्ध, यों ही प्रबन्धचिन्तामणिगत विषयके साथ नहीं है; और दूसरा कारण यह है कि, प्रस्तुत प्रतिका वह पन्ना जिसमें यह प्रबन्ध लिखा हुआ है, एक किनारे पर इतना खिर गया है कि जिससे इसका पाठोद्धार करना सर्वथा अशक्य-सा हो गया है। 2 प्रतिमें तारणगढप्रासादरक्षणप्रबन्ध तथा अजयपालप्रबन्ध ये दोनों प्रकरण जुदा जुदा प्रबन्ध करके लिखे हैं। हमने इनको एक ही 'अजयपालप्रबन्ध' के शीर्षकके नीचे दो जुदा जुदा प्रकरणोंके रूपमें मुद्रित किये हैं। 3 'आशराजप्रबन्ध' वस्तुपाल प्रबन्ध-ही-का आदिम भाग होनेसे हमने इसे, उसी प्रबन्धके अन्तर्गत ११६३ अंकवाले प्रकरणके तौर पर रख दिया है । यह प्रकरण, इस प्रतिके सिवा BR और Ps संज्ञक संग्रहोंमें भी मिलता है और वह कुछ विशेष स्पष्टतावाला है इस लिये हमने मुख्य स्थान उसको दे कर, इस प्रतिवाले उल्लेखको पाद-टिप्पनीमें प्रविष्ट कर दिया है।-देखो, वहीं, पृष्ठ ५३ परकी तीसरी टिप्पनी। 4 इसका प्रारम्भ, $११७ वें प्रकरणके (पृष्ठ ५४, पंक्ति १२) "इतो व्याघ्रपल्लीयोराणक आना०" इस वाक्यसे होता है, और समाप्ति पूर्वोक्त शत्रुजय माहात्म्यवाले उल्लेखके (पृ. ५८, पंक्ति ११) पूर्ववर्ती "तत्र यात्राथै यतनीयमिति।" इस वाक्यके साथ होती है। 5 यह वर्णन, पृष्ठ ६९ पर मुद्रित, १४९ वें प्रकरणके "अत्रातनःप्रबन्धः कथनीयः।" इस वाक्यसे प्रारंभ होता है और पृष्ट ७१ की ५ वीं पंक्तिमें मिलनेवाले "[सं०] १३०८ तेजःपालो दिवं जगाम ।" इस उल्लेखके साथ समाप्त होता है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह ११० ३० वलभीभंगप्रबन्ध प्रा० २६...२... २ स० २७...१...१० ३१ न्यायविषयक यशोवर्मनृप प्रबन्ध{प्रा० स० २७...२...२ ५७ ६२३२ १०७-१०८ ३२ लाखणराउल प्रबन्ध प्रा० २७...२...३ स० २८...१... ९ २२ ६२२५-२२७ १०१-१०२ ३३ चित्रकूटोत्पत्ति प्रबन्ध प्रा० २८...१... ९ स० २८...२...११ ५३ ६२२८ १०३ ३४ परोपकारविषयक उदाहरण प्रा. २८...२...११ एस० २८...२...१८ ६० ६२३६ ३५ उद्यमविषयक उदाहरण प्रा. २८...२...१८ स. २९...१... ५ ६१ ६२३७ प्रा. २९...१... ५ ३६ दानविषयक उदाहरण स० २९...१...१५ ६२ ६२३८ १११ ३७ अम्बुचीच नृप प्रबन्ध प्रा. २९.......१५ स० १०८ ४ ६२३४ २९...२... ४ ३८ कुमारपालराज्यप्राप्ति प्रबन्ध । प्रा० २९...२...४ १६७९-८० स० ३०...१...१५ ३९ कर्णवाराविषयक उदाहरण प्रा० ३०...१...१५ ६३ ६२३९ १११-११२ स० ३०...२...११ ४. सोनलवाक्यानि' प्रा० ३०...२...११ ६६४ स० ३०...२...१७ - पुष्पिकालेखात्मक गाथाद्वय , , पंक्तिय ___इस प्रकार ये ४० प्रबन्ध इस संग्रहमें संगृहीत हैं। इस सूचीके अवलोकनसे ज्ञात होता है कि प्रथमके दो प्रबन्ध, राजशेखर सूरिके प्रबन्धकोशमेंसे लिख लिये गये हैं, और ३० वां प्रबन्ध, सम्भवतः मेरुतुङ्ग सूरिके प्रबन्धचिन्तामणि प्रन्थमेंसे नकल किया हुआ है। इनके सिवा, कुमारपाल और विक्रमचरित्रके सम्बन्धवाले कुछ प्रकरण, इसमें ऐसे हैं जिनका प्रबन्धकोशगत तत्तत् प्रकरणोंके साथ बहुत घनिष्ठ साम्य दिखाई देता है। विशेष करके निम्न सूचित प्रकरण तुलना करने योग्य हैं पुरातनप्रबन्धसंग्रह प्रबन्धकोश कुमारपालप्रबन्धान्तर्गत प्रकरण ६८३ विक्रमचरितान्तर्गत प्रकरण ६१२ ६९९ ये प्रकरण इन दोनों संग्रहोंमें, शब्द और अर्थ दोनों प्रकारसे, प्रायः समान प्रतीत होते हैं, लेकिन हैं ये भिन्न 6 यह प्रबन्ध, प्रबन्धचिन्तामणिके, पृष्ठ १०७-९ पर मुद्रित, प्रकरणांक २०२-२०३ वाले इसी नामके प्रबन्धके साथ शब्दशः मिलता है और बहुत करके उसी प्रन्थमेंसे यह नकल किया गया है-अतः हमने इसे यहां पुनः मुद्रित करना निरर्थक समझा है। 7 सिद्धराज जयसिंहके इतिहासके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सोनलदेवीके ये वाक्य, जो गूजरात और सौराष्ट्र में, लोक गीतके रूपमें खूब प्रसिद्ध हैं और जिनके शब्दोंमें सिद्धराजके जीवनकी, घर घर गाई जानेवाली एक इतिहासानुल्लिखित, कलंकित कथा ओतप्रोत हो रही है, विना किसी विशेषोल्लेखके इस प्रतिमें, अन्तमें, लिखे हुए मिलते हैं। हमने इनको, सिद्धराजके समयके प्रकरणोंके अन्तमें, पृष्ठ ३४-पंक्ति ३० पर, एक गौण प्रकरणके ढंगसे, क्रमांक ६४ के नीचे, मुद्रित किये हैं। 8 प्रस्तुत प्रन्थके पृष्ठ १३६ पर, प्रथम जो दो प्राकृत गाथाएं मुद्रित हैं, वे इस प्रतिमें, पत्र ३० की पहली पूंठी (पृष्टि-पार्श्व) पर, सबसे नीचेकी पंक्तिमें लिखी हुई हैं। पंक्तिके प्रारंभमें 'x' ऐसा चिह्न दिया हुआ है जिसका अर्थ होता है, कि यह पंक्ति, परकी किसी पंक्तिमें लिखते लिखते छूट गई अतः यहां नीचे ( हांसियेमें) लिख दी गई है। लेकिन ऊपर किस जगह और कौन पंक्किमें यह लिखनी रह गई इसका सूचक कोई चिह्न इस सारे पन्नेमें कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। इसकी विशेष मीमांसा आगे चल कर की है। 9 इन दो पंक्तियोंमेंसे, पहलीमें, सं० १४३० में खर्गवास प्राप्त करनेवाले किसी सावदेव सूरिका उल्लेख है। इसका पूर्वापर क्या सम्बन्ध है सो ठीक मालूम नहीं देता। दूसरी पंक्तिमें लिपिकर्ताका-जिसने इस प्रतिका कमसे कम उत्तरी हिस्सा लिख कर पूरा किया-समयादि सूचक निर्देश है । ये दोनों पंक्तियां भी प्रन्थान्तमें, पृष्ठ १३६ पर मुद्रित हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । भिन्न-कर्तृक । हमारा अनुमान है, कि प्रबन्धकोशकी अपेक्षा प्रस्तुत प्रतिवाले इन प्रकरणोंकी रचना पुरातन है । राजशेखर सूरिने शायद कुछ थोडा बहुत भाषा-संस्कार करके इनको अपने ग्रन्थमें सन्निविष्ट कर लिया है। क्यों कि, प्रस्तुत संग्रहगत इन प्रकरणोंकी भाषा, अधिक लौकिक ढंगकी-परिष्कार विहीन और शिथिल स्वरूपमें है; और प्रबन्धकोशमें वह परिष्कृत और सुश्लिष्ट रूपमें है । अतः, इससे यह सूचित होता है, कि राजशेखर सूरिके पहले, किसीने, इन प्रकरणोंको, किसी प्रथमाभ्यासी विद्यार्थीके पढनेके लिये, इस प्रकारकी बहुत ही सीधीसादी भाषामें लिखा, और फिर राजशेखर सूरिने उनमें उक्त प्रकारका कुछ संशोधन-परिमार्जन किया। प्रबन्धकोशके कर्ताने अपने पहलेकी कृतियोंमेंसे ऐसे कई प्रकरण ज्यों के त्यों, अथवा कुछ थोडा फेरफार कर, अपने ग्रन्थमें किस प्रकार सम्मिलित कर लिये हैं, इसकी कुछ आलोचना हमने उस ग्रन्थकी भूमिकामें की है। - इसी प्रकार यदि, प्रस्तुत संग्रहके कुछ प्रकरणोंका मिलान, प्रबन्धचिन्तामणिगत उन उन प्रकरणोंके साथ किया जाय तो उनमें भी कुछ ऐसी शाब्दिक और आर्थिक समानता जरूर दिखाई देगी। यद्यपि वह समानता प्रबन्धकोशके जितनी विपुल और विशेषरूपमें नहीं है, जिससे यह स्पष्टताके साथ निर्णीत किया जा सके कि प्र० चिं० के कर्ताने भी इस संग्रहके कुछ प्रकरणोंका अनुसरण किया है; तथापि उसके लिये कुछ अनुमान अवश्य किया जा सकता है । प्र० चिं० ग्रथित मुञ्जराज प्रबन्ध, प्रस्तुत संग्रहलिखित उस प्रबन्धके साथ बहुत ही सदृशता रखता है। इसी तरह कुछ और और प्रबन्धोंमें भी परस्पर कितनाक साम्य दिखाई देता है। निम्न सूचित प्रकरण इस दृष्टिसे मिलान कर देखने योग्य हैंप्रबन्धनाम प्र० चिं० प्रस्तुत ग्रन्थ उदयन प्रबन्ध रैवततीर्थोद्धार प्रबन्ध ६१०७ सोनलवाक्य ६६४ अंबड प्रबन्ध ६८१ अजयपाल प्रबन्ध ६१०४ इस तुलनासे यह बात सूचित होती है कि-प्रस्तुत संग्रहमें कुछ प्रकरण या प्रबन्ध तो ऐसे हैं जो प्रबन्धचिन्तामणि या प्रबन्धकोशमेंसे लिखे हुए या उद्धृत किये हुए हैं, अतएव उनसे अर्वाचीन हैं; लेकिन कुछ प्रकरण ऐसे हैं जो उन प्रन्थोंसे भी पुरातन हो कर, उक्त ग्रन्थोंके कर्ताओंने, शायद इन्हीं परसे अपने प्रकरण गुम्फित किये हों । यह बात तभी सिद्ध हो सकती है जब इसका प्रमाणभूत कोई उल्लेख इस संग्रहमें दृष्टिगोचर होता हो । प्रस्तावित ग्रन्थके पृष्ठ १३६ पर जो दो प्राकृत गाथाएं मुद्रित हैं वे, इस कथनके लिये, प्रमाणभूत कही जा सकती हैं। ये दोनों गाथाएं, इस संग्रहके ३० वें पत्रके प्रथम पृष्ठमें, सबसे नीचेकी पंक्तिमें, हासियेमें लिखी हुई हैं । इसके प्रारंभमें 'x' ऐसा चिन्ह दिया हुआ है जिसका मतलब होता है कि यह पंक्ति, ऊपर चालू लिखानमें, लिखते समय, भूलसे छूट गई है जिससे इसको यहां पर हासियेमें लिखा गया है। लेकिन, ऊपर चालू लिखानमें, यह किस जगह छूटी हुई है इसका सूचक कोई चिन्ह कहीं नहीं दिखाई देता । इससे यह निश्चिततया ज्ञात नहीं होता कि यह पंक्ति यथार्थमें किस प्रकरणके या प्रबन्धके अन्तमें होनी चाहिए; तथापि, जैसा कि इस संग्रहकी पृष्ठवार दी हुई सूचिसे ज्ञात होता है, इस अन्तिम पत्रके प्रथम पार्श्व पर कुमारपालराज्यप्राप्ति-प्रबन्ध समाप्त होता है, और उसके बाद कर्णवाराविषयक उदाहरणभूत प्रबन्ध लिखा हुआ है। सो इस पंक्तिका स्थान, नियमानुसार, उक्त कुमारपालराज्यप्राप्ति-प्रबन्धके अन्तमें होना चाहिए। परंतु, हमारा अनुमान है कि इसका वास्तविक स्थान, या तो उसके आगेके कर्णवारा प्रबन्धके अंतमें होना चाहिए या उसके बाद जो राणी सोनलदेवीके वाक्यरूप १०-११ प्राकृत पद्य लिखे हुए हैं उनके अन्तमें Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह होना चाहिए । कहीं भी हों, लेकिन है वह पंक्ति इसी संग्रहके साथ सम्बन्ध रखनेवाली; इसमें कोई सन्देह नहीं है। इन गाथाओंका अर्थ है यह कि-"नागेन्द्र गच्छके आचार्य उदयप्रभ सूरिके शिष्य जिनभद्रने, मंत्रीश्वर वस्तुपालके पुत्र जयन्तसिंहके पढनेके लिये, विक्रम संवत् १२९० में, इस नाना-कथानकप्रधान प्रबन्धावलिकी रचना की।" ___ इस उल्लेखसे स्पष्टतया ज्ञात होता है कि प्रस्तुत संग्रहके लिपिकर्ताने जिन पुराने संग्रहोंमेंसे ये सब प्रबन्ध नकल किये उनमें 'नाना कथानक प्रधान प्रबन्धावलि' नामका (या उसके सूचक वैसे ही किसी और नामका) एक संग्रह वह भी था जिसकी रचना, मंत्रीश्वर वस्तुपालके पुत्र जयन्तसिंहके पढनेके लिये, संवत् १२९० में उदयप्रभसूरिके शिष्य जिनभद्रने की थी। जिनभद्रकी इस नाना कथानकवाली प्रबन्धावलिका स्वतंत्र अस्तित्व अभी तक और कहीं हमारे देखने में नहीं आया इससे यह पता नहीं लग सकता कि इस प्रबन्धावलिमें सब मिलाकर कितने कथानक थे और कौन कौन विषयके थे। प्रस्तुत संग्रहके लिपिकर्ताने, जैसा कि ऊपर दी हुई सूचिसे ज्ञात होता है, इन प्रबन्धोंको कई भिन्न भिन्न ग्रन्थों मेंसे लिखा है और सो भी अस्तव्यस्त ढंगसे। इससे इसमें पुराने और नये प्रबन्धोंका एक साथ संमिश्रण हो कर उनकी एक तरहसे खिचडी बन गई है, जिससे यह जानना या निश्चय करना भी कठिन-सा हो गया है कि, इसमें उक्त गाथा-कथित जिनभद्रके रचे हुए प्रबन्ध कितने और कौन कौन हैं; तथा उसके पीछेके कितने और कौन कौन हैं ?। तथापि भाषा और रचना-शैलीका सूक्ष्मतया निरीक्षण करने पर इसमेंके कितनेएक प्रकरणोंका कुछ कुछ विश्लेषण या पृथक्करण किया जा सकता है। पूर्वोक्त राजशेखर सूरिके रचे हुए जो पादलिप्ताचार्य और रत्नश्रावक नामके दो प्रबन्ध इसमें संगृहीत हैं उनकी तथा प्रबन्धचिन्तामणिमेंसे नकल किये गये वलभीभंग प्रबन्धकी भाषा, और और प्रबन्धोंकी भाषासे बिल्कुल अलग पड जाती है। मंत्रियशोवीर प्रबन्ध और वस्तुपाल-तेजःपाल प्रबन्ध-ये दोनों प्रकरण भी किसी दूसरेकी कृति होने चाहिए । क्यों कि इन दोनोंमें वर्णित कितनीक वस्तु-घटनाएं संवत् १२९० के पीछेकी हैं । यशोवीर प्रबन्धमें, संवत् १३१० में जलालुद्दीन सुल्तान द्वारा, मारवाड अन्तर्गत जालोरके दुर्ग सुवर्णगिरिपर किये जानेवाले आक्रमणका उल्लेख है; और इसी तरह, वस्तुपाल प्रबन्धमें, संवत् १३०८ में होनेवाले मंत्री तेजपालके मरणका निर्देश है । अतः ये दोनों प्रबन्ध अर्थात् ही जिनभद्रके बाद की रचना है। इनके अतिरिक्त, और सब प्रबन्ध, यदि उक्त जिनभद्रकी कृतिरूप मान लिये जाय तो उसमें कोई बाधक प्रमाण हमें नहीं दिखाई देता । ६५. P संग्रहके कुछ महत्त्वके प्रबन्ध इस संग्रहमें, कुछ प्रबन्ध, ऐतिहासिक दृष्टि से बडे महत्त्वके हैं । पृथ्वीराजप्रबन्ध (१३), जयचन्द्रप्रबन्ध (१४), मंत्रि यशोवीरप्रबन्ध (१६), वस्तुपालतेजःपालप्रबन्ध (१९, २०, २७), मंत्रिउदयनप्रबन्ध (२२), वसाह आभडप्रबन्ध (२३), अजयपालप्रबन्ध (२५-२६) और लाखणराउलप्रबन्ध (३२) आदि प्रकरणोंमें इतिहासोपयोगी जो सामग्री मिलती है वह बहुत ही विश्वसनीय और विशेषत्ववाली है। इसका विशेष ऊहापोह करना यहां अप्रासंगिक है । इस ग्रन्थके अगले भागों में उसका यथेष्ट अवलोकन और आलोचन आदि करनेका हमारा संकल्प है ही। .. हम यहां पर, एक बात पर विद्वानोंका लक्ष्य आकर्षित करना चाहते हैं; और वह बात यह है कि इस संग्रह गत पृथ्वीराज और जयचन्द विषयक प्रबन्धोंसे हमें यह ज्ञात हो रहा है, कि चन्दकवि रचित पृथ्वीराजरासो नामक हिन्दीके सुप्रसिद्ध महाकाव्यके कर्तृत्व और कालके विषयमें जो, कुछ पुराविद् विद्वानोंका यह मत है कि 'वह ग्रन्थ समूचा ही बनावटी है और १७ वीं सदीके आसपासमें बना हुआ है' यह मत सर्वथा सत्य नहीं है। इस संग्रहके उक्त प्रकरणों में जो ३-४ प्राकृत-भाषा पद्य [पृष्ठ ८६, ८८, ८९ पर] उद्धृत किये हुए मिलते हैं, उनका Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य | ९ पता हमने उक्त रासोमें लगाया है और इन ४ पद्योंमें से ३ पद्य, यद्यपि विकृत रूपमें लेकिन शब्दशः, उसमें हमें मिल गये हैं । इससे यह प्रमाणित होता है कि चंद कवि निश्चिततया एक ऐतिहासिक पुरुष था और वह दिल्लीश्वर हिंदुसम्राट् पृथ्वीराजका समकालीन और उसका सम्मानित एवं राजकवि था । उसीने पृथ्वीराज के कीर्तिकलापका वर्णन करनेके लिये देश्य प्राकृत भाषामें एक काव्यकी रचना की थी जो पृथ्वीराजरासोके नाम से प्रसिद्ध हुई । हम यहां पर, पृथ्वीराजरासोमें उपलब्ध विकृत रूपवाले इन तीनों पद्योंको, प्रस्तुत संग्रह में प्राप्त मूलरूपके साथ साथ, उद्धृत करते हैं, जिससे पाठकोंको इनकी परिवर्तित भाषा और पाठ - भिन्नताका प्रत्यक्ष बोध हो सकेगा । प्रस्तुत संग्रहमें प्राप्त पद्य - पाठ । इक् बाणु पहुवीसुजु पईं कई बासह मुक्कओं, उर भिंतरि खडहडिउ धीर कक्खंतरि चुक्कउ । बीअं करि संधीउं भंमइ सुमेसरनंदण !, एहु सु गढि दाहिमओं खणइ खुदइ सभरिवणु । फुड छंडि न जाइ इडु लुब्भिउ वारइ पलकउ खल गुलह । नं जाणउं चंदबलहिउ किं न वि छुट्टद्द इह फलह ॥ - पृष्ठ, ८६, पद्यांक (२७५). अग म गहि दाहिमओं रिपुरायखयंकरु, कूड मंत्र मम वओं पड्डु जंबूय ( प १ ) मिलि जग्गरु । सहनामा सिक्खवर्ड जर सिक्खिविडं बुज्झई, जंपर चंदबलिड मज्झ परमक्खर सुज्झइ | पहु पहुविराय सभरिघणी सयंभरि सउणइ संभरिसि, कई बास विभास विसट्टविणु मच्छिबंधिबद्धओं मरिसि ॥ - पृष्ठ वही, पयांक (२७६). त्रिहि लक्ष तुषार सबल पाषरीअहं जसु हय, चऊदस्य मयमत्त दंति गज्जंति महामय । वीसलक्ख पायक सफर फारक्क धणुद्धर, सड अरु बलु यान संख कु जाणइ तांह पर । छत्तीसलक्ष नराहिवइ विहिविनडिओ हो किम भयउ, जइचंद न जाणउ जल्हुकह गयउ कि मूउ कि धरि गयउ ॥ - पृष्ठ ८८, पद्यांक (२८७). पृथ्वीराजरासो में प्राप्त पथ-पाठ । एक बान पहुमी नरेस कैमासह मुक्यौ । उर उप्पर थरहयौ बीर कष्पंतर चुक्यौ ॥ बियौ बान संधान हन्यौ सोमेसर नंदन । कर निग्रह्यौ षनिव गड्यौ संभरि धन ॥ थल छोरि न जाइ अभागरौ गाड्यौ गुन गहि अग्गरौ । इम जपै चंदबरहिया कहा निघट्टै इय प्रलौ ॥ -रासो, पृष्ठ १४९६, पद्य २३६. अगह मगह दाहिमौ देव रिपुराइ षयंकर । करमंत जिन करौ मिले जंबू बै जंगर ॥ मो सहनामा सुनौ एह परमारथ सुज्झै । अ चंद बिरद्द बियो कोइ एह न बुज्झै ॥ प्रथिराज सुनवि संभरि धनी इह संभलि संभारि रिस । कैमास बलिष्ठ वसीठ बिन म्लेच्छ बंध बंध्यौ मरिस ॥ — रासो, पृष्ठ २१८२, पद्य ४७६. असिय लष तोषार सजड पष्षर सायद्दल | सहस हस्ति चवसट्ठि गरुअ गजंत महाबल ॥ पंच कोटि पाइक सुफर पारक्क धनुद्धर । जुध जुधान बर बीर तोन बंधन सद्धनभर ॥ छत्तीस सहस रन नाइबौ विही त्रिम्मान ऐसो कियौ । जैचंद राइ कविचंद कहि उदधि बुडि कै धर लियौ ॥ - रासो, पृष्ठ २५०२, पद्य २१६. इसमें कोई शक नहीं है कि पृथ्वीराजरासो नामका जो महाकाव्य वर्तमान में उपलब्ध है उसका बहुत बडा भाग पीछेसे बना हुआ है । उसका यह बनावटी हिस्सा इतना अधिक और विस्तृत है, और उसमें मूल रचनाका अंश इतना अल्प और वह भी इतनी विकृत दशामें है, कि साधारण विद्वानोंको तो उसके बारेमें किसी प्रकारकी कल्पना करना भी कठिन है | मालूम पडता है कि मूल रचनाका बहुत कुछ भाग नष्ट हो गया है और जो कुछ अवशेष रहा है वह भाषाकी दृष्टिसे इतना भ्रष्ट हो रहा है कि उसको खोज नीकालना साधारण कार्य नहीं है । मनभर बनावटी मोतीके ढेरमेंसे मुट्ठीभर सच्चे मोतीयोंको खोज नीकालना जैसा दुष्कर कार्य है वैसा ही इस सवालाख लोक प्रमाणवाले बनावटी पद्योंके विशाल पुंजमेंसे चंद कविके बनाये हुए हजार पांच सौ अस्त-व्यस्त पद्योंको ढूंढ नीकालना I २ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह । कठिन कार्य है । तथापि, जिस तरह, अनुभवी परीक्षक, परिश्रम करके, लाख झूठे मोतीयोंमें से मुट्ठीभर सच्चे मोतीयोंको अलग छांट सकता है उसी तरह भाषाशास्त्र-मर्मज्ञ विद्वान इन लाख बनावटी श्लोकोंमें से उन अल्पसंख्यक सच्चे पद्योंको भी अलग नीकाल सकता है जो वास्तवमें चन्द कविके बनाये हुए हैं। हमने इस महाकाय ग्रन्थके कुछ प्रकरण, इस दृष्टिसे, बहुत मनन करके पढे तो हमें उसमें कई प्रकारकी भाषा और रचना पद्धतिका आभास हुआ । भाव और भाषाकी दृष्टिसे इसमें हमें कई पद्य ऐसे अलग दिखाई दिये जैसे छासमें मक्खन दिखाई पडता है । हमें यह भी अनुभव हुआ कि काशीकी नागरी प्रचारिणी सभाकी ओरसे जो इस ग्रन्थका प्रकाशन हुआ है वह भाषा-तत्त्वकी दृष्टिसे बहुत ही भ्रष्ट है। उसके संपादकोंको रासोकी प्राचीन भाषाका कुछ विशेष ज्ञान रहा हों ऐसा प्रतीत नहीं हुआ । विना प्राकृत, अपभ्रंश और तद्भव पुरातन देश्य भाषाका गहरा ज्ञान रखते हुए इस रासोका संशोधन-संपादन करना मानों इसके भ्रष्ट कलेवरको और भी अधिक भ्रष्ट करना है। इस ग्रन्थमें हमें कई गाथाएं दृष्टिगोचर हुई जो बहुत प्राचीन हो कर शुद्ध प्राकृतमें बनी हुई हैं। लेकिन वे इसमें इस प्रकार भ्रष्टाकारमें छपी हुई हैं जिससे शायद ही किसी विद्वान् को उनके प्राचीन होनेकी या शुद्ध प्राकृतमय होनेकी कल्पना हो सके। यही दशा शुद्ध संस्कृत श्लोकोंकी भी है। संपादक महाशयोंने, न तो भिन्न भिन्न प्रतियोंमें प्राप्त पाठान्तरोंको चुनने में किसी प्रकारकी सावधानता रखी है, न खरे-खोटे पाठोंका पृथक्करण करनेकी कोई चिन्ता की है; न कोई शब्दों या पदोंका व्यवस्थित संयोजन या विश्लेषण किया गया है न विभक्ति अथवा प्रत्ययका कोई नियम ध्यानमें रखा गया है। सिर्फ 'यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया ।' वाली उक्तिका अनुसरण किया गया मालूम देता है। मालूम पडता है कि चंद कविकी मूल कृति बहुत ही लोकप्रिय हुई और इस लिये ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों उसमें पीछेसे चारण और भाट लोग अनेकानेक नये नये पद्य बनाकर मिलाते गये और उसका कलेवर बढाते गये। कण्ठानुकण्ठ प्रचार होते रहनेके कारण मूल पद्योंकी भाषामें भी बहुत कुछ परिवर्तन होता गया। इसका परिणाम यह हुआ कि आज हमें चंदकी उस मूल रचनाका अस्तित्व ही विलुप्त-सा हो गया मालूम दे रहा है। परंतु, जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, यदि कोई पुरातन-भाषा-विद् विचक्षण विद्वान् , यथेष्ट साधन-सामग्रीके साथ पूरा परिश्रम करे तो इस कूडे-कर्कटके बडे ढेरमेंसे चन्द कविके उन रत्नरूप असली पद्योंको खोज कर नीकाल सकता है और इस तरह हिन्दी भाषाके नष्ट-भ्रष्ट इस महाकाव्यका प्रामाणिक पाठोद्धार कर सकता है। नागरीप्रचारिणी सभाका कर्तव्य है कि, जिस तरह पूनाका भाण्डारकर रीसर्च इन्स्टीट्यूट महाभारतकी संशोधित आवृत्ति तैयार कर प्रकाशित कर रहा है, उसी तरह, वह भी हिन्दी भाषाके महाभारत समझे जानेवाले इस पृथ्वीराजरासोकी एक संपूर्ण संशोधित आवृत्ति प्रकाशित करनेका पुण्य कार्य करें। ६६. (२) B संज्ञक संग्रह - पूज्य प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराजके स्वर्गवासी शिष्य श्रीभक्तिविजयजीका शास्त्रसंग्रह, जो भावनगरकी जैन आत्मानंद सभाके भवनमें सुरक्षित है, उसमेंका यह एक त्रुटित संग्रह है । भक्तिविजयजी और "भावनगरके स्मृत्यर्थ इस संग्रहका संकेत हमने B अक्षरसे दिया है । इसका आदि और अंत भाग अनुपलब्ध है। तदुपरान्त बीच मेंके भी बहुतसे पत्र अप्राप्य हैं । अन्तिम पत्र जो विद्यमान है उसका क्रमांक ७५ है । उसके आगेके कितने पन्ने नष्ट हो गये हैं उसके जाननेका कोई साधन नहीं है। प्रारंभके १ से ६ तकके पत्र, फिर १३, ३४, ३५, ३६, ३७, ४३, ४४, ४५,,४७, ४८, ४९, ५१ से ७० (२० पन्ने एक साथ ) और ७३, ७४-इस प्रकार कुल Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य। ३३ पन्नोंका अभाव है। ७५ मेंसे ४२ पन्ने विद्यमान हैं। पन्नोंका नाप, प्रायः लंबाईमें १०१ इंच और चौडाईमें ४ इंच है। प्रत्येक पृष्ठि (पार्श्व) पर १५-१५ पंक्तियां लिखी हुई हैं। अक्षर सुवाच्य और लिखान प्रायः शुद्ध है । अन्तिम भाग अप्राप्य होनेसे, यह प्रति कब लिखी गई थी इसके जाननेका कोई निश्चित साधन नहीं रहा । प्रतिकी स्थितिको देखकर अनुमानसे यह कहा जा सकता है कि कमसे कम कोई च्यार सौ वर्ष पहले की यह लिखी हुई जरूर होगी। ६७. B संग्रहका आन्तरिक परिचय जैसा कि ऊपर सूचित किया गया है, इस संग्रहका अन्तिम भाग अनुपलब्ध होनेसे, इसका संग्रहकर्ता या संकलनकर्ता कौन है और उसका क्या समय है इत्यादि बातें जाननेका कोई उपाय नहीं है । वैसे ही यह भी ठीक नहीं जाना जा सकता कि इस संग्रहमें सब मिला कर ऐसे कितने प्रबन्ध या प्रकरण संगृहीत थे। जो अन्तिम पत्र (७५ वां) विद्यमान है उसमें नीलपटवधप्रबंध [देखो प्रस्तुत ग्रन्थका पृष्ठ १९, प्रबन्धांक १०, प्रकरणांक ६३३] समाप्त हुआ है और आगे फिर देवाचार्यप्रबन्ध प्रारंभ हुआ है। नीलपटवधप्रबन्धका क्रमांक इसमें ६६ दिया हुआ है, लेकिन, जैसा कि आगे दी हुई सूचिसे प्रतीत होता है, उसका वास्तविक क्रमांक ७० होना चाहिए। यदि, इसके आगे लिखे हुए देवाचार्यप्रबन्धके साथ ही इस संग्रहकी समाप्ति होती हों तो, इस प्रकार इसमें कमसेकम ७१ प्रबन्धोंका संग्रह होगा। इस संग्रहगत प्रबन्धोंका आकार-प्रकार देखनेसे हमारा अनुमान होता है कि, उपदेशतरंगिणी ग्रन्थके कर्ता रत्नमन्दिरगणीने, महामात्य वस्तुपालके कीर्तिदान प्रबन्धोंका वर्णन करते हुए, तद्विषयक विशेष ज्ञापनके २४(चविंशति) प्रबन्ध अर्थात प्रबन्धकोश नाम ग्रन्थके साथ, (उसके जैसे ही विषयवाले) ७२ (द्वासप्तति) प्रबन्ध और ८४ (चतुरशीति) प्रबन्ध नामक जिन और दो ग्रन्थोंका सूचन किया है,* उन्हीं में से यह एक ग्रन्थ हों। यदि यह अनुमान सही हों तो, कमसेकम विक्रम संवत् १५०० के पहले इसका संकलन हुआ होना चाहिए। क्यों कि रत्नमन्दिर गणीके १६ वीं शताब्दीके प्रथम पादमें विद्यमान होनेके प्रमाण पाये जाते हैं।। अतः उनके सूचित ७२ या ८४ प्रबन्धोंके संग्रह अवश्य ही उनके पूर्व की रचनायें होनी चाहिए। लेकिन हमारा यह अनुमान तबतक विशेष बलवान् नहीं माना जा सकता, जबतक, कहींसे इसका समर्थक और कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । ३८. इस प्रतिमें प्रबन्धोंका संग्रह-क्रम कैसा है और हमने प्रस्तुत संग्रहमें उनको किस क्रममें मुद्रित किया है, इसका क्रमपूर्वक परिचय होनेके लिये यहां पर दोनों-लिखित और मुद्रित-संग्रहोंकी पृष्ठ-पंक्ति-आदि सूचक विस्तृत सूचि दी जाती है और उसके नीचे पाद-टिप्पनीमें जो कुछ विशेष ज्ञातव्य वस्तु मालूम दी, वह भी, सूचित कर दी गई है। _ * उपदेशतरंगिणीमें यह उल्लेख इस प्रकार है-'इत्यादि श्रीवस्तुपालकीर्तिदानप्रबन्धाः शतशो यथाश्रुताः खयं वाच्याः ८४,२४, ७२ प्रबन्धेभ्यः । [यशोविजयजैनग्रन्थमाला, बनारस, में मुद्रित प्रति, पृ. ७९] यद्यपि रत्नमन्दिर गणीने, उपदेशतरङ्गिणीमें, अपना समय-सूचक कोई उल्लेख नहीं किया है, लेकिन इन्हींका बनाया हुआ एक भोजप्रबन्ध नामका प्रन्थ है उसके अन्तमै जो प्रशस्ति पद्य है उसमें, उस प्रन्थके बननेके समय आदिका निर्देश इस प्रकार किया हुआ हैजातः श्रीगुरुसोमसुन्दरगुरुः श्रीमत्तपागच्छपस्तत्पादाम्बुजषट्पदी विजयते श्रीनन्दिरत्नो गणी। समन्दिरगणिभोजप्रबन्धो नवस्तेनाऽसौ मुँनि-भूमि-भूत-शशंभृत् संवत्सरे निर्मितः॥ * इस पद्यसे ज्ञात होता है कि वि० सं० १५१७ में रत्नमन्दिरगणीने भोजप्रबन्धकी रचना पूरी की थी। सिवा, इसके उपदेशतरंगिणीकी वि० सं० १५१९ के चैत्र शु. के दिनकी हस्तलिखत प्रति पूनेके, भाण्डारकर रीसर्च इन्स्टीट्यूट में, संरक्षित राजकीय प्रन्थसंग्रहमें विद्यमान है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ B संज्ञक प्रतिमें लिखित प्रकरणानुक्रम प्रबन्धनाम १-७ [ विनष्ट ॥ १-७ ॥ ] ८ श्री पुंजराजस्तत्पुत्री श्रीमातावृतांतः ॥ ८ ॥ ९ वराहमिहरप्रबंधः ॥ ९ ॥ १० नागार्जुनोत्पत्ति-स्तंभनकतीर्थावतारप्रबंधः ॥ १० ॥ ११ भर्तृहरोत्पत्तिप्रबंधः ॥ ११ ॥ १२ वैद्यवाग्भटप्रबंधः ॥ १२ ॥ १३ पादलिप्तसूरिप्रबंधः ॥ १३ ॥ १४ मानतुंगाचार्यप्रबंधः ॥ १४ ॥ १५ वीरगणीप्रबंधः ॥ १५ ॥ १६ अभयदेवसूरिप्रबंधः ॥ १६ ॥ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह | प्रा० स० प्रा० [ स० ЯТО ( स० प्रा० [ स० | प्रा० स० [ प्रा० स० प्रा० सं० । प्रा० स० प्रा० स० पत्र. पृष्ठि. पंक्ति ० ० - ७...१...१२ ७...१...१२ ८...१... १ 6... 9... 9 ८...२... ११ ८...२... १२ ९...१... १० ९...१... १० ९...२... १३ ९...२... १३ ११...२... ४ ११...२... ४ १२...२... ११ १२.२... १२ १४... २... ४ प्रस्तुत पुस्तक में मुद्रित क्रम प्रबन्धांक प्रकरणांक ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ४४ ६२१०-१२१२ ६२४–१२७ ● ४५ ९२१४-९२१५ पृष्ठांक ० ० • ० ९२-९४ १५-१६ ० 1. प्रारंभ १ से ६ तकके पत्र अनुपलब्ध होनेसे, १ से ७ तकके प्रबन्ध विनष्ट हो गये हैं । ये विनष्ट प्रबन्ध किस किस विषयके थे इसके जाननेका कोई साधन नहीं है । ९५-९६ 2 यह वृत्तांत प्रबन्धचिन्तमणि गत इसी नामके प्रबन्धके साथ [ हमारी आवृत्तिके पृष्ठ १०९ - ११०९ प्रकरणांक २०४-२०५] प्रायः शब्दशः मिलता हुआ है। इससे संभव है, कि इसके संग्राहकने यह प्रबन्ध उसी ग्रन्थ में से नकल किया हो। संभव कहनेका कारण यह है कि इन दोनों में यद्यपि पाठकी समानता प्रायः शब्दशः मिलती हुई है, तथापि, क्वचित् किंचित् प्रकारका पाठभेद भी मिलता है; और यह पाठभेद उससे कुछ भिन्न प्रकारका है जो प्रबन्धचिन्तामणिकी अन्यान्य सब प्रतियों में मिलता है । 3-6 ये चारों प्रबंध भी प्रबन्धचिन्तामणि स्थित उन्हीं नामोंके प्रबन्धोंकी प्रायः शब्दशः नकल हैं। इनका क्रम भी वैसा ही है जैसा प्र. चि० में है । [ देखो, हमारी आवृत्तिके पृष्ठांक ११८ से १३२; और प्रकरणांक १२१८ से २२४ तक ] इनमें भी उसी प्रकारका कुछ पाठभेद मिलता है जो ऊपर वाली टिप्पनी में सूचित किया गया है । प्र० चि० स्थित वराहमिहर प्रबन्ध में जो दो पद्य मिलते हैं [ पद्यांक २६१ - २६२ ] वे इस संग्रहमें नहीं हैं । 7 संग्रहका १३ वां पत्र अनुपलब्ध होनेसे इस प्रबन्धका विशेष भाग अप्राप्य है । विद्यमान १३ वें पत्र में इस प्रबन्धकी निम्न उद्धृत पंक्तियां प्राप्त होती हैं श्रीमद्वीरगण स्वामिपादाः पांतु यदादरात् । कषायादिरिपुत्रातो भवेन्नागमनक्षमः ॥ १ ॥ श्रीमालं नगरं, तत्र धूमराजवंशीयो देवराजो नृपः । तत्र वणिगूमुख्यः शिवनागो महावणिजः । अन्यदा श्रीधरणेंद्वाराधनात् परितोषे कलिकुंडक्रमं सर्वसिद्धिकरं अष्टनागकुलविषहर धरणेंद्रावाप्ततन्मंत्रगर्भ धरणेंद्रस्तोत्रं चक्रे । तदद्यापि जगति विषहरम् । तस्य पूर्णलता प्रिया । तत्पुत्रो वीरः । अनेककोटिद्रव्याधिपः । पित्रा सप्त कन्याः परिणायितः । ततः पितरि मृते वैराग्यान्नित्यमेव श्रीवीरवंदनाय याति । अन्यदा मार्गे संजातचौरोपद्रवेन स्वशालकगृहं गतः । तस्य माता शुद्ध्यर्थमायाता । शालेन हास्याच्चौरैर्वीरविनाशे.........। 8 इस प्रबन्धक प्रारंभकी ५-६ पंक्तियां, विनष्ट १३ वें पत्र में विलुप्त हैं लेकिन BR संग्रहमें भी यह प्रबन्ध उपलब्ध होता है इस लिये उसमेंसे इसकी पूर्ति हो जाती है । विलुप्त पत्र में, प्रारंभको पंक्तिसे ले कर, प्रस्तुत मुद्रित संग्रह [ पृ० ९५] की पंक्ति १४ वीं आये हुए 'नवाज्ञानां वृत्ति' शब्द तकका पाठ चला गया है । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ ऋषिदत्ताकथानकम् ॥ १८ कुमारपालपूर्व भवप्र० ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ मोरनागप्रबंधः ॥ १८* ॥ २० मदनब्रह्मजयसिंहदेवप्रीतिप्रबंधः ॥ १९ ॥ २१ श्रीमाताप्रबंधः ॥ २० ॥ २२ विमलवसतिका प्रबंधः ॥ २१ ॥ २३ लूणिगवसहीप्रबंधः ॥ २२ ॥ २४ भोज - गांगेयप्रबंधः [ ॥ २३ ॥ ] २५ भोजदेव - सुभद्राप्रबंधः ॥ २४ ॥ २६ धाराध्वंसप्रबंधः ॥ २५ ॥ २७ सिद्धराजौदार्यप्रबंध ः ' । २८ देव्यम्बाप्रबंधः ॥ २५ ॥ २९ विक्रमार्कसत्त्वप्रबंधः ॥ २६ ॥ ३० दरिद्रक्रय प्रबंधः ॥ २७° ॥ ३१ वीकमद्यूतकार प्रबंधः ॥ २७ ॥ ३२ स्त्रीसाहसप्रबंधः ॥ २८ ॥ ३३ मनिमनुप्रबंधः ॥ २९ ॥ ३४ देहलक्षणप्रबंधः ॥ ३० ॥ प्रास्ताविक वक्तव्य | | प्रा० स० १४... २... ५ १६...२...१२ ९ प्रा० १६...२... १३ १७... २... २ स० ( प्रा० स० प्रा० स० । प्रा० स० [ प्रा० स० प्रा० स० प्रा० । स० [ प्रा० स० १ प्रा० ( स० प्रा० (स० प्रा० ( स० प्रा० [ स० ९ प्रा० स० | प्रा० स० SSTO स० | प्रा० [ स० J प्रा० १७... २... ३ १७...२... ६ १७...२... ६ १८...२... ११ १८.२...१२ १९... १... १४ १९...१...१५ २०...१... ६ २०...१... ६ २०...२... १ २०...२... १ २०...२...१२ २०...२...१२ २१...१... ५ २१...१... ५ २१...२... ११ २१...२...११ २२...१.१ २२...१... २ २२...१... ९ २२...१.१० २३...१... ७ २३...१... ७ २३...२... २ २३...२... २ २४...१... ९ 28...9... S २४...२... ५ २४...२... ६ २४...२...११ २४...२...११ स० २५...१... २ • २८ १५ ३८ ३३ ३४ ११ १२ १३ १४ ४८ *** "" 33 33 For Private Personal Use Only M 35 ९८६ ६५१-९५२ ६ १९६ १११२-११३ ६११४ ६ ३४ ९ ३५ ६४७-४८ १४९-५० C 5 इसका क्रमांक भी गलती से ' ॥ २५ ॥' दिया गया है । ऊपर धाराध्वंसप्रबंधका भी यही अंक है । ६२२० ११-३ ६४ १५ ९५ ६९ $& ० 6 इन दोनों प्रबंधों का भी क्रमांक एक-सा ॥ २७ ॥ २७ ॥' लिखा हुआ है। 7 इस प्रबन्धके बाद वे दो पंक्तियां लिखी हुई हैं जो प्रस्तुत संग्रहके पृष्ठ ५ पर, प्रकरण १० वेंमें मुद्रित की हुई हैं । १३ 2 यह प्रबन्ध भी अनैतिहासिक होनेसे, इसको चालू क्रम में मुद्रित न कर, ऊपरके प्रकरणके साथ, परिशिष्टके रूपमें दे दिया है * प्रतिमें इस प्रबंधका क्रमांक भी, गलती से १८ ही दिया गया है। 3 प्रतिमें प्रबंधका कोई नामाभिधान नहीं दिया गया है । सिर्फ अंतमें ' ॥ इस प्रबंधका क्रमांक प्रति में लिखना रह गया है । २४ ॥' ऐसा क्रमांक लिखा हुआ है । ४४ २४-२५ 1 यह कथानक पौराणिक ढंगका है। इसकी कथावस्तुका प्रस्तुत संग्रहके विषय के साथ किसी प्रकारका संबंध न होनेसे, हमने इसको संग्रहके अंतर्भूत न रख कर, पृथकू परिशिष्टके रूपमें इसी प्रस्ताबनाके अन्तमें मुद्रित कर दिया है । ८४ ५१-५२ ५२-३ २० २० २३-२४ २४ ९७-९८ १-२ २ ३ ३-४ 4 प्रतिमें इस प्रबंधका भी कोई नाम निर्दिष्ट नहीं किया गया; और न स्वतंत्र प्रबन्धका सूचक क्रमांक ही दिया गया है । इससे प्रतिके लेखानुसार, यह प्रकरण, इसके पूर्वके धाराध्वंस प्रबंधके परिशिष्टके जैसा मालूम देता है । ४-५ ** विक्रमार्क राजाके विषयके जितने प्रकरण हैं उन सबको हमने "विक्रमार्कप्रबन्धाः " इस नाम के एक ही मुख्य शिरोलेखके नीचे दे दिये हैं । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ विक्रमपुत्र - विक्रमसेनसम्बन्धात्मकाः ५ प्रबंधा: - ३५ आद्यपुत्तलिकाप्रबंधः ॥ ३१ ॥ ३६ द्वितीय [॥ ३२ ॥] ॥ ३३ ॥ 33 ३७ तृतीय ३८ तुर्य ॥ ३९ विक्रमसम्बन्धे रामराज्यकथा प्रबंधः ॥ ३५ ॥ ४० विश्वासघातकविषये नन्दपुत्रप्रबंधः ॥ ३६ ॥ ४१ उदयननृपप्रबंधः ' ॥ ३७ ॥ 33 33 "" 33 53 ३४ ॥ ४२ कुमारपालकृतामा रिप्रबंधः ॥ ३८ ॥ ४३ कुमारपालकृततीर्थयात्राप्रबंधः ॥ ३९ ॥ ४४ मंत्रिसांतूप्रबंधः ॥ ४० ॥ ४५ सज्जनदंडपतिप्रबंधः ॥ ४१ ॥ ४६ आभडवसाहप्रबंधः ॥ ४२ ॥ ४७ वस्तुपालप्रबंधः'; - वस्तुपालकाव्यानि ॥ ४३ ॥ ४८ न्याये यशोवर्मनृपप्रबंधः ॥ ४४ ॥ ४९ अम्बुचीचनृपप्रबंधः ॥ ४५ ॥ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह । प्रा० २५...१... ५ २५...१...१२ . स० प्रा० स० । प्रा० । स० प्रा० ( स० प्रा० स० प्रा० स० प्रा० स० २५... १...१२ २५...२... १ २५...२... १ २६...१... ४ प्रा० २८...१...१० स० २९...१...११ स० । प्रा० । स० २६...१... ४ २७...१... ५ प्रा० स० २७... १... ५ २७...२... ६ SSTO स० ( प्रा० । स० २७...२... ६ २८...१...१० प्रा० २९...२... ७ स० ३०...२...६ प्रा० ३०...२...६ सं० ( प्रा० ३१...१... ४ ३१...१... ४ ३१...१...१५ ३१.१.१५ ३२... १... ३ २९...१.११ २९...२... ६ ३२...१... ४ ४२...१... ५ 2...9... ४२... १... १५ ४२...२... १ ४२... २... ९ 53 33 33 For Private Personal Use Only "" 151 " ३६ ot २६ २७ ११ ५७ ५८ 2 35 ० 3 32 ६१८८ 33 ६१२ ९८३ ९८४-८५ १९ ६५८ ३१ ६१०८ २१ ६६१ ३५ ९११५ - ९१४८ ९ २३३ ६२३४ ७-८ ८-९ ८१ ४१-४२ ४२-४३ ३१-३२ ४९ ३३ 1 यह प्रबन्ध, राजशेखरसूरि रचित प्रबन्धकोशमें उपलब्ध इसी नामके प्रबन्धके साथ [ हमारी आवृत्तिके पृष्ठ ८६-८८, प्रकरणांक §१०३-$१०५] प्रायः शब्दशः मिलता है। संभव है कि प्रबन्धकोशकारने यह प्रबन्ध इसी संग्रह में से नकल कर लिया हो। इस संभवता में वही कारण सूचित किया जा सकता है जो ऊपरकी टिप्पनी नं. २ में उल्लिखित किया गया है । प्रबन्धकोशवाले पाठमें और इस संग्रहवाले पाठ में किंचित् किंचित् ऐसा पाठभेद उपलब्ध होता है, जो मात्र किसी लिपिकर्ताका किया हुआ न हो कर किसी विद्वान् संग्रहकर्ताका किया हुआ प्रतीत होता है। और इसी लिये यह पाठभेद उन पाठभेदोंसे भिन्न है जो प्रबन्धकोशकी अन्यान्य प्रतियोंमें उपलब्ध होते हैं । ५३-६९ १०७-०८ १०८ † प्रबन्धकोशमें उपलब्ध होनेसे इस प्रबन्धको हमने प्रस्तुत संग्रहमें पुनर्मुद्रित करना उचित नहीं समझा । 2 इसका प्रारंभ 'अथ श्रीवस्तुपालप्रबंधो यथाश्रुतः ।' इस वाक्यसे होता है । फिर वह पद्य लिखा है, जो पृष्ट ५३ पर, पांक १४४ के तौर पर मुद्रित है। साथ, प्रस्तुत आदर्श पत्र ३४, ३५, ३६, और ३७ अनुपब्ध हैं। लेकिन यह प्रबंध BR. P. और Ps. संग्रहों में भी किंचित् पाठभेदों के और कुछ वर्णन-भेदोंके साथ, उपलब्ध होनेसे त्रुटित भागकी पूर्ति उन संग्रहों परसे कर ली गई है। इसका समाप्तिवाक्य इस प्रकार है'॥ इति श्रीवस्तुपालप्रबंधो गुरुपारंपर्याल्लिखितो न पुनः स्वबुद्ध्या ॥ इस पंक्तिके बाद, वस्तुपालकी प्रशंसावाले वे २४ पद्य लिखे हुए हैं जो पृ० ७१ से ७३ पर, पयांक २२२ से २४६ तक मुद्रित हैं । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । १५ प्रा. स० ४२...२... ९ - - - ४० १९९-२०० . . . . ८६-८७ . ५० पृथ्वीराजप्रबंधः ॥४६॥ ५१-५२ [ विनष्टं ॥४७-४८॥] ५३ नाहडराजप्रबंधः ॥ ४९ ॥ ५४ लाखणराउलप्रबंधः ॥५०॥ ५५-५८ [विनष्ट ॥५१-५४॥] ५९ कुलचंद्रप्रबंधः ॥५५॥ ६० भोजप्रबंधः ॥ ५६ (१)॥ प्रा० - स. १६...१... प्रा० ४६...१... रेस० - - ० 100I। ६२२५-२७ ०१-०२ ३१ १८-१९ प्रा० स० प्रा. ५०........ ५०...१...१६ ० ० ० 1 ४३, ४४, और ४५ ये ३ पत्र विलुप्त हैं इस लिये यह प्रबंध इस संग्रहमें अपूर्ण ही है। मुद्रित पृष्ठ ८६ की पंक्ति १२ में कष्ट मुक्तम् । इतः' इस शब्दके साथ, आदर्शका ४२ वां पत्र समाप्त होता है। 2 ऊपरवाली टिप्पनीमें सूचित किये मुताबिक यहां पर आदर्शके ३ पत्र विलुप्त हो जानेसे पृथ्वीराजप्रबन्धके बादके दो और प्रबन्ध संपूर्णतः नष्ट हो गये हैं। वे प्रबन्ध किस विषयके थे इसके ज्ञानका कोई साधन नहीं है। 8 विनष्ट पत्र ४५ में इस प्रबन्धका आदि भाग नष्ट हो जानेसे, और, इस B संग्रहके सिवा अन्य P आदि संग्रहों में इसकी प्राप्ति न होनेसे प्रस्तावित संग्रहके चालू क्रममें इसको स्थान नहीं दिया जा सका । पत्र ४६ में इसकी सिर्फ निम्नोद्धृत शेष पंक्तियां प्राप्त होती हैं। ......व्याहृतम्-भवान् किमपि स्मरसि?। तेनोक्तम्-न । तृतीयवेलायां मृतकेनोत्थाय योगिनः शिरश्छिन्नम । नाहडेन स ज्वालितः। वह्नौ निक्षिप्तः। स्वयं तटस्थे प्रासादे स्थितः। प्रातरवलोकयति, योगी ज्वलितो न वा। तावत्स्वर्णपुरुषं ददर्श । तस्य बलात् क्रमेण राज्यं प्राप। अर्बुदाद्रौ नाहडतटाकं कारयित्वा गर्जनप्रतोल्याः कपाटमादाय तत्र प्रचिक्षिपे । तथा जावालिपुरे राजधानिः कृता। पंडितयक्षदेवस्य मातुलमिति भणित्वा भक्तिं कर्तुं प्रवृत्तः। एकदा क्वापि कटके गतस्तत्र सर्वपरिकरो मारितः। मात्रा शुद्धिमलभमानया पंडितः पृष्टः । भागिनेयस्य सारा न प्राप्यते । पं० उक्तम्-एकाकी वस्त्रं विना मध्यरात्री समेत्य गुफायां स्थास्यति, तत्र चीवराण्यादाय जनःप्रेष्यः। स तत्र स्थितः। तस्य मिलितम् । वस्त्रपरिधानं कृत्वा मध्ये समायातः। मात्रा पंडितेनोक्तं कथितम् । तदनु हृष्टः । एकदा पंडितेनोकम्-वत्स! अस्माकं योग्यं किमपि कीर्तनं कारय । भूमिं दर्शयत । पंडितेन भूमिदर्शिता। तत्र नाहडसरः कारितम् । पुनः पंडितो रुष्टः । चरणयोर्निपत्य राज्ञोक्तम्-अधुना कारयिष्ये । तत्र दर्शितायां भूमौ नाहडवसहीति प्रासादः पं० यक्षदेवनाना कारितः। एवं नमस्कारप्रभावाद् विपद् गता। सुवर्णपुरुषः प्राप्तः । स नाहडराशा जावालिकुंडे निक्षिप्तः॥ इति नाहडराजप्रबंधः॥४९॥ 4 मूल आदर्शके ४७, ४८ और ४९ ये ३ पन्ने विलुप्त हैं इसलिये इस प्रबन्धके समाप्ति-सूचक पत्रांकादि नहीं दिये गये। परंतु ४६ ३ पन्नेमें जो इस प्रबन्धका अन्तिम शब्द उपलब्ध है उस परसे यह कहा जा सकता है कि अगले पत्रकी पहली ही पंक्तिमें यह प्रबन्ध समाप्त हो गया होगा। यह अन्तिम शब्द 'जींदराज' है जो मुद्रित पृष्ठ १०२ की पंक्ति २८ में दृष्टिगोचर हो रहा है। 5 ५० वें पन्ने में जो कुलचन्द्र प्रबन्ध उपलब्ध है उसका क्रमांक ५५ दिया हुआ है, इसलिये, ऊपरवाली टिप्पनीमें सूचित किये गये ४७,४८, और ४९ इन ३ विनष्ट पनोंमें ५१ से ५४ तकके ४ प्रबन्ध विलुप्त हो गये हैं। 6 इस ५० वे पन्नेमें जो वर्णन विद्यमान है वह सब भोजप्रबन्ध विषयक ज्ञात होता है और उपर्युक्त कुलचन्द्र नामक प्रबन्ध भी उसीका एक अवान्तर-सा प्रकरण है। मुख्य प्रबन्ध जो भोज नृप विषयक है उसका ३६ वां पद्य, इस ५० वें पत्रकी पहली पंक्तिमें समाप्त होता है । अन्तिम पंक्तिमें जो पद्य पूर्ण होता है उसका क्रमांक ६७ है। इससे यह विदित होता है कि, पिछले विनष्ट ३ पन्नों में से, कमसे कम ४९ वा पत्र तो इसी भोजप्रबन्धके वर्णनसे व्याप्त होगा, और कुछ गद्य पंक्तियोंके साथ १ से ३६ तकके पद्य उसमें होंगे। शेष ४७ और ४८ इन दो पन्नोंमें किस किस विषयके प्रबन्ध थे उसके जाननेका कोई साधन नहीं रहा । इसी तरह यह भोजप्रबन्ध भी कितना बडा होगा, तथा अगले कौनसे पन्नेमें समाप्त हुआ होगा; उसके ज्ञानका भी कोई उपाय नहीं है। क्यों कि ५० के बाद, ७० तकके एक साथ २०, पर्ने अप्राप्य हैं। इन पनोंमें भोजप्रबन्धके अतिरिक्त और भी ३-४ प्रबन्ध विनष्ट हो गये हैं। ७१ वें पत्रमें जो 'सिद्धसेनदिवाकरप्रतिबोधप्रबन्ध' पूर्ण होता है उसका क्रमांक ६० दिया हुआ है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह। . ०० ० प्रा. - - - स. ७१...१... ६ प्रा० ७१...१... ७ स० ७२...१...१२ प्रा० ७२...१...१३ स० - - - ६२२९-३० ६२३१ १०३-०५ १०५-०७ ६१-६३ [ अनुपलब्ध ॥ ५७-५९॥] ६४ सिद्धसेन दिवाकरप्रतिबोध प्रबंधः ॥ ६॥ ६५ हरिभद्रसूरिप्रबंधः ॥ ६१॥ ६६ सिद्धर्षिप्रबंधः ॥ ६२॥ ६७ [विनष्ट ॥ ६३ ॥] ६८ श्रीपालकविप्रबंधः ॥ ६४॥ ६९ षड्दर्शनप्रबंधः ॥६५॥ ७० नीलपटवधप्रबंधः ॥६६॥ ७१ देवाचार्यप्रबंधः ॥ ६७॥ ६३२ प्रा० - - - स० ७५...१... ९ प्रा० ७५...१... ९ स० ७५...१...१४ प्रा. ७५...१...१४ स. ७५...२... ४ प्रा० ७५...२... ५ रेस० - - - १६ ६५३-६५५ २५-३० 1 उपर्युल्लिखित टिप्पनीमें सूचित किये गये मुताबिक इस प्रबन्धकी सिर्फ ५-६ पंक्तियां ही, विद्यमान पत्र ७१ में, उपलब्ध हैं। इसलिये यह अपूर्ण प्रवन्ध प्रस्तुत संग्रहमें सम्मीलित नहीं किया गया। 2 ७२ के बाद ७३ और ७४ ये दो पत्र विलुप्त हैं इसलिये यह प्रबन्ध अगले पत्रमें किस जगह समाप्त होता है सो अज्ञात है। इस भादर्शके सिवा BR संग्रहमें भी यह प्रबन्ध उपलब्ध होता है इसलिये इसकी शेषपूर्ति वहीं से की गई है। इस प्रतिमें, यह प्रबन्ध, मुद्रित पृष्ठ १०६ की पंक्ति २४ में आये हुए 'निवेदितः' शब्दके साथ खण्डित होता है। 3 विद्यमान ७५ वें पत्र में इस प्रबन्धकी नीचे दी हुई सिर्फ अन्तिम ८ ही पंक्तियां उपलब्ध होती हैं। और सब विशेष भाग पिछले विलुप्त पत्र में विनष्ट हो गया है, इसलिये इस त्रुटित प्रकरणको भी प्रस्तुत संग्रहके चालू क्रममें स्थान नहीं दिया गया। .............हतीनां तेजस्विवातसव्ये नभसि नयसि यत्प्रांशुपूरप्रतिष्ठाम् । अस्मिन्नुत्थाप्यमाने जननयनपथोपद्रवस्तावदास्तां सोढुं शक्यं कथं वा वपुषि कलुषतादोष एष त्वयैव ॥४॥ एकचक्षुर्विहीनोऽयं शुक्रोऽपि कविरुच्यते । चक्षुर्द्धयविहीनस्य युक्ता ते कविराजिता ॥५॥ नृपेणोक्तम्-किमपि परं पृच्छयताम् । भगवता समस्यार्पिता-'अन्ध! कियन्ति वियन्ति भवन्ति ।' 'एकमनेकमिदं वियदासीन्मध्यमवाप्य घटप्रभृतीनाम् । तद्वत्तषु घटादिषु नष्टेष्वन्ध ! कियन्ति वियन्ति भवन्ति ॥६॥ पुनरर्पिताबक चट तपसे त्वं शाखिनि क्वापि सान्द्रे श्रय झटिति तटिन्याष्टिट्टिभस्त्वं तटानि । इह सरसि सरोजच्छन्ननीडे समंता ललितगतिरिदानी रंस्यते राजहंसः ॥७॥ भगवन्नुत्तारके गत्वा स्थानमार्जारयोरमेध्यं युगलान्वितं सरस्वतीं प्रति होम प्रारेमे । देव्युवाच-रे! मम शरीरे स्फोटकान् किमुत्थापयसि । तेनोक्तम्-मया सप्त भवानाराधिता। षट्सु भवेषु स्तोकस्तोकमायुर्मत्वा सप्तमे बाहुल्यादायुष एवं याचिता 'यदहमजेयो भूयासं, मयाऽत्र पत्तने श्रीदेवाचार्याणांपुरतस्तथा श्रीपालस्य पुरतो हारितम् । देव्याह-मया पत्तनं वर्जितमासीत्, कथं नु त्वमिहायातः। स नृपस्य छन्नं निःसृत्य गतः॥ इति श्रीपालकवेःप्रबन्धः ॥६॥ ___4 प्रस्तुत B संग्रहमें, इस प्रबन्धकी सिर्फ वे ही ६ पंक्तियां विद्यमान हैं जो मुद्रित पृष्ठ २६ की टिप्पनीमें दी गई हैं। आगेका भाग पन्नोंके विनष्ट होजानेसे खण्डित है। यह प्रबन्ध BR संग्रहमें भी, कुछ पाठभेद के साथ, उपलब्ध होता है इसलिये इसकी स्थानपूर्ति, उसी संग्रह परसे की गई है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य। १७ ६९. (३) BR संज्ञक संग्रह पाटणके सागरगच्छके उपाश्रयमें सुरक्षित ग्रन्थ-भण्डारमेंसे हमें इस संग्रहकी प्राप्ति हुई है । भण्डारकी सूचिमें इसका नाम आशराजादिप्रबन्ध लिखा हुआ है । वर्तमान सूचिके मुताबिक, इसका डिब्बा नं. १८, और प्रति नं० ५० है। इसकी पत्रसंख्या कुल ७ है । पत्रोंकी नाप लंबाईमें प्रायः १० इंच और चौडाईमें ४३ इंच है । इसमें सब मिला कर कोई २३ प्रबन्ध लिखे हुए हैं जिनमेंसे ५-६ प्रबन्धोंको छोडकर शेष सब प्रायः उपर्युक्त B संग्रहके साथ पूर्ण समानता रखते हैं। इस संग्रहका लिपिकर्ता पंडित रविवर्द्धन गणि है । यद्यपि लेखकने इस प्रतिके लेखनकालकी सूचक कोई मिति आदि नहीं दी है-केवल 'लिखितं पं० रविवर्द्धनगणिभिः।' इतना लिखकर अपना नामनिर्देश मात्र किया है-तथापि इनके हाथके लिखे हुए बहुतसे ग्रंथ और पत्रादि पाटण वगैरहके भण्डारोंमें जो हमने देखे हैं और जिनमेंसे कुछ पर संवत् मिति आदिका भी उल्लेख किया हुआ मिलता है, उससे इनका अस्तित्व विक्रमकी १८ वीं शताब्दीके पूर्व भागमें निश्चिततया ज्ञात होता है। इस कारणसे, यह संग्रह कोई ढाई सौ पौनेतीन सौ वर्षका पुराना लिखा हुआ कहा जा सकता है। विशेषतया B संग्रहके साथ समानता रखनेसे, और पं. रविवर्द्धनका लिखा होनेसे इस संग्रहका संकेत हमने BA अक्षरोंसे किया है। इसमें संग्रहित प्रबन्धोंके क्रमादिका सूचन करनेवाली संपूर्ण तालिका इस प्रकार है। B संज्ञक प्रतिमें लिखित प्रकरणानुक्रम प्रस्तुत पुस्तकमें मुद्रित क्रम प्रबन्धनाम पत्र. पृष्ठि. पंक्ति Bसंग्रहका क्रमांक प्रबन्धक प्रकरणांक पृष्ठांक १ कपर्दियक्ष-जावडिप्रबन्ध प्रा० १...२...१ ६२२४ स. १...२...१७ २ आशराजप्रबन्ध (प्रा.१...२...१७ . ३५६११६ स० १...२...२१ ३ भिर्तृहरोत्पत्तिप्रबन्ध प्रा०१...२...२२ स. २.......३ ४ मानतुङ्गसूरिप्रबन्ध प्रा०२...१...३ स० २...१...२५ १४. ६ ३२४-६२७ ५ अभयदेवसूरिप्रबन्ध प्रा०२...१...२५ २१४-१५ ।स. २...२...१५ ६ *मोरनागप्रबन्ध [प्रा० २...२...१५ स०२...२...१८ ७ लूणिगवसहीप्रबन्ध [प्रा० २...२...१८ स० २...२...२५ ८ अम्बिकादेवीप्रबन्ध प्रा० २...२...२५ स० ३...१... ३ ६२२० ९ दरिद्रनरक्रयप्रबन्ध प्रा० ३...१...३ ६४ स० ३...१...११ १० मनइ मन इति प्रबन्ध प्रा० ३...१...११ स० ३...१...१४ ११ नागार्जुनप्रबन्ध प्रा. ३...१...१५ . ४३ ६२०८-०९ ९१ स० ३...२... ३ १२ महं सांतूप्रबन्ध प्रा० ३...२... ३ ४४ १९ स०३...२...१२ ५ ८ 1 इस प्रबन्धकी समाप्तिके बाद प्रतिमें यहां पर वे २ पद्य लिखे हुए हैं, जो प्रस्तुत पुस्तकके पृ. ३१, पद्यांक ९७-९८ के साथ मुद्रित हैं । इनमें आरासणके नेमिनाथ चैत्यकी प्रतिष्ठाका वर्णन है। यह प्रबन्ध, प्रबन्धचिन्तामणिगत इसी नामके प्रबन्धकी प्रायः शब्दशः प्रतिकृति है इसलिये इसको प्रस्तुत संग्रहमें मुद्रित नहीं किया गया । देखो, ऊपर पृ० १२ की 3-6 वाली टिप्पनी । * देखो, ऊपर पृ० १३ पर की गई इसी प्रबन्ध परकी टिप्पनी । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह। १०७ . 6 १३ वसाहआभडप्रबन्ध प्रा०३...२...१२ २१ ६६१ स० ३...२...२६ ३३ १४. न्याये यशोवर्मप्रबन्ध प्रा० ४...१...१ स. ४...१...८ ४८ ६२३३ १५ अंबुचीचप्रबन्ध प्रा०४.......८ स० ४...१...१४ ६२३४ १६ द्वात्रिंशद्विहारप्रतिष्ठाप्रबन्ध । प्रा०४...१...१९ स. ४...२...३ . २९८७ ४४ १७ विप्पभडिप्रबन्धान्तर्गतप्रकरण प्रा. ४...२...४ स० ४...२... ९ १८ सिद्धर्षिप्रबन्ध प्रा०४...२...१० ६२ स० ५....... ६ ५५ २३१ १०५ १९ माघपण्डितप्रबन्ध प्रा. ५...१...६ स० ५...२...१३ ६२८-३० २० भोजषड्दर्शनप्रबन्ध प्रा० ५...२...१३ स० ५...२...१५ ६३२ २१ देवाचार्यप्रबन्ध प्रा० ५...२...१६ स० ६...२...२१ २२ फलवर्द्धितीर्थप्रबन्ध प्रा०६...२...२२ ६५७ स० ६...२...२५ ३१ २३. जिनप्रभसूरिप्रबन्ध प्रा० ७...१...१ सि०७...२...२० । ६१०.(४) G संज्ञक संग्रह राजकोट (काठियावाड) निवासी जैन गृहस्थ श्रीयुत गोकुलदास नानजीभाई गान्धीके निजी पुस्तक संग्रहमेंसे यह प्रति हमें प्राप्त हुई है । गोकुलदास नामका सूचन करनेके विचारसे इस प्रतिका संकेत हमने G अक्षरसे किया है। इसकी पत्रसंख्या कुल १९ है, लेकिन बीचमें ८ के बादका १ पत्र विलुप्त हो गया है इसलिये अब इसके १८ ही पन्ने विद्यमान हैं। ये पन्ने चौडाईमें ४ इंच और लंबाईमें १२१ इंच जितने हैं। पत्रके प्रत्येक पार्श्वमें १५-१६ पंक्तियां लिखी हुई हैं । लिखावट बहुत अच्छी है-अक्षर सुवाच्य और सुन्दराकार है। प्रति कहीं, कभी, पानीसे कुछ भींग गई मालूम देती है और इसलिये किसी किसी पन्नेका कुछ कुछ हिस्सा एक दूसरे पन्नेके साथ चिपक जानेसे, कहीं कहीं कुछ अक्षर या शब्द नष्ट हो गये हैं। प्रस्तुत पुस्तकके पृष्ठ ३५ और ४५ आदिमें जो खण्डित पाठ दिया हुआ दिखाई देता है, वह इसी सबबसे है। प्रति अच्छी पुरानी है। लेकिन, खेद है कि लेखकके नामादिका कोई निर्देश नहीं मिलता । इसके अन्तमें जो पातसाहिनामावलि लिखी हुई है उससे इतना अनुमान किया जा सकता है कि, वि० सं० १४०७ के बाद, दिल्लीके बादशाह पेरोज (फिरोजशाह) के राज्यकालमें यह लिखी गई होनी चाहिये । । यद्यपि, यह संग्रह एक प्रकारसे संपूर्ण ही है-आद्यन्तका कोई भाग खण्डित नहीं है, लेकिन, इसके पन्नोंपर जो मूलभूत क्रमांक लिखे हुए हैं उनसे सूचित होता है कि यह एक किसी बहुत बडी पोथीका एक छोटासा हिस्सा मात्र है । पन्नोंके ये मूलभूत क्रमांक प्रत्येक पन्नेकी दूसरी पूंठी (पृष्ठि) पर, दाहिनी ओरके हासियेके मध्यभागमें, गेरूआ रंगसे रंगे हुए चंद्रक पर लिखे हुए हैं। इसमें प्रथम पत्रका यह क्रमांक १२६ है और अन्तिम पत्रका १४४ । बप्पभट्टिसूरिके प्रबन्धका एक प्रकरण इस संग्रहमें लिखा हुआ मिलता है लेकिन अन्यान्य संग्रहोंमें इस विषयका कोई प्रकरण या वर्णन न होनेसे हमने इसको मूल ग्रन्थमें सम्मीलित नहीं किया। बप्पभट्टिसूरिके सम्बन्धमें अनेक ऐसे छोटे बडे स्वतंत्र प्रबन्ध लिखे हुए भण्डारोंमें मिलते हैं, और इन सबका एक स्वतंत्र पृथक् संग्रह करनेका हमारा संकल्प है। इसलिये प्रस्तुत संग्रहमें इस प्रकरणको केवल संग्रहकी दृष्टिसे टिप्पनीके परिशिष्ट रूपमें दे दिया है। ___.. जिनप्रभसूरिका सम्बन्ध प्रबन्धचिन्तामणि वर्णित व्यक्तियों के साथ न होनेसे तथा विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ, जो इन्हींकी एक विशिष्ट कृति है और इस ग्रन्थमालामें इतःपूर्व मूल रूपसे प्रकाशित भी हो चुका है, उसके द्वितीय भागमें इनके विषयका समग्र साहित्य एकत्रित करनेका निर्धार है, इसलिये, इस प्रबन्धको भी अन्थान्तर्गत नहीं किया गया । परंतु संग्रहमात्रकी दृष्टिसे टिप्पनीके परिशिष्टमें मुद्रित कर दिया गया है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । इससे ज्ञात होता है कि इस पोथीमें, इन पन्नोंके पहले, १२५ पन्ने और अवश्य थे। लेकिन जब तक वे कहींसे मिल न आवें तब तक, उन पन्नों में क्या लिखा हुआ था उसके जाननेका कोई उपाय नहीं है। ११. G संग्रहका आन्तर परिचय .. यह संग्रह, ऊपरके PB. B..संग्रहोंके जैसा कोई सुसंकलित या सुग्रथित ग्रन्थस्वरूप नहीं है। यह एक प्रकारका, पुरानी कथा वार्ता विषयक संक्षिप्त टिप्पणोंका प्रकीर्ण संग्रह मात्र है, जो किसी विद्वान्ने अन्यान्य ग्रन्थों में पढ कर या अन्य जनोंके मुखसे सुन कर निजकी स्मृतिके लिये लिख लिया है । इसमें, प्रारम्भमें जो विक्रमादित्य प्रबन्ध लिखा हुआ है वह एक मात्र किसी पुरातन लिखित-प्रबन्धकी अनुलिपि-रूप है; और बाकी सब इस संग्रहके लिपिकर्ताका स्वयं किया हुआ संक्षिप्त और अव्यवस्थित संचयन है । इसमें, विक्रमादित्य प्रबन्धको छोड कर कोई १३५-३६ कथा-वार्ताओंका संचय है। इसमें न किसी प्रकारका कोई क्रम है, न पूर्वापरका कोई सम्बन्ध है; न भाषाकी संस्कारिता है, न वर्णनकी व्यवस्थितता है । एक ही व्यक्तिके विषयकी कोई वार्ता कहीं लिखी हुई है और कोई कहीं । इनको कुछ व्यवस्थित रूप देनेके लिये हमने इन सबको अलग छांट छांट कर, प्रस्तुत पुस्तकमें, प्रबन्धचिन्तामणिगत विषयवर्णनके क्रममें संकलित की हैं । जैसे कि सिद्धराजके साथ सम्बन्ध रखनेवाली सब बातें सिद्धराजके वर्णनप्रसंगमें एकत्रित दे दी हैं और वस्तुपालके इतिवृत्तके साथ सम्बन्ध रखनेवाली बातें वस्तुपालके प्रबन्धके साथ प्रथित कर दी हैं। वैसे ही प्रकीर्ण या फुटकर जो दृष्टान्तादि हैं उन सबको अवशिष्ट प्रकरणके रूपमें एक जगह संकलित कर दिया है (देखो, पृ. ११२ से ११५)। ...इस संग्रहमें ये सब कथा-वार्ताएं किस क्रममें लिखी हुई है उसका यथार्थ बोध होनेके लिये, P. B. आदि संग्रहोंकी सूचिके मुताबिक इसकी संपूर्ण सूचि भी यहां पर, उसी तरह विस्तारके साथ दी जाती है। G संज्ञक प्रतिमें लिखित प्रकरणानुक्रम प्रस्तुत पुस्तकमें मुद्रित क्रम प्रबन्धनाम : पत्र. पृष्ठि. पंक्ति प्रकरणांक पत्रांक विक्रमार्कप्रबन्ध प्राय १२६ १ १ स. १२७ १ १४ ६११ विक्रमादित्यप्रबन्ध स० १२८ १ १० ६१२ १ जयसिंहदेवसभाक्षोभवृत्तान्त । ६७२ २ सभाक्षोभविषयक अन्यवृत्तान्त - ६२५२ ३ जीव-इन्द्रियसंवादवृत्तान्त* ४ गूर्जरविद्वत्ताविषयक डामर-भोजसंवाद स, २ ५ अनुपमाकारितनन्दीश्वरप्रासादकथा ६ भोजराज-सिद्धरसवर्णनवृत्तान्त ६४३ ७ हेमसूरिमातामरणवृत्तान्त ८ वस्तुपाल-नोडासइद धनवर्णन स, ११० १९५८ ९ पृथ्वीराजमृत्युवृत्तान्त स , २ २ $२०१ १. देवेन्द्रसूरि-कुमारपालवृत्तान्त स०, २६ ६१०१ + विक्रमविषयक इन दोनों प्रबन्धोंके लिये इस संग्रहमें क्रमसूचक संख्यांक नहीं दिये गये हैं। इसके आगेके सब प्रकरणोंके साथ १. २. ३. ४. आदि क्रमांक बराबर दिये हुए हैं। इससे मालूम होता है कि ये दोनों प्रबन्ध किसी पुरातनकृति के अनुलिपि मात्र हैं, और बाकीका सब लिखान, इस संग्रहके लेखकका निजका संकलन है। . * इस कथाका विषय आध्यात्मिक हो कर, प्रस्तुत ग्रन्थ के विषयके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखता । इसलिये हमने इसको मूलमें प्रविष्ट नहीं की, लेकिन संग्रहकी दृष्टि से टिप्पनीके परिशिष्टके रूप में पृथक् दे दी है। प्रा० १२७ १ १५ २. * स , १ स , ه ه ه ه ه ل * * * 씡쑁핑 ہ * Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९७८ ६१९७९ ६९८६ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह। ११ वीसलदेवगीतशिक्षणवृत्तान्त , २११ १२ नागलदेवीगीतोपदेशवृत्तान्त १३ जगडूवसाहप्राप्तअश्ववृत्तान्त १४ पृथ्वीपुरश्रेष्ठीवृत्तान्त १५ गयणा-मयणा इन्द्रजालिकवृत्तान्त १६ विक्रमरोगोत्पत्तिवर्णन १७ मयणल्ला पापघटवृत्तान्त १८ अभयदेवसूरिवृत्तान्त १९ वलभी-यवनागमनवृत्तान्त २० अमरचन्द्रकविवृत्तान्त । २१ कच्छदेशीयजिणहाव्यापारीवृत्तान्त २२ यशोभद्रसूरिपारणावृत्तान्त २३ कर्णाटनृपपुलकेशिमृत्युवृत्तान्त २४ जगडूदानवृत्तान्त ६१८ ६६८ ६२४२ ६१७७ ६२५४ ६९८७ २५) २६ जगदेवदानवृत्तान्त+ 성 성 성 정 성 정 영 성 성 정 정 정 성 성 정 정 정 정 엉 엉 엉 엉 엉 엉 성 성영 rammmmmorrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr 2200 220002 virar 2009 22. " २६१९८ २८ सीतापण्डितावृत्तान्त २९ हेमाचार्यछत्रशिलावृत्तान्त ३० भोजराजनमोविधानवृत्तान्त । ३१ कालीदाससमस्यापूर्तिवृत्तान्त ३२ नागलदेवी-मयणसाहारवृत्तान्त ३३ उदयप्रभसरस्वतीध्यानवृत्तान्त ३४ कुमारपालराज्यप्राप्तिशकुनवृत्तान्त ३५ कर्णमातादेमतिमृत्युवार्ता ३६ भोजकुण्डलोत्कीर्णकाव्यवार्ता ३७ हैमव्याकरणकरणवृत्तान्त ३८ भोज-भीम-कर्णयुद्धवृत्तान्त ३९ लघुवाग्भटकृतौषधिवृत्तान्त ४० वाग्भटजलोदररोगवृत्तान्त ४१ श्रीमातावृत्तान्त ६४० ६७८ ६४१ ६१७ ६१८१ ६९७० ६९० ६४५ ६४२ ६७४ ६२१८ ६२१६ * इस कथाका भी इतिहास के साथ कोई संपर्क न होनेसे, इसे भी टिप्पनीके परिशिष्टमें मुद्रित की है। + पद्यांक (२७१) के बाद जो ३ कण्डिकायें दी गई हैं और जिनमें क्रमसे (२७२), (२७३), (२७४), के पद्यांक दिये हुए हैं वे ही तीन कण्डिकायें ये २५, २६, और २७ संख्या वाली कथायें समझनी चाहिए। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य। * * * * * * 져 성 성 성 성 영성 정 정 경 경영 ११२ * * * * * E ४२ वराहमिहिरवृत्तान्त स° , २ १३ ६२०७ ४३ *... ... ... ४४ रामवनवासफल भक्षणवार्ता ४५ घृतवसतिकाउत्पत्तिप्रबन्ध ४६ हेमसूरि-वादि-शब्दच्छलवृत्तान्त ४७ यशोधनव्यवहारिवृत्तान्त ६२४३ ११२ ४८ मयणसाहारनासाच्छेदनवृत्तान्त ६९८० ४९ सारंगदेवप्रधानवृत्तान्त ६२४१ ५० सिद्धि-बुद्धियोगिनीवृत्तान्त ६७१ ५१ सिद्धराज-सान्तूमंत्रीवृत्तान्त ५२ उन्मत्तप्रधानवृत्तान्त स° ,, २१४ ६२४४ ११३ ५३ मित्रचतुष्कवार्ता ६२४५ ५४-६१ [ विनष्टपत्रांक १३४ तमे नष्टा एताः सर्वाः वार्ताः] ६२ मुंज-भोज-बन्धमोक्षवृत्तान्त x स. १३५ १ ५ ६३ भाग्यविषयकराजिलदृष्टान्त स. १३५ १ ७ ६२४६ ६४ भोजराज-दामरवृत्तान्त स° , २ २ २१ ६५ वाक्पतिराजकविवृत्तान्त स° ,, २४ २४० ६६ रात्र्यन्धकथानक ६२४७ ६७ व्यवहारिसुताकथानक ६८ चातुर्थिकज्वरवृत्तान्त स, २१४ ६९ काचमयपेटीवृत्तान्त स° , २१६ ७० राजपुत्रीकथानक ७१ भोजराज-खात्रपातकवृत्तान्त** स०, १५ * सिर्फ आधी पंक्तिमें इस ४३ ३ प्रबन्धकी सूचना है। इसमें कौनसी वार्ता या कथाका सूचन है सो स्पष्ट ज्ञात नहीं होता। जो आधी पंक्ति लिखी हुई है वह इस प्रकार है "विवाहयित्वा यः कन्यां०॥१॥ इति हेतोर्जलधिभुक्तराजपत्नीसुतसपादलक्षद्वीपार्पणप्रबन्धः॥ छ॥४३॥" 1 प्रस्तुत ग्रन्थमें उपयोगी न होनेसे इस वार्ताको भी हमने ग्रन्थान्तर्गत नहीं किया। यह इस प्रकार है श्रीचित्रकूटपर्वते प्रथमवनवासे सौमित्रिणा वने भ्रान्त्वा वनफलान्यानीय श्रीरामदेवाने मुक्तानि । तदा फलानि दृष्ट्वा देवेन निगदितम् पृथिव्यामन्नपूर्णायां वयं च फलकांक्षिणः । सौमित्रे! नूनमस्माभिः पात्रे दत्तं पुरा नहि ॥४॥ x इस वृत्तान्तका प्रारम्भका कुछ कथन, विनष्ट पत्र १३४ में रह गया है इसलिये इसके प्रारंभमें.........ऐसी खण्डित भाग सूचक बिंदुराजि दी गई है। ** भ्रमवश, यह वृत्तांत, मूल संग्रहमें मुद्रित होनेसे रह गया है, इसलिये, इसे यहां पर उद्धृत कर दिया जाता हैअन्यदा श्रीभोजेन निशि सौधोपरिस्थितेन निजराज्यस्य स्फातिं विलोक्य गर्वितेन प्रोक्तमिति चेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूल: - सद्वान्धवाः प्रणयगर्भ [गिरश्च भृत्याः। गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरङ्गा......] 성 경 경영성 정성 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह। २ | 영성 영성 영성 영성 엉 엉 엉 엉 엉 엉 엉 성 성 정 영성 영 " ७२ गूढमहाकालोत्पत्तिवृत्तान्त ७६+ जगद्देवदानवृत्तान्त ६१९८१ ७७ वराहमिहिरवृत्तान्त ६२०७ ७८ वाग्भटवैद्यवृत्तान्त ६२१७ ७९ वीसलदेवचक्षुपीडावृत्तान्त । ६१८२ ८० कुमारपाल-कालिंगीयकवृत्तान्त । ८१ , द्विकलत्रव्यवहारिवृत्तान्त ८२ सोमेश्वरकृत वस्तुपालप्रशंसा । ६१६१० . 'सातवाहनसम्बन्धिगाथावृत्तान्त ८३ जलोदररोगि-आचार्यवृत्तान्त ६२४८ ८४ शिवतपोधनकवितावृत्तान्त ८५ वस्तुपालअन्त्ययात्रावृत्तान्त ६१७५ ८६ कुमारपालशकुनप्राप्तिवृत्तान्त ६८८ ८७ कुमारपालराज्यनिवेशवृत्तान्त स, २१४ ६९१ ८८ कुमारपाल-कडीतलारक्षवृत्तान्त ८९ कुलचन्द्रक्षपणकवृत्तान्त ९० कुष्ठरोगि-आचार्यवृत्तान्त ९१ सामुद्रिकशास्त्रवेदिवृत्तान्त १४ ९२ लाखाकफुल्लडवृत्तान्त ९३ वनराजजन्मवृत्तान्त ९४ जयसिंहकृतधाराभंगवृत्तान्त ९५ , त्रिभुवनपालघातवृत्तान्त ९६ कुमारपालवर्णसिद्धीच्छावृत्तान्त रस ,, १ ७ ६९७ , सिद्धराजगुणतुलनावृत्तान्त , १ ९ ६९८ ९७ अम्बाकारितपद्यावृत्तान्त . स. ,, १११ ९८ अजयपाल-कपर्दिमंत्रीवृत्तान्त स ,, १ १३ ६१०६ वारं वारं पदत्रयमिति पठ्यमाने दरिद्रोपद्रुतेनैकेन पण्डितेन खात्रपातं कुर्वता इति पठितम् "संमीलने नयनयोर्निखिलं न किश्चित् ।" इत्युक्ते राजा धीरां दत्त्वा प्रसादितः॥७२॥ + मूल आदर्शमें ७३, ७४ और ७५ ये क्रमाङ्क छोड दिये गये हैं और ७२ के बाद ७६ का अंक दिया हुआ है। इसका कारण कुछ समझमें नहीं आता । क्या भूलसे ऐसा किया गया है या अन्य किसी विचारसे सो अस्पष्ट है। पृ. ८५ पर जो जगद्देव प्रबन्ध दिया हुआ है उसकी प्रथम कण्डिका मात्र ही [पंक्ति १० से १६ तक] इस क्रमांक वाले वृत्तान्तका भाग है। शेष ३ कण्डिकायें ऊपर निर्दिष्ट २५, २६, २७, क्रमांक वाले वृत्तान्तकी अंशभूत हैं। A पृ. ७४ परकी पंक्ति १८ से २६ तकका अंश । 1 इन गाथाओंके साथ कोई क्रमांक नहीं दिया गया है। 2 मूलमें इसका क्रमांक भी ९७ ही लिखा हुआ है और यह गलती आगेके सभी क्रमांकोंके साथ चलती रही है । इसी तरह आगे १.१ और ११६ क्रमांक भी दो दो दफा लिखे हुए हैं। GG « Ransonants * * * * * * * * * * * * * * * * * * * s www ६२४९ ६२१ ६७३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८३ ६१०२ ६१०३ ६१८४ ४४ ६२१८ प्रास्ताविक वक्तव्य । ९९ आम्बडकृतमल्लिकार्जुनवधवृत्तान्त स० १३९ २ १०० आम्बडोचारितप्रतिज्ञावृत्तान्त १०१ भृगुकच्छीयबालहंससूरिवृत्तान्त स° , २ १० १०२ राजीमतीछिपिकावृत्तान्त १०३ हेमाचार्योक्तकुमारपालमृत्युवृत्तान्त १०४ कुमारपालमृत्युप्रसंगवृत्तान्त । १०५ सोमेश्वरत्यक्तव्यासवृत्तिवृत्तान्त १०६ विक्रमादित्य-कार्पटिकवृत्तान्त १०७ वस्तुपालदानवृत्तान्त | १०८ खलकृतवस्तुपालनिन्दावृत्तान्त १०९ भोजराजप्रदत्तवैद्यग्रासवृत्तान्त ११० लघु-वृद्ध-वाग्भटवैद्यवृत्तान्त १११ षड्दर्शनसम्मेलनवृत्तान्त' ११२ वस्तुपालमंडितचच्चरवृत्तान्त ११३ देपाकदत्तपुण्यवृत्तान्त ११४ व्यवहारिजगडूवृत्तान्त ११५ पुञ्जराज-श्रीमातावृत्तान्त ११६ पादलिप्त-नागार्जुनवृत्तान्त ११७ वामनस्थलीयपण्डितवृत्तान्त ११८ व्यवहारिमुख-उन्दरिकावृत्तान्त ११९ वलभीविनाशसूचनवृत्तान्त १२० वस्तुपालकृतसंघामंत्रणवृत्तान्त १२१ वस्तुपाल-माणिक्यसूरिमीलनवृत्तान्त स° १२२ हरिहर-मदनकविद्वयवृत्तान्त १२३ कुमारपालसन्तत्यभाववृत्तान्त स° ,, १२४ कुमारपालसोमेश्वरदर्शनवृत्तान्त स° ,, १ ७ १२५ मयणल्लामोचितबाहुलोडकरवृत्तान्त स° ,, १ १२६ हेमसूरिसर्वरसवेदकंवृत्तान्त स ,, १ १२७ रामकृतधान्यकुशलपृच्छावृत्तान्त स°, १ १२८ पादलिप्तसूरिकृतवादिपराजयवृत्तान्त स° , २ ३ 성 정 엉 엉 엉 엉 엉 엉 엉 영영 성 정 정 성 성 성 정 성 성 성 경영 crorarror ramanar or or or nmaran manor or or narmanararar 19032m son 19 20 21 2 9 or ६१६९ ६१५९ ६१८५ ६१९७ ६२१३ ६२५० २५१ ६१६८ ६१७३ ७ 9 ६२५५ ६२१३ 3 प्रतिमें गलतीसे इसका क्रमांक दुबारा १०१ दिया गया है। 4 पृ० ९७ की पंक्ति ४ से ८ तकका अंश। . 5 पृ० १९ पर मुद्रित षड्दर्शनप्रबन्धका संक्षिप्त सूचन मात्र किया गया है इसलिये यह पंक्ति संग्रहमें पुनर्मुद्रित नहीं की गई। I पृ. ९५ पर, मुद्रित पंक्ति ३ से ७ तकका अंश । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ 성성성 영성 영성 영 * * * * * * * * * * ss * * * * * * पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहः। १२९ खरतराचार्यप्रदर्शितदयावृत्तान्त स० १४२ २ ८ ६२५६ १३० चारणकृतयशोवीरप्रशंसावृत्तान्त स ,, २ ११ ६१११४ १३१ राज्ञीभ्रातृवुद्धिपरीक्षावृत्तान्त स० ६२५७ १३२ पं० रामचन्द्रविपत्तिवृत्तान्त १३३ वस्तुपालसैनिकभूणपालवृत्तान्त १३४ सोमेश्वरकृतवस्तुपालस्तुति १३५ वामनद्विजकृतवस्तुपालचाडावृ० १३६ वस्तुपालकारितमूलराजहस्तच्छेदवृ० स० ,, ६१७४ १३७ पिप्पलाचार्यप्रदर्शितविनोददानवृ० स० ,, १३८ हरदेवचाचरीयाकवृत्तान्त ६१७६ १३९ पाटलीपुरीयनन्दनृपवृत्तान्त स , २ १५ ६१८९ १४० जयचन्द्रनृपवृत्तान्त स. १४४१ ७ २०६ - पातसाहिनामावलि स° , २ ७ ६१२. (५) Ps संज्ञक संग्रह __पाटणके संघके नामसे प्रसिद्ध ग्रन्थ भण्डारमें ६ पन्नोंकी एक प्रति हमें मिली जिस पर वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्ध ऐसा नाम लिखा हुआ है । पाटणके संघका नाम सूचित करनेके लिये हमने इसका संकेत Ps अक्षरसे किया है । नाम मात्र देखनेसे तो ऐसा भ्रम होता है कि यह वही प्रबन्ध होगा जो राजशेखर सूरिके प्रबन्धकोषमें अन्तिम भागमें प्रथित है; क्यों कि इस प्रबन्धकी स्वतंत्र प्रतियां भी कहीं कहीं दृष्टिगोचर होती हैं। लेकिन प्रतिका प्रत्यक्ष अवलोकन करने पर विदित हुआ कि यह प्रबन्ध राजशेखरकृत प्रबन्धसे सर्वथा भिन्न है। उतना ही नहीं परंतु इस प्रबन्धके प्रणयिताका उद्देश तो उक्त प्रबन्धकोषगत वस्तुपाल-तेजपाल प्रबन्धमें जो जो बातें अनुल्लिखित रहीं हैं, खास करके उन्हींका संग्रह करनेका है। इस बातका उल्लेख प्रबन्धप्रणेताने स्वयं प्रकरणके प्रारम्भ-ही-में 'अथ श्रीवस्तुपालस्य २४ प्रबन्धमध्ये यन्नास्ति तदत्र किञ्चिल्लिख्यते।' यह पंक्ति लिख कर किया है । इससे यह भी ज्ञात होता है कि इसका प्रणयन, राजशेखरकृत प्रबन्धके पश्चात् हुआ है । इसका प्रणेता कौन है सो ज्ञात नहीं होता । प्रतिमें कहीं भी कर्ताका नामनिर्देश किया हुआ नहीं मिला । संघके भण्डारकी यह प्रति है बहुत पुरातन । यद्यपि इसमें लिपिकर्ता वगैरहका कोई उल्लेख नहीं होनेसे इसका लेखन-समय ठीक निश्चित नहीं कर सकते; तथापि इसकी स्थिति देखते हुए, संभवतः वि० सं० १५०० के पहले या उसके आसपास इसका समय सूचित किया जा सकता है। इस प्रबन्धके प्रणेताने, प्रबन्धगत वृत्तान्तोंमेंसे बहुतसे तो B और P संज्ञक पुराने संग्रहों ही परसे नकल किये मालूम देते हैं। सिर्फ कहीं कहीं कुछ वृत्तान्त या पंक्तियों में न्यूनाधिकता दृष्टिगोचर होती है। ६१३. (६) परिशिष्ट __ प्रस्तुत संग्रहके अन्तमें, पृष्ठ ११६ से १३४ तक, प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेप इस शिरोलेखके नीचे जो १ परिशिष्ट दिया गया है उसकी मूल प्रति हमें अहमदाबादके डेलाके उपाश्रयवाले भण्डारमेंसे प्राप्त हुई है। इसकी पत्रसंख्या ५ है । अन्तमें 'श्रीजयसिंहप्रबन्धाः । ऐसा पुष्पिकावाक्य लिखा हुआ होनेसे भण्डारकी सूचिमें 'जयसिंहप्रबन्ध' के नामसे इसका निर्देश किया हुआ है । परंतु प्रतिका साद्यन्त अवलोकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि इसमें, प्रायः प्रबन्धचिन्तामणिसंकलित कितनेएक मुख्य मुख्य प्रबन्धोंका किसी विद्वान्ने संक्षिप्ती___x इस कण्डिकाका अन्तिम भाग,-पृ. ५१ की पंक्ति १२ से १७ तक । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक वक्तव्य | २५ करण किया है । इस संक्षेपका कर्ता कौन है सो अज्ञात है, वैसे ही प्रतिके लेखन समयादिका सूचक भी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ । प्रतिका रूप रंग देखते हुए अनुमान कर सकते हैं कि कोई ३००-४०० वर्ष जितनी पुरातन तो जरूर होगी । प्रतिके हांसियोंमें कई भिन्न भिन्न प्रकारके हस्ताक्षरों में टिप्पनादि किये हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं इससे ज्ञात होता है कि इसका पठन वाचन कई जिज्ञासुओंने किया है । $ १४. उपसंहार I इस प्रकार प्रस्तुत संग्रहका संकलन करनेमें हमने भिन्न भिन्न ऐसे ६ संग्रह ग्रन्थों का सम्पूर्ण उपयोग किया है; जिनमें ५ तो स्वतंत्र प्रबन्ध-संग्रह हैं और १ प्रबन्धचिन्तामणि- ही के कुछ भागका स्वल्प संक्षेप मात्र है । एक Ps संग्रहको छोड कर शेष पांचों प्रतियोंके कितनेएक पत्रोंके हाफ्टोन ब्लाक बनवा कर उनकी प्रतिकृतियां इसके साथ संलग्न कर दी गई हैं जिससे पाठक प्रतियोंके वर्णनगत परिचयके साथ इनके आकार-प्रकार आदिका प्रत्यक्ष दर्शन भी कर सकेंगे । अन्तमें हम इन प्रतियोंके संरक्षक, और इस प्रकार यह समुद्धार करनेमें हमें पूर्ण सहानुभूति पूर्वक इनका यथेष्ट उपयोग करने में सुलभता प्राप्त करा देने वाले सज्जनोंके प्रति हम अपनी आदरपूर्ण कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इनमें P प्रतिके साथ विद्वान् मुनिवर श्रीपुण्यविजयजी महाराजका, तथा G प्रतिके साथ उसके संग्राहक श्रीयुत गोकुलदास नानजी भाई गान्धीका नाम निर्देश हमने ऊपर स्पष्ट कर ही दिया है । यहां पर B प्रतिके संरक्षक, स्वर्गत मुनिवर श्रीभक्तिविजयजीके सुशिष्य और साहित्यप्रिय मुनि श्रीजसविजयजी महाराजके प्रति हम अपना सविशेष कृतज्ञतभाव प्रकट करते हैं जिन्होंने कई वर्षों तक इस प्रतिको हमारे पास पडी रहने देनेकी उदारता बतलाई है तथा और और भी पुस्तकादि प्राप्त करने - कराने में जो सदैव हमारे प्रति सोत्साह प्रेरणा एवं प्रयत्न करते-कराते रहते हैं । महावीर जन्मतिथि, चैत्र, सं० १९९२. भारतीनिवास; अहमदाबाद. } For Private Personal Use Only जिन विजय Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक-टिप्पनीसूचितपरिशिष्टसंग्रह [१] B संग्रहगत ऋषिदत्ता कथानक । रथमईनं नगरम् , राजा हेमरथः, सुयशा राज्ञी, पुत्रः कनकरथः । इतश्च कौवेरी नगरी, राजा सुन्दरपाणिः, राज्ञी वासुला, सुता रुक्मिणी । प्राप्तवरा जाता, कनकरथस्य दत्ता । ततः परिणेतुं तस्यागच्छतो देशसीम्नि आवासेषु दत्तेषु केनापि पुरुषेण इति विज्ञप्तम्-यत् , अस्य देशस्य स्वामी राजा अरिदमन इति ज्ञापयति-मम सीम्नि राजचिन्हानि मुक्त्वा त्वया एकाकिना गन्तव्यम् । अन्यथा युद्धसज्जो भव । तथा तस्य दूत[स्य ] मुखादमुं श्लोकं श्रुत्वा यदि मत्तोऽसि मतंगज! किममीभिरसारसरलदलनैः। हरिमनुसर खरनखरं व्यपनयति स करटकण्डूतिम् ॥१। श्लोकमाकर्ण्य युद्धाय समागतः । एयति घोडा एअ बल एअति निसिआ खग्ग। इत्थ मुणीस जाणीअइ जो नवि वालइ वग्ग ॥२॥ धडु घोडइ सिरु धरणिअलि अंतावलि गिद्धेहिं । - महु कंतह रिणसामीअह दिन्नं तिहु खंधेहि ॥ ३ ॥ . स राजा कुमारेण जितः । आज्ञाविधायी जातः । स व्रतं पालयित्वा मुक्तिं जगाम । कुमारेण श्रीनेमितीर्थ प्रति] प्रयाण कृतम् । एकस्मिन्नपि सरसि आवासेषु जातेषु वनमध्ये काञ्चित्कन्यकां दृष्ट्वा गतां ज्ञात्वा परिभ्रमन् श्रीयुगादिचैत्यं गतः । देवस्तवनानन्तरं यावत्पद्यायां निविष्टः, तावदेको वृद्धतपोधनः कन्यासहितः पूजोपचारयुत्तो 'दृष्टः । कन्या कुमार विलोक्येति चिन्तितवती किमिन्द्रः किमु वा चन्द्रः किमु वासौ दिवाकरः । देवः किमथवा साक्षादयं मकरकेतनः ॥ ४ ॥ अथवा कलङ्की रजनीजानिस्तपनस्तपनः पुनः । अनङ्गास्तु मनोजन्मा तत्कोऽयं सुभगाग्रणीः ॥ ५ ॥ अथ कुमारेण स नमस्कृतः । मुनिना इत्युक्तः-त्वं कस्य सुतः?, केन कारणेनात्रायातः ? । कुमारस्य भट्टेन पूर्ववृत्तान्तः कथितः । कुमारेणापि मुनेः पार्थादिति पृष्टम् कथमत्र ?, के यूयम् ?, का कन्या ?, कथमत्र देवगृहम् ? । कारणं कथयत । ततो मुनिना देवपूजाऽनन्तरं कुमारं निजाश्रये नीत्वा खचरित्रमिति कथितम्-वत्स! श्रूयताम् , अस्मिन् भरते मंत्रिवती पुरी, हरिषेणो राजा, प्रिया प्रियदर्शना, पुत्रोऽजितसेनः । कदाचित्स राजाऽश्वापहृतो वनेऽस्मिन् कच्छ-महाकच्छानुक्रमे कुलपतिं विश्वभूतिं प्रणम्य उपविष्टः । आशीर्वादः प्रदत्तस्तेन । राजन् ! यस्यांशयोः खेलति कुन्तलाली श्रियेस्तु वः स प्रथमो जिनेन्द्रः । गम्भीरसंसारसमुद्रमध्यादुन्मजतः शैवलवल्लरीव ॥ ६॥ ततोऽनन्तरं लक्षणैर्नृपं विज्ञाय मुनिना पृष्टम् कुतो यूयमेकाकिनः ?, कथमिहागताः । तेन वृषभान्वयेन श्रीआदिनाथः प्रासादः कारितः । मुनिना तस्य विषापहो मंत्रो दत्तः । ततः स राजा खपुरं गतः । तत्र समये मंगलावती पुरी, प्रियदर्शननरेन्द्रस्य प्रीतिमती दुहिता । केनचित् पुरुषेण राज्ञः सर्पदष्टा कथिता । ततो हरिषेणस्तत्र गत्वा, तां निर्विषीकृत्य परिणीय च स्वपुरं समायातः । कियत्यपि काले वृद्धत्वे भार्यया सह तापसीं दीक्षां जग्राह । तां प्रकटगर्भी निरीक्ष्य, राजर्षिमुपालभ्य कुलपतिरन्याश्रमं तौ त्यक्त्वाययौ । तेन दुःखितो यावदास्ते तावत्पुत्री जाता, राज्ञी मृता च । पश्चात्तेनाष्टवर्षाणि यदृषभदत्ता Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक-टिप्पनीसूचितपरिशिष्टसंग्रह । सुता पालिता । ततस्तां रूपवती ज्ञात्वा लोकापहारभयेनादृश्यीकरणमञ्जनं दत्तम् । सा बाला, या, हे राजकुमर ! त्वया दृष्टा । तया च त्वं दृष्टः । परस्परानुरागतः सांप्रतं मम सुतामिमां त्वं परिणय । तेन सा ऋषिदत्ता परिणीता । ऋषिणा कुमार प्रत्युक्तम्-अस्यास्त्वं जीवितेशवत् इति ज्ञेयं भवता । युक्तोऽसि भुवनभारे मा नम्रां कन्धरां कृथाः शेष! । त्वय्येकसिन् दुःखिनि सुखितानि भवन्ति भुवनानि ॥७॥ सम्प्रति न कल्पतरवो न सिद्धयो नैव देवता वरदाः। जलद ! त्वयि विश्राम्यति जगतोऽपि हि जीवितारम्भः ॥८॥ मुनिः पुत्रीं प्रति शिक्षां ददाति रक्खाकंडयमंतोसहीभि मा खिवसु पुत्ति ! अप्पाणं । छंदाणुवत्तणं पिअयमस्स एअं वसीकरणं ॥ ९॥ कुलवध्वा विधातव्यं श्वश्रूशुश्रूषणव्रतम् । दैवतं हि पतिः स्त्रीणां माता तस्यापि दैवतम् ॥ १० ॥ संसारभारनिर्वाहे वामा वामानवाहिनी । प्रसादपात्रं मोहस्य तेनैवालमलंकृता ॥ ११ ॥ अभ्युत्थानमुपागते गृहपतौ तद्भाषणे नम्रता तत्पादार्पितदृष्टिरासनविधिस्तस्योपचर्या स्वयम् । सुप्ते तत्र शयीत तत्प्रथमतो जह्याच शय्यामिति प्राच्यैः पुत्रि! निवेदिताः कुलवधूशुद्धान्तधर्माश्रमाः॥१२॥ . इति शिक्षा प्रदत्ता । मा भूः सुखे च दुःखे च वत्से ! धर्मपराअखी। धर्म एव हि जन्तूनां पिता माता सुहत प्रभः॥१३॥ पश्चान्मुनिः राजसुतं सुतां मुत्कलाप्य खयं नमस्कारपरः सन् अग्नौ प्रविष्टः । तत आत्मीयकलत्रं रुदन्निवार्य प्रेतकृत्य कृत्वा तत्स्थाने वेदी विधाय निजपुरं प्रति कुमारश्चलितः । तया मार्गे सर्वत्रापि देवतादत्तबीजैर्वृक्षा रोपिताः, उद्गताश्च । प्रयाणैः पश्चाद्गृहं गतौ । पित्रा मात्रा वर्धापनं कृतम् । सुखेन तिष्ठन्ति । ___ इतश्च, राजसुता रुक्मिणी ऋषिदत्तां परिणीतां श्रुत्वा कुमारं वाञ्छती महादुःखिता योगिनीं सुलसाभिधां षट्कर्मनिरतां सपन्यास्त्यागाय रथमईनपुरे प्रेष्य तयाऽवखापिनी विद्यां दत्वा पुरुषवध-नरमांसभक्षणे ऋषिदत्तायाः कलंकमारोप्य श्वशुरपार्थाद देशमध्यान्निष्कासिता । सा केनापि सार्थेन सह औषधप्रभावेण पुरुषवेषं विधाय खजन्मभूमौ पैत्रिकं वनं गता । सा योगिनी खपुरं गता । तया रुक्मिण्या अग्रे सर्व निवेदितम् । ततो रुक्मिण्या पितुरग्रे ऋषिदत्तामृतवृत्तान्तं कथयित्वा पाणिग्रहणार्थ कुमारस्याकारणाय विज्ञप्तेन जनकेन मनुष्यान् प्रेष्य सुतादानं विधाय प्रगुणितः । तैर्मनुष्यैः समं पाणिं ग्रहीतुं पूर्ववनं यावकुमारः समायातः, तां पूर्वभूमिकां दृष्ट्वा ऋषिदत्तागुणान् स्मृत्वा मुक्तकण्ठं रोदनं विधाय यावच्चैत्यं गतः, तावद्दक्षिणाङ्गस्फुरणं विचार्य, अत्र किं शुभं भावि ? इति किञ्चिच्चिन्तयन् यावदास्ते तावत्पुष्पो[प]हारहस्तः तपखिकुमाररूपधारी कोऽपि मुनिः समायातः । रूपपरावर्तेन पुष्पाणि कुमारस्य समर्प्य स्वयं देवपूजादिकृत्यं विधाय इति चिन्तितम्-यत् एष परिणेतुं गच्छति । ततः कुमारेण स मुनिः पृष्टः-कुतो यूयम् ? कथमत्र ? । मुनिनोक्तम्-अत्राश्रमे पूर्व हरिषेणराजर्षिः सुतां ऋषिदत्तां कस्यापि आगतस्य राजकुमारस्य दत्वा काष्ठभक्षणं कृतवान् । अस्मिन् शून्याश्रमेऽहं तस्य शिष्यतुल्यः देशान्तरे तीर्थयात्रां विधाय समागतः । पञ्चवर्षाणि बभूवुः । निजगुरुतीर्थमोहेन अत्राश्रमेऽहं तपःकुर्वाणोऽसि । ततः कुमारोऽतीव स्नेहोल्लासात्तं मुनि Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक-टिप्पनीसूचितपरिशिष्टसंग्रह । नेहाट्यभाषणपूर्व भोजनवस्त्राभरणादिदानं विधाय कौबेरी प्रति तेन मुनिना समं गृहीत्वा गतः । रुक्मिणी परिणीता । तया रुक्मिण्या एकान्ते महास्नेहे जाते पतिः ऋषिदत्तावृत्तान्तः पृष्टः । तेन कथितम्-ऋषिदत्तायाः शीलगुणो विनयगुणो रूपगुणादिकोऽनिर्वचनीयस्तत्र किं कथ्यते । उक्तं च रूपलक्ष्मीयुषो यस्याः समस्या कामकामिनी । कर्णिका-मेनिका-नागयोषितः पदपांशवः ॥१४॥ जाते तद्विरहे दैवादासी त्वमसि मे प्रिया । यत् क्षीरेण विना घृष्टिरपि प्रीतिकरी न किम् ॥१५॥ तदभावे त्वं मया परिणीता । यथा षट्रसपेशलस्य भोजनस्याप्राप्त्या किं कथितान्नं न भुज्यते । तद्वचनं श्रुत्वा गृहवासमवगणय्य सा रुक्मिणी पूर्वकारितं निजं पौरुषं सर्वं कथितवती । कुमारस्तदाकर्ण्य महासकोपस्तामात्त्यक्त्वा, रे! पापिष्ठे ! आत्मानं मां च नरके कथं क्षिपसि? गच्छ, मम नेत्रादपसर । अदृष्टमुखी भव । सा रूपवती महासती कथाशेषी कृता। लोकद्वयविरुद्धमप्रेक्ष्य तदा मुनिस्तद्वचनं श्रुत्वा निजकलङ्कगमनेनातीव हृष्टः । निशान्ते राजाङ्गणे चितां कारयित्वा कुमारः काष्ठभक्षणाय श्वशुरेण लोकेन च वार्यमाणोऽपि यावचलितः, तदा सर्वलोकवचनोपरोधात्तपखिमुनिनोक्तम्-हे कुमार! कोऽपि मृत्वा कर्मवशाद् भिन्नगतिक आत्मप्रियस्य मिलितः ? । इति वारितोऽपि यदा न तिष्ठति तदा मुनिनेत्युक्तम्-देव! तव खेहाकृष्टा सा मृताऽपि मिलिष्यति, इति ज्ञानेन जानामि । कुमारः पृच्छति-भवद्भिः क्वापि सा दृष्टा ज्ञाता वा । कथं किंवा हास्यपदम् ?-इति पृष्टे यमपुरे कृतान्तमन्दिरे तव प्रिया विद्यते । यदि तस्याः स्थाने ग्रहणके कोऽपि मुच्यते, तदा समेति । इत्युक्ते कुमारश्चिन्तातुरः तत्र को याति, कस्तिष्ठति?; इत्युक्ते मुनिनोक्तम्-देवाहं यास्यामि । यतो दुस्त्यजः स्नेहस्त्वया समम् । यदि भवान् ममादेशं दास्यति तदाहं यास्यामि । कुमारः प्राह-मयाग्रे तुभ्यं जीवितव्यं हृदयं दत्तम् , शेषं जीवितव्यं विद्यते तदपि गृहाण । तेनोक्तं पुनर्मूते कार्ये यत्किञ्चिदहं याचि (?) तन्निषेधयितव्यं नहि । ओमित्युक्ते प्रतिश्रुते स मुनिलक्षसंख्यलोकसमक्षं पटान्तरे प्रविष्टः । क्षणान्तरे मुक्तं पूर्वम् । दृष्टिः क्षिप्ता । ततोऽतीव हृष्टः कुमारः । ऋषिदत्तायुतः श्वशुरेण पूजितः । निजा सुता निर्भसिता । अकृत्यकारिणीति भणित्वा । पश्चात्प्रयाणकमुहूर्ते ऋषिदत्ताया अग्रे इति भणितम्-अहं खमित्रं यममन्दिरे तत्र (व.) स्थाने मुक्त्वा कथं यामि गृहम् ? । अहं मित्रसमीपे गमिष्यामि । तदा हसित्वा प्रिया प्राहदेव! एतत्सर्वं जनकदत्तौषधविलसितम्। भवद्भिरन्यन्नावधारणीयम् । परं यथा रुक्मिण्यां प्रसादो भवति तथा कर्तव्यम् । यतः न हसंति परं न थुणंति अप्पयं विप्पिअंपि न चवंति । एसो जाण सहावो नमो नमो ताण पुरिसाण ॥ १६ ॥ प्रियावचनं श्रुत्वा हृष्टः । श्वशुरेण प्रेषितः । प्रियाद्वययुतो निजपितृगृहं ययौ । ततो हेमरथो राजा निजापराधविलक्षो वधूमनुनीय कुमारं राज्ये संस्थाप्य भद्राचार्यपाधैं व्रतं गृहीत्वा मुक्तिं गतः । ततः कनकरथस्य पृथ्वीं पालयतः ऋषिदत्तायाः सिंहरथो जातः । हर्षपूरितस्य राज्ञः कियत्यपि गते काले गवाक्षोपविष्टस्य मेघमण्डलं संपूर्ण दृष्ट्वा प्रचण्डपवनेन खण्डीकृतं गलितं च विज्ञाय चेतसि विरागवान् जातः संसारोपरि । इति चिन्तयति जजरइ जहा देहं खणेण तहा जोवणं विणासेइ । खणदिट्ठनहरूवा इह इट्टसमागमा सवे ॥ १७ ॥ ऋषिदत्तायाः समं यावत् रात्रौ इति चिन्तयति, तावत्प्रभाते उद्यानपालकेन तत्रायातसूर्यागमनं कथितम् । ततः प्रियया सह गुरुं प्रणम्य देशनां श्रुत्वा प्रियाया राक्षसीकलङ्ककारणं निष्कारणं पृष्टवान् । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक - टिप्पनीसूचितपरिशिष्टसंग्रह । २९ उक्तं च-- इह भरते गंगापुरे गंगदत्तराज्ञः गंगाकुक्षिसमुद्भवा गंगसेना सुताऽऽसीत् । चंद्रयशासाध्वीसमीपे सुता सम्यक्त्वसारं धर्मं प्राप्यातीव सदाचारचतुरा बभूव । कदाचित्तत्रैव पार्श्वे गंगाभिधा तपोधना तपस्तपति । तां लोको नमति स्तौति च । अस्याः सदृशी तपःपात्रं साध्वी क्वापि न दृश्यते जगति - इति प्रशंसावाक्यं श्रुत्वा गंगसेनाऽसहमाना लोका इति कथयति - इयं गंगा दम्भपरा दिवा तपः करोति रात्रौ राक्षसीव मृतकमांसं भक्षयति । अस्या नामापि न ग्राह्यम् । सा गंगा क्षमापरा सती सर्वं सहते न किमपि वदति । तदलीकदूषणेन दूषिता गंगसेना महत्तपः कृत्वा मिथ्यादुः कृतस्यादानात् मृत्वा स्वर्गं गता । पश्चाद् भवं भ्रान्त्वा मुहुर्मुहुः, गंगापुरे राज्ञः सुता जाता । ततो मुनिसुव्रततीर्थनाथस्य पार्श्वे धर्मं प्राप्य सकपटं विकटं तपो विधाय पर्यन्तेऽनालोच्यानशनान्मृत्वा ईशानेन्द्रस्य प्रिया जाता । ततः पश्चाद् हरिषेणमहीपतेः सुता जाता ऋषिदत्ताभिधाना । अस्याः स कलङ्क उदयं गतः । सा गंगा साध्वी भवान् भ्रान्त्वा रुक्मिणीसपत्नी जाता । तेन कलंकोडदाय रुक्मिण्याः । अतो भवशतैरपि कर्मभ्यो न छुट्यते । ततः सूरिवचनाज्जातिस्मरणतः पूर्वभवस्वरूपं विज्ञाय राजा सुतं सिंहरथाभिधानं राज्ये संस्थाप्य सकलत्रो व्रतमग्रहीत् । ऋषिदत्तासाध्वी भद्दिलपुरे श्री शीतलतीर्थे[ रा ] जन्मभूमौ केवलज्ञानं प्राप्य मुक्तिं जगाम । ॥ इति ऋषिदत्ताकथानकं समाप्तम् ॥ १७ ॥ [२] B और BR संग्रहस्थित मोरनागप्रबन्ध । एकदा श्रीशत्रुंजये राजादनतरोरधः श्रीआदिनाथे (Br श्री ऋषभदेवे) समवसृते मयूरमुखात् सर्पश्चरणाये पपात । मयूरः पृष्ठिमाययौ । खामी विस्मितः । वैरं दृष्ट्वा तयोर्भगवानाह - भोः ! पूर्वभवाभ्यासादिहापि वैरमारब्धम् ? । शृणुतःवालाकदेशमध्ये सुग्रामग्रामे दत्तः श्रेष्ठी । तस्य द्वौ सुतौ । एकदा श्रेष्ठी अनशनं जगृहे । निर्व्यजनं मत्वा लघुना कटाहि: कृष्टा । इतो वृद्धो भ्राता आययौ । तेन दृष्टा.... गार्थे कलहं कृत्वा मृतौ । तत्रैव सर्वौ जातौ । युद्धा मृतौ । तृतीयनरकं गतौ । तदनु संडौ जातौ । मिलितौ, युद्धा मृतौ । तदनु सर्प - मयूरौ जातौ । अत्रापि तदेवारब्धम् ! । ततो जातजातिस्मृती भगवता दत्तमनशनमादाय मृतौ । चतुर्थदेवलोकं गतौ ॥ ॥ इति मोरनागप्रबन्धः ॥ १८ ॥ [३] Be संग्रहोपलब्धबप्पभहिरिकथाप्रकरण । एकदा प्रेक्षणे जायमाने गुरूणां बप्पभट्टिसूरीणां पुस्तकं (?) दृष्टिस्तिमिरेणावृता बप्पभट्टिसूरिभिर्नर्त्तक्या नीलीकंचुके दृष्टिः क्षिप्ता । आमनृपेण ज्ञातं मम मित्रस्यैतस्यामभिलाषोऽस्ति । अत्र किं दुष्करम् । कांठुलीमाहूय रात्रौ मम मित्रमंठे वसनीयम् । इतः सा रात्रौ छन्ना मठं गत्वा गुरूणां चरणसंवाहनं चक्रे । गुरुभिरुक्तम् - का त्वं ? । अहं नर्तकी देवेन प्रहिता । इतो गुरवो रोदितुं प्रवृत्ताः । तया ज्ञातं दशम्यां कामावस्थायामेते । यथा नयनप्रीतिः प्रथमं चित्तासङ्गस्ततोऽथ सङ्कल्पः । निद्राच्छेदस्तनुता स्वभावव्यत्ययस्वपानाशः ॥ उन्मादो मूर्च्छा मृतिरित्येताः स्मरदशा दशैव स्युः ॥ तयोक्तम्-मयि स्वाधीनायां किमिति रुद्यते ? । ताभ्यामु (तैरु ?) तम् - अस्माकं गुरवः स्मृताः । कथं ? - शिशुत्वे गुरूणां पाश्चात्यप्रदेशेषु लुठनं तव पयोधरैः स्मृतम् । तदनूक्तम् चक्षुः संवृणु वक्रवीक्षणपरं वक्षः समाच्छादय रुद्ध स्फूर्जदनेकभङ्गि चतुरं शृङ्गाररम्यं वचः । अन्ये ते नवनीतपिण्डसदृशा मर्त्या भवन्ति क्षितौ मुग्धे ! किं परिखेदितेन वपुषा पाषाणकल्पा वयम् ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक - टिप्पनीसूचितपरिशिष्टसंग्रह । गयइ ( ? ) वइकेरइ देव मढि नहु केणइ परिभुत्त । निश्चोरइ गुज्जररज्जि जिम पाय पसारवि सुत ॥ नृपेण प्रातश्चरणयोगित्वा मानिताः । [४] BR संग्रहस्थितजिनप्रभसूरिप्रबन्ध* । खरतरपक्षे श्रीजिनसिंहसूरित: श्राद्धादिभेदेन पक्षद्वयमजनि । ततः श्रीजिनसिंहसूरिभिः पद्मावतीदेव्या 'राधनार्थं षण्मासान् यावदाचाम्लतपः स्मशाने गत्वा तदाराधनं चक्रे । ततः प्रत्यक्षीभूतया पद्मावत्योचे - किमर्थमाराद्धा ? । तैरुक्तम् - राज्ञः प्रतिबोधशक्ति देहि । देव्योक्तम्-तव षण्मास्येवायुः । तेन किं नृपबोधशक्त्या ? । तथापि वागडदेशे गच्छ । तत्र ग्रामे दश भ्रातरः सन्ति, तत्रैकस्य लघुः सप्ताष्टवार्षिकः सुतोऽस्ति पादे किञ्चिन्यूनांगुलित्वेन लंघायमानः । तान् प्रतिबोध्य †दीक्षय । तस्य च स्वल्पाराधनेनाप्यहं प्रत्यक्षा भाविनी । स च नृपप्रतिबोधकः शासनप्रभावको भावीत्युक्त्वा तिरोदधे देवी । स च सूरिः सर्वं तथा कृतवान् । तं चादीक्षयत् । स्वायुःप्रान्ते तस्य चायं पदमपि ददे योग्यतां ज्ञात्वा । ततः श्रीमल्लिषेणसूरेः स्याद्वादमञ्जरीकर्तुः पार्श्वेऽधीतवान् । [ स ]श्रीजिनप्रभसूरिः । तस्य च यदा यदा भाणने संशयो भवति तदा तदा निद्रायमाण इव किञ्चित् विमृशति । तदा सम्यग् बुध्यते च । ततो घूर्मा (र्ण ?)सरस्वती तस्य नाम तावता दत्तम् । श्रीजिनप्रभसूरिस्तु कियदु ग्रन्थाध्ययनानन्तरं बहुशुद्धप्रज्ञत्वेन तद्घूर्णनावसरे तमर्थं लिखति सम्यग् बुध्यते च । ततो गुरुभिस्तं तथा कुर्वन्तं दृष्ट्वा तस्य प्रत्यक्ष सरस्वती बिरुदं ददे । स क्रमेण म्लेच्छाधिराज पा० पीरोजादिप्रतिबोधकञ्चाभूत् । तेन च साहाय्येन स्याद्वादमञ्जरीवृत्तिः स्वगुरोः कृतिरिति शोधिता । ततः “श्रीजिनप्रभसूरीणां सहायोद्भिन्नसौरभे”त्यादि तत्प्रशस्तौ तैर्न्यस्तम् ॥ इति श्रीजिनप्रभसूरीणामुत्पत्तिप्रबन्धः ॥ एकदा सभास्थे सुरत्राणे सूरिभिः समं धर्मगोष्ठीं कुर्वाणे कोपि मुलाण आगतः । तेन निजटोपिका आकाशे स्थापिता । तदा च सभासदां चमत्कारः समजनि । तदनु सुरत्राणेन सूरेर्मुखं विलोकितम् । ततः सूरिणा निजरजोहरणमुच्छाल्य टोपिका पातिता, परं रजोहरणं नभसि स्थितम् । गुरुणोक्तम् - यस्य कस्यापि शक्तिरस्तु स पातयतु । परं केनापि नापाति । ततस्तैरेव दक्षिणकरेणाग्राहि । द्वितीयदिने तेनैव सजलकुम्भो नभसि स्थापितः । ततो गुरुणा सुरत्राणानुज्ञया रजोहरणेन कुट्टयित्वा घटो भग्नः पानीयं तत्रैव मोदकाकारण स्थितम् । तेन चमत्कारेण जिनशासने महती प्रभावना जाता । एकदा सुरत्राणेनोक्तम्- भोः सभ्याः ! शर्करा कस्य मध्ये क्षिप्ता मिष्टा स्यात् । ततः सभ्यैः स्वधियोक्तं परं तन्मनसि न चमत्करोति । ततस्तेन सूरिः पृष्टः । मुखमध्ये । तेन रञ्जितः । अन्येद्युः स्वमुद्रिकां स्वयं पर्यङ्कपादतले संस्थाप्य सूरिं प्रति प्राह- मम मुद्रिका गता सम्प्रति कास्ति ? सूरिणोक्तम् - योगिनीपुरमध्ये । पुनः पृष्ठे, राजभवनान्तः । पुनः पृष्टे, सभामध्ये । पुनः पृष्ठे पल्यङ्के पादचतुष्टयमध्ये । तत एकं पल्यङ्कपादमुत्पाट्यांगुल्यर्पिता । तेन स रञ्जितः । एकदा पृष्टम् - दुनीमध्ये किं पुष्पं वृद्धम् ? । सभ्यैः स्वधियोक्तम्- परं तन्न मनचमत्कारकारि । सूरिणोक्तम् - वुणिफलं वृद्धम् । येन नवखंडपृथ्व्या लज्जा ढंक्यते । तेन हेतुना जगढंकणीति बिरुदं दत्तम् । एकदा ततः सुरत्राणः समुत्थाय सूरिणा सह स्वावास सोपान कानुल्लंघ्यमानः, एकस्मिन् सोपानके श्रीवीरबिम्बं म्लेच्छैः स्थापितमस्ति, तदुपरि सूरिणा पादो न दत्तः । सुरत्राणेनोचे - कुतोऽस्मिन् प्रस्तरे पादं न ददासि ? । तेनोचे - महावीरोऽसौ कथ्यते । सुरत्राणोऽवकूयद्यसावीदृग् नाम बिरुदं धत्ते तदा कस्मान्मौनेन स्थितः । सूरिराह - हे देव ! यतः कथितं देवेभ्योऽपि दानवा बलिनः स्युः । दुरवस्थापतितानां सर्वेषामीदृगवस्था स्यात् । तदनु सुरत्राणेन निजनरा निष्कासनहेतवे प्रहिताः परं सहस्रैरपि न निःसरति । तदनु सुरत्राणेन पृष्टः सूरिराह-यदि स्वयमेव गत्वोत्पाट्यते तदा निस्सरति नान्यथा । तथा कृत्वाऽऽकएष प्रबन्धः BR सङ्ग्रहे लिखितो लब्धः । तथैवैकस्मिन् अन्यकथासङ्ग्रहेऽप्युपलब्धः । अतोऽस्य पाठभेदा अपि अत्र सङ्ग्रहीताः 1 रविवर्द्धनप्रतौ 'देवी' नास्ति । + एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता प्राचीनादर्शे । 2 प्र० - अंगुलीयमर्पितम् । सन्ति । ३० * प्रातर्नृपेण पृष्टा - For Private Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक - टिप्पनीसूचितपरिशिष्टसंग्रह । ३१ र्षितः । निजावाससम्मुखं प्रौढं जिनालयं कारयित्वा स्थापितः । पृष्टम् - भोः सूरे ! श्रीवीरः पृष्टस्सन् किमप्युत्तरं दत्ते वा । सूरिराह-सर्वं कथयति । तदनु, अन्ते जवनिकां बद्धा सुरत्राणेनोक्तम्-अस्मिन्नगरे कियन्तः सुरत्राणा जाता: ? । वीरेणोक्तम्- सर्वेषां नामायूराज्यपदपालनपूर्वकं संख्यादि । तेनातीव हृष्टोऽभूत् । पुनः पृष्टम् - भवन्तः कियन्तः सन्ति ? । वीरेणोक्तम्-वयं ऋषभप्रभृतयः २४ संख्याः स्मः । तदनु अतिहृष्टेन तेन पंचाशतं द्रम्माणां प्रतिदिनं भोगपुष्पादि पूरितम् । परमेतत्सर्वं सूरिध्यानबलेनैव । तस्मिन्मेले जिनालयं कारितं येन निजावासस्थितो नित्यं प्रणामं करोति । एकदावसरे सूरिणा विजययत्रप्रभावः प्रोक्तः । तदनु पंचाशतद्रम्मैः स कारितः । सुरत्राणेन पृष्टम् - कः प्रभावः ? । सूरिणा कथितम् - यत्रायं यत्रो भवति तत्रारिः कोऽपि नायाति । ततः सुरत्राणेन निजच्छत्राधराखुर्व्यस्तः । ततो मा मुक्ता परं छत्रच्छायायां कथमपि ओतुनैति । अपरः प्रभावः - यस्य देहे असौ बध्यते तस्य प्रहारो न लगति । तदनु सुत्रान छागमानाय्य तस्य देहे विजययत्रो बद्धः । बहवः खड्गप्रहारा मुक्ताः परमेकोऽपि न लग्नः । एकदा सुरत्राणो गूर्जरधरित्रीं प्रति यात्राभिप्रायेण सूरिं प्राह- पांडे ! अहं कस्यां प्रतोत्यां निस्सरिष्यामीति पृष्ठे सूरिणा चिठडिकां लिखित्वा सर्ववृत्तान्तयुतां गोलकान्तस्तां क्षित्वा मुद्रां दत्त्वाऽर्पितो गोलकः । हे देव ! त्वया योगिनीपुर बहिर्गत्वा गोलकं स्फोटयित्वा वाचनीयमिति प्रोक्तम् । सुरत्राणेन तथा कृतम् । यत् सुराणः काकराख्यकोटस्य' एकत्रिंशच्छराणि पातयित्वा निस्सरिष्यति । तेनाभिज्ञानेन स हृष्टः । सच्छायमंजरीफल भ्राजिष्णोराम्रस्य तले सर्वकटकं मेलयित्वा प्रस्थानं साधितम् । तेन सूरिः पृष्टः - भो पांडे ! कीदृशो नयनानंदकारी सहकारोऽस्ति ? । सू० सत्यमेतत् । ततः सूरिणा वृक्षः प्रयाद्विकं सुरत्राणोपरि छायां कुर्वन् सार्द्धं चालितः । सूरिः सुरत्राणेन पृष्टः - भो पांडे ! असौ वृक्षः कस्मात्सार्द्धं समेति ? | सूरिणोचे-यदि सुरत्राणो विदाहिं ददाति तदा पश्चाद्वलित्वा स्वस्थाने याति नान्यथा । तदनु सुरत्राणेन विसर्जितश्चतो निजस्थाने गतः । स सूरिः कियत्प्रयाणैर्नागपुरादिमार्गेण मरुस्थल्यां प्राप । प्रतिग्रामं तन्निवासिनार्योऽक्षतनालिकेरकुसुममालाचन्दनादिभिः [ सूरिराजं ' ] सुरत्राणं च वर्द्धापयन्ति । स ताः सर्वा विलोक्य कंचन पार्श्वस्थ नरं प्राह - एताः स्त्रियो विभूषणपट्टकूल मौक्तिकादिभिर्विवर्जिताः कथम् ? । केनापि दंडिता वानीपाते पातिता वा; येनेहशीनिःश्रीका दृश्यते । (?) तदनु तेन नरेणोचे - हे देव ! अयं देशो निर्द्धनः स्वभावेनैव, अन्यत्किमपि कारणं नास्ति । ततः सुरत्राणेन परोपकारधिया प्रतिस्त्रियं । दीनारङ्ककाः स्वर्णमया: समर्प्य प्रणामं कृत्वा स्वगृहे प्रहिताः । एवं प्रतिग्रामं समस्तबिर्द्धन जनानामाशाः सफलयन पत्तनं यावत्पूर्वरीत्या प्राप । जंघरालनगरे बहिः कटकमुत्तरितम् । श्रीजिनप्रभसूरयः पत्तननगरं गच्छन्तः तपापक्षश्री सोमप्रभसूरिशालायामीयुः । श्रीसोमप्रभसूरिभिस्तेषां प्रशंसा कृता । श्रीप्रभूणां प्रभावादेव सम्प्रति श्री जिनधर्समाहात्म्यमस्ति इति । तैः प्रत्युक्तम्-वयमविरताः सुरत्राणेन सार्द्धं रात्रिंदिवं व्रजामः । सर्वदाऽस्वतन्त्राः । यूयँ चारित्रिणः । युष्माकमाधारे चारित्रमस्तीति । एवंविधप्रस्तावै साधुभिः प्रतिलेखनार्थं सिक्किको-' तारिता । एकस्य साधोः सिक्किका मूषकैर्जग्धा । तद्वचः श्रुत्वा श्रीसूरिभी रजोहरणं भ्रामितम् । ततः सर्वे मूषकाः शाला [तो बहिः ] निःसृत्य सूरेर उपविष्टाः । सूरिभिरुक्तम् - अहो आखव ! एते साधवः कीटिकाया अपि विरूपं न चिन्तयन्ति; भवद्भिः कस्माद्विनाशोऽकारि ? । पुनरुक्तम् वयं कस्यापि विरूपं न चिन्तयामः, एवं यः कश्चिदपराधी स तिष्ठतु, अन्ये गच्छन्तु । ततस्तस्य मूषकस्य देशपट्टी दत्तः, शालान्तर्न स्थेयम् । ततः स द्वारेण निःसृत्यान्यत्र गतः । कियद्दिनानि पत्तने स्थित्वा गूर्जरत्राव्यवहारिभिः सह सुराष्ट्रं प्रति चलितः । एकदा सूरिः पृष्टः - भो पांडे ! हीन्दूजनमध्ये किं तीर्थं बृहत् ? । सूरिराह - राजादनो दुग्धेन वर्षति । तदनु पातसाहिना संघपतीभूय पूजामहाध्वजाऽऽवारिकारात्रिकादिकं कृत्वा संघेन सार्द्धं सहस्रलोकेन सूरिभिः सह त्रिः प्रदक्षिणां कृत्वा राजादनितरोरधः स्थितम् । तावता सूरेर्ध्यानबलेन संघसहितसुरत्राणोपरि कुंकुमकेसरकर्पूरमिश्रं दुग्धं राजादनितो ववर्ष । ततश्चमत्कृतचित्तेन सुरत्राणेन सह गिरिनारं प्रति चलितः । तीर्थासन्नगतेन तेन सूरिः पृष्टः-अस्य तीर्थस्य कः प्रभावः ? । सूरिराह अच्छेद्येोऽभेद्योऽयम् । किन्तु वज्रमयी 1 प्र० - कोष्टस्य । 2 प्र० - वदाहि । 3 प्र०- 'वलित्वा' नास्ति । 4 प्र० - नागपुरनगरमार्गेण । ॐ प्रठ - एतैत्पदं नास्ति । - I For Private Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक-टिप्पनीसूचितपरिशिष्टसंग्रह। मूर्तिः । ततः सुरत्राणेन मुद्रघाते दत्तेऽग्निस्फुलिंगाः प्रकटीभूताः, परं न भन्नः । तेन प्रभावेण रखितेन स्थालं टङ्ककै(स्वा नेमिर्व पितः । रात्रौ केनापि म्लेच्छेन सर्वाः श्यामलप्रतिमा एकत्र मध्ये संस्थाप्य रात्रौ सुप्तम् । एवं च व्यवहारिणामने कथितम्-यद्यते भूता रात्रौ मम प्रत्ययं दर्शयिष्यति तदा छोटयिष्यामि नोचेत्सर्वाचूर्णीकरिष्यामि । एवं कथयित्वा सुप्तः । परं कालवशेन कोऽपि चमत्कारो न दृष्टः । प्रातः श्राद्धजनेन म्लेच्छव्यतिकरं बिम्बव्यतिकरं च सुरत्राणाने निवेदितम् । सुर० स आहूतः पृष्टश्च-भो! तवाने भूतैः किमपि कथितं न वा? । तेनोक्तम्-नहि नहि । ततः सुरत्राणेनोक्तम-सर्वैर्भतैर्ममाग्रे मीनतिः कृता, अयं दृष्टः अस्मानभिभवति तेन त्वया शिक्षा दातव्या। ततः स धृतो निर्घातनाथ श्राद्धैः कृच्छ्रेण मोचितः। एवं प्रकारेण गमनागमने सर्वजनाशां पूरयन् योगिनीपुरे सूरिभिस्सह महामहोत्सवपूर्वकं प्रावीविशत् सुरत्राणः ॥ ॥ इति श्रीजिनप्रभसूरीणां प्रबन्धोऽयं ॥ लिखितं पं० रविवर्द्धनगणिभिः ॥ [४] G संग्रहस्थित जीव-इन्द्रियसंवादकथा । अन्यदा जीवस्येन्द्रियैः सह विवादः । तानि भणन्ति-वयं भव्यानि, अस्मद्विना न स्युः किञ्चन । स जीवो भणेदहं चारुः । एवं सति जीवेनोक्तम्-यान्तु भवन्तः । गते नेत्रे । ताभ्यां विनापि भ्रमणादिकाः क्रियाः कुरुते । ततः कौँ गतौ । ताभ्यां विनापि जातं सर्वम् । नाशिकापि जिह्वापि गता । स्वादं न लभते। गतैः सर्वैरपि जीवः सर्वानपि व्यापारान् कुरुते । ततो जीवेनोक्तम्-आयान्तु भवन्तः । अहं यामि । तथा कृतम् । जीवो वपुषो दूरे स्थित्वा स्थितः। ततः मृत इव स्थितः । वालोा (?) भणत-को गरीयान् ?। तैरुक्तम्-भवान् । एवं निर्णयः झकटकस्य । अतो जीवो नरके न क्षेप्य इन्द्रियाणां स्वार्थ साधयित्वा ॥ ३ ॥ [५] G संग्रहगत धनश्रेष्ठीकथानक । पृथ्वीपुरे धनश्रेष्ठी। तस्य चत्वारः पुत्राः । नियमाणेन पित्रा शय्याधःस्थिताश्चत्वारः कलशा विभज्य समर्पिताः। तेषु रजो-ऽस्थि-भूर्ज-हेमादि विद्यते । ततः पितुर्पतेरनन्तरं ते परस्परं विवादं कुर्वाणाः पशुपालेनैकेन वारिता एवम्रजा क्षेत्रम्, अस्थि पशुअश्वमनुष्यादि, भूर्ज लेख्यादि, कलाहीनः किमपि न वेत्ति सुवर्णम् ॥ १४ ॥ 1 नास्त्येतत्पदं रविवर्द्धनप्रती। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्धचिन्तामणिसम्बद्ध: ॥ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहः ॥ [ P. B. BR. G. Ps. सञ्ज्ञकसङ्ग्रहग्रन्थेभ्यः सङ्गृहीतः । ] १. विक्रमार्क-प्रबन्धाः । 'विक्रमार्कसत्त्वप्रबन्धः (B. ) (१) अकार्षीदनृणामुर्वी विक्रमादित्यभूपतिः । स्वर्णे प्राप्ते तु है रंकस्तुरष्काकुलितां व्यधात् ॥ (२) हूणवंशे समुत्पन्नो विक्रमादित्यभूपतिः । गन्धर्वसेनतनयः पृथिवीमन्नृणां व्यधात् ॥ ९१) उज्जयिन्यामुच्छिन्नवंशो विक्रमादित्यनामा जननीसहायोऽस्ति । तस्य भट्टमात्रो नाम मित्रम् । स एकदा द्रव्यार्जनाय मित्रेण सह जननीमापृच्छ्य चचाल । वज्राकरं स्मृत्वा तदुपरि प्रस्थितः । क्रमेण रोहणाचले 5 गतस्तत्र ग्रामे रात्रौ वसितः प्रातः खनित्रमादाय रोहणाद्रौ गतः । तत्र कौपीनमाधाय त्रिवेलं ' हा दैव' इत्युक्त्वा ललाटं करेण हत्वा घातो दीयते । अतो भट्टमात्रेण चिन्तितम् - असौ सत्त्ववानस्ति । अपूर्ववार्ता विना न 'हा दैव' इति वक्ष्यति । अतो भट्टमात्रेणोक्तम् - देव ! उज्जयिन्या एको जनः समायातस्तेन तव मातुरनिष्टमुक्तम् । इति श्रुत्वा विक्रमार्केण 'हा दैव' इत्युक्त्वा करात्कुद्दालकः क्षिप्तस्तस्य संघातेन दिव्यं रत्नं प्रादुरास । विक्रमेणात्ते मित्रेणोक्तम्– कुशलं गृहे, कोऽपि नायातः । तर्हि कथमलीकमुक्तम् ? । तदनु इमं श्लोकं पठता 10 विक्रमार्केण करात्यक्तं दूरे (३) धिग रोहणगिरिं दीनदारिद्र्यव्रणरोहणम् । दत्ते हा दैवमित्युक्ते रत्नान्यर्थिजनाय यः ॥ इत्युक्त्वा यथागतं ययौ । पुनरुज्जयिन्यामायातस्तत्र पटही वाद्यमानः श्रुतः । कमपि नरं पप्रच्छ - को हेतुरत्र ? । तेनोक्तम्- अत्र राजा विलोक्यते । कथम् ? । योऽत्र राजा भवति स रात्रौ विपद्यते । विक्रमेणोक्तम्- अहं भविष्यामि । इत्युक्ते प्रधानै राज्ये स्थापितस्तेन सन्ध्योपरि नैवेद्यानि कारितानि । पुष्पाद्युपस्करः सकलोऽपि सञ्जी-15 कृतः । पल्यङ्कपार्श्वे पुष्पगृहं तत्र नाना नैवेद्यानि ढौकयित्वा स्वयं खड्ग माकृष्य जाग्रन्नस्ति । इतो गवाक्षविवरात् धूमो विस्तृतः । क्रमेण बर्बरो वेतालः प्रकटीभूतः । नैवेद्यं खेच्छया भुक्तवान् विलेपनं च । पश्चात्तुष्टः सन् विक्रममाहूय बभाषे - राजन् ! तव भक्त्याऽहं तुष्टः । त्वं राज्यं कुरु । परमियद्दिने दिने देयम् । तस्मिन् गते नृपः सुप्तः । प्रातर्नृपकर्षकाः समाजग्मुः । ते नृपं जीवन्तमालोक्य हर्षकोलाहलं चक्रुः । प्रधानपुरुषैर्नृपोऽभिषिक्तः । नित्यं नित्यं तावन्नैवेद्यं निष्पद्यते । एकदा नृपेणोक्तो बर्व्वरः - कस्त्वम् । । तेनोक्तम् - इन्द्रसेवकः । तर्हि मद्वाक्यादिन्द्रं 20 पृष्ट्वा कल्ये 'वाच्यम्–यद्विक्रमस्य कियदायुः । स द्वितीयदिने वादीत् - वर्ष १ शतम्, नाधिकं न न्यूनम् । तर्हि इन्द्रपार्श्वान्मे वर्षद्वयमधिकं कुरु । तेनोक्तम् - इन्द्रेणाप्यनेनायुरधिकं न भवति । तर्हि वर्षद्वयं न्यूनं कुरु । तदपि न भवति । इति विमृश्य द्वितीयदिने नैवेद्यं नाकार्षीत् । स क्षुधितः सन् नृपं प्राह-त्वं स्ववाक्याच्युतः । अतः शस्त्रं कुरु । शस्त्रे कृते नृपेण भूमौ पातयित्वा कण्ठे चरण ः प्रदत्तः । तेनोक्तम्- मा मारय । तवाहं किंकरः । स्मृतेरनु समेष्यामि ॥ 1 25 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ६२) एकदाऽग्निकवेतालेनोक्तम्-त्वं नारीहृदयं वेत्सि परं चरित्रं न । एकदा नृपस्तदन्वेषणाय चलितः । कसिंश्चित्पुरे गतः। तत्रैको द्विजस्तत्सुता कुमारिकाऽस्ति । नृपेण भोजनार्थे द्विजोऽभ्यर्थितः । कुमार्या......(अत्र कियान् पाठो मूलादर्श पतितः प्रतिभाति)...चिन्तितम्-मृत्युरुपस्थितः । सेवोक्ता । तव किङ्करः। मां किं मारयसि । तयोक्तम्-तर्हि अवाझुखो भूत्वा पत । तया दधिकरम्बोध्ये त्यक्तः । मुखं च खरण्टितम् । जनेन पृष्टं 5 किमिदम् ? । असौ देशान्तरिको भोजनाय भणितोऽस्य ऊर्द्ध गाढं जातं अतो पूत्कृतम् । खस्थे जाते जनो गतः। तयोक्तम्-त्वं स्त्रीहृदयं वेत्सि परं चरितं न वेत्सि । नृपः स्त्रीहृदयपरीक्षां कृत्वा स्वराज्ये गतः॥ ३) इत एकदा नगरमध्ये दन्तकः श्रेष्ठी नृपमान्योऽस्ति । तेन गृहार्थे भूराता । सूत्रधारानाहूयोक्तम्तादृग्गृहं मण्डयत यत्र सप्तान्वयिनः खादन्ति पिबन्ति च । द्रव्यं खेच्छया दास्यामि । निमित्तज्ञानाहूय शुभमुहूर्ते गर्तापूरः कृतः। भव्येष्टिकासश्चयेन भव्यकाष्ठैः कृत्वा सप्तषणः (खण्डः ) प्रासादो नृपप्रासादसदृक्कारितः । 10 पूणे निष्पन्ने सूत्रधारैरुक्तम्-एष ईदृशोऽस्ति यादृशे धनिकभाग्यात् सुवर्णपुरुषः पतति । तेन सत्कृतास्ते सूत्रधाराः । निमित्तर्मुहूर्त दत्तम् । तत्र प्रवेशे प्रारब्धे राजपर्यन्तो जनो भोजितः। द्विजातीनां दानं दत्तम् । तदन्ता रात्रौ सुप्तस्तदा 'पतामि' इति वचनमशृणोत् । चिन्तितमभिनवगृहे धूंसकः। द्वितीयवेलायामुक्तम्-पतामि। तावत्परिजन प्राह-रे। रे! उत्तिष्ठत बहिर्निस्सरत । एष पतिष्यति। यावदुत्तिष्ठति तावत्पतामीति श्रुत्वा निःसृतः। कुपितो गत्वा नृपं प्राह-देव ! तव राज्ये सूत्रधारैर्निमित्तज्ञैश्च मुषितः । कथम् ? । स्वरूपमुक्तम् । नृपेण 15 सूत्रधाराः पृष्टाः । देवासौ निर्दोष ईदृशोऽस्ति यस्मात्सुवर्णनरः पतति । निमित्तज्ञैर्मुहूर्ते निर्दोषतोक्ता । राज्ञोक्तम्कियद्रव्यं लग्नम् ?......| वससि नवा । तेनोक्तम्-देव! तृप्तोऽहम् । राज्ञा द्रव्यं दत्तम् । रात्रावारात्रिकानन्तरं तत्र गतः । शय्यापार्थे खगमाकृष्य स्थितः। पतामीति स्वरत्रयमशृणोत् । पतेत्युक्तम् । खट्वाग्रे सुवर्णपुरुषः पपात । प्रातर्नृपेण सर्वेषां दन्तकस्य च दर्शितः । सपश्चात्तापः स प्राह-देव ! यादृग् तव भाग्यं तव सत्त्वं च, तादृग् न कस्य । इति सुवर्णनरप्राप्तिः सत्त्वात् ॥ इति श्रीविक्रमार्कसत्त्वप्रबन्धः॥ 20 दरिद्रक्रयप्रबन्धः (B. BR.) ६४) अथैकदा सर्वत्र देश-देशान्तरे इयं वार्ता-यदुजयिन्यां सर्व विक्रयमामोति । एकेन राज्ञोक्तम्-तदर्ह प्रेषयिष्यामि यत् कोऽपि न लाति । तेनायोमयो दरिद्रनरः कारितः। एकस्मिन् करे सूर्य्यमन्यसिन् प्रमार्जनी । एवं कृत्वा व्यवहारिणोऽर्पितवान् । उज्जयिन्यां गतः सर्व वस्तु विक्रीय एष दर्शनीयः । लक्षं मूल्ये वाच्यम् । यदि कोऽपि न गृह्णाति तदा नृपप्रतोल्यां शब्द क्षिप्त्वा पुरस्य दोषं दत्त्वा व्यावर्त्तनीयम् । तेन तत्र गत्वा सर्व 25 विक्रीतम् । व्यवहारिभिरुक्तम्-किमस्मिन् शकटे ?, उद्घाट्यताम् । तेन दर्शितो दरिद्रनरः। किमिदम् ? । नाम्युक्ते सर्वः कोऽपि नेत्रे निमील्य नष्टुं प्रवृत्तः । तेनोक्तम्-लक्षं दत्त्वैष गृह्यताम् । पुर्या दोषं नानयतेति वदतोऽपि जनो दूरं गतः । तेन नृपद्वारे नीत्वा व्याहृतम्-अस्माकं दरिद्रनरं न कोपि गृह्णाति । पुरदूषणं दत्त्वा यामः । नृपेणाहूतः। दरिद्रपुत्तलः समानीतः । सभाजनस्तु नेत्रे निमील्य स्थितः । नृपेण लक्षं दत्त्वा क्रीतः । भाण्डागारे क्षिप्तः। इतो रात्रेः प्रथमे यामे सुप्ते पुमानेकः समेत्य नृपं प्राह-देवाहं यामि । कस्त्वम् ? । गजाधिष्ठाता । कथं 30 यासि ? । दरिद्रक्रयात् । यत्र दारियं तत्र गजाः क्व ? । तर्हि याहि । तस्मिन्गते द्वितीये यामेऽप्येकयोक्तम्-देव! मुत्कलापयामि । का त्वम् ? । श्रीः। कथम् ?-दारिये क्रीते श्रीः क । मत्संघातो याति । सत्वरं याहि । इतस्तुरीययामे पुमानेत्य बभाषे-देव! मुत्कलाप्यसे । कस्त्वम् ? साहसपुमान् । नृपेणोक्तम्-त्वं मा व्रज । कथं त्वया दारियं क्रीतम् ? । यत्र तत् तत्र साहसं व? । नृपेणोक्तम्-यदि सत्त्वमासीत्तदा क्रीतम् । येषां न, तैः कथं न क्रीतम् । यदि यासति तदा विक्रमादित्ये मृतेइत्युक्त्वा क्षुरिका कृष्टा । तेनोक्तम्-देव ! मैवं कुरु । सकलः सार्थो मयि 85 स्थिते स्थितः। प्रातर्नृपेण दरिद्रपुत्तलकं सभायामानाय्य रात्रिवृत्तान्तं निवेद्य दूरीकृतः।इति दरिद्रक्रयप्रबन्धः ।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विक्रमार्क प्रबन्धाः । वीकमद्यूतकारप्रबन्धः (B.) 1 ९५) तथैकदा नृपतिरन्धकारपदमावृत्य पुरे भ्रमनेकां दिव्यरूपां स्त्रियं दृष्ट्वा प्राह-देवि ! क यासि ? । तयोक्तम्–तव पार्श्वे । तेनोक्तम् - चल । साऽग्रे नृपः पृष्ठे । एकस्मिन् प्रासादे गतौ । तत्र प्राहरिका आकृष्टखङ्गा उपविष्टाः सन्ति, परं चित्रलिखिता इव । तत्र शुनः सन्ति [ते]पि तथैव । सा मध्ये प्रविष्टा, नृपोऽपि । सा तं पञ्चमभूमौ निनाय । तत्र स्नानसामग्रीं कृत्वा स्नापितो नृपः । सा तु च्छद्मना नृपं वञ्चित्वा मध्ये पल्यङ्के विवेश । नृपस्तु द्वारमागत्य ऊर्द्धाभूय स्थितः । पल्यङ्कद्वयं दृष्ट्वा सन्देहपरः कं पल्यङ्कं श्रयामि । तत्र स्त्रीयुगमुपविष्टमस्ति । नृपे सन्देहपरे मुख्या जगाद - रे ! कोऽयं नृपशुः समानीतः । बहिः कृष्ट्वा कमपि नरमानय । चेटी उत्थाय नृपं बहिर्निनाय । तदनु नृपेण चिन्तितम् - मां विनाऽन्यं विदग्धं कमानेष्यति । तदनु चतु*पथान्तर्भ्रमति । इतो वीकमो द्यूतकारी द्यूतादुत्थितः । कान्दविकगृहे दत्ते, वहिः स्थित्वा द्वारमुद्घाटयेत्याह । तेनोक्तम्-कस्त्वम् ? । वीकमओं इत्युक्ते स आह-कस्ते द्वारमुद्घाटयति । मम किं त्रङ्गटकं ग्रहीतुकामः ? । तेनो- 10 क्तम्-वाढं बुभुक्षितः । द्रव्यमय, बहिःस्थस्यैवान्नं दनि । तेन किञ्चिदर्पितम् । कान्दविकेनोक्तम्- कथं गृह्णासि ? । भाजनमर्प्यय । तेनोक्तम्–गृहीत्वा यातुकामः । तर्हि कर्परे कृत्वा समर्प्यताम् । तेनार्पितम् । आदाय प्रपां प्रति व्रजन् तां चेटीं यान्तीं प्राह - रे ! दासि क यासि ? । तयोक्तम्-तवानयनाय । तर्हि भोज्यं गृहाण । तयोक्तम्परित्यज । तत्रापि भविष्यति भोज्यम् । तया सह चलितः । नृपः पृष्ठे लग्नः । तत्र नीतः स्त्रापितश्चीवराण्यर्पितानि भोजितश्च । नृपस्य पश्यतस्सा तद्दृष्टिं वञ्चयित्वा पल्यङ्के उपविष्टा । नृपे चिन्तातुरे स मध्ये प्रविश्य 15 एकस्मिन्पल्यङ्के उपविष्टः । सा स्त्री उत्थिता । पत्राण्यादायाग्रे कर्त्तनं कृत्वाऽर्पितवती । तेन बिष्टकर्त्तनं कृत्वा पुनरर्पितानि । तयोक्तम् - शयनं कुरु । स पल्यङ्के किञ्चिदृष्टिं दत्च्वोच्छीर्षके मस्तकं कृत्वा सुष्वाप । नृपो विस्मितः । कथमनेन स्वामिनी ज्ञाता, कथं पत्राण्यर्पितानि, कथमुच्छीर्षकं ज्ञातम् । स क्रीडितुं प्रवृत्तः । नृपस्तु स्वस्थाने गतः । प्रातर्वीकमो निष्कासितः । प्रपां गत्वा सुप्तः । रात्रिवृत्तं पृच्छ्यमानोऽपि न वक्ति । नृपेण शूलोपरि प्रहितः । यदि रात्रेर्वृत्तं वक्ति तदा न क्षेप्यः । स शूलोपरि नीयमानोऽस्ति । आरक्षकस्त्विति वक्ति-यन्नृपो रात्रि 20 वृत्तं पृच्छत्यसौ न वक्ति । तया नार्या गवाक्षस्थया शब्दः श्रुतः । स दृष्टः । चेटीं प्राह- अरे दृष्टौ बिल्वयुगं भञ्ज । तया तथाकृते तेनोक्तम् - कथयिष्यामि नृपनीतः । नृपेणानायितः । रे ! कथय-मया सा चेटीति [न] व्याहृता; त्वया चेटी किमिति ज्ञाता ? । तेनोक्तम् - देव ! चेटीजनस्य सुरभिवस्तुप्राप्तिः प्रस्तावे भवति । अतोऽस्याः शरीtsम्लो गन्धः । अतश्रेटीत्युक्ता । तत्र प्राहरिकाणां किं कृतमस्ति यत्ते न श्वसन्ते । धूपवशात् । कथं स्वामिनी'चेटी- पल्यङ्को ज्ञातः ? | देव ! उत्तमस्य मनुष्यस्य गृहस्य दक्षिणे भागे पल्यङ्कः स्यात् । पत्राण्यग्रं छित्त्वा तवार्षि - 25 तानि त्वया तु टिमपाकृत्य; तत्किम् ? । तयोक्तम् अहं तव खहृदयमर्पयामि परं बहिर्न वाच्यम् । मया व्याहतम् - यत् शिरो याति परं न वच्मि । तर्हि कथं कथयसि ? । तयैवोक्तम् । तया कथम् ? । चेटीं प्रेष्य मद्दृष्टौ बिल्वं बिल्वेनाहत्य भग्नम् | अत उक्तम्-तत्कथय । पल्यङ्के उच्छीर्षकं प्रान्तो वा कथं ज्ञातः ? देव ! उच्छीर्षके चूर्णेन पादः खरष्टितो भवति । एवं तस्य वचः श्रुत्वा राज्ञोक्तम्- द्यूतं त्यज । त्वया सदैव मत्समीपे स्थेयं मत्पुत्रवत् । स प्रसादपात्रं कृतः । इति वीकमद्यूतकारप्रबन्धः ॥ 30 स्त्रीसाहसप्रबन्धः (B.) ९६) एकदा विक्रमादित्ये जननीं नन्तुं गते माता तस्याशिषं ददौ - वत्स ! स्त्रीणां ते साहसं भवतु । नृपे - णोक्तम्–मातः ! किमिदं साहसम् ? स्त्री तृणसमा । देव्याह-दर्शयिष्यते वत्स ! प्रातः प्रतोलीद्वारे आवासान् दत्त्वा स्थेयम् । नृपस्तत्र गतः । अथ देव्या मालिन्येका पृष्टा - रे ! कोऽत्र व्यवहारी मुख्य: १ । कस्य गृहे बाद गृहिणीरक्षा ? । तयोक्तम्- देवि ! सोमभद्रश्रेष्ठिनः । तत्र त्वं यासि ? । तयोक्तम् - पुष्पाण्यादाय यामि । तस्या 35 For Private Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे गृहिण्याने वाच्यम्-यद्विक्रमार्कस्त्वामभिलषति । तया तत्र गत्वा निवेदितम् । तयोक्तम्-अहं सप्तमभूमेरध उत्तरितुं न लेभे । तया देव्यग्रे व्याहृतम् । देव्या द्वितीयदिने प्रेषिता । अहं रज्जु प्रेषयिष्यामि, तत्प्रयोगेण त्वयाऽऽगन्तव्यम् । तया मानितम् । मालिनी पुष्पस्थाने रज्जुमादाय गता । तस्या अर्पितः। तया स्तम्भे बद्धवा बहिः क्षिप्तः । देव्यादेशाद्राज्ञा गुड्डरस्य स्तम्भे बद्धः। सा भर्तरि सुप्ते दवरकेण भूत्वा बहिर्गता। नृपशय्यान्ते उत्तीर्य 5 नृपं प्राप्ता । नृपेण पृष्टा-का त्वं देवि ? । व्यवहारिपत्नी । राज्ञोक्तम्-सभर्तृकां नाहमभिलषामि । सा तेनैव प्रयोगेण गृहं गता । सुप्तं पति हत्वा पुनरागता । नृपेणोक्तम्-पतिमारिकां न भेजे । तयोक्तम्-देव ! यज्जातं तन्नान्यथा भवति । परं प्रातर्मे साहसमवलोकनीयम् । सा वेश्मनि गता। रजु क्षिप्त्वा पूचक्रे यत् धावत धावत, श्रेष्ठी केनापि हतः । कलकले जाते जनो मिलितः। किमिदं न ज्ञायते । सा मुक्तकेशा काष्ठारोहणे सज्जा जाता। जनो वारयति सा तु न निवर्त्तते । इतःप्रातर्नृपस्तत्र जनाज्ज्ञात्वा तदावासे आयातः। नृपेणोक्ता-रात्रिवृत्तं तत् , 10 आधुनिकमिदं निवर्तस्व । मद्वपुरलंकुरु । कोऽपि न ज्ञास्यति । देव ! नैतद्वक्तव्यम् । बीटकं देहि । अस्य व्रतस्यैत देवोद्यापनम् । सा विसर्जिता । पत्या सहाग्नौ प्रविष्टा । नृपस्तु जननीं नन्तुं गतः । वत्स ! स्त्रियः साहसं तेऽस्तु । नृपेणोक्तम्-देवि! तथ्यमिदं दृष्टम् । इति स्त्रीसाहसप्रबन्धः॥ स्त्रीचरित्रप्रबन्धः (P.) ७) कएदा नृपविक्रमेण देव्यै धावनाय वामपादः पूर्वमर्पितः । तयोक्तम्-यदि स्त्रीचरितं वेत्सि तदा वाम 15 पादं प्रक्षालयामि । नृपस्तमन्वेष्टुं चचाल । मार्गे कसिंश्चित्पुरे जलहारिणीमेकां ददर्श । तया व्याहृतं कुतः समायातः ? तेनोक्तमुज्जयिन्याः। क्व यास्यसि ? नारीचरितमन्वेष्टम् । तर्हि मया सह मगृहे एहि, यथाऽत्रैव ज्ञापयामि । परमहं यद्वच्मि तत्त्वया पृष्ठानुगेन वाच्यम् । नृपो गृहे नीतः। सकलेऽपि कुटुम्बे इति व्याहृतम्-एष मदाता बाल्यादपि मातृशाले वर्द्धितः । अधुना मम मिलनाय समायातः। राज्ञा नतिः कृता । तत्प्रियो भगिनीपतिरिति कृत्वा नतः। गौरवेण भोजितः । तया रात्री स्वपतिरुक्तः यदावयोः सम्बन्धो जन्मावधि । परम20 द्यतनो दिनो भ्रातालभ्यः । एकान्ते भूत्वाऽस्य पार्थापितगृहवार्ता शृणोमि सुखदुःखकरां च । दिवा वक्तुमपि प्रस्तावो नाऽभूत् । उपवरकान्तर्नृपस्य शय्या । राजा भगिनीपतिना सह वार्ता कृत्वा शय्यायां गतः । सा स्वयं पृथक् शय्यां क्षिप्त्वा मध्ये विवेश । पत्युरग्रे प्राह-तालकं दत्त्वा खं समीपे गृहाण । मा जनापवादो भवतु । तेनोक्तम-को जनापवादो मयि सति ?। तयोक्तम-एवं कुरु । तथा कृते वार्ताप्रसङ्गादन तयोक्तम-मदभिलषितं कुरु । राज्ञोक्तम्-त्वं मे भगिनी । तयोक्तम्-कुतः ? त्वं पथिकः। को भ्राता का भगिनी । तयो(तेनो)क्तम्25 जियोक्ता, तदहमकृत्यं [कथंकरोमि ? । न विधाससि, तर्हि पश्य यद्भवति । तया पूत्कृतम्-धावत धावत सत्वरम् । द्वारमुद्घाटयत । नृपेण विनष्टमपि सञ्चित्योक्तम्-मा मारय यत्कथयसि तत्करिष्ये । तमुधःपत श्वासस्तु न ग्राह्यः। तया पादेनाहत्य करम्बकरोटं पूर्वधृतं त्यक्तम् । नृपवदनं खरडितम् । तावत्पत्या द्वारमुद्घाटितम् । दीपः कृतः । जनेन पृष्टम्-किमिदम् ? । पापाहं किं जाने । अस्य मद्धातुः पानीयरसो जातः । उदरव्यथाऽस्य रवात्पपात । मया तु भीतया पूत्कृतम् । जलमानीय वदनं क्षालितम् । शकटिकामाधाय उदरसेकः कृतः। 30 नृपस्तु श्वासमेव न गृह्णाति । सर्वः कोऽपि निष्कासितो मध्यात् । क्षणं सुखासिकाऽस्ति । यदि निर्जनं भवति तदा निद्रा एति । इति कृत्वा जने गते द्वारं दत्त्वोक्तम्-इदं स्त्रीचरितम् । ज्ञातं न वा ? । राज्ञोक्तम् स्वकुलादि आगमनकारणं च । प्रातर्मुत्कलाप्य स्त्रियो मुद्रारत्नं दत्त्वा स्वपुरे गतः। पत्यै वृत्तान्तमावेदितवान् । तयोक्तम्कथं वामपादमर्पयसि ? । तेनोक्तमतः परं न । इति स्त्रीचरितप्रबन्धः ॥ देहलक्षणप्रबन्धः (B.) 356) एकदा नृपो राजपाव्यां व्रजन् केनापि पण्डितेन दृष्टः। तं दृष्ट्वा पण्डितः शिरःकम्प चक्रे । नृपस्तु राजपाटी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमार्कप्रबन्धाः । कृत्वा धवलगृहे गतः । केनाप्युक्तम् - देव ! पण्डितः कोऽपि देशान्तरीयश्चतुष्पथे सामुद्रिकशास्त्र पुस्तकानि ज्वालयन्नस्ति । नृपेणाकारितः । कथं ज्वालयसि ? | देव ! मया जन्मावधि इदमेवाभ्यस्तम् । तव देहमालोक्य एषु विरक्तिर्जाता । तव देहे तल्लक्षणं नास्ति येन कापि भद्रवेला भवति । त्वं तु राजराजेश्वरोऽसि । राज्ञोक्तम्पुनर्मे सर्वशरीरलक्षणान्यवलोकय । देहदर्शिते तेन विशेषतो मुखमोटनं कृतम् । नृपेण पृष्टम् । देव ! किमिदमुच्यते, किमपि न पश्यामि । पुनः किमपि गुप्तं प्रकटं वा स्मर । तेनोक्तम्- यदि वामकुक्षौ कर्बुरमन्त्रं भवति तदा 5 सर्वमेवास्ति । तन्न ज्ञायते । देवेनोक्तम् ज्ञास्यते । क्षुरिकां कृष्ट्वा यावद्विदारयति कुक्षिं तावत्तेन करे धृत्वोक्तम्देव ! सर्वलक्षणानि सन्ति । कथम् ? | यदि सत्त्वमस्ति तत्सर्वाण्यपि । देव ! भिक्षुरहम् मद्वचसा प्रवृत्तः । उक्तं च “सर्व सच्चे प्रतिष्ठितम् ।" नृपेण प्रसादं दत्त्वा विसृष्टः । इति देहलक्षणप्रबन्धः ॥ मनि-मनुप्रबन्धः (B. B. ) ९९) एकदा विक्रमार्को भट्टमात्रं प्राह - भो ! 'मनि मनु' इति किमुच्यते । देव ! दर्शयामि । पुरोपान्ते पाद- 10 मवधारयत । द्वावपि पुरो बाह्ये गतौ । तदवसरे एकः काष्ठभारवाहको दृष्टः । भट्टेनोक्तम् - देव ! अस्योपरि तव चित्तं कीदृशम् ? । न वर्यम् । स भट्टेन चोदितः - अरे ! कस्ते काष्ठानि लास्यति । अद्य नृपः परासुरासीत् । तेनोक्तम्-बलिस्ते जिह्वाया अद्य विशेषतो मम काष्ठानि महार्घ्याणि विक्रेष्यन्ते । बहवो जनाः काष्ठभक्षणं करिष्यन्ति । अग्रे चलितौ । अग्रे महीरीआ एकाऽभ्येति । भट्टेनोक्तम् - अये मध्ये क्क यासि १ । अद्य नृपः परोक्षो जातः, कस्ते दधि लास्यति ? । तया तत्कालं गोलिका त्यक्ता । रुदितुं प्रवृत्ता । भट्टेनोक्तम्- तव नृपेण किं 15 दत्तम् । न किमपि । स पृथिव्या आधार आसीत् । भट्टेनोक्तं नृपस्य । अनेन नरेण पश्चादागतेन क्षेममुक्तम् । साहृष्टा । नृपेण मुद्रारलं दवा प्रहिता । अतो मनसि मनो भवति । नृपः स्वगृहे गतः । इति मनि-मनुं - सम्बन्धप्रबन्धः ॥ ܕ (१०) एकदा राजपाट्यां राजा व्रजन् द्विजमेकं कणावचयं कुर्वाणं दृष्ट्वा प्राह (४) निअउअरपूरणंमि वि असमत्था किं पि तेहिं जाएहिं । [ द्विज:- ] सुसमत्था वि हु न परोवयारिणो तेहि वि न किंपि ॥ (५) 'तेहि विन किं पि' भणिए विक्रमराएण देवदेवेण । दिन्नं मायंगसयं जच्चसुवन्नस्स दो कोडी | विक्रमपुत्र-विक्रमसेनसम्बन्धप्रबन्धः (B. G.) ६११) अथ विक्रमार्के दिवं गते विक्रमसेनकुमारस्य राज्याभिषेकसमये पुरोधसाऽऽशीर्वचः प्रोक्तम् - यत्त्वं 25 महाराज ! विक्रमार्कस्याधिको भावी । तदा राज्याधिष्ठात्रीभिर्देवीभिरधिष्ठिताभिः सिंहासनस्थाभिश्चतसृभिः पुत्तलिकाभिरीषद्धसितम् । राज्ञा पृष्टाः - किमिति हस्यते । । ताः प्रोचुः - देव ! तेन सह साम्यमपि न घटते, कुतोऽधिकत्वम् ? । 20 1. आद्याह- तव पिताऽपूर्वां वार्तां श्रुत्वा [G वार्ता कथकाय ] दीनारपंचशतीं ददाति । एवं श्रुत्वा खापरका - चौरेण दीनारपंचशती याचिता । [G वार्ता चैका कथिता ] देव ! पातालविवरं गन्धवहश्मशानतीरेऽस्ति । तत्र 30 विवरे देवीहरिसिद्धिक्षिप्तो दीपः पतन्मया दृष्टः । तस्यानुपदिकेन मयापि झम्पा दत्ता । पाताले दिव्यं सौधं दृष्टम् । तत्रोत्कलमाना तैलकटाहिका दृष्टा । तत्पार्श्वे एको नरो दृष्टः । पृष्टच किमर्थमिह ? । तेनोक्तम् - अत्र सौधे 1 प्रत्यन्तरे — जानेऽमुं पापं मारयामि । तर्हि पश्यताम् । 2 प्र० - मनई मन । 3G खर्परक० । For Private Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे शापभ्रष्टा देव्यस्ति । योऽत्र झम्पां यच्छति स तस्या वर्षशतं पतिर्भवति । अतोऽहं तदिच्छयात्रासि । [G परं साहसं नास्ति ] इत्युक्ते दीनारपंचशतीं दत्त्वा नृपोऽपि तेन खर्परदर्शितेन पथा गतस्तत्र सत्वरं कटाहिकायां झम्पां ददौ । स तया नार्या जीवितः'। यावत्सा राजानं वृणोति तावन्नृपेणोक्तम्-अमुं नरं वर, मे पूर्णमित्युक्त्वा परोपकारं कृत्वा स्वपुरे समायातः । एवं यः परोपकारी । [G तदधिकोऽयं कथं भावी ।] 52. द्वितीययोक्तम्-एकदा काशीतो द्वौ द्विजौ समागतौ । नृपेणापूर्व पृष्टौ । ताभ्यामुक्तम्-अस्मद्देशे [G पाताल विवरमस्ति । तत्रान्धो राक्षसोऽस्ति । असद्देशस्वामी यशोवर्मस्तैलकटाहिकायां झम्पां दत्ते [G दत्त्वा स्वमांसेन राक्षसस्य पारणं कारयति ] स राक्षसस्तं पुनर्जीवयति । प्रतिदिनं रात्रौ सप्तापवरिकाः सुवर्णाः करोति । नृपस्तु प्रातर्दत्ते । इदं श्रुत्वा तयोजियोर्दीनारसहस्रमदात् । नृपस्तत्र गत्वा कटाहिकायां झम्पां ददौ । राक्षसेन भक्षितो जीवितश्च । राक्षसस्यान्ध्यशापस्यान्तोऽभूत् । नेत्रनिरीक्ष्य विक्रमं प्राह-तुष्टोऽसि तव सत्त्वाद् । विक्रमार्कः-परं 10 यदि तुष्टस्तदाऽस्य नृपतेझम्पां विना नित्यं सुवर्णं देयम् । इत्युक्त्वा परोपकारं कृत्वा स्वस्थाने गतः। तत्कथं विक्रमादधिकस्त्वं भवसि । 3. तृतीययोक्तम्-एकदा केनाप्युक्तम्-देव ! त्वं परकायप्रवेशविद्यां न वेत्सि । नृपेणोक्तम्-को जानाति १ । श्रीपर्वते भैरवानन्दोऽस्ति, स जानाति । नृपः खल्वाटं कुम्भकारमादाय तत्र गतः। योगी मिलितः। स शुश्रूषया तुष्टः प्राह-विद्यां गृहाण । पूर्व मम मित्रस्य देहि । तेनोक्तम्-असौ कुपात्रं विद्यायोग्यो न । नृपेणाग्रहाद् 15 दापिता । नृपस्त्ववन्त्यां गतः । नृपस्तु द्वारे स्थित्वा कश्चिन्नरं नगरस्य शुद्धिं पप्रच्छ । तेनोक्तम्-नृपस्य पट्टहस्ती अद्य विपन्नः । नृपस्त्वन्तःपुरपरीक्षायै मित्रं प्राह-भो ! यदि मम शरीरं रक्षसे, तदाहं परीक्षां करोमि । तेनोक्तम्-करिष्ये। शरीरमेकान्ते मुक्त्वा तं प्रहरके मुक्त्वा गजे प्रविश्य गजं सजीवमकरोत् । स स्वपादैः पुरान्तगर्गतः। इतो मित्रेणाचिन्ति-अमुं भुण्डतरं त्यक्त्वा नृपशरीरमधिष्ठाय भोगान्भोक्ष्ये । स खशरीरं त्यक्त्वा नृप शरीरे प्रविश्य मध्ये आयातः । नृपे आयाते गजो जीवितः इति वर्धापनकान्यभूवन् । गजेन चिन्तितम्-असौ 20 पापो ममोपरि चटिष्यति । इति सश्चिन्त्य गजः स्तम्भमुन्मूल्य बहिर्गत्वा प्राणानौज्झत् । इतः प्रत्यासन्ने आखेटक एकः शुकान् व्यापादयन्नस्ति । नृपजीवस्त्वेकस्स शुकस्य देहे विवेश । स शुको लुब्धकं प्राह-रे! रे ! शुकान्मा मारय । मां गृहाण । यदि ते द्रव्यस्पृहा पुरे चल । परमहं यत्र कथयामि तत्र विक्रेयः। सर्वोऽपि जनो याचते । शुको न वक्ति । मुख्यदेवीचेच्या याचितः । तेन पृष्टम्-दनि । देहि । तेन दीनारानादाय चेट्या अर्पितः। सा देवी शुकं दृष्ट्वाऽऽकृष्टा । सुवर्णपञ्जरे चिक्षेप । मृपोऽन्तःपुरमाययौ । देवी तं दृष्ट्वा खिन्ना सती पाह-देव ! त्वयि 25 देशान्तरं प्रस्थिते मया चिन्तितं क्षेमेणागतेऽपि देवे ततोऽपि मासं यावद्ब्रह्मचर्यम् । तदनु कुलदेवीपूजनं कृत्वा नियममपाकरिष्ये । स पश्चाद् गतः। जनस्तु चिन्तयति-कथं नृपतिरन्य एव जातः १ । देहमस्ति परं सम्यग् न ज्ञायते । देवी शुकेन बाढं संस्कृत-प्राकृतकाव्यैस्तथा रञ्जिता यथा त्वयि जीवति जीवामि । इतो देव्या शुक आकारितः । तेनोक्तम्-देवि! मार्जार्या विभेमि । देव्याह-यदि मरसि तदाहमपि त्वामनु मरिष्यामि । एकदा शुकोऽपि परीक्षार्थ मृतां गृहगोधां दृष्ट्वा शुकदेहमुत्सृज्य तत्र विवेश । सा भित्तौ चटिता। शुकं मृतमालोक्य देवी 30 तेन सह काष्ठाधिरोहणसजा नृपेण वारिता । सा वक्ति यदि शुको जीवति तदा जीवामि, नान्यथा । नृपस्त्वपवरिकां प्रविश्य देहमुत्सृज्य शुकदेहे प्रविष्टः । इतो विक्रमार्कः पल्लीदेहमुत्सृज्य स्खशरीरमादाय बहिरायातः। शुको जीवितः, परं देव्या दृष्टोपि न सुखायते । नृपं दृष्टा तत्कालमभ्युत्थानं चके । नृपेण शुको भाषितस्तेनोक्तमदेवाहमदृष्टव्यमुखः। मां वामपादेन हत्वा मुश्च । नृपेणोक्तम्-तव सानिध्येन मया देवीपरीक्षा लब्धा । स कीरदेहो द्विजो गतः । 1G कन्ययासौ मृतेन जीवितः। 2G राज्यस्वरूपं । 3 G निर्बन्धात्तस्यापि दापिता। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमार्कप्रबन्धाः। (६) विप्रे प्राहरिके नृपो निजगजस्याङ्गेऽविशद्विद्यया, विप्रो भूपवपुर्विवेश तदनु क्रीडाशुकोऽभूत्ततः। पल्लीगावनिवेशितात्मनि नृपो व्यामृश्य देव्या मृति विप्रः कीरमजीवयन्निजतनुं श्रीविक्रमो लब्धवान् ॥ एवं यः परोपकारी कथं तेन समो भविष्यसि । .. 4. तुर्ययोक्तम्-एकदा विक्रमार्केण उत्तमं सौधं कारितम् । राजा तत्र गतः। तत्र चटकयुग्ममस्ति । चटकेनोक्तम्-साधु सौधमस्ति । चटकयोक्तम्-यादृशं स्त्रीराज्ये लीलादेव्या बाह्यगृहमस्ति तादृशमेतत् । राज्ञा श्रुतं तत् । नृपस्तत्र गमनोत्सुकः। स्थानं तु न वेत्ति । सचिन्तं नृपं दृष्ट्वा भट्टमात्रस्तदाशयं परिज्ञाय तत्स्थानविलोकनाय चलितः । तन्मार्गे लवणसमुद्रः । तमुत्तीर्याने रात्री मदनायतने स्थितः । निशीथे हयहेषारवसूचितं दिव्यालङ्कारभूषितं दिव्यं स्त्रीवृन्दं आगतम् । तत्स्वामिन्या कामपूजनं कृतम् । व्यावर्त्तमानानां तासामेकस्याश्वस्य पुच्छे लगित्वा 10 तत्र गतः । दासीभिदृष्टः । स्वामिनीसमीपे नीतः। तया स्नानादि कारितः। रात्रौ तत्रैव सुप्तः। तया स्वपन्त्योक्तम्-मम विक्रमार्कः पतिर्भावी, किं वा मां यश्चतुर्भिः शब्दैर्जागरयति । इत्युक्त्वा सुप्ता । तेन चिन्तितम्चतुर्भिरपि शब्दैन जागर्ति तर्हि एनामहमेव जागरिष्यामि । शब्दाः कृताः। न जागर्ति । तदा पादाङ्गुष्ठश्चम्पितः। तया पादेनाहत्य तत्र क्षिप्तः, यत्र विक्रमार्कः प्रसुप्तोऽस्ति । राज्ञा पृष्टं किमिदम्-तेन वृत्तान्तःप्रोक्तः । राजाऽग्निकवेतालमारुह्य तत्र गतः । वेतालश्छन्नं स्थितः । राजा दासीभिस्तत्र नीतः। तयोपचरितः । तद्रूपदर्शनात्सरागा 15 जाता। परं शयानया पूर्ववत्प्रतिज्ञा कृता । ___A. राज्ञा दीपस्थो वेताल उक्तः-भो दीप! तावदद्य कुवासको जातः। यस्या गृहे आगताः, सा वक्त्येव न । अतस्त्वं कामपि कथां वद । तेनोक्तम्-देव ! कोऽपि विप्रस्तस्य सुता चतुण्णां वराणां दत्ता । एकस्य पित्रा, परस्य मात्रा, एकस्य मातुलेन, एकस्य भ्रात्रा । एवं चतुण्णां दत्ता । चत्वारोऽपि आगताः। विवादे जाते कन्यया काष्ठभक्षणं कृतम् । एकश्चितायां तामनु विवेश । एको देशान्तरं गतः। एकस्त्वस्थीन्यादाय गङ्गां गतः। एकस्तु उटजं कृत्वा 20 तत्र स्थितः श्मशानं रक्षति । देशान्तरिणा सञ्जीविनी विद्या शिक्षिता । चत्वारोऽपि मिलिताः। देशान्तरिणा विद्यया जीविता। पुनर्विवादो जातः। सा राजश्चतुण्णां मध्ये कस्य पत्नीराज्ञोक्तम्-नाहं वेभि, ब्रूहि । स आह-यश्चित्तायाः सहोत्थितः स भ्राता । योऽस्थिनेता स पुत्रः । येन जीविता स पिता । यो भमरक्षकः स भर्ता, पालकत्वात् । ___B. द्वितीययामे राज्ञा ताम्बूलस्थगिका पृष्टा-रे ! कथां काश्चित्कथय । वेतालाधिष्ठाता साऽप्याह-क्वापि पुरे एका मृता ब्राह्मण्यस्ति । तस्या जारेण सह सुता जाता । सा तां त्यक्तुं रात्रौ बहिर्गता । इतस्तत्र कोऽपि 25 शूलाक्षिप्तो जीवन्नस्ति । तस्याः पादेन स्खलितः । तेनोक्तम्-कः पापी दुःखिनोऽपि दुःखमुत्पादयति । तयोक्तम्. * G सझके सङ्ग्रहे एषा कथा किञ्चिद्भिन्नरूपेण लिखिता लभ्यते । यथा - तृतीययोक्तम्-एकदा विक्रमार्को निजपूर्वास्तव्यखल्वाटकुम्भकारयुक्तो देशान्तरं गतः। परकायाप्रवेशविद्यावेदी योगी मिलितः । स आवर्जितः । तुष्टश्च विद्यां दातुमारेभे । राज्ञोक्तम्-प्रथमं मम मित्रस्य । तेनोक्तम्-अयोग्योऽसौ । निबंधात्तस्यापि दत्ता । अवंतीं गतो राजा राज्य करोति । एकदा पहाश्वो मृतः । विद्यापरीक्षार्थ राज्ञा स्वजीवस्तत्र क्षिप्तः। कुंभकारेण स्वजीवो नृपदेहे । कुंभकारो राज्यं करोति । अश्वो मारणाय चिंतितः। नृपजीवस्तु पूर्वमृतशुकदेहे प्रविष्टः । शुकोऽपि सोमदत्तश्रेष्ठिभार्या-प्रोषितभर्तृका-कामसेनागृहं गतः। सा तच्चातुर्येण हृष्टा । राज्ञीसमीपं न गच्छति । श्रेष्ठी समागतः । सा राज्ञीसमीपं गता । अनागमनकारणं पृष्टा । शुकचातुर्यकारणं प्रोक्तम् । तया याचितः सः । सा रंजिता तेन-यथा राज्ञा पूर्वमेकदा शुकेन भूत्वा राज्ञीस्नेहपरीक्षार्थ गृहगोधिकादेहे गतः । राश्या तद्वियोगेन काष्ठभक्षणमारब्धम् । नृपजीवेन शुको जीवापितः । सा व्यावृत्ता । शुकेन सर्वो वृत्तांतो राज्य कथितः । राश्या कुंभकारस्थावर्जना कृता । तेन तुष्टेन विद्याप्रदर्शनाय मृतबोत्कटदेहे स्वजीवः क्षिप्तः । नृपो निजदेहं गतः । अजो भयात्कम्पते । राज्ञोक्तम्-न भेतव्यम्, नाहं त्वत्समो भावी । सकृपोऽस्मि । त्वं सुखं जीव चर पिब । ततः कथं तेन समो भविष्यसि । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे अस्स किं दुःखम् ? । देहपीडादिकमेकमपुत्रत्वमपरम् । चौरेणोक्तम्-त्वमपि कथय का त्वम् ? कथमिहागतासि । निजचरितं तयोक्तम् । शूलास्थनरेणोक्तम्-मां विवाहयेमाम् । मया पुरादाहृतं भूक्षिप्तं द्रव्यं गृहाण च क्रये । ब्राह्मणी आह-त्वं मरिष्यसि । सुता लघ्वी, पुत्रः क्व ? । तेनोक्तम्-अस्या ऋतुकाले कस्यापि द्रव्यं दत्त्वा पुत्रमुत्पादयः । तया सर्व कृतम् । यावत्पुत्रो जातः । मात्रा छन्नं नृपद्वारे मुक्तः । केनापि राज्ञे निवेदितम् । 5 नृपेणापुत्रेण पालितः । राज्यं दत्तम् । राजा मृतः । स पितुः श्राद्धं कर्तुं गङ्गायां गतः । जलात्करत्रयं निर्ययौ । राजा विमितः । कसिन्करे पिण्डं मुश्वामि । वेतालेनोक्तम्-देव ! वद । स पिण्डं कस्य करे मुञ्चतु । राज्ञोक्तम्चौरस्य । येन परिणीता यस्य बित्तम् । ____c. राज्ञा सुवर्णपालकं जल्पितम् । तदपि कथां प्राह-कसिन्नपि ग्रामे कश्चित् कुलपुत्रः । स परिणीतोऽन्य ग्रामे । तत्पत्नी श्वशुरगृहे न याति । स जनैर्हस्यते । एकदा जनप्रेरित आनयनाय गतो मित्रान्वितः। मार्गे 10 सरस्तीरे यक्षदेवकुलम् । तत्र यक्षं नत्वा प्राह-देव ! यदि मे पत्नी समेष्यति तदा वलमानस्ते शिरो दास्यामि । तत्प्रभावाच्छ्शुरकुले सत्कृतः। सा हृष्टा तेन सह चलिता । स चलन् मार्गे वाहिन्या उत्तीर्य यक्षं नन्तुं गतः। यक्षाग्रे स्त्रीलाभाच्छिरश्छेदितम् । स नायाति । मित्रं तु तमनुगतम् । विनष्टं दृष्ट्वा जनापवादात् भीतेन तेनापि शिरश्छिन्नम् । तस्मिन्नप्यनागच्छति, सा गता । द्वावपि तदवस्थौ दृष्टौ । चिन्तितम् जनोऽग्रेऽपि मां पतिद्वेषिणी कथयति । अधुना पतिघ्नीं कथयिष्यति । ततः सापि शिरश्छेत्तुं प्रवृत्ता। यक्षेणोक्ता साहसं मा कुरु । तयोक्तम्15 द्वावपि जीवापय । तेनोक्तम्-निज २ कबन्धे शिरोदानं कुरु । तयोत्सुकभावादन्यान्यकबन्धयोय॑स्ते । द्वावपि जीवितौ । परस्परं भार्याविवादो जातः । एको मदीयां वक्ति, द्वितीयस्तु मदीयाम् । तेनोक्तम्-देव! सा कस्य भवति ? । नृपेणोक्तम्-यस्य शिरस्तस्य भार्या । [ 'सर्वस्य ] गात्रस्य शिरः प्रधानमिति वचनात् । . __D. वेतालवशात्कर्पूरसमुद्गकः पृष्टः-रे! कामपि कथां कथय । देव ! कुतोऽपि पुराच्चत्वारः कलाविदग्धा श्चेलुः । एकः काष्ठघटकः सूत्रधारः । अपरः स्वर्णकारः। तृतीयः शालापतिः । तुर्यो द्विजः । क्वापि वने रात्री 20 स्थिताः। प्रथम[ यामे] सूत्रधारः प्रहरके स्थितः। काष्ठमयी पुत्तलिका कृता । स सुप्तः। द्वितीयग्रहरे सुवर्णकार उत्थाय [ यामिके] स्थितः। तेन सा पुत्तलिकाऽऽभरणैर्मण्डिता। तृतीये शालापतिस्तेन दुकूलं परिधापिता । चतुर्थे द्विजेन सजीवा कृता । प्रातः सजीवां दृष्ट्वा विवदितुं प्रवृत्ताः। इतस्तेन वैतालेनोक्तम्-देव ! विक्रमादित्य ! सा कस भवति ? । [G नाम श्रुत्वा सा चुक्षोभ ] राज्ञोक्तम्-नाहं वेनि, यदियं सुप्ता वेत्ति । [G तयोरकथयतोश्च तया जल्पितम्-भो राजन् ! ] कस्य सा ?। राज्ञोक्तम्-स्वर्णकारस्य । पति विना को नारी मण्डयति । 25 [G सा पप्रच्छ के यूयम् १ । दीपस्थेन वेतालेनोक्तम्-असौ स विक्रमादित्यः।] सा हृष्टा, राज्ञा परिणीता च । [G तामादायावन्तीमागमत् ।] य ईदृग् हे महाराज! तत्समः कः?; आधिक्ये तु का कथा इति हसितम् । इति श्रुत्वा विक्रमसेनेन गर्वस्त्यक्तः । इति विक्रमसेनगर्वत्यागप्रबन्धः ॥ विक्रमसम्बन्धे रामराज्यकथाप्रबन्धः ( B. P. G.) - ६१२) अथैकदा विक्रमसेनः पुरोधसमप्राक्षीद्-यदेताः काष्ठपुत्रिका मम पितरमद्भुतगुणं वर्णयन्ति, तर्हि स 30 एव लोके प्रथमः। [G तत्प्रथमतयोत्तमत्वेनावतीर्णो भविष्यति । प्राक् तु न कोऽपि तागुत्तमोऽभूत्-इति ब्रूमः।] पुरोधाः प्राह-राजन् ! अनादिर्भू रत्नगर्भेयम् । [G अनादिश्चतुर्युगी ।] युगे युगे रत्नानि जायन्ते । अहमेव प्रधान इति गर्वो न श्रेयःकारी [G न निर्वहते]। तव पितुर्मनसि एकदा इत्यभूत-यथा रामेण जनः सुखी कृतः तथाऽहमपि करिष्यामि [G ततो रामायणं व्याख्यापितम् । तत्र यथा-] रामस्य दानं सत्रागार स्थापनं वर्णाश्रमव्यवस्थादि गुरुभक्त्यादि तथा सर्वमारब्धम् । ततोऽभिनवो राम इत्यात्मानं पाठयति । मत्रिभि___35 रचिन्ति-असावनुचितकारी । [G असत्प्रभुर्यो गर्वादात्मानं तद्वन्मनुते ] यतः Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमार्कप्रबन्धाः। (७) *उत्क्षिप्य टिभिः पादावास्ते भङ्गभयाद्भुवः। खचित्तकल्पितो गर्वः कस्यान्यस्य न विद्यते ॥ [G उपायेनोत्तारयितव्यः प्रस्तावे ] एकदा राज्ञोक्तम्-स कोऽप्यस्ति योऽश्रुतपूर्वा रामकथा कथयति । एकेन वृद्धमत्रिणा प्रोक्तम्-राजन् ! कोशलायामेको वृद्धद्विजोऽस्ति । स पारम्पर्येण कामपि रामवात्तां वक्ति। [G आहूय पृच्छयते] स राज्ञा सगौरवमानीतः पूजितश्च । पृष्टं च-हे वृद्ध ! कांचिद्रामवार्ता [ नव्यां] वद । सोऽभाणीत्-5 देव ! कोशलायां यद्यागच्छसि तदा किमप्यपूर्व दर्शयामि [G इह स्थितस्य तु वक्तुं न पारयामि] राजा मत्रिषु राज्यं न्यस्य स्वयं कटकेन सह कोशलां प्रति चचाल । तत्र गत्वा बहिःस्थितः । वृद्ध ! दर्शय । देव ! अत्र जनपार्धात्खानय । तथा कृते, स्वर्णकलशः प्रकटो जज्ञे; तदनु हैमी मण्डपिका च । पुनः खनिते एकक्षण-द्विक्षणतृतीयक्षण-चतुर्थक्षणे प्रकटीकृते महती स्वर्णोपानदेका प्रकटी जाता । स्वर्णवालकगुम्फिता सर्वरत्नखचिता । विस्मितेन गृहीत्वा हृदि कण्ठे च दत्ता नृपेण । वर्णनं कुर्वति, द्विजेनोक्तम्-देव ! चर्मकारपल्या उपानदेषा न 10 स्प्रष्टुमर्हति । नृपेणोक्तम्-सा चर्मकार्यपि धन्या, यस्या ईगुपानत् । परं कथ्यतां कथम् ? । देव ! श्रीरामे सत्यत्र चर्मकारगृहाण्यासन् । इदमेकस्य गृहम् । तत्पनी लाडबहुला, अतः सगर्वा । विनयं न करोति । सा भर्ना हकिता शिक्षिता च । उक्तञ्च-मट्टहाद् याहि । सा वाणहीमेकां पतितां मुक्त्वा एकां च पादे कृत्वा पितृगृहं गता। पत्युरपमानमूचे । पित्रा दिनद्वयं स्थापिता पश्चादुक्ता-वत्से ! कुलस्त्रियः पतिरेव शरणम् । त्वं तत्र याहि । सा द्वित्रिवारं भणिताऽपि न याति । तदा पित्रा प्रोक्तम्-वत्से ! श्रीरामः सलक्ष्मणः सप्रियश्च त्वामनुनेष्यति । 15 साऽप्यलीकाभिमानिनी पाह-यदि समेष्यति तदैव यास्यामि [G नापरथा]। इयं वार्ता छन्नैर्नुपपुरुषैः श्रुता । तैर्नृपाय न्यवेदि । श्रीरामस्ततः श्रुत्वा तद्नेहद्वारे स्थितः । तेन कथितम्-देव ! पादमवधार्यताम् । मम रङ्कस्य गृहेऽद्य कल्पद्रुमागमनम् । तव पुत्रीमानयितुं वयमागताः स्मः । मात्रा सा त्वरितं पत्युर्गृहे नीता । तस्या औत्सुक्येन व्रजन्त्या इयमत्रैवोपानद्विस्मृता । श्रुत्वा देवस्तु स्वस्थानं गतः । देव ! रामराज्यमीदृशमासीत् । तच्छुत्वा विक्रमादित्यः गर्वं त्यक्त्वा निजपुरीं प्राप ॥ इति विक्रमादित्यविविधप्रबन्धाः ॥ 20 (G.) सङ्ग्रहगतं विक्रमवृत्तम् । ६१३) श्रीविक्रमादित्यसत्रागारे नित्यं कार्पटिका विनश्यन्ति । तदपवाददोषभयेन राजा प्रच्छन्नः स्थितः । तावता * G नास्ति एष श्लोकः। एतदन्तर्गतपाठस्थाने G सङ्ग्रहे कियानधिको विस्तृतश्च पाठः प्राप्यते । यथा ततो देवः श्रीरामः प्रजावत्सलः प्रातः ससीतः सलक्ष्मणः समागत्य तञ्चर्मकारभवनमगात् । तन्मध्यं प्रविष्टः पूजितः कारुभिर्विस्मित विज्ञप्तश्च-देवायमस्मान् कीटकान् प्रति कियान् प्रसादः कृतः । स्वप्नेऽपि नेदं संभाव्यते, यद्देवोऽस्मानुपतिष्ठते । किं कारणमागमनस्य । श्रीरामः प्राह-स्वरपुत्र्याः स्वशुरकुलप्रेषणायायातोऽस्मि । तस्या हि वराक्यास्तथाविधा सन्धाऽऽस्ते । ततो हृष्टस्तजनकः । अपवरकं गत्वा दुहितरमाह स-मुग्धिके ! तव प्रतिज्ञा पूर्णा । रामदेवोऽप्यायातः सदेवीकः । एहि वन्दस्व तं जगत्पतिम् । ततस्तुष्टा रामान्तिकमागता । ववन्दे तम् । आलापिता प्रजातातेन-वत्से ! गच्छ स्वशुरमन्दिरम् । तया भणितम्-आदेशः प्रमाणम् । ततो गता पितृ(पति)गृहम् । रामः स्वस्थानमयासीत् । श्रीविक्रमस्य द्वितीया उपानत् तत्रापि गृहे खन्यधोमाने (अधःखन्यमाने) लप्स्यते । स्वामिन्नायाति तत्र खान्यते। गत्तो राजा तत्र । खानितं तत् । लब्धा द्वितीया उपानत् । दृष्टं हेमगृहम् । एवमन्यान्यपि तेन विप्रेणाखानयिषत । लातं तद्धेम । राज्ञा विप्रः पृष्टःविन! कथमीदृशं सम्यग् जानासि? । विप्रेण गदितम्-पूर्वजपारंपर्योपदेशात् ज्ञातं तुभ्यमुक्तं च । परं गर्व माधाः । स रामः स एव । तस्याज्ञया जलज्वलनौ स्तंभ्येते स । पतन्त्यो भित्तयो दत्तायां तदाज्ञायां न पेतुः । लूता द्विचत्वारिंशत् , अन्धगडाः सप्तविंशतिः, स्फोटिका अष्टोत्तरं शतं, विड्वराणि दोषाश्च सर्वे व्यनेशन् । या तु तद्देवी सीता, ये तद्भातरः, ये तद्भुत्या हनूमत्सुग्रीवादयस्तेषां महिमानं वर्षशतेनापि वाक्पतिरपि वक्तुं न शक्तः । इति श्रुत्वा विक्रमेण गर्यो मुक्तः । बिरुदं निषिद्धं 'अभिनवराम' इति । पुनरुज्जयिनीमगात् । यथाशक्ति लोकमुदधरत् । तस्य हि अग्निवेताल-पुरुषसिद्धिभ्यां सुवर्णसिद्ध्या चोपकारैश्वर्य तदा निरुपममासीत् । ततो विक्रमो धन्य एव । ततोऽधिकास्तु परे कोटाकोटयोऽभूवन् । इत्याकर्ण्य विक्रमसेनो विवेक्यभूत् ॥ पु०प्र० स०2 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे भोगीन्द्रः समागतः । राज्ञा पृष्टं-कथं त्वं कारणं विना नित्यं तीर्थकरणप्रवणपात्राणि मारयसि । तेनोक्तं-कथय] किं पात्रं ? । राज्ञोक्तं-'भोगीन्द्र ! बहुधा०।' इति तुष्टो मनुष्यपात्राणि ररक्ष । ६१४) केनापि सामुद्रिकशास्त्रवेदिना मध्याह्ने चतुःपथे कस्यापि काष्ठभारवाहकस्य चरणलक्षणानि भुवि प्रतिबिंबितानि वीक्ष्य शास्त्रं वितथमिति विचार्य पुस्तकैः सह राजद्वारे काष्ठभक्षणं प्रारब्धम् । ततो राज्ञा पृष्टं-मम 5 लक्षणानि कथय । तेनोक्तं नैकमपि । तत्कथं राज्यम् ? | पुनरुक्तं-यदि वामकुक्षौ करडांत्रं भवति । तदा राज्ञा क्षुरिकामाकृष्योक्तं स्थानं दर्शय । तेनोक्तं-सत्त्वेनैव राज्यम् । राज्ञापि दरिद्रमुखे कणिकगोलिकाप्रयोगेन तालुनि काकपदं दर्शितम् । ६१५) अन्यदा सिद्धसेनदिवाकरेण गुरुचरणसंवाहनां विधीयमानेन गुरव उक्ताः-यदि यूयमादेशं ददत, तदाहमागर्म संस्कृतेन करोमि । गुरुभिरुक्तं-तव महत्पातकमजनि । त्वं गच्छयोग्यो न, गच्छ ! । तेनोक्तं-प्रायश्चित्तं 10ददत । गुरुभिरुक्तं यत्र जिनधर्मो न तत्र जिनप्रभावनां विधाय पुनः समागन्तव्यं । इत्यवधूतवेषेण चलितः। ततः सप्तवर्षानन्तरं मालवके गूढमहाकालप्रासादे शिवाभिमुखं चरणौ विधाय सुप्तः। तत्र वारितोऽपि तथैव । अत्रान्तरे राज्ञा रक्षकपुरुषान् प्रेषयित्वा उपद्रुतः । तावतान्तःपुरे प्रदीपनकं लग्नम् । ततो राज्ञा समागत्य पृष्टःकथं शिवनमस्कारं न विदधासि । तेनोक्तं-मम नमोऽसौ न सहते । राज्ञोक्तं-विधेहि । तेन सकललोकसमक्षं द्वात्रिंशतिका विहिता । तदा लिंगमध्यादवन्तीसुकुमालद्वात्रिंशत्पत्नीकारितप्रासादे श्रीपार्श्वनाथविम्ब प्रकटीभूतम् । 15 तन्नमस्कृतम् । अस्मन्नमस्कारमसौ सहते । तदाप्रभृति गूढमहाकालोऽजनि । ६१६) अन्यदा सकलकवीनां दानं ददानं राजानं वीक्ष्य शिवतपोधनचतुष्टयं कविताकृतेऽरण्यमगमत् । तत्र गजवर्णनमारब्धं तैः, एकैकेन प्रहरेण एकैकश्चरणो विहितः । तद्यथा(८) च्यारि पाय विचि दुडगुसु दुडुगुसु, जाइ जाइ पुणु रुडुघुसु रुडघुसु । , आगलि पाछलि पुंछु हलावह,...... 20 तुर्ययामे तुर्यपादो न भवति । तदा श्रीकालिदासकविना वृक्षान्तरितेन चतुर्थश्चरणः पूरितः ......अंधार किरि मूला चावइ ॥ तुर्यतपोधनेनोक्तं-मम सरस्वतीप्रसादो जातः । तैर्नृपो विज्ञप्तः। नृपेणोक्तं-तुर्यचरणोऽमीषां न भवति । इदमुपमानं कालिदासस्यैव नान्यस्य । ६१७) अथ कुमारसम्भवमहाकाव्ये नवभिः सर्गः शृंगारसुरतवर्णनकुपितयोमया कालिदासकवेः शापो दत्तः। 25 यत्-त्वं स्त्रीव्यसनेन मरिष्यसि । तेन वेश्याव्यसनी बभूव । राज्ञा श्रीविक्रमेण व्यसनिनं मत्वा तिरस्कृतः। वेश्या सदने स्थितः। अत्रान्तरे राजपाटिकायां गतेन राज्ञा सरसि कमलं कम्पमानं विलोक्योक्तं-'पवनस्थागमो नास्ति ...।' कैरपि कविभिः प्रत्युत्तरं न दत्तम् । राज्ञा नगरे पटहो वादितः। यः कोऽपि समस्यां पूरयति तस्य सुवर्णलक्षं दनि । इति वेश्यया कालिदासस्य निवेदितम् । तेनोक्तं-अहं पूरयित्वा तव समर्पयिष्यामि । पूरिता । तया सुवर्णलोभेन स मारितः। तदनु तया राज्ञोऽग्रे न्यगादि समस्या। यत्-'पावकोसिष्टवर्णाभः शर्वरी।' राज्ञोक्तं-केन पूरिता । 30 तयोक्तं-मया । 'कांते.' इति पदेन त्वया न बद्धा । ततस्तयोक्तं-कालिदासेन । स च मया मारितः । राज्ञो विषादोजनि। ६१८) अन्यदा श्रीविक्रमस रोगः समजनि । वैयेन कुचेष्टां वीक्ष्य काकमांसभोजनेनाऽऽरोग्यं कथितम् । राज्ञोक्तं-भवतु । ततो वैद्येनोक्तं-राजन् ! धौषधं विधेहि । त्वं प्रकृतिव्यत्ययेन न जीवसि ॥ ॥ इति विक्रमप्रबन्धः॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाहनप्रबन्धः । २. सातवाहन प्रबन्धः (P.) (१९) मरहट्ठदेशे प्रतिष्ठानपत्तनम् । नरवाहनो नृपः । सुभटोऽङ्गरक्षः । तत्पत्ती मनोरमा । गर्भाधाने सति शुभदोहदे जाते नैमित्तिकाः पृष्टाः । तैरुक्तम् - सुतो भावी, परं षोडशवर्षाणि भूमिगृहे स्थाप्यश्छन्नम् । तेन तथा कृते, पञ्चवार्षिकः कलाभ्यासं करोति । इतश्च नृपो रात्र्यर्द्ध स्त्रीविलापं श्रुत्वा प्राहरिकानाह [ कोऽत्र ? ] सुभटेनोक्तम्- देवाहमस्मि । इमां पृष्ट्वा समागच्छ कथं रोदति ? । स गतः । पुरे भ्रान्त्वा समेतः । देव ! नगरमध्ये कापि 5 न दृष्टा । तर्हि बहिर्गत्वा विलोकय । पृच्छां कुरु । स विद्युत्किरणात्सनृपस्तत्र गतः । वने स्त्रियं दृष्ट्वा पप्रच्छ - कथं रोदिषि ? राज्याधिष्ठात्री देवी । तर्हि कथं रोदिषि ? । तया क[ थितम् ] षण्मासान्ते नृपः पञ्चत्वं प्रयास्यति । (९) वैधव्यसदृशं दुःखं स्त्रीणामन्यन्न विद्यते । धन्यास्ता योषितो यास्तु म्रियन्ते भर्त्तुरग्रतः ॥ तत्कथं निवर्त्तते । इति सुभटे पृष्टे तयोक्तम्-यदि चामुण्डाग्रे द्वात्रिंशल्लक्षणो वध्यते, तदा नृपस्य क्षेमम् । इत्युक्त्वाऽदृश्या जाता । नृपाग्रे उक्तम् । नृपः स्वस्थानं प्राप्तः । प्रातर्नृपेण सुभटाग्रे उक्तम्- यदि द्वात्रिंशल्लक्षणं 10 नरमानयसि तदाऽर्द्धराज्यं ददामि । तेन गृहे गत्वा स्वपत्नी पुत्राय याचिता । षोडशवाह (हाय ) नः सुतो दत्तः । नृपायोक्तम्-देव ! स्थाने कृतोऽनिष्कास्य वध्यस्य नेपथ्यधरं कृत्वा चामुण्डाग्रे नीतः । नृपस्तत्र गतः । नैवेद्येन सह कल्पितः । मात्रा केशैर्धृतः पित्रा खङ्गं कृष्टम् । तेन .... ...द्धसितम् । (१०) राजा स्वयं हरति मां यदि जीवितार्थे द्रव्येच्छ्यान्धबधिरौ पितरौ मदीयौ । त्वं देवता मनुजमांसरसस्पृहासि प्राणाः स्वयं हसत किं [प]रि[ दे] वितेन ॥ (११) ताण पुरओं य मरीहं कयलीथंभाण सरिसपुरिसाणं । जे अत्तणो विणासं फलाई दिंता न चिंतंति ॥ १ ॥ (१२) जह सरसे तह सुक्के वि पायवे धरइ अणुदिणं विंझो । उच्छंगसंगयं निग्गुणं वि गरुया न मुंचति ॥ २ ॥ (१३) सरिसे माणुसजम्मे दहइ खलो सज्जणो सुहावेइ । लोह चिय सन्नाहो रक्खह जीयं असी हरइ ॥ ३ ॥ ११ देवी सवेन तुष्टा । वरं वृणु । याचितः - किमर्थमिहानीतः १ । देव्या स्वभाव उक्तौ तेनोक्तम् नृपाय राज्यं देहि, त्वं जीववधाद्विरमस्व । तयोक्तम् - राज्यं मया दत्तं राज्ञे, [जीवे ]ष्वभयः । जीववधानिवृत्ता । सर्वोऽपि स्वस्थानं गतः । प्रातर्लोकापवादमसहता नृपेण राज्यं सर्वं सातवाहनाय दत्त्वा स्वयं तापसीं [ दीक्षां] जगृहे । नृपोऽपि राज्यं कुर्वन् समाताऽस्ति (१) । अन्यदा नृपेण मन्त्री पृष्टः - ममाज्ञा कियतीं भूमिं यावदस्ति ? । देव ! मथुरायां न वर्त्तते । नृपेण कटकं हितम् .. जाते मत्रिभिर्द्विधा कृतं तेन मथुराद्वयम् । सूर्योदये पुत्रजन्म - 20 वर्द्धापनम् । द्वितीयेप्रहरे वापीमध्यात् कोटि ९ सुवर्णलाभः । तृतीये प्र० दक्षिणमथुरा । चतुर्थे प्र० उत्तरमथुरा वर्द्धापने । एवं दिवसमध्ये वर्द्धापनचतुष्के जाते नृपो हृष्टश्चिन्तयति - किं मया पूर्वभवे पुण्यमकारि ? । प्राता राजपाट्यां गतः । हृदे गोदावर्यां मत्स्यहसने विस्मितो गृहे गतः । सर्वः कोऽपि पृष्टः परं कोऽपि न वेत्ति । इतश्च श्रीकालिकाचार्यागमं विदित्वा वन्दित्वा ते पृष्टाः । तैः क[ थितम् ] -त्वं पूर्वभवे अत्रैव काष्ठवाहकस्तेन सक्तुभिरिहैव शिलापट्टे मुनिः पारितः । तन्मत्स्येन दृष्टम् । अतो जलदेवतया हसितं मत्स्यमिषात् । तव दानप्र [ भावा] त् वर्द्धापिनं जातम् ॥ इति सातवाहनप्रबन्धः ॥ (G.) सङ्ग्रहे सातवाहनसम्बन्धिगाथावृत्तम् । • 15 30 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 15 20 १२ पुरातनप्रबन्धसङ्घ (१४) सयलजणाणंदयरो सुक्कस्स वि एस परिमलो जस्स । तस्स नवसरसभावंमि होज किं चंदणदुमस्स ॥ ४ ॥ -इति गाथाचतुष्टयं श्रीसातवाहनेन राज्ञा चतुः कोटिभिर्गृहीतम् । हारो वेणीदंडो खड्डग्गलियाई तहय तालु त्ति । सालाहणेण गहिया दहकोडीहिं च चउगाहा ॥ १ ॥ मग्गु चिय अलहंतो हारो पीणुन्नयाण धणयाण । बिबो भमइ उरे जउणाणइ फेणपुंज व ॥ २ ॥ कसिणुज्जलो य रेहइ०. ॥ ३॥ (१५) (१६) (१७) (१८) परिओससुंदराई सुरए जायंति जाई सुक्खाई । ताई चिय तर खडुग्गलियाई कीरंति ॥ ४ ॥ (१९) ता किं करोमि माए खज्जउ सालीउ कीर निवहेहिं० ॥ ५ ॥ (२१) -इति गाथाचतुष्टयं कोटिभिर्दशभिर्गृहीतम् । (२०) अहलो पत्तावरिओ फलकाले मुयसि मूढ ! पत्ताई । इण कारणि रे विड विडव मुद्ध ! तुय एरिसं नामं ॥ १ ॥ निव्वूढपोरिसाणं असचसंभावणा वि संभवइ । इक्काणणे वि सीहे जाया पंचाणणपसिद्धी ॥ २ ॥ (२२) आसने रणरंभे मूढे मंते तहेव दुभिक्खे | जस्स मुहं जोइज सो चिय जीवउ किमन्त्रेण ॥ ३ ॥ - इति गाथात्रयं कोट्या गृहीतम् । ३. वनराजवृत्तम् (G. ) (२०) आंबासणवास्तव्यचापोत्कटज्ञातीयचंड चामुंडाभिधौ भ्रातरावभूताम् । ततः केनापि नैमित्तिकेनोक्तम्चाडपत्नीगर्भेण चंडो मरणमगमिष्यदिति सा सगर्भा परिहृता । ततः सा पंचासरग्रामं गता । ओच्छट्टच्या जीवति । अन्यदा श्रीशीलगुणसूरिभिर्वाह्यभूमौ गतैर्वणच्छायामनमन्तीं वीक्ष्य सुलक्षणं बालकं दृष्ट्वा च सा निजचैत्ये स्थापिता । कियतापि कालेन वार्यमाणोऽपि वनराजो मूषकमारणं कुर्वन् गुरुभिर्निर्वासितः । चरडः सन् सेहर सेष25 राभ्यां सह संखेश्वर-पंचासरग्रामान्तरे चौर्यवृत्तिं वितन्वन् शरद्वयभञ्जकं श्रेष्ठिजाम्बाकं पप्रच्छ । तेनोक्तं-यूयं त्रयः । अतो द्वयं भग्नम् । तेन बाणत्रयेण परीक्षा दर्शिता । तेन प्रीतिर्जाता । अन्यदा काकरग्रामे श्रेष्ठिगृहे क्षात्रपातं कृत्वा सर्वस्वं गृह्णतस्तस्य करो मंजूषान्तर्दधिभांडे पतितः । ततस्तेन सर्वमपि मुक्तम् । प्रातः श्रीदेव्यास्तत्पत्न्या पंचागुलीप्रतिबिम्बं दभि वीक्ष्य कुलीनः कोऽपि चौरोऽयं इति विज्ञाय, चौरे मिलितेऽहं भोक्ष्ये, इति अभिग्रहो गृहीतः । स सप्तमे दिने समेत्य तां भगिनीमिति नमश्चक्रे । अन्यदा श्रीकन्यकुब्ज देशीयमहणक इया: [ पञ्चकुलं] गूर्जरधरोद्रा30 इणके गच्छति । अन्तरा युद्धं विधाय वनराजेन सर्वं जगृहे । ततः शशकेनैकेन खानभंगाभिज्ञानेऽण हिल्लपशुपानार्पिते वीरक्षेत्रेऽल्लिपुरस्थापना । श्रीदेव्या वर्द्धापनकं कृतम् । गुरुभिर्मंत्राभिषेकश्च ॥ ४. लाखाकवृत्तम् (G. ) ६२१) परमारवंशे समुत्पन्नया प्रासादे रममाणया कामलया स्तम्भभ्रान्त्या फूलडाभिधः पशुपालो वृतः । For Private Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुञ्जराजप्रबन्धः । तत्सुतो लाषाकः । स कच्छेश्वर एकविंशतिवारत्रासितमूलराजः समजनि । द्वाविंशतिवेलायां कपिलकोटस्थितो लापाको रुद्धः। माहेचनाम्नः पदातेराकारणं प्रहितम् । सोऽन्तरावस्थितश्रीमूलराजभिल्लैः प्रहरणानि गृहीतः। ततः तसिन् निरायुधे समागते लापाकेन राज्ञा समं युद्धमकृत । लाषाको रणभुवि पतितो राज्ञा रोषाचरणेनाहतः । ततो लाषाकस्य मात्रा राजा शप्तः। ततः प्रांते स्फोटिका समजनि । ततो राज्ञा तांबूलमध्येऽलिका विलोक्य स्मार्ताः शुभमरणं पृष्टाः । तैरुक्तं-इंगिनीं साधय । तथा विहिते सप्तमदिने स्वर्विमानमायांतं वीक्ष्य मुदितः। 5 पुनरन्यतो गोकार्यमृतस्त्रपाकमानयित्वा (?) समेते तत्र पुनः सार्ताः पृष्टाः । एवं सति सुखमृत्यौ कथं मम कष्टमृत्युरुपदिष्टः । तैरुक्तं-राजन् ! कस्तव भूमौ गोग्रहं तनोति । एवं विपन्नः॥ ५. मुञ्जराजप्रवन्धः (P.) ६२२) श्रीउज्जयिन्यां नगर्या सिंहो नृपः । स एकदा मृगयां गतः। तत्र शरवणमध्ये [बालः] पतितो दृष्टः। नृपेण गृहीतः । प्रच्छन्नमन्तःपुरे प्रहितः। देव्यैकया सूतिकर्माणि कृतानि । बालस्य मुञ्ज इति नाम दत्तम् । स्नेहेन 10 वृद्धिं गतः । इतो नृपस्यापरस्यां पन्यां सिन्धुलनामा पुत्रो जातः। उभावपि निरवशेषभावेन वृद्धिं गतौ परिणीतौ च । इतो नृपो वृद्धो जातः । एकदा मुञ्जावासे गतः। आवासान्तर्मुञ्जः सपत्नीकोऽस्ति । नृपेण बहिःस्थेनोक्तम्रे मध्ये कोऽप्यस्ति ? । नृपशब्दं श्रुत्वा मुञ्जश्शंकितः । प्रियां भद्रासनाधो निवेश्य व्याहृतवान्-देव! मध्ये पादमवधारयत । नृपः सिंहासने उपविष्टः । कुमारः प्रणम्य भद्रासने निविष्टः। आदिश्यतां कार्यम् । नृपेणोक्तम-राज्यं कस्य दीयते । मनः प्राह-तातःप्रमाणमत्र । वत्स! त्वं मम पालितः पुत्रः। सिन्धुलस्त्वङ्गजः। 15 व्यतिकरे उक्ते मुझेनोक्तम्-मम भ्रातुर्देव ! राज्यं भवत्वहं तस्य सेवां तावत् करिष्यामि । नृपेणोक्तम्-एवं मा भण । राज्यं तवैव । अधुना परावर्ते कृते जनो न मन्यते । परं मम शिक्षां शृणु । सिन्धुलो नापमान्यः । मत्री रुद्रादित्यो न पृथक्कार्यः । गोदावरी ती| परतीरे न गम्यम् । तेन सर्व मानितम् । नृपे बहिर्गते भेदभयाद्राज्ञी खड्नेन पातिता । तस्या आक्रन्दं श्रुत्वा नृपो वलितः । वधूं पतितां दृष्ट्वा प्राह-रे पाप! किमकार्यमकार्षीः? अपरामपि शिक्षा न करोषि । अतोऽनोऽपि निवेश्यः, वाक्यभङ्गभयात् । मुञ्जस्य राज्यं जातम् । नृपो दिवं ययौ ।20 स सिन्धुले सदा प्रसादपरो वर्त्तते । जनः सर्वोऽपि सिन्धुलेऽनुरक्तः। एकेन मत्रिणा प्रोक्तम्-देव ! सिन्धुलात्तव विनाशो भावी । नृपेण तद्वचनमङ्गीकृत्य ग्रासो निषिद्धः । सिन्धुलः स्वावासे तिष्ठति । एकदा नृपो राजपाव्या गजारूढो व्रजन् सिन्धुलगवाक्षाधः प्राप्तः । सिन्धुलेनोपरि निविष्टेन दक्षिणकरे आदर्श सति वामकरण करी वरत्रया धृतः । तदनु पुच्छे धृतः । पदमपि न चलति । आधोरणे नैष्टिष्ट । नृपेणोक्तम्-करी किं न चलति ? देव नृसिंहेणाक्रान्तः । तावत्कुमारो दृष्टः । वत्स! मुश्च । तेनोक्तम्-अहं देवपादानां केनाभक्त उक्तः, यद्रासः स्थितः। 25 गजं मुञ्च, द्विगुणं गृहाण । सिन्धुलेनोक्तम्-एष गजस्त्रुटितः, अपरमानयत । नृपस्तु द्वितीये निविष्टः। करी तत्रैव पतितः । नृपेण बलं बन्धोदृष्ट्वा वर्धापनं प्रारब्धम् । पिशुनेन मत्रिणा देव उक्त:-एप त्वां हनिष्यत्येव । नृपेण देशपट्टो दत्तः। सोऽर्बुदे कासहृदग्रामे गतः। दीपदिने श्मशाने गतः। तत्र सूकरं वीक्ष्य बाणसन्धानमकरोत् । इतो र्जन (?) सुप्तः। तेन प्रत्यासन्नं मृतकं जानोरधः प्रदत्तम् । तत् सलसलितम् । तेन वामकरेण वारितम्-बाणेन शूकरो विद्धः। तत्साहसेन तुष्टः, वरं याचस्व । तेनोक्तम्-मालवराज्यं देहि । तव भाग्यं न, परं तत्र याहि । तव पुत्रस्य 30 भविष्यति । पुनर्नृपाहूतः स्वघरे गतः। राज्ञा दुर्जनवचसा नेत्राकर्षणं कृतं सिन्धुलस्य । तत्पुत्रो भोजः। स नृपस्यातीव वल्लभः । यौवनाभिमुखो जनेनानुरागात् सेव्यते । अतस्तेन कूटमत्रिणा नृपस्योक्तम्-देव! त्वां हत्वा कुमारो राज्यं ग्रहीष्यति । राज्ञा रुद्रादित्येन मत्रिणा छन्नमाज्ञापितः । मत्रिणा एकान्ते नीत्वा नृपाज्ञा उक्ता । कुमारेणोक्तम्-शीघ्रं कुरु । किमपि राज्ञः कथापयसि ? । तेन 'मान्धाते'ति लिखित्वा पत्रिकार्पिता । काले दर्शनीया । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे मत्रिणा प्रोक्तम्-त्वयि मारिते राज्यं निमजति । अतश्छन्नं तिष्ठ । मत्रिणा कार्य कृतं निवेदितम् । तेनापि 'किमप्युक्तम् ?' तदा पत्रिका दर्शिता । नृपः काष्ठारोहणाय गतः । मत्रिणा कुमारो दर्शितः । अथ नृपो हृष्टः।। ६२३) अथ कर्णाटे उरङ्गलपत्तने तैलपदेवो नृपः । तस्य मत्री कमलादित्यः । स मालवेशेन सह वैरप्रारम्भ कर्तुं खां नासां कर्णावपि बुध्या अपाकृत्य नृपेणापमानितो मुञ्जनृपमाययौ । देव ! मया स्वामिनोऽग्रे उक्तम्5 मुझेन सह वैरं त्यज । तेनाहमपमानितः । नृपेण सत्कृतः। रुद्रादित्येन नृपो वारितः । यावद्वित्तं (द् हितं ?) न शृणोति तावद्रुद्रादित्यो]मुत्कलाऽप्य स्थितः । गोदावरीतटे नृपः कमलादित्यवचसा कटकं सम्मील्य चलितः। रुद्रादित्योऽपि चितां प्रविष्टः । कमलादित्येन कटकं सम्मुखमाकारितम् । मत्रिणो वचसा कोऽपि न युध्यति । मुञ्जो नष्टः । बुभुक्षितः कस्मिन् वासे गतः। तत्र शीताशनं याचन् महीआरी गर्वोद्धतां दृष्ट्वा पपाठ(२३) मा गोलिणि मन गव्वु करि पिखि वि पड्डुरूआई । पंचइ सई बिहुत्तरां मुंजह गय गयाई॥ 10 इति पठन् नृपचरैरानीतः । नृपायाप्तिस्तेन गुप्तौ क्षेपितः । मृणालवती चेटी परिचर्याकृते मुक्ता । नृपस्तस्या मासक्तो जातः। इतो धारायां रुद्रादित्येन भोजो राज्ये मुख्यः कृतः। स सैन्यं कृत्वा गोदावरीतीरमागत्य स्थितः । भोजेन सुरङ्गा दापिता सिद्धा च । पुमानेको नृपानयने प्रहितः । स सुरङ्गाद्वारेण गत्वा नृपमाह-चल्य ताम् । राजाऽऽह-प्रतीक्षख, यावन्मृणालवती आयाति । देव ! किं चेव्या ?, चल्यताम् । नृपे स्थिते, विनष्टं नृपं __ मत्वा गतः । चेटी आयाता । भोजनमादाय नृपं सचिन्तं वीक्ष्य पप्रच्छ-देव ! किं चिन्ता ? । न वक्ति । तया 15 भोजनमध्ये लवणमुष्टिः क्षिप्ता तेन नाज्ञायि । तया निर्बन्धेन पृष्टः प्राह-चल्यताम् , त्वां प्रतीक्ष्यमाणोऽस्मि । तयोक्तम्-आभरणान्यादाय त्वरितमेमि । गत्वा तैलपदेवाय सुरङ्गायमुक्तम् । नृपेणागत्य बन्धितः। स बध्यमानः प्रोचेअच्छ......(अत्रादर्श गाथाप्रमाणा पतिरक्षरशून्या मुक्ताऽस्ति ।)...... ॥ भिक्षा भ्रामयित्वा वनमध्ये नीत्वा शूलाप्रोतः कृतः। 20 (२४) यशापुञ्जो मुञ्जो गजपतिरवन्तीक्षितिपतिः सरखत्यावासः समजनि पुराविष्कृतगतिः । . स कर्णाटेशेन वसचिवबुध्यैव विधृतः कृतः शूलामोतस्त्वहह विषमाः कर्मगतयः॥ (२५) गय गय रह गय तुरय गय गय पाइक अनु भिच । सग्गद्विय करि मंत्रणउं महता रुद्दाइच ॥ (२६) मुंज भणइ मिणालवइ केसा काई चुयंति । लद्घउ साउ पयोहरहं बंधण भणीअ रअंति ॥ (२७) मुंज भणइ मिणालवइ गउ जुव्वण मन झूरि । जइ सक्कर सयखंड कि तोइस मिट्ठी चूरि॥ 25 (२८) इच्छउ इअरमणोरहाण मणवंछिआण संपत्ती न पहुप्पइ बंधणदोरिआ वि दिवे पराहुत्ते। (२९) झोली तुदृवि किंन मूउ न हूउ छारह पुंज । घरि घरि भिक्खभमाडीइ जिम मंकड तिम मुंज ॥ (३०) मा मण्डक! कुरूद्वेगं यदहं खण्डितोऽनया । रामरावणभीमाद्या योषिद्भिः के न खण्डिताः॥ (३१) वेसा छंडि वडाइ ती जे दासिहि रचंति । ते नर मुंजनरिंद जिम परिभव घणा सहति ॥ (३२) आपद्गतान हससि किं द्रविणान्धमूढ ! लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीति किमत्र चित्रम् । 30 एता न पश्यसि घटीर्जलयनचक्रे रिक्ता भवन्त्यविरतं भरिताश्च रिक्ताः॥ (३३) क तरुरेष महावनमध्यगः॥ (३४) उत्तंसकौतुककृते तु विलासिनीभिनानि०॥ 1 'यः कृतिरिति' इति प्र० चि० शुद्धपाठः । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानतुङ्गाचार्यप्रबन्धः। (३५) इयं कटी मत्तगजेन्द्रगामिनी०॥ (३६) लक्ष्मीर्यास्यति गोविन्दे ॥ ___ मुझे धृते राजपुत्रीवाक्यम्-'चिन्तामिमां वहसि किं गजयूथनाथ ॥ सिन्धुलवाक्यानि-(३७) अद्धां अद्धां नयणला जइ मुं मुंज न लिंत । सत्तइ सायर सधर धर महि सिंधलु भजंत ॥ (३८) पञ्चाशत्पश्चवर्षाणि षण्मासाश्च दिनत्रयम् । ॥ इति मुञ्जराजप्रबन्धः॥ ६. श्रीमानतुझाचार्यप्रबन्धः (B. Be.) (३९) प्रभोः श्रीमानतुङ्गस्य देशनायां रदत्विषः । जयन्ति ज्ञानपाथोधिशारदेन्दुसहोदराः॥ ६२४) वाणारयां हर्षो राजा। तत्र ब्रह्मक्षत्रियो धनदेवः श्रेष्ठी ।मानतुङ्गःसुतः। सोऽन्यदा दिगम्बरचैसे जिनं नत्वा गुरुपादान्ते गतः। प्रतिबोध्य दीक्षितः । चारुकीर्ति म । स्त्रीमुक्ति केवलिभुक्तिर्न मन्यते । दिगम्बरत्वं 10 दुष्करं कुर्वन् भगिनीपतिलक्ष्मीधरेण सगौरवं निमंत्रितो गृहमायातः । अशुद्धेर्यावत् कमंडलुजलेनाचमनं गृह्णाति, तावद् भगिन्या श्वेताम्बरभक्तया पूतरानालोक्य तद्वतं निन्दयित्वा श्वेताम्बराणां पञ्चसमित्यादि स्तुत्वा प्रतिबोध्य कथितम्-समायातान् जैनाचार्यान् मेलयिष्यामि । परमिदं पयो यसाजलाशयादानीतं तसिन्नेव क्षिप । यथान्यान्यजलसंपर्कात् पूतरका न म्रियं[ते] । अन्यदा श्रीअजितसिंहसूरीणामागमने गङ्गातीरोद्याने भगिन्या कथिते मानतुङ्गः पूर्वर्षिसामाचारीश्रवणात् तदीक्षां गृहीत्वा समग्रसिद्धान्तमधीत्य गुरुभिर्दत्तमरिपदः सुललित-15 काव्यकर्ता बभूव । ६२५) इतश्च तत्र पुरि मूर्तीब्रह्मा मयूरो नाम महाकविरस्ति । तस्य श्रीनाम्नी पुत्री रूपवती । (४०) पङ्के पङ्कजमुज्झितं कुवलयं चापारनीरे हदे बिम्बी चापि वृतेबहिः प्रकटिता क्षिप्तः शशी चाम्बरे । यस्याः पाणिविलोचनाधरमुखान् वीक्ष्य खसृष्टिं विधि 20 ___ रुद्विष्टेव पुरातनी समभवदेवाद्विधा येहताम् ॥ तदनुरूपं बाणनामानं कविमुद्वाहिता । ततः श्रीहर्षस्य भेटयित्वा तस्य धान्यादि पृथक् धवलगृहं च कारितम् । अन्यदा बाणपत्नी सञ्जातकलहा पिगृहं गता । बाणेनागत्य प्रदोषेऽनुकूलयितुमारब्धा । (४१) मानं मुञ्च खामिनि शत्रु जगतो विनाशितखार्थम् । सेवक-कामुकपरभवसुखेच्छवो नावलेपभृतः॥ अमानिते पण्डितं गृहाद् बहिः प्रेषयित्वा सखी तां जगाद । तथापि न मानयति । उक्तं च(४२) लिखन्नास्ते भूमि बहिरवनतः प्राणदयितो निराहाराः सख्यः सततरुदितोच्छूननयनाः। परित्यक्तं सर्व हसितपठितं पञ्जरशुकैस्तवावस्था चेयं विमृज कठिने मानमधुना ॥ सख्या बहिरागत्य कथिते विभातसमये बाणेन गत्वा(४३) गतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी शीर्यत इव प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णित इव। 30 प्रणामान्तो मानस्तदपि न जहासि मानमधुना कुचप्रत्यासत्त्या हृदयमपि ते सुभु कठिनम् ॥ 25 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसचन्हे इति भित्तिपुरतः सुप्तेन मयूरेण-सुभ्रुशब्दस्थाने चण्डीत्याख्यां कथय, यतोऽस्या दृढकोपायाश्चण्डीशब्द उचितः। इति पितुर्वचनेन कुपिता लज्जिता भर्तृवचनं मानयित्वा सतीत्वप्रभावेण पितरं कुष्ठीभवेति शप्तवती । सञ्जातकुष्ठेन मयूरेण राजभणितेन सूर्याराधनाय पट्पादं रज्जुयत्रं बद्धा खदिराङ्गारचितां काराप्य तत्स्तवने एकैकवृत्ते छुरिकया एकैकरज्जुपादच्छेदे यावता पश्च च्छिन्नाः । षष्ठच्छेदे सूर्यपरितोषे नव्यदेहदानेन मयूरप्रमोदे बाणपक्षीयरुक्तं 5 राजसभायाम् (४५) यद्यपि हर्षोत्कर्ष विदधति मधुरा गिरो मयूरस्य । ___ घाणविजृम्भणसमये तदपि न परभागभागिन्यः ॥ राज्ञोक्तम्-यूयं गुणिषु मत्सरिणो यस्य शक्तिर्भवति किमप्यधिकं दर्श्यते । ततो बाणेनोक्तम्-मम हस्तपादौ छेदय, यथा नव्यान् करोमि । ततश्छिन्नेषु चण्डिकास्तुतौ सप्तमाक्षरे नव्या जाताः । तथाप्युभयोर्विवादे राज्ञो10 क्तम्-काश्मीरे श्रीसरस्वती विवादं भञ्जयति । यो हारयति तेन पुस्तकानि ज्वाल्यानि । इति प्रतिज्ञाय राजपुरुषैः समं काश्मीरगमने देव्या समस्याऽर्ण्यन्त । पदे पृष्टे बाणस्य शीघ्रपूरणे मयूरस्य सविलम्बे-तथाहि (४५) दामोदरकराघातविह्वलीकृतचेतसा । दृष्टं चाणूरमल्लेन शतचन्द्रं नभस्तलम् ॥ मरेण पराभूतत्वादागत्य पुस्तकज्वालने श्रीसूर्यशतकपुस्तकेऽदग्धे उभयोर्मानदानैः राजप्रसादः । ६२६) अन्यदा राज्ञा मत्रिसम्मुखं भणितम्-पश्य भूमिदेवानां कीदृक् प्रभावः । मत्रिणोक्तम्-जिनशासनेऽपि 15 महाप्रभावोऽस्ति । यदि कौतुकं ततः श्रीमानतुङ्गाख्यं सूरिमाकार्य विलोकय । राज्ञोक्तमाकारयस्व । ततो मत्रिणा गत्वा भक्तिवचनैर्दर्शनप्रभावार्थ निरीहा अपि तत्रानीताः । राज्ञो धर्मलाभाशिषं दत्वा यथोचितासनसमासीनाः। मयूर-बाण-प्रशंसापूर्व राजोवाच-यदि भवतां काचिच्छक्तिरस्ति तत्किञ्चित् कौतुकं दर्शयत । गुरुभिरुक्तम्-अस्माकं किमपि कार्य नहि । जिनमते मोक्षार्थ एवाभ्यस्यते । तथापि शासनोत्कर्षाय दर्शयामः । ततो राज्ञा तमसि आपादमस्तकं चतुश्चत्वारिंशल्लोहशृंखलाभिर्नियंत्र्यापवरके विश्वा तालकं दत्त्वा मोचिताः । ततो 'भक्तामरस्तवः' 20 कृतः। एकैकवृत्तपाठे एकैकनिगडभङ्गे निगडसंख्यया वृत्तभणनम् । सूरयो मुत्कला जाताः। तालकं भग्नम् , स्वयं कपाटोद्घाटने निर्गत्य सभायां राज्ञ आशीर्वादं ददुः । राज्ञाऽनेकस्तुतीः कृत्वा सविनयं नत्वा कृत्यादेशेन प्रसीदत । सूरिणोक्तम्-अस्माकं कापीच्छा नहि । परं तव हिताय ब्रूमः-जिनधर्म प्रपद्यस्व । राजाऽङ्गीचकार । दानपात्रौचित्यात्रिधा दानं देयं-जीर्णोद्धारे(रं) नव्यविम्बकारणं चैत्यादिधर्ममादिश्य प्रभावनां कृत्वा सूरयः स्वाश्रयं गताः । तदाख्यातो 'भक्तामरस्तवः' अद्यापि सर्वोपद्रवहर्ता । अन्यदा कर्मवशात् सञ्जातकुष्ठोऽनशनाय धरणेन्द्र 25 ससार । प्रत्यक्षीभूयायुःशेषतया धरणेन्द्रोऽष्टादशाक्षरं पार्श्वनाथमत्रं दत्तवान् । सूरयः सर्वोपद्रवहरं तन्मत्रगर्भितं 'भयहरस्तवं कृत्वा पुनर्नवतां प्राप्ताः। ६२७) एकदा तन्नगरेशसैन्ये परदेशं प्राप्ते तद्रिपवस्तमल्पवलं ज्ञात्वा सम्भूय भूरिसैन्यैस्तनगरमावेष्ट्य तस्थुः। पौरजने व्याकुले, भयभीते राज्ञि, गोपुरेषु पिहितेषु राज्ञा वाण-मयूरादिषु पण्डितेषु तदुपसर्गोपशमनायादिष्टेषु पातालप्रवेशार्थमिव भूमिमालोकयत्सु श्रीसूरयो धवलगृहमूर्धानमारुह्य 'भयहरं' प्रकटीचक्रुः । तत्प्रभावात् तेषु 30वैरिषु स्तम्भितेषु गुरोराज्ञया तेषां घातमकुर्वन् सर्वस्वं हस्ति-हयाद्यं जग्राह नृपः। ततः सूरि राजानं नत्वाऽऽज्ञां प्रपद्य प्रसादं च प्राप्य खं खं स्थानं ययुः । ततो 'भयहरस्तवः' पठ्यमानो भयहर्ता सर्वेषाम् । इत्थं प्रभावनां कृत्वाऽन्तसमयं प्राप्य श्रीगुणाकरसूरिं न्यस्य पदेऽनशनमरणेन सूरयो दिवं ययुः। ॥ इति श्रीमानतुङ्गसरिप्रबन्धः॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघपण्डितप्रबन्धः । ७. माघपण्डितप्रबन्धः (BR. ) ९२८) अथ दत्तत्रनोर्माघस्योच्यते । माघस्य जन्मनि पित्रा जातकं कारितम् । आयुर्वर्षाणां चतुरशीतिः, परं प्रान्ते चरणशोफेन मृत्युः । पित्रा ऋद्धिप्राग्भारकलितेन षोडशवर्षादूर्द्ध दिनदिनसम्बन्धी लट्टितो हारको द्रम्माणां मुक्तः । अतिव्ययवानपीयता सुखं निर्वहिष्यते । स प्रौढः सन् पठितुं प्रवृत्तः । कवित्वं कृत्वा पितुर्दर्शयति । ईदृशानि कवित्वानि कुरुषे, पूर्वकवित्वानां शतांशेनापि न प्रभवन्ति । पुत्रेण शिशुपालवधो नाम - 5 काव्यं कृत्वा चुल्हकोपरि च्छन्नं धृतम् । एकदा पितुः पुस्तकं जीर्णप्रायं धूमेन कृत्वा दर्शितम् । पिता वाचयन् शिरोऽवधूनन् आह - वत्स ! ईदृशानि कवित्वानि क्रियन्ते । तेनोक्तम्-तात ! भव्यानि १ । किमुच्यते । तर्हि मया कृतानि । जनकेनोक्तम् - मया छलः कृतोऽतस्ते इयता कवित्वसीमा जाता । अतः परं तव कवित्वं न । स अधीत्य पितर्युपरते विलसितुं प्रवृत्तः । जन्मपत्रिकां दृष्ट्वा सशिखं हारकं व्ययीकुरुते । ९२९) तस्य भोजनृपतिना मालवाधीशेन मैत्री जाता । एकदा श्रीभोजेन मिलितुमाकारितो माघस्तत्र गतः । 10 नृपेण सगौरवं धवलगृहे स्थापितः । स्नानं कुर्वता पण्डितेन मुखं कूणितम् । नृपेण भोक्तुमुपविष्टस्य दिव्यरसवती - समाना रसवती परिवेषिता । स मुखमेव कूणयति । नृपेण चिन्तितम् - स्वगृहे किमसौ भुनक्ति । उत्थितः । पृष्टो नृपेण - रसवती कीदृशी । देव ! कदशनेनोदरं पूर्त्तम् । भव्यशीतरक्षा पार्श्वे हसंतिका च रात्रौ सुप्तः । पण्डितो नृपस्य नातिदूरे । रात्रौ पण्डितः शय्यायां पुनः पुनः पार्श्वे घातं करोति । नृपेण- किमसौ भुनक्ति, कथं शेतेऽस्य गृहे ? | अवलोकनीयं गत्वा एतत् । प्रातरुत्थिते नृपेण पृष्टम् - सुखेन निद्रा समायाता ? | देव ! रासभवद्भारितानां 1.5 निद्रा कुतः । दिनचतुष्कं स्थित्वा पण्डितेन नृपो मुत्कलापितः । राज्ञा श्रीमाले भोजखामिप्रासादः कारितः । तस्य पुण्यं पण्डितस्य प्रदाय पण्डितः सम्प्रेषितः । पण्डितेनोक्तम् - देव ! कदाचिन्ममोपरि प्रसादं विधायास्मत्पुरे पादमवधारणीयम् । एवमित्यभिधाय सम्प्रेष्य नृपः प्रत्यावृत्तः, स्वगृहमायातः । इतो द्वितीये शीततौं नृपः प्रौढकटकेन श्रीमाल प्राप्तः । माघेन सम्मुखं गत्वा नृपः स्वगृहे एव सकटकोऽप्युत्तारितः । नृपस्तु आवासमवलोकितुं प्रवृत्तः । स्थाने स्थाने विचित्रकौतुकानि पश्यन् स्थाने स्थाने धूपघटीपरिमलमाजिघ्रन्, सञ्चारभूमिमतीव परिमलाढ्यां 20 पृष्टवान् किमेष देवतावसरोपवरकः ? । देव ! एष सञ्चारकोऽपवित्रः । नृपो लज्जितः । इतो मज्जनावसरे पूर्व मर्दनिकैर्मर्दनं दत्तं यथा नृपोऽतिरञ्जितः । स्नानपीठे स्वर्णमये महाविच्छित्या स्नानं कारितः । तदनु देवदूष्यसमा नि नासानिःश्वासहार्याणि वस्त्राण्याजग्मुः । महर्ज्या देवान् नत्वा भोक्तुमुपवेशितः । स्वर्णस्थाले द्वात्रिंशत्कञ्च्चोलकैर्वृते मण्डिते क्षीरमयं पक्वान्नं परिवेषितम् । क्षीरतन्दुलमयः कूरः । एवं वटकान्यपि तस्यैव । अपराणि नानाव्यञ्जनानि परिवेषितानि । नृपश्चिन्तयति स्म य ईदृशीं रसवतीं भुनक्ति तस्य मे रसवती कथं रोचते । भुक्तोत्तरं पञ्चसु - 25 गन्धिनामताम्बूले जाते वार्त्ता विदधतो रात्रिरजनि । सर्वोपरितनभूमौ नृपाय पल्यङ्कः सञ्जितः । राज्ञोक्तम्-मित्र ! शीतकालं न जानीथ ? | देव ! जानीमः । चन्दनं सञ्जितम् । नृपस्तत्र शय्यामलंचक्रे । तत्र महान् तापश्चन्दनमर्पितम् । तालवृन्तैर्विज्यमानस्य निद्राऽऽयाता । प्रातः पण्डितेन पृष्टम् - देव ! शीतकाल उष्णकालो वा १ । उष्णकाल इति प्रत्युत्तरं ददौ । पण्डितप्रीत्या कियन्ति दिनानि स्थित्वा मुत्कलाप्य नृपः स्वपुरीं ययौ । १७ 30 ९३०) क्रमेणैवंविलसतः पण्डितस्य धनं क्षीणं वार्द्धक्यमपि चागमत् । इतः पण्डितेन प्रिया उक्ता(४६) न भिक्षा दुर्भिक्षे पतति दुरवस्थाः कथमृणं लभन्ते कर्माणि क्षितिपरिवृढान् कारयति कः । अदत्त्वापि ग्रासं ग्रहपतिरसावस्तमयते क्व यामः किं कुर्मो गृहिणि ! गहनो जीवनविधिः ॥ इति निर्वाहमविमृश्येत माघेन माघकाव्यपुस्तकमर्पयित्वा प्रिया माल्हणादेवी नाम्नी धारायां नृपसमीपे प्रहिता - यदमुं ग्रन्थं ग्रहणकेऽङ्गीकृत्य लक्षत्रयं द्रम्माणां ददत । सा तत्र गता नृपेण शुद्धिः पृष्टा । पुस्तकमर्पितम् । लक्षत्रयी याचिता । राज्ञा शलाका क्षेपिता । प्रातर्वर्णने पण्डितस्वरूपसूचकं काव्यं निस्सृतम् - पु० प्र० स० 3 For Private Personal Use Only . 35 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रन्हे (४७) कुमुदवनमपथि श्रीमदम्भोजखण्डं त्यजति मदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः। उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं हतविधिललितानां ही विचित्रो विपाकः ॥ नृपेण विमृश्य ही इति अक्षरस्य लक्षत्रयं दत्तम् । ग्रन्थस्तावत् दूरेऽस्तु काव्यं च । पण्डितपल्या नृपकुलादुत्तरन्त्या पण्डितविरुदान्यधीयानानां लक्षत्रय्यपि दत्ता । नृपेण पुनराहूयोक्ता-पुनद्रव्यं गृहाणेत्युक्तो5 वाच-अधिकं नानायितमतोऽहं न गृह्ने । सा क्रमेण स्वगृहं प्राप्ता । यथा गता तथा आगता । पण्डितेनोक्तम्पुस्तकं राज्ञा किमिति नात्तम् ? । तया वृत्ते उक्त पण्डितेनोक्तम्-सत्यं आवयोर्योगो विधिना कृतः। अद्य त्वं परीक्षाशुद्धा निवृत्ता । एतावन्ति दिनानि चेतस्येवं विकल्प आसीत् यन्मे रोहिनी ममानुरूपा न वा । अद्य सन्देहो भनस्तव दानेन । यत्त्वया गृहदौस्थ्यं न गणितम् ।। (४८) अर्था न सन्ति न च मुञ्चति मां दुराशा दानान्न सङ्कुचति दुर्ललितः करो मे। 10 यात्रा च लाघवकरी खवधे च पापं प्राणाः खयं व्रजत किं परिदेवितेन ॥ - इतो दर्भस्रस्तरसुप्तः चरणयोः श्वयथुर्जातः । अस्मिन्नवसरे कोऽपि विप्रः क्षुधार्थी पण्डितावासे प्रविष्टः। भोजनं याचितम् । पण्डितेनोक्तम्(४९) क्षुत्क्षामः पथिको मदीयभुवनं पृच्छन् कुतोऽप्यागतः तत्किं गेहिनि ! किश्चिदस्ति यदसौ भुङ्क्ते बुभुक्षातुरः। वाचाऽस्तीत्यभिधाय सत्वरपदं प्रोक्तं विनैवाक्षरं स्थूलस्थूलविलोललोचनगलवाष्पाम्भसां बिन्दुभिः॥ इतोऽर्थी विमुखीभूय गतः । पण्डित आह(५०) व्रजत व्रजत प्राणा अर्थिनि व्यर्थतां गते । पश्चादपि हि गन्तव्यं क सार्थः पुनरीदृशः॥ इति कथनादनु प्राणैस्त्यत्यजे । पत्न्यानु सहगमनमकारि । इतः श्रीभोजराजो वित्तस्य करभी त्वा 20 त्वरितमाययौ । पृष्टम्-पण्डितः क्व ? । जनैर्वृत्तमुक्तम् । नृपः प्राह-रे रे इदं श्रीमालं न, भिल्लमालमिदम् । यत्र मम मित्रस्य मयि सत्यपि केनाप्युद्धारकेऽपि किमपि नार्पितम् । अतः पुरेष्वपि [अप]वित्रमिदम् । शेषकार्याणि तस्यार्थस्य व्ययेन विधायेति विमृशन् मनसि(५१) शशिदिवाकरयोग्रहपीडनं गजभुजङ्गविहङ्गमबन्धनम् । मतिमतां च समीक्ष्य दरिद्रतां विधिरहो बलवानिति मे मतिः॥ __ क्रमेण स्वपुरीं गतः। (५२) उदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां विकसति यदि पद्मं पर्वताग्रे शिलायाम् । प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति वह्निः तदपि न चलतीयं भाविनी कर्मरेखा ॥ ॥ इति माघपण्डितप्रबन्धः॥ ८. कुलचन्द्रप्रबन्धः (B.) 30६३१) एकदा श्रीभोजो वीरचर्यायां भ्रमन् दिगम्बरं मठोपरिस्थं इति वदन्तमशृणोत् (५३) तिक्खा तुरिअन माणिआ भडसिरि खग्ग न भग्गु । एह जम्म नग्गहं गयउ गोरी कंठि न लग्गु ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीलपटवध-प्रबन्धः। नृपेण चिन्तितम्- नैष सामान्यः । प्रातराहूय उक्तः- तव किं नाम ? । देव ! कुलचन्द्रः। (५४) देव ! दीपोत्सवे रम्ये प्रवृत्ते दन्तिनां मदे । एकच्छवं करिष्यामि सगौडं दक्षिणापथम्॥ राज्ञा गृहिवेषं ग्राहितः । इतो राजकुमारी तमिन्ननुरक्ता जाता । सा एकदा वर्षारात्रौ प्राह (५५) नव जल भरिआ मग्गडा सजल धड्डुक्का मेहु। इअ वारि जइ आविसिइ तउ जाणीसिइ नेहु ॥ द्वारस्थेन श्रुतम् । स कटकमादाय गूर्जरत्रोपरि गतः। पत्तनं भनम् । नृपस्तु नंष्ट्वा गतः । वलमानस्य स्तम्भनकाचार्यैर्घाटे रुद्धे, घाता जाताः । तेन सङ्कटस्थेन भोजं प्रति पत्रिकामादाय [ नरः] प्रहितः। तत्र(५६) विस्फारस्फारधन्वा मृगयुरनुपदं पार्श्वयोवदाघः क्ष्वेडानादः पुरस्तात् तपति च तपनो मूर्ध्नि तापर्तुतीव्रः । अन्तःशल्यं शिरस्सु स्थपुटगिरिनदी दुस्सहा क्षुद् तृषार्ति __10 दुर्दैवादद्य जातं व्रजतु हि हरिणः कां दिशं कांदिशीकः ॥ राज्ञा दृष्ट्वा 'का' स्थाने 'किं' कृत्वा प्रहितः । स तु युवा मृतः॥ इति कुलचन्द्रप्रवन्धः ॥ ९. षड्दर्शनप्रबन्धः (B. Bk.) ६३२) एकदा श्रीभोजराजेन दर्शनानि सम्मील्य उक्तम्- मोक्ष एकः पन्थानः पञ्च । एकसम्मती भव । लचिताः । कः कं मन्यते । कः कं न । इतस्तैर्नृपो विज्ञप्त:-देव! देवी भारती षड्दर्शनानां सम्मता । सा तव 15 प्रत्यक्षाऽस्ति तां पृच्छ । नृपेण उपोषितेन पूजापूर्व प्रत्यक्षीकृता । देवी उवाच- कथं स्मृता । नृपेणोक्तम्मम तथ्यं कथय, कस्सिन्मार्गे यामि । देवी आह(५७) श्रोतव्यः सौगतो धर्मः कर्त्तव्यः पुनराहतः।वैदिको व्यवहर्त्तव्योध्यातव्यः परमः शिवः॥ इत्यभिधाय देवी अदृश्याऽभूत् । प्रातर्नृपेण सर्वे सम्भूय सत्कृत्य प्रहिताः ॥ इति षड्दर्शनप्रबन्धः॥ १०. नीलपटवध-प्रबन्धः (B.) 20 ६३३) श्रीभोजराजवारके नीलपटा दर्शनिन आसन् । ते तु, एका स्त्री एकः पुमान् नीली दोटी प्रावृत्य मध्ये ननीभूय विजहतुः। एकदा धारायां प्राप्तास्तत्रापूर्वान् दृष्ट्वा सर्वः कोऽपि तेषां समीपे याति । ते त्वित्थं प्ररूपयन्ति-वयमीश्वरस्य तथ्याः सन्तानिन अर्द्धनारीश्वरत्वात् । इतश्च कौतुकाद् भोजपुत्री समागमत् । कर्त्तव्यं पृष्टम् । तैरुक्तम् (६८) पिव खाद च चारुलोचने ! यदतीतं वरगात्रि! तन्न ते । नहि भीरु ! गतं निवर्त्तते समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥ तया व्याहृतम्-भवन्मतमङ्गीकरिष्ये । नृपं मुत्कलापयितुं गता। ताताहं नीलपटानां धर्ममङ्गीकरिष्ये । नृपेण आहूताः, पृष्टाश्च- सुखिनः स्थ ? । मुख्येनोक्तम्(५९) न नद्यो मद्यवाहिन्यो न च मांसमया नगाः। न च नारीमयं विश्वं कथं नीलपटः सुखी॥ नृपेणोक्तम्- यूयं कियन्तः स्थ ? । एकोनपञ्चाशद् युगलानि । नृपेणोक्तम्- सर्वानप्याकारयत, अहं त्वद्भक्तो 30 भविष्यामि । ते सर्वे मिलिताः । नृपेण पुरुषाः सर्वे मारिताः, स्त्रियश्च निष्कास्य मुक्ताः । अतस्तेषां वीजमपि नाशितम् ॥ इति नीलपटवधप्रबन्धः॥ 25 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे। ११. भोज-गाङ्गेययोः प्रबन्धः (B.) ३४) एकदा वाणारसीपतिः श्रीगाङ्गेयकुमारो गजसहस्र १ शत ४ एवं १४००, तुरङ्गमलक्ष ३ जीणसालानि , द्वयं उद्घाटं एवं लक्ष ५, मनुष्यलक्ष २१; एवं सामग्र्या मालवपतिं भोजं प्रति चचाल । गोलातीरे आवास्य स्थितः। इतो भोजनृपोऽपि तुरङ्गसहस्र ४४, मनुष्यलक्ष ५, गज २०० एवं सामग्र्या सम्मुखो गोदावरी5 तीरे आवासान् ददौ । इतो गाङ्गेयस्य पण्डितेन परिमलेन भोज प्रति 'बकोटति' काव्यं प्रहितम् । नृपः कुपितः । परं किं कुरुते । इतो भोजेन काष्ठधवलोपरि स्थित्वा विलोकितम् । बहु सैन्यं दृष्ट्वा छित्तिपमहामात्यं सन्ध्यर्थमप्रैषीत् । स तत्र नृपसदसि गतः। नृपेणोक्तम्-अरे ! तव स्वामी मत्सैन्यं न पश्यति, यदभिमुखः समाययौ ? । देव ! सैन्यस्य को गर्वः । इति वार्त्तायां सत्यां कटके कलकलं नृपोऽश्रौषीत् । पृष्टम्-रे! किमिदम् ? । देव ! हस्ती परवशो जातस्तस्य कलकलोऽयम् । नृपस्तदाकर्ण्य उत्थाय काष्ठपञ्जरे प्रविश्य भुजार्गलां ददौ । छित्तिपस्तु 10 शनैरपसृत्य 'कथमिहे'त्यार्या वाणहीतले इङ्गालेन लिखित्वा जनमप्रेषीत् । स उपानहं नृपायादर्शयत् । नृपः सज्जीभूय गाङ्गेयसैन्ये पपात । सर्वमात्तम् । नृपोऽप्यन्तस्थो धृतः । सुवर्णनिगडे क्षिप्त्वा गजमधिरोप्य धारायामानीतः। धवलगृहेऽपरे सिंहासने निवेशितः। पण्डितपरिमलोऽपि राजवर्गेण सहायातः। राज्ञा भोजेनोक्तम्पं० उपविशत । परमासनं न मोचयति । "इह निवसति मेरुः शेखरो भूधराणां०" । भोजेनोक्तम्-कोटकः (१)। किं तस्य चरितें(तं) । मं(पं)डितेन "अयं वरामेके०" इति उक्त "जन्मस्थानं न खलु विमलं०" इत्युक्तवता15 पण्डित उक्तः-पारितोषिकं याचस्व । देव! अयं नृपतिर्मुच्यताम् । भोजेन सिंहासने निवेश्य तिलकं कृत्वा पुनर्वाणारसीराज्ये प्रहितः ॥ इति भोज-गाङ्गेययोः प्रबन्धः॥ १२. भोजदेव-सुभद्राप्रबन्धः (B.) - ६३५) इतो गोपगिरीश्वरो नरवर्मदेवस्तत्सुता सुभद्रा । सा भोजराजस्य 'अभिनवार्जुन' इति विरुदं पठ्य मानं श्रुत्वा जनकं पाह-तात! मां प्रेषय । भोजो राधावेधं कृत्वा मां परिणयते, विरुदं वा मुञ्चति । सा 20 निर्बन्धे जनकमापृच्छय तुरगसहस्रैर्द्वादशभिः सह चचाल । नृपाग्रे कथापितम्-यदहं त्वां वरीतुमागतेति । श्रुत्वा नृपश्चिन्तातुरो जातः । सा तु गोदावरीतीरमेत्य स्थिता । राधावेधं कुरु बिरुदं वा त्यज । एवं श्रुत्वा नृपः सम्मुखं प्रयाणमकरोत् , अभ्यासमारब्धवांश्च । सर्वः कोऽपि कौतुकान्वेपी सन्धेर्वार्तामपि को न विधत्ते । षण्मासान्ते तया कन्यया भतिः साहसमवलम्ब्य गोदावरीतीरमायातस्तत्र राधावेधो मण्डितः । तस्याधस्तैलकडाहिरुत्कलति । नृपस्तस्यास्तीरे स्थाने स्थितः । कवीन्द्र नावनमारब्धम् । तत्र वृद्धसरस्वतीति नाम्नाऽ25 चार्या नृपसेवकाः सन्ति । “तैर्विद्धा विद्धा शिलेयम्" इत्युक्तम् । नृपेण राधावेधे कृते कन्यया वरमाला क्षिप्ता । नृपेण काव्यस्य दूषणं पृष्टे कोऽपि न वेत्ति । नृप आह-"विद्धा विद्धा" इति मत्वा मया चिन्तितम्-मम कार्य सृतम् । “भवतु कार्मुकक्रीडितेन" अनेन भोजस षण्मासान्ते मृत्युः । स्वामिन्निति । प्रसीदेति । असदाचार्याणां षण्मासमायुः । “धारा ध्वस्ता" इति प्रकटम् । मालवश्ाप्रधानो विनंक्ष्यति । तदनु सा परिणीता । षष्ठे मासे नृपोऽतीसारान्मृतः । सुभद्रया सहगमनं कृतम् । 30 (G.) सङ्ग्रहगतं भोजनृपवृत्तम् । ३३६) *.........भोज जातके "पंचाशत्पंच वर्षाणि" इति श्लोके तेन गणको निषिद्धः । इतश्च मुझेन स एष गणका सन्तानहेतोः पृष्टो भवान् अपुत्र एवेत्यवादीत् । श्रावणसुदि पंचम्यां प्रथमप्रहरे यो भवत्समस्यां पूरयिता * एतस्य सङ्ग्राहस्यात्रैकं पत्रं त्रुटितं तस्मिन्नस्य वृत्तस्य कियान् भागो नष्टः । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजदेव-प्रबन्धाः । २१ स एव राजा भविता । इति निर्णीते दिने कस्यापि सौधस्योपरि पतिः कृष्णः पत्नी गौरीति वीक्ष्य राज्ञः समस्या समुत्पन्ना-‘दुल्लउ सामलउ धण चंपावन्नी ० ।' केनाप्यपूरिते भोजेन पठता पूरितेति - 'छज्जइ कणयारह कसवट्टइ दिन्नी० ।' पण्डितेनोक्तम् - मया पूरिता । सा राज्ञो दर्शिता । अर्द्धराज्ययोग्यं तं ज्ञात्वा भोजं विहाय यावत् युवराज्याभिलाषश्चिन्तयति, तावज्जालन्धरेण राज्ञी सुनाता प्रोक्ता । ततो निर्घृणशर्मा मारणायार्पितः । भोजेनोक्तम्- “मान्धाता स महीपतिः ० ।” इति तुष्टेन पुनर्मोचितः । 5 ९ ३७) अन्यदा श्रीभोजेन श्रीपत्तनाधिपतेः श्रीभीमस्य गाथाहस्ताः पण्डिताः प्रेषिताः । तथा गाथा“हेलानिद्दलिय॰ ।।” तत्प्रत्युत्तरेऽजायमाने नृपो विषि (प) ण्णो जातः । पण्डितैस्ततो विगोपनाय गाथायां संस्कार्यमाणायां सूरिभिरुक्तं - जीवमाना कथं मार्यते । भविता भवतां स्त्रीहत्या । इति निषिद्धे राज्ञा सन्मान्य गुरवः प्रत्युत्तरं पृष्टाः । तथा चोक्तं- "अंधयसुयाण कालो० ॥” इति प्रत्युत्तररुष्टेन भोजेन पत्तनोपरि बाह्यावासा दत्ताः । श्री भीमेन तत्परिज्ञाय डामरनामा सान्धिविग्रहिकः प्रहितः । राज्ञा भोजेन तं कुरूपं वीक्ष्य हसितम् । उक्तं च- 10 “ योष्माकाधिप० ।।" ततो राज्ञा स्नानोत्तीर्णेन गलद्भिः केशैः पृष्टं - मत्रिन् ! भीमडाको नापितः किं करोति । तेनोक्तं-अश्वपति - गजपति - नरपति नृपत्रयस्य शिरांसि भद्रितानि । चतुर्थस्य शिरसि सार्द्रीकृते क्षुरमा - चालयन्नस्ति । रञ्जितेन कौतुकिना राज्ञा स कौतुकवादी आत्मनः समीपं स्थापितः । नित्यं कौतुकवक्तृत्वेन राजानं रञ्जयति । अन्यदा राजविडम्बननाटके कारिते भीमे रूपे मार्दंगिके मृदंगं वाद्यमाने राज्ञोक्तं - मन्त्रिन् ! भीमडाकस्य करौ मृदंगपुटे भन्यौ पततः । तेनोक्तं - देव ! पुरा भीमेन पार्वतीपुरस्ताण्डवे क्रियमाणेऽभ्यस्तम् । एवं 15. विधावेव भीमस्य करौ कठोरौ वर्त्तते । अन्यदा तैलपदेवरूपे समागते मन्त्री प्रोक्तः - मत्रिन् ! भवद्देशीयोऽयं राजा उपलक्ष्यताम् । एवमुक्ते तेनोक्तं- अभिज्ञानं नास्ति । " मत्स्वामी तैलपदेवो यदि ० ||" इति प्रोक्ते रुष्टेन राज्ञा पितृव्यवैरीति तदैव सैन्यं तैलपदेवस्योपरि चालितम् । चलिते राज्ञि मत्रिणोक्तं - राजन् ! श्री भीमः पाष्णिघातं विधास्यति । राज्ञोक्तं- यात्वा वारय । वचनेन न स्थास्यतीत्युक्ते ततः अश्वसहस्र ४, जात्यगज ४, सुवर्णलक्ष ९एतत्सर्वं प्राभृते प्रेषितम् । मत्री सार्थे गृहीतः । तस्यैव बुद्ध्या योजन १६ शिक्षितगतिभिर्नवभिः तुरगसहस्रैः 20 पाद्रदेवतां नमस्कुर्वन् तैलपदेवो धृतः ॥ I ९३८) एकदा मन्त्रि डामरस्याग्रे उक्तं- विद्वान् यावान् लोकः श्रीमालवकेऽस्ति, न तादृशोऽपरदेशेषु । ततो डामरेणोक्तं- नृप ! यादृशो लोको गोपाल-वेश्यादिको विद्वानस्ति गौर्जरे, न ताहगत्र । नृपो मौनेन स्थितः । डामरेण चिन्तितं - राज्ञा धूर्त्तत्वेन स्थितम् । पुनः कदाचिदेषा वार्त्ता कर्त्ता । अतो भाणितं स्वनृपाये । यदेका विदुषी स्त्रीण्डिता देशसीमायां स्थाप्या । एको विद्वान् गोपालरूपो देशसीमायां स्थाप्यः । ततोऽन्यदा भोजे - 25 नोक्तं - आनयत । प्रधानैरानीतौ तावेव । प्रथमभेटायां राज्ञोक्तं-भण पण्डित ! वर्णय किंचन । स आह"भोयराय गलि कांठुलउ भण० ||" प्रशंसितो राज्ञा । सा उक्ता-इह किं । साह - "पृच्छंति० ॥" (३९) अन्यदा निशीथे भोजराज्ञा परिभ्रमता कुलचन्द्र नामा क्षपणक एवं पठन् श्रुतः- “ तिक्खा तुरिअ न मा० ॥" "नव जल भरिआ० ||" ततो राजा निजपुत्रीस्वरूपं दृष्ट्वा प्रातराकार्य गूर्जरदेशोपरि सेनाधिपत्यं दत्तम् । तदा तेनोक्तम् - "देव दीपोत्सवे ० ॥" ततो गूर्जरदेशो विनाशितः समग्रोऽपि । श्रीपतनचतुष्पथे 30 कपर्दका उप्ताः । ततस्तस्यागतस्य राज्ञोक्तम् - रम्यं न कृतम् । अद्यप्रभृति मालवदेशदण्डः श्रीगूर्जरं यास्यति । कपर्दका मालवदेशीयनाणकम् । (४०) धारानगर्यां सीता नाम रन्धनी । केनापि दूरदेशान्तरिणा तस्या गृहेऽन्नं कारितम् । तया निशि घृतकुम्पकव्यत्ययेन कांगुणीतैलकुम्पकात् तैलं परिवेषितम् । स मृतः । तं तथा विलोक्यापवादभीतया तया तदे For Private Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ 15 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे वानमुपभुक्तम् । तत्प्रभावात्सारखतमजनि । राज्ञो मानपात्री सीता पण्डिता जाता । एकदा राज्ञा तस्याः स्तनयुगं वीक्ष्यापाठि (६०) किं वर्ण्यते कुचद्वन्द्वमस्याः कमलचक्षुषः। सप्तद्वीपकरग्राही भवान् यत्र करमदः ॥ सीतया उत्तरार्द्ध पठितम् । तथा राज्ञा पुनः पठितं-"सुरताय नमस्तस्मै० ॥” अन्यदा तया जालान्तरे 5 चन्द्रकरस्पर्शे इदमपाठि-"अलं कलंकशृंगार०॥" ६४१) अन्यदा राजपाटिकायां गच्छतो राज्ञो भोजस्य सर्वैरपि नमो विहितम् । परमेकेन पुरुषेण हट्टमध्यस्थितेन राजा न नमस्कृतः। ततो राज्ञा तत्सम्मुखमालोकितम् । तेनांगुलित्रयमूर्वीकृतम् । राज्ञा चिन्तितम्-किमनेनांगुलित्रयेण का सञ्ज्ञा विहिता । द्वितीयदिने तथैव तेनांगुलिद्वयम् , तृतीयदिने एकांगुलिः । आकार्य राज्ञा पृष्टम् । तेनोक्तं-राजन् ! दिनत्रयं चूणिरस्ति, किं राज्ञा । इति तुष्टेन तस्मै वर्षाशनं दत्तम् । 10 ६४२) केनापि पण्डितेन श्लोकद्वयमिदमपाठि __"ग्रासादर्द्धमपि ग्रासमर्थिभ्यः॥१॥” “यदनस्तमिते सूर्ये० ॥२॥" एतत् द्वयमपि राज्ञा भोजेन कुण्डलयोः समुत्कीर्णम् । द्वयस्यापि दाने लक्षद्वयी दत्ता। ६४३) श्रीभोजेन सिद्धरससिद्धिहेतोः सुवर्णसप्तकोटी क्षिताः। रत्तिकामात्रापि न सिद्धिरजनि । ततो रसविडम्बननाटकममण्डि । तत्र पात्राण्यागत्य विजल्पन्ति (६१) कालिका नट्ठा नट्ठा कस्स कस्स नागरस वा वंगस्स वा। नहि नहि धम्मंत फुकंत अम्ह कंत सीसस्स कालिम... ॥१॥ इति राजा हसति । अत्रान्तरे सिद्धरसयोगी तनिशम्य समागतः । प्रदीपिकाधूमवेधेन राज्ञस्ताम्रमण्डिका सुवर्णीकृता । राज्ञा दृष्टं किमेतदिति ? भ्रान्तेन नाटकनिवारितम् । राज्ञोक्तं तदा भोक्ष्ये यदा स सिद्धयोगी मिलिष्यति । एवं दिनत्रयेण मिलितः । तेनोक्तं-राजन् ! रसो दैवतम् । (६२) अत्थि कहंत किंपि न दीसइ। [नस्थि] कहउ त सुहगुरु रूसइ । जो जाणइ सो कहह न कीमइ । अजाणं तु वियारइ ईमइ ॥ __ इत्यवगत्य मानितः। ६४४) श्रीभोजेन लोकोपकारकरणाय सप्तोत्तरशतवैद्यग्रासो विहितः। चतुष्पथचत्वरके जयघण्टा बन्धापिता। इत्युक्तं च-रोगिणा घण्टा वादनीया । यथा वैद्या मिलन्ति, चिकित्सां कुर्वन्ति च । अपरं च रोगिणा बलहट्टेषु 25 भेषजान्नादि ग्राह्यम् । एवं कियति काले गते सति एकदा कोऽपि जलोदरी समेतः। घण्टारवादागतेन भिषजाऽसाध्यः कथितः । ततो रोगी राज्ञो मिलितः । राज्ञापि कृपयोक्तं वैद्या! अमुं जीवयत । राजन् ! असौ न जीवत्येवास्माभिः । इत्युक्ते दीनारपंचशतीं दत्त्वा रोगी प्रस्थापितः। स निदाघे मध्यन्दिने सार्थरहिते पथि वटच्छायायां विश्रामायागमत् । तत्र सर्प एक आगच्छन् तदुर्गन्धेन नष्टः। स च विषि(ष)ण्ण आत्ममरणाय पृष्ठे धावितः। ततस्तेन सर्पवान्तगरललिप्तार्कपत्राणि भक्षितानि । तैर्विरेको लग्नः । ततः कयाचिन्नायिकया स्वगृहं 30 नीत्वा निरामयो व्यधायि । पुनावृत्त्य घण्टारवो विहितः। तन्नादागतैषिग्भिस्तं सजं वीक्ष्य प्रोक्तं-त्वया कथं घण्टारवोऽकारि । तेनोक्तं-मम राजैव वेत्ति । तैस्तत्रानीतः सः। राज्ञा पृष्टः-को रोगोऽस्ति ? । तेनोक्तं-अहं वैद्यमुक्तः स एव जलोदरी । त्वत्प्रसादाजीवितः । किमेतदिति दोषज्ञवैद्यमुख्येनोक्तं स एवायम् । परमेकौषधसाध्य एव । तदौषधं कर्मयोगेनैव मिलितम् , नार्थेन । किमौषधम् ? । राजन् ! निदाघमध्याह्ने कृष्णसर्पवयंमुक्त गरललिप्तान्यर्कपत्राण्येव । तदौषधं विना यदि जीवितो भवति तदा मम काष्ठानि । इत्युक्ते राज्ञा पृष्टं-किमहो। 35 तेनोक्तमेवमेव । ततो राज्ञा द्वयस्यापि प्रसादो दत्तः। 20 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ धाराध्वंसप्रबन्धः। ६४५) अन्यदा डाहलदेशीयकर्णमात्रा देमतया सिद्धयोगिन्या प्रहरं यावत् शुभलग्नकृते प्रसवसमये कपालासनेन गर्भो धृतः । कर्णो जातः । सा तु मृता । शुभलग्नप्रभावात् षट्त्रिंशदधिकशतराजचक्राधिपत्ये क्रियमाणे राजा रोदिति । मत्रिभिः कारणं पृष्टम्-"मा स्म सीमन्तिनी काचित् ॥” ६४६) अन्यदा श्रीकर्णेन श्रीभोज प्रति कथापितम् यत् भवतश्चतुरुत्तरशतं प्रासादाः, गीतबद्धप्रबन्धाश्च वर्त्तन्ते । अतस्तुरगद्वन्द्वयुद्ध-विद्यात्यागयुद्धेन मां विजित्य एकं प्रासादं प्रबन्धाधिकसुररीकुरु । ततः पंचाशद्धस्त- 5 प्रासादप्रतिज्ञायां भोजे जिते मत्रिभिराहूयमाने शरीरापाटवे सति घाटमार्गेषु बद्धेषु रुद्धेषु श्रीभीमेन श्रीकर्णस्य शुकचरणेन कृत्वा लेखः प्रस्थापितः । “अंबय फलं०॥” इति योगपद्येन मालवभंगे कृते भागहेतो मरेण श्रीकर्णो बन्दी कृतः ॥ इति विविधा भोजनृपप्रबन्धाः॥ १३. धाराध्वंसप्रबन्धः (B.) ६४७) मालवमण्डले उजयिनी पुरी अपरा धारा । तत्र राजा यशोवर्मा । इतश्च पत्तने श्रीजयसिंहदेवः । स 10 मालवं जेतुं प्रयाणमकरोत् । समीपभूमौ गतः प्रतिज्ञामकरोत्-यद् धारां लात्वा भोक्ष्ये । इतो धारायां गव्यूति ५ मध्येऽयोमयाः क्षुरिकाः क्षिप्ताः सन्ति । प्रतोल्यो दत्ताः । कपाटेषु योजितेषु सम्मुखानि नाराचानि । तत्र गजस्याप्यवकाशो नास्ति । धारायाः प्रत्यासन्नैरपि भवितुं न शक्यते । अथ सिद्धराजप्रधानैः कणिकाया धारा कृता। तस्या भङ्गे ५०० परमारा युद्धा मृताः। द्वादशवार्षिके विग्रहे सिद्धनाथे खिन्ने बर्बरको वेतालः प्राह-देव ! यदि यशःपटहः करी किराडूवास्तव्यो जेसलपरमारस्तत्र प्रेष्यते, गजारूढेन तेन धारा गृह्यते अन्यथा न । राज्ञोक्तम्-15 स करी कास्ते ? । कान्त्यां मदनब्रह्मनृपतेरस्ति । जयसिंहदेवस्तु कियता परिकरेण तत्र गतः । वर्षाकालोऽस्ति । पुर्या द्वारे स्थितः। मांइदेवमत्रिणो मिलितः। आदिश्यतां कार्यम् । नृपदर्शनमवलोक्यते । नृपो महानवम्यां विना दर्शनं न ददाति । जयसिंहदेवः स्थितः । इतो गाढे धर्मेऽभिजायमाने नृप उपरितनभूमौ आकाशे प्राप्तः । पुरमवलोक्य पुराद् बहिदृशं ददौ । मदनकपटैः कृष्णान् चतुरकान् दृष्ट्वा प्राह-अरे ! पूरे किमिदं दृश्यते ? । देव ! गूर्जरत्रानृपतिर्देवदर्शनार्थी प्राप्तोऽस्ति । अरे! नृपो न किन्त्वेष कबाडी । य एवंविधे वर्षाकाले भ्राम्यति । 20 आकार्यताम् । जयसिंहदेवस्तूपायनमादायाययौ । श्रीमदनब्रह्मेण राज्ञा सत्कृतः। आगमनकारणं पृष्टम् । राज्ञोक्तम्-यशःपटहः करी विलोक्यते । किमर्थम् ? । देव! तेन विना द्वादशवार्षिको विग्रहो न भज्यते । राज्ञोक्तम्-गजानानयत । जनैरुक्तम्-प्रसिद्धानां मध्ये स नास्ति । सिद्धराजः कृष्णवदनो जातः । इत एकेनाधोरणेनोक्तम्-देव! स यशःपटहः करी । तं समानाय्यत । नृपेणोक्तम्-यद्यमुना कार्य सरति तदा गृहाणान्येपि हस्त्यश्वादयः। देव ! पूर्णमनेनैव । राजा परिधाप्य करिणं दत्त्वा चोक्तम्-अतः परं विग्रहो न कार्यः। यतः 25 खल्पायुषि जीवलोके राज्यस्य सौख्यं नानुभूयते तत्तस्य को गुणः । नृपस्तु धारायां गत्वा सगौरवं जेसलपरमार आहूतः । तं दृष्ट्वा चारणेनोक्तम् (६३) तुह मुंडिए घणेहिं धार न लीजइ कर्णउत्त। जिम जे हेडे(?)प्रऊंचेहि जोइ न जेसल आवतउ । स यश पटहमारुह्य प्रतोली गतः। कपाटयो राचानि सम्मुखानि तैः करी विध्यते । स पश्चात् स्थितः। जेस-30 लेन हक्कितः । करी कुपितः । कपाटाध ईषत् शुण्डाप्रवेशं प्राप्योद्धृतवान् । प्रतोली अतिबलेन पतिता । धारा गृहीता । नृपतिर्यशोवर्मा धृतः । श्रीजयसिंहदेव उपकारिणो जेसलस्यौद्धदेहिकं कृत्वा वलितः। ६४८) यावत्क्रमेण वृद्धनगरमायातस्तत्र ब्राह्मणैः प्रवेशोत्सवे कारिते श्रीयुगादिदेवप्रासादाग्रे नृपे प्राप्ते, द्विजैरुक्तम्-देव! देवं नमस्कुरुत । किमसौ ब्रह्मा ? । देव! असौ युगादिदेवप्रासादः । किमत्रापूर्वम् ? । देव ! Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे असाकं पुरे एष देवो मुख्यः । नृपस्तु मध्ये गत्वा देवं नमस्कृत्य ध्वजर्जा प्रासादोपरि दृष्ट्वा जनानाह-मया मालवे रुद्रमहाकालं विना ध्वजा क्वापि न दृष्टा । अतः कथमत्र ? द्विजैरुक्तम्-उत्तारके चलत यथोच्यते । ततो नृपतिर्ब्रह्मदेवकुले गत्वोत्तारके गतः। तदनु ब्राह्मणैः श्रीयुगादिदेवभाण्डागारात्कांस्यतालार्द्ध गोष्ठिकैरानीय नृपाय दर्शितम् । देव ! असौ स प्रासादो यत्रैवं कांस्यतालान्यासन् । एवं प्रासादाः २१ सकलशा भूगताः सन्ति । एष 5 द्वाविंशतितमः । नृपस्तु चमत्कृतः । देवायाधिकं ग्रासं दत्त्वा पत्तनं गतः ॥ इति धाराध्वंसप्रबन्धः ॥ १४. सिद्धराजौदार्यप्रबन्धः (B.) ६४९) अथैकदा गुप्तिस्थाय यशोवर्मनरेश्वराय सिद्धराजेन पत्तनं दर्शितम् । तेन प्रासादपरम्परां दृष्ट्वा उक्तं च-देवासाकं वैरं सुखेन वलिष्यति । कथम् ? । एषु देवकुलेषु मानातीतो ग्रासोऽस्ति । पाश्चात्यास्तं लोपयिष्यन्ति । __ अतो देवद्रव्यभक्षणाद्विनश्यन्ति । सहस्रलिङ्गं दृष्ट्वा प्राह-वयं देवद्रव्यभक्षकाः, यूयं शिवस्नातजलपायिनः । अत 10 एवावां तुल्यौ। (६४) न मानसे माद्यति मानसं मे पम्पा न सम्पादयति प्रमोदम् । __ अच्छोदमच्छोदकमप्यसारं सरोवरे राजति सिद्धभर्तुः ॥ ६५०) अथैकदा सिद्धनृपतिनगरचरितं ज्ञातुं छन्नं भ्रमति स्म । व्यवहारगृहश्रेणौ एकमिन्नावासे बहून् दीपानालोक्य प्रातस्तस्याकारणं प्रहितम् । तेन भयभीतेन कारणं पृष्टम् । आकारकेणोक्तम्-नाहं जाने । स गतः। 15 नृपेण पृष्टम्-कियन्तस्ते गृहे दीपाः । तेनोक्तम्-चतुरशीतिः। नृपेण भाण्डागारात्षोडशलक्षान् दत्त्वा ध्वजा कारिता, दीपका विध्यापिताश्च । १५. मदनब्रह्म-जयसिंहदेवप्रीतिप्रबन्धः (B.) ६५१) कान्तीपुरी सर्वपुरश्रेष्ठा । तत्र चतुरशीतिश्चतुष्पथानि । चतुरशीतिज॑नाः प्रासादाः । तावन्तो माहेश्वराः । तावन्त्यो वाप्यः । ८४ उद्यानानि । ८४ सरोवराणि । एवं ८४-८४ स्थानानि । तत्र मदनब्रह्मा राजा । 20 तस्य धवलं गृहम् । योजनप्रमाणः प्राकारस्तत्र धवलगृहं सप्तदशभूमिकम् । तस्य पाश्चात्यप्राकारमध्ये सर्वऋतूपयोगि उद्यानम् । तत्र सप्तदिश] भूमौ गवाक्ष ४ । आदौ विमानविभ्रमः पूर्वस्याम् । उत्तरस्यां कैलाशहासः । दक्षिणस्यां पुष्पाभरणः । पश्चिमायां गन्धर्वसर्वस्वः । एते चत्वारो मुख्या गवाक्षाः । सर्वे स्वर्णमयाः । नानाकौतुकोपशोभिताः । अपरे ११६ । एवं १२० तदुर्गे । वाप्यश्चतस्रश्चतुर्दिक्षु । क्षीरोदवापी १, कमलकेदारा २, हंसविश्राम वापी ३, सुधानिधिः ४ एवं । तदनु पुरमध्ये चन्द्रज्योत्स्ना तटाकिका धवलगृहप्रवेशप्रत्यासन्ना नानारत्ने 25 तस्याश्चतुर्दिक्षु वाटिकाधारागिरिः सर्वञपयोगिभिवृक्षविराजितः । तस्य राज्ञोऽन्तःपुरसहस्र ५। एवं ३६००० पिंडविलासिन्यः । मुख्यदेव्यश्चतस्रः । बावन १, [चन्दना २,] सुमाया ३, सींघण ४ । बावनदेवीवाहिगि-सुगति १, हंसगति २, सुललित ३, लीलावती ४ मुख्य । चन्दनावाहिगि ४ साऊ १, सुसीला २, दक्षमणी ३, वल्लभा ४। सुमयावाहिगि ४-कांऊ १, कपूरी २, कामल ३, कस्तूरी ४ । अमृतमयी १, अमृतवत्सला २, वचनवत्सला ३, सहसकला ४-सींघणदेवीवाहिगि । मेरी १, हम्मीरी २, फतू ३, फलू ४-एता मुख्याः राज्ञः 30 प्रसादपात्राणि । आलि १, आलति २, अलवि ३, अलवेसरि ४, वीलू वामणी कौतुकपात्राः । गज ३३३०, तुरंगम लक्ष ५, पदाति लक्ष २१ । सर्वमत्रिश्रेष्ठो माईदेवः सर्वमुद्राधिकारी । सेनापतिः सांईदेवः । बारऑलगउ माधवदेवः । तथा वर्षमध्ये सर्वावसरः २-एको महानवम्याम् , अपरश्चैत्राष्टम्याम् । एवमिन्द्रसमानो राज्यं पालयति । सोलही सोल १६ नृत्यं सदा नृपाग्रे कुर्वन्ति । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाचार्यप्रबन्धः। २५ ६५२) एकदा गूर्जरत्राधिपतिर्जयसिंहदेवो दिविजयं विधाय व्यावृत्तः कान्तीपरिसरे प्राप्तः। चिन्तितम्मम रणश्रद्धा केनापि नापूरि । “पुष्पेषु जाती नगरेषु कान्ती*...” सा तावद्विलोकनीया । परिग्रहोऽप्यनुत्साहोऽपि नृपमनुययौ । क्रमेण पुरीद्वारभूमावावासान् दत्वा स्थितः । मध्ये कोऽपि न वेत्ति । नृपेण बहिःस्थेन पुरीप्राकारे कनककपिशीर्षाणि दृष्टानि । प्रासाददण्डकलशैः सर्वसुवर्णमयी लंकेव भाति । सिद्धराजेन चिन्तितम्वयमविमृश्य प्राप्ताः । इतः सेनानीः सन्नद्धीभूय पुराद्धहिर्निर्गत्य फेरकं दत्त्वा मध्ये याति । अमात्येन पुरीरोधः 5 कृतः । सैन्यसामग्री च सर्वा विहिता । इतो मत्रिणा लेखद्वारेण नृपो विज्ञप्तः-देव ! किमपि सैन्यं द्वारि केनापि हेतुनाऽगतमस्ति । नृपेणोपरितनभूमिस्थितेन दृष्टम् । द्वारावलगकस्य प्रति वरूपपत्रमर्पितम् । मत्रिणा स्वरूपमालोक्य षोडशतुरङ्गमानपरवस्तु नृपयोग्यमर्पयित्वा माधवदेवद्वारावलगका प्रहितः। स सिद्धनाथं गतः। नृपेणोक्तम्-किमिदम् ? । मत्रिणाऽतिथ्यं भवतां प्रहितम् । प्राघुणका यूयं सत्कारार्हाः। नृपेणोक्तम्-वयमातिथ्यार्थिनो न, किन्तु युद्धार्थिनः । स तत् श्रुत्वा मत्रिणे निवेदितवान् । मत्रिणा नृपो विज्ञापितः । राज्ञा पत्रकेण द्वारि 10 । भव्यमेतत् । आगामि के मङ्गलवारे तव श्रद्धा पूरयिष्यावः। मत्रिणा द्वारि रणक्षेत्रं नृपस्य जयसिंहदेवस्य वचनात्सजीकृतम् । चतुर्दिक्षु वृक्षादि क्षत्रियैश्छिन्नम् । मत्रिणा युद्धार्थे सैन्यसामग्री कृता । नृपादेशमेव विलोकमानस्तिष्ठति । नृपस्तु किमपि न कथापयति । इतो निर्णीतदिनोपरि जयसिंहदेवेन जगदेवस्य परमारवंशोद्भवस्य पट्टबन्धः कृतः । पञ्चदश चान्येऽपि तत्सदृशाः सजीकृताः। इतो मङ्गलवारदिने नृपः प्रबुद्धो दन्तशौचं स्नानं शृङ्गारं च विधाय देवतावसरमकरोत् । तत्र प्रेक्षणीयं जातम् । पश्चाद्रसवती निष्पन्ना । भोजनं विधाय 15 ताम्बूलमादाय तुरगान् सजीकृत्य स्वयं सन्नाहं जगृहे । षोडश नार्यः सन्नाहं ग्राहिताः। तदनु ताभिर्युक्तो युवत्या धृतातपत्रो द्वाभ्यां वीजितवालव्यजनः स्थाने २ प्रेक्षणकान्यवलोकयन् पुर्यन्तरेवाष्टौ दिनानि कौतुकेनैव [निर्गम्य] नवमदिने बहिरायातः । इतो रणभूमौ पटो विधृतोऽन्तरा तावजयसिंहदेवसुभटाः सन्नह्य समाजग्मुः । यावपटोऽपाकृतः, तावन्नारीवेष्टितं नृपं दृष्ट्वा जगदेवाद्याः पश्चाद्ववलुः । नृपेणोक्तम्-किमिति भनाः स्थ । जगदेवेनोक्तम्-केन सह युध्यते । स्वयमवलोकयतु देवः। तावजयसिंहदेवः स्वयं सम्मुखे धावितस्तुरङ्ग मुक्त्वा पाद-20 चारेण । मदनब्रह्मनृपोऽप्युत्तीर्णः । द्वयोरालिङ्गने जाते द्वयोरपि प्रीतिर्जाता । प्रवेशमहोत्सवे जायमाने सिद्धनाथस्त्वनेकानि कौतुकानि विलोकयन्ननेकानि वाद्यानि शृण्वंश्च राज्ञा समं प्रतोल्यामागतः। एवं नवभिर्दिनैश्चन्द्रज्योत्स्नातटाकिकायां प्राप्तौ । तत्र स्नातौ । सुवर्णवेष्टितपादपां धारागिरिवाटिकामवलोकयन्तौ धवलगृहद्वारमायातौ । मत्रिणा कारितमङ्गलोत्सवौ धवलगृहं प्राप्तौ । सिद्धनाथस्तु सर्वरमणीयतामालोक्य ग्रामीण इव विस्मयातुरः स्थितः । भोजनाद्या सर्वा सामग्री तथा जाता यथा बाढं चेतसि चमत्कृतः । मासान्ते मुत्कलापयामास 125 राज्ञा हस्त्यश्वादीन्युपढौकितानि । जयसिंहदेवस्तु पात्राष्टकं ययाचे । नृपेणार्पितम् । राजा मुत्कलाप्य पत्तनोपरि चलितः । पात्राष्टकं यावत्पुरप्रतोल्यामागतं सुखासनादि संहृत्य......तावनिर्गमे उक्तम्-अग्रे पत्तनं क्व । जनैरुक्तम्-'पत्तनं दूरे' इति श्रुत्वा षण्णां हृदयसङ्घहो जातः । इतो द्वयस्योपर्याच्छादनं दत्तम् । द्वयं जीवितम् । तन्नृपेण सह क्रमेण पत्तने प्राप्तम् । माऊनाम एकस्याः, परस्साः पेथू । अद्यापि माऊहराणि पेथूहराणि च पात्राणि श्रूयन्ते । एवं श्रीजयसिंहदेवः कान्तीं गत्वा समायातः॥ इति मदनब्रह्मनृपतेर्जयसिंहदेवस्य प्रीतिप्रबन्धः॥ 30 १६. अथ श्रीदेवाचार्यप्रबन्धः ( BR.); (६५) वस्त्रप्रतिष्ठाचार्याय नमः श्रीदेवसूरये । यत्प्रसादमिवाख्यान्ते सुखप्रश्नेषु साधवः ॥ (६६) नग्नो यत्प्रतिभाधर्मात् कीर्तियोगपटं त्यजन् । हियेवात्याजि भारत्या देवमूरिMदेऽस्तु सः॥ अत्र पद्यस्य पूरणार्थे मूलादर्श तत्प्रमाणा पंक्तिः रिक्ता मुक्ताऽस्ति । पु०प्र० स० 4 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्र (६७) प्रभाधिनाथैर्मुनिभिः कलाभृत् मुख्यैरुपेतो गुरुतारकौघैः । अनन्तलीलाकलितः किलास्ते गच्छो बृहद्गच्छ इति प्रतीतः ॥ (६८) तत्र चित्रचरितः परितापं हर्तुं मेघ इव भव्यजनानाम् । शिष्यवृद्धिकर संवर वानप्युज्वलोऽजनि गुरुर्मुनिचन्द्रः ॥ (६९) दुःषमाजलधौ येन मग्ना सुविहितस्थितिः । हेलयेव समुह धरित्रीवादिपोत्रिणा ॥ तच्छिष्य : - ( ७० ) पडिबोहिअमहिलओं निन्नासिअकुमततिमिरखरो । सचपबोहकरो जयउ जए देवसूरिरवी ॥ तावचिअ गलगजिं कुणंति परवाइमत्तमायंगा । चरणचवडचमकं न देइ जा देवसूरिहरी || (७१) २६ 10 ९५३) तस्य चरितारम्भ: - * धन्याधारदेशे मड्डाहडपुरे वीरणागश्रेष्ठी प्राग्वाटज्ञातीयो वसति । तत्प्रिया जिनदेवी । साऽन्यदा स्वमे चन्द्रं मुखे विशन्तं ददर्श । अथ गुरूणां श्रीमुनिचन्द्रसूरीणामुक्तम् । तैरुक्तम् - चन्द्रवत्सौम्यः तो भावी । सा समये शुभदिने सं० ११४३ वर्षे वैशाखशुद्धदशम्यां सुतमस्त । पूर्णचन्द्र इति नाम कृतम् । कदाचिन्मड्डाहडेऽशिवमुत्पन्नम् । लोको दिशोदिशं गतः । वीरणागोऽपि भृगुकच्छे गतः । पूर्णचन्द्रस्तु अष्टवा - र्षिकः सन् शुष्कभक्षिकां विक्रीणाति । गुरवस्तत्रायाताः । स शुष्कभक्षिकां विक्रेतुं कस्यापि गृहे गतः । तद्गृहे15 शोऽपि निधानद्रव्यमङ्गाररूपं त्यजन् पूर्णचन्द्रेणोक्तः - स्वर्णं किं त्यजसि १ । तेनोक्तम् - मम भाग्यादङ्गारा जाताः, त्वं स्वकरे कृत्वा ममार्पय । तेनार्पितम् । धनिकेन कनकं दृष्टम् । धनिकेन शुण्डो भृत्वा स्वर्णस्यार्पितः । तेन पितुरर्पितः । पित्रा गुरूणामुक्तम् । सूरिभिरुक्तम् - एष न सामान्यः, यद्यस्माकं ददासि तदा प्रभावको भावी । पित्रोक्तम्-अहं वृद्धः; तथा एकमुतो निर्द्रव्यः । पूज्यानां च वचोऽन्यथा कर्तुं न शक्यते । गुरुभिरुक्तम्-मम तपोनानां पञ्चशत्यस्ति ते सर्वे तव सूनवः । स दयितां पृष्ट्वा पुत्रं गुरूणां ददौ । सं० ११५२ वर्षे दीक्षा । प्राज्ञ - 20 त्वात् समग्रशास्त्रपारङ्गतो जातः । रामचन्द्र इति नाम दत्तम् । स महावादी जातः । पूर्वं धवलकापुरे धन्धो नाम द्विजो जितः । काश्मीरदेशीयो द्विजः सत्यपुरे सागरो जितः । नागपुरे गुणचन्द्रो दिगम्बरो जितः । चित्रकूटे शिवभूतिर्भागवतो जितः । गोपगिरौ गंगाधरो द्विजः, धारायां धरणीश्वरः, पुष्करिण्यां पद्माकरः । इतो विमल'चन्द्र- हरिचन्द्र- पार्श्वचन्द्र-सोमचन्द्र-शान्तिकलश-अशोकचन्द्राद्याः सहायाः सञ्जाताः । गुरुभिः सं० ११६२ वर्षे पदे स्थापितः - देवर इति नाम जज्ञे । तथा वीरणागश्रेष्ठिना जिनदेवीसहितेन तथा सरस्वतीनाच्या पुत्र्या25 न्वितेन व्रतमात्तम् । पुत्र्याश्चन्दनबालानाम्ना गुरुभिर्महत्तरापदमदायि । १५४) अन्यदा धवलक्कके विहारे गताः । तत्र ऊदाश्रेष्ठिना श्री सीमन्धरप्रासादोऽकारि । तस्यायमभिप्रायःयत् सीमन्धरो यं कथयति तेन प्रतिष्ठां कारयामि । उपवासत्रयं जातम् । सङ्घो मिलितः । शासनदेवी स्मृता । कार्ये निवेदिते, देव्या उक्तम् - श्रीसङ्घः कायोत्सर्ग करोतु । तस्य बलात् देवी तत्र गता । श्रीसीमन्धरं नत्वा * B सङ्ग्रहे एतच्चरितस्यारम्भः किञ्चिद्भिन्नपाठक्रमेणोपलभ्यते । यथा मड्डाहम्मि नयरे निवसइ सेट्टी अ वीरणागु त्ति । सिरिपोरवाडवंसे जिणदेवी तस्स भज्जा य ॥ तयोस्तनूजः शुभस्वमसूचितो रामचन्द्र नामास्ति । अन्यदाऽवृष्टौ सत्यां दुर्भिक्षवशात् भृगुपुरे सुभिक्षं श्रुखा श्रेष्ठी तत्र गतः । रामचन्द्रस्तु नौवित्तवाक्यां वाणिज्याय यदपि तदध्यादाय याति । एकदा श्रीमुनिचन्द्रसूरयो विहारेणाजग्मुः । वीरणागो वन्दनायायातः । इतो रामचन्द्रेण षोडशवर्षदेशीयेन पौषधागारमागत्योक्तम्-तात ! मया चणकान् दत्त्वा तावत्यो द्राक्षाः समानीताः । गुरुभिर्लक्षणान्यवलोक्य श्रेष्ठी उक्तः श्रेष्ठिन् ! पुत्रो महाभाग्यवान्, त्वद् गृहे सन् तव कुलस्यैव द्योतको भावी; परं गृहीतदीक्षः सकलस्यापि जिनशासनस्य द्योतको भविता । ततः श्रेष्ठिना श्रेष्ठिन्या च क्षमाश्रमणं वृत्तम् । भगवन् ! सपुत्रयोरप्यावयोर्दीक्षया प्रसादं कुरु ।... ( इतोऽग्रे B सङ्ग्रहः खण्डितः ) For Private Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ 10 देवाचार्यप्रबन्धः । पप्रच्छ-भगवन् ! धवलक्कपुरे श्रेष्ठिना ऊदाकेन भवतां प्रासादः कारितः। तस्य प्रतिष्ठां कः करोतु ? । स्वामिना उक्तम्-श्रीदेवाचार्याः कुर्वन्तु । निवृत्य उक्तम् । कायोत्सर्गः पारितः श्रीसद्धेन । प्रतिष्ठा जाता । ऊदावसहीति नाम जज्ञे ।-इत्याद्यनेकवर्णनानि, तथापि किञ्चित् खण्डितसम्बन्धा लिख्यन्ते । ६५५) अथ कर्णावतीसङ्घप्रार्थनया कर्णावतीं गताः । चतुर्मासकं स्थिताः । तत्र श्रीमदरिष्टनेमिनः प्रासादे व्याख्यानं भवति । इतः कर्णाटनृपगुरुश्चतुरशीतिवादान-एवं देशे देशे जित्वा मालवमण्डलस्य मध्ये भूत्वा 5 गूर्जरत्रां प्रति चचाल । क्रमेण आसापयामाययौ । तस्य वादाः(७२) बंभ अह नव बुद्ध भगव अट्ठारस जित्तय, सइव सोल दह भट्ट सत्त गंधव विजित्तय। जित्त दिगार सत्त च्यारि खत्तिय दुय जोइय, इकु धीवर इकुभिल्लु भूमिपाडिऑइकु भोईऔं। ता कुमुदचंदि इय जित्त सवि अणहिल्लपुरि जौं आइयाँ । वडगच्छतिलइ पहुदेवसूरि कुमुदह मदु उत्तारियओं ॥ __वासुपूज्यचैत्ये स्थितः । इतो धावस्तत् श्राद्धोऽमन्दतरमायातः । कुमुदेनोक्तम्-किं चिरेण दृष्टः १ । तेनोक्तम्श्वेताम्बरश्रीदेवाचार्यपौषधागारे समर्थनमजनि । तत्र वेला लग्ना । कुमुदेनोक्तम्-मयि आगते श्वेताम्बराणां समर्थनमेव युक्तं न त्वारम्भणम् । तेनोक्तम्-मैवं वद । (७३) आस्तां सुधा किमधुना मधुना विधेयं, दूरे सुधानिधिरलं नवगोस्तनीभिः। श्रीदेवसूरिसुगुरोर्यदि सूक्तयस्ताः पाकोत्तराः श्रवणयोरतिथीभवन्ति ॥ 15 इति श्रुत्वा सकोपः सन् साहारणं नाम भट्टमाहूय प्राहिणोत् । स पौषधागारे कुमुदबिरुदान्यवादीत्-सकलवादिवेताल, वादितरुप्रबलकालानल, वादीन्द्रमानपर्वतदावानल, वादिगजघटापश्चानन, वादिसिंहशार्दूल, मुक्तिनितम्बिनीकण्ठकन्दलालंकारहार, श्वेताम्बरदर्शनप्रहसनसूत्रधार, पट्दर्शनपाठी जयति वादीन्द्रश्रीकुमुदचन्द्र । (७४) हहो श्वेतपटाः किमेष कपटाटोपोऽस्ति सण्टङ्कितैः संसारावटकोटरेऽतिविकटे मुग्धो जनः पात्यते। 20 तत्त्वातत्वविचारणासु यदि वो हेवाकलेशस्तदा । - सत्यं कौमुदचन्द्रमझियुगलं रात्रिन्दिवा ध्यायत ॥ ततः प्रभोः शिष्येण माणिक्येनोक्तम्(७२) कः कण्ठीरवकण्ठकेसरसटाभारं स्पृशत्यंहिणा कः कुन्तेन शितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं काङ्क्षति । का सन्नद्धति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतंसश्रिये । यः श्वेताम्बरदर्शनस्य कुरुते वन्द्यस्य निन्दामिमाम् ॥ अन्यदा प्रभोर्भगिनी सरस्वती तनुगमनिकायां गता। कुमुदः प्राह-केयं गंडरिका श्वेताम्बरी ? कुमुदेनोक्तम्आर्ये ! नृत्यं कुरु । नमाट! त्वं मृदङ्गं वादय । ततः सा पौषधागारे गत्वा रोदितुं प्रवृत्ता । गुरुभिर्निमित्तं पृष्टा तयोक्तम्. . (७६) हा कस्स पुरोहं पुक्करेमि असकन्नया महं पहुणो। नियसासणनिकारे जोऽवयरइ वरं सुगओ॥ दिगम्बरविडम्बना उक्ता । गुरुभिश्चिन्तितम् -25 30 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ 10 पुरातनप्रबन्धसङ्घहे (७७) आः कण्ठशोषपरिपोषफलप्रमाणो व्याख्याश्रमो मयि बभूव गुरोर्जनस्य । __ एवंविधान्यपि विडम्बनविड्वराणि यच्छासनस्य हहहा ! मसृणः सृणोमि ॥ दुर्वादिचक्रगजसंयमनाङ्कुशश्रीः श्वेताम्बराभ्युदयमङ्गलबालदूर्वा । श्रीदेवसूरिसुगुरोभृकुटिर्ललाटपट्टे स्थितिं व्यतनुत प्रथमावतारम् ॥ 5 तदनु नयसारभट्टमाहूय प्रेषितः । स दिगम्बराये गत्वा जगौ(७८) दिगम्बरशिरोमणे! गुणपराङ्मुखो मारम भूर्गुणग्रहफलं हि तत् वसति पङ्कजे यद्रसः। ततस्त्यज मदं कुरु प्रशमसंयतान् खान् गुणान् दमो हि मुनिभूषणं सच भवेत् मदोव्यत्यये। (७९) नामाकं हृदि दर्पसर्पगरलोद्गाराः स्थिति तन्वते न्यत्कारं च न शासनस्य कलयाऽप्यालोकितुं शिक्षिताः। तत्तूर्ण समुपैहि सिद्धनृपतेरग्रे हरिष्यामहे तीक्ष्णैर्युक्तिमहौषधव्यतिकरैस्त्वत्तुण्डकण्डूं वयम् ॥ यदि तव वादेच्छा तत् श्रीपत्तने व्रज । तत्रावयोर्वादः । इत एकदा माणिक्यं दृष्ट्वा दिगम्बर आह__ (८०) श्वेताम्बराः कलितकम्बलयष्टयोऽमी गोपालतामविकलां मुनयो वहन्ति । उच्छृङ्खलं विचरतां भुवि निर्गुणत्वात् युष्मादृशामनडहां परिरक्षणाय ॥ ____15 (८१) तथा नग्ननिरुद्धा तरुणीजनस्य यन्मुक्तिरत्नप्रकटं रहस्यम् ।। तत्कि वृथा ककेशतकेकेली तवाभिलाषोऽयमनर्थमूलः॥ इतः स शकुनैर्वार्यमाणोऽपि श्रीपत्तनं प्रति चचाल । पूर्व सम्मुखा क्षुत् जज्ञे, बिडाली दृष्टा उत्तरिता च, कृष्णसर्पः सावडू जगाम । एवं शकुनैर्वार्यमाणोऽपि पत्तने गतः। नृपद्वारे प(ख)डपानीयं चिक्षेप । देव ! मया सह वादः कार्यताम् । अहं सिद्धचक्रवर्तीति विरुदं न सहे । विवेकबृहस्पतिर्जरत्रेति च नरसमुद्रं पत्तनं च-एतानहं 20 न मन्ये । विद्वांस आहूयोक्ताः । देव! न स कोऽप्यस्ति पुरे योऽनेन सह वादं कुरुते । तैस्सर्वैरप्युक्तम्-देव! देवाचार्यान् विना कस्यापि शक्तिर्नास्ति अमुं जेतुम् । तदनु नृपेणाहूय श्रीसङ्घो भणितः-यत्तथा कुरुत यथा श्रीदेवाचार्याः कर्णावत्याः समायान्ति । श्रीसद्धेन विज्ञप्तिका प्रहिता, आप्तपुरुषाश्चानेतुम् । तैः खरूपमर्पितम् । (८२) तत्र-गुणचन्द्रजयांजनतः प्रवादिनक्राकुले भवाम्भोधौ । त्वं वत्स कर्णधारो जिनशासनयानपात्रस्य । (८३) देवाचार्यबलात् युक्तः शासनस्य 'किलाहताम् । प्रभावनासरोजाक्ष्याः पाणिग्रहमहोत्सवः ।। स्वरूपं विलोक्य शुभदिने शुभशकुनानुकूल्यात्पत्तनोपरि चेलुः । (८४) नयन विषयं यातश्चाषः श्रुतं शिखिशब्दितं विषमहरिणश्रेणी हर्षात् प्रदक्षिणमागता। तुहिनकिरणक्षेत्रे भानुर्महोदयमाश्रितः प्रकृतिमृदुलो वायुः पृष्ठानुगश्च व्यजृम्भत ॥ क्रमेण पत्तने प्राप्ताः । नृपेण प्रवेशोत्सवः कारितः। कुमुदचन्द्रेण लश्चां दत्त्वा बारही परावर्तिता । भाण्डागारिककपर्दिनं विना शल्यहस्तं बाहुकनामानं मन्त्रीश्वरं बाहुडदेवं च विना । तदा कुमुदचन्द्रेण नृपस्य मातुर्म 1 पक्षे बृहस्पतिबलात् (-टिप्पणी)। 25 30 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवाचार्यप्रबन्धः । २९ यणलदेव्या अग्रे उक्तम्- अहं जयकेशिनरेश्वरस्य प्रियस्तव भ्रातुः । इतः करणे स्व-स्वमतख्यापनाय पत्रं लेखयितुं गतौ । इतो गांगिलपण्डितेन श्रीदेवसूरीनुद्दिश्य हास्यं कृतम् । (८५) वेषः कोऽपि तुरुष्कसन्ततिभवः कक्षान्तरे लम्बित - इछायामाश्रयते गताशुकपशोर्जीर्णोर्णकापोट्टलः । अन्धानामिव यष्टिका करतले मुण्डं समुचितं युक्तं केवलमास्यमुद्गतमलं यद्वत्रखण्डावृतम् ॥ (८६) दन्तानां मलमण्डली परिचय स्थूलंभविष्णुस्ततिः कृत्वा भैक्षभुजिक्रियामविरतं शौचं किलाचाम्लतः । नीरं साक्षि शरीरशुद्धिविषये येषामहो कौतुकं तेऽपि श्वेतपटाः क्षितीश्वरपुरः काङ्क्षन्ति जल्पोत्सवम् ॥ ततः प्रभुराह - (८७) यादोऽङ्गशोणितकषायितचीवराणां सन्मांसभक्षण विचक्षणदक्षिणानाम् । विद्वन्निकाय जन निन्दनको विदानां पावित्र्यमुत्तममहो द्विजसत्तमानाम् ॥ (८८) एतस्याः कुक्षिकोणे विदधति वसतिं कोटयः स्वर्गधाम्नातल्लाङ्गूललग्नाः सपदि तनुभृतो वैतरण्यास्तरन्ति । गामित्थं स्तौति विप्रः पदि पदि न वयं कारणं तन्न विद्मो गृह्णानामात्मगेहात् तृणमपि निबिडं ताडयन्त्युग्रदण्डैः ॥ इत्युक्त्वा पौषधा (?) नृपेण गांगिलस्य देशपट्टी दत्तः । तदा कुमुदचन्द्रः प्रतिज्ञामवादीत्(८९) इह नृपतिसभायां बाहुरुद्धकृतो मे वदतु वदतु वादी विद्यते यस्य शक्तिः । मयि वदति वितण्डावादविद्याधुरीणे जलधिवलयमध्ये नास्ति कश्चिद्विपश्चित् ॥ (९०) बृहस्पतिस्तिष्ठतु मन्दबुद्धिः पुरन्दरः किं कुरुते वराकः । मयि स्थिते वादिनि वादिसिंहे नैवाक्षरं वेत्ति महेश्वरोऽपि ॥ श्रीदेवाचार्यैः कुमुदं प्रति (९१) न लाभयामो ललनां न भोज्यं सुगन्धिसर्पिः प्लुतमुष्णमद्मः । कार्य विवादेन सखे न तत्र स्वशासनोद्योतकृते च कुर्मः ॥ स्व-स्वमतख्यापनाय पत्रकमले खि । कुमुदेनोक्तम् (९२) केवलिहुओ न भुंजइ चीवरसहियस्स नत्थि निवाणं । इत्थीहुआ न सिज्झइ मयमेयं कुमुदचन्दस्स ॥ देवाचार्येणोक्तम् (९३) केवलिहुओ वि भुंजइ, चीवरसहियस्स अत्थि निवाणं । इत्थहुआ वि सिज्झइ मयमेयं देवसूरीणं ॥ गूर्जरत्राया विवेकबृहस्पतित्वम्, नृपस्य सिद्धचक्रित्वम्, पत्तनस्य नरसमुद्रत्वमसहन् विवदते । सं० १९८२ वर्षे वैशाख पूर्णिमादिने वादहेतोराहूतौ । दिगम्बरः पूर्वं गतः । श्रीदेवसूरिः शुभशकुनैः प्रेर्यमाणः पश्चाद्गतः । क्रमेण सभायां गताः । कुमुदेनाशीर्वादो दत्तः प्रभुभिश्च । तदनु गद्यपञ्चशती उपन्यस्यते, तस्याः प्रत्युत्तरं पञ्चशत्या दीयते । पुनर्गद्यपञ्चशती उपन्यस्यते । एवं तत्र पश्ञ्चविंशतिदिनानि विवादो जज्ञे । कुमुदो वारत्रयं निग्रह For Private Personal Use Only 5 10 15 20 25 30 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे स्थानमायातः। क्रमेण सर्वैर्नृप-राज्ञीप्रमुखैर्मानितम्-कुमुदचन्द्रो हारित-इति कृत्वा देशानिष्काशितः । कुमुदसाशोकवनिकां गतस्य हृदयास्फोटो जातः । राज्ञा तत्सर्वस्वमादाय प्रभूणां प्राभृतीकृतम् । (९४) च्यारि जोड नीसाण हय हिंसइ पंच पंच्यासी, इग्यारह सई सुहड सीस सई दुन्नि च्छिआसी। बलदह सई चिआरि कम्मकर पंचछहुत्तर, अत्थ लक्ख पणवीस दम हह लक्ख बहत्तर । ता चमर छत्त तुघर बिरुद सुखासण वाहण लियौँ । वडगच्छतिलइ पहुदेवसूरि नग्गओं वलि नग्गओं कियओं ॥ श्रीगुरुं प्रति नृपः प्राह-भगवन्निदं भवद्भिरेवार्जितं तत् गृह्णीत । सूरिरह10 (९५) भुञ्जीमहि वयं भैक्षं जीर्णवासो वसीमहि । शयीमहि महीपीठे कुर्वीमहि धनेन किम् ॥ नृपेण महोत्सवपुरस्सरं पौषधागारे सूरयः प्रेषिताः। (९६) श्रीसिद्धपुरे रम्ये सिद्धपो देवसूरिगुरुवचसा । तुर्यद्वारं चैत्यं कारितवान् तुर्यगत्यर्थम् ॥ [*श्रीवादिदेवसरिसदुपदेशवासितचेतसा सिद्धराजजयसिंहदेवेन सं० १८८३ वर्षे पत्तनमध्ये श्रीऋषभप्रासादः कारितः ८४ अङ्गुलऋषभबिम्बयुग् राजविहारनाम्ना ।] ॥ इति देवाचार्यप्रबन्धः॥ 15 १७. आरासणीयनेमिचैत्यप्रबन्धः (P.) ६५६) अथैकदा आरासणपुरात् महं गोगासुतः पासिलो दौर्बल्यात् कूपिकामादाय पत्तनमाययौ । तत्र रायविहारे देवं नत्वा विम्बमपने लग्नः । इतः ठक्कुरछाडापुच्या देवकुलमागतया दृष्टः पृष्टश्च-भ्रातरेवं बिम्बप्रमाणं गृह्णासि, किं नूतनमेवंविधं करिष्यसि । तेनोक्तम्-भगिनि ! यदि कार्यते तदा प्रतिष्ठायामागन्तव्यम् । एवमस्तु । 20 स स्वपुरे गतः। विम्बरचनेऽन्यमुपायमलब्ध्वा, अम्बाविदेवीप्रासादे गत्वा लवितुमारेभे । दशभिरुपवासदेवी प्रत्यक्षीभूयोवाच-वरं वृणु । तेनोक्तम्-देवि! तथा कुरु यथाऽहं नृपविहारसमं प्रासादं कारयामि । देव्या स्थानमुक्तम्-खानिर्दर्शिता । परं षोडशप्रहरैस्ते मनोरथः सेत्स्यन्ति, तदनु न । इतो लब्धवरः सङ्घन सह व्रजन् बुद्ध्या चतुष्पथमध्ये उपविष्टः। इयन्ति दिनानि देवीनिमित्तम् , अतः परं सङ्घोपरि । कथम् । यदि सर्वः कोऽपि स्वतो जनेन स्वसमुदायेन षोडशाहरान् सानिध्यं करोति तदा भुञ्जे नान्यथा । सङ्घन मानितम् । पारणकादनु जनं 25 सम्मील्य खनौ गतः। खननं प्रारब्धम्-प्रहरत्रयं जातं खनताम् । अतस्तस्य गुरवस्तनुगमनिकायां प्रस्थिताः । पासिलेन वन्दिताः। तैरुक्तम्-पूर्णा मनोरथा ? । तेनोक्तम्-देवगुरुप्रसादात् । देवी रुष्टा मम प्रसादो न किन्त्वेतेषाम् । सत्वरं निःसरत । खानिः पतिता । दीनारसहस्र ४५ विमलो निर्गतः । इष्टिकामयः प्रासादः प्रारब्धः। बिम्बं कारितम् । चन्द्रमा सहस्र २ अवशिष्यन्ते । चिन्तितं विम्बमुपवेशयामि । इति ध्यात्वा पत्तनं गतः ठकुर छाडावासे प्रतोल्यां स्थितः। प्रवेशमलभमानो महता वरेण पूत्करोति । ठकुरेण मध्ये मोचितः । नमस्कारे 30 कृते ठक्कुरेणोक्तः कुतः समायातः १ । छाडापुत्री बाई हांसी तस्या मीलनाय । ठकुरेण पुत्री आहूता । वत्से ! तव भ्राता। तेन नमस्कृत्योक्तम्-मां न वेत्सि ?, राजविहारे विम्बं मपन् दृष्टः सोऽहम् । मया विम्ब कारितम् , प्रतिष्ठायामागच्छत । ततः श्रीदेवसूरिभिः समं श्रेष्ठिपुत्री चलिता, पित्रा प्रेषिता । तत्र प्रतिष्ठा जाता ११९३ । सत्र तया शेषं सम्पूर्ण कृतम् । मण्डपस्तया भगिनीत्वेन कारितः । लक्ष ९ द्रव्यलागिः । स च मेघनादः। * एकस्मिन्नन्यादर्श एषा कोष्ठकगता पंक्तिः प्राप्यते । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्त्रिसान्तूप्रबन्धः । (९७) गोगाकस्य सुतेन मन्दिरमिदं श्रीनेमिनाथ प्रभो - स्तु पासिलसञ्ज्ञकेन सुधिया श्रद्धावता' मन्त्रिणा । शिष्यैः श्रीमुनिचन्द्रसूरि सुगुरोर्निर्ग्रन्थचूडामणे र्वादीन्द्रः प्रभुदेवसूरिगुरुभिर्नेमेः प्रतिष्ठा कृता ॥ (९८) रामनन्दश शिमौलिवत्सरे माधवे च दशमीतिथौ सिते । वाक्पतेः सुदिवसे प्रतिष्ठितोऽरासणे पुरवरे शिवाङ्गभूः ॥ ॥ इति आरासणसत्कनेमिचैत्यप्रबन्धः ॥ ३१ १८. फलवद्धितीर्थप्रबन्धः ( P. BR ) ९५७) अथैकदा श्रीदेवाचार्याः शाकंभरीं प्रति विजहुः । अन्तराले मेडतकपुरपाट्यां फलवर्द्धिकाग्रामे मासकल्प स्थिताः । तत्र पारसनामा श्राद्धस्तेन जालिवनमध्ये श्रीपार्श्वतीर्थं प्रादुः कृतम् । तेनैकदा वनं निरीक्ष्यमाणेन 10 जालिवनमध्ये लेष्टुराशिर्दृष्ट: । अम्लानशितपत्रिका पुष्पैः पूजितः । लेष्टवो विरलीकृताः । मध्ये बिम्बं दृष्टम् । तेन श्रीदेवसूरिभक्तेन गुरवो विज्ञापिताः । तैः सूरिभिर्धामदेव-सुमतिप्रभगणी वासान् दत्त्वा प्रहितौ । धामदेवगणिना वासक्षेपः कृतः । पश्चाद्देवगृहे निष्पन्ने श्रीजिनचन्द्रसूरयः स्वशिष्याः वासानर्पयित्वा प्रहिताः । तैश्व ध्वजारोपः कृतः । पश्चात्तत्र प्रासादेऽजमेरीयश्रेष्ठिवर्गो नागपुरीयो जाम्बडवर्गः समायातः । ते गोष्ठिका जाताः । संवत् ११९९* वर्षे फागुणशुदि १० गुरौ विम्बस्थापनम् । संवत् १२०४ वर्षे माहसुदि १३ शुक्रे कलश ध्वजारोपः ।। 15 ॥ इति फलवर्द्धिकातीर्थप्रबन्धः ॥ 5 १९. मन्त्रिसान्तूप्रबन्धः (B. BR.) ९५८) श्रीपत्तने जयसिंघदेवस्य मन्त्री सान्तूनामा सर्वमुद्राधिकृतः श्रीदेवसूरिणां भक्तः । तेन धवलगृहानुकारी आवासः कारितः । गुरवोऽवलोकनायाकारिताः । मत्रिणा अग्रेसरेण भूत्वा दर्शितः । पृष्टम् - प्रभो ! कीडगावासः ? । इतः शिष्यमाणिक्येनोक्तम् - यदि पौषधशाला भवति तदा वर्ण्यते । मत्रिणा क्षमाश्रमणं दत्तम् । एषा 20 पौषधशालैव भवतु । तदनु सा मुख्यपौषधशाला जाता । तत्र पट्टशालायामुभयोः पार्श्वयोरादर्शाः पुरुषप्रमाणा आसन् । श्रावका धर्मध्यानादनु यथा वक्त्राण्यवलोकन्ते । तथा वांका निहाणाभिधानयोर्ग्रामयोर्द्वी प्रासादौ कारितौ । एकस्मात्स्नपनं कृत्वा सुरङ्गया गव्यूतिमितया द्वितीये गम्यते । एकदा मन्त्रिणो राज्ञा सहाऽग्रीतिर्जाता । मत्री रूसणके मालवदेशं प्रति सपरिच्छदोऽचालीत् । राज्ञा ज्ञातमेषो मध्यवेदी । सैन्यं सत्वरमानयिष्यति । छन्ना नरा राज्ञा तेन सह प्रेषिताः । तत्र गतोऽसौ किं कुरुते । मन्त्री उज्जयिन्यां गतो नृपमन्दिरे, परं नृपस्य नमस्कारं न 25 करोति । पार्श्वस्यैरुक्तम्- मन्त्रिन् ! नमस्कारं [ कथं ] न कुरुषे ? | देव ! देवं मत्वा श्रीवीतरागो नमस्कृतः, गुरून् भणित्वा सुसाधवः, नृपस्तु जयसिंघदेवः । अन्यस्य कस्य शिरो न नाम्यते । राज्ञोक्तम् - मत्रिन् ! मुद्रां गृहाण । देवास्माकं स्वामी केनापि कारणेन रुष्टोऽस्ति । कल्येऽप्यस्मानाकारयिष्यति । तदनु राज्ञा गौरवेण स्थापितः । छन्नपुरुषैः पत्तने गत्वा नृपाय निवेदितम् । नृपेण सत्वरमाकारणं प्रहितम् । मन्त्री नृपं मुत्कलाप्य चलितः । मालव- मेवाडसन्धौ आहडग्रामे महं० सान्तूयोग्यं पाश्चात्यप्रहरे मृत्युः । मन्त्रिणा तदैव क्षामणाद्यं कृत्वा 30 पुत्रस्य शिक्षां दत्त्वाऽनशनं गृहीतम् । पुत्रीवयज् तया प्रदत्तम् । तात ! किमवशिष्यते ? पृष्टे, वत्से ! तपोधनादर्शानादन्यन्न किमपि । तया वण्ठस्तपोधनवेषं कारयित्वाऽग्रे नीतः । उक्तम् । तद्दर्शनान्मत्रिणा हृष्टेन नमस्कृतः 1 BR कारापितं । 2 BR बिम्बप्र० । 3 BR लेथूनि विरलीकृतानि । 4 BR सेठिवर्गो । 5 BR जाबड । * P११८८ । For Private Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह तन्मुखान्नमस्कार प्राप दिवं ययौ । स तथैव समुद्रो निवेश्य स्थितश्चलनवेलायामुक्तः-रे वेषं मुश्च, स्वकर्माणि कुरु । तेनोक्तम्-यत्प्रसादान्मत्री सान्तू चरणयोर्निपतितस्तं वेषं न मोक्ष्ये । क्रमेण पत्तने नीतो गुरूणां पार्श्वे दीक्षितः। नृपेण पुत्रस्य महं० देवलस्य महन्मानोऽदायि ॥ इति मत्रीसान्तूप्रबन्धः॥ २०. मत्रिउदयनप्रबन्धः (P.) 5 ६५९) श्रेष्ठीबोहित्थपुत्र अश्वेश्वरः । पुत्रयक्षना[ग]-पुत्रवीरदेव-पुत्रउदयनः । तत्पुत्रो मत्रिगुरुर्बाहडदेवः । श्रीकरणम् । लाटाह्वयदेशकरणमपि तस्य अर्पयति स नरेन्द्रो, येन वशेकरणपश्चकमनुष्यः (१) ॥ मरुस्थल्यां जावालिपुरसमीपे वाघराग्रामे श्रीमालज्ञातीय उदयनो वणिक् । भार्या धवलक्कक ठ० साम्बपुत्री महादेवी। स कूपिकां करोति । अन्यदा घृतकूपं मस्तके कृत्वा धनुरादाय मेघान्धकारयामिनी विभातप्रायां मत्वा रामशेनोपरि चचाल । इत एकस्मिन् क्षेत्रे कलकलं श्रुत्वा, धनुरारोप्य, पृष्टवान् के यूयम् ? । अस्य क्षेत्रधनिकस 10 कमा । उदयनेनोक्तम्-अस्यैव स्युः किं वा अन्यस्यापि । भवन्ति, परं स्थानान्तरिताः। मम क सन्ति । तैरुक्तम्-आशापल्या कर्णदेवोऽपरः शालापतिस्तिहुणसीहः । स ततः श्रुत्वा पश्चाद् व्यावृत्त्य, महिलामुत्थाप्य, सुतचाहड-चाहडान्वितः आशापल्लीं गतः । तत्र चैत्ये सुंडु मुक्त्वा देवं नन्तुं मध्ये गतः। तत्र तिहुणसिंहस्य पत्नी चेटीवृता देवं नन्तुमागता । अपूर्वान् दृष्ट्वा वन्दनां चकार । पृष्टं कस्यातिथयः? उदय०-आदौ देवो दृष्टः, पश्चात्वम् । ततः स्वसाथै स नीतः। सा घरं (गृह) मध्ये गता । द्वारपाल उदयनं न मुञ्चति । प्रतोल्युपरिस्थेन शाला15 पतिनोपरि आनायितः । उदयनेन नमस्कारे कृते, पृष्टम्-कुतःप्राघुणकाः । मरुस्थल्या भवन्तं ध्यात्वा वर्तनायागताः। भव्यं जातम् । भोजनाय सकुटुम्बो [उपवेशितः। भोजनादनु पृष्टम्-मध्ये स्थास्यथ पृथग्वा ? । तेनोक्तम्-पृथग् । स्तोकमपि स्थानमर्प्यताम् । तेन गृहद्वारेऽपवरको दर्शितः। तत्र भूमिशुद्धिं कृत्वा यावद्द्वारं ददाति तावन्निधानं निर्गतम् । स विलसति । तन्नृपस्य सारा जाता । शालापतिराहूतः। याचितं तत् । देव! मदीये [गृहे ] मारुक एक आगतः। तस्य गृहे किञ्चिनिस्सृतम् । तदहं न वेनि । ततः स नरैर्धत्वा नीयमानो निरो20 धार्थ शून्यं हट्ट विवेश । तत्रापि निधानं दृष्टम् । राजकुले गतः। राज्ञा पृष्टम् रे निधानं दर्शय । तेनोक्तम्-देव! बुभुक्षितेन भक्षितम् । ततो गुप्तौ क्षेपितः । स यदा शरीरचिन्तायां याति तदा निधानमेव विलोकयति । अन्यदा नृपेणोक्तम्-रे अर्पयसि ? । तेनोक्तम्-कियन्ति दर्शयामि । राज्ञोक्तम्-एतत्किम् ? देव ! यत्र यत्र यामि तत्र तत्र निधानानि । दर्शय । तेन ५-१० दर्शितानि । तं भाग्यवन्तं ज्ञात्वा स्वमुद्रा दत्ता भूपेन, राणिमा च । ६६०) एकदा मत्रिपनी विनष्टा । वाग्भटेनाचिन्ति-मम पिता दुःखितः । क्वापि कन्यां विलोकयामि । 25 वायडपुरे कोऽपि व्यवहारी तस्य सुता वृद्धाऽस्ति । सा वाग्भटेन वयं तत्र गत्वा याचिता । तेनोक्तम्-कस्सार्थे ? किं तेन ? ममैव देहि । तेन दत्ता । इतो वाग्भटदेवेन राणक उक्तः-तात ! वायडपुरे जीवितस्वामिनं श्रीमुनिसुव्रतमपरं श्रीवीरं नन्तुं चलत । सङ्घ सम्मील्य ततो गतः । तत्र गत्वा, पूजां विधाय, भोजनवारा प्रारब्धा । इतो वाग्भटदेवसङ्केतात् कोऽपि स्थालं न मण्डयति । मत्रिणोक्तम्-स्थालानि किं न मण्ड्यन्ते ? । यदि सङ्घवचः प्रमाणीकुरुत तदा सर्वः कोऽपि भुनक्ति । आदिशत । यत्परिणयनं मन्यध्वम् । मत्रिणोक्तम्-सप्तति वर्षाणि 30जातानि । अतः कोऽवसरः अवसरं विना न शोभते । अतो वाग्भटेनोक्तम्-ज्ञातिर्बलीयसी । उदय०-कः कन्या प्रयच्छति । सर्व निष्पन्नम्, भवतां वाक्यमेव विलोक्यते । ततः परिणीतः। तस्याः सुतो रायविड्डार आम्बडो जातः । उदयनेन खङ्गारो जितः। पश्चान्मेलगपुरे साङ्गणडोडीआकेन सह युद्धं जातम् । घाताः लग्नाः। तत्राभिग्रहद्वयम्-शत्रुञ्जयोद्धारे द्विवेलं भोजनम् , श्रीमुनिसुव्रतप्रासादोद्धारे स्नानम् । अभिग्रहद्वैविध्यं सत्याप्य कालं कृत्वा सुगती प्राप्तः ॥ इति मत्रिउदयनप्रबन्धः॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसाह आभडप्रबन्धः। २१. अथ वसाह आभडप्रबन्धः (B. BR. P.) . ६६१) श्रीअणहिल्लपुरे नागराजश्रेष्ठी कोटीध्वजः। तस्य प्रिया लीलादेवी । अन्यदा श्रेष्ठी आपन्नसत्त्वायां पल्यां विशूचिकातो मृतः । तदनु नृपपुरुषैर्गृहसारमपुत्र इति कृत्वा गृहीतम् । श्रेष्ठिनी धवलक्कके पितृगृहे गता। तत्र तस्या अमारिदोहदो जज्ञे । स पित्रा पूरितः । क्रमेण पुत्रो जातः । तस्याभयकुमार इति नाम दत्तम् । स क्रमेण पञ्चवर्षीयो जातः। पठनाय क्षिप्तः। अध्ययनं करोति । अथैकदा बालकैनिस्तात इति कथितः। स मातरं 5 पप्रच्छ-मातः! को मे तातः। तया स्वपिता दर्शितः। तेनोक्तम्-एष ते, मम व? तया स्वभावे उक्त, तेनोक्तम्-पत्तने यास्यामि, अत्रन स्थास्यामि । इत्याग्रहमादाय स्थितः। मातामहेन सम्प्रेषितः । पत्तने गतः । तत्र स्वगृहे स्थितः । क्रमेण व्यवसायः प्रारब्धः । लाछलदेवी भार्या परिणीता। किमपि निधानं पूर्वजसत्कं लेभे। व्यवसायात् पितृतुल्यो जातः श्रिया । सुतत्रयं जातम् । अथ कर्मदौर्बल्यात् श्रीगन्तुं लग्ना । मन्दं मन्दं निर्द्धनत्वमाययौ । पत्नी पुत्रानादाय पितृगृहं गता। आभडोऽप्येकाकी मणिकारहट्टे घुर्घरकान् घर्षति । यवानां माणकं 10 लभते । तेन वृत्तिः । तिं पीष्य स्वयं पक्त्वाऽश्नाति । एवं दुरवस्थां गमयति । यतः (९९) वार्द्धिमाधवयोस्सौधे प्रीतिप्रेमाङ्कधारिणोः । या न स्थिता किमन्येषां स्थास्यति व्ययकारिणाम् ॥ एकदा कुलगुरूणां हेमाचार्याणां पौषधागारे गतः। जनान् परिग्रहप्रमाणं गृह्णतो वीक्ष्य सोऽपि ययाचे । गुरुभिर्द्रम्मान् पृष्टः । योग्यतां ज्ञात्वा टिप्पने द्रम्मलक्ष ९ कृताः । एवं शेषवस्तूनि । टिप्पनमर्पितम् । तेनो-15 क्तम्-कस्यापि पुण्यवत इदम् । ममैवं योग्यता नहि । गुरुभिरुक्तम्-भविष्यति । शेषं धर्मे देयम् । क्रमेण द्रम्मपञ्चकं ग्रन्थौ कृतम् । एकदा चतुःपथान्तरे एकामजां दीनार ५ जग्राह । गले आभरणं सार्थे क्रीतम् । तस्य पाषाणस्य दलानि वैकटिकात् कारितानि । क्रमेण धनी जातः । कुटुम्ब मिलितम् । तपोधनानां विहरणे घृतघट १ दिन प्रति । तथा सत्राकारस्त्ववारितः । नित्यं प्रासादेषु पूजा । सदैव साधर्मिकाणां वात्सल्यं सत्कारः। वर्ष प्रति सकलदर्शनसङ्घार्चा २ । तथा पुस्तकान्यनेकशः लेखितानि । जीर्णोद्धाराश्च कारिताः । बहूनि विम्बानि 20 कारितानि । एवं सङ्घमुख्यतामासाद्य वर्ष ८४ प्रान्तेऽनशनमादातुकामः पुत्रपञ्चकं खजनानप्याहूय प्रोवाच-हे वत्साः! धर्मवहिकां वाचयत । वाचितायां 'भीमप्रीद्राम ९८ लक्ष ।' इति अङ्कं श्रुत्वा वसाहो विषण्णः । ज्येष्ठसुतेन आसपालेन व्याहृतम्-यूयं तात! मा विषीदत । यदसाभिः सकलोऽर्थो व्ययीकृतः । अद्याप्यादिश्यताम् । भवत्प्रसादेन सर्वमस्ति । वसाहः प्राह-रे वत्साः! जनके मयि गर्भस्थिते विपन्ने सर्वस्वं नृपेणात्तम् । पुनर्जातेन पुनरर्जितं पुनर्गमितम् । महदुःखमनुभूतम् । पुनरर्थे जातेऽहं कृपणो जातः । कोट्यपि न पूरिता । पुत्रैरुक्तम्-तात ! 25 पर कोटीः पूर्णा तदा स्यात् , यदा अष्टोत्तरा भवति । १० लक्षास्तत्कालमानीय सप्तक्षेत्र्यां व्ययिताः । अष्टौ पुनर्धर्मव्यये । एवं पुण्यानि कृत्वा वर्गभाग जातः" । पुत्राणां मध्ये द्वौ माहेश्वरिणौ त्रयः श्रावकाः सञ्जाताः । ॥ इति आभडवसाहप्रवन्धः॥ 1 B गूर्जरत्रामण्डले श्रीपत्तने श्रीमालज्ञातीयो नागराजः। 2 B दिवं ययौ। 3 B पंचवर्षदेशीयः। 4 B अन मातु:शाले। 5 नास्ति । 6 B पाणिग्रहणं क्रमेण जातं लाछलदेवी नाम कृतम् । 7 B पूर्वजक्रमागतं च। 8 P नास्त्येतद्वाक्यम् । + एतदन्तर्गतः पाठः P नास्ति । एतदन्तर्गतपाठस्थाने B आदर्श एतादृशः पाठः- एका अजा विक्रेतुमायाता। तस्याः कण्ठे पाषाणोऽस्ति । स इन्द्रनीलमयो वसाहेनोपलक्ष्य मूल्यं पृष्टम् । पंच दीनारा उक्ताः । तेनार्पिताः। कण्ठाभरणं गृह्णन् वारितः । स अजामादाय गृहे गतः । पाषाणोऽपि वैकटिकाय दर्शितः। अर्द्धमुक्त्वा विदारितः । लक्ष्यमूल्या मणयः कृताः । अर्द्धमद्धं कृत्वा गृहीताः । क्रमेण धनवांस्तथैव जज्ञे। 9 B भीमपुरी। 10 B नृपेणेत्वरं गृहीतम्। 11 B • कृत्वा ८४ वर्षसम्पूर्णेऽनशनं प्राप्य शुभभ्यानाद्विपेदे। स्वर्गमगात् । पु० प्र० स०5 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे २२. मं० सज्जनकारितरैवततीर्थोद्धारप्रबन्धः (P.) ६६२) अथ सिद्धराजे राज्यं शासति श्रीमालज्ञातीयबान्धवाः ३-साजण-आम्बा-धवलाः । इतः श्रीजयसिंहेन सज्जनः सुराष्ट्रायां व्यापारे प्रहितः। श्रीरैवते तीर्थ नन्तुं गतः। प्रासादो जाकुड्यमात्येन शैलमयः प्रारब्धः। अमात्यो मालवावासी दिवं गतः । १३५ वर्षाण्यन्तरे गतानि । ततः सजनेन कर्मस्थायः प्रारेभे । वर्षत्रयो5 द्वाहितं द्रव्यलक्ष २ व्ययीकृत्य प्रासादः कारितः । कियन्ति वर्षाण्यन्तरे गतानि । तत्रत्यान् इभ्यानाकार्य प्रोक्तम्-मया प्रासादः कारितः। पुनर्नृपो द्रम्मान् यदि याचते तदा भवद्भिरङ्गीकार्यः। तैरमन्यत । इतश्च सिद्धेशः सोमनाथयात्रायामागतः। सर्वे व्यापारिणो मिलनाय आगताः । सज्जनो नाययौ । नृपेण तदनागमने कारणं पृष्टम् । तैरुक्तम्-देव! तेन द्रव्यं विनाशितमतः स कथमायाति । ततः सज्जनस्याकारणं गतम् । स आयातः। नृपेणोक्तम्-रे द्रम्माः क्व ? देव! सन्ति । कथं नानीताः । स्वामिन् ! रैवतकं दुर्ग मत्वा तत्र भाण्डागारे 10 स्थापिताः। नृपेणोक्तम्-तत्रागम्यते तदा दर्शयसि ? । देव! दर्शयामि । नृपस्तु तत्र गतः। पृष्टः-कास्ते ? । उपर्यागच्छत । तथा कृतम् । प्रासादे नेमि नत्वा बहिरायातः । पृष्टम्-केनात्र प्रासादः कारितः ? । सज्जनेनोक्तम्श्रीसिद्धेशेन । मम तु शुद्धि[रपि न] कथं जातः । देव ! इदमुद्राहितम् । राज्ञोक्तं न मन्यते । ममादेशं विना कथं कारितः। द्रम्मानानय । आनयामि । कथम् ? । देव! अत्रत्येनेभ्यवर्गेणाङ्गीकृतमस्ति । ....द्रम्मान् देवो गृह्णातु, पुण्यं वा । राज्ञा पुण्यमङ्गीकृतम् , परं मन्नाम्ना प्रासादोऽस्तु । देव ! त्वन्नाम्नैव, मम दासस्य किम् । 15 नृपेण तुष्टेन पुनर्व्यापारो दत्तः । अवलोकनासिखरमारुह्य दिशावलोकनं कृतं सिद्धेशेन । चारणेनोक्तम् (१००) मई नाईउं सिद्धेश तउं चडियओ उजिलसिहरि । जीता च्यारइ देस अलीउं जोअइ कर्णउन ॥ ततः उत्तरितः। (१०१) जाकुड्यमात्य-सज्जनदण्डेशाद्या व्ययीकरन यत्र । नेमिभुवनोद्धृतिमसौ गिरनारगिरीश्वरो जयति ॥ (१०२) नाखानि खानितटतो घटितो न टकर्नासूत्रि सूत्रकलया प्रमितो न मानैः। नाचार्यमन्त्रकलया कलितप्रतिष्ठो यः खेन विश्वकृपया प्रभुराविरासीत् ॥ २३. महं आंबाकारितगिरिनारपाजप्रबन्धः (P.) ६६३) अत्र धवलेन प्रपा कारिता । महं आम्बाकस्य श्रीकुमारदेवेन सुराष्ट्राव्यापारो दत्तः । तेन व्रजता महं 25 बाहडदेवो विज्ञप्तः। तत्र गतोऽहं रैवते पद्यां कारयामि । मत्रिणोक्तम्-कार्या । पश्चात्तेन तत्र पद्या कारिता । व्यये भीमप्री[य]द्रम्मलक्ष ६३ । इतः कुमारेशो यात्रायामागतः । साङ्कलीआपद्यायां चटितः । वलमानो बाहडदेवेन सुखासने समारोप्याध आनीतः। केनेयं पद्या कारिता ?, पृष्टं देवेन । तेनावादि मया । कदा। ततः स्वरूपं प्रोक्तम् । तुष्टः [ सन् ] आम्बाकस्य व्यापारो दत्तः ॥ इति पाजप्रबन्धः॥ (P.) सङ्ग्रहे सोनलवाक्यानि । 80 ६६४) प(ख)ङ्गारे जीर्णदुर्गाधिपती उदयनेन हते तत्प्रिया सोनलदेवी जगाद(१०३) षडहडीयां षंगार धणीविहूणां धूलहर । गया करावणहार जाइसिइं............ ॥ (१०४) पइं गरूआ गिरनार काहउं मनि मत्सर धरिउं । मारितां षंगार एकू सिहर न ढालिउं॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धराजसम्बन्धिवृत्तम् । ३५ (१०५) बीजलिआ बीजी वार सोरठ म आवे प्राहुणउ । अम्मीणउ भंडार लाई तई लूसी लीउ ॥ (१०६) मन तंबोल म मागि कंषि म ऊघाडहं मुहिहिं । देउलवाडइ सागि त षंगारिं सउं गयउं ॥ (१०७) जेसल मोडि म बाह बलि बलि वरूए भाविअइ । नदी जिम नवा प्रवाह नवघणविणु आवई नहीं ॥ (१०८) का हउं करिसि गमार अणहिलवाडइ रूअडई । सिहरतणां गिरनार सूतांहीं सालई हीअइ ॥ 5 (१०९) बलि गरूआ गिरनार दीहू नीझरणे झरइ । बापुडली गूजरात पाणीहइ पहुरउ पडइ ॥ (११०) राणा सधे वाणिया जेसल वड्डुउ सेठि । काहउं वणिजडु मांडीउं अम्मीणा गढहेठि ॥ (१११) गया ति गंगह तीरि हंस जिसी बइसता । अड्डीणइ ढंढारि बगला बइसेवडं करई ॥ (११२) अम्ह एतलइ संतोस जं पहुपाय पेलीआं । इक राणिम अन रोसु बेउ षंगारिहं सउं गयां ॥ (११३) वढी त वढवाण वीसारतां न वीसरई । सोनलकेरा प्राण भोगावहिसिउं भोगव्या ॥ 10 (G.) सङ्ग्रहे सिद्धराजसम्बन्धिवृत्तम् । (६५) श्रीजयसिंहदेवेऽष्टवार्षिके श्रीकर्णो दिवं गतः । अष्टवार्षिक एव स सांतूमत्रिणा गुणश्रेणिं नीतः । कटकं कृत्वा धाराभङ्गप्रतिज्ञां चकार । मत्रिणा तृतीये दिने प्रतिज्ञापूरणाय मतिर्दत्ता । ततः कणिकधारायां भज्यमानायां परमारपंचशती मृता । तदनु विग्रहायालिगेन सह मत्रे विधीयमाने चारणेनैकेनापाठि (११४) हे टीलालेहिं धार न लीजई करण उत्र । जम जेहे प्रउंचेहिं जोइइ जेसलु आवतउ ॥ 15 इति श्रुत्वा बन्दीकृतस्य तस्य लेखः प्रहितः । तेनोक्तम् - पितुराज्ञया समेष्यामि । ततः पित्रा समागत्योक्तम्वत्स ! याहि । तदनु स्वयं निगं विधाय गतः । सैन्ये राजा भेटितः । अत्रान्तरे जसपडहहस्ती मत्तो जातः । राज्ञोक्तम्- जेसल ! धाराभङ्गं विधेहि । तेनोक्तम् - देव ! प्रसीद [ सकल].. . दर्शय । स च गजशिक्षावेदी यशःपटहं स्वीचकार । ततः सहस्राश्चतुश्चत्वारिंशन्मिताः तुरङ्गमाः पृष्टे अग्रतो रम्याः । पत्तयश्चत्वारो लक्षा देहमोक्ष...कुर्वन्ति । प्रतोल्यां गतो हस्ती । प्रहारे दत्ते दन्तभङ्गः समजनि । ततो लत्ताप्रहारेणा - 20 लाभग्ना । यदा जेसलेन लत्तया हत्वा त्याजितः । स तदा त्रिखंड [ डो (१) बभूव ] यशःपटहो जेसल स्वयं भ्रुवौ जातौ । राजा च बन्दीकृतः । पत्तनप्रवेशे जयसिंहदेवेन राज्ञो क्तम्- निजमोक्षं विना सर्व याचस्व । करस्थ - पाणस्य मम भवान् कवचहीन एव गजाधिरूढस्य प्रवेशं देहि । एवमुक्ते [काष्ठ ?] क्षुरिकां समर्प्य प्रवेशो विहितः । ९६६) श्रीसिद्धराजः श्रीसोमेश्वरदेवं नमस्कर्तुं चचाल । मत्री सांतूः श्रीपत्तने मुक्तः । पंचगव्यूतप्रयाणके कृते धरापतौ मयणल्लदेवी अग्रे स्थिता याति । अत्रान्तरे मालवेशयशोवर्म्मणा श्रीपत्तनं वेष्टितम् । तदपि श्रुत्वा 25 श्रीसिद्धराजश्चलित एव, न वलितः । गाढं गढरोधं भणित्वा मत्रिणा दण्डो मानितः । यशोवर्म्मणा श्रीसिद्धराजयात्रापुण्यं याचितंम् । ततस्तत्करे पुण्यं दत्तम् । गतो मालवेशः । ततो यात्रां कृत्वा समेतः सिद्धेशः । मन्त्री भेटनाय गतः । राजा क्रुद्धः । मत्रिणा मुद्राऽर्पिता । अपरो व्यापारी जातः । अस्वास्थ्यं चौरबाहुल्यम् । ततो लोकै राज्ञोऽग्रे पूत्कृतम् । तदवगत्य राजा तत्रागत्य मानितो मत्री । गृहाण मत्रित्वम् । ततो मन्त्रिणोक्तम् - राजन् ! शृणु । केनापि तपस्विना यूथभ्रष्टः कलभो वर्द्धितः । स च महावस्थामुपेतो यावताश्रमोपद्रवं कर्त्तुं लग्नः, तावता 30 तपस्वी नष्टः । तदा For Private Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे (११५) नीवारप्रसवाग्रमुष्टिकवलैयों वर्द्धितः शैशवे पीतं येन सरोजपत्रपुटके स्नानावशिष्टं पयः । तं दानासवमत्तषट्पदकुलव्यालीढ गण्डस्थलं सानन्दं सभयं च पश्यति गजं दूरे स्थितस्तापसः ॥ 5 एवं जातम् । राज्ञोक्तम्- पुण्यं मम कथं दत्तम् । तेनोक्तम्-तवैकस्य पुण्यं दत्तम् । त्वं करं धारय यथा तेषां सर्वेषां पुण्यं तव ददामि । राज्ञोक्तम् - मूढ ! तव भणितेन कथं तेषां पुण्यं दत्तं याति । मत्रिणोक्तम् - आभीर ! यद्येवं वेत्सि तदा तव पुण्यं मम दत्तं तत्र कथं याति । स तु मया वचनेन छलितः । हर्षितेन राज्ञा मत्रित्वं पुनर्दत्तम् ॥ ९६७) तीर्थयात्रायां पंचगव्यूतमात्रेणैकप्रयाणेनाग्रभागस्थितया श्रीमयणल्लदेव्या श्रीजयसिंहदेवपार्श्वात् द्वासप्ततिलक्षप्रमाणो बाहुलोडकरो मोचितः । तदनु श्रीसोमेश्वरलिंगहेतोर्हेमकोटिपूजा विहिता । पूर्णमा 10 गर्वमावहन्ती । ततो देवेनेति कथितम् - यत्कस्याश्चित्कापटिक्याः पिण्याकपुण्यं याचेः । सा तु नापयति पुण्यमिति गर्वपरिहारः ॥ ९६८) अथ मयणल्लदेव्या पापघटे दीयमाने कोऽपि न गृह्णाति । अत्रान्तरे विषण्णां तां कश्विद्विजन्मा जगादेति - मातर् ! यदि भवत्रयस्य पापघटान् ददासि तदा गृह्णामि । हर्षितया तया तस्मै भवत्रयपापघटो दत्तः । अन्ये सर्वेऽपि विस्मिताः पप्रच्छुः - त्वया किं कृतम् ; पापघटस्यैकस्य निर्वाहो नास्ति, त्वया कथं त्रयं गृहीतम् । 15 तेनोक्तम् - अस्या जन्मत्रयेऽपि पापमेव नास्ति, तत्कथं धनं न गृह्यते । सर्वैरपि मानितम् ॥ ६९) अथ कर्णाटदेशे पुलकेशिराजा ग्रीष्मसमये राजपाटिकायां गतः । सच्छायफलितसहकारतरोरधो विशश्राम । अत्रान्तरे वनवह्निरुत्थितः । तेन दह्यमानेन वृक्षेण सह राजापि स्वक्षात्रधर्म्म अंशभीत्या ज्वलितवान् । तस्य सुतो जयकेशिनामा नृपोऽभूत् । तस्य महाविद्वान् क्रीडाशुकोऽस्ति । तं विना राजा न भुङ्क्ते । अन्यदा राज्ञा भोजनावसरे पंजरात्समाकारितः शुकः । तेन मार्जारभयाद्विभेमीत्युक्तम् । राज्ञा सर्वत्र मार्जारो गवेषितः । न 20 दृश्यते । पुनरुक्तम्–समेहीति । तेनोचे -विभेमीति । राज्ञोक्तम् - समेहि यदि त्वां भक्षयति मार्जारः, तदा भवता सह काष्ठभक्षणं करोमि । एवमुक्ते समागतः । स्थालाधः स्थितेन मार्जारेण भक्षितः । राज्ञापि स्वप्रतिज्ञाभङ्गभयात् सह काष्ठभक्षणं कृतम् ॥ ९७०) गयणा-मयणाभ्यामिन्द्रजालविद्या साधिता । ततः पत्तने नूतने सहस्रलिङ्गसरसि गयणो निजविद्यां प्रकाशयितुं मकररूपेण प्रविश्योपद्रवति । बहुभिरुपायैरलब्धे तत्र राज्ञा पटहो वादितः । लघुभ्रात्रा मयणेन 25 धीरां याचयित्वा निष्कासितः । प्रसादितौ तौ राज्ञा ॥ (७१) श्रीसिद्धि - बुद्धियोगिनीभ्यां कदलीपत्रासनोपविष्टाभ्यां श्रीसिद्धराजो जयसिंहः सिद्धराजत्वं पृष्टः । एवं विषि(षण्णेन राज्ञा रात्रौ वीरचर्यायां सज्जनसाकरीयाकः पुत्रेण समं योगिनीप्रतिमल्लत्वं वदन् श्रुतः । प्रातराकार्य सन्मानितः। तेन सप्तदिनान्ते सितां कावलयित्वा (१) क्षुरिकाद्वयं विधाय परमंडलभेटामिषेण राज्ञेऽर्पितम् । राज्ञा फलद्वयं भक्षयित्वा लोहमुष्टिद्वयं योगिनीद्वय [[य भक्षण ] हेतोरर्पितम् । ताभ्यां न भक्षितम् ॥ 30 ९७२) श्रीजयसिंहदेवस्यान्यदा महं गांगाकेन आम्राणि प्रहितानि कस्यापि विप्रस्य शये । ततः स श्रीजयसिंहदेवसदो दृष्ट्वा क्षुभितः । तत आह - राजन् ! महं आंबिल गांगे मोकल्यां छईं । सता उपरी पसावउ । ततो हसितस्सः ॥ ९७३) एकदा श्रीसिद्धराजे दिग्विजयं द्वादशवार्षिकं विधाय समागते प्रजा मिलनाय गता । राज्ञा कुशलं पृष्टम् । ताभिरूचे–राजन् ! कुशलमस्ति । परं चेतसि न निर्वृत्तिः । राज्ञोक्तम्- कथम् । । तैरुक्तम् - राजन् । अस्माकं For Private Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालराज्यप्राप्तिप्रबन्धः । रक्षको भवदीयसुतो विलोक्यते । राज्ञा तदर्थं शाकुनिकः पृष्टः । तेन कुमारपालस्य राज्यं कथितम् । राज्ञा चिंतितम्मम राज्यं अकुलीनस्य भविता । तदेनं मारयिष्यामि । इति विचिन्त्य घातकान् सम्प्रेष्य त्रिभुवनपालो मारितः ॥ (G.) सङ्ग्रहे हेमचन्द्रसूरिसम्बन्धिवृत्तम् । (७४) श्री हेमसूयोऽष्टम्यां चतुर्द्दश्यां श्रीजयसिंहदेव भवनं प्रयाति । पौषधशालायां सदसि स्थूलभद्रचरित्रं नित्यं वाचयन्ति । एकवेलमालिग पुरोहितेन राज्ञोऽग्रे कथितम् - यन् महाराज ! कोऽयमसत्प्रलापः, सर्वरसभोजने 5 पूर्वपरिचितवेश्याभवने च कामनिग्रहः । परं किं क्रियते भवद्वल्लभाः । राज्ञोक्तम् - आचार्या इह समेष्यन्ति तदा वक्तव्यम् । परोक्षे नोच्यते । सूरिभिरागतम् । राज्ञोक्तम् - यूयं किं किं वाचयन्तः स्थ । ततः सूरिभिः संक्षेपतः साद्यन्तमपि श्रीस्थूलभद्रचरितं कथितम् । आलिगेनोक्तम्- महाराज ! " विश्वामित्रपराशर० ॥” गुरुभिरुक्तम्-शृणु “ सिंहो बली० ।" ततः आलिगेनोक्तम् - किं क्रियते अस्माकीनान्येव शास्त्राणि पठित्वा अस्माकमेव सम्मुखाः संजाताः । गुरुभिरुक्तम् - ऐन्द्रं व्याकरणं किं भवदीयम् ? अथाद्यापि श्रीमातृकावर्जं सर्वं नवं करोमि । 10 ततः श्रीजयसिंहदेवाभ्यर्थनया व्याकरणं कृतम् ॥ ९७५) श्री हेमसूरिपार्श्वे कोऽपि वादी कपटेन पृच्छनाय समागतः । पृष्टम् - उर्वशीशकारः कीदृशो भवति । स्वरीणां मनः सन्देहदोलारूढं सम्पन्नम् । परं सचिन्ता अपि पुस्तकविलोकनं कुर्वतः [आयातः कार्यटिकः ।] तत उपरि भूमिस्थेन लेखकं संपाठयता भाण्डागारिकेन कपर्दिनाम्ना दृष्टाः । तेनेति लिखित्वा पत्रिका तथा मुक्ता - यथा पृच्छको न पश्यति । तद्यथा - उरू शेते उर्वशी । तद्विलोक्यैवं स्थिता गुरवः । पुनस्तेन पृष्टम् । गुरुभिः 15 कथितम् । किं पृच्छन्नसि ? । तेनोक्तम् - उर्वशीशकारः । गुरुभिरुक्तम् - तालव्यः । तेनोक्तमहं वादी परं कपटेनागोऽभूत् । नमो विधाय गतः । गुरुभिरुक्तम् - भांडागारिकेन रम्या चाडा विहितास्ति ॥ ९७६) केनापि मिथ्यादृष्टिना व्याख्यानानन्तरं श्रीसूरयः पृष्टाः । यूयं सर्वानपि रसान् वेत्थ । परं मम सन्देहोऽस्ति । विष्ठारसः कीदृशः स्यात् । गुरुभिरुक्तम् - सत्यं पृष्टम् । परं वयं सर्वानपि रसान् ब्रूमहे । परं रसवेदकाः पृथगेव हि । वयमेतद्रसाभिप्रायं कथयिष्यामः । परमनास्वादितत्वात् भवान्न मानयिष्यति । अतो 20 भवान् पूर्वमाखादयतु इति वचनेन पराजितः ॥ ૨૦ १७७) श्रीहेमसूरिमाता पाहिणिनाम्नी अनशने स्वीकृते भूमौ मुक्ता । श्रीसंघेन कोटित्रयधर्म्मव्ययो दत्तः । ततो व्ययो ( हर्षो ) न भवति । केवलं रोदिति । रोदनकारणे पृष्टे मात्रोक्तम् - मम सदृशा घनतरा अपि विपद्यन्ते । नामाऽपि कोऽपि न वेत्ति । परं मम कोटित्रयं धर्म्मव्यये जातं । तदयं मम सुतश्री हेमसूरिः प्रमाणम् । परं यस्य मम लगति स किमपि न वक्ति । इत्युक्ते श्रीगुरुभिर्लक्षत्रयीशास्त्रपुण्यव्ययो दत्तः । ततो निर्वाणमजनि । 25 ततस्त्रिपुरुषद्वारि द्विजैर्विमानोपद्रवो विहितः । ततो रुषितैर्गुरुभिरुक्तम् - " आपणपरं प्रभु थाइयइ० ॥" इति विचिन्त्य श्रीकुमारपुरो विच्छाया गताः । ९७८) एकदा हे माचार्याः छत्रशिलायां निविष्टास्तेजो ददृशुः । विलोकयतां समीपे समागतं तत् । मध्यग'तपुरुषमेटः । कृष्णचित्रकार्पणं लोभवृद्धिहेतुरिति निस्पृहैर्निषिद्धः ॥ २४. कुमारपालराज्यप्राप्तिप्रबन्धः (P.) (११६) आचार्या बहवोऽपि सन्ति भुवने भिक्षोपभोगक्षमा नित्यं पामरदृष्टिताडनविधावत्युग्रजाग्रत्कराः । चौलुक्यक्षितिपाल भालदृषदा स्तुत्यः स एकः पुनर्नित्योत्तेजितपादपङ्कजनखः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः ॥ 30 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे - ६७९) तिहुअणपालपुत्रः कुमारपालः । तस्य द्वे भगिन्यौ-एका प्रेमलदेवी सपादलक्षाधिपतिना आनाकेन नृपेण परिणीता; द्वितीया नामलदेवी राज्ञो महासाधनिकेन प्रतापमल्लेन परिणीता । ६८०) अथान्यदा सिद्धेशो निरपत्यश्चिन्तयति(११७) निर्नामताम्बुधौ मन्जत्राज्यभूवलयोद्धृतौ । पुत्राः क्रीडावराहन्तः सम्पद्यन्ते महात्मनाम् ॥ (११८) घटिकाऽप्येकया घव्या कुम्भीपयसि मजति । गोत्रं पुनरपुत्रस्य क्षणानि मताम्भसि ॥ इति विचिन्त्य देवपत्तने श्रीसोमेश्वरयात्रायै चचाल । परं विहङ्गिकां स्कन्धे निधाय तत्र गत्वा सोमेश्वर आराधितः । स प्रत्यक्षीभूय आह-कष्टं कथं कृतं यत्स्कन्धे विहङ्गिकां विधायेहागतः । तेनोक्तम्-सुतं देहि । 10 किं तेन ? । राज्यार्थम् । राज्यधरस्ते कुमारपालो भविष्यति-इत्युक्तं सोमेश्वरेण । नृपो निवृत्यायातस्त्वेवमचिन्तयत्-चेदमुं मारयामि तदा सोमेश्वरः पुत्रं यच्छति । अतस्तं मारयितुमारेभे । सोऽपि विंशतिवर्षदेशीयः पुराच्छन्नो निःससार । सप्तवारं भ्रमन् केदारयात्रामकरोत् । अन्तरान्तरा प्रच्छन्नमभ्येति तपस्वी सन् । राज्ञा मार्यमाणो नष्टः। सज्जनकुलालेन कोष्टीमध्ये क्षेपितः । तस्य चित्रकूटं दत्तम् । पुनरप्येकदा अनादिराउलमठे प्रविष्टः । कदाचिद्धेमसूरिगुरुपौषधागारे प्रविष्टः । तत्र तैरुक्तम्-संवत् ११९९ मागसिरवदि ४ रवौ तव राज्यम् । परं 15 तव प्रत्यासन्नं कष्टम् । तदा पौषधागारे आगम्यम् । इतश्चानादिराउलतपतिसमशत्या सार्द्ध जेमनाय गतो नृपवे श्मनि । राज्ञा तपखिनां पार्श्वे खड्गधराः [स्थापिताः ] सन्ति । यस्य तपखिनः पादौ प्रक्षालयन् विमुच्य उपरि यामि स मारणीयः। तथा कृते तेषां जनानां तद्भाग्यवशाद्विस्मृतम् । भोजनावसरे एकं हस्तमुदरे न्यस्यापरं मुखे वान्तिमिषेण नष्टः। श्रीहेमसू० पौषधागारे गतः। दिन ३ उपवरके तालकं दत्त्वा स्थापितः। ततो भाण्डा गारिककपर्दिनो दत्तः। तेन स्वगृहे छन्नं स्थापयित्वा पत्रचोलकमध्ये क्षिप्त्वा २० योजनप्रान्ते मोचितः । कान्त्यां 20 गतः। तत्र सरसि तस्करस्य शिरः केनापि निःकृत्य क्षिप्तम् । तदनु तत्प्रातः प्रातरिदं ब्रूते-एकेन बुडति । नृपेणामात्याः पृष्टास्तैः पण्डिताः । तैर्मास एको याचितः । मुख्यपण्डितः स्वगृहसूत्रं कृत्वा निर्ययौ । अटवीं भ्रमन् एकस्मिन् वृक्षकोटरे रात्रौ स्थितः । तत्र भूताः सन्ति । लघुभिरुक्तम्-तातामाकं क्षुधा । तातेनोक्तम्-दिनत्रयानन्तरं यास्यामि । कथम् । प्रत्यासन्नपुरे नृपेण पण्डिताः शिरसो वाक्यं पृष्टाः। ते न जानन्ति । नरेन्द्रस्तान् सकुटुम्बान् व्यापादयिष्यति । तैः पृष्टम्-तात! किं कारणम् ? । निर्बन्धे कृते उक्तम्-लोभेन बुडति । तत्पण्डितेन 25 श्रुतम् । गृहमायातः। मासप्रान्ते नृपेणाहूतः। तेन सरस्तीरे गत्वा उक्तम्-यदि लोभेन बुडति तदा पुनर्न वाच्यम् । शिरस्तथैव स्थितम् । नृपेण प्रासादः कारितः। अतो मध्ये शिरः पूज्यते । ततः कुण्डगेश्वरप्रासादे श्रीसिद्धसेनलिखितां गाथां ददर्श-॥ "पुण्णे वाससहस्से०।" एवं तस्य देशान्तरे ३० वर्षाणि जातानि । कदाचिदुञ्जयिन्यां चर्मकारहट्टे सिद्धेशो विनष्टः श्रुतः। ततः कृष्णमुखो जातः । तेनोक्तम्-किं कृष्णास्था यूयम् ? भवतो नृपः किं सगीनः १ । उत्तरः कृतः-नृपमृतौ को न दूयते । ततः पत्तनमागतः । तत्र भगिनीपतिः प्रता30 पमल्लः । तेन जागरणिरेका गृहमानीता। तया पणबन्धः कृतः। अन्याः सर्वाः पितृगृहे प्रेषय । तेन तथाकृते, कुमरस्य स्वसा नामलदेवी पितृगृहमदृष्ट्वा समयज्ञा तस्याश्चरणयोः पपात । तयोक्तम्-किमिदम् १ । देवि! त्वं [म]म पितृगृहम् , तव दासीसमा स्थास्यामि । तया कथितम्-स्थीयताम् । इतः कुमरिको भगिनीं एत्य प्राहअहं क्षुधा म्रिये, मम दशां पश्य । खस्रा उक्तम्-मम भ्राता भवान् । तया वेश्योक्ता-मम भ्रातुर्दालिमुष्टेरादेशो दीयताम् । तथाकृते स पाणउठे (?) नित्यं दालिमुष्टिं गृह्णाति । इतो नृपे मृते यो यो राज्ये स्थाप्यते स स Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राणकोंबडप्रबन्धः। ३९ प्रधानरपाक्रियते । एवं सिद्धेशस्य पादुके राज्यं कारयतः। एकदा प्रतापमल्लो रात्रौ वैकालिकं कर्तुमुपविष्टः। सा वेश्या परिवेषयति । नामलदेवी दीपकरा पराखी (?) वर्तते । तां दृष्ट्वा प्रतापमल्ल उवाच-रे! तव भ्राता क्काप्यस्ति । तया वेश्या दृष्टा । उक्तम्-पाणउठे प्रतिदिनं दालिमुष्टिं गृह्णाति । तत्र पृष्टस्तैरुक्तम्-यदद्य नायातः। तेन गवेषयितुं नराः प्रहिताः। ते अपादि शोधयितुं नराः प्रवृत्ताः। इतः प्रपायां कुमरिको बोसरिकद्विजेन वार्ता कुर्वन् श्रुतः-रे बोसरिक ! अद्य धूताक्षिप्तेन दालिरपि नानीता। ततोऽसिन् सम्मुख हट्टे गत्वा दीपच्छायायां करं 5 प्रक्षिप्य चणकमुष्टिं समानय । तेनोक्तम्-अथिलोऽसि । तव प्रातः पितृराज्यं भविष्यति, मम त्वारक्षकैर्बाहुश्छिद्यते । इति श्रुत्वा नृपपुरुषैरभाणि स कः । कुमरिकेनोक्तम्-को विलोक्यते ? । कुमरिकः । केन हेतुना ?। प्रतापंमल्ल आकारयति, चलत । इतो बोसरिकेन ज्ञातम्-एष मारणाय नीयते । स जीवग्राहं गतः। कुमारोऽपि स्वसृपतिं भणित्वा नमश्चकार । तेनोक्तम्-यदि राज्यं दमि तदा मे किम् ? । यद्भणसि तत् । तर्हि यावजीवं साधनम् । वर्ष प्रति लक्षत्रयं द्रम्माणाम् । प्रातर्नुपकुले आगम्यम् । क्षुधाः स्थितः । बोसरिं प्रपायां न पश्यति । 10 अचिन्ति-राज्यं सन्देहे, बोसरिरपि गतः । इतः प्रातर्दन्तधावनं कृत्वा नगरान्तः प्रविशति । तावत्खड्गकरवैज्ञानिकं ददर्श । तेन खड्गो दत्तो वन्दितः । चिन्तितं मम कार्य जातमेव । शकुनं भव्यम् । तेन किमपि न याचितम् । अग्रे मोचिकेनोपानही दत्ते । दोसिकेन वस्त्राणि । मालाकारेण पुष्पाणि । ताम्बूलिकेन पत्राणि । ततो राजकुले गतः। प्रतापमल्लेन प्रधाना उक्ताः-कुमारः किं न स्थाप्यते ?, सोऽपि धनिकोऽस्ति । तैरुक्तम्-स्थापयत । असिबलेन तदा राज्यं जातम् । सं० ११९९ । ततोऽप्यनेकानि कष्टानि अनुभूतानि । एवं कद[र्थ] नेन वर्षत्रयं 15 गतम् । पश्चाद्राज्यं सले जातम् ॥ ॥ इति कुमारपालराज्यप्राप्तिप्रबन्धः ॥ २५. राणक अंबडप्रबन्धः (P.) ६८१) अन्यदा कुङ्कणे जालपतनं श्रुत्वा महिरावणाधिपति मल्लिकार्जुनं प्रति दूतं प्राहिणोत्-तथा विधेयं यथा जालं न पतति तव देशे । तेन च वलमानं विज्ञापितम् यदावयोरेष पणः। कुङ्कणाधिपो गूर्जरेशस्य वगि(१)कायां पत्राणि पूरयति, तत्करोमि अन्यदधिकं न जाने । अत्र जना मत्स्यमांसरताः प्रायश्चान्नदौस्थ्यात् । श्रीकुमार-20 पालेन कथापितम्-यदन्नं तथा प्रेषयिष्ये यथा पत्त(१)नार्थो भवति । तेनोक्तम्-सर्वथा नैतत् । इतः श्रीकुमारपाल: क्रुद्धः सन् पाह-राजा (ज्ये) कोऽपि बीटकं मल्लिकार्जुनोपरि ग्रहीष्यति । इतः श्रीबाहडदेवभ्रात्रा अम्बडेन बीटकं गृहीतम् । प्रौढकटकेन चलितम् । तेन मार्गे घाटी रुद्धा । तत्र कटकं हताहतं जातम् । अम्बडो निवृत्तः । कृष्णशृङ्गारः कृष्णाश्वः कृष्णगुप्तोदरः पत्तनवाह्ये स्थितः । नृपं नन्तुं न याति । नृपेणोपरिस्थितेन गुप्तोदरं दृष्टं पृष्टं च-रे किमेतत् । तैर्निवेदितम्-स्वामिन् ! अम्बडोत्तारकोऽसौ । इतः सूर्यास्तेऽम्बडो द्वारिकया प्रविश्य नृपं 25 पाश्चात्येन [न]त्वा पृष्टौ स्थितः । अग्रे एहीति नृपोक्ते, देव! मया स्वस्वामिनः कालिमानीता । अतो रात्रौ समेतः। यधुज्वलो भवामि, तदा दिने समेष्यामि । इतो नृपो बीटकमादाय उक्तवान्-गृह्णीत । कोऽपि न गृह्णाति तदा भट्टेनोक्तम्-यदा रासभः प्रचण्डस्तदा तुरगेन समं कथमुपमीयेत । तथा वणिक् नृपप्रसादेऽपि क्षत्रियपौरुषान्वितः स्यात् । इत्युक्तेऽम्बडेनागत्य बीटकं गृहीतम् । सभ्यैरुक्तम्-अग्रेऽपि कटकं हताहतं कृतम् । शेषमपि तथा करिष्यति । ततोऽम्बडो समीपमेत्य अश्ववारपञ्चशतीं याचितवान् । स तां गृहीत्वोपरि पथेन हेरकं 30 कृत्वा मल्लिकार्जुनं बेडायां स्थितमश्वान् वाहयन्तं प्राह-भो! शखं कुरु । अम्बडस्तमङ्गाङ्गेन युध्वा शिरः पातयत् । इतश्चारणेनोक्तम्(११९) अंबड] हुंतु वाणीउ मल्लिकार्जुन हूंत राउ । पाडी माथउं वाढीउं उअडिहिं देविणु पाउ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्गहे शिरश्छित्वा वाहीआलीकिसोरसप्तशती, शेषतुरगाश्वभाण्डागारम् , कोष्ठागारम् , सेडूयकं दन्तिनम् , नव धडी हिरण्यस्य, चतुरस्रं कलशम् , मूटक ९ मौक्तिकानाम् , माणिकउ पछेडउ, शृङ्गारकोडि साडी, सहस्रकिरणताडङ्क २, पापक्षयो हारः, संयोगसिद्धिः शिप्रा-एवंविधं सर्वमादाय अम्बडः पत्तनं गतः । नृपः सम्मुखमाययौ । मल्लिकार्जुनशिरसा नृपपादावपूजयत् । नृपस्तुष्टः, अम्बडस्य लाडदेशमुद्रां ददौ । हस्ती दत्तः, कलशस्य(श्च) 5 मल्लिकार्जुनजयसूचकः । स्वगुप्तोदरादयः । इतो हस्तिनमादायाम्बडः खगृहं गतः । वाग्भटदेवो नमस्कृतः । वत्स ! देवं नमस्कुरु । तथा कृते सति पुनरप्युक्तं बाहडदेवेन मत्रिणा-इयन्ति दिनानि राजपुत्रस्त्वमभूः। अधुना व्यापारी जातः । अतः श्रीहेमसूरीन् कुलगुरून्नमस्कुरु । पौषधागारे गतः। तैस्तु धर्मलाभो न दत्तः। आशीर्वादोऽस्तु । गृहे गत्वा प्रोक्तम्-अहं पौषधागारे गतः। तत्र गुरूणां धर्मलाभस्यापि सन्देहः । मत्रिणा वाग्भटदेवेन गुरव उक्ताः-यद्भवद्भिर्धर्मलाभो न दत्तः । गुरुभिरुक्तम्-यदि अस्माभिर्नोक्तिस्तर्हि किं भृगुकच्छेन गतः। प्रासादं 10 कथं श्रीमुनिसुव्रतस्वामिन उद्धरिष्यति । अनेकानन्यायान् करिष्यति । मत्रिणा वाग्भटदेवेनाम्बडस्याग्रे उक्तम् । तेनोक्तम्-मम गुरव उद्धृतेः । प्रासादे हृष्टाः । द्विवेलमुद्धृते भोक्ष्ये, परं भूज (१) विना युष्माभिः किमपि न वक्तव्यम् । ततश्चलित्वा भृगुपुरे गतः । प्रवेशे जाते मञ्चमुपविष्टः। इतो देवीपूजिका योगिनीभिरन्विता समेत्यानभ्युत्थिता समीपे समीपे समेत्य विवेश । अम्बडेन कूर्पराहता मञ्चकाद्धहिः पपात । मृता । कर्मस्थायः प्रारब्धः। वर्षेण सम्पूर्णः। शिलाकोटिघटितः प्रासादो जातः, राणकोदयनस्य मनोरथश्च । अम्बडेन श्रीपत्तने एका विज्ञप्तिः 15 श्रीकुमारपालदेवस्य १, एका गुरूणां २, एका वाग्भटदेवस्य, ३ एका श्रीसङ्घस्य एवं ४ प्रहिताः । वाग्भटेन श्रीगुरूणां पुरो विज्ञप्तिमुक्ता । इदं किम् ? । एषा अम्बडस्य विज्ञप्तिः । वर्षमेकं गतस्यासीत् । अद्य का विज्ञप्तिः १ । विलोकयत । प्रतिष्ठोपर्याकारणमागतम् । मत्रिन्! एतत् सत्यम् । अहं किं जाने, विज्ञप्तिः कथयति । तर्हि चल्यताम् । नृपो गुरुभिः सह प्राचालीत् । इतोऽर्द्धमार्गे जनः सम्मुखमाययौ । यदम्बडो न शक्नोति । गुरवः सङ्घ विमुच्य भृगुपुरे गताः । इतः प्रक्षीणधातुरम्बडो दृष्टः । देवीप्रासादं गत्वा ध्यानेन निविष्टाः। 20 इतो मुख्यपूजिकोदरे उदरवाढिर्जाता । सा कोकूयते । परिचारिका एत्य प्रभुमूचुः । अस्माकं स्वामिनी मुच्यताम् । तर्हि अम्बडोऽपि मुच्यताम् । स सकलो जग्धः पीतश्च । तर्खेषाऽपि म्रियताम् । जीवन्ती किं करोति । एक एव सार्थोऽस्तु । सा अत्यर्थं पीडिता प्रभूनेत्यावदत्-प्रसादं कृत्वा मां मुश्चत । अम्बडमपि मुश्च । तरु(?)वेष्टितं कृत्वा घृतकुम्भ्यां प्रक्षिप्ते यदिति वक्ति, म मारिति मां कर्षति । ततः कृष्ट्वा स्त्रानं कार्यः । यदि जल्पिष्यते स तदा त्वमपि सज्जा भविष्यसि । दिनत्रयान्ते अम्बडः सजो जातः । साऽपि च । इतः श्रीसङ्घान्वितो नृपः प्राप्तः । 25 गुरुभिः साकमम्बडः सम्मुखो ययौ । अम्बडेन दत्तकरा गुरवः प्रदक्षिणां यच्छन्ति । प्रासादं तुङ्गमालोक्य गुरुभिरुक्तम्-मया देवं गुरुं विना कोऽपि न स्तुतः। तव कीर्तनेन किञ्चिद्वक्ष्यामः । आदिशत । (१२०) किं कृतेन न यत्र त्वं यत्र त्वं किमसौ कलिः। कलौ चेद्भवतो जन्म कलिरस्तु कृतेन किम् ॥ प्रतिष्ठा जाता । आरात्रिकोत्तारणाय नृपो विज्ञप्तः । नृपेणोक्तम्-त्वमेवोत्तारय । वाग्भटेनाप्यनुमतः । 80 कर्तुमुद्यतः। नृपेण शृङ्खलं कनकमयं खकण्ठादुत्तार्याम्बडगले क्षिप्तम् । तेन च याचकानां पठतां गृहसारं दत्तम् । द्वारभट्टस्य तसिन् शृङ्खले दत्ते नृपेणोक्तमवतारय । तथा कृतेऽम्बडेन पृष्टम्-देव! किमुत्सुका जाताः । मया ज्ञातं जीवमपि दास्यसि । मम त्वया बहुकार्यमस्ति । सङ्घार्चादिषु जातेषु पुनः सङ्घः पत्तनं प्राप्तः । तत्र चैत्यबलानके ९ धडी सुवर्णस्य चतुरस्रं कलशं ददौ । ६८२) अथैकदा नृपः सेवायातं मल्लिकार्जुनसुतं प्राह-पापक्षयादिरत्नपञ्चकस्यौत्पत्यं वद । देव ! मल्लिकार्जु35 नादेकविंशः पूर्वजो धवलार्जुनस्तस्य पञ्चदश प्रिया आसन् । एका नरेन्द्रसुता खङ्गेन परिणीता । आनीय Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारपालकारितामारिप्रबन्धः । ४१ चन्दीवास्थापि । नृपस्तां वेत्तीव न । शेषा मान्यतमाः । सा तु दैवमेवोपालभते स्म । अन्यदा पुरे काचित् परिव्राजिका आगता । सा चेटीभिः राज्ञीसकाशमानीता । तयोक्तम्- किं वेत्सि ? । साऽऽह (१२१) दंसेमि तं पि ससिणं वसुहावन्नं थंभे वि तस्स वि रविस्स रहं नहद्धे । आमि सवसुरसिद्धगणं गणाओ तं नत्थि भूमिवलये महू जं न सिद्धं ॥ प्रसीद, मम पतिं वशीकुरु । तया करे सर्षपा जपित्वा ऽर्पिताः । यथा तथा नृपस्य [ भोजन ] मध्ये देयाः । 5 तया शाकं कृत्वा शिप्रां भृत्वा चेट्युक्ता - भोजनावसरोऽस्ति देवस्य परिवेषय | सा शृङ्गारं कर्तुं गता । देव्या चिन्तितम् - न ज्ञायते कदाचिदेषा वैरिणा प्रहिता स्यात्तदा मे पतिमारिकायाः का गतिः स्यादिति मत्वा गवाक्षस्याधः समुद्रस्तत्र शिप्रां ढालयामास । चेटी उक्ता - शाकं सम्प्रति तिष्ठतु । कथम् । तत् करात्पपात । इतस्तेन वशीकृतः समुद्रो नृपरूपं कृत्वा रात्रावायातः । स तु देव्या नृपवदुपचरितो नित्यमेति । इतो देवी सगर्भाभूत् । चेटीं प्राहिणोत् - देव ! सीमन्तोन्नयनाय मुहूर्त्तमस्मत्स्वामिन्या गणापयत । नृप आह - का त्वम् १, 10 का तव स्वामिनी ? | अहं तस्या नामापि न जाने । कस्य सुता.. .. णीता । तया यदकृत्यं कृतं तन्मम किमुच्यते । साऽऽगत्य देवीं प्राह - इत्थं निवेदयति । तयोक्तं समये ज्ञास्यते । इतः पुत्रो जातः । सूतकशुद्धेरनन्तरं बा.........य प्रतोलीमेत्य उपविष्टा । मम शुद्धिं यच्छत । जातायां बालः स्तनं गृहीष्यति । नृपेणोक्तम्- मम साराऽपि न । अधुना खङ्गेन परिणीता श्रुता, परं दृष्ट्वापि न । पुत्रस्य का... ... प्रधानान् प्रैषीत् । एन्मम दूषणं तत्र न मया सोढव्यम् । सा न मन्यते । पट्टराज्ञी प्रहिता । स्त्री स्त्रीभणितेन मन्यते । सा एत्यावादीत् किमिदमार- 15 ब्धम् १ । तयोक्तम्-तव कुले इदं .. .. मम तु न । नृपः स्वयमेत्य तां प्राह - तव ममाधुना दर्शनम्, पुत्रस्य तु का कथा ? । उत्थीयताम् । देव ! सर्वथापि वार्त्ता दिव्यं विना न वाच्या । प्रधानैर्दिव्यं दत्तम् । राज्ञी सुत... ..बहिर्ययौ । पौरसहितो नृपश्च । तत्र लोहमयी नौस्तस्यां समधिरोप्य, दिव्यकर्त्ता क्षिप्यते । शुद्धे तरत्यशुद्धे डति । सा राज्ञीति कामा श्रावणामकरि.. .. त्यवद्राव इत्युक्त्वा नावमधिरुरोह । सपुत्रापि बुडिता । लोकः कोलाहलं यावत्करोति तावन्नावमधिरूढा देवी सशृङ्गारा शृङ्गारकोटिशाटीपरिधाना, सहस्रकिरणताड - 20 काभ्यामलङ्कृतकपोला, पापक्षयेण हारेण विराजितवक्षःस्थला, माणिक्यपटेनाच्छादितबाला, संयोगसिद्धिशिप्राकरा सर्वैरपि दृष्टा शुद्धताला पपात । नृपेण नगरमध्ये प्रवेशिता । नृपो निशि तद्वेश्मनि इयाय । तयोपचरितः पृष्टवान्- अहं सर्वथा न जाने त्वं तु सत्येव या समुद्रेण शोधिता । इतः समुद्रदेवेन, प्रत्यक्षीभूयादितोऽपि स्वरूपमुक्तम् – नास्यापराधः । नृपेण सुतस्य बालधवल इति अभिधा चक्रे । सा राज्ञी पट्टराज्ञी कृता । एतानि तानि रत्नानि तस्यैव समर्पितानि ॥ इति राणकाम्बडप्रबन्धः ॥ २६. कुमारपालकारितामारिप्रबन्धः (B.P.) ९८३) अथैकदा श्रीकुमारपालदेवेन अमारौ प्रारब्धायामाश्विनशुदिपक्ष आयातः । कण्टेश्वरीप्रभृतीनामबोटिकैर्नृपो विज्ञप्तः - देव! सप्तम्यां पशूनां सप्त शतानि सप्त महिषाः, अष्टम्यामष्टौ शतानि अष्टौ महिषाः, नवम्यां नव शतानि छागानां नव महिषाश्च देव्यै नृपेण देयाः । पूर्वराज्ञामयं क्रमः । नृपः प्रभ्रूणां पार्श्वे गतः । कथिता वार्त्ता । कर्णे उक्तं नृपः श्रुत्वोत्थितः । भाषितास्ते देयं दास्यामः । वहिकाप्रमाणेन पशवो देवीसदने निक्षिप्ताः | 30 तद्वारे तालकं दत्वा नृपः स्वसौधं गतः । प्रातरायातो नृपः । उद्घाटितानि द्वाराणि । मध्ये दृष्टाः पशवः रोमन्थायमानाः । राज्ञा अबोटिका' अभिहिताः - यद्यमूभ्यो देवीभ्यो रोचिष्यन्त तदा ग्रसिष्यन्त । परं न ग्रस्ताः । 1 B प्रभृतिपूजकैः । 2 B पूजकाः । 3 B नास्ति । + एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता P आदर्शे । पु० प्र० स० 6 25 For Private Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे तसादमूभ्यो मांसं नेष्टं किन्तु भवतामेवेष्टम् । तस्मादहं जीववधं न करिष्ये । ते विलक्षाः स्थिताः । छागमूल्यसमेन धनेन नैवेद्यानि कारितानि । अथाश्विनशुक्लदशम्यां कृतोपवासः मापो निशि चन्द्रशालायां स्थितः । ध्यानेन पञ्चपरमेष्ठिपदं जपन्नस्ति । बहिःस्थाः सन्ति । गता वही निशा । एका दिव्या स्त्री प्रत्यक्षीभूय जगादराजन्नहं तव कुलदेवी कण्टेश्वरी । त्वयाऽस्माकं देयं च न दत्तम् । नृपेणोक्तम्-दयालुरहम् , अतःपरं पिपीलिका5 मपि न हन्मि, का कथा पशूनाम् । कण्टेश्वरी इति श्रुत्वा क्रुद्धा नृपं शिरसि त्रिशूलेन हत्वा गता । नृपस्तत्क्षणात्कुष्ठी जातः । विखिना भृत्येन उदयनतनूजं वाग्भटमाकार्य पप्रच्छ-मत्रिन् ! देवी पशून् याचते, दीयन्ते न वा । मत्रिणा दाक्षिण्यादुक्तम्-देव ! दीयते । मत्रिन् ! वणिगसि, यदेवं ब्रूषे तर्हि ममातः परं जीवितव्येनालम् । राज्यं प्राप्तम् , धर्मो लब्धः संसारतारकः, शत्रवो हताः। त्वरितं काष्ठसञ्जतां कुरु । येनेदृशं मां दृष्ट्वा जनो धर्मस्योड्डाहं विधास्यति । गुरुन् गत्वा मुत्कलापय । राज्ञा विसृष्टो गतो गुरूणां पार्थे । स्वरूपं निवेदितम् । 10गुरुभिर्नीरमानाय्य कलापनीय( B कालापानीय )मर्पितम् । तेन पूर्व देहाभ्यङ्गः कृतः पश्चात्पीतं च । नृपस्त क्षणं सुवर्णवर्णो जातो वपुषि । प्रातर्गुरूणां नन्तुं गतः । ततो गुरुभिर्देशना चक्रे । पश्चादमारिविषये विशेषोद्यमः कृतः॥ एवममारिविषये कुमारपालप्रबन्धः॥ २७. कुमारपालदेवतीर्थयात्राप्रबन्धः (B.) ८४) एकदा गुरुभिरुपदेशो दत्तः_15 (१२२) शूराः सन्ति सहस्रशः प्रतिपदं विद्याविदोऽनेकशः ___ सन्ति श्रीपतयो निरस्तधनदास्तेऽपि क्षिती भूरिशः। [ज्ञात्वाकर्ण्य निरीक्ष्य चान्यमनुजं दुःखार्दितं यन्मन स्ताद्रूप्यं प्रतिपद्यते सपदि ते सत्पूरुषाः पञ्चषाः ॥ एकदा प्रभुभिर्भरतस्य चक्रिणः साधर्मिकवात्सल्यकथा कथिता । नृपस्तां श्रुत्वा प्रतिग्राम प्रतिपुरं साध20 मिकवात्सल्यमारेभे । तदृष्ट्वा कविः श्रीपालपुत्रः सिद्धपालोऽपाठीत् (१२३) क्षित्वा वारिनिधिस्तले मणिगणं रत्नोत्करं रोहणो _रेवावृत्त्यसुवर्णमात्मनि दृढं बद्धा सुवर्णाचलः। क्ष्मामध्ये च धनं निधाय धनदो विभ्यन् परेभ्यः स्थितः किं स्यात्तैः कृपणैः समोऽयमखिलार्थिभ्यः स्वमर्थ ददन् ॥ . द्रम्मलक्ष १ दानम् । पं० श्रीधरेणोक्तम्- . (१२४) पूर्व वीरजिनेश्वरे भगवति प्रख्याति धर्म स्वयं प्रज्ञावत्यभयेऽपि मन्त्रिणि न यां कर्तुं क्षमः श्रेणिकः। अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षा व्यधात् यस्यासाद्य वचस्सुधांशुपरमः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः ॥ 30 अत्रापि लक्षदानम् । अन्येयुः कथाप्रसङ्गे प्रभवः प्राहुः-पूर्वं भरतो राजा श्रीमालपुरे श्रीशत्रुञ्जये सोपारकेऽष्टापदे च जीवितखामिप्रतिमाश्चकार । श्रीसङ्घस्खचक्रोच्छलितरजःपुञ्जध्यामलितदिक्चक्रवालः सङ्घपतिर्भूत्वा ववन्दे । तदाकर्ण्य श्रीकुमारपालनृपतिः स्वयं कारिते देवालयेऽर्हदिम्बमारोप्य ससैन्यः शत्रुञ्जयोजयन्तादियात्रायै चचाल । सङ्घन 25 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ 15 कुमारपालदेवतीर्थयात्राप्रबन्धः। सह-उदयनसुतो वाग्भटश्चतुर्विंशतिमहाप्रासादकारापकः, नागराजश्रेष्ठिभूः श्रीमानाभडः, षड्भाषाचक्रवर्ती प्राग्वाटश्रीपालः, तत्तनयः सिद्धपालः कवीनां दातॄणां धुर्यः, भाण्डागारिकः कपर्दी, परमारवंश्यः प्रह्लादनपुरनिवेशकारकः प्रह्लादनः, राजेन्द्रदौहित्रः प्रतापमल्लः, नवनवतिलक्षस्वर्णस्वामी ठक्करछाडाकः, तथा श्राविका देवी श्रीभोपलदे, नृपपुत्री लीलू, राणाअंबडमाता, वसाह आभडपुत्री बाई चांपलदे-इत्यादिकोटीश्वरो लोकः । सूरयः-श्रीदेवाचार्याः, श्रीअभयदेवसूरिशिष्याः श्रीजिनचन्द्रसूरयस्तेषां गुरुवान्धवाः श्रीजिनवल्लभ- 5 सूरयः, श्रीचैत्रगच्छीयाः श्रीधर्मसूरयः, श्रीवीराचार्याः-इत्यादिसूरिवर्गः। श्रीदेवसूरीणां भगिनी प्रवर्तिनी सरखती, श्रीहेमचन्द्रसूरीणां महत्तरापुष्पचूलाद्याः साध्व्यः लक्षसंख्या मानवाः। एवंविधेन सङ्ग्रेन सह स्थाने स्थाने प्रभावनां कुर्वन् चैत्यपरिपाटीं च कुर्वन् याचकेभ्य इच्छानुरूपं भोजनं यच्छन् श्रीवर्धमानमार्गेण रैवतकाद्रौ गतः । सांकलिआलीपद्यातले श्रीसङ्घः स्थितः । राज्ञोक्तम्-प्रभो ! पादमवधारयत, यथोपरि गम्यते । गुरुभिरुक्तम्-हे कुमारपालराजन् ! यूयं गच्छत, वयं पश्चादेष्यामः । नृपेणोक्तम्-गुरून्विनोपरि कथं यामि ? । गुरु-10 भिरुक्तम्-अत्रेदृशो जनप्रवादः, यत् यदोत्तमनरद्विकं छत्रशिलाऽधो यास्यति तदाऽनर्थः । अतो यूयं पूर्व ब्रजत । नृपस्तु धौतवासांसि परिधायोपरि गतस्तदनु गुरवः । सर्व तीर्थकायं कृत्वा नृपो वाग्भटदेवेन नूतनपद्यया मत्रिणाऽऽप्रेण कारितयोत्तारितः । तदनु तलहट्टिकायां जीर्णदुर्गे सङ्घवात्सल्यं सङ्घपूजां च कृत्वा देवपत्तने ससङ्घो नृपो गतः। तत्र श्रीचन्द्रप्रभादितीर्थान्नमस्कृत्य वलमानः श्रीशत्रुञ्जयमधिरूढवान् । चैत्यपरिपाट्यां जायमानायां भाण्डारिकः कपर्दी पाह(१२५) श्रीचौलुक्य ! स दक्षिणस्तव करः पूर्व समासूत्रित प्राणिप्राणविघातपातकसखः शुद्धो जिनेन्द्रार्चनात्। . वामोऽप्येष तथैव पातकसखः शुद्धिं कथं प्राप्नुया न स्पृश्येत करेण चेद्यतिपतेः श्रीहेमचन्द्रप्रभोः॥ - ६८५) मेरुमहाध्वजा-महापूजा-अमारिकादिसर्व प्रवर्तितम् । मालोद्घट्टनसमये राज्ञि सङ्घ चोपविष्टे मत्री 20 वाग्भटदेवो द्रम्मलक्षचतुष्कमवदत् । केनापि च्छन्नेनाष्टौ लक्षाः कृताः। एवं क्रमेण वर्द्धमानेषु कश्चित्सपादकोटीश्वकार । नरेन्द्रश्चमत्कृतोऽवादीदुत्थाप्यताम् । स उत्थितः । यावदृश्यते मलिनवसनो वणिक् । राज्ञा मन्त्री उक्त:द्रम्मसौस्थ्यं कृत्वा मालां प्रयच्छ । मन्त्री तेन सह पादुकान्तिके गत्वा द्रम्मसौस्थ्यं पप्रच्छ । तेन सपादकोटिमूल्यं माणिक्यं दर्शितम् । मत्रिणा पृष्टम्-इदं ते कुतः । तेनोक्तम्-महुआवास्तव्यो मम पिता हंसो नाम सौराष्ट्रिकः प्राग्वाटः । तत्पुत्रोऽहं जगडः । माता मे धारू । मम पित्रा मरणसमयेऽहं भाषितः-वत्स ! मया प्रवहण-25 यात्राश्चिरं कृताः, फलिताश्च । मेलितं धनम् । तेन क्रीतं सपादकोटिमूल्यं रत्नमेकैकम् । एवमधुना मम श्रीयुगादिचरणः शरणम् । अनशनं प्रतिपन्नम् । उक्तं च-एकं श्रीनेमिने, एकं श्रीचन्द्रप्रभाय, द्वयमात्मनोऽन्तर्धनं दध्याः । बाह्यधनमपि तव प्रचुरमस्ति । इदानीं यात्रायै मया माता सहानीताऽस्ति । कपर्दिभवने मुक्ताऽस्ति । तां जरन्तीं मातरं सर्वतीर्थाधिकतया पुराणपुरुषैनिवेदितां मालां परिधापयिष्यामि । श्रुत्वा मत्री हृष्टः सङ्घ च सम्मुखं नीत्वा महोत्सवेनानीय सङ्घसमक्षं मालापरिधानं कारितम् । तन्माणिक्यं स्वर्णजटितं कृत्वा कण्ठाभरणे 30 मध्यमणिस्थाने निवेश्य श्रीयुगादिदेवाय दत्तम् । देवं मुत्कलाप्य स्वयमारात्रिकमाधाय सङ्घः समुत्तीय क्रमेण चलितः। प्राप्तः श्रीपत्तने । प्रवर्तितं सङ्घवात्सल्यम् । प्रतिलाभिताश्च [ साधवः] | अमारिस्तु शाश्वतैव ॥ ॥ इति श्रीकुमारपालदेवतीर्थयात्राप्रबन्धः ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे २८. कुमारपालपूर्वभवप्रबन्धः (B.) .६८६) एकदा श्रीकुमारपालेन श्रीहेमसूरयः पूर्वभवस्वरूपं पृष्टाः। ततः सूरयः सिद्धपुरे गताः। प्राचीमाधवाग्रे श्मशानभूमौ चतुरः श्रावकान् कृतोपवासान् चतुर्दिक्षु तपोधनांश्चत्वारो विदिक्षु स्थाप्य स्वयं त्रिभुवनस्वामिनी विद्यां स्मृतवन्तः । देव्याह-सरणकारणं वदत । तैस्तु नृपभवः पृष्टः । देव्याह-मेदपाटदेशे चित्रकूटप्रत्यासन्ने 5 ऊपरमालपर्वते परमारवंशीयो जैत्रः पल्लीपतिरासीत् । सोऽन्यदा धाराया गगनधूले यकस्य दशसहस्रबलीवईमितं सार्थं जगृहे । नायको नंष्ट्वा मालवेशमाह । राज्ञोक्तम्-मया तस्य किमपि कर्तुं न शक्यते । तेनोक्तम्-मया शक्यते। कटकमादायाज्ञातवृत्त्या पक्ष्यां गतः। जैत्रो नष्टः । तेन कीटमारिं कृत्वा जयतापल्याः सगर्भाया बालं भूमावास्फोव्य वलित्वा च तं नृपं प्रति स्ववृत्तमुक्तम् । नृपेणादृष्टव्योऽयमिति तिरस्कृतो जनैर्निन्धमानस्तापसाश्रमे गत्वा शुद्धिकृते तपस्वी जातः । अथ जैत्रः स्थानभ्रंशाच्चोरवृत्त्या जीवन्नेकस्मिन् सार्थे मिलितः। सार्थे 10 स्थिते श्राद्धा देवपूजां विधाय सरसः पालौ ब्रजन्तो वीक्ष्य तैः सार्धं गतः । ते तपोधनान् नमस्कृत्य धर्मोपदेशं श्रुत्वा क्षमाश्रमणपूर्व तपोधनानादाय गताः। स तथैव स्थितस्तपोधनाः समायाताः। स न उत्तिष्ठति । मयि बुभुक्षिते कथं भोक्ष्यन्ति मुनयः। श्राद्धानाहूय भोजितः । तदनु गुरुभिरुक्तम्-त्वं चौर्यस्यादत्तस्य नियमं गृहाण । तेनोक्तम्-यादरपूरणं भवति तदा नाहं करोमि । तैः श्राद्धपार्थाच्छम्बलं दापितम् । स क्रमेण सार्थाचलितो गुरुभिर्नियम सारितः । उरंगलपत्तने गतः। तत्र ओंढरनायकाट्टे उपविष्टः । तेनागतेन पृष्टम्-क यास्यसि । 15 तेनोक्तम्-यत्रोदरपूर्तिर्भविष्यति । नायकेन स्थापितः । शुद्धवृत्त्या सञ्चरन् विश्वासपात्रं जातः । एकदा चतुष्पदे विसाधनहेतौ प्रहितः । इतो हट्टान् दीयमानान् दृष्ट्वा पृष्टम् । तैरुक्तम्-सूरयः समायाताः । सम्मुखैर्गम्यते । तेन चिन्तितम्-अहमपि यामि । यदि ते मे गुरवो भवन्ति । इति मत्वा सूरीनुपलक्ष्य नमस्कृतवान् । गुरुभिः कुशलं पृष्टम् । स क्रमेण विसाधनमादाय गतः । नायकेन पृष्टम् । तेन वृत्तमुक्तम् । नायकः सुभद्रकत्वात्तत्र तेन सह गतः । “न कयं दीणुद्धरणं" इत्यादिव्याख्यानान्ते सुबुद्धो धर्ममङ्गीकृतवान् । गुरूनाह-दक्षिणां याचत । 20 तैरुक्तम्-अत्र जिनालयो नास्ति तं कारय । तथाकृते प्रासादप्रतिष्ठा जाता। एकदा पर्वदिने नायको वस्त्राणि निर्मलानि परिधाय जैत्रेण सह प्रासादं गतः। तेन पूजा कृता । जैत्रायोक्तम्-त्वमपि पूजां कुरु । तेन किमपि द्रव्यमासीत्तेन पुष्पाण्यादाय पूजा कृता । पौषधागारे नायकैनोपवासः कृतो जैत्रेणापि । पश्चाद् गृहे गतो धौतवस्त्राणि मुक्तानि । जैत्रो भोजनायोपविष्टः । परिवेष्य यावत् स्थितस्तावत्पारणार्थी मुनिराययौ । कालेनानशनमादाय स्वर्ग्यभूत् । जैत्रोऽप्यनशनमादाय त्रिभुवनपालदेवसुतो जज्ञे । नायकजीवस्तु जयसिंघदेवो जातः । 25 पूर्वभवपातकादनपत्यो जातः । ततो गुरुभिर्नुपाय निवेदितम् । नृपो हृष्टः ॥ इति कुमारपालदेवपूर्वभवप्रबन्धः॥ २९. द्वात्रिंशद्विहारप्रतिष्ठाप्रबन्धः ( BR. ) ६८७) एकदा श्रीपत्तने द्वात्रिंशद्विहाराणां प्रतिष्ठां महदुत्सवेन प्रारब्धां श्रुत्वा वटपद्रपुरनिवासी वसाह कान्हाकः स्वयं कारितप्रासादबिम्बमादाय श्रीपत्तने प्रतिष्ठार्थमाययौ । हेमाचार्याः प्रतिष्ठार्थेऽभ्यर्थिताः । तैर्मानितम् । इतस्तस्मिन् दिने जनसम्मः जातः । रात्रौ घटी मण्डिता । इतो वसाहस्य भोगाद्युपस्कारो विस्मृतः । तेन तमानीतुं 30 गते लग्नघटी असमये वादिता । स आगतः । मध्ये प्रवेशं अलब्ध्वा लग्नघटीं श्रुत्वा विषण्णः । प्रतिष्ठापश्चाजनो विरलो जातः । कान्हाकोऽप्यन्तः प्रविश्य गुरूणां चरणयोर्लगित्वा बाढं रुरोद । मदीयं बिम्ब प्रभो ! स्थितम् । गुरुभिरूद्धमवलोकितम् । लग्नं तदा वहमानं विलोक्योक्तम्-भो ! त्वं पुण्यवान् , लग्नमधुनास्ति, परिच्छेदं कुरु विम्वप्रतिष्ठायाम् । स न मन्यते । गुरुभिः प्रतिष्ठां विधायोक्तम्-यदि न मन्यसे तथा देवं पृच्छ-एतत्तथ्यं न Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशद्विहारप्रतिष्ठाप्रबन्धः । ४५ वा । बिम्बेनोक्तम्-तथ्यं भो ! तव बिम्बं वर्षशतत्रयायुः । एतानि वर्षत्रयायूंषि भविष्यन्ति । इतः कश्चित् व्यव हारी स्तम्भतीर्थं वाणिज्याय गतः । तत्र तेन श्रीदेवाचार्या नमस्कृताः । पृष्टम् - किमद्य कल्ये नृपः पुण्यकर्म्म तनोति ? । तेनोक्तम्-द्वात्रिंशद्विहाराणां प्रतिष्ठा जाता । तस्य उत्सवस्य किं वर्ण्यते । लग्नं वेत्सि ? । अमुकमनुमानम् । इदं लग्नं हेमाचार्यैर्निरूपितं न वा ? | यदि निरूपितं तदा महत् क्षुण्णं जातम् । स पुनः पत्तनमाययौ । हेमाचार्यैः पृष्टम् - श्रीदेवसूयो नमस्कृताः । स्वरूपमुक्तम् । त्वया कारणं किमपि न पृष्टम् ? । मया ज्ञातं यदुन्नति - 5 मसहमानाः कथयन्ति । इतः श्रीदेवाचार्याः पत्तनमागताः । श्रीहेमाचार्यान्नमस्करणायाऽऽगच्छतो विलोक्योक्तम्-तपोधनाः ! नृपगुरूणामर्थे उपवेशनमानयत । श्रीमाचार्या विस्मिताः । यावद्वन्दन्ते तावदुक्तम्- हे नृपगुरवः! इहास्यताम् । हेमाचार्यैरुक्तम् - प्रभो ! ममोपरि कथमप्रसाद ः १ । प्रभुभिरहं दर्शनविरुद्धे पथि सञ्चरन् दृष्टः श्रुतो वा । कथयत-प्रतिष्ठालग्नं भवद्भिर्निरूपितं न वा ? । निरूपितम् । तत्र क्रूरकर्त्तरीयोगोऽस्ति । एतल्लमं पूर्वकृतानामपि प्रासादानामनर्थहेतुः । भगवन् ! किं क्रियते ? । गुरुभिरुक्तम् - स्तोकदोषं बहुगुणं कार्यं कार्य 10 विचक्षणैरिति विचिन्त्य यदमी प्रासादा मूलतोऽप्यपाकृत्य नूतनास्तदा सर्वेऽपि प्रासादाः स्थिराः स्युः । प्रभो ! एतन्न युज्यते । तर्हि भवितव्यतैव बलवती भवतां कोऽपराधः ॥ इति द्वात्रिंशद्विहारप्रतिष्ठाप्रबन्धः ।। (G.) सङ्ग्रहे कुमारपालसम्बन्धिवृत्तम् । ९८८) श्रीकुमारपाल : भावस्थितौ भ्रमन् श्रीसिद्धपुरे गतः । तत्र शकुनान्वेषणे तेन कोऽपि मारवोऽभ्यर्थित:किं मे भविता ? । अत्रार्थे गतौ बहिः । ततो देव्याह्वाने कृते देवी श्रीमुनिसुव्रतचैत्ये आमलसार के स्वरद्वयं कृत्वा, 15 ततः कलशे त्रयं, ततोऽपि दण्डे स्वरचतुष्टयं च विधाय स्थिता । ततः स शाकुनिकः प्राह - तव जिनभक्तस्य सतो राज्यप्रायादि अधिकाधिकं पदं भवितेति ॥ ९८९) अन्यदा श्रीकुमारपालस्य कस्यापि कौटुम्बिकस्य गृहे हालिकत्वेन वर्त्तमानस्य सकणशकणांचाभारमुद्वहतः शिरस उपरि दुर्गयोपविश्य स्वरोऽकारि । ततः शाकुनिकः पृष्टः । तेनोक्तम् - तव राज्यं भविष्यति । परं तत्र सन्ततिर्न भविता । यतो युगन्धरीधान्यं सर्वधान्योत्कृष्टम् तेन राज्यम् । यतः प्रभोर्हेतोर्भारकः, तेन न 20 सन्ततिस्तव ॥ ९९०) तपोधनवृत्त्या वर्तमानस्य श्रीकुमारपालस्य राज्यावसरे श्रीप [तनो ] परि गच्छतः पथि [दुर्गा ] पूर्व बब्बूलवृक्षे निविश्य स्वरचक्रे तदनु राफमध्यान्निःसृतफणिः फणोपरि.. . सार्थे वहमानः मारुयकः पृष्टः । तेनोक्तम् - दिनत्रयेण तव राज्यं भविष्यति । परं प्रहरत्रयेण विघ्नं विद्यते । तदनु सार्थे तृतीये यामे मेघवृष्टौ ... .. मध्यान्निःसृते कुमारपाले द्वादशजनोपरि विद्युत्पातः समजनि । ततस्तृतीये दिने राज्यं जातम् ॥ 25 ९९१) अन्यदा श्रीजयसिंहदेवो दिवं गतः । तदनु अष्टादशदिनानि यावत्पादुकया राज्यं कृतम् । ततः श्रीहेमसूरिकथितदिनोपरि कुमारपालः समागच्छन् निशि कडीग्रामपाद्रप्रासादे सुप्तः । तत्रारक्षकः परिभ्रमन् आगतः । चरच्छलेन कुट्टयित्वा प्रावरणकम्बलादि गृहीत्वा स मुक्तः । प्रातः समुत्थाय पत्तने नड्डुलाकान्हडदेवस्य निजभावुकस्य गृहं गतः । ततो भगिन्या दुकूलानि दवा राजभवनं प्रेषितः । तत्राग्रे त्रयो राजप्रतिपन्नपुत्रा राज्यं दत्त्वोत्थापिताः । कुलक्षणैरेभिः । तत् एकेनोक्तम् - अहं सर्वं मारयिष्यामि । द्वितीयेनोक्तम् - यत् यूर्य भणिष्यथ 30 तदहं करिष्यामि । तृतीयो दुकूलाञ्चलै रुलमानैरुपविष्टः । अत्रान्तरे कुमारपालः समागतः । कान्हडेनोक्तम् - भव्यं कृतं यदधुना समागतः । राज्ये भवानेव । इत्थं वारितेनापि कृष्णदेवेन राज्यं दत्तम् । ततचतुर्द्दशराज्यस्थानमहाधर, ४ राउल, ७२ मंडलीक, ८४ राणा, ३६० सामन्तपरिवारः प्राकारबहिर्निर्गत्य स्थितः । ततो नित्यं कथापयन्ति कृष्णदेवस्य ते प्रधानाः - त्वया किं कृतं यदस्मै राज्यं दत्तम् । तेन कथितमहं न मारयिष्यामि, For Private Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे यूयं मारयथ । मया राजा समग्रपरिवारो राजपाटिकोपायेन बाह्ये निःकासितोऽस्ति । ततो राजा दृष्टिकलया विनष्टं वीक्ष्य पश्चाद्वलितः । प्राकारासन्नं कान्हडदेवं विसूत्रयित्वा ततो निशि सप्तशतमितगढसंखराजपुत्रहस्ते दीपिका अर्पयित्वा राजगोधईयाकं सुप्तं विधृत्य एकरात्रिमध्ये समग्रमपि राजचक्रं वशीकृत्य राज्ये निविष्टः ॥ ९९२) श्रीकुमारपालेन राज्ये प्राप्ते तत्क्षणं कडीतलारक्षस्याकारणे सुखासनेन समं लेखः प्रहितः । स च विस्म5 यापन्नमनाः समागतो राज्ञा सन्मानितः । ततो विशेषविस्मयोऽजनि । अत्रान्तरे युगपत् स्नानद्रोणी. .. तेन पृष्टिर्दर्शिता .. .. सकशाप्रहारां वीक्ष्य विषण्णेन चिन्तितं यदसौ मां मारयिष्यति विषं दत्त्वा । ततो भोजनावसरे राज्ञा बहुमानेन निजरसवतीं भोजयित्वा राणकपदं दत्तम् । इत्थं विपि (प ) ण्णः क्षीणतेजा जातः । राजा तु पुनः पुनः चरान् परिपृच्छति । स चाद्यापि जीवति । स इत्थं चतुःपथानतिक्रम्य प्रतोलीद्वारे गतो मृतः । राज्ञोक्तम् - [आ ! बाढं ] ढाढसिकः । सर्वैः पृष्टं - राजन् ! किमेतद्वयं न विद्मः । अतो राज्ञापि सर्वो वृत्तान्तो 10 निगदितः । अतो मया मारणार्थमस्य प्रौढिदत्ता । यथा मम महत्त्वं स्यात् ॥ ९९३) एकदा कुमारपालदेवः सप्तदिनानि यावत् बुभुक्षितः कस्यापि गोधूमक्षेत्रे कलिङ्गानि गृहीत्वा अरघट्टघटिकया वाफयित्वा रात्रौ यावद्भक्षितुं लग्नः, तावद् हालिको दण्डमुद्यम्य धावितः । परं क्षेत्रपतिना रक्षितः । राज्ये प्राप्ते कालिङ्गीयको नाम्ना ग्रामो दत्त आघाटे तस्मै ॥ ९९४) अन्यदा श्रीकुमारपालो दिनत्रयं क्षुधितः परिभ्रमन् कस्यापि व्यवहारिणो गृहे प्रविश्य निविष्टः । 15 गृहाधिपतेर्लेखकं विदधतो मध्यरात्रिरजनि । ततस्तेन चिन्तितं - यद्यसौ न भुक्तोऽस्ति, तदा भोजयिष्यामि । ततः पृष्टे स वल्लभकलत्रगृहे प्रेषितः । तया तस्मै भोजनं न दत्तम् । द्वितीयया हर्षितया दत्तम् । प्राप्ते राज्ये राज्ञः स्थालं गृहीत्वा चौरस्तस्य श्रेष्ठनो हट्टे व्ययितम् । ततो राज्ञा आकारितो व्यवहारी । उपलक्षितः । राज्ञोक्तम्-तव कलत्रद्वयमास्ते । तेनोक्तम् - एवमेव । राज्ञोक्तम् - आकारय तत् द्वितयम् । यथा तव सकुटुम्बस्य निग्रहं करोमि । कुटुम्बे समेते पूर्वोपकारीति भणित्वा राज्ञा तस्य प्रसादो दत्तः ॥ 20 ९९५) पुरा श्रीकुमारपालेन क्षयाहे पिण्डदानसमये उध्रियमाणे द्वारभट्टेन मयणसाहारेण पितामहपिण्डे प्रोक्तमिति - राजन्! राजपितामहं मल्लिकार्जुनं पितॄणां मेलय तदनु पिण्डं उद्धर । इति श्रुत्वा राज्ञा पिण्डः पश्चान्मुक्तः । राज्ञा बीटके दीयमाने सकलेऽपि राजमण्डलेऽधो विलोकयति बाहडवारितेनापि आम्बडेन बीटकं जगृहे । राज्ञा कटकं राजगिरिं च समर्प्य प्रेषितः । संप्रहारे सकलमपि बलं भग्नम् । तत आम्बडः कृष्णगुरूदरोदरान्तः कृष्णवासाः कस्तूरिकानुलेपनः पत्रपुटभोजी कस्यापि निशि दिने निजवदनं न दर्शयति । राज्ञा तद्विज्ञाय स्वयमागत्य 25 सन्मानं दवेति प्रोक्तम् - मम मल्लिकार्जुनविग्रहे त्वमेव सेनापतिः । पुनर्द्वितीये वर्षेऽश्वसहस्र ४४, पत्तिलक्ष ३ मितं कटकं दत्तम् । तेन मल्लिकार्जुनं विमुच्य नान्यस्य मे प्रहार इति प्रतिज्ञातम् । सत्वरं गत्वावेष्टितः । युद्धे जायमाने निजौ चरणौ परदन्तिदन्ते दत्त्वा तत्राधिरुह्य कौङ्कणस्वामी व्यापादितः । कौङ्कणं गृहीतम् । मूटक १८ मौक्तिक । संयोगसिद्धि सिप्रा । सहस्रकिरण ताडंक २ । अग्निपखालु पछेवडउ । शृङ्गारकोडी साडी । सेडउ पट्टहस्ती । अष्टोत्तरसहस्रमौक्तिकहारः त्रिसरकः । चतुश्चत्वारिंशदङ्गुलप्रमाणं मरकतलिङ्गं नीलकण्ठस्य । एतदानीय 30 राज्ञः पादौ शिरसा सह पूजितौ । अत्रान्तरे द्वारभट्टेनोक्तम् "कीडी रक्ख करंतु चडिउ रणि मइगल मारइ० ॥" ९९६) श्रीआम्बडोपि रणांगणपतितो जगादिति - देवबुद्ध्या जिनेन्द्र एवास्ति । गुरुः श्रीहेमसूरिरेव । स्वामी श्रीकुमारपाल एव । ततः केनापि कविना इति जगाद - "वरं भद्वैर्भाव्यं० ॥" (९७) अन्यदा श्रीकुमारपालेन पृथिवीमनृणां कर्तुं गुरवः सुवर्णसिद्धिं पृष्टाः । गुरुभिरुक्तम् - मम गरवो 35 जानते, नाहमिति प्रबन्धो ज्ञेयः ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजयपालप्रबन्धः। ६९८) एकदा श्रीकुमारपालेनात्मनः श्रीजयसिंहस्यान्तरं पृष्टम् । सभ्यैरुक्तम्-श्रीसिद्धराजस्याष्टौनवति गुणाः, दोषद्वयं देहे । भवति अष्टनवति दोषाः, गुणद्वयम् । भवान् विक्रमी, कृतज्ञश्च । श्रीसिद्धराजस्तु मत्सरी, दीर्घरोपी च ॥ ६९९) श्रीसङ्घयात्रायां जायमानायां रैवतगिरौ छत्रशिलाकम्पे जायमाने राज्ञा पृष्टैर्गुरुभिरूचे-द्वात्रिंशल्लक्षणोपेतं पुरुषद्वयं यदि शिलाधो यास्यति तदा शिला पतिष्यति । अतो नव्यपद्यया देवनमस्करणं विधास्यामः। 5 इत्युक्ते आम्बाकेन नव्या पद्या कारिता ॥ ६१००) अथ महापूजायां महाभोगे विधीयमाने धूपधूमान्तरिते गर्भगृहान्तरे प्रभुभिः श्रीसोमेश्वरः प्रत्यक्षीकृतः । देवादेशेन ततः प्रभृति मजाजैनः कुमारपालोऽभूत् ॥ ६१०१) अथ श्रीदेवेन्द्रसूरिभिः श्रीसेरीसके तीर्थे निम्मिते कान्तीत आकृष्टिविद्यया महाबिम्बानि समानीतानि । मनसीति चिन्ता जाता-श्रीपत्तनं सेरीसकं च एकमेव विधास्यामि । अत्रान्तरे गाजणपतिनृपतेरुपरि 10 कटकं विधाय श्रीकुमारपालदेवः श्रीप्रभुभिः सह तत्रागतः। श्रीदेवपादानमस्कृत्य श्रीदेवचन्द्रसूरयो नमस्कृताः। श्रीसूरयः कथितवन्तः-राजन्! वर्षासु कथं कटकबन्धः । राज्ञोक्तम्-साम्प्रतं छलं विना गाजणपतिर्न विनश्यति । सूरिभिरुक्तम्-कथं भवद्गुरूणां एतावत्यपि शक्तिर्नास्ति । राजा मौनेन स्थितः। ततस्तैरुक्तम्-अत्राद्य कटकं स्थापय । अहं गाजणपतिमानेष्यामि। निशि सूरिभिराकृष्टिविद्यया देवतावसरं कुर्वद्भिर्गाजणपतिरानीतः। परस्परं मैत्री जाता । अक्षरैः पाङ्गुलां (१) पत्राणि जातानि ॥ ६१०२) श्रीहेमाचार्यैरवसानसमये सगद्दं राजानं समीक्ष्योक्तम्-मम तव च षण्मासान्तरमेवास्ति । ततः प्रभोरवसानानन्तरं रामचन्द्रेण श्रीसङ्घस्य पुरः पठितमिति-"महि वीढह सचराचरह० ॥" ६१०३) अथ षण्मासान्तरे श्रीकुमारपालेन भूमौ मुक्तेन श्रीवीतरागविम्बदर्शने उक्तमिति-"सावयघरंमि० ॥” अत्रान्तरे मल्लिकार्जुनभांडागारनीतसंयोगसिद्धिसिमा जलपानार्थ याचिता। अजयपालदेवोक्तैवारक्षकैर्नार्पिता । तदा चारणेनोक्तम्-"कुयरड कुमरविहार०॥" 15 20 ३०. अजयपालप्रबन्धः (P.) ६१०४) अथाजयपालेन प्रासादेषु पात्यमानेषु, यमकरणं तारणदुर्गोपरि सन्नद्धं प्रातः प्रयास्यतीति श्रुत्वा वसाह-आभडमुख्यः समग्रोऽपि सङ्घः पर्यालोचितवान्-विलोकयत श्रीकुमारपालदेवेन प्रासादाः कारिताः, अनेन दुरात्मना पातिताः । कोऽपि इदं न वेत्स्यति यन्नृपः श्रावकोऽभून्न वा । तारणदुर्गप्रासादो रक्षितुं शक्यते तदा भव्यम् । सीलणाग कुतिगिया विनाऽन्योपायो नास्ति । तस्य गृहे चलत । ते तत्र गताः । सङ्घस्तेनाभ्युत्थितः । 25 करौ संयोज्य उक्तम्-मयि विषये महान् प्रसादः। किं कार्यम् ? । भोस्त्वं वेत्सि पूर्वनृपेण प्रासादाः कारिता अनेन पातिताः। एकस्तारणदुर्गस्यावशेषोऽस्ति, सोऽपि प्रातः पतिष्यति । यदि त्वया रक्ष्यते । अन्यः कोऽप्युपायो नास्ति । तेनोक्तम्-एप भवतां प्रमादः। पूर्व ज्ञापितोऽभूवं तदैकोऽपि नापतिष्यत् । यजातं तज्जातम् । त्वयाऽमुं रक्षता सर्वेपि रक्षिताः। सङ्घः सत्कृत्य विसृष्टः। स नृपसमीपं गतः। देव ! मुत्कलाप्य यामि । भोः क यासि । देव वयमुत्पन्नभक्षकाः । सर्व भक्षितम् । क्वापि रायने गत्वा त्वन्नाम्ना द्रविणमादाय पुनरेष्यामः । नृपेणोक्तम्-यदि 30 पत्तनं विहाय यूयमन्यत्र यात तदाऽहं लज्जे । अवसरं दास्यामि । देव ! अवसरो भवति वा यामि ? तर्हि सजतां कृत्वा सन्ध्योपर्येहि । नृपेण सर्वः कोऽप्याहूतः । प्रारब्धं प्रेक्षणम् । इतः सीलणेन इष्टिकाः समानीय पातिताः मृत्तिकारासभानि रङ्गान्तः समाजग्मुः । पानीयं च । कटिकस्त्वाकारितः। प्रासादं कुरु । तेन कृतः । मध्ये Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे एकस्य देवस्य स्थानं कुरु । तेन कृतम् । ध्वजाऽऽरोपं कृत्वोक्तम्-देव! गजान्ता लक्ष्मी, ध्वजान्तो धर्मः। अथाहममुं निर्माय कृतकृत्यो जातः। शयनं विधाये इति शुकटी (मुखे पटीं?) कृत्वा सुप्तः। इतः पुत्रेणागत्य देवकुलिका पातिता । सीलणः पटीं त्यक्त्वोत्थितः सन् प्राह-रे! केनेदं पातितम् । भवतो ज्येष्ठपुत्रेण । सीलणेन स चपेटया हतः । रे! त्वमस्यापि सदृशो न; एतस्यापि नृपतेहीनः । अनेन नृपति[ना पित]रि मृते तस्य कीर्तनानि पातितानि, 5 त्वया तु मम जीवतोऽपि पातितम् । मम मृत्युरपि न प्रेक्षितः । इति श्रुत्वा नृपस्य नेत्रयोर्नीरं पपात । सीलण ! किं कथयसि ? । देव ! विमृश तथ्यमिदमतथ्यं वा । गृहस्थः कीर्तनं कारयति यावन्मम कोऽपि भविष्यति तावदस्य सारा भविष्यति । ये पतितास्ते पतिताः, शेषाः सन्तु । एक एवावशेषोऽस्ति यः स तव नाम्ना । यमकरणं व्यावर्त्यताम् । इत्थं कृते प्रासादाश्चत्वार उद्गरिताः ॥ इति तारणगढप्रासादरक्षणप्रबन्धः॥ ६१०५) अथ राज्यात्तृतीये वर्षे पर्युषणापर्वणि थारापद्रीये प्रासादे श्रावका मिलिताः । आभडवसाहेनोक्तम्10 समयं विलोकयत ! । यत्र तपोधनानां सहस्रा आसन् तत्राद्य स कोऽपि न दृश्यते यस्य मुखात्प्रत्याख्यानमपि क्रियते । क्वापि केन............ [पत्त]नमध्ये श्रुतो वा दृष्टो वा । एकेन कर्णे प्रविश्योक्तम्-यद्राजपुत्रवाटके धरणिगः श्रेष्ठ्यस्ति । तेन जङ्घाबलपरिक्षीणाः स्वगुरवः स्थापिताः सन्ति च्छन्नम् । तदनु वसाहस्तस्य गृहे गतः । तेनाभ्युत्थितः, पादमवधार्यताम् । अद्य सांवत्सरिकपर्वणि तपोधन......व तपोधनाः सन्ति ? । तेन भूमिगृहे नीत्वा गुरवो दर्शिताः । वसाहस्तु चरणयोर्निपत्य रोदितुं प्रवृत्तः-भगवन् ! स कोऽपि नास्ति यो......दुरात्मानं 15 नृपं शिक्षयति । गुरुभिरुक्तम्-शक्तिरस्ति परं सान्निध्यकर्ता कोऽपि विलोक्यते । वसाहस्तु तस्यैव श्रेष्ठिन: शिक्षा दत्त्वा ययौ । गुरवो जनुं प्रवृत्ताः । इतस्तृतीयदिने.........र्जाता। यतो मदीयौ धांगा-वइजलियाख्यौ पदाती स्तः । तयोर्माता सुहागदेवी । सा स्वैरिण्यस्ति । सा नृपेणानीयान्धकारे स्थापिताऽस्ति ।............... वइजलिकः पीत्वा समायातः। नृपेण हास्ये प्रारब्धे उक्तम्-रे ! याचस्व खैरम् । तेनोक्तम्-देव ! अधुनाऽवसर योग्यं दीयताम् । नृपेणोक्तम्-उपवरिकायां व्रज । परं वदनं नावलोकनीयम् । स तत्र गतः । इतः पृष्ठे दीपकरः 20 समाययौ । तेनाम्बा दृष्टा, सवित्र्या पुत्रो दृष्टः । परस्परं लज्जितौ । वइजलेन धांगाऽग्रे उक्तम्-नृपेणैवंविधं हास्यमकारि । तदहं मरिष्ये । तेन साक्षेपमुक्तम्-मारयिष्ये न वदसि, मरिष्ये वदसि । अमुं मारयिष्यावः । इति निश्चित्य स्थितौ । नृपस्तु राजपाट्यां निर्ययौ । वलमानः सन्ध्यायां सुखासनासीनोऽन्धकारे प्रतोल्यां प्रविशन् , वइजलेन कपाटपार्शन्निर्गत्य धांगाकेन सह स्थितेनोभाभ्यां नृपो हतः। कलकले जाते वइजलो नष्टः, धांगाको हतः । राजा तु तत्रैव पपात । जनो दिशो दिशं गतः। इतो लब्धसंज्ञस्तृषितो राजा रिंखन् प्रतोलीप्रत्यासने 25 तन्तुवायगृहे प्रविष्टः । गर्तायां मुखे वाहिते, तन्तुवायेन लकुटः क्षिप्तः, खानं मत्वा । तेन दीर्णशिरा पपाठ (१२६) धांगा दोसु न वहजला न वि सामंतह भेउ । जं मुणिवर संताविया तह कम्मह फलु एहु॥ इति वदन् पीडया मृत्वा श्वभ्रं ययौ ॥ इत्यजयपालप्रबन्धः॥ (G.) सङ्ग्रहगतं अजयपालवृत्तम् । 30 ६१०६) श्रीअजयपालेन श्रीकपर्दिमन्त्री अमात्यताहेतोरुपरुद्धः। मत्रिणोक्तम्-मनसा समालोच्य देवादेश विधास्यामि । इति भणित्वा गृहं प्रति गच्छत ईशानदिशि वृषभखरपञ्चकं वामभागेऽजनि । तन्मारुयकस्य मत्रिणा कथितम् । तेनोक्तम्-न भव्यम् । यदयं वृषः शिववाहनम् । अतः परं शिवशासनं विजयि भविता । ततश्च न गृहीतं अमात्यत्वम् । राज्ञा धृतः । तत्रस्थरामचन्द्रेणोक्तम्-"जो करिवराण कुम्भे०॥" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मश्रियशोवीरप्रबन्धः। ४९ ६१०७) श्रीहेमसूरिशिष्यौ रामचन्द्र-बालचन्द्रौ । गुरुमिः सुशिष्यं भणित्वा रामचन्द्रस्य विशेषविद्याः दत्ताः। मानं च दत्तम् । तत्कोपेन बालचन्द्रो निःसृतः। तस्याजयपालेन सह मित्रत्वं जातम् । राज्ये प्राप्तेऽजयपालेन रामचन्द्रस्योक्तम्-श्रीहेमचन्द्रसूरीणां सकला विद्या मम मित्राय बालचन्द्राय देहि । तेनोक्तम्-गुरूणां विद्याः कुपात्राय न दीयन्ते । राज्ञोक्तम्-तर्हि अग्नि........................तत्र जिह्वां खण्डयित्वा उपविशता तेन दोध क पञ्च श ती कृता ॥ ___३१. धर्मस्थैर्ये सजनदण्डपतिप्रबन्धः (B.) १०८) अथ दण्डपतिसजनप्रबन्धः-श्रीपत्तने ग्रथिलभीमदेवो राज्यं करोति स । तेन सहस्रकला वेश्याऽन्तःपुरे क्षिप्ता । सा राज्यचिन्तां सकलां करोति । दण्डपतिः सज्जनः श्रीमालज्ञातीयो मजाजैनो राज्याधिकारं करोति स। स देवपूजां विना न भुङ्क्ते, प्रतिक्रमणं विना न शेते । अथैकदा पत्तनोपरि तुरुष्काणां सैन्यमाययौ । दण्डनायकसजनेन बनासनदीतीरे गाडरो नामाऽरघट्टस्तत्र रणक्षेत्रं सजीकृतम् । देवी सहस्रकला स्वयं सज्जनदण्ड-10 [नाय-]केन सह सैन्यमादाय सम्मुखमागता । अश्वसहस्र २४ मनुष्यसहस्र ३२ सार्धम् । तत्र प्रातयुद्धमिति निश्चिकाय । रात्रौ शस्त्रजागरणं कृतम् । वीराणां सन्नाहाः समर्पिताः । गजा १८ गुडिताः । अश्वाः सर्वेऽपि सन्जिताः। प्रक्षरां ग्राहिताः । इतो देव्या सजनो दण्डपतिः सैनान्येऽभिषिक्तः । स सन्नाहमादाय यामिन्याः पाश्चात्यप्रहरे गजमधिरूढः । चतुर्दिक्षु सन्नद्धैवीरैर्वृतः। इतो मत्रिणा गजस्कन्धे स्थापनाचार्य निवेश्य प्रतिक्रमणं कृतम् । पार्श्वस्वैश्चिन्तितम्-असात्कि युद्धं भविष्यति । तेन सामायिक पारितम् । रणरसोत्सुका वीरा उभयोः पक्षयोर्मिलिताः। 15 महान् रणः समजनि । सजनदण्डेशेन स्वयमुत्थापनिका कृता । शरीरे घातदशकं लग्नम् । परं म्लेच्छसैन्यं निर्धाटितम् । रणः शोधितः । इतो देवी स्वयमेत्य दुकूलाञ्चलेन सज्जनगात्रं प्रमाj गुप्तोदरे निनाय । इतः पार्थस्यैरुक्तम्-देवि! दण्डनायकस्य काऽप्यपूर्वा वार्ता । पाश्चात्ययामिन्यां 'एकेन्द्रिया [द्वीन्द्रिया]' इत्युक्तम् । प्रातयुद्धं तथा कृतं यथा केनापि न क्रियते । देव्या पृष्टम्-दण्डेश! किमेतत् ? । देवि! रात्रौ खकार्यं कृतम् , प्रातस्तव । यत् पिण्डस्त्वदीयस्तेन यत्कृतं तत्तव कार्यम् । मम साय...... तन्मम । एवं च तुरुष्कान्विजित्य देवी पत्तनं 20 प्राप्ता । मत्री सजाङ्गो जातः ॥ इति धर्मस्थैर्ये सज्जनदण्डपतिप्रबन्धः ॥ ३२. मत्रियशोवीरप्रवन्धः (P.) ६१०९) श्रीजावालिपुरे श्रीसमरसिंहनृपाङ्गजः श्रीउदयसिंहस्तस्य मत्री दुसाजस्तत्पुत्रो यशोवीरस्तस्य भार्या सुहागदेवी, सुतः कर्मसिंहः । एकदा सण्डेरगच्छोद्भवैः श्रीईश्वरसूरिभिरुक्तम्-हे मत्रिन् ! तव पुरे धारागिरिवाटिकास्ति । तत्र अद्यदिनात् षोडशमे दिने तव वाटिकामध्ये स्थितस्य द्विप्रहरवेलायां यो द्विजः समभ्येति, 25 त्वया तसिन् दृष्टमात्रे 'पादमवधार्यताम् , अधुना प्राप्तकालं शीतोदनं क्रियताम् । तत्र कूरकरम्बो दना कृतः, शाके लिम्बुकं च भोजनीयम् । तदनु द्रम्मसहस्र (३०००) वासणे प्रक्षिप्य एका त्रिपट्टदुकूला मड्डिया । भव्यरीत्या चिन्तनीयम् । मत्री तां सामग्री कृत्वा वाटिकायां गतस्तत्र क्रीडितुं प्रवृत्तः । इतो नागडनामा भट्टपुत्रस्त्रिदिनलङ्घनावसाने-अद्य यशोवीरं बन्दी करिष्ये वा मे चिन्तितं भोजनं प्रयच्छति-इति विचिन्त्य मत्रिणं वाटिकायां मत्वा विवेश । मत्रिणा दृष्टमात्र एव उक्तः-सत्वरमेत्य भुज्यताम् । भोजने दर्शिते सुस्थीभूतः । मुखं प्रक्षाल्य 30 भोक्तुमुपविष्टः। अनन्तरं मत्रिणा वस्त्राणि द्रम्माश्च दर्शिताः। तेनोक्तम्-मत्रिन्! ममाभिप्रायः त्वया कथं ज्ञातः। अद्य मे मनसि इत्यासीत्-यदेवं ददाति वा मारयामि । मत्रिणोक्तम्-किमत्र ज्ञानम् १ । नागडेनोक्तम्-मत्रिन् ! मया तवोपकारः कथं कर्तुं शक्यः । परं तथापि मे देवः किमपि ददाति, त्वयाऽऽत्मानं ज्ञाप्यम् । एवमाख्याय पु०प्र० स०7 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे गतः।क्रमेण नागडस्य श्रीपत्तने श्रीकरणं जातं राज्ञः श्रीवीसलदेवस्य । पश्चात् राउल-उदयसिंहराजादेशे समायाते मूं(वी?)सलदेवस्य ककिंडिकमर्पय । नागडात्रा(झ)गडं च कथयति । राज्ञा रुष्टेन ससैन्यो मत्री नागडः प्रहितः। सुन्दरसरोपकण्ठे कटकं स्थितम् । विग्रहः प्रारब्धः। टङ्कशाला पतितुमारब्धा । षण्मासान्ते दण्डेन भव्यं विधाय म......स्थाने गतः । उदयसिंहस्तु तथैव जल्पति । नागडो नृपाग्रे प्रतिज्ञामाधाय जावालिपुरग्रहणे प्रौढकटकेन 5 निःसृतः । क्रमेण स्वर्णगिरि[दुर्ग]पृष्टौ वाघरा......कटकमावासितम् । राउलेनोपरि स्थितेन सर्व दृष्ट्याऽवलोक्य, यशोवीरं प्रत्युक्तम्-मत्रिन् ! सर्वस्वमपि दत्त्वा नागडं पश्चा......वर्त्तय । जीवतां सर्व भविष्यति । मत्री मध्याहवेलायां भव्यार्थे चलितः । इतः प्रतोल्यग्रे खेजडीतरोस्तले गोगामठे एकश्चारणश्चटितोऽस्ति तेन......मत्रिणं प्रति...... (१२७) [दूसा]...जन (?) वीर जउ आव्यां दल वाघराइं । मोटी हूंती हीर देसह वासेवा तणी ॥ 10 मत्रिणा चिन्तितम्-वलमानोऽस्य कर्णावपाकरिष्ये......गतः। राणकः प्रतीहारेण विज्ञप्तः-देव! मारुकस्य प्रधानः समागतोऽस्ति । मध्ये निवेशयत । ततः प्रणम्य मत्री आसीनः। राणकेनोक्तम्-भो मत्रिन् ! तव ठक्कुरः एतावन्ति दिनानि विरूपवक्ता आसीत् । अधुना मय्यागते किं करोति ? । देव ! प्राघूर्णकार्थे सजीभूय स्थितोऽस्ति । सत्वरमागच्छत । मत्रिन् ! अहं नागडः । यदि दुर्गं पृथग् पृथग् भक्त्वा न क्षमामि । मत्रिणोक्तम्-सत्वरमागन्तव्यम् । इत्युक्त्वा मत्री निःसृत्य गतः। राणकेनोक्तम्-रे! क एष मत्री ? । देव! यशोवीरः। तर्हि सत्वर15 माकारयत । मत्री आकारितः। राणकेनोक्तम्-मत्रिन्! मामुपलक्षयसि। देव ! त्वां को न वेत्ति । राणक स्त्वाह-यस्त्वया अमुकवर्षे वाटिकान्तः कूरकरम्बं भोजितस्तमुपलक्षयसि । देव! [कथं] नोपलक्षे। मत्रिन् ! स अहम् । तस्योपगा(का)रस्यैकवेलं भव्यं त्वया लभ्यम् । लोहटिकं विना यामि । इदं तव मानम् , परं स्वस्खामी विरूपाणि वदन्निवार्यः। मत्री परिधापितः। मत्रिणोक्तम्-यद्येवं तर्हि अधुनैव प्रयाणं कुरु । यथा मे स्वामी प्रत्येति । तदैव प्रयाणं कृत्वा कटकं पश्चाद्गतम् । मत्री ईर्ष्या विहरन् चारणे, यावत्तत्रैवायातः, तावत्तेनैव तत्रस्थेनोक्तम्(१२८) जिम केतू हरि आजु तिम जइ लंकां हुत दुसाजुत्र । नांऊं बूडत राजु राणाही[व] रावण तणउं॥ मत्री परिधापनिकां तसे दत्त्वा पुरे प्रविष्टः। राउलेन सम्भूषितः । (१२९) ओं आगिलउ जु होइ सो जसवीर न जाणीउ । ए बूझइ सहु कोइ एकावन बूझही नहीं ॥ ... ६११०) मत्रिणा यशोवीरेण तलहट्टिकायां स्वर्णगिरेश्चन्दनवसह्यां श्रीवीरबिम्ब कारितं प्रतिष्ठापितं च । तदनु 25 श्रीजयमङ्गलसूरिभिरुक्तम्(१३०) यत्त्वयोपार्जितं वित्तं यशोवीर! प्रतिष्ठया। तल्लक्षगुणितां नीतं यशो वीरप्रतिष्ठया ॥ तदनु आलङ्कारिकैः श्रीमाणिक्यसूरिभिः(१३१) यशोवीर ! लिखत्याख्यां यावचन्द्रे विधिस्तव । न माति भुवने तावदाद्यमप्यक्षरद्वयम् ॥ १११) अथ एकदा गूर्जरत्रां भक्त्वा तुरुष्का व्यावृत्ताः सुन्दरिसरिजलं पीत्वा सिराणाग्रामे आवासिताः। 30 तत्र राउलेन तैः सह सङ्ग्रामं विधाय भग्नाः । अइबुको नाम मुख्यो मल्लिको मारितः । तदनु चारणेनोक्तम् (१३२) सुन्दरसरि असुरांह [दलि] जलु पीधउं वयणेहिं । उदयनरिदिहिं कहिउँ तह नारीनयणेहि ॥ __ तदनु परिभवमसहमानः श्रीजलालदीनसुरत्राणः सं० १३१० वर्षे माघमासस्य पञ्चम्यां स्वयमागत्य पर्वतस्य वर्णगिरेः शृङ्गे आवासान् दत्त्वा स्थितः । प्रत्यहं ढोये (?) जायमाने सुरङ्गाखानकैः खण्डिः पातयितुमारब्धा । Dn Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलवसतिकाप्रबन्धः । ५१ पतिता कर्करकोष्ठके । स्थानान्तरस्यैः पत्तिभिर्धान्यं रन्धमानैः स्थाल्युच्छलात् परिज्ञाता । प्रभोरग्रे निवेदितम् । राउलेन चापडो राजपुत्रो भव्यं कर्त्तुं नियुक्तः । तेन सुरत्राणं नत्वा उक्तम् - देव ! दण्डं कुरु । सुरत्राणेन लक्ष ३६ द्रम्माणां याचिता । बापडेनोक्तम्-वयं द्रम्मान् न जानीमः । पाहू (रू)थकान् दास्यामः । पार्श्वस्यैरुक्तम् - देव मान्यताम् । एकस्मिन् पारूथकेऽष्टौ द्रम्मा भवन्ति । सुरत्राणेन मानितम् । तेनोक्तम् - देव ! प्रसीदख, करं देहि । करो दत्तः । इतश्च वर्द्धापनिकेनोक्तम् - देव ! सुरङ्गा पातिता बापडेनोक्तम् - देव! त्वं महाराजस्तव जिह्वा 5 अन्यथा न स्यात् करश्च [दत्तः ] | सुरत्राणेनोक्तम्-तव बुद्धिश्रेष्ठाय मास्मै (?) भैषीत् । दण्डमानय । तदनु राउलेनोक्तम्-सुताः पञ्च मे । कं गृहाण ! | सुरत्राणेनोक्तम् - यशोवीरसुतमर्पय । राउलेन मत्रिपत्नी अभ्यर्थिता । तया स्वसुतस्त्वेकोऽपि समर्पितः । कटकमुत्थितम् । तदनु देवद्विजादीनां सर्वस्वमात्तम् । दण्डादुद्ध रितवित्तेन तेन श्रीस्वर्णगिरौ दुर्गः कारितः । राउलेन यशोवीरपुत्रस्य कर्मसिंहस्य गृहागतस्य रामशयनं प्रसादे दत्तम् ॥ इति राउलउदयसीह- मत्रियशोवीरप्रबन्धः ॥ 10 (G.) सङ्ग्रहे यशोवीरस्योल्लेखो यथा (१३३) ओ आगिलउ जु होइ पई जसवीर न सिक्खियउ । महि मंडल सहु कोइ बावन्नइ बूझइ बहू ॥ चारणदानमदातुर्मत्रिणः पुरवारणेन पठितम् । तस्मै घोटको दत्तः । (१३४) संतः समंतादपि तावकीनं यशो यशोवीर ! तव स्तुवंति । जाने जगत्सज्जनलज्जमानः प्रविश्य कोणे त्वमतः स्थितोऽसि ॥ इति पठिताय भट्टा मत्रियशोवीरेण कोणाग्रामस्योद्राहितं दत्तम् ॥ ३३. विमलवसतिका प्रबन्धः (B. ) (११२) अथ विमलवसतिकाप्रबन्धः (१३५) श्रीविक्रमादित्यनृपाद्व्यतीतेऽष्टाशीतियाते शरदां सहस्त्रे । श्री आदिदेवं शिखरेऽर्बुदस्य निवेशितं श्रीविमलेन वन्दे ॥ (१३६) भीमदेवस्य नृपस्य सेवाममन्यमानः स तु ब (ध) न्धुराजः । धाराधिपं भोजनृपं प्रपेदे स्ववंश्यसेवा हि नृणां विपत्सु ॥ (१३७) विघ्नाधिव्याधिसंहर्त्री मातेव प्रणताङ्गिषु । श्रीपुञ्जराजतनया श्रीमाता साऽस्तु वः श्रिये ॥ (१३८) मेरुणा मनुजदुर्लभेन किं किं हिमैकनिधिना हिमाद्रिणा । साहिना मलयपर्वतेन किं नन्दिवर्द्धनसमो न भूधरः ॥ (१३९) भूभृतां निजगृहेषु तिष्ठतां वाञ्छितं यदचिरान्न सिद्ध्यति । नन्दिवर्द्धनविटङ्कवासिनो हेलयैव शबरीजनस्य तत् ॥ 15 For Private Personal Use Only 20 (११३) अथ श्रीमातादेव्या अम्बाया दैवयोगान्मैत्री जाता । अम्बा गिरनाराधिष्ठात्री । अन्तरान्तरा प्रीत्या - 30 बुदे समभ्येति । श्रीमाता तु तत्र न याति जैनव्यन्तरभयेन । एकदा श्रीमातयोक्तम् - भगिनि । अत्रैव यदि स्थास्यसि तदावयोः प्रीतिर्निरन्तरा स्यात् । अम्बयोक्तम् - जिनभुवनं विना स्थानं न । तदत्र नास्ति । श्रीमातयो 25 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे क्तम्- द्रव्ययुतां भूमिमर्पयिष्यामि । तत्र जिनायतनं कार्यम् । इह बकुलचम्पकौ स्तः । तयोस्तले द्रम्मलक्ष २७ सहितं निधानमस्ति । अम्बयाऽचिन्ति - कः प्रासादं कारयिष्यति । इतश्चन्द्रावतीं परित्यज्य धंधूपरमारः श्री भीमदेवेन समं विरोधात् धारापुरीं गतः । पश्चान्नृपेणाश्वसहसैर्द्वादशभिर्युतो विमलदण्डनायकश्छत्रं दत्त्वा प्रहितश्चन्द्रावत्याम् । 5 10 25 दण्डपतिना उक्तम्–भूमिः क्व १ । देव्याह - श्रीमातयाऽर्पितमस्ति । दण्डपेनोपरि गत्वा स्थानं निरूपितम् । कुङ्कुमगोमय.........दिव्यपुष्पदर्शनेन च । पूर्वं धारायां धंधूपरमारपार्श्वे मनुजमत्रैषीत् । भवतामनुमतिर्भवति तदा जैनं प्रासादं कारयामि । भवतां भव्यं करिष्यामि । पुनरत्रानयिष्यामि । तेन कथापितम् - वयमत्र गोष्ठिकाः । इतो देवी स्थानं दर्शयित्वा रैवतं गता । कर्मस्थायो यावान् दिने भवति तावान् रात्रौ पतति । कर्मस्थायः स्थितः । तत्र प्रासादः शुभमुहूर्ते प्रारब्धः । षण्मासान्ते देवी समाययौ । प्रासादं स्थितं दृष्ट्वा देवी जगौ - किमिदम् ? । 15 तेनोक्तम् - देवी पादमन्यत्रावधारिता । कथं निष्पद्यते ? । देव्या उक्तम् - इह देवकुल्यां वालीनाहोऽस्ति । तस्य भूरियम् । अतः स पातयति । प्रातरुपवासं कृत्वा पूजोपचारमादाय तं ध्यायन्, वालीनाहाग्रे उपविश । स प्रकटीभविष्यति । मद्यं मांसं याचयिष्यति । भवता नैवेद्यं माननीयम् । यदि न मन्यते तदा खङ्गं कर्षयित्वा वाच्यम् - याहि नो वा मारयिष्यामि । अहं खङ्गेऽवतरिष्यामि । तथाकृते स आराटिं कृत्वा प्रणष्टः । तत्र देवकुल्यां क्षेत्रपालः स्थापितः । तत्पार्श्वेऽम्बाया देवकुलिका कारिता । दण्डपतिदेवतावसरे श्री आदिनाथबिम्बमस्ति । अतो 20 युगादिदेवप्रासादः कारितः । चतुर्गच्छोद्भवैश्चतुर्भिराचार्यैः प्रतिष्ठा कृता । आदौ शैलमयं बिम्बम् । तदनु पित्तलमयं भारा १३ तुलामाश्रित्य । पूर्वं ठकुरनीतस्तत्सुतो लहरस्तत्सुतो मत्रीनेह (ढ) स्तेन दीक्षा गृहीता । विमलः श्रीभीमेन गजं छत्रं च दत्त्वा नृपतिः कृतः । तत्सुतेन चाहिलेन रङ्गमण्डपः कारितः । एवं प्रासादे निष्पन्ने केनापि चारणेनोक्तम् (१४२) मंडी मुरकी रद्द करउ छंडउ मंसह ग्गाह । विमलडि खंडुं कडिअडं नहउ वालीनाहु ॥ ॥ इति विमलवसही प्रबन्धः ॥ (१४०) प्राग्वाटवंशाभरणं बभूव रत्नं प्रधानं विमलाभिधानम् । यत्तेजसा दुस्समयान्धकारमग्नोऽपि धर्मः सहसाऽऽविरासीत् ॥ अथ देव्यम्बा प्रासादार्थे प्रत्यक्षीभूय विमलदण्डपतिं जगाद - (१४१) अथैकदा तं निशि दण्डनायकं समादिदेश प्रयता किलाम्बिका । इहाचले त्वं कुरु सद्म सुन्दरं युगादि भर्त्तुर्निरुपाधिसंश्रयः ॥ ३४. अथ लूणिगवसही- - प्रबन्धः (P. BR ) $११४) धवलकपुरे मंत्री आसराजः । सहघरी कुमारदेवी । पुत्र ४ - मत्रि लूणिग १, मालदे २, वस्तुपाल ३, तेजपालाख्याः ४ । परं निर्द्रव्याः । एकदा लूणिगो मन्दो जातः । अन्त्यावस्थायां वस्तुपालेनोक्तम् - बन्धो ! किमपि द्रव्यव्ययं याचख । तेनोक्तम्- नवकारलक्षाः ३ गुणनीयाः । अपरं किमपि दृश्यते तर्हि याच्यते । तथापि 30 किञ्चिद्याचख | लूणिगेनोक्तम् अत्र काचिदाबाधा न । परमहमर्बुदाद्रौ देवान्नन्तुं गतः । ममेति मनोरथ आसीत् । यद्यत्र विमलवसह्यां आलकेऽपि बिम्बं लध्वपि करिष्यामि । यदि काऽपि शक्तिर्भवति तदा कार्यम् । अत्र न काऽप्यवष्टब्धिनी । इति वदन्ननशनाद्दिवं ययौ । पश्चाद् व्यापारे जातेऽर्बुदे श्रीमाताऽबोटीपार्श्वाद्विमलवसहिकोपरि मूल्येन भूर्गृहीता द्रम्मैराच्छाद्य । एवं द्रम्ममूडा ३६ तीरिताः । तैरुक्तम् - अतः परं पूर्णम् । तव द्रव्यसामग्री बही । For Private Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः । त्वं पर्वतमपि गृह्णासि । १२८६ वर्षे शोभनदेवसूत्रधारमाहूय प्रासादं प्रारेमे । १२९२ ध्वजारोपो जातः । तत्र द्रव्यकोटीद्वादश, लक्ष ५३ एवं द्रव्यसंख्या । लूणिगवसहीति नाम कृतम् । श्रीनेमिनाथप्रतिमा स्थापिता। (१४३) विमलदण्डपतिर्विमलाचलाधिपजिनालयमारचयत्पुरा । इह गिरावसको तु स कौतुकी व्यधत्त रैवतदेवतमन्दिरम् ॥ ___ तत्र प्रासादे मत्रिणा यशोवीरेण त्रयोदश दोषा उक्ताः । आदौ विलासमण्डपो न युक्तः १, परं स्तम्भेषु । बिम्बानि २, सिंहमध्ये ३, हरिणगवेक्षण ४, द्वारे गजशालापरं पाश्चात्ये ५, तपोधना आकाशे ६, सोपानानि हस्खानि ७, सूत्रधारमातुश्छत्रं ८, मुख्यद्वारं पुरबाह्ये ९, तथा घण्टा महत्तरा १०; त्रयं तज्ज्ञलोकाज्ज्ञातव्यम् ॥ ॥ इति लूणिगवसहीप्रबन्धः * ॥ 10 ३५. अथ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः (B. BR. P. Ps.) (१४४) श्रीमत्प्राग्वाटवंशेऽणहिलपुरभुवश्चण्डपस्याङ्गजन्मा जज्ञे चण्डप्रसादः सदनमुरुधियामङ्गभूस्तस्य सोमः । आशाराजोऽस्य सूनुः किल नवममृतं कालकूटोपभुक्ति च्छेकश्रीकण्ठकण्ठस्थल विषजमलच्छेदकं यद्यशोऽभूत् ॥ .६११५) आसराजप्रबन्धाद् वस्तुपाल-तेजःपालोत्पत्तिज्ञेया ।......[ अत्र सूचित आसराजप्रबन्धः B सञ्जकसङ्ग्रहस्य खण्डितत्वात् तत्र न लब्धः परं BR सञ्ज्ञके सनन्हे स उपलभ्यते । तत एवात्र समवतार्यते । यथा-] 15 ६११६) अथ आसराजप्रबन्धो यथा-अणहिल्लपत्तने मलधारिश्रीदेवप्रभ (Ps. हेमप्रभ) सूरिव्याख्याने गादीयां १४ शत उपविष्टेषु, तस्मिन् व्याख्याने साधुमदनपालपुत्री ( Ps. 'आभूनन्दिनी'; तथा अत्रैवादशेऽन्यत्र 'तिहुअणपालपुत्री' इति लिखितम् । ) कुमारदेवी बालविधवा व्याख्याने उपविष्टासीत् । नियोगी अश्वराजस्तत्रोपविष्टोऽभूत् । यावद्वाचको वाचयति तावदाचार्यदृष्टिस्तत्र कुमारदेव्यां विश्राम्यति । विदग्धेनाश्वराजेन कारणं * P सज्ञके पुस्तके एष एव प्रबन्धः निम्नलिखितस्वरूपेण प्राप्यते 'एकदा लूणिगेऽनशनं गृह्णति धर्मव्ययो याचितः यदहं अर्बुदागौ देवं नन्तुं गतः। तत्रेति मनोरथ आसीत् । यद्यन्नालके एकं बिम्ब स्थापयामि तदा भव्यम् । अतो यदा भवतां पाहति......... तदा तत्र किञ्चित्कीर्तनं काराप्यम्। पश्चाद्व्यापारे जाते विमलवसतरुपरि भूर्मूल्येन गृहीता, द्रम्मैराच्छाद्य । एवं दाममूडा ३६ ती.........रुक्तम्-अतः] परं पूर्णम् । तव द्रव्यसामग्री बबी । त्वं पर्वतमपि गृह्णासि । तत्र १२८६ वर्षे शोभनदेवं सूत्रधारमाकार्य प्रासादं प्रारेभे......सं० १२९२ ध्वजारोपः कृतः । सङ्कीर्णसोपानमपाच्यगाध्वपृष्ठेऽत्रशाला मुनयश्च घमें । स्तम्भेषु बिम्बानि च दीर्घपट्टाः सिंहाप्रगैणा रतिमण्डपाच ॥ छन्नं च शीर्षे स्थपतेर्जनन्या गजाधिरूढा निजपूर्वजाश्च । स्तम्भा अतुल्या तनुरक्षरश्च ते द्वादशामी कथिताः कलङ्काः ।। -मत्रियशोवीरेणैतानि दूषणानि श्रीअर्बुदप्रासादे कथितानि ।' + एतत्पद्यं P सङ्घहे नोपलभ्यते। एतत्प्रबन्धगतवर्णनं P सज्ञके सङ्घहे निम्नगतेन प्रकारेण लिखितं लभ्यते'एकदा मलधारिगणाधीशाः श्रीहेमप्रभसूरयो धवलकापुरे चतुर्मासकं स्थिताः । तत्र व्याख्याने सर्वः कोऽप्येति । तत्र ठकुरतिहुणपालपुत्री कुमारादेवी मात्रा सह व्याख्याने आगता । परं विधवा । अथ गुरूणां व्याख्यानान्तरे तरुण्यां विश्रामो दृष्टेः स्थितः । मन्त्री आशराजो देशनान्ते गुरूनाह-भगवन् ! चन्द्रमसोऽङ्गारवृष्टिर्न स्यात्, परं पूज्यानां दृष्टिः कुमारादेव्यां किमासीत् । निर्बन्धेन पृष्टा अवदन्[Ps. यदेषा विधवा ] अस्याः कुक्षावेकादशरत्नानि सन्ति । पुत्र ४, पुत्री ७; पुत्रद्वयं लोकोत्तरम्-इति श्रुत्वा तिहुणपालस्योलगा प्रारब्धा । तेन आवासलेखकवही दत्ता। ग्रासः कृतः । आसंघे जाते तया पुच्या सह प्रीतिरभूत् । मात्रा ज्ञातवृत्तया वाहिनीमर्पयित्वा सपुत्रीकः प्रहितः । स्तम्भतटे गतः । तत्र पुत्रा जाताः। लूणिग-मल्लदेव-वस्तुपाल-तेजपालाः । पुश्यः सप्त । धर्मविधाने भुवनच्छिद्रपिधाने विभिन्नसन्धाने । सृष्टिकृता नहि सृष्टः प्रतिमल्लो मल्लदेवस्य ॥' . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे पृष्टम् । पूज्यैरिति भणितम्-अस्याः कुक्षौ पुत्ररत्नद्वयमतिशायि विद्यते, यजिनशासनप्रभावकं [स्यात् ] ! अन्यदाश्वराजे साधुमदनपालसमीपे उपविष्टे सति तस्य लेखकं न मिलति । व्यवहारिणो लेखक मेलयित्वा समर्पितमश्वराजेन । ततस्तस्स द्रम्मौ द्वौ दिन प्रति ग्रासे कृत्वाऽऽत्मपार्श्वे स्थापितः । पुत्री गृहव्यापारे मुख्या । कदाचिदुभयोः स्नेहो जातः । मात्रा वृत्तान्तं ज्ञात्वा द्रव्यदशसहस्राणि समर्प्य प्रेषितौ सोहालकनाम नगरम् ( Ps. 'मंड5 लीनगर्यां गतः।' पुनरस्मिन्नेव सङ्ग्रहेऽन्यत्र 'स्तम्भतीर्थे गतः' एतल्लिखितं लभ्यते)। आसराजस्य चत्वारः पुत्राः-मत्री लूणिगो १, मल्लदेवोऽपरः २, वस्तुपालस्तृतीयः ३, चतुर्थस्तेजपालः ४ । पुत्र्यः सप्त-साऊ १, भाऊ २, माऊ ३, धनदेवी ४, सोहगा ५, वयजूका (तेजूका Ps.) ६, पद्मलदेवी ७। (१४५) श्रीवस्तुलस्य पत्नी ललितादेवीति विश्रुता जगति । तेजःपालस्य तथाऽनुपमदेवीति सत्कान्ता ॥ 10 लूणिग-मल्लदेवौ अल्पायुषो जातौ । क्रमेण आसराजः पुत्राभ्यां सह धवलकमागतः। तत्रावासः कृतः। सुतावुभावपि व्यवसायं कुरुतः । इति आसराजप्रबन्धः ॥ ६११७) इतो व्याघ्रपल्लीयो राणक आनाको भीमेनापमानितो देशसीमनि गतः । परिग्रहेणाकारितो नायाति । राज्यं विनष्टम् , आगत्य किं करोमि । परं पदातिमात्रः सन् ऑलगां करिष्यामि-इति पत्तने समायातः। तत्सुतो लूणपसानामा भस्त्रकवरोऽस्ति । *तस्य द्वे कान्ते । वीरम-वीरधवलौ सुतौ । इतो लवणप्रसादेन 15 वीरममाता सपुत्रापि त्यक्ता । सा मेहतावास्तव्येन त्रिभुवनसिंहकौटुम्बिकेन धृता । लवणप्रसादस्तन्मारणाय तस्य गृहे सन्ध्यायां प्रविष्टः । इतः कौटुम्बिकः कान्तया वैकालिकायोपवेशितः । तेनोक्तम्-वीरमः क । तया प्रोक्तम-कापि रन्तं गतः। तेनोक्तम-आकारयत. तं विना नाहं भोक्ष्ये। तया निर्बन्धादक्तोऽपि न विशति । इतो लवणप्रसादेन चिन्तितम्-अनेन मम कान्ता धृता, परं मे पुत्रेण सह बाद स्नेहवानसौ । अतः कथं हन्यते । इति विचिन्त्य प्रकटो जातः । तेनाभ्यार्थितः कस्त्वम् । स्वभावे उक्ते तयोमिथः प्रीतिर्जाता । स लवणप्रसादस्तेन 20 भोजितः। वस्त्रादि दत्त्वा प्रहितः । इतः स क्रमेण भीमदेवेन राणकः कृतः (B. Ps. प्रधानः कृतः राणिमा दत्ता) स राज्यचिन्तां कर्तुं प्रवृत्तः। [B. Ps. नृपस्तु स्वयं विकलः । अथ लवणप्रसादेन] राज्यमात्मायत्तं कृतम् । इतो राज्ञि दिवं गते स एवाधिपो जातः। वीरमः खसमीपमानीतः। वीरधवलस्स कुमारमुक्तौ धवलकं दत्तम् । तस्य प्रिया जइतलदेवी। [Ps. पुत्रस्नेहेन लवणप्रसादो धवलक्कपुरे घनं तिष्ठति । पत्तने अमात्याः कर्णवारां कुर्वन्ति ।] 25६११८) इतो वस्तुपाल-तेजःपालौ हट्ट मण्डयतः। तेजःपालस्य राणकेन सह प्रीतिर्जाता। राजकुले वस्त्राणि पूरयति । अथ एकदा देवपत्तने ठ० धरणिगस्तेजःपालस्य श्वशुरोऽनुपमदेवीजनकः । तेन वपुत्री अनुपमदेवी श्वशुरकुले प्रहिता । तया गृहमागतया सर्व वस्तु ज्येष्ठप्रभृतिकुटुम्बस्स दर्शितम् । तत्र कपूरस्य सर्वोऽपि शृङ्गारः। वस्तुपालस्तेजःपालमाह-आवां वणिमात्रौ । एष ईश्वराणां स्वामिनां वा योग्यः शृङ्गारः। यदि वधूविचारे आयाति 'तदा राणकपन्यै दीयते । अनुपमयोक्तम्-स्त्रीतनुर्भायत्ता, आभरणानां तु का कथा । ततो राणकं निमव्य _ * एतदन्तर्गतं वर्णनं Ps. आदर्श नास्ति । । एतदन्तर्गतं वर्णनं Ps. आदर्श परित्यक्तम् । 1 B तदा देव्यै जयतलदेव्यै उपायनीक्रियते। * एतदन्तर्गतपाठस्थाने B आदर्श एतादृशः पाठः प्राप्यते-"अनुपमदेव्योक्तम्-स्त्रीणां शरीरं भर्तुरायत्तमाभरणानां तु का कथा। विशेषतो यच्छध्वम् । वस्तुपालः प्राह-यगाणकं भोजनाय सपत्नीकं निमंत्र्य भोजय। तथा कर्तुं गते वस्तुपालो हट्टे गतः । राणकः प्राप्तः । भोजितश्च। आभरणे दर्शिते देवी प्राह-स्वामिन् ! इदमाभरणं अद्ययावत् न दृष्टं न श्रुतम् । तदा गृह्णामि यदि मुद्रां तेजःपालो गृह्णाति । भवत्वेवं समापीष्टमिदम् । तेजःपालेनोक्तम्-वृद्धभ्रातरं पृच्छामि । प्रष्टुं गतोऽट्टे । भ्रात्रोक्तम्-किं मुद्रया । यदि ददात्येव तदेति वक्तव्यम्यट्टिप्पा कारयत । यत्तत्र भवति तदर्पयित्वा शेषमादाय वयं मोच्याः। एवमस्तु । इत्युक्त्वा मुद्रा समर्पिता। व्यापारो जातः । तदनु कूर्चालसरस्वतीत्येवंविधानि बिरुदानि पच्यमानैाह्मणैर्मक्षिकाजालमिव वेष्टितः । अनन्तबन्धनं कृतम् । एकदा कुलगुरवः श्रीविजयसेनसुरयो वन्दा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। भोजयित्वा तद्दत्तम् । देव्यै दातुं राणो लमः। तयोक्तम्-एतयोः स्वमुद्रा देया । ततो वृद्धभ्रातरं पृष्ट्वा गृहटीपां दर्शयित्वा मुद्रा गृहीता। ६११९) तदनु वस्तुपालो [Ps. कूर्चालसरस्वती-इत्येवंविधानि विरुदानि पठमानैः ] ब्राह्मणैाप्तः । [Ps. अनन्तबन्धनं कृतम् । ] एकदा कुलगुरुश्रीविजयसेनसूरयो वन्दापयितुमागताः । कुमारदेव्या नमस्कृताः। मत्री नागतः। मत्रिणं वन्दापयितुं गृहे गताः। मत्री द्विजावृतो गवाक्षस्थो दृष्टः । तेन नाभ्युत्थिताः, ते 5 व्याधुटिताः। मात्रा प्रोक्तम्-मत्रिन्! ते अतीव ईदृशी विग्रता यत्कुलगुरवोऽपि आगता न ज्ञाताः। ततो मत्री धावितः। अभ्यर्थ्य नीताः। तत्र तैरुक्तम्-आशराजतनूजस्य गेहं न किन्तु मद्यपगृहम् । किमति [Ps. B. गुरुभिरुक्तम्-वयं ठकुरचण्डप्रसाद-सोम-आसराज-तनूद्भवस्य कुमारदेवीकुक्षीसरोजराजहंसस्य श्रीवस्तुपालस्य गृहं मत्वा समायाताः । परमग्रे मद्यपगृहं दृष्टम् । मत्रिणोक्तम्-एकवेलं मध्ये पादाववधारयत । स्वकरेणासने दत्ते उपवेशिताः । सप्रश्रयमुक्तम्-प्रभो ! मे गृहे श्रीमद्गुरुभिः किमयुक्तं दृष्टम् ? । एतच्छृणुत-] 10 (१४६) जीवादिशेति पुनरुक्तमुदीरयन्तः कुर्वन्ति दास्यमपि वण्ठजनोचितं ये। तेष्वेव यद्गुरुधियं गुरवोः विदध्युः सोऽयं विभूतिमदपानभवो विकारः॥ भगवन् ! एवं भवति यदि सारा न क्रियते । शिक्षां यच्छत । [Ps. आदावनन्तमपाकुरु । तसिन् दूरीकृते, तव कुले कोऽपि माहेश्वरो न जातः। अतः श्रावकत्वमङ्गीकुरु ] आदावनन्तोऽपाकृतः । ततः श्रावकत्वं जातम् । पूजानिश्चयमकार्षीत् । (१४७) *सोऽयं कुमारदेवीकुक्षिसरःसरसिजं श्रियः सदनम् । श्रीवस्तुपसचिवोऽजनि तनयस्तस्य जनितनयः॥ (१४८) विभुता-विक्रम विद्या-विदग्धता-वित्त वितरण-विवेकः । यः सप्तभिर्विकारैः कलितोऽपि बभार न विकारम् ॥ ६१२०)॥ अथ देशस्तोको वीरधवलस्य व्ययो बहुः। इति मत्वा तेजःपाल पत्तनोपरि गन्तुकामं राणकं 20 निषिध्य स्वयं गतः। तत्र सभायां श्रीलूणप्रसादेन कुशलं पृष्टम्-कुमारः किमिति नागतः १ । देव ! श्रीवीरधवलेन देवगिरेरुपरि बीटकं याचितमस्ति । कथम् ?-व्ययो बहुः । अतो देवगिरेरुपरि कटकार्थी । तं विना व्ययो न सम्पद्यते । राणकेनोक्तम्-यदि तत्र गतः [हतः] स, तर्हि व्ययं कः कर्त्ता ?। केन दत्तेन तिष्ठति ?-देव ! स्तम्भतीर्थेन । व्यापारिणः पृष्टाः-तस्य किमायपदम् ? । तैरुक्तम्-द्रम्माणां सहस्र ३०, वाहण (B शत?) ३२। राणकेनोक्तम्-यदि तेन पुरेण दत्तेन धनी भवति तर्हि दत्तम् + । महाप्रसादमुक्त्वा तेजःपालो धवलकमागतः125 राज्ञा पृष्टम-किञ्चिल्लब्धम् । स्तम्भतीर्थम् । किं तेन ?-मया तव लङ्का दत्ता, परं न खाद्यते न पीयते। सर्व भव्यं भविष्यति-इत्यक्त्वा मत्रिणं वस्तपालमश्ववारैः पञ्चाशद्धिः (५०), पत्तिभिः शतद्वयेन (२००) स्तम्भ 15 पयितुमायाताः । मं० कुमारदेव्या नमस्कृताः । उक्तम्-मन्त्री नाययो?। मत्रिणं वन्दापयितुं गृहे पादमवधारयत । गुरवस्त्वावासं प्राप्ताः । उपरितनभूमौ गताः। तत्र गवाक्षस्थो मन्त्री द्विजैर्वेष्टितो दृष्टः । तेनाप्यनभ्युत्थिताः । पश्चाद्वलिताः। अथ मात्रोपर्यागत्य प्राह-मन्निन् ! भव्यमिदम् । एवं तेऽञ्जनं यद् गुरूनप्यागतानोपलक्षयसि । मन्त्रिणा जन प्रहित्य स्थापिताः । गवाक्षादुत्तीर्य गतो नत्वावादीत्-प्रभो! कथं पदमवधारिताः, न्यावृत्ताश्च । गुरुमिरुक्तम्-वयं ठक्कुर चंडप-चंडप्रसाद-सोम-आशराजतनूद्भवस्य कुमारदेवीकुक्षिसरोराजहंसस्य श्रीवस्तुपालस्थावासं मत्वा समायाताः । परमग्रे मद्यपगृहं दृष्टम् । मत्रिणोक्तम्-एकवेलं मध्ये पादमवधारयत । स्वकरेणासने दत्ते उपवेशिताः । सप्रश्रयमुक्तम्-मद्गुहे श्रीमद्गुरुभिः किमयुक्तं दृष्टम् ? । एतच्छृणुत-"जीवादिशेति।" 1 Bधनिनो। 2 B ऽपराधः। 3 B आदौ देवपूजानिश्चयमकार्षीत् । 4 B तदनु क्रमेण व्रतमूलो धर्मश्च । B *आदर्श एष श्लोको नास्ति । एतत्समग्रं १२०) प्रकरणं Ps. आदर्श परित्यक्तमस्ति । || B राजसभायां गतेन राणको नमस्कृतः । राणकेन कुशलप्रश्नपूर्वकमुक्तम्-वीरधवलः किमिति नाययो?। + B यदि स्तम्भतीर्थेन ऋद्धिमान् भवति तदा तदस्तु । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे तीर्थ [प्रति] प्राहिणोत् । मन्त्री तत्र गतः। नियोगिभिरुक्तम्-आदौ सईदगृहे गम्यते, तदनु उत्तारके । मत्री अनाकर्ण्य स्वोत्तारके गतः। तदनु सईदोऽपि मिलितुमागतः। मत्रिणं न[ त्वोपविष्टः। मत्रिणा तादृक् सम्भाषणं न कृतं [ परं] स्तोकं गौरवं कृतम् । यतः(१४९) *नयणिहिं रोसु निवारि वयणिहिं वरिसइ अमिअ रसु। तलि दोरउ संचारि करि कांई जन वीसरइ ॥ इतो द्वितीयदिने मत्रिणा सईदो व्याहृतः । जलमण्डपिका द्रम्माणां लक्षैस्त्रिभिर्याच्यते । सईदेनोक्तम्-अर्पयतान्यस्य मया त्यक्ता । द्वितीयदिने उक्तम्-स्थलमण्डपिका द्रम्माणां लक्षपञ्चकेन याच्यते । तेनोक्तम्-ददत । सापि त्यक्ता । अपरेष्वपि व्यापारेषु स्वमनुष्यान् मुमोच । इतः सईदेन स्वमित्रं भृगुपुराधिपतिः सण्डेराजः शङ्खलु (B खंडेराजः सांखलउ) आकारितः। स जलमार्गेणाश्वसहस्र २, मनुष्यसहस्र ५ समानीय समुद्रतटे 10 समुत्तीर्णः । इतः सईदेन मत्री व्याहृतः । शङ्ख समायातोऽस्ति, किश्चिद्दत्त्वा प्रेष्यते । मत्रिणोक्तम्-असाकं द्रव्यं न हि । त्वद्गृहेऽस्ति; त्वं देहि । मदीये युद्धमेव । तर्हि चलत, यथा युध्यते । मत्रिणोक्तम्-त्वं स्वपरिकरेण ब्रज, वयं तु खपरिकरेण यास्यामः । मत्री अश्ववार ५० मनुष्यशतद्वयेन बहिर्निर्गतः । बलद्वयं बहिर्निर्गतम् । इतो मत्रिणा राजपुत्रा व्याहृताः । कः पूर्वमुत्थापनिकां विधास्यति । तदनु चालुक्येन (B चौलुक्यवंशजेन) भुवनपालेन बीटकं याचितम् । मया शङ्खो वृतः । केनाप्युक्तम्-मृतस्य किं प्रासादं करिष्यति मत्री ? । स किञ्चि15 क्षुब्धः। मत्रिणोक्तम्-यदि ते विरूपं भवति, तदा तव मानुषाणि निर्वाहयिष्ये प्रासादं च कारयिष्ये । ततस्तेनाश्वोत्थापितः-रे! यः शङ्ख स मे पुरो भवतु । तदनु एकेनाश्ववारेणोक्तम्-अहं शङ्खः । स भल्लेन हत्वा पातितः। अपरेणोक्तम्-सोऽपि पातितः । एवं षण्मारिताः। इतः शङ्खशरीरे गत्वोक्तम्-अहो मया ज्ञातम् । भृगुपुराधिपः शङ्ख एक एव । परं समुद्रस्य तीरभावादहवः । अहं हत्वा हत्वा श्रान्तोऽसि । ततः पत्तिभिस्तुरङ्गं हत्वा पातितः। शङ्खन चिन्तितम्-मम षण्मारिताः, अस्य त्वेकः । फलं न किमपि विमृश्य निवृत्तः । सईदेनोक्तम्-यदपि तदपि 20 दत्त्वा प्रहीयते । मत्रिणोक्तम्-त्वयाऽऽनीतस्त्वमेव देहि । इत्युक्ते स प्रहितः खस्थानम् । मत्रिणा भुवनपालस्य ऊर्द्धदेहिकं कृत्वा, भुवनपालेश्वरप्रासादस्तन्निमित्तं कारितः। इतो मत्रिणा तेजःपालपार्थात् अश्वशतद्वयम् , पदातिशतपश्चकम् , सौख्यासनमेकं चानायितम् । मत्रिणा पुरान्तर्वार्ता कृता-यद्राणकः श्रीवीरधवल एति । इति सम्मुखो निःसृतः । सईदोऽपि बहुना परिवारेण निःसृतः । आच्छादितं सुखासनम् , परं राणको न दृष्टः। उत्तारके गतो दर्शनं दास्यति । तत्रापि दर्शनं न लब्धम् । ततः सईदेन भीतेन पुनः शङ्खः समाहूतः । यद् युद्ध25 सजैर्भूत्वा समागम्यम् । अश्व सहस्र २, मनुष्यसहस्र १० दशकेन समाययौ । समुद्रादुत्तीर्य तटे स्थितः । मत्री खपरिकरेण बहिनिःसृतः। मत्रिणा शङ्खस्य कथापितम्-यत्त्वं बलवानसि, क्षत्रियोसि, अहं वणिग्मात्रम् । तत आवयोर्द्वन्द्वयुद्धमस्तु । सोऽत्यर्थ बलवान् 'हृष्टः सन् काहले मत्रिणा सह प्रहर २ अयाचत् । सैन्ययोस्तटस्थयोर्युद्ध भवति । एवं दिन ३, चतुर्थदिने प्रहरैकसमये मत्रिणा पाश्चात्यस्थेन जानुना लत्तादानात् शङ्खः पातितः । तत्कालं शिरश्छेदमकरोत् । ततः शङ्खसैन्यं हताहतं नष्टुं लग्नम् । अश्वाधादाय मत्रिणा मुक्तम् । तस्मिन् हते सईदो नंष्ट्वा 80 समुद्रमध्ये गतः। मत्रिणोक्तम्-त्वां कोऽपि न मारयति । मया शङ्खो हतः, त्वं व्यवहारी कथं नष्टः १ तेनोक्तम् यदि मे जीवेऽभयं ददासि तदाऽऽगच्छामि । मत्रिणा तथेति आहूतः। भोजनार्थ गृहे आकारितः। अङ्गमईकैरङ्गानि टालितानि । [तेनोक्तम्-मत्रिन् ! किमिदम् । मयोक्तम्-न मारयिष्यामि जीवन्तं मोक्ष्यामि । ततस्त्वं जीवबसि] जीवन्मुक्तः स्वयमेव व्यथया मृतः । इतस्तस्य गृहे मनुष्याणि मुक्तानि । धवलक्के कथापितम्-यत्सईदो हतस्तस्य सर्वस्वं राजकुले [नीतम्] । परं महान् व्यवहारी तस्य गृहधूलिममास्तु । मत्रिणोऽग्रे केनाप्युक्तम्___ * P आदर्श एतत्पद्यं नास्ति । । एतदन्तर्गता पंक्तिः P आदर्श पतिता। 1 एतदन्तर्गतः पाठः परित्यक्तः P आदर्शे । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः । यत्सईदस्य वाहनानि एकदा दोलायितुं प्रवृत्तानि । वस्तुवापनि (?) कृता अग्रे घू(धू?)नि भणित्वा रेणुः क्षिप्ता । गृहगतेषु पृष्टम्-किमायातम् ? । बह्वी लक्ष्मीः । तेनोक्तम्-समुद्रस्य रेणुरपि श्रेष्ठा । वखारि ता । एकदा दीपो रूमञ्जयां लग्नस्तस्य तापेन रेणुः स्वर्णीभूता । स वृत्तान्तो मत्रिणा श्रुतः । अतो याचिता । राणकेन दत्ता । गृहे टीपिः कृता । द्रव्यं स्वर्ण च दुकूलमौक्तिकादि प्रहितं राणकपार्श्वे । मत्री गतः । तत्र कविभिरुक्तम् (१५०) मिलिते तद्दलयुगे तस्मिन् शङ्ख च चूर्णतां याते। __ श्रीवस्तुपालमनिन् ! महीमुखे कोऽपि नवरङ्गः॥ ६१२१) एकदा भ्रातरौ आलोचे उपविष्टौ । द्रव्यं क सात्यते ?-एवं विमृश्यतोः मध्यं दिनं जातम् । इतोऽनुपमदेव्या चेटी प्रहिता-उत्सरं जातं देवताऽवसरस्य । तया अलब्धप्रत्युत्तरया खयमेत्य जगाद-अद्य कोऽयमालोचः १ । यदि कथनयोग्यो भवति तदा कथयत । इतस्तेजःपाले ईष्योपरे मत्रिणोक्तम्-वत्स! मा कुप! इयमति दक्षाऽस्ति, बुद्धिः पृच्छयते । .... (१५१) असकृन्मूर्खमप्यन्यं पृच्छेत् कार्ये समुद्गते । ___ चपला मनसो वृत्तिवृद्धानपि हि मुह्यति ॥ पृष्टम्-असाकं श्रीायेनान्यायेन वा जाता। अस्याः स्थानमवलोकयावः । भूगता क्रियते जनवेश्मसु वा मुच्यते । किमपि गृहे नायाति । तया व्याहृतम्-यदि मे बुद्धिः क्रियते तदाऽक्षया स्यात् । सर्वः कोऽपि प्रकटां च पश्यति कोऽप्यात्तुं न पारयति । कथम् । प्रासादाः कार्यन्ते । उपरि स्वर्णकलशान् दत्त्वा, प्रशस्तौ द्रव्यं 15 सङ्ख्यते । सर्वः कोऽपि वाचयति, अत्र इयद् द्रव्यं लग्नम् , परं काणवराटकमपि गृहीतुं न पारयति । ज्येष्ठेनोक्तम्इदं वधूवाक्यमेवास्तु । भाग्यक्षये आत्मीयाप्यन्या भवति । तदनु स्नात्वा देवताऽवसरमाधाय, भुक्तोत्तरं पौषधागारे गतौ । यद्गुरवो वक्ष्यन्ति सैवोपश्रुतिर्नः प्रमाणम् । गुरवो नमस्कृताः। तैर्भणितम् । (१५२) कोशं विकाशय कुशेशयसंसृतालिं प्रीतिं कुरुष्व यदयं दिवसस्तवास्ते । दोषोदये निविडराजकरप्रपातध्वान्ते समेष्यति पुनस्तव कः समीपम् ॥ नमस्कृत्योत्थितौ बहिर्निर्गतौ । विमृष्टम्-आवयोरुत्तरकालो न भव्यः। अतो द्रव्यं व्ययितुं लग्नौ । [Ps. स्थाने स्थाने सत्रागार-प्रासाद-पौषधशाला पारेभाते । वर्षमध्ये वार ३ संघार्चा । यति १५०० विहरणम् । $१२२) एकदा मत्री सुप्तोत्थितः पाश्चात्ययामिन्यां चिन्तयति(१५३) आशाराज इहाजनिष्ट जनको यस्य प्रशस्यावधि ये......कुमारदेव्यथ कृती श्रीम............जः। तेजःपाल इति प्रधाननिवहेष्वेकश्च मन्त्रीश्वर स्तजायानुपमा गुणैरनुपमा प्रत्यक्षलक्ष्मीरभूत् ॥ (१५४) तेजःपालोऽनुशास्ति प्रवरतरमतिवीरराजस्य राज्यं सामग्रीयं समग्रा खजनपरिजनोत्साहसम्पत्तिभिश्च । एवं पुण्यैर्दिनं मे पुनरसमयतः खेदमग्नो जनोऽयं तद्गुर्वादेशमाप्य स्फुरितमतिरसावद्भुतं कर्म कर्तुम् ॥ ___ इति विचिन्त्य यावद्वारशालायामागत्योपविष्टः, तावद्द्वारपालेनोक्तम्-मत्रिन् ! श्रीपत्तनाद्गुर्वाशीर्वादकरो नरो दर्शनम[भिलपति] । प्रवेशय । स नरः समेत्य प्रणामपूर्वमाशीर्वादं करेणोदः । पु०प्र० स०8 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे (१५५) मन्त्रीश! गुरवस्तुभ्यं स्वस्ति विस्तारयन्तु ते। योग्यं त्वामेव विज्ञाय यैरिह प्रेषितोऽस्म्यहम् ॥ मत्रिणा ससम्भ्रममुत्थानपूर्वक करावायोज्य पत्रकं जगृहे । शिरसि निवेश्यावाचयत् । तत्र कुशलप्रश्नपूर्वमिदमाशीर्वादमवाचयत् अमुष्मिन् यः काले किशलयति कर्माद्भुततरं० ॥ तथा- (१५६) मुनीनां को हेतुर्जरठकठिनत्वव्यपगमे भवेद्भूषा येषां खजनपरिहारव्यतिकरः। __परं धन्यास्तेषामपि वितनुते केऽपि मृदुतां शितां शीतांशुर्यो जनयति यतश्चन्द्रदृषदाम् ॥t 10 महामात्य! १२७६ एष संवत्सरोऽतिनीतः (Ps. तीव्रः)। समयवशेन वर्ष २८ श्रीशत्रुञ्जय-गिरनारयोर्वम केनापि न वाहितम् । [Ps. मत्रिपदं विना मण्डली वारमेकं गतः नापरः। तत्र यात्रार्थे यतनीयमिति । श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं चैवम्*(१५७) अत्रास्ति खस्ति शस्तः क्षितितलतिलको रम्यताजन्मभूमि देशः सम्पन्निवेशस्त्रिभुवनमहितः श्रीसुराष्ट्राभिधानः । यस्योचैः पश्चिमाम्भोनिधिरपहरते लोलकल्लोलपाणिः __ प्रस्फूर्जत्फालफेनोल्बणलवणसमुत्तारणैर्दृष्टिदोषान् ॥ तत्र तीर्थानि(१५८) श्रीशत्रुञ्जय-रैवताभिधगिरिद्वन्द्वेऽत्र यात्रोत्सवं दानब्रह्मतपःकृपाकृतरतियः सन्मतिः सेवते । तीर्थत्वातिशयेन नारकगति तिर्यग्गति च ध्रुवं नो कस्मिन्नपि जन्मनि स्पृशति स प्रध्वस्तदुष्कर्मतः॥ (१५९) फणिपति-मघवाद्या यत्र देवाः समेयुभरत-सगरमुख्याश्चक्रिणः क्षोणिशकाः। नमि-विन मिमुखास्ते सर्व विद्याधरेशा दशरथसुत-कुन्तीनन्दनाद्याश्च भूपाः॥ (१६०) एषु श्रीजयसिंहदेवनृपतिस्तीर्थेषु यात्रां व्यधात् सिद्धः प्रोद्धरधर्मभूधरशिरकोटीररत्नांकुरः। राजर्षिस्तु कुमारपालविपुलापालः कृपालु: कलौ कृत्वा सङ्घमिहोपदेशवचसा श्रीहेमसूरिप्रभोः ।। (१६१) सङ्घो वाग्भटदेवेन तथा चक्रेऽत्र मन्त्रिणा । भविष्यतामतीतानामुपमानं यथाऽभवत् ॥ 80 तेषु तीर्थेषु दुष्कालवशात्(१६२) लायूहद्धकरङ्ककुट्टनरता मार्दङ्गिकाः स्युर्वका घका घर्घरघोरघोषविषमं गायन्ति नीडस्थिताः। सभ्य(द्यः?)व्याघ्रवितीर्णमांसविघसा नृत्यन्ति नित्यं शिवाः फेरूणामिह बन्दिनां कलकल प्रेक्ष्योत्सवः स्यादिति ॥ 1 एतदन्तर्गताः पंक्तयः Ps आदर्श न विद्यन्ते । * Ps तीर्थयोर्माहात्म्यं शृणु । 25 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः । ५९ (१६३) नियउयरपूरणासा जणणी पुत्तं चएइ विलवंतं । मणुयाणि माणुसेहि निसायरेहिं व खजति ॥ (१६४) पिल्योपमसहस्रैकं ध्यानाल्लक्षमभिग्रहात् । दुष्कर्म क्षीयते मार्गे सागरोपमसंज्ञके ॥ (१६५) शित्रुञ्जये जिने दृष्टे दुर्गतिद्वितयं क्षिपेत् । पल्योपमसहस्रं तु पूजा लात्रविधानतः॥ अत एवंविधानि तीर्थान्यपूजानि यात्रायै यतनीयम् । ६१२३) तदनु मत्रिणाऽभाणि-गुरूणामाकारणं प्रेष्यते । आनायिताः । शुभ मुहूर्ते देवालयः प्रारब्धः । सर्वदेशेषु कुङ्कुमपत्र्यः प्रहिताः । (१६६) वाहनौषधिपाथेयसहायवृषभादिकम् । यद्यस्य नास्ति तत्तस्मै सर्वं देयं मया मुदा ॥ [Ps. इति श्रुत्वा महर्द्धयो] लोका यात्रायै मिलिताः । इतः कलिगलगर्जितमकरोत् 10 (१६७) 'रे रे वातूललोकास्त्यजत निजनिजं सर्वथा धर्मकृत्यं कार्य चेज्जीवितव्यैरिह कलिसुभटः क्रुद्ध एवास्मि यस्मात् ।' -'नित्यं श्रीसङ्घलोकाः कुरुत नवनवं निर्भया धर्ममेष प्राप्तोऽहं वस्तुपालः कलिनृपहृदये निर्दयं न्यस्य पादम् ॥' (१६८) 'किमिह कलिनरेन्द्रं नैव जानाति सोऽयं यदनुचितमिवोचैर्धर्मकृत्यं तनोति। 15 'अमुमनुपमसत्यं धर्मकम्मैककृत्यं कलिकवलनकालं वेत्ति नो वस्तुपालम् ॥' (१६९) गुरवः परःशतास्ते पर सहस्रश्च साधवः सुधियः । - गृहिणस्तु परोलक्षाः सङ्घ श्रीवस्तुपालस्य ॥ जने मिलिते शुभ लग्ने प्रस्थाने जायमाने.........कश्चिदाह(१७०) कान्ते कान्ते शीघ्रमागच्छ शीघ्रम् . आएसं मे देहि इत्थम्हि णाह। 20 कीदृग रम्यं पश्य देवालयं त्वम् १. धन्नो मंती कारियं जेण एयं ॥ [Ps. इतः सङ्घपूजार्थ पूर्व देवालयो रथे स्थापितः। उपरि च छत्रत्रयं धृतम् । चामराणां व्यजनमविधवामिः कृतशृङ्गारामिः प्रारब्धम् । कृतशृङ्गारौ घुर्घरमालादिना कौसुम्भवस्त्रैश्च धृतौ वृषभौ । मार्गणजनैः प्रारब्धः कीर्तिकोलाहलः । मिलिता मत्रिणामनु अश्ववाराणां सहस्राः । प्रारब्धं स्त्रीजनेन गीतम् । वादितानि मेर्यादीनि मङ्गलतूर्याणि ।] एवं चलति देवालये दक्षिणदिग्भागे दुर्गा जाता । मत्रिणोक्तम्-स्थिरीभवत 125 तत्रैको मारवः क्षत्रियो मत्रिणा पृष्टः-भो एषा किं वक्ति । देव ! इयं नूतनगृहे निष्पद्यमाने द्वारशाखोपरि स्थिता मुदिता खरं विधत्ते । तत्र सार्द्ध बार घर ( Ps. द्वादश घरेण) उपविष्टास्ति । भवतामित्थं १२ ॥ यात्रा. भविष्यन्ति [Ps. एषा प्रथमा तासां मध्ये ।] तदनु बहुसूरीणामनुमतं सप्तशतानि देवालयानामग्रे चलन्ति । [Ps. कुहाडीया ५००, कुदालीया ५०० मार्गसारणाय । शकट ४०००, सुखासन ७००, श्रीकरी १९००, सूरीणां ३३३, वतिनां २२००, क्षपणक ११००, भट्ट ३३००, देवाला ६४, वाहिनी १८०, जैनयाचक 30 ४५०, तुरंगम ४०००, मनुष्य एवं कारइ ७०००० एवं सामग्र्या चचाल ।] परतीथिकान् कन्दलं कुर्वाणान् चारयन्ति । एवं श्रीसङ्घः शत्रुञ्जयाधो व पनिकानि कृत्वोपर्यारूढः । तत्र__ (१७१) पहाणं कुंकुमकद्दमेहि विहियं कत्थूरिआहिं कयं चंगं अंगविलेवणं विरइआ पुप्फेहिं पूआ वरा। + एषा गाथा Ps. आदर्श एवं उपलभ्यते। + इदं पद्यद्यं Ps. आदर्श नास्ति । 1 Ps. ईदृशे दुःकाले तीर्था। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे रंभाविन्भमलालसेहिं ललनालोएहिं नह कयं देवेसस्स महाधया सुहमया प{सुएहिं कया ॥ तित्र देवविज्ञप्तिः(१७२) आस्यं कस्य न वीक्षितं क न कृता सेवा न के वास्तु]ता. स्तृष्णापूरपराहतेन विहिता केषां च नाभ्यर्थना। तत् त्रातर्विमलादिनन्दनवनीकल्पैककल्पद्रुम! त्वामासाद्य कदा कदर्थनमिदं भूयोऽपि नाहं सहे ॥ मुत्कलापनकाव्यम्(१७३) श्रीगोष्मभिरुष्मलेषु धनिनामीानलज्वालया जिह्वालेषु मृगीदृशामनुशयाद्भूमायितेषु द्विषाम् । वक्रेषु ग्लपितामिमां त्रिजगतीं निस्तन्द्रचन्द्रोदये देव! श्रीविमलाद्रिकेतन ! कदा दास्ये त्वदास्ये दृशम् ॥ [Ps. एवमारात्रिकं कृत्वा श्रीजिनं मुत्कलाप्य] तले साधर्मिकवात्सल्यं सङ्घपूजादिकं च विधाय रैवतो- परि ततश्चचाल । 15६१२४) [Ps. इतः केनापि चरटकेन दुर्गबलात् सङ्घमध्ये चौरिकी कृता । मत्रिणा स प्राकारो रुद्धः। उक्तं च (१७४) मह वयरियस ठाणं विओं त्ति अवराहकारणं एयं । पायारं परिचुन्निय संघं संचारइस्सामि ॥ इत्यभिधाय दुर्ग चूर्णयित्वाग्रे प्रस्थितः।] कियद्भिः प्रयाणकैर्जीर्णदुर्ग प्राप । जीर्णदुर्गेऽष्टादशप्रासादेषु चैत्यपरिपाटीं कृत्वा (Ps. जीर्णदुर्गोपकण्ठे खयं वासिते तेजलपुरे आवासान् दत्त्वा कुमारदेवीसरसि स्नात्वा स्वयं 20 कारितश्रीपार्श्वनाथचैत्ये महिमां विधाय) यावत्पर्वतोपरि चलितुं सन्नद्धस्तावदेकाकिनो वतिनः प्रोक्ताः-अत्र वस्त्रपथतीर्थे पद्याप्रत्यासन्ने मुण्डिके जनं २ प्रति द्रम्माः पञ्च २ याचन्ते । तान् भवतां कः प्रदास्यति ? । यथा जानीथ तथा कुरुध्वम् । तैरुक्तम्-मत्रिन् ! तवाज्ञा भवति तदा वयं वारयामः । मत्रिणा प्रोक्तम्-कुरुत यद्रोचते । पृष्ठिरक्षकोऽहम् । ते सजीभूय पूर्व चलिताः । भरटकैरुक्तम्-मुण्डकं दत्त्वा व्रजत । तैरुक्तम्-मुण्डे केशाः सन्ति । तेऽग्रेऽपि दत्ताः। भवतां किं दद्मः ? । तैः सह कलहो जातः। कुट्टयित्वा व्रतिभिः पातिताः। मत्रि25 णोऽग्रे रावां कर्तुमागताः। मत्रिणा व्रतिनो हकिताः-कथमेवं कृतम् ? । मत्रिन् ! इयती भूमिं यावदतिक्रम्या गताः। देवनमस्कृति विना कथं भुज्यते इति सञ्चिन्त्य चलिताः । एभिर्निषिद्धाः । देवदर्शनोत्कण्ठया कल्येऽपि न भुक्ताः । अत उत्कण्ठिताः । परं बुभुक्षिताः । एतेषां किं दद्मः । सुन्दरं न कृतम्-यत्प्रथमतोऽप्यमी रुद्धाः। ममाग्रेऽपि वार्ता न कृता । तैरुक्तम्-मत्रिन् ! देवस्य एष लागः केनाप्यपाकर्तुं न शक्यते । मत्रिणा प्रोक्तम्-मम भोजनदानावसरो न पुनद्रव्यस्य । भट्टान् द्विजान् सर्वानपि पृथक् पृथक् याचध्वम् । तैरुक्तम्-अस्माभिः 30 कथं गृह्यते । त्वयैवानुमता यच्छन्ति । मत्रिणा व्याहृतम् सर्वः कोऽपि यच्छतु, नाहं वेभि । भट्टाद्या ऊचुःकोऽसान ग्रहीष्यति स ऊर्धीभवतु । मत्रिणा ततो व्याहृतम्-यदि मम भणितं कुरुत, तदा वः कंदलं निर्वाहयामि । [Ps. एकेन ग्रामेण यदि रतिं कुरुत ।] ततस्तेभ्यो जीर्णदुर्गप्रत्यासन्नं ग्रामं वितीर्य पट्टको विदारितः । सर्वः कोऽप्युपरि गत्वा समाधिना देवं वन्दितुं लग्नः । तत्र ६ एतदन्तर्गतः पाठः Ps. आदर्श त्यक्तः। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपालतेजःपालप्रबन्धः । (१७) गम्भीरगेयभरगजिरवो सुवन्नालंकारताररुहविज्जुलयावयासो । दूराउ उन्नययरो भुवि तावहारी संघो घणु व घणदाणमिसेण वुट्ठो ॥ मुत्कलापनं काव्यम् (१७३) खामिन्! समुद्रविजयात्मज ! विश्वनाथ ! न प्रार्थयेऽन्यदिह किन्तु तव प्रसादात् । एते मनोरथमयास्तरवो मदीयास्त्वदर्शनामृतरसैः सफलीभवन्तु ॥ 5 तत्र पूजारात्रिकादि कृत्वा मन्त्री सङ्खेन सह देवपत्तनं गतः । तत्र चन्द्रप्रभ-प्रभासादिषु तीर्थेषु महिमां कृत्वा सोमेश्वराभोगं विधाय धवलकं प्राप्तो मत्री । (१७७) + लिखतु लिखतु धाता दुर्लिपिं भालभित्तौ भजतु भजतु सर्वोऽप्युग्रभावं ग्रहो वा । परमयमिह यावद्वस्तुपालः कृपालुर्न भवति खलु कष्टं विष्टपस्यास्य तावत् ॥ (१७८) या श्रीः स्वयं जिनपतेः पदपद्मसद्मा भालस्थले सपदि सङ्गमिते समेता । श्रीवस्तुपाल ! तव भालनिभालनेन सा सेवकेषु सुखमुन्मुखतामुपैति ॥ (१७९) पाणिप्रभा पिहितकल्पतरुप्रवालश्चौलुक्यभूपतिसभानलिनीमरालः । दिक्चक्रवालविनिवेशित कीर्त्तिमालः श्रीमानयं विजयतां भुवि वस्तुपालः ॥ सौरभ्यमालगुणमालतमालका...व्योमान्तरालकृतफालयशोमरालः । जीमूतकालरिपुकीर्त्तिमृणालिनीनां श्रीवस्तुपाल विजयी चिरकालमेधि ॥ - एवं कवीनां तत्र वाक्यानि । (१८०) ६१ $१२६) [$एकदा देवपत्तनात्पतितान्वया ईयुः । मत्रिणोक्तम् - देवो भव्यरीत्या पूज्यमानोऽस्ति ? । तैरुक्तम्-न । कथम् ?– (१८१) ११२५) इतो [Ps. सङ्घ सम्भोज्य, वस्त्रादिना सत्कृत्य च ] वसाह आभडतनूजं सा० आसपालं आहूयोवाच - भोः ! त्वं वसाहपुत्रः ( P वसाहमुख्यः ) सङ्घमुख्यस्तव शत्रुञ्जये किं लग्नम् ? | द्रम्म चत्वारिंशत्सहस्राणि (४००००), रैवतके त्रिंशत्सहस्राणि ( ३०००० ) । देवपत्तने किं ? । तेनोक्तम् - तत्रास्माकं तीर्थेऽधिकतरम् १ | मंत्रिणा व्यतिकरः श्रुतः । यद्गुरुणा ब्राह्मणेनोक्तम्- प्रियमेलके स्नानं तदा स्यात्, यदा पूर्वतीर्थव्ययप्रायश्चित्ते 20 लक्षं द्विजेभ्यो दुग्धेन प्रक्षाल्य ददासि । तेन स्वीकृतम् । मत्रिणा प्रोक्तम् - शत्रुञ्जय - रैवतकस्य प्रायश्चित्तग्राहके मयि सति द्विजानां कथं वितीर्णम् । यदि दण्डयिष्यामि तदा जनापवादः । परं त्वमदृष्टव्यमुखः । तव पित्रा एका कोटी, ८ लक्षाः (Ps. षोडश लक्षाः ) धर्म्मव्यये कृताः । त्वमेवं कुरुषे । त्वमपायोऽतः परं सङ्घबाह्यथ । इत्यभिधाय विसृष्टो जनः । [Ps. स मत्रिचरणयोः पतित्वा लक्षद्वयं तीर्थेषु वितीर्य सङ्घमध्येऽभूत् । विप्राणां नामानि न गृह्णाति । मत्रिणा अन्येऽपि सङ्घलोकाः सम्भूष्य सम्भूष्य प्रहिता: । ] नादत्ते भसितं सितं सचिव ! ते कर्पूरपूरं स्मरन् कौपीनेऽपि च कुप्यति प्रभुरसौ शंसन् दुकूलादिके । दिग्ध दुग्धरसैर्जलेषु विमुखः श्रीवस्तुपाल ! त्वया कर्पूरागरुमोदितः पशुपतिर्नो गुग्गुलं जिघ्रति ॥ तेषां सहस्रा दश दत्ताः । + एतानि पद्यानि Ps. आदर्श त्यक्तानि । ९ एतद्न्तर्गतं वर्णनं Ps. आदर्श एवोपलभ्यम् । 10 15 25 30 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 पुरातनप्रबन्धसङ्घहे ६१२७) एकदा मत्री तेजःपालो भृगुपुरमायातः । तत्र श्रीमुनिसुव्रतचैत्याचार्यैः श्रीरासिल्लसरिभिरुक्तम्मत्रिन् ! सन्देशकमेकं शृणुत । आदिश्यताम् । अद्य पाश्चात्ययामिन्यां वृद्धा युवत्येका समेत्य प्राह(१८२) तेजःपाल! कृपालुधुर्य ! विमलप्राग्वाटवंशध्वज! श्रीमन्नम्बडकीर्तिरद्य वदति त्वत्सम्मुखं मन्मुखात् । आजन्मावधि वंशयष्टिकलिता भ्रान्ताऽहमेकाकिनी वृद्धा सम्प्रति पुण्यपुञ्ज ! भवते सौवर्णदण्डस्पृहा ॥ इत्युक्ते मत्रिणा देवकुले देवकुलिका ७२ सहिते दण्ड-कलशाः सुवर्णमयाश्चकार । तस्मिन्कारिते तैरेव उक्तम्(१८३) कं कं देशमहं न गतः कौतुकलोभाविष्टः। त्यागी तेजः पालादपरः कोऽपि न दृष्टः॥ 10 ६१२८) अथैकदा एकोदनियोगी गले सरावं बद्धा मत्रिणमायातः । पृष्टम् । देव! द्वात्रिंशत्सहस्राः श्रीपत्तने नृपवेश्मनि देयाः। त्वां संस्मृत्यायातः । मत्रिणा सहस्र १० दापिताः । श्रीस्तम्भे भृगौ गत्वा अन्यान् द्वादशसहस्रानानीय चिन्तितम्-याजयान्ये न भविष्यन्ति ।............अग्रेऽपि गृहीत्वा पुनरपि याचन् न लजसे । तेनोक्तम्-देव! (१८४) हृदि वीडोदरे वह्निः स्वाभावादुत्थितः शिखी । इति मे दग्धलजस्य देही देहीति का त्रपा ॥ ... मत्रिणा श्रुत्वोक्तम्-कियन्तोऽवशिष्यते ? । देव! दश सहस्राः; द्वादश मिलिताः । त्वां विना शेषेभ्यः को विमोचयति । मत्रिणा दश दापिताः । पुनरुक्तम्-निर्वाहं कथं करिष्यसि ? । देव! काष्ठतृणान्यादाय वर्तिष्ये । मत्रिणा सहस्राष्टकं निर्वाहाय वितीर्य प्रहितः। ६१२९) कोपि विप्रो मत्रिसभायामागतः । मत्रिणा उपवेशित इतस्ततो विलोक्य ऊचे(१८५) अन्नदानैः पयः पानैर्द्धर्मस्थानैश्च भूतलम् । यशसा वस्तुपालेन रुद्धमाकाशमण्डलम् ॥ कुत्रोपविश्यते ? । पुनर्वदेति सभ्यैरुक्तं नववारमुक्तं खिन्नः । नव सहस्रा दत्ताः ।] ६१३०) अथैकदा वामनस्थलीवास्तव्येन यशोधरेणोक्तम् (१८६) श्रीवस्तुपाल तव भालतले जिनाज्ञा वाणी मुखे हृदि कृपा करपङ्कजे श्रीः। 25 देहे द्युतिर्विलसतीति रुषेव कीर्तिः पैतामहं सपदि धाम जगाम नाम ॥ सहस्र १० दत्तिः । पं० माधवोक्तिःसरखतीसङ्गतकान्तमूर्ति.........॥ द्रम्मसहस्र ४० दत्तिः। ६१३१) द्वितीययात्रारम्भे श्रीनरचन्द्राचार्यैरुक्तम्30 (१८७) लक्ष्मि! प्रेयसि! केयमास्यशितिता वैकुण्ठ कुण्ठोऽसि किं ? नो जानासि पितुर्विनाशमसमं सङ्घोत्थितैः पांशुभिः । मा भी रु ! गभीर एव भविताऽम्भोधिश्चिरं नन्दतात् स शो ललितापतिर्जिनपतेः लानाम्बुकुल्यां सृजन् । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः । (१८८) गौरी रागवती त्वयि त्वयि वृषो बद्धादरस्त्वं पुनर्भूत्या त्वं च समुल्लसद्गुणगणः किंवा बहु ब्रूमहे । श्रीमन्नीश्वर ! नूनमीश्वरकलायुक्तं च ते युज्यते बालेन्दुं चिरमुच्चकै रचयितुं त्वत्तोऽपरः कः क्षमः ॥ तदनु मत्रिणा पदोपवेशनं कारितम् । पातालान्न समुद्धृतो बत बलि० । इदं कङ्कणकाव्यम् । ९१३२) अथ पादलिप्सपुरे ललितादेवी श्रेयसे सरोकारयत् । (१८९) * पुण्डरीकनिव हैर्विराजितं पुण्डरीकगिरिराजसन्निधौ । वस्तुपालसचिवेन कारितं भाति यत्र ललिताभिधं सरः ॥ (१९०) दहनेन विनाशितं पुरा सचिवौ सच्चरितव्रताविमौ । अचलेश्वरनालिमण्डपं रचयामासतुरेनमर्बुदे ॥ (१९१) 1 वस्तुपालसचिवेन कारितं हैमदण्डकलशैः [ सुशोभितम् ] । [ अर्बुदाद्रि ] शिखरे मनोरमं नेमिमन्दिरमिदं विराजते ॥ ६३ For Private Personal Use Only 5 (१३३) एकस्मिन्नवसरे राष्ट्रायां स व्रजति सति अग्रेसरैरेकाकिभिर्वतिभिर्वाटिकासु मार्गस्योपद्रवे कृते 15 तपोधनिकैरेत्य मत्रिणोऽग्रे रावा कृता । मत्रिणोत्तारके कृते अनुपमदेव्यग्रे कथापितम् - यदद्य एकाकिनां विहरणं न विधेयम् । अपरे सर्वेऽपि विहृत्य गताः । अनायाते अनुपमदेव्या नगोदरं बन्धोः समर्घविच (ह?) रणं तेषां कारितम् । स्वयमवेलं भोजनार्थमुपविष्टा । मत्रिणोक्तम्- यो गृहे लघुः स बहिर्वातेन नीयते । अस्माभिः नापि हेतुना वारितम् । इत्थं कियन्ति दिनानि निर्वाहं यास्यति । तया तत्कालं स्थालं त्यक्त्वोक्तम् - यद्भवतां बालत्वे जातं तत्किं विस्मृतम् ? । किं तत् ? । धवलक्कके बसतामेकदा अवेलं तपोधनौ मार्गश्रान्तौ भवतां गृहे 20 समेत्य धर्मलाभोक्तिपूर्वं स्थितौ । तदा करुणभक्तानि समायान्ति । नापरं किमपि गृहे । सर्वः कोऽपि भुक्त्वोत्थितः । अतः श्वशुरेण नेत्रमीलनं कृतम् । श्वश्रूर्नीचैरवलोक्य स्थिता । युवामधोऽवनौ जातौ । ज्येष्ठपत्नीसहिता अहं कटिकापाश्चात्ये उपविष्टा । तपोधनौ अलब्धोत्तरौ गतौ । तदा युवाभ्यां यदुक्तं तत्किं न स्मरतः :घिगस्माकं जीवितम् । भृदङ्ग ( Ps. मातङ्ग ) स्यापि गृहे भुक्तोत्तरं प्राप्यते । वयं तेषामपि निकृष्टाः स्मः । यद्यवनिर्विवरं दत्ते तदा पाताले विशामः । अवेलमायातौ यती इत्थं व्यावृत्य गतौ । स कोऽपि क्षणो भविता 25 यत्र वयमपि किमपि कर्तुं क्षमा भविष्यामः । नूनं तद्भवतां विस्मृतम् । यदद्य ऋद्धिं प्राप्य ईदृशं विमृशत । भवतां ददतामेव श्रेयः । इति श्रुत्वा मत्री हृष्टः । इत्युक्तम् - ममाग्रे तपोधनरावा केनापि न कार्या । ततो दर्शनिभिः सर्वैः 'षड् दर्शनमाता' इति उक्तम् । तस्याः कङ्कणकाव्यमिदम् (१९२) पश्चाद्दत्तं परैर्दत्तं लभ्यते वा नवा खलु । खहस्तेनैव यद्दत्तं तद्दत्तमुपलभ्यते ॥ १३४) तया विमलाद्रौ नन्दीश्वरोद्यापने नन्दीश्वरप्रासादः कारितः । तत्रोद्यापनं कृतम् । अत्रैव विमला - 30 चलेऽनुपमसरः कारितम् । तस्मिन् भरिते केनापि चारणेनोक्तम् (१९३) भाऊ भरहिं काई सेतुंजि सर न काराविडं । जाणिउं ईई ठाइ आगइ अणुपमडी किउं ॥ * Ps. आदर्श एवेदं पद्यं प्राप्यते । एतत्पद्यद्वयं Ps. आदर्श परित्यक्तम् । 10 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ६४ 15 पुरातनप्रबन्धसङ्घहे. एकवीसवार भणनेनैकविंशतिसहस्रा दापिता मत्रिणा । १९३५) एकदा वटकूपपुरेऽलङ्कारिणः श्रीमाणिक्यसूरयः सन्ति । ते मन्त्रिणा आकारिता अपि नागताः । मन्त्रिणा स्वरूपेण कथापितम् ( १९५) मन्त्री किञ्चिद्रुषितः स्तम्भतीर्थपौषधागारं लुण्टाप्यैकत्र वस्तु दधे । आचार्यास्तदनु समायाता मिलिताः 10 मन्त्रिणः । उक्तं च-मत्रिन् ! सङ्घभारोद्धारधुरीणे त्वयि कथमस्माकं पौषधागारे उपद्रवः । मत्रिणोक्तम् - पूज्यानामनागमनमेव हेतुर्नान्यत् । पुनः सर्वमर्पितम् । संघार्चासमये तैर्व्याहृतम् (१९४) उत्प्लुत्योत्लुत्य गतिं कुर्वन् गर्वादखर्वजडबुद्धिः । वटकूपकूपमध्ये निवसति माणिक्यमण्डूकः ॥ पुनराचार्यैः प्रतिस्वरूपं प्रहितम् - गुणालीजन्महेतूनां तन्तूनां हृद्विपाटयन् । वंशार्द्धार्द्ध परिस्फूर्त्या रे पिञ्जन ! विजृम्भसे ॥ (१९६) एकं वासः सुरेशैः कृत सुकृत शतैर्जन्मकाले जिनानां दत्तं दीक्षाक्षणे वा ध्वजवसनमथो एकमेवाम्बरं च । सूर्यादीनां ग्रहाणां पुनरपि विधिना दत्तमस्मिन् क्षणेऽसौ सत्पात्रैर्भूरि यच्छन्नधरितसुरपो नन्दताद् वस्तुपालः ॥ तदनु ते पुस्तकादि दवा क्षमित्वा च प्रहिताः । ९१३६) तथा यत्र यत्र प्रासादं कारयति तत्र तत्र निधिः प्रकटीभवति । एकदा श्रीशत्रुञ्जये शृङ्गोपरि कपर्दियक्षप्रासादः प्रारब्धः । पाषाणान् विदार्थ मण्डयध्वम् । चिन्तितम् - कथमत्र निधिः प्रकटीभविष्यति । मूलादपि • टङ्किकाभिर्विदार्य पाषाणे द्विधाकृते सर्वैरप्यन्तः सप्र्पो दृष्टः । तदा मंत्री तत्रासीत् । स्वयमायातस्तदाश्चर्यविलोक20 नाय । यावत्पश्यति तावदेकावली हारः । करेण गृहीतः । सर्वैरपि दृष्टः । तत्र पपाठ कपर्द्दिस्तुतिम् - ( १९७) चिन्तामणिं न गणयामि न कल्पयामि कल्पद्रुमं मनसि कामगवीं न वीक्ष्ये । ध्यायामि नो निधिमधीनगुणातिरेकमेकं कपर्द्दिनमहर्निशमेव सेवे ॥ तदनु प्रासादः कारितः । (१३७) एकदा मत्रिणा चिन्तितम् - यं श्रीशत्रुञ्जये कर्मस्थाये मुच्यते स देवद्रव्यं विनाशयति । एवं 25 विचिन्त्य पौषधागारे श्रीविजयसेनसूरिपार्श्वे समेतः । गुरवो वन्दिताः । लघ्वाचार्याः श्रीउदयप्रभसूरयोsपि । ते तु मन्त्रिणा सप्तशतयोजनानामन्तर्यः कोऽपि विद्वान् तमानीय पाठिताः सन्ति । तपोधनानामपि पञ्चविंशतिर्नमश्चकार । तपोधनमेकं वृद्धं शान्तं नमस्कारपरावर्त्तनपरं दृष्ट्वाऽऽह - भगवन् ! देवद्रव्येण रक्षितेनोपेक्षितेन वा श्रेयः । । यदि रक्षितेन तर्ह्यमुं वृद्धं यतिं प्रसादीकुरुत । यं शत्रुञ्जये नयामि । अपरे तत्र भक्षकाः । गुरुभिरुक्तम्–न युक्तमेतत् । बलादपि मानिता गुरुवः । तैस्तपोधनाग्रे प्रोक्तम्-यन्मत्री वक्ति तत्का30 र्यम् । तेनोक्तम्-भगवन् ! दीक्षा मया निस्तारार्थं जगृहे । तत्र द्रव्याशनेन कथं मलिनयामि ! मन्त्रिणा प्रोक्तम्एतन्मालिन्यं न किन्तु भूषणम्, चैत्यद्रव्यरक्षणेन । आग्रहं कृत्वा प्रहितः । स स्वदर्शनमार्गस्थो' देवलेखकं विलो - कयति । एकदा आदेशवर्त्तिभिः खादकैरुक्तम्- भगवन् ! यूयं तीर्थमठपाः । भवतां पार्श्वे देवनमस्यागताष्ठकुरा व्यवहारिणश्चोपविशन्ति | एभिर्मलिनैजीर्णैश्चीवरैर्भव्यं न । वस्त्रमध्ये किं दूषणम् । मनोहराणि वस[ना]नि परि2 B दर्शनाचाररतः । 1 B दीक्षा नमस्कारपरावर्तनार्थे गृहीता । For Private Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः । ६५ दधत । तानि ग्राहितः । तथाकृते पुनरुक्तम् - अनेके जना भवतां सह पर्यालोचं कुर्वन्ति, तत्कथमुद्गीते वद भव्यम् ?' । पश्चात्ताम्बूलं ग्राहितः । उक्तम् - अत्र भवतां भिक्षावेला तया कर्म्मस्थायान्तरायं स्यात्, रसवतीमास्वादयतां किं दूषणम् । तल्लोलुपः कृतः । भगवन् ! विलोकयत-पादेन चङ्क्रमणं भव्यं वा सुखासनेन ? । तमपि कारितः । एकदा सुखासनस्थः पालीताणके जनैः पञ्चदशभिः सह गन्तुं प्रवृत्तः । मन्त्री कृतधौतवसनः कृतमुखकोशः पादचारेण सम्मुखो जातः । मत्रिणा पृष्टम् - के मी ? | अग्रेसरैरुक्तम् - असौ भवत्प्रहितो मठपः । 5 मन्त्रिणा सुखासनं स्थापयित्वा वन्दितः । उक्तम्-तले कार्यं कृत्वा वेगेन पादमवधारणीयम् । स लज्जितः । तत्रानशनमादाय स्थितः । उपर्याकारितोऽपि नायाति । उक्तञ्च मयाऽनशनं जगृहे । इयतां यतीनां मध्यादहं मन्त्रिणा प्रेषितः । ममाप्ययमाचारः । गुरूणां भवतां चाऽऽस्यं कथं दर्शयामि ? । अन्योऽत्र कार्यकर्त्ता वीक्ष्यः । उपरि गत्वाऽनशनं परिपाल्य दिवंगतः । मत्री तु यात्रां कृत्वा पुरमेत्य गुरूणां सकलं तद्वृत्तमाचख्यौ । [ Ps. गुरुभिः प्रोक्तम् - मातः परं कोऽपि साधुश्चैत्यद्रव्यचिन्तां करोतु । एषोऽपि ईदृशो जातः ।] ६१३८) अथ महं० अनुपमदेव्या १२९२ वर्षे पञ्चमी - उद्यापनं कृतम् । तत्र समवसरणानि २५, श्रीशत्रुञ्जयतले वाटिका ३२, रैवते १६, तेजलपुरे पौषधागार - कुमरसरः सहितं देवकुलम् । झीझरीआग्रामे प्रासादः, सरोवरम्, वापी च । लूणिगवसहीग्रासकृते डाक डमाणीग्रामद्वयं दत्तम् । तपोधनोपकरणानि नाना पात्राणि दोरु-झोलीडांडाप्र० ग्रामाणि । कोऽपि यात्राः १३ वक्ति । ( अत्र B आदर्श एतद्वर्णनं विशेषविस्तरेण लिखितं लभ्यते; यथा - ) 15 (१३९) ( तथा महं० अनुपमदेच्या १२९२ पंचमी उद्यापनं कृतम् । तत्र २५ समवसरणानि पञ्चवर्णानि कारयित्वा श्रीसूरिभ्यः प्रदत्तानि । एवं २५ महं० कुमारदेव्याः पञ्चविंशति महं० ललतादेव्या । तथा महं० आसराज - वसही कारिता मा(पि?)तुः श्रेयसे च । महं० मल्लदेव श्रेयसे मं० लूणिगश्रेयसेऽर्बुदे । तथा सप्तभगिन्यस्तासां श्रेयसे सप्त प्रासादाः । तासां सखीनां श्रेयसे सप्त देवकुलिकाः कारिताः । श्रीशत्रुञ्जयतले वाटिका ३२ जगन्नाथपूजायै कारिताः । रैवते षोडश । तथा श्री तेजलपुरं प्रासाद - पौषधागार - कुमरसरःसहितम् । तथा झींझरिग्रामे प्रासादो 20 वापी सर । अर्बुदे लूणिगवसह्यां श्रीनेमिपूजायै डाक-डमाणी इति ग्रामद्वयं ददौ । तथा तपोधनोपकरण १४ तेषां नाम्ना दोर झोली डांडाप्रभृतीनि प्रतिग्रामाण्यस्थापयत् । एवं सर्वकीर्तनानि १२५००० विम्बानि शैल-पित्तलमयानि । १८ कोटि, ९६ लक्ष शत्रुञ्जयपदे । १२ कोटि, ८० लक्ष गिरिनारपदे । १२ कोटि, ५३ लक्ष अर्बुदपदे । ९८४ पोसाल, ५०० सिंहासन दान्त - काष्ठमय, ५०५ समवसरणानि पट्टसूत्रमयानि । तीर्थयात्रा १२ ; कोऽपि १३॥ वक्ति | ७०० ब्रह्मशाला । ७०० सत्राकार । ७०० तपस्विनो मठाः । मसीति ८४, गढ ३२, सरोवर 25 ६४, वावि ७०० | माहेश्वरेषु प्रासादेषु, ३ सहस्र बिडोत्तर नूतन जीर्णोद्धार, १३०४ जैन प्रासाद शिखरबद्ध, २३०० जीर्णोद्धार, २१ आचार्यपद | सरस्वती भांडागार ३ - भृगुपुरे स्तंभतीर्थे पत्तने च । १८ कोडि द्राम दण्डकलश- पुस्तकपदे । १५०० तपोधन दिनं प्रति विहरणउं । ५०० ब्राह्मणभोजनम् | १०० कार्पटिकभोजनम् । दक्षिणस्यां श्रीपर्वत, पश्चिमायां प्रभास, उत्तरस्यां केदारु, पूर्वस्यां वाणारसी इति भूमिमध्ये | एवं सर्वाङ्क ३ कोटिशत, ३२ कोडि, ८४ लक्ष, ७ सहस्र, ४ शत, १४ लोहडिआ अथवा इका आगला द्राम भीमप्री० | } | 30 (१४०) अथ भीमे [ राज्ञि ] दिवंगते राणकलवणप्रसादः पुत्रयोवरम वीरधवलयोर्मध्यादेकमपि राज्ये उपवेशयितुं न शशाक । आद्यः पत्तनपरिग्रहस्य प्रियः, द्वितीयस्तु दानी योद्धा । अथैकदा राणकवीरधवलेन ताम्बूल []ठायार्पितः । तेन विलोक्य तटे [ क्षिप्तः ] एवं द्वित्रिवेलम् । राज्ञा पृष्टम् - किमरे ! त्यजसि १ । स्वामिन् ! मध्ये कृमयः कृष्णवर्णाः । राणकेन मत्रिणोऽग्रे उक्तम् - यदहमराजापि लूत्या नृपः कृतः । 1 B कथमुद्रानसत्यं (?) वदने भव्यम् । पु० प्र० स० 9 10 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ___६१४१) तदनु विश्वमल्ले किश्चिद् यौवनाभिमुखे सति धवलक्ककात् सर्वमापृच्छय', मत्रिणं पाश्चात्ये विमुच्य, तेजःपालं सहादाय पत्तने गत्वा राणकं वीरमं च मुत्कलाप्य महता परिकरण गङ्गां प्रति चचाल । ततो मतोडातीर्थे दानादि दत्त्वा कुण्ड्यन्तर्विवेश । सा द्विजै|ल्यमानापि न बुडति । तेजःपालेनोक्तम्-कापि हृदि आतिः । राणकेनोक्तम्-राज्यं वीरमस्य भविष्यति वीसलिको रुलिष्यति । मम करे जलं क्षिप-वीसलस्य राज्यं मया 5 देयम् । मत्रिणा तथा हस्ते जलं क्षिप्तम्-एषा चिन्ता न विधेया । तदनु कुण्डी मना। तेजःपालः सुकृत्य विधाय क्रमेण पत्तनमायातः। इतो राणकस्तेजःपालमागतं श्रुत्वा सशोकः सभायामुपविष्टः । तावता तेजःपालेन विश्वमल्लस्योत्तारके राणकपदव्यास्तिलकं कृतम् । वादित्रवादनं श्रुत्वा राणकेन पृष्टम्-किमिदं विश्वमल्लस्योत्तारके? । इतस्तेजःपालो नृपगृहे प्राप्तः । राणकेनोक्तम्'-तेजल ! वादित्रवादने को हेतुः । देव ! विश्वमल्लः स्वामिनः पट्टे अभिषिक्तः । इतो गोध्रियकेनोक्तम्-राज्ञाऽभिषिक्तो भवति त्वया वा?, मया न कथं ? । त्वं तु 10 पट्टस्य पदातिरसि । अद्य स्वस्वामिसुतो राणकः कृतोऽस्ति । कल्ये राजानं करिष्यामि । एवं गोधियन्तेजपालौ विवदानौ राणकेन निषिद्धौ । वार्ता" पृष्ट्वा सुतस्यौदेहिकं कृतम् ।। श्रीवीरधवले दिवंगते मत्रिणा वस्तुपालेनोक्तम्(१९८) आयान्ति यान्ति च परे ऋतवः क्रमेण जातं तदेतदृतुयुग्ममगत्वरं तु । वीरेण वीरधवलेन विना जनानां वर्षा विलोचनयुगे हृदये निदाघः॥ 15 अत्र मोजदीनमातुः सम्बन्धः।। [एष सम्बन्धः P सज्ञके आदर्श लिखितो नास्ति; परं B सझके आदर्श उपलभ्यते । तत एवात्रावतार्यते । यथा-] ६१४२) {इतश्च सुरत्राणमाजेदीनमाता कादिकश्च हजयात्रां कर्तुं पत्तनमायातौ । मत्रिणा प्रवेशोत्सवपूर्वक प्राघुणकं विधाय सम्प्रेषणपूर्वकं स्थाने स्थाने, मत्रिवचसा गौरवमनुभवन्तौ हजयात्रां कृत्वा प्रत्यावृत्तौ। प्रवेशपूर्वकं भोजितौ । मात्रोक्तम्-त्वं मत्सुतः सुरत्राणादप्यधिकः । किमपि याचख । मातः! नागपुरप्रत्यासन्ने मकडाणा 20 ग्रामे पाषाणस्य खनिरस्ति । तस्याः प्रस्तरत्रयं स्वमातुः सकाशाद्याचे । तयोक्तम्-तथा करोमि, यथा मे सूनुः समर्पयिष्यति । तथा उपायने तेजी ५०० प्रहितानि सार्द्धम् । इतः सुरत्राणः जनन्याः सम्मुखमाययौ । गुरुरुक्तः सुखेन यात्रा कृता?। वस्तुपालप्रसादेन | हिंदुकं किं प्रशंसयसि ? । तेनोक्तम्-तस्य भक्तिः सा या एकया जिह्वया वक्तुं न पार्यते । इदमुपायनम् । तदवलोक्याह-स किं याचते ? । प्रस्तरत्रयम् । एवं त्वं कथयन् हरामं जनयसि ? । किं करोमि?-तस्य सा भक्तिर्ययाऽहं बलादपि कथाप्ये । सुरत्राणेन फलहीत्रयमर्पितम् । मार्गे 25 रहकलानि भज्यन्ते । मत्रिणा कथापितम् यद् रहकलेषु उभयोरपि पक्षयोरखण्डधारा घृतस्य देया। एवं महोत्सवे जायमाने फलहिकाः श्रीशत्रुञ्जये प्राप्ताः। मन्त्री संघ संमील्य यात्रार्थमुपरि गतः । तत्र संघस्याञ्जलिपूर्व विज्ञप्तिकां चक्रे-संघस्त्ववधारयत । एप मे मनोरथः कदापि सिद्धिं मा प्रयात् । यतः पूर्वतीर्थस्यानर्थे जाते पविशति । एतद्युगान्तेऽपि मा भूयात । परं न ज्ञायते । कदाचित्कालयोगेनानर्थः स्यात्तदिदं बिम्बं श्रीसंघेन प्रसादं विधाय स्थापनीयम् । संघस्याङ्के क्षिप्तमस्ति । एवमुक्त्वा एकां युगादिदेवस्य फलहिकाम् , एकां 80 पुंडरीकस्य, एकां कपर्देः-एवमभिधाय भूमिगृहे व्यधात् ।} 4 1 B मुत्कलाप्य। 2 B मागतोडा। 3 एतद्वाक्यस्थाने B 'कृतं एतत् ।' 4 B बुडिता। 5 B शोकवान् । 6 B नृपसमन्यायातः। 7 B पृष्टम्। 8 B तेजःपाल। 9 P भविष्यति । 10 P 'कथं अग्रे 'त्वया' शब्दोऽधिकः। 11 B वार्ता पृष्टा । 12 B विदधे । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। १४३) एवं पुण्यानि राजकार्याणि कुर्वतोरेकदा राणक लूणप्रसादेन तेजलं उक्तः-मत्रिन् ! को राजा कार्यः ? । वीरधवलः स्वर्गामी जातः । तत्पुत्रः शिशुः । यदि तव विचारे एति तदा वीरमस्य राज्यं दीयते । मत्रिणा उक्तम् -स्वामिन् ! मया स्वस्वामिसनोर्वीसलस्साङ्गीकृतमस्ति । राणकः प्राह-यद्यप्येवं तथापि मद्वाक्य मन्यस्व । मत्रिणा मानिते, रात्रौ वीरमः समेत्य राणकं लत्तया प्रहृत्य, प्राह-भो डोकर ! अद्यापि राज्याशां न मुश्चसि ?, किं द्वितीयमपि नियमाणं अपेक्षसे ? । एवमुक्त्वा गतः । राणकेन चिन्तितम्-अनेन कीलिकाभङ्गो न । प्रतीक्षितः । स कोऽप्यस्ति यः प्रातःप्रहरमध्ये वीसलमानयति । नागडेन भट्टपुत्रेणोक्तम्-अहं धवलक्के रात्रिपाश्चात्यप्रहरे यास्यामि । (तदनु करभीमारुह्य समेष्यति । स लेखं दत्त्वा प्रहितः । वीसलं सुप्तमुत्थाप्य प्राह-यदि त्वं राजा तदा मे किं ?। श्रीकरणम् । तर्हि चल । करभीमारुह्यायात् । प्रातः राणकः सकलपरिग्रहं सम्मील्य सहस्रलिङ्गोपकण्ठे उत्तारकं" दत्त्वा स्थितः । वीसलेन राणकस्तत्रैत्य नमस्कृतः । __ ततो राणकेन तिलकं कृत्वा तूर्यनादपूर्व धवलगृहे नीतः, सिंहासने उपवेशितश्च । वीरमः-किं ? किं ? याव-10 द्वक्ति" तावन्निखाननिखनपूर्वकं श्रीवीसलदेवाज्ञा श्रुता । अश्वसहादशभिः समं पृथग् भूत्वा स्थितः । इतस्तेजःपालबुद्ध्या राज्ञाऽचिन्ति-वृद्धस्य वीरमोपरि मोहोऽस्ति, मा कदाचिदेतद्विघटयतु-इति विमृश्य वट्टके विषं क्षिप्वा सन्ध्यायां राणकपार्श्वे गन्तुं प्रवृत्तः। राणकेन तु चिन्तितमस्ति"-मया विरूपं कृतम् । अद्यापि राज्यं प्रातरिमस्य दास्ये । उक्तम-द्वारे कोऽपि विशन रक्ष्यः । इतो राजा द्वारस्थैनिषिध्यमानोऽपि मध्ये प्रविश्य राणकं प्राह-ता अमृतमिदं सत्वरं पिबत" । वत्स! तव विचारे आयातम् । आयातं तानीतम् । राणकेन उक्तम्-त्वया राज्य-15 निर्वाहो भावी -एवमुक्त्वा पीतम् । तत्कालं दिवंगतः। तेजःपालस्य "राजस्थापनाचार्यः" इति विरुदं जातम् । १४४) इतो मत्रिबुद्ध्या श्रीवीसलदेवेन तृतीये दिने वीरमो भाणितः-यन्मे वीरमस्तातसमः । अतो यदि वक्ति तदा राज्यं मुञ्चामि, सेवां करोमि । तदनु प्रधानैर्महाधरैश्चोक्तं वीरमं प्रति-देव! राजा मान्यः । यस्त्वेवं वक्ति" । वीरमः प्राह-यदि मे नगरपञ्चकं नृपो ददाति-एकं प्रह्लादनपुर, द्वितीय विद्यापुरं, तृतीयं वर्द्धमानपुरं, चतुर्थं धवलकं, पञ्चमं पेटलाउद्रपुरं । एतानि पञ्च पुराणिः तथा वर्ष प्रति द्रम्म लक्ष ३ । एवं 20 यदि नृपो मन्यते तदा प्रणामं करोमि । नृपेण मानितम् । मत्रिणा तत्कालं "तन्नगरपरिसरे पञ्च ग्रामाणि तन्नाम्ना वासितानि । वीरमो मिलितः। नृपं प्रणम्य वीरमो वाटके स्थितः। वीसलदेवस्य राज्यं निष्कण्टकं जातम् । नागडस्य श्रीकरणं जातम् । मत्रिणो व्यापारो निवृत्तः । नृपेण “वृद्धामात्या" इति दत्तमानाः सेवां कुर्वाणाः सन्ति । (१९९) सूत्रे वृत्तिः कृता दुर्गसिंहेनापि मनीषिणा। विसूत्रेऽपि कृता तेषां वस्तुपालेन मत्रिणा॥* __ एकदा वीरमेन नगरपञ्चकं याचितम् । राज्ञा ग्रामपञ्चकं दर्शितम् । तेनोक्तम्-नगराणि याचे । राज्ञोक्तम्-25 एषु दत्तेषु किमवशिष्यते ? । तर्हि न स्थास्ये । व्रज । स सपरिच्छदो मालवं प्रति वजन् , राज्ञा जावालिपुरीयस्य चाचिगदेवस्य पार्थात् सइंवाडीघाटसमीपे मारितः। ६१४५) इतश्च-अर्बुदचैत्ये गजशालां वीक्ष्य यशोवीरेण मत्रिणा पृष्टम् -भवतां पूर्वजः कः श्रीकरणः । पृष्टम्-कथम् ? । श्रीकरणं विना गजशाला सत्या न भवति । तदनु तेजःपालेन गजः समानायितः। तं ___ 1 P 'राणक' नास्ति। 2 B तेजःपालो व्याहृतः। 3 राज्यं कस्य दीयते। 4 B सुतस्तु। 5 B समेति । 6 B नास्तीदं वाक्यम् । 7 B मम वाक्याद् वीरमस्यास्तु। 8 B डोल्लत्कर। 9 B नियन्तं । 10 B 'रात्रि' नास्ति । एतद. न्तर्गतपंक्तिस्थाने B आदर्श "तदनु करभीमधिरुह्य चलितः।" इत्येव पाठो विद्यते। 11 B चतुरकं। 12 B वीसलः समायातः । राणकं नमस्कृत्य यावदास्ते तावद्।। 13 B विधाय। 14 B.पुरस्सरं। 15 विधत्ते । 16 B सह। 17 B 'अस्ति' नास्ति । 18 B रक्षणीयः। 19 B कुरुत। 20 B समायातं । 21 B आयातेनानीतं । 22 B व्याहृतं। 23 B भविष्यति । 24 B कथयति । 25 नास्तीदं पदं B1 26 B मानयोग्यः। 27 B अभिदधाति । 28 B अपरं। 29 B नगराणां परिः। 30 B नास्तीदं वाक्यं । * P आदर्श एष श्लोको नास्ति। 31 B उक्तं। 32 B गजशाला न घटते। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे नृपस्योपायने कृत्वा, एककोटि १६ लक्ष, वर्ष यावत् चडावके कृत्वा गृहीतम् । व्ययस्तादृगेव । केनापि कविना नृपं प्रति प्रोक्तम्(२००) एतावतैव वीसल ! पश्य प्राग्वाट-लाटयोर्भेदम् । एक इभानुपनिन्ये प्रथमश्चरमस्तु खरमेकम् ॥ 5 तेजपालेन स हस्ती ढौकने कृतः । लाटेन समराकेन वेसरश्वकः । द्रम्म लक्ष ३६ त्रुटो, द्वितीयवर्षे श्रीकरणं मुक्तम् । (२०१) बौद्धैबौद्धो वैष्णवैर्विष्णुभक्तः, शैवैः शैवो योगिभिर्योगरङ्गः । जैनस्तावजैन एवेति कृत्वा सत्त्वाधारः स्तूयते वस्तुपालः॥ ६१४६) सं० १२९८ वर्षे मन्त्री नृपं मुत्कलाप्य चलितः । नागडस्तु राणकसाथै मण्डलीं गतः । तत्र 10 तपोधनसाराविषये शिक्षा दत्त्वा अङ्केवालीआग्रामे०............प्रासादः । सरः । सत्रशालात्रयं च कारितम् । (B सङ्ग्रहे अत्र एतदेव वर्णनं किञ्चिद्विस्तारेण लिखितं लभ्यते । यथा-) {संवत् १२९८ वर्षे जातकेनायुषोऽन्तं परिज्ञाय नृपं मुत्कलापयामास-देव! क्षम्यताम् , यत्स्वामिन ऊणं खूणं वा कृतः । राजा-हे मत्रिन् ! कथमेतत् ? । देवसेवायै यास्यामि । मनिन् ! त्वं मदीय[तात]वीरधवलसमोऽतस्त्वां कथं प्रेषये । कदाचिद्देयद्रम्माणां शङ्का भवति। तदा न कार्यम् । मदीयं शरीरं तवायत्तम् , द्रव्यः किम् , 15 द्रम्माणां पत्रं विदारयिष्यामि । परं मा व्रज । मत्री प्राह-देव ! द्रम्माणां किम् ?, द्रम्मा बाह्याः । देहं तु तव पिण्डैः पोषितम् । परमवसाने प्रत्यासन्ने देव ! तीर्थसेवा युक्ता । अश्रुपातपूर्व राज्ञा बीटकं दत्तम् । मत्रिजनान् क्षमयित्वा श्रीवस्तुपालो महता परिच्छदेन सह श्रीशत्रुञ्जयोपरि चचाल । इतो राणकनागडो मत्रिप्रयाणं श्रुत्वा सम्प्रेषयितुं चचाल । मंडल्यां गतेन मत्रिणाभिहितम्-राणक! राजकार्याणि सीदन्ति । यूयं प्रसादं कृत्वा वलत । तेनोक्तम्-तव गृहे बटुरसि । तवोपजीवनेन इयतीं ऋद्धिम् । करणीयं किमप्यादिश । मत्रिणोक्तम्20 (२०२) न कृतं सुकृतं किश्चित्सतां संस्मरणोचितम् । मनोरथैकसाराणामेवमेव गतं वयः॥ राणकः प्राह-परं किञ्चन मनसि दुष्यति, ममाग्रे किं नोच्यते । देव! मयि गते सति एते वतिनो दुःखिनो भविष्यन्ति । मत्रिन्! इत्थं कथमुच्यते ? । यद्भवतां पार्थात् सुखिनः करिष्यामि । परमियं चिन्ता न विधेया। इति राणको मुत्कलाप्य वलितः । मत्री अंकेवालिआग्रामे गतः । गुरवस्तत्रोक्ताः-भगवन् ! मेऽनशनं प्रयच्छत । तत्र तेजःपालानुमत्या गुरुभिरनशनं प्रदत्तम् । मन्त्री क्षमित-क्षामणापूर्वं पञ्च परमेष्ठिनः स्मरन् स्वर्ग गतः। संस्का25 रादनु तेजःपालेनास्थीनि श्रीशत्रुञ्जये प्रहितानि । तत्र स्वर्गारोहणप्रासादः कारितः । अंकेवालिआग्रामे प्रासादः कारितः । सरोवरं च सत्रशाला च । तत्र धर्मस्थानत्रयं कारितम् । तेजःपालो यात्रां विधाय पत्तने समायातः।) ६१४७) व्यापारे वर्ष १८ तदनु बइठा ऊठि । तथा १३०८ वर्षे महं० तेजःपालेन वर्गमनाय राजा [Ps. वीसलदेवः] मुत्कलापितः । तदा द्रम्मा लक्ष २७ देया आसन् । राज्ञा मुक्ताः'। [तथा राज्ञा द्रम्मा लक्षत्रयं धर्मव्ययाय वितीर्य* ] तेजःपालः प्रहितः । श्रीसद्धं क्षमयित्वा श्रीशङ्केश्वरोपरि चलितः । चन्द्रोमाणा30 ग्रामे गतः । 'जातकमवलोकितम्-यच्चन्द्रोमाणाग्रामे पाश्चात्यप्रहरे व्ययः । मत्री अनशनमादाय दिवमगमत् । तत्र कीर्तनत्रयम् । ६१४८) अथ मत्रिणि दिवं गते श्रीवर्धमानसूरयो वैराग्यादाम्बिलवर्द्धमानं तपः कर्तुं प्रारेभिरे । श्रीशद्धेश्वरपार्श्वनाथाभिग्रहं च जगृहुः। यत्तपसि सम्पूर्णे देवं नमस्कृत्य पारणकं करिष्यामः । सम्पूर्णे जाते देवं नन्तुं , 1 B दम्मान् विमुच्य । * Ps आदर्श एवैतद्वाक्यं लभ्यते। + एतत्पंक्तिस्थाने P 'पाश्चात्यदिने दिवंगतः' इत्येव संक्षिप्तः पाठः। 1B आदर्श एतत्प्रकरणं प्राप्यते । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। प्रस्थिताः । मार्गे श्रान्तास्तृषिता एकस्य तरोस्तले देवं नमस्कृत्यानशनाद्विनष्टाः । शश्वरेऽधिष्ठायको जातः । ज्ञानेन मत्रिणो गतिमन्वेष्टुं प्रवृत्तः । अजानानो महाविदेहे श्रीसीमन्धरं नमस्कृत्य पप्रच्छ-भगवन् ! वस्तुपालजीवः क्व गतः । स्वामी आह-अत्रैव पुष्कलावतीविजये पुण्डरीकिण्यां कुरुचन्द्रो नाम नृपो जातः । स तृतीयभवे सेत्स्यति । अनुपमदेवीजीवः श्रेष्ठिनः सुता अत्रैव विजये जाता । साष्टवार्षिकाऽस्माभिर्दीक्षिता, देशोनां पूर्वकोटिं तपस्तत्वा सेत्स्यति । इति तेन व्यन्तरेणात्र भरते वस्तुपालानुपमदेव्योर्गतिः प्रकटीकृता । ॥ इति वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः ॥ . (एतत्प्रबन्धप्रान्ते P सञ्जके सङ्ग्रहे निम्नगतं विशेषवर्णनं लिखितं लभ्यते-) ६१४९) अत्राग्रेतनः प्रबन्धः कथनीयः । वीरधवलेन वामनस्थल्यां जयतलदेविभ्रातरौ साङ्गण-चामुण्डराजौ मारितौ । युद्धे जाते १४ शततुरङ्ग स० ५ जजी (?) (२०३) जीत छहि जणेहिं सांभलि समहरि वाजीइ । बिहुँ भुजि वीरतणेहिं चिहुं पगि ऊपरवटतणे ॥ इति चारणोक्तिः। .६१५०) गोध्राधिपो घूघलमण्डलीकस्तेजःपालेन बद्धः धवलकपुरसभायामानीतः । तदा सोमेश्वरोक्तिः(२०४) मार्गे कर्दमदुस्तरे जलभृते गतशतैराकुले खिन्ने शाकटिके भरेतिविषमे दूरे गते रोधसि । शब्देनैतदहं ब्रवीमि महता कृत्वोच्छ्रितां तर्जनी मीदृक्षे गहने विहाय धवलं वोढुं भरं कः क्षमः॥ ६१५१) एकदा मत्री स्तम्भने आगतः । तत्राचार्यैरुक्तम्- . (२०५) अस्मिन्नसारसंसारे सारं सारङ्गलोचना । ___मन्त्री रुष्टः । शृङ्गारिण एते । अष्टमे दिने यत्कुक्षिप्रभवा एते वस्तुपालभवादृशः ॥ दशसहस्रदीनारा दत्ताः । न गृहीताः । भृगुपुरे लेप्यप्रतिमास्थाने अन्या कारिता तद्रव्येण । ६१५२) एकदा मत्रिभिः पलितं दृष्ट्वा चिन्तितम्(२०६) अधीतान कला काचित् न च किश्चित्तपः कृतम्। दत्तं न किश्चित्पात्रेभ्यो गतं च मधुरं वयः॥ (२०७) आयुर्योवनवित्तेषु स्मृतिशेषेषु या मतिः । सैव चेजायते पूर्व न दूरे परमं पदम् ॥ ६१५३) सङ्घप्रारम्भ नरचन्द्रसरिभिरुक्तम्- - __ (२०८) चौलुक्यः परमाहतो नृपशतखामी जिनेन्द्राज्ञया - निर्ग्रन्थाय जनाय दानमनघं न प्राप जानन्नपि । सम्प्राप्तस्त्रिदिवं खचारुचरितैः सत्पात्रदानेच्छया। त्वद्रूपोऽवततार गूर्जरभुवि श्रीवस्तुपालो ध्रुवम् ॥ मत्री यात्रायां वृषभं प्रति पपाठ-"आसं कस्य न वीक्षितं० ॥" (२०९) यदाये द्यूतकारस्य यत् प्रियायां वियोगिनः । यद्राधावेधिनो लक्ष्ये तद्ध्यानं मेऽस्तु ते मते॥ : रैवते नेमि प्रति(२१०) कल्पद्रुमस्तरुरसौ तरवस्तथाऽन्ये चिन्तामणिर्मणिरसौ मणयस्तथाऽन्ये । धिग जातिमेव ददृशे बत यत्र नेमिः श्रीरवते स दिवसो दिवसास्तथाऽन्ये ।। 20 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे. १५४) एकदा मोजनी (दी) नसैन्यं ढिल्लीतश्चलितम् । प्रयाणक ४ जातानि । राणकस्य सुद्धिर्जाता । वस्तुपालो बीटकं गृहीत्वाऽश्वलक्ष १ युतोऽर्बुद गरौ गत्वा हतवान् । भग्नम् | राणकेन परिधापितः । उक्तम् - " त्वमेव 'गुणवान् ० To 11" मे पूनसा नागपुरीयो मन्त्रिसङ्के मिलितः । तत्र - " अद्य मे फलवती पितुराशा ० " । श्रीयुगादिफलही, कपर्दि5 पुण्डरीक चक्रेश्वरी तेजपुरविम्बपार्श्वमूर्त्ति फलही ५ खानित आनीताः । हेमलक्ष १० राणकेन दत्ताः । तेन तत्क्षणमेव ब्राह्मणेभ्यो दत्ताः । तदा काव्यानि - ढिल्लीत आगतस्य मंत्रिणो ७० 10 15 ९ १५५) एकदा अनुपमा अर्बुदचैत्ये आगता सूत्रधारान् कर्म्मस्थायमन्दादरानाह(२१४) भूपभ्रूपल्लवप्रान्त निरालम्ब विलम्बिनीम् । स्थेयसीं बत मन्यन्ते सेवकाः खामपि श्रियम् ॥ तया पृ० - शीघ्रं निष्पद्यते स उपायः कः । तैः सू० निवेदितम् - प्रासः द्विम ( गु) णी क्रियताम् । कृतः । 20 पश्चान्निष्पन्नः । (२१५) इतोऽब्धिः परितो मृत्युरितो व्याधिरितो जरा । जन्तवो हन्त पीड्यन्ते चतुर्भिरपि सन्ततम् ॥ ९१५६) यशोवीरः प्रथमसङ्गमे श्रीअर्बुदे श्रीवस्तुपालं प्रति प्राह(२१६) श्रीमत्कर्णपरम्परागत भवत्कल्याणकीर्त्तिश्रुतेः प्रीतानां भवदीयदर्शनविधौ नास्माकमुत्कं मनः । श्रुत्वा प्रत्ययिनी सदा ऋजुतया खालोकविस्रम्भणी दाक्षिण्यैकविधानकेवलमियं दृष्टिः समुत्कण्ठते ॥ ९१५७) मंत्री राजानं मुत्कलाप्य अङ्केवालीआग्रा० गतः सपरिजनः । (२१७) गुरुर्भिषक युगादीशः प्रणिधानं रसायनम् । सर्वभूतदयापथ्यं सन्तु मे भवरुगभिदे || (२१८) लब्धाः श्रियः सुखं स्पृष्टं मुखं दृष्टं तनूरुहाम् । पूजितं दर्शनं जैनं न मृत्योर्भयमस्ति मे ॥ तत्रानशने मत्रिचिन्ता 25 (२११) निरीक्ष्य मन्त्रिन् ! द्विजराजमेकं पद्मानि सङ्कोचमहो भजन्ति । समागतेऽपि द्विजराजलक्षे सदा विकासी तव पाणिपद्मः ॥ (२१२) उच्चाटने विद्विषतां रमाणामाकर्षणे स्वामिहृदश्च वश्ये । एकोऽपि मत्रीश्वरवस्तुपालः सिद्धस्तव स्फूर्त्तिमियति तत्रः ॥ नानाकेनाप्युक्तं नागरेण (२१३) एकस्त्वं भुवनोपकारक इति श्रुत्वा सतां जल्पितं लज्जानम्रशिराः स्थिरातलमिदं यद्वीक्षसे वेद्मि तत् । वाग्देवीवदनारविन्दतिलकः ! श्रीवस्तुपाल ध्रुवं ! पातालाइ लिमुद्दिधीर्षुरसकृन्मार्गं भवान्मार्गति ॥ अत्रापि षोडशसहस्रदत्तिः । 30 (२१९) सुकृतं न कृतं किञ्चित् सतां संस्मरणोचितम् । मनोरथैकसाराणामेवमेव गतं वयः ॥ (२२०) यन्मयोपार्जितं वित्तं जिनशासन सेवया । जिनशासन सेवैव तेन मेऽस्तु भवे भवे ॥ इति वदन् मत्री वस्तुपा० दिवं ययौ । ततस्तेजःपाले दिवंगते लोकोक्ति: Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। (२२१) किं कुर्मः किमुपालभेमहि किमु ध्यायाम किं वा स्तुमः ___ कस्याग्रे स्वमुखं खदुःखमखिलं सन्दर्शयामोऽधुना। शुष्कः कल्पतर्यदङ्गणगतश्चिन्तामणिश्चाजरत् क्षीणा कामगवी च कामकलशो भग्नो हहा दैवतः॥ [सं०] १३०८ तेजःपालो दिवं जगाम । (B सज्ञके आदर्शे पुनरेतत्प्रवन्धान्ते निम्नगतानि वस्तुपालसम्बन्धिकाव्यानि प्राप्यन्ते-) (२२२) सेजवालकसहस्रचतुष्कं साधिकं पञ्चशतैश्च ।। पञ्चकं च शतपञ्चकमिश्रं स्यन्दनाभवरपिल्लिखिकानाम् ॥१॥ (२२३) शतानि चाष्टादशवाहिनीनां सुखासनानां प्रमितिस्तथैव । तपोधनानां द्विशतीसहस्रे शतं सहस्रं च दिगम्बराणाम् ॥ २॥ (२२४) त्रिंशद्विमिश्रा त्रिशती चराणां रत्नासनानां वृषशोभितानाम् । शतानि च त्रीणि तु मागधानां चतुःसहस्राश्च तुरंगमाणाम् ॥ ३॥ (२२५) अष्टौ महागाश्च चतुःशतानि लक्षास्तथा सप्तति मानवानाम् । श्रीवस्तुपालस्य कृताऽऽद्ययात्रासंख्येयमानन्दकरी जनानाम् ॥४॥ (२२६) स्वस्ति श्रीब्रह्मलोकात्कविजनजननी भारती ब्रह्मपुत्री धात्र्यां श्रीवस्तुपालं कुशल यति यथा कार्यमेतन्निवेद्यम् । योऽभूत्कल्पद्रुकल्पः सकलसुमनसां नाधुना सोऽपि भोज स्तस्मात्सीदन्त एते जगति सुकृतिना रक्षणीयास्त्वयैव ॥५॥ (२२७) स्वस्ति श्रीभूमिवासाद्विपिनपरिसरात्क्षीरनीराधिनाथः पृथ्व्यां श्रीवस्तुपालं क्षितिधवसचिवं बोधयत्यादरेण । अस्या आस्माकपुत्र्याः कुपुरुषजनितः कोऽपि चापल्यदोषो . निःशेषः शेषलोकम्पृणगुणभवता मूलतो मार्जनीयः॥६॥ (२२८) मुखमुद्रया सहाऽन्ये दधति करे सचिवमत्रिणो मुद्राम् । श्रीवस्तुपाल ! भवतो वदान्य ! तद्वितयमुन्मुद्रम् ॥ ७॥ (२२९) कीर्तिः कन्दलितेन्दुकान्तिविभवा धत्ते प्रतापः पुनः प्रौढिं कामपि तिग्मरश्मिमहसां बुद्धिर्बुधाराधिनी । प्रत्युज्जीवयतीह दानमसमं कर्णादिभूमीभुजस्तत्किञ्चिन्न तवास्ति यन्न जगतः श्रीवस्तुपाल ! प्रियम् ॥ ८॥ महं० यशोवीरेण(२३०) लक्ष्मी नन्दयता रतिं कलयता विश्वं वशीकुर्वता त्र्यक्षं तोषयता मुनीन्मुदयता चित्ते सतां जाग्रता। सङ्खऽसङ्ख्यशरावली विकिरता रूपश्रियं पुष्णता नैकट्यं मकरध्वजस्य विहितो येनेह दप्पंव्ययः ॥९॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 ७२ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे (२३१) हंसैर्लब्धप्रशंसैस्तरलितकमलप्रत्तर स्तरङ्गै रैरन्तर्गभीरैर्वकचटुलकुलग्रास[लीनैश्च मीनः । पालीरूढद्रुमालीतलसुखशयितस्त्रीप्रणीतैश्च गीत ___ र्भाति प्रक्रीडदातिस्तव सचिव! चलचक्रवाकस्तटाकः ॥१०॥ 5 अत्र पं० सोमेश्वरेण षोडशयमकव्यये षोडशसहस्रा द्रम्माणां प्राप्ताः । [पुनः] पं० सोमेश्वरेण(२३२) दिग्वासाश्चन्द्रमौलिविहरति रविरयं वाहवैषम्यकष्टं राहोः सातङ्कमिन्दुर्विचरति गरुडानागवग्र्गो बिभेति । रत्नानां धाम सिन्धुस्त्रिदशगिरिपतौ वर्णमद्यापि यस्मा कि दत्तं रक्षितं वा किमु किमुत जगत्यर्जितं येन गर्वः ॥ ११ ॥ 10(२३३) कलिकवलनजाग्रत्पाणिखेलत्कृपाणः द्युतिलहरिनिपीतप्रत्यनीकप्रतापः । जयति समरसत्त्वारम्भनिर्दम्भकेलिप्रमुदितजयलक्ष्मीकामुको वस्तुपालः ॥ १२॥ (२३४) यदि विदितचरित्रैरस्ति साम्यस्तुतिस्ते कृतयुगकृतिभिस्तैरस्तु तद्वस्तुपालः । चतुरचतुरुदन्वबन्धुरायां धरायां त्वमिव पुनरिदानी कोविदः कोऽविदग्धः ॥ १३ ॥ (२३५) मुञ्ज-भोजमुखाम्भोजवियोगविधुरं मनः।श्रीवस्तुपालवक्त्रेन्दौ विनोदयति भारती॥१४॥ (२३६) त्वं जानीहि मयास्ति चेतसि धृतः सर्वोपकारवती किं नामा सविता न शीतकिरणो न स्वर्गवृक्षो नहि । पर्जन्यो नहि चन्दनो नहि ननु श्रीवस्तुपालस्त्वया ज्ञातं सम्प्रति शैलपुत्रिशिवयोरित्युक्तयः पान्तु वः॥१५॥ (२३७) गाम्भीर्ये जलधिर्वलिर्वितरणे पूषा प्रतापे स्मरः सौन्दर्ये पुरुषव्रते रघुपतिर्वाचस्पतिर्वाङ्मये । लोकेऽस्मिन्नुपमानता[मुपगताः सर्वे पुनः सम्प्रति ___ प्राप्तास्तेऽप्युपमेयतां तदधिके श्रीवस्तुपाले सति ॥ १६ ॥ (२३८) श्रीवस्तुपालः श्रियमेष केषां हृदि स्थितो हार इवातनोति । विश्राणयन्त्यक्षिगतापरागकणा इवात्तिं तु नियोगिनोऽन्ये ॥ १७ ॥ (२३९) दीपः स्फूर्जति सन्जकजलमला लेहं मुहुः संहर __ निन्दुर्मण्डलवृत्तखण्डनपरः प्रवेषि मित्रोदयम् । सूरः क्रूरतरः परस्य सहते तेजो न तेजखिन स्तत्केन प्रतिमं द्र(ब्र?)वीमहि महः श्रीवस्तुपालाभिधम् ॥ १८ ॥ (२४०) आयाताः कति नैव यान्ति कति नो यास्यन्ति नो वा कति स्थानस्थाननिवासिनो भवपथे पान्थीभवन्तो जनाः। अस्मिन्विस्मयनीयबुद्धिजलधिर्विध्वस्य दस्यून्करे कुर्वन्पुण्यनिधिर्धिनोति वसुधां श्रीवस्तुपालः परम् ॥ १९ ॥ 25 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। (२४१) समुद्रत्वं श्लाघेमहि महिमधानोऽस्य बहुधा _ यतो भीष्मग्रीष्मोपमविषमकालेऽप्यजनि यः। क्षणेन क्षीणायामितरजनदानोदकतनी दयावेलाहेला द्विगुणितगुणत्यागलहरिः ॥ २० ॥ (२४२) यः ससाननसप्तिसोदरयशाः सप्ताब्धिगम्भीरिमा सप्तार्चिापरितसकाञ्चनरुचिः सप्तर्षिसर्गावधिः। सप्तद्वीपधरानरालिमुकुट[:]पुण्याय सप्त व्यधात् यात्राः सप्तजगच्चमत्कृतकृती सप्त क्षिपन्दुरर्गतीः ॥ २१ ॥ (२४३) किमस्तु वस्तुपालस्य मन्त्रीन्दोः साम्यमिन्दुना । यद्दत्ते व[सु]धामेष सुधामेवापरः पुनः ॥ (२४४) नाभीपङ्कजमङ्कजन्मविधिना वृद्धेन रुद्धं हरे स्तापव्यापदमापदुष्णमहसो लीलासरोज पुनः । किश्चैतजलजं जलप्रकृतिकं तेन श्रिया शिश्रिये यत्पाणिनहि चेदमुष्य पुरतस्तस्थौ न दौस्थ्यं कथम् ॥ २२ ॥ (२४५) मुक्त्वापि पुण्डरीकाक्षं श्रीरिमं शिश्रिये किल । देहार्धनव(?)बन्धेन विरूपाक्षः प्रियां भिया ॥ २३ ॥ (२४६) अन्वयेन विनयेन विद्यया विक्रमेण सुकृतक्रमेण च । कापि कोऽपि न पुमानुपैति मे वस्तुपालसदृशो दृशोः पथि ॥ २४ ॥ ॥ इति वस्तुपालसम्बन्धिकाव्यानि ॥ 10 15 (G.) सङ्ग्रहगतं वस्तुपाल-तेजःपालसम्बन्धिवृत्तम् । ६१५८) अथ व्यापारे प्राप्ते महं० श्रीतेजःपालः श्रीस्तम्भतीर्थव्यापाराय प्रहितः। तत्र नोडासईदस्यामिलितं 20 वीक्ष्य तस्य कोऽपि न भेटयति । अमात्योऽपि तद्विज्ञाय तं भेटयामास । अन्यदा तेन एकांते चिट्ठडकवाचनच्छलेन तस्य शिरश्छेदितम् । तस्य भांडागारोऽपि धृतः। सर्वमपि टीपयित्वा गृहीतम् । उपवरिकात्रये मृत्तिका वीक्ष्य सा स्वयं गृहीता । सईदभागिनेयेन राज्ञो मिलित्वा सर्व कथितम् । राजा म० तेजःपालस्य कुपितः । मत्रिणोऽग्रेऽकथयत्-भवता रम्यं न कृतम् । अकथयित्वा त्वया कथं मारितः। तेनोक्तम्-राजन् ! आज्ञोल्लंघनकारकमन्यमपि न सहामि । राज्ञोक्तम्-तर्हि उलपितविषये दिव्यं देहि, घटसर्पमाकर्षय । इति प्रतिपन्ने घटसर्पा-25 कर्षणसमये महं० श्रीतेजःपालेन सर्वसमक्षमित्युक्तम्-यन्मया सर्वमपि सईदस्य सत्कं राज्ञे दत्तम् । यदि कदापि सईदस्य धूलिर्मम गृहे तिष्ठति तदोत्स्पृखल(?)मिति भणित्वा सईदभागिनेयस्य पर्यङ्के घटात्सर्प आकृष्य क्षिप्तः। स च मृतः । सा च धूलित्रयस्त्रिंशत्कोटिप्रमाणा गृहे स्थिता । ६१५९) एकदा कटकस्थेन राणकेन मन्त्रीशो लेखकं याचितः । मत्रिणोक्तम्-अत्र नास्ति । राज्ञोक्तम्-कल्ये समानेतव्यमेव । एवं स्थिते मत्रिणा तुरगारूढो देपाकः प्रेषितः । तेन पुरान्तश्चतुष्पथे गच्छता भक्त्या श्रीवीत-30 रागो नमस्कृतः। पश्चाल्लेखकं गृहादानीय दत्तं स्वामिनोऽग्रे । अत्रान्तरे तत्रैव पुरे कश्चिद्विजो व्यापारी वर्त्तते । तस्य पुत्रयुगं विनष्टम् । तृतीयोऽङ्गजो ग्रथिलो जातः । पश्चाद्गर्त्तायां षण्मासं यावत् क्षिप्तः । ततो व्यन्तरेणोक्तम्-व्यापारिन् ! कथं निजपुत्रसारां न कुरुषे । तेनोक्तम्-किं करोमि ? । मम देपाकपाश्र्थात् पुण्यं दापय । ततो पु०प्र० स० 10 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे देपाकस्य राजादेशः प्रहितः। ततो मत्रिश्रीवस्तुपालस्य महदुपरोधेन देपाकः सदने समागतोऽपि भयेन व्यन्तरपार्श्वे नाभ्युपैति । नृपरोधेनानीतः। व्यन्तरेण सन्मानितः । इत्युक्तं च यत् त्वया तुरगाधिरूढेन श्रीवीतरागो नमस्कृतः, तत्पुण्यं मे देहि । तेनोक्तम्-कथमस्य लग्नोऽसि । व्यन्तरेणोक्तम्-अनेन......ना मया वारितेनापि मम बलीवईयुगं प्रभुतयैव गृहीतम् । तद्विरहेणाहं मृतः । ततो मयास्य पुत्रयुगं मारितम् । अस्य पातकं कथं 5 गृह्णामि, अतो मोक्ष्यामि । ततस्तेन पुण्यं दत्तम् । ६१६०) श्रीभृगुपुरात् खंडेरायसांखुलाकः श्रीस्तंभतीर्थे श्रीवस्तुपालोपरि कटकं गृहीत्वा समागतः । तदा निर्णीतदिने संग्रामे जायमाने भूणपालेन विंशतिः शंखपत्तयः शंखं भणित्वा मारिताः । तदा मत्रिणोक्तम्-रे ! शंखमातुः शंखाः कियन्तो जाता विद्यन्ते । तदाकर्ण्य शंखः खयमुत्थितः। सोऽपि श्रीमत्रि-भूणपालाभ्यां पातितः । तदा श्रीसोमेश्वरदेवेनोक्तम्10 (२४७) श्रीवस्तुपाल ! प्रतिपक्षकाल ! त्वया प्रपेदे पुरुषोत्तमत्वम् । तीरेऽपि वाढेरकृतेऽपि मात्स्ये दूरं पराजीयत येन शंखः ॥ ६१६१) अन्यदा पं० सोमेश्वरदेवेनोक्तम्__ (२४८) बाणे गीर्वाणगोष्टी भजति मघवति ब्रह्मभूयं प्रपन्ने ___ व्यासे विद्यानिवासे कलयति च कलां कैशवीं कालिदासे । माघे मोघां मघोनः सफलयति दृशं चाद्य वाग्देवतायाः सोऽयं धात्रा धरित्र्यां निवसनसदनं प्रस्तुतो वस्तुपालः॥ काव्यस्यैतस्य दशसहस्रा मत्रिणा दत्ताः। तेनैव एकदा सभायां मत्रिकाव्यमिदमपाठि(२४९) पाणिप्रभापिहितकल्पतरुप्रवालश्चौलिक्यभूपतिसभानलिनीमरालः। _ दिग्चक्रवालविनिवेशित.........श्रीमानयं विजयतां भुवि वस्तुपालः ॥ इति श्रुत्वा मत्रिणि अधोविलोकयति तेन पुनरिदं प्रोक्तम्(२५०) एकस्त्वं भुवनोपकारक इति श्रुत्वा सतां जल्पितं लज्जानम्रशिरा धरातलमिदं यद्वीक्ष्यसे वेद्मि तत् । वाग्देवीवदनारविंदतिलक! श्रीवस्तुपाल! ध्रुवं पातालालिमुद्दिधीर्षुरसकृन्मार्ग भवान् मार्गति ॥ [एतच्छ्रुत्वा ] द्रव्यसहस्राणि चतुश्चत्वारिंशत्संख्यानि मत्री ददौ । ६१६२) एकदा श्रीशत्रुञ्जयतलहट्टिकायां श्रीसङ्घपूजायां जायमानायां [वस्खपोटली-] बंधनं कस्यापि पंडितस्थार्पितं मत्रिणा । ततस्तेनोक्तम्-तद्वीक्ष्य वस्त्रं मत्रीशाभिमुखं “कचित्तूलं कचित्सूत्रं.” इति भणिते सहस्रा दश दत्ताः । 80 ६१६३) एकदा केनापि खलेन बहुदानं दीयमानं विलोक्य राणश्रीवीरधवलस्य विज्ञप्तम्-स्वामिन् ! तव भाण्डागारो यथेच्छं व्ययमानोऽस्ति । तद्वचनाद्विलोकनार्थ तत्रागतः। तद्दिने ब्राह्मणश्रमणवनीपकदेशांतरिणां विशेषतो दानं दीयमानं दृष्ट्वा मनसि दूमितो राणकः । राणकेनोक्तम्-मत्रिन् ! ईदृशेन व्ययेन कथं पूजयिष्यति । मन्त्रिणोक्तम्-यावान् आदेशो भवति, तावान् विधीयते । राज्ञोक्तम्-इयन्ति दिनानि कथं ममादेशो न कृतः । 20 25 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः । ७५ यावता पुण्येन राजकुले कार्यं तावद्विधीयते । राज्ञेोक्तम्- तव व्ययेन मम किं पुण्यम् । मत्रिणोक्तम् - राजन् ! केवलमहं भाण्डागारिक इवास्मि, सकलद्रव्यव्ययफलं तवैव । इत्युक्ते राणको जगाद - मन्त्रिन् ! यद्येवं तदा द्विगुणं दानं देयम् । (१६४) श्रीवस्तुपालः प्रथमयात्रायां पिशुनप्रवेशभयान्मत्रितेजः पालं तत्र विमुच्य प्रस्थितः । ततो मंत्रितेजःपालस्य महाविषादः संजातः - यदहं श्रीशत्रुञ्जययात्रायां न चालितो मन्त्रिणा । तदनु राणकेन तदवलोक्य 5 गाढाग्रहेण प्रेषितः । ततस्तेजः पालेन महं० देपाक आत्मस्थाने स्थापितः । ततस्तेजः पालं समेतं वीक्ष्य मत्रिणोक्तम्-त्वया न कृतं रम्यम् । यतः प्रभुरात्मीयो न भवति । तावता द्विजवामनेनेति राज्ञोऽग्रे निवेदितम् - राजन् ! मन्त्री यात्रायै न गतः, किं तु निधाननिक्षेपाय गतः । यदि राजादेशो भवति, तदा द्रव्यमानयामि । राज्ञेोक्तम्मध्याह्ने स्मारयेथाः । यथा कटकमर्पयामि । तावता तद्विज्ञाय महं० देपाकेन मत्रिणः संढियकः प्रहितः । स्नात्रावसरे संढियकमुत्सुकं समागच्छन्तं वीक्ष्य मन्त्रिणा तेजःपालस्योक्तम् - इदं तव चरितमायाति । संढियकेन सर्व- 10 मपि निवेदितम् । मन्त्रिणा संघस्याग्रे प्रसादः समेत इति विज्ञप्तम् । निशि भ्रातृद्वयेन मत्रं विधाय निधाननिक्षेपाय मानवा अरण्ये प्रहिताः । तत्र तेषां खनतां नवं निधानमुन्मीलितं वीक्ष्य मत्रिणोक्तम् - नैवात्मनां राजभयम् । तावता द्वितीयसंढियकेनाभ्येत्य स्वरूपं कथितमिति - वामनोऽन्यायकारी राज्ञा विधृतः । पुनः प्रसादो भवतां प्रहितः । ततः कुशलेन यात्रा विहिता । ९१६५) अनुपमया गुरवो नंदीश्वरतपः करणोद्यापनं पृष्टाः । गुरुभिरुक्तम् - वत्से ! भवत्या न प्रष्टव्यम् । तयो-15 क्तम्–कथम् ? । भवती पृच्छका, अहं कथकः । यदि न विधीयते तदा किम् । पुनरुक्तम् - भगवन् ! कथ्यताम् । गुरुभिरुक्तम् - वत्से ! जघन्यं बावनी ढौक्यते, मध्यमं बावन-बावनी, उत्तमं नंदीश्वरप्रासादः । ५२ आचार्यपद - ५२ सिंहासन- ५२ पाट एवं सर्वं विधीयते । देव्या प्रतिज्ञा विहिता - द्वितीयवेलायां तदा भोक्ष्ये, यदा प्रासादं कारयिष्यामि । गुरुभिरपि ततोऽभिग्रहो गृहीतः - वयमाचाम्लान् तदा मोक्ष्यामः, यदा भवदभिग्रहः सेत्स्यति । भोजनवेलायां देव्या मत्रिणो भाजने शालिभक्तं प्राशुकजलं च मुक्तम् । मत्रिणा कारणं पृष्टम् । तयोक्तम् - 20 भवतामभिग्रहोऽस्ति यत् गुरुदत्तशेषं भोक्तव्यम् । गुरवः पृष्टाः सर्व जगदुः । ततो वामदेवस्य सूत्रधारस्य पटं दर्शयित्वा प्रासादः कारितः । (१९६६) एकदा तीर्थयात्रायां श्रीशत्रुञ्जये सङ्घपतिना अवारितं सत्रागारा विहिताः । ततः सङ्घवात्सल्ये विधी - यमाने घृतं त्रुटितम् । सङ्घपतिचित्ते विषादो जात इति यद्विरंगो भविष्यति । सूरिभिः श्रीयशोभद्राख्यैर्ज्ञातम् । आकृष्टिविद्यया श्रीपत्तनात् कस्यापि गृहात् घृतमानीतम् । वात्सल्यं पूर्णमजनि । ततो गुर्वनुज्ञया तेन तावन्तो 25 द्रम्मास्तस्यार्पिताः । तेनोक्तममी कीदृशा द्रम्माः ? । तेन समग्रोऽपि वृत्तान्तो निवेदितः । तेनोक्तम् - यदि ममाज्यं श्रीशत्रुञ्जयस्योपरि साधर्मिकवात्सल्ये व्ययितं तदाहं न ग्रहीष्ये । ततस्तेन घृतवसतिका श्रीपत्तने निष्पन्ना । ९१६७) एकदा धवलक्कके कलशप्रतिष्ठायां मिलितेषु बहुषु सूरिषु द्वौ वक्तारौ पिप्पलाचार्यौ मिलितौ । तत्र ताभ्यामनुपमदेव्यै उपदेश इति दत्तः । यतः - पात्रदानमल्पं विनोददानं बहुतरम् । अनुपमदेव्योक्तम्- नैवम् । वचः स्मृत्वा स्थितौ । ततस्ताभ्यां रात्रौ वेषपरावर्त्तेन मत्रिमन्दिरे गत्वा मत्रिदेवीपुरतो महासतीचन्दनाचरितं 30 गातुमारब्धम् । चतुर्विंशतिसहस्रद्रम्मा लब्धाः । प्रातरनुपमदेव्यै दर्शितं सर्वम् । सत्यं मानितम् । ९१६८) अन्यदा तीर्थयात्रायां गच्छन्तो देशान्तरादागताः श्रीसङ्घा निमन्त्रिताः श्रीवस्तुपालेन । तदा मंत्री चरणप्रक्षालनं कुर्वाणः सेवकैर्निषिद्धः । तदा मत्रिणोक्तम् - " अद्य मे फलवती ० " ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे ६१६९) अन्यदा निशि पट्टशालास्थितश्रीविजयसेनसूरीन्नमस्कृत्य मत्री अपवरकस्थितश्रीउदयप्रभसूरीणां वन्दनाय गतः । तत्रैते न विद्यन्ते । एवं दिनत्रयं समेत्य विलोकितम् । चतुर्थदिने विनयपूर्व वृद्धगुरवः पृष्टाः । तैरुक्तम्-मत्रिन् ! अद्य कल्ये नगरेऽत्र चाचरीयाक एको महाविद्वानुपागतोऽस्ति । तस्य वचनविशेषश्रवणाय नित्यं सूरयो वेषपरावर्तेन यान्ति । तद्विज्ञाय मत्रिवस्तुपालस्तत्र गतः । सूरयः प्रच्छन्ना वीक्षिताः। प्रातः मत्रिणा 5 आकारितस्य चाचरीयाकस्य सहस्रद्वयी न्यासे कृता । इत्युक्तं च यत् त्वया पौषधशालाद्वारे चच्चरे चचरो मण्डनीयः । एवं षण्मासं मण्डितः । ततः सत्कृत्य प्रहितः। १७०) मत्रिणा श्रीउदयप्रभसूरयः पृष्टाः-कथं चतुर्विंशतिजिनेन्द्रध्यानदेव एक एव भवति । तत् कथं चतुर्विंशतिमध्ये को ध्येयः १ । गुरुभिरुक्तम्-महानयं सन्देहः । श्रीसरस्वती विना सन्देहनिर्णयो न भविष्यति । गुरुभिर्निशि देव्याराधनं विहितम् । श्रीभारत्या उच्छीर्षके श्लोकोऽयं समर्पितः10(२५१) अहं स्मरामि तादात्म्यात्तं रूढ्या परमेश्वरम्। स्थितं वाग्ब्रह्मणः पारे परं ब्रह्मेति यं विदुः॥ मत्रिणोक्तम्-अत्रापि सन्देहः । परब्रह्मेति वाक्यं सर्वाण्यपि दर्शनानि निजनिजदेवस्य कथयन्ति । गुरुभिः पुनः सरखत्याराधनं विहितम् । देव्या पुनर्निशि कथितम्(२५२) सुवर्ण.........ग्रीवामण्डनेऽन्त्यमणिद्वये । प्रभोर्यस्याङ्कितं नाम स्तुमहे परमेश्वरम् ॥ अर्हमिति सिद्धम् । 15६१७१) श्रीभृगुकच्छे श्रीमुनिसुव्रतनाथाधिष्ठायकाः श्रीबालहंससूरयो विद्वांसः । तेषां मठे घोटकसप्तशती राज्यम् । एकदा मत्री सङ्घ विधाय तत्रायातः। सर्वः स्नात्रपूजादिविधिर्विहितः। श्रीसूरयो नमस्कृताः। सूरिभिः समस्तश्रीसङ्घसमक्षमाशीवोदो दत्तः।। (२५३) अस्मिन्नसारसंसारे सारं सारंगलोचनाः । -इति वारसप्तकं पठितम् , व्याख्यातं च । ततो मत्रिणा चिन्तितम्-यत् सूरयोऽतिविषयिणः। तदनु गुरु20 भिरुत्तरार्द्धमुक्तम् यत्कुक्षिप्रभवा मन्ये वस्तुपाल ! भवादृशाः॥ ___ ततो मत्रिणा हर्षितेन ग्रामद्वादशकं श्रीदेवपादानां दत्तम् । ६१७२) एकदा वड्याग्रामे श्रीमाणिक्यसूरीणां श्रीवस्तुपालेनाकारणं प्रहितम् । परं नागताः । तदनु मंत्रिणा __ मह(०त्य ?)वदातवती विज्ञप्तिका निमंत्रणार्थ प्रहिता । तत्रेदं काव्यम्25 (२५४) इदं ज्योतिर्जालं जटलितविहायःस्थलमलं सखे मा माणिक्य प्रथय परितः सर्वहरितः। अयं गुंजापुंजाभरणसुभगंभावुकवपुः __ पुलिंद्राणा(०दाना?)मिंद्रस्तव नहि परीक्षाक्षममतिः॥ तथापि सूरयो नायाताः । तदा द्वितीयविज्ञप्तिकायां श्लोकोऽयं प्रहितः । तद्यथा “जडसंगमे प्रहषीं(?) द्विजिह्व 30 जनवल्लभोऽति तुच्छपदः । वटकूप० ।" अनेन श्लोकेन सूरयो रुष्टाः । तत आशीर्वादे विशेषावदाते श्लोकोऽयं प्रहित:(२५५) वंशार्धा परिस्फूर्त्या रे पिंजन ! विज॑भसे । गुणालीजन्महेतूनां तूलानां हृद्विपाटयन् ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धः। अनेन मर्मणा मंत्रिमनसि महान् विषादोजनि। तदनु तत्रत्यमंत्रिणा...... पान्निवनिष्पादितत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितभंडारो रात्रौ चौरवृत्त्या निःकाशितः । प्रातः सूरयो विषादिताः । चित्तनिवृत्त्यर्थं वाहरा विहिता । ततो मंत्रिणा दिनेषु सप्तसु गतेषु कस्यापि पथिकस्य हस्ते उपलेखपत्रे श्रीसूरीणां विज्ञप्तिका प्रहितेति-यदत्र तत्रभवतां भवतां श्रीसूरीणां पुस्तकमांडागारो वलितोऽस्ति । यदि कार्यं भवति तदाऽऽगंतव्यम् । श्रीसूरयस्तद्विज्ञाय प्रस्थिताः । मंत्रिणा महाप्रवेशोत्सवो विहितः तदनु मध्याह्ने श्रीसंघपूजायां श्रीसूरिभिः काव्यमिदं प्रोक्तम्- 5 (२५६) देव! स्वर्नाथ ! कष्टं क इह ननु भवानन्दनोद्यानपाल: खेदस्तत्कोऽद्य केनाप्यहह हृत इतः काननात्कल्पवृक्षः। हुं मा वादीः किमेतत्किमपि करुणया मानवानां मयैव । प्रीत्या दिष्टोऽयमुास्तिलकयति तलं वस्तुपालच्छलेन ॥ (२५७) वैरोचने रचितवत्यमरेशमैत्रीमेकत्र नाकनगरं च गते द्वितीये। 10 दीनाननं भुवनमूमधश्चापश्यदाश्वासितं पुनरुदारकरेण येन ॥ ततः श्रीसूरयो मंत्रिणा विज्ञप्ताः । किमेतदधुनागमनकारणम् ? । गुरुभिरुक्तम्-वयं सरखतीपुत्रकाः, भवांश्च सरस्वतीकंठाभरणमिति । यत्र सा तत्र वयम् । इति हर्षितः । ६१७३) श्रीवस्तुपालसभायां हरिहर-मदननामानौ पंडितौ महाकवीश्वरौ परस्परं निरंतरं विजय(विवद्य ?)मानौ स्तः।तौ द्वावपि परस्परं मत्सरं कुर्वतौ न तिष्ठतः। ततो मंत्रिणा दौवारिकस्योक्तम्-यत् त्वया एकसिन् पंडितेऽन्तः-15 स्थिते द्वितीयपंडितप्रवेशो न देयः । एकदा हरिहरे सदसि विद्याविनोदं वितन्वति मदनोऽपि समेतः । तेनोक्तम्(२५८) हरिहर ! परिहर गर्व कविराजगजांकुशो मदनः । द्वितीयेनोक्तम् मदन ! विमुद्रय वदनं हरिहरचरितं स्मरातीतम् ॥ ततो मंत्रिणा प्रोक्तम्-यः पणे काव्यशतं प्रथमं विधास्यति, स महाकविः । एवं सति मदनेन नालिकेरवर्णने 20 काव्यशतं त्वरितं विहितम् । अथ हरिहरेण काव्यषष्टिः। ततो मंत्रिणोक्तम्-हरिहर! त्वया हारितम् । तेनोक्तम् (२५९) रे रे ग्रामकुविंद कंदलयता वस्त्राण्यमूनि त्वया ___ गोणीविभ्रमभाजनानि बहुशः स्वात्मा किमायास्यते । अप्येकं रुचिरं चिरादभिनवं वासस्तदासूश्यतां यन्नोज्झन्ति कुचस्थलात् क्षणमपि क्षोणीभृतां वल्लभाः॥ ततो मत्रिणा हर्षितेन द्वावपि मानिती। ६१७४) एकदा व्यापारे व्यतीते नागडमंत्रिणि व्याप्रियमाणे श्रीवीसलदेवस्य मातुलो मूलराजः प्रातः श्रीवस्तुपालगुरुपौषधशालाप्रत्यासन्ने पथि व्रजन् लघुक्षुल्लकत्यक्तपुंजकेन खरंटितः । तदनु मंत्रिणा क्षुल्लकपराभवत्वात्तस्य करः छदापितः । बंबारवो जातः। ततो रुष्टेन राज्ञा वस्तुपालवधाय सैनिकाः प्रेषिताः । मंत्रीशोऽपि राजानमागत्येति जगाद-किं मया कृतम् ? । राज्ञोक्तम्-प्रत्यक्षमिदम् । मंत्रिणोक्तम्-अहं तवायशः सोढुं नालम् । 30 दर्शनपराभवोद्भवमयशो अपरराजमंडले याति । इति वचः श्रुत्वा विचार्य च राजापि हर्षितः । प्रसादं ददौ । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ६१७५) अंत्ययात्रायां महं वस्तुपालस्य आकेवालीयसरस पाल्यां आकली समेता। तत्र स्थितो मंत्री । भूमौ मुक्तः । श्रीसंघे तत्रागते उत्सवे विधीयमाने च मंत्रिणोऽश्रुपातः समजनि । कारणं पृष्टः । तदा मंत्रिणोक्तम्न मे संसारविषये चिंता वर्तते, परम् सुकृतं न कृतं किंचित् ॥१॥ 5 (२६०) नृपव्यापारपापेभ्यः सुकृतं खीकृतं न यैः। तान् धूलिधावकेभ्योऽपि मन्ये मूढतरान्नरान् ॥ (G.) सङ्ग्रहगतं वीरधवलवृत्तम् । ६९७६) अथ श्रीवीरधवलवारके नांदउद्रीपालितः, अढारहीउ बडूउ हरदेवः बड्याचाचरीयाकस्य शिष्यः । अन्यदा आशापल्यां समेतः । ततो दिवससप्तके जाते तत्परिवार इति कथयति-शंबलं नास्ति किंचित् । चाचरं क्षिपत । स भणति-स्थिरीभवत । अहं नित्यं नगरमनुष्यमनोऽभिप्रायं विलोकयन्नसि । इतश्च महाराष्ट्रीयो गोविंद10 चाचरीयाकः समाययौ । यस्याष्टादशपुराणानि अष्टौ व्याकरणानि चउपईबंधेन मुखपाठेनागच्छंति । तेन. चच्चरः क्षिप्तः । पारूथाद्रम्माश्चतुर्विंशतिसहस्रसंख्यका मिलितास्तस्य । ततो हरदेवचाचरीयाको विशेषतः परिच्छदेन प्रोत्साहितो लवदोसिकहढे सायमुपविष्टः । ततस्तेन सहजतो वातां कुर्वाणेन सीतारामप्रबंधः कथयितुमारेभे । प्रथमं दश द्वादश जना मिलिताः । क्रमेण बहवः । मध्यरात्री सुखासनाधिरूढा अमात्याद्याः शृण्वंतः संति । इतश्वोत्थितः यथा श्रोतॄणां विधातो न भवेत्तथा भणन् बहिः साभ्रमतीनदीतीरं गतः । ततो गानं विसृष्टम् । 15 ततः शीतभीता लोका इति वदंति-यत्त्वं तथा कुरुष्व यथा सुखेन नगरे गम्यते । ततस्तेन पुनरुत्तररामचरित्र गानमारब्धम् । तदनु सोऽपि जनः परमरसमनश्चतुष्पथे समानीतः। ततो लोकेन मुद्रिका-पट्टकूलादि-दानेन द्रामलक्षत्रयी दत्ता। (G.) सङ्ग्रहगतं वीसलदेववृत्तम् । ६१७७) श्रीजिनदत्तसूरिशिष्येण पं० अमरनाम्ना कोऽपि देशांतरी निरामयो विहितः । तेन श्रीसारस्वतमंत्रो 20 दत्तः । तत्प्रभावान्महाकविरभूत् । ततः पं० सोमेश्वरदेवसान्निध्यात् प्रथमं गद्यभारतम् , तदनु च्छेकभारतं च चकार । ततः सोमेश्वरदेवेन श्रीवीसलदेव इति विज्ञप्तः-राजन् ! कविः कर्ता एव, परं राजा ग्रंथं वर्त्तापयति । इत्युक्ते ग्रंथविलोकनहेतोः पूजा विहिता । शलाकया श्लोको विलोकितः । तद्यथा दधिमथनविलोलल्लोलगवेणिदंभा०॥१॥ ततो वेणीकृपाण इति विरुदं जातम् । ग्रंथो विदितो जातः । श्रीबालभारते समग्रेऽपि निष्पन्ने निशि व्यासेन 25 चोरितं पुस्तकम् । प्रातर्यावद्विलोकयति तावता पुस्तकं नास्ति । महाविषादोऽजनि । तावता व्यासेनोक्तम्-कथं विषादं कुरुषे । त्वया मम सपादलक्षग्रंथस्य चौर्यवृत्तिर्विहिता । अन्यत् मम नामापि न गृह्णासि । तव ग्रंथः कथं वर्तिष्यते । एवमुक्त्वा पुस्तकमर्पितम् । त्वद्विचारे यत्समायाति तद्विधेयम् । ततः प्रातश्चतुश्चत्वारिंशत्सर्गधुरि एकैकं नवं काव्यं चकार । अन्यदा श्रीबालभारते जगद्विदिते जाते वायडज्ञातीयमजाजैनवाणउटीपद्मनाम्ना पं० अमरस्येति गदितम्-पंडित! तव चेत् सरखत्यपि प्रसन्ना जाता । तर्हि कथं मिथ्यात्वं स्वीकृतम् ? । कथमा30त्मीये चरित्राण्यपि न विद्यते ?-इति प्रतिबुद्धेन पंडितेन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितं पद्मानंद*नामा ग्रंथः कृतः। . * एतच्छब्दोपरि पृष्टस्याधोभागे एवंरूपा टिप्पणी लिखिता लभ्यते-"तत्रारम्भः-मद्गोर्मिथ्यापथभ्रान्ता नाति श्रान्तिमलच्छिदे । चतुर्विंशतितीर्थेशचरित्रामृतसागरे ॥" Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसलदेववृत्तम् । ६९७८) श्रीवीसलदेवस्याग्रेऽवसरे जायमाने रागानभिज्ञस्य राज्ञो रागसंकेताः कृताः संति श्रीनागलदेव्या । श्रीरागस्य शरीरं, वसंतस्य कुसुमं, भैरवस्य भेरीरवः, पंचमस्यांगुलिपंचकं, मेघरागस्याकाशः, नट्टनारायणस्य चक्रं, कानडा कर्णः, धनासी धान्यं, नाटसारि पासकः, सोरठी पश्चिमा, गूर्जरी सिंहासनं, देवशाखायां द्वारशाखादर्शनम्-एवम् । एकदा कोऽपि बइकारः समागतो देवशाखायामवलगां करोति । राजा रागं न वेत्ति । राज्ञी तु वारं वारं द्वारशाखां दर्शयति । एवं बइकारेणोक्तम्-राज्ञि! भवती चेत् द्वारशाखां विदारयति, ततोऽपि राजा 5 न वेत्ति । इत्युक्ते राजा हसितः । $१७९) एकदा श्रीवीसलदेवेन नागलदेव्यग्रे न्यगादि-यन्मां रागपद्धति शिक्षय । एवमुक्ते दिनपंचसप्तकानंतरं यवनिकांतरितया देव्या बहुदासिकाभिः प्रत्येकं तदेव कार्य निजगदे । राज्ञोक्तम्-देवि! किमेतत् सर्वा अपि दासिकास्तदेव कार्य निगदंति ? । देव्योक्तम्-देव! काः कियंत्योऽभूवन् ? । राज्ञा सर्वा अपि नामग्राहं कथिताः । देव्यूचे-राजन् ! रागपद्धतिरेवमेव ज्ञायते । ततो देव्या वीणामादाय राजा रागान् सर्वानपि शिक्षितः। 10 ६१८०) अन्यदा मध्यरात्रौ नागलदेवी राज्ञश्चरणसंवाहनं कुर्वाणा श्रांता । ततस्तयोक्तं वृद्धमहिलीबउलीपुरःयत् त्वं चरणसंवाहनं कुरु । अहं श्रांतासि । ततो मयणसाहारेणोक्तम्-यत् त्वं आत्मानं पखाउजीपुत्रीत्वं न वेत्सि । पखाउजसत्कं भोजनं कुसणाती निर्विण्णा न । अधुना खिन्ना । ततो रुषितया (रुष्टया?) तया मयणसाहारस्य नासाच्छेदः कारितः। ततो देवगिरौ गतः । राज्ञा सिंहणदेवेन पृष्टः । तेनेत्युक्तम्-अत्र स आगच्छति यस्य नासा न स्यात् । इति श्रुतेन नूतना नासा कुतोऽप्यानीय तत्क्षणमारोपिता । लग्ना । अन्यदा पुन: 15 श्रीपत्तने समागतः । राज्ञा पृष्टः स वक्ति-अन्यस्य समीपे नासा याति । परं सिंहणदेवसमीपे गतापि समागच्छति । इति हृष्टेन प्रसादो दत्तः। ६९८१) श्रीवीसलदेवस्य द्वारभद्देन नीराजनावतरणसमये प्रचुराकारणैरागताया नागलदेव्याः कथितमितिकथं आत्मानं न जानासि । इयती वेलां विलंबसे । इति कथिते कुपिता[ऽत्यर्थं] तद्वचनेन । मारणे गाढाग्रहां मत्वा राज्ञा न मारितः, किं तु मयणसाहारस्य नेत्राकर्षणं कृतम् । तेनापमानेन स मालवपतिनरवर्मसमीपं 20 गतः । तेनावर्जितेन ग्रासशासनादि समर्पितम् । एकवेलं राज्ञा कथितम्-मदन ! वीसलेन राज्ञा तव नेत्रे कथं कर्षिते ? । गाढाग्रहं पृष्टेन तेनोक्तम-विवेकनारायण! गर्जरधराधिपतिरस्मत्स्वामी विवेकबहस्पतिः । यथा रणभन्नस्य नृपाधमस्य मुखमसाकीनानि पात्राणि द्वारभट्टादीनि न पश्यति । अत एवं विहितम् । स नरवर्मराजा वीसलेन वारत्रयं भग्नोऽस्ति । श्रुत्वैव स्थितः। [ज्ञातं ] चरपरंपरया श्रीवीसलदेवेन । मयणसाहारः समाकारितः । अतीव मानं दत्तम् । एकदा पृष्टम्-कथमीदृग्वाक्येन नरवर्मराज्ञो विषादो न जातः ? 125 तेनोक्तम्-स उभयवंशविशुद्धः, न भवादृशः । यतः-भवान् (भवत् ? ) पितृपक्षे लूणसीहः स पदातिमात्रः । मातृपक्षे महिषीभक्षका जेठेया इति । राज्ञा किमपि न कथितम् । ६१८२) एकदा श्रीवीसलदेवस्य दक्षिणे चक्षुपि अंजनीरोगो जातः । तद्यथा दिनत्रयस्य मध्ये बहुभिरुपचारैरपि नोपशमति । ततोऽरिसिंहराजवैद्यस्याकारणं प्रहितम् । तेन समेतेन गदितं इति-अहो प्रधाना! विहिते भेषजे राज्ञो घटिकाचतुष्टयं यावन्महती व्यथा भविष्यति । तदाहं मार्यमाणो रक्षणीयो भवद्भिः। तैरुक्तम्-भवतु । 30 इत्युक्ते भेषजं दत्तं वैद्येन । ततो विशेषेण वेदना जाता । ततो राज्ञोक्तम्-अमुं मारयत । परं स रक्षितः। अथ घटिकाचतुष्कादनंतरं निरामयेन राज्ञा वैद्यस्यामंत्रणं प्रेषितम् । प्रधानरुक्तम्-स मारितः । राजातीव दुःखितोऽभूत् । तदनु समानीतो वैद्यः । तत्पुरो राज्ञोक्तम्-मम भेषजं कथय, अन्यथा मारयिष्ये । व्यथा Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घ सर्वसाधारणा । त्वं तु कुत्रापि यास्यसि । अतोऽहं सर्वविदितं औषधं विधास्ये । तेन पीलूकुलीयकः कथितः । ततो राज्ञा सन्मानितः । बहुद्रव्यं दत्तम् । औषधं सर्वत्र विदितं कृतम् । $ १८३) अन्यदा आशापल्यां राजीमतीछिंपिकया गुरुपार्श्वे आगमोक्ततपांसि द्वात्रिंशन्मितानि कृतानि । तत आंबिलवर्द्धमानतपोऽभिग्रहे गुरुभिरुक्तम् - यत्तपसि क्रोधो न विधीयते । क्रोधेन तपःक्षयो भवति । इति 5 क्रोधस्याभिग्रहो गृहीतः । एवं राजश्रीवीसलदेवस्य सदसि महं० सात्कस्य व्यासस्य च होडा जाता । यन्मनुष्यः सक्रोधो भवत्येव । मंत्रिणोक्तम् - अहमक्रोधिनं दर्शयिष्यामि । ततो वंठपार्श्वात्तुरगखुरै रंगभांडभंगे कृते तस्याः, तया तु तुरगचरणानां शीतलजलेन क्षालनं विहितम् । राज्ञा तदवगत्य तस्याः पंचांगप्रसादः, सर्वांगाभरणानि दत्तानि । ततस्तया तेन द्रव्येण प्रासादः कारितः । ८० १८४) मंत्रिणि श्री [ वस्तुपाले] दिवंगते पं० सोमेश्वरदेवेन व्यासविद्यासमर्थिता ( ०र्थना ?) त्यक्ता । ततः 10 श्रीवीसलदेवेन महानप्युपरोधो विहितः । विशेषग्रासलाभोऽपि दर्शितः । परं [तेनोक्तम् - मंत्री श्री ] वस्तुपालस्याग्रे व्यासविद्यां विधाय नान्यस्य पुरो विदधामि । ततो राज्ञा गणपतिनामा व्यासः कृतः । ( अत्रार्द्धप्राया पंक्ति 20 25 १९८६) अथ भद्रेश्वरे वसाहजगहूनामा वसति । अन्यदा राजकीयप्रवहणे वाजिपंचक राशिर्विहितः । आग15 च्छमानं यानं तटे एव भग्नम् | राजा समुद्रोपकंठे विलोकनाय गतः । तत्र समेतेन मनुष्येणैकेन प्रवहणमध्यस्वरूपं समग्रमपीति कथितम् । याने १४४ घोटका आसन् । तेषां मध्यात् प्रधानाश्वपंचकं वसाहजगडूकस्य । तेषां मध्ये करडाकनामा सर्वोत्तमस्तुरगो विद्यते । ततो वसाहेनोक्तम् - मदीया अश्वाः समेष्यंत्येव । राज्ञोक्तम्कथमस्माकं तुरगा यास्यति, कथं तवोद्गरिष्यंति ? | वसाहेनोक्तम् - तवापि ममापि च भाग्यं सदृशं नेति वार्त्ता कुर्वतोर्द्वयोः समुद्रान्तश्चतुर्भिस्तुरगैः सह करडाकः प्रकटीबभूव । समागतश्च सकलोऽपि लोकश्चमत्कृतः । $ १८५) पुरा मुद्गलबंदीकृतवसा हजगड श्रीवीसलदेवेन दुर्गादागत्य निशि ...... र्नष्टा ) .. ...... द्रव्यमादाय नष्टः । भद्रेश्वरे व्यवहारी जातः । (१८७) अन्यदा सं० १३१५ वर्षे दुर्भिक्षकाले श्रीवीसलेन चणकत्रुटौ भद्रेश्वरव्यापारिणो नागडस्य लेखः प्रहितः । जगकोऽत्र धृत्वा समानेतव्यः । तेन तस्य लेखं दर्शयित्वा श्रीपत्तने तेन सह गतः नागडः । सर्वायपि रंककुटुंबानि तत्रागतानि । तेषां दानं दातुमारब्धम् । ततः स्थालैः ३६० तटा कृता । विशुद्धवेपाणां वणिक्पुत्राणां मध्ये तं सामान्यवेषस्थं वीक्ष्य राजा नोपलक्षयति । ततो मंत्रिणा दर्शितः । राज्ञोक्तम्-कथमीश एव वेषः । तेनोक्तम् - राजन् ! (२६१) तन्वंति डंबर भरैर्महिमा न मन्ये श्लाघ्यो जनस्तु गुणगौरवसंपदैव । शोभाविभूषणगणैरितरांगुलीनां ज्येष्ठत्वमेव रुचिरं खलु मध्यमायाः ॥ इति अष्टादशखंडै: सिंगिणिर्विदेशराज्ञा प्रहिता तस्यार्पिता । उक्तं च - राजन् ! किमर्थमहमाकारितः १ । राज्ञोक्तम् – चणकहेतोः । तेनोक्तम् - मयानंतगुणं लाभं विचार्य कणकोष्ठागाराः सर्वेऽपि रंकहेतोर्दत्ताः । राज्ञो - क्तम्-तर्हि मया वडरंकेन भाव्यम् । एवं हर्षितेन मूढकशत १८ चणकसमर्पणं विहितम् ' । + अत्र पृष्टस्योपरितनभागे एतादृशी टिप्पणी अ य मूडसहसा बीसलदेवस्स सोल हम्मीरा । एकवीसा सुलताना पर्यादिन्ना जगड दुकाले ॥ नवकरवाली मणिअडा तिहिं अग्गला चियारि । दानसाल जगडूतणी कित्ती कलिहि मझारि ॥ निर्यातदानदाता हरिकांता हृदय हार शृंगारः । दुर्भिक्षसंनिपाते त्रिजगडू जगडू चिरं जीयात् ॥ For Private Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वासघातकविषये नन्दपुत्रप्रबन्धः । ३६. विश्वासघातकविषये नन्दपुत्रप्रबन्धः (B. ) । ६१८८) एकदा पाटलीपुरे नन्दो नृपस्तस्य भानुमती देवी | एकदा नृपस्त्वाखेटकं गतः । तत्र भोजनवेला जाता। नृपो देवीदर्शनं विना न भुनक्ति । इतो वररुचिना देवी भारतीप्रसादाद्देवीरूपं कृतम् । गुह्यदेशे बिन्दुः पपात । एकवेलमपाकृतः । पुनस्तथैव । तेन चिन्तितमत्रास्ते । राजा देवीं निर्वर्ण्य हृष्टो भुक्तव । बिन्दुं दृष्ट्वा कुपितो नूनमसावन्तःपुरे विनष्टः । राजा रक्षकेण च्छन्नं वररुचिर्मारितः । आरक्षकेण भूमिगृहे स्थापितस्तस्य पुत्रान् 5 पाठयति । इतो नृपस्य तनयो राजपाट्यां गतोऽश्वापहृतो वनं ययौ । अश्वस्तु मुक्तमात्रो मृतः । कुमारोऽपि फलास्वादं कृत्वा वासार्थं वृक्षं प्राप्तः । तत्र उपरि रिछोऽस्ति । इतो नरगन्धाद् व्याघ्रः समायातः । कुमारः प्राणभयाबृक्षमारूढः । रिछेनोक्तम् - एहि एहि त्वं ममातिथिः । व्याघ्रस्तु वृक्षमूले स्थितः । रिंछेनोक्तम् - व्याघ्रस्य मम वैरमस्ति । त्वया तु न भेतव्यम् । कुमारस्तस्य समीपं गतः । रिंछेनोक्तम् - स्वस्थीभूय निद्रां कुरु । स रिंछांके शिरो दत्वा सुप्तः । व्याघ्रेणोक्तम्- भो ! रिंछामुं नरं यद्यर्पयसि तदाऽऽवयोः प्रीतिः स्यात् । आवां स्वजनावेकत्र 10 वनवासिनौ । तेनोक्तम्-नाहं विश्वस्थनः । अमुं युगान्तेऽपि नापयामि । इतः कुमारो जागरितः । रिछेनोक्तम्त्वं जागृहि शयनमहं करोमि । परमसौ मां याचयिष्यति । असौ कपटवानस्ति । त्वया तु मलिनता न कार्या । एवमुक्त्वा स्वकेशान् शाखायां बद्धा सुप्तः । इतो व्याघ्रेणोक्तम्- भो राजपुत्रा ममापय । यथा त्वां जीवन्तं मुञ्चामि । अन्यथा वनात्कथं यास्यसि । असौ मलिनोऽस्ति प्रातस्त्वां हत्वा खादयिष्यति । कुमारेण रिंछस्तद्वचसा क्षिप्तः । स केशैर्बद्धैः स्थितः, न पतितः । तेन कुमार उक्तः - रे किमिदम् ? अधुना किम् ? । स चरणयोर्निप- 15 त्याह-अहं भुल्लः । तेनोक्तम्-त्वं वचनाद्भष्टः । अतस्ते तत् यातु । तेन सदैन्यमुक्तः - अनुग्रहं देहि । तेनोक्तम्'विसेमिरा' एवं जल्पसि । यदि कोऽप्यमुं व्याख्यानयिष्यति तदा ते वचः पटुतरं स्यात् । इतः प्रभाते तुरगपदैः सैन्यमायातम् । व्याघ्रस्तु वनं गतः । रिंछोऽपि गतः । कुमारः पुरमाययौ । परं 'विसेमिरा' एतदेव वक्ति । मात्रिकैर्जल्प्यमानोऽपि तदेव वक्ति । पण्डितेन आरक्षकः पृष्टः - नृपसभायां का वार्ता ? । स्वरूपं श्रुत्वोक्तम्- मां तत्र नयसि तदा सञ्जं करोमि । तेनोक्तम् - चल | ... कथमाकारणं विना गम्यते १ । आरक्षकेण नृपः पृष्टः - देव 120 मम गृहे युवत्येकाऽऽयातास्ति सा सञ्जीकरिष्यति । नृपेणाहूता । पण्डितः स्त्रीवेषो नृपसभां गतः । यवनिकान्तरितः स्थितः । कुमारो जल्पितस्तेन (२६२) विश्वासप्रतिपन्नानां वञ्चने का विदग्धता । अङ्कमारुह्य सुप्तस्य हन्तुः किं नाम पौरुषम् ॥ इत्युक्ते आद्याक्षरो मुक्तः । (२६३) सेतुं गत्वा समुद्रस्य महानद्याञ्च सङ्गमे । ब्रह्महा मुच्यते पापान्मित्रद्रोही न मुच्यते ॥ इति द्वितीयाक्षरः । (२६४) मित्रद्रोही कृतघ्नश्च यो वै विश्वासघातकः । तावत्ते नरकं यान्ति यावच्चेन्द्राश्चतुर्दश ॥ [ इति तृतीयाक्षरः । ] (२६५) राजंस्त्वं राजपुत्रस्य यदि कल्याणमिच्छसि । देहि दानं द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ॥ [ इति चतुर्थाक्षरः ।] पु० प्र० स० 11 For Private Personal Use Only ८१ 25 30 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे (२६६) नगरे वससि हे बालेऽटव्यां नैव यास्यसि। सिंहव्याघ्रमनुष्याणां कथं जानासि भाषितम्॥ (२६७) देव! द्विजप्रसादेन जिह्वाग्रे मम भारती। तेनाहं नन्द ! जानामि भानुमतीतिलकं यथा ॥ 5 नृपेणोपलक्ष्य पण्डितो मानितः । आरक्षकस्य प्रसादो दत्तः। ॥ इति विश्वासघातकविषये नन्दपुत्रप्रबन्धः॥ (G.) सङ्ग्रहे नन्दनृपोल्लेखः। - ६१८९) पाटलीपुरे नंदनामा नृपोऽजनि । महाकृपणः कस्यापि किमपि न दत्ते । ततः सर्वेषां द्वेष्योऽजनि । अत्रांन्तरे कालदोषेण स मृतः । तदनु परकायप्रवेशविद्यासिद्धद्विजेन राज्ञः शबे स्वात्मा निवेशितः। ततः शबं 10 समुत्थितम् । सकलराजलोकस्य महानंदोऽजनि । सर्वेषां राज्ञा प्रसादो दत्तः । मंत्रिणः सर्वेऽपि तदौदार्य विलोक्य पुरे द्विजदेहसंस्कारं कारितवंतः । स एव राजा कृतः। ३७. वलभीभङ्गप्रबन्धः ( P.) ६ १९०) मरुमंडले पल्लीग्रामे काकू-पाताको भ्रातरौ । तयोर्लघुधनवान् । ज्यायांस्तु तद्गृहे वृत्त्या वर्तते । एकदा प्रावृट्काले लघूक्तिः-केदारास्ते स्फुटिताः । स्वकर्म निन्दन् कुद्दालस्कन्धो यावद्याति तावत्कर्मकराः सेतून् 15 बन्धयन्ति । के यूयम् ? । तैः प्रोचे-भवद्भातुः कर्मकराः । मदीयाः क्व सन्ति । वलभ्याम् । गतस्तत्र सः, गोपुरसमीपे आभीराणां संनिधौ तार्णगृहे स्थितः। अत्यंत कृशतया तै रंक इति नाम कृतम् । इतः कोऽपि कार्पटिको कल्पप्रमाणेन रैवतशैलादलाबुना सिद्धरसकूपात तुंबिका भृता । तामादाय कावडिमध्ये गुप्तीकृता मध्ये मार्गस्य याति । तुंबकमध्यादशरीरिणी 'काकूइ तूंबडी' इति वाणीमाकर्ण्य जातविस्मयभीर्वलभ्यां तस्य च्छमिनो वणिजः समनि समागतः। तत्र सरंक इति ज्ञात्वा पूर्वनामभीतः सरसमलाबु तत्र स्थापयांचक्रे । स्वयं सोमेश्वरयात्रायां गतः । 20 गलदिन्दुनाऽधस्तापिका स्वर्णमयी। सिद्धरसं मत्वा सर्व कृष्ट्वा गृहज्वालनं कृतम् । सर्वजनस्य समक्षं रोदति । स्वच्छद्म प्रकटीकरणम् । लोकैः पर्यवसापितस्तथैव प्रज्वलितं गृहं मुक्त्वाऽन्ये गोपुरे गृहं कृतम् । तत्र मोगाः संति । तसिन् साहसादुवास स निर्भयः । क्षेत्रे रात्री वसति । पत्नी प्रति गृहे वक्ति पतामि ३ । प्रातः कथितम् । सा क्षेत्रे स्वयं गृहे । पुनः शब्दे पतेति प्रोक्तः। स्वर्णपौरुषसिद्धिप्रदः । सत्त्वैक-अगण्यपुण्यप्रभावात् स्वर्णपुरुषसिद्धिः । तत्र प्राज्याज्यक्रयः । अन्यदा घृतभांडमक्षीणं प्रेक्ष्य सुस्थके चित्रकवल्ली दृष्टा । स्त्रियाः कैतवेन अधिः । अथ स्वसताया रत्नखचितकांचनकंकतिकायां राज्ञा स्वसताकते प्रसभमपहतायां तद्विरोधो जातः। “काके शौचं०॥" सोऽपि म्लेच्छान् वलभीभंगाय । यदृच्छास्वर्णदानम् । तदनुपकृत एकश्छत्रधरो निशि राज्ञि सुप्तजाग्रदवस्थे पूर्वसंकेतितनरसमालापः । अस्मिन् स्वामिनो नास्ति विचारलेशोऽपि, न परमपि पृच्छति । रंकवणिजा प्रेरितः सूर्यपुत्रं शिलादित्यं प्रति याति । प्रातः प्रयाणविलम्बं दृष्ट्वा तस्य स्वर्णदानम् । पुनर्द्वितीयदिने पुनः "सिंहस्सैकपदं० ॥ कः स्थास्यति मे स्वामिनः०।" प्रयाणम् । 30 १९१) खेडमहास्थाने देवादित्यसुता बालविधवाऽर्कसंमुखावलोके सौर मंत्र जपति । तेनैव भुक्ता । गर्भः। लज्जमानेन पित्रा वलभ्यां प्रस्थापिता। पुत्रजन्म । सोऽष्टाब्दः । लेखशालापराभूतो पितृनामानवगम्य मर्तुकामोऽर्केण करे कर्करोऽर्पितः । सापराधे शिलाऽन्यथा तवैव सा इत्युक्तः । ततः शिलादित्यः । तत्पुरनपेण परीक्षायै 25 ग्रहीता कापण्या Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वलभीभङ्गप्रबन्धः। तथाकृते मृते राज्ञि स एव राजा । अर्कदत्ताश्वारूढो नभश्वर इवेच्छाविहारी । जैनः । शत्रुञ्जयोद्धारकः । कदा. चित् सौगतैस्तमधिष्ठितम् । तद्भागिनेयो मल्लनामा क्षुल्लः वेषपरावर्तेन बौद्धपार्श्वे । खे भारत्योक्तम्-के मिष्टाः । वल्लाः । षण्मासान्ते-केन सह । घृतगुडाभ्याम् । इत्युक्ते तुष्टा भारती । जिताः सौगता निष्कासिताः। शिलादित्येनाचार्यपदं कारितम् । श्रीमल्लवादिसरिः । ६१९२) इतो वलभ्याः श्रीचन्द्रप्रभविम्बं सांबाक्षेत्रपालादि अधिष्ठातुर्बलेन व्योम्नि शिवपत्तने गतम् । अश्विनीपू- 5 र्णिमास्यां रथाधिरूढा श्रीवीरप्रतिमा श्रीमालपुरे । ततः पूर्देवतया श्रीवर्द्धमानसूरीणां बहिभूमौ रोदनेन ज्ञापनम् । (२६८) का त्वं सुंदरि जल्प देविसदृशे किं कारणं रोदिषि भंगं श्रीवलभीपुरस्य भगवन् पश्याम्ययं प्रत्ययः। भिक्षायां रुधिरं भविष्यति पयो लब्धं भवत्साधुभिः स्थातव्यं मुनिभिस्तदेव रुधिरं यस्मिन् पयो जायते ॥ पुरीसमागताः श्रावकाणां पुरः प्रोच्याशिवं चलिताः । तैश्च समं शकटसहस्र १८ चलिताः । मोढेरपुरे रुधिरं पतगृहे पयो जातम् । पुरीपरिसरे म्लेच्छाः । रंकेण पंचशब्दवादकान् बहुवर्णेन विभेद्य तस्य तुरगस्यारोहणकाले एव क्रियमाणे पंचशब्दसाराविणे तार्थ्यवदुड्डीय स दिवमुत्पतितः। किंकर्तव्यतामूढः शिलादित्यस्तैर्निजन्ने । "भवंत्युपा०॥" "तावचंद्र०॥" (२६९) पणसइरी वासाइं तिन्निसयाइं अइक्कमेऊणं । 15 विक्कमकालाउ तओ वलहीभंगो समुप्पन्नो ॥ ॥ इति वलभीभङ्गप्रबंधः॥ (G.) सङ्ग्रहे वलभीभङ्गवृत्तम् ।। .६ १९३) अथ पातसाहिकटके चलिते यवनव्यंतर एको वलभ्यामुपागतः। कुत्रापि प्रवेशं न लभते । कियद्भिर्दिनैः कपिशीर्षमेकं रिक्तं वीक्ष्य स्थितः। ततस्तत्र कश्चिद्दरिद्री द्विजो नित्यमग्निहोत्रहेतोः कपिलगोघृतमादातुं स्वां भार्या 20 प्रहिणोति । तया विषण्णतया तद्व्यंतरावेशेन खरमूत्रमानीयार्पितम् । तेन होमो दत्तः। प्रातर्यावता विलोकयति तावता सुवर्ण दृष्टम् । नित्यमेवं विधत्ते । ब्राह्मण्या तु निजसख्या अग्रे कथितम् । एवं परंपरया पुरे सर्वत्र खर[मूत्रहोमोजनि । तेन पुरं निर्दैवतं जातम् । यवनव्यंतराः प्रसृताः सर्वत्र । ततो यवनकटकमागतम् । . . ६१९४) वलभ्यां श्रीदेवचन्द्रसूरयो रात्रौ सुप्ताः कांचन देवतां प्रत्यक्षां द्वादशवर्षरूपां पश्यंति स्म । पृष्टं च-"का त्वं सुंदरि०॥" तत्स्वरूपं परिज्ञाय गुरुभिः श्रीसंघस्य राज्ञश्च निवेदितम् । ततः कियानपि श्रीसंघो निःसृतः। 25 ६१९५) अथ राज्ञोक्तम्-भगवन् ! निजव्यंतरैः शुद्धिः कार्या। ततः सूरिभिर्निजव्यंतरद्वयं प्रहितम् । तत् द्वयं वलमानं यवनव्यंतरैधृतं, कुट्टितं च । दिनत्रयं स्थापितं च । तावता गुरूणां उसेरिर्जाता । दिनत्रयं यावत् कटके चलिते मुक्तम् । ततस्ताभ्यां समग्रमपि स्वरूपं श्रीपूज्यानां निवेदितम् । गुरवो गताः । राजा स्थितः । अश्विनीपूणिमादिने रथयात्रायां श्रीमालपुरे श्रीमहावीरः, कासद्हे श्रीयुगादिदेवः, हारीजे श्रीपार्श्वनाथः, श्रीशत्रुजये बलभीनाथश्चाययो । तदनु रंकेण सर्वेऽपि यवना रणे क्षिप्ता मारिताः। 30 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ३८. श्रीमाताप्रबन्धः (B.P.) ___६१९६) पूर्वस्यां लखणावतीपुरी। राजा लखणसेनः। तस्यान्वये राजा रत्नपुञ्जः। तस्य राजपाट्यां व्रजतः काचित् स्त्री सगर्भा अक्षतपात्रकरा सम्मुखा जाता। नृपेणाक्षतपात्रनालिकेरोपरि दुर्गा निविष्टा दृष्टा । नृपेण शाकुनिका पृष्टः । तेनोक्तम्-अस्याः सुतोत्र नृपो भावी । राज्ञा आरक्षक आदिष्टः-यदेनां प्रछन्नं परावहिर्नीत्वा गायां 5क्षिप । सा तलारेण नृपादेशादहिनीता । तयोक्तम्-क मां नयसि । तेनोक्तम्-मारयिष्यामि । तया भयभीतयोक्तम-अहं बहिर्भूमौ यास्यामि । सा गता। भयाद्दर्भः पपात । सा चीवरेणावेष्ट्याययौ । तैारिता सा। स बालो एकया हरिण्या दृष्टः । कृपया स्तन्यं पायितः । सा प्रतिदिनं तं पालयति । लुब्धकेन एकेन बालं स्तन्यं पाययन्ती मृगी दृष्टा । नृपाय निवेदितं बालखरूपम् । राज्ञा तलारः पृष्टः। तेनोक्तम्-सा मृत्युवेलायां बहि भूमौ गता । नृपेण बालस्ततः समानीय पुरपरिसरे मुक्तः । यथा धेनोश्चरणपातेन मरति । इतस्तस्य बालस्य 10क्षुधितस्य वाक्यमुत्पन्नम् । (२७०) यो मे गर्भस्थितस्यापि वृत्तिं कल्पितवान् पयः। शेषवृत्तिविधानाय स किं सुप्तोऽथवा मृतः॥ काचिद्धेनुर्नवप्रसूता तत्रागत्य पाययति । नृपेण चिन्तितं न म्रियते । स धवलगृहे आनीतः । श्रीपुञ्जेति नाम कृतम् । कालेन नृपतिना राज्यं दत्तम् । श्रीपुञ्जस्य राज्यं पालयतः क्रमेण पुत्री जाता । तस्याः शरीरं 15 दिव्यम् , मुखं वानर्याः । क्रमेण प्रौढा जाता । कोऽपि न याचते । तस्याः खेदपराया जातिसरणमुत्पेदे । पाश्चात्य भवो दृष्टः । तया नगरमध्ये शब्द: पातितः। यः कोऽपि मरुस्थल्याः समायातः सोऽभ्येतु । एकः पुरोऽभूत । कुमार्या पृष्टः-अर्बुदं वेत्सि? । सर्व वेद्मि । तत्र कामिकतीर्थाग्रे कुण्डमस्ति, तस्य तटे वंशजाल्यस्ति । तत्र जाल्यां वानरीशिरो लग्नमस्ति । इतो मत्सकाशाद्रव्यमादाय तत्र गत्वा तच्छिरो जलान्तः क्षिप्वा समागच्छ । स तत्र गत्वा यावज्जले क्षिपति तच्छिरस्तावदेव कुमार्याः श्रीमाताया मुखं दर्शनीयं जातम् । नृपेण पृष्टा-वत्से ! किमि20 दम् । तयोक्तम्-देव! मरुस्थल्यामष्टादशशिती] देशमध्ये नन्दिवर्द्धनो नाम पर्वतस्तत्र कामिकतीर्थमस्ति । तस्य तीरे वंशजाली । तत्राहं पूर्वभवे वानरीरूपाधिरूढा । फालच्युता वंशकीलेन विद्धा मृता । मम शरीरं गलित्वोदके पतितम् । तत्प्रभावादहं तव पुत्री जाता । शिरस्तत्र स्थितम् । अतो मे ईदृशं मुखम् । अधुना जनः प्रेषितः । तेन शिरसि जले क्षिप्ते वदनं स्वभावे जातम् । इतस्तसिन्नरे समायाते परिणयनपराङ्मुखी जाता । अतिनिर्ब न्धेन पितरावापृच्छय, बहुपरिकरेण अर्बुदाद्रावाययौ । तत्र तपः कर्तुं प्रारेभे । इतस्तत्र रसीअउ तपस्वी तपः 25 करोति । स तां दृष्ट्वा क्षुब्धः। पाणिग्रहणार्थं ययाचे । तयोक्तम्-यदि सूर्योदयाद् अर्वाक् द्वादश पाजा अत्र पर्वते करोषि, तदा त्वां परिणये । तेन तपः शक्त्या शीघ्रं चकार । इति कियत्यपि रात्रिशेषे श्रीमातया तपःप्रभावात्कुक्कुटः स्वरः कृतः। स तं श्रुत्वा विभातमिति कृत्वा क्षुब्धः । हृदयस्फोटान्मृतो व्यन्तरो जातः । साऽपि सपश्चात्तापा वैश्वदेवे प्रवेशं कृत्वा देवी श्रीमाता जाता। ॥ इति तपसि श्रीमाताप्रबन्धः॥ 30(G.) सङ्ग्रहगतं श्रीमातावृत्तम् । ६ १९७) पुरा रत्नपुरे रत्नशेखरो राजाऽऽसीत् । तेन दिग्विजयव्यावृत्तेन प्रवेशमहोत्सव..................तीति पृष्टः । ताभिः संतानाभावान्नेति कथितम् । ततः संतानहेतोर्नवांतःपुरचिकी राजा शाकुनिकेन बहिनिष्क्रांतः । ततः शाकुनिकेनापन्नसत्त्वां कामपि कामिनी काष्ठभारवाहिनीमुदीक्ष्यायाः सुतस्तव राज्ये भविता एवं जगाद । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगद्देवप्रबन्धः। ततो विषिण्ण(षण्ण)मनसा राज्ञा सा गर्चायां क्षेपिता। तया प्रसूय बालो मुक्तः । नवप्रसूता हरिणी तं निजस्तन्येन जीवयति । अथ टंकशालायां हरिण्यंकिता द्रम्माः पतंति । राजा तथा विज्ञायानीय च गोपुरद्वारि सायं मुक्तः । तत्रस्थो बाल: संडेन रक्षितः । ततो राज्ञा समानीय स बालो लालितः श्रीपुंजराजा बभूव । श्रीपुंजराज्ञः पुत्री श्रीमाता मर्कटमुखी जाता । तस्या जातिसरणं जातमिति-पुरा अर्बुदाचले मर्कटी फालां ददाना शाखया विद्धा । कुंडोपरि गलित्वा देहं पतितम् । शिरो शाखायां विलग्नमेव स्थितम् । ततो देहं 5 मानवाकारं कुंडपतनप्रभावादजनि । ततस्तत्रागत्य शिरोऽपि तया तत्र क्षिप्तं कुंडे । ततोऽर्बुदे तपसंती तां तत्र रसीयाकनामा योगी ददर्श। प्रार्थितं तेनेति-यन्मम पनी भव । तयोक्तम्-द्वादशपद्या विधेहि एकरात्रि मध्ये । तेन तथाकृते श्रीमात्रा कृत्रिमकुर्कुटा वासिताः । कृत्रिमशुनश्चरणयोर्विलग्नाः । ततो हृदयस्फोटनेन स स्वयं विनष्टः । 15 ३९. जगद्देवप्रबन्धः (G.) $१९८) मुद्गलपातसाहिसमीपात्समागतो जगद्देवः श्रीसिद्धराजभूपतिना नवलक्षकंकणं परिधापितः। अत्रांतरे 10 केनापि कविना काव्यमिदं न्यगादि(२७१) उन्मीलन्मणिरश्मिजालजटिलश्चायं रणे कङ्कणं बिभ्राणस्तव वैरिवीरकदनक्रीडाकठोरः करः। हित्वा संयति जीवितानि रिपवो ये स्वर्गमार्ग गतास्तानाक्रष्टुमिवाविवेश सहसा चण्डद्युतेर्मण्डलम् ॥ ___ इति पठिते तसै तत्कङ्कणं दत्तम् । एकदा सभायां अधो विलोक्यमानस्य चिंताप्रपन्नस्य कस्यापि कवेः पार्श्वे जगद्देवेन पृष्टम्-कवे! महती चिन्ता। तेनोक्तम्-विमर्शनाऽस्ति । शृणु ! (२७२) दरिद्रान् सृजतो धातुः कृतार्थान् कुर्वतस्तव । जगद्देव ! न जानीमः काश्रमेण विरंस्यति ॥ इति पठिते जगदेवेन सुवर्णलक्षो दत्तः। 20 जगद्देवेन समागतस्य कस्यापि कवेः पार्थे नवविशेषं देशस्वरूपं पृष्टे तेनोक्तम्-देव ! चित्रमस्ति । असत्सार्थे । पान्थस्सैकस्य पार्श्वे सरसः समुत्थितेन चक्रवाकेनैकेनेति पृष्टम्(२७३) चक्रः पप्रच्छ पान्थं कथय जनपदः कोऽपि संपत्स्यते मे वस्तुं नो यत्र रात्रिर्भवति स च विचिंत्येति तं प्रत्युवाच । नीते मेरौ समाप्ति कनकवितरणैः श्रीजगद्देवनाना। सूर्येऽनन्तर्हिते स्यात्कतिपयदिवसैर्वासराद्वैतसृष्टिः॥ इत्युक्ते जगद्देवेन सुवर्णसहस्रा दश दत्ताः । कसिन्नपि पण्डिते समागते श्रीजगद्देवेन वारं वारं पृष्टे सति जीवेति वारं वारं जल्पति पंडितः, नान्यत् । तेनोक्तम्-कथमेतत् जीवेति वचः १ । कविनोक्तम्-"त्वयि जीवति जीवंति० ॥" (२७४) स्वस्ति क्षत्रियदेवाय जगद्देवाय भूभुजे । यद्यशःपुंडरीकान्तर्गगनं भ्रमरायते ॥ 30 इति गदिते लक्षदानम् । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ४०. पृथ्वीराजप्रबन्धः (B. P . ) ९ १९९) यथा - शाकंभरीपूर्या चाहमानान्वये श्रीसोमेश्वरो नृपस्तस्य तनूजः पृथ्वीराजः, तद्राता यशोराजः । तस्य शल्यहस्तः श्रीमालज्ञातीयः प्रतापसिंहः, मन्त्री कईबासः । तयोरुभयोः परस्परं विरोधः । स राजा पृथ्वीराजो' योगिनीपुरे राज्यं करोति । तस्य धवलगृहद्वारे न्यायघण्टाऽस्ति । स महाबलवान्, धनुर्भृतां धुरीणो नृपः । यशोराजस्तु 5 आशीनगरे कुमारभुक्तावस्ति । तस्य वाराणस्याधिपतिना श्रीजयचन्देन सह वैरम् । एकदा गर्जनकात् तुरंष्काधिपतिः पृथ्वीराजेन सह वैरं वहन् योगिनी पुरोपरि चचाल । पृथ्वीराजस्यामात्यो दाहिमाज्ञातीयः कईबासनामा मीश्वरोऽस्ति । तस्यानुमत्या नृपस्तुरङ्गमलक्षद्वयमादाय, गजानां पञ्चशत्या सम्मुखश्चलितः । तुरष्कसैन्येन सह युद्धं जातम् । भग्नं शाकसैन्यम् । सुरत्राणो जीवन गृहीतः । स्वर्णनिगडे क्षित्वा योगिनीपुरे समानीय मातुर्वचसा मुक्तः । एवं वार ७ बद्ध्वा बद्धा मुक्तः, करदव कृतः । प्रतापसिंहः करमुद्ग्राहयितुं याति गर्जनके । एकदा 10 मशीतिं विलोकितुं गतस्तत्र स्वर्णटङ्ककलक्षं दुर्वेसादीनां ददौ । मत्रिणा नृपायाभिदधे - देव ! गर्जनकद्रव्येण निर्वाहः स्यात् । स तु इत्थं विद्रवति । राज्ञा पृष्टम् । तेनोक्तम् - देवस्य तदा ग्रहवैषम्यं मत्वा मया धर्म्मव्ययः कृतः । ज्योतिर्विदः पृष्टाः । तैस्तु कष्टमुक्तम् । इतः शल्यहस्तो नृपस्य कर्णे विलग्नः - यदेष मन्त्री वारं २ तुरुष्कानानयति । नृपो रुष्टः । तद्वचसा मत्रिणं हन्तुं बुद्धिमकरोत् । इतः रात्रौ सर्वावसरादुत्थिते मत्रिणि प्रतोलीद्वारानिःसृते राज्ञा दीपिकाभिज्ञानेन वाणं मुक्तम् । तन्मत्रिणः कक्षान्तरे भूत्वा दीपधरस्य करे लग्नम् | दीपिका 15 कराच्युता । कलकले जाते नृपेण पृष्टम् - रे किमिदम् ? | देव ! मत्रिणः घातकेन बाणमुक्तम् । रे ! मन्त्री जीवति ? देव ! कुशलम् । इतः पाश्चात्ययामिन्यां चन्दबलिद्दिको द्वारभट्टो नृपं प्राह ८६ 20 25 5 (२७५) इक्कु बाणु पहुवीसु जु पई कइंबासह मुक्कओं, उर भिंतर खडहडिउ धीर कक्वंतरि चुक्कउ । बीअं करि संधी भंमइ सूमेसरनंदण ! एहु सु गडि दाहिमओं खणइ खुद्दइ सईभरिवणु । फुड छंडि न जाइ इहु लुब्भिउ वारइ पलकउ खल गुलह, नं जाणउं चंदवलद्दिउ किं न वि छुट्टइ इह फलह ॥ (२७६) अगहु म गहि दाहिमओं रिपुरायखयंकरु, नृपेण भेदभयात् अन्धार्यां क्षेपितः । आद्यौ प्रहरिकसमये मं ( ?) सर्वावसरे मन्त्री समायातः । विसूत्रितः । 30 भट्टो निष्कासितः । तेनोक्तम्- देव ! पुनर्भवतः कल्याणमतः परं न करोमि । सिद्धसारस्वतोऽहं । तव म्लेच्छैर्बद्धस्याचिरान्मरणं भविष्यति । स निर्गत्य वाराणस्यां गतः । राज्ञा श्रीजयचन्देनोक्तम् - मया त्वमाहूतः परं नायातः । देव ! तवापि मृत्युरासन्नोऽतोऽत्रापि न स्थास्ये । कूड मंत्र मम ठव एहु जं बूय मिलि जग्गरु । सह नामा सिक्खवरं जइ सिक्खिविडं बुज्झइं, जंपर चंदबलिद्दु मज्झ परमक्खर सुज्झइ । पहु पहुविराय सभरिघणी सयंभरि सउणइ संभरि सि, कईबास विआस विसङ्घविणु मच्छिबंधिबद्धओं मरिसि ॥ 1 B श्रीगोलवालज्ञा ०। 1-1 एतदन्तर्गता पंक्तिः B आदर्शे नोपलभ्यते । 2 B नास्ति पदमिदम् । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीराजप्रबन्धः । ८७ २००) इतः कवासे विसूत्रिते नूतनो मत्री जातः । नृपः प्रतापसिंहस्य भ्रातृव्यमतिबलिनं मत्वा कारायां चिक्षेप । मत्रिणि विसूत्रितेऽपि न त्यजति । स सुरत्राणाय मिलितः । तेन कटकं शकानामहूतम् । आयतं श्रुत्वा पृथ्वीराजः सम्मुखो निःसृतः । तुरङ्गलक्ष ३, गज सहस्र १०, मनुष्य लक्ष १५; एवं... ..आशीमतिक्रम्याग्रे कटकं गतम् । इतः सुरत्राणस्य मत्रिणो वार्ता जाता । तेन कथापितम् - प्रस्तावे आकारयिष्यामि । अथ पृथ्वीराजः प्रसुप्तः दिनानि १० परं कोऽपि न जागरयति । यो 5 जागरयति तं मारयति । इतः प्रधानेन सुरत्राण आकारितः । राजा न जागर्ति। मन्दं मन्दं केऽपि सामन्ता युध्वा मृताः । केऽपि प्रणष्टाः । अश्वसहस्र .. ....वशिष्यमाने [ भगिन्या ] नृपो जागरितः । खड्गमाकृष्य धावतः भगिन्योक्तम् - स्वं जनं मारयसि । कटकं सर्वं तव निद्राणस्य मारितम् । नृपस्त्वाह- अहमत्रि... तस्मिन् विनष्टे नृपः शाकंभरीं मनसि कृत्य नाटारम्भावे आरुह्य प्रणष्टः । भ्रात्रा सह पृष्टिधावितैस्तुरकैर्न गृह्यते । इत आशी देशे पर्वतिकाद्वयस्य मध्ये भट्टोऽस्ति । तव (तत्र ) नृपं प्रेष्य जस- 10 राजः स्थितः । तेन किञ्चित्कटकं खलहितम् । स तत्र मारितः । सुरत्राण साहबदीनेन स मंत्री. पुच्छरहितः सर्पवत्कृतः । स्थाने गतः केन गृहीतुं शक्यः १ । तेनोक्तम्-छन्देन । वाद्यान् वादयतः, यथा तुरगो नृत्यति । तथा कृते तुरगो नर्त्तितुं प्रवृत्तो न चलति । नृपस्य कण्ठे शृङ्गिण्यः पेतुः । राजा गृहीतः सुरत्राणे [न] । स्वर्णनिगडे प्रक्षिप्य योगिनीपुरे समानीतो भाषितश्च राजन् ! यदि जीवन्तं मुञ्चामि ततः किं कुरुषे ? । नृपतिः प्राह - मया त्वं सप्तवारान् मुक्तस्त्वं मामेकवेलमपि न मुञ्चसि १ । इतो नृपोत्तारकसम्मुखं सुरत्राणः सभायामुपवि- 15 शति । नृपः खिद्यते । स प्रधानः समभ्येति -देव ! किं क्रियते, दैवादिदं जातम् । नृपेणोक्तम्- यदि मे शृङ्गिणीं वाणांश्चार्पयसि, तदाऽणुं मारयामि । तेनोक्तम्-तथा करिष्ये । पुनर्गत्वा सुरत्राणाय निवेदितम् - यत्र त्वया नोपविशनीयम् । सुरत्राणेन तत्रायः पुत्तलकः स्वस्थाने निवेशितः । राज्ञः शृङ्गिणी समर्पिता । राज्ञा बाणं मुक्तम् । अयः पुत्तलको द्विधा कृतः । नृपेण शृङ्गिणी त्यक्ता । न मे कार्यं सरितमन्यः कोऽपि मारितः । तदनु सुरत्राणेन गर्त्तायां प्रक्षिप्य लोष्टैर्हतः। सुरत्राणेनोक्तम् अस्य रुधिरे भूमौ पतिते शिवं स्यात् । तथैव मारितः । संवत् 20 १२४६ वर्षे दिवं ययौ । योगिनीपुरं परावृत्य सुरत्राणस्तत्र स्थितः । ॥ इति पृथ्वीराजप्रबन्धः ॥ (G.) सङ्ग्रहे पृथ्वीराजविषयकवृत्तम् । २०१) श्री योगिनी पुरे श्रीप्रथिमराज्ञ उपरि अष्टादशभिर्लक्षैरश्वानां पातसाहिरागतः । तदा एकादशीपारणं विधाय निद्राग्रथिलो राजा प्रसुप्तोऽस्ति । तदा महाविग्रहे जायमाने प्राकारे खंडिः पतिता । राजानं कोऽपि भीत्या 25 न जागरयति । कुब्जिकयांगुष्ठमोटनेन जागरितः । तावता तां मारयित्वा पुनः सुप्तः । द्वितीयदिने वीरचतुष्टयेन जागरितः । स्वरूपं ज्ञात्वा यावता स्वयं प्राकारवातायने निविष्टस्तावताऽरिभिर्विशेषविग्रहो मंडितः । अत्याकुलेन राज्ञा तारादेवी स्मृता । प्रत्यक्षीभूता । तया निशि श्रीपातसाहिसमीपे मुक्तः सः । यावता तन्मारणाय प्रहारं मुंचति, तावता चतुर्भुजो दृष्टः, मुक्तः । द्वितीयवेलायां जटाधारी दृष्टः, मुक्तः । तृतीयवेलायां ब्रह्मा दृष्टः । देव्या भणितोऽपि न मारयति । वस्त्र - प्रहरणादि गृहीत्वा समागतः । प्रातस्तत्सर्वं पातसा हेर्दर्शितम् । इति 30 कथापितं च- यथा वस्त्राण्यानीतानि तथा मारयिष्ये । पातसाहिना सर्वाणि वस्त्राणि याचितानि । राज्ञोक्तम्प्रयाणसप्तके प्रेषयिष्ये । तथा विहिते कटकं तथैव चलितम् । राजा जीवग्राहं गृहीतः । बंदीकृतस्य तस्यान्यदा भोजनं स्वानेनात्तम् । तदवलोक्य विषण्णः । आः किमेतत् ! मदीया रसवती संढिसप्तशत्या समागतवती । सांप्रतमियमवस्था । ततो मृतो युद्धेन । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ४१. जयचन्दप्रबन्धः (P.) ६२०२) कान्यकुब्जदेशे वाराणसी पुरी नवयोजनविस्तीर्णा द्वादशयोजनायामा । तत्र श्रीविजयचन्द्रांगजो राष्ट्रकूटीयो जैत्रचन्द्रो राज्यं करोति । तस्य कर्पूरदेवी परमप्रीतिपात्रम् । अथ नगरवास्तव्य स्य] कस्यापि शालापतेः पुत्री सुहागदेवी पुरीप्रत्यासन्ने ग्रामे परिणीताऽस्ति । सा एकदा भ; अपमानिता रुष्टा पितृगृहं प्रति चचाल । 5 मार्गे यान्त्या गोमयोपरि फणी कृतफणस्तच्छीर्षे खञ्जरीटस्तं दृष्ट्वा चिन्तितवती-यदि कोऽपि दक्षो मिलति तदा पृच्छामि । इतः पुराद्विद्याधरो नामा द्विजस्तद्ग्रामे भिक्षार्थ व्रजन्मार्गे मिलितः । तया पृष्टं शकुनं वेत्सि । तेन ओमित्युक्ते, तयाभिहितम्-अस्य किं फलम् ? । तेनोक्तम्-इदमतीव सुन्दरम् । इतः सप्तमे दिने त्वं नृपतेः सर्वेश्वरी भविष्यति । परं मम किम् ? । तयोक्तम्-यदि मे त्वयोक्तम् , तदा ते श्रीकरणम् । तेनोक्तम्-ममाभिज्ञानं नाम च शृणु-अहं द्विजपाटके उत्तराश्रिते देवधरद्विजभागिनेयो विद्याधरो नाम । सा 'एवं' प्रतिश्रुत्य गता 10 पिटगृहम् । सप्तमे दिने राजपाट्यां नृपेण व्रजता गृहद्वारे वनदेवीव दृष्टा । सानुरागो धवलगृहं गत्वा शालापतिमाहूय पुत्रीं ययाच । तेन दत्ता, धवलगृहं नीता । तया नृपो द्विजाय प्रतिपन्नं निवेदितः । राज्ञा विद्याधरा आहूताः । शतसप्तकं मिलितम् । देवी सौभाग्यदेवी प्राह-स विद्याधरो वामनेत्रे काणोऽस्ति । तेषामपि शतत्रयमायातम् । उत्तरस्यां द्विजपाटके देवधरस्य भागिनेयः ममानीयताम् । अश्ववाराः प्रहिताः । स सजीभूय स्थितोऽस्ति । अश्ववाराहृतम्-भो विद्याधर! राजा आकारयति । तस्य मातुलपत्न्योक्तम्-रे क स , क राजकुलं; 15 कथं श्रीकरणं लभ्यसे ? । तेनोक्तम्-यद्भविष्यति तद्रष्टव्यम् । स राजकुले गतः। सर्वमुद्राधिकारी कृतश्च । स महात्यागी नित्यं ब्राह्मणानामष्टादशसहस्रमग्रासने भोजयति । २०३) अथैकदा राजा जैत्रचन्द्रः कथान्तरे इत्यशृणोत्-यद्बङ्गालदेशे लखणावतीपुरी तत्र लखणसेनो राजा । तस्य दुर्गो दुर्ग्राह्योऽस्ति । तदनु नृपः प्रतिज्ञामकरोत्-यत् गतमात्र एव दुर्ग गृह्णामि वा यावन्तो दिनास्तत्र लगन्ते ता०...............कुमारमत्रिवाक्यम्20 (२७७) उपकारसमर्थस्य तिष्ठन् कार्यादितः पुरः। मूर्त्या यामतिमाचष्टे न तां कृपणया गिरा ।। नृपेण लखणसेनमाहूय सगौरवं परिधाय दण्डं मुक्त्वा स्वराज्ये प्राहिणोत् । श्रीजैत्रचन्द्रोऽपि पश्चाद्वलितः खनगरीमायातः । इति लखम(ण)सेनपराजयप्रवन्धः। तदनु चन्दबलिद्दभट्टेन श्रीजैत्रचन्द्र प्रत्युक्तम्(२७८) त्रिण्हि लक्ष तुषार सबल पाषरीअइं जसु हय, चऊदसई मयमत्त दंति गज्जति महामय । वीस लक्ख पायक सफर फारक धणुद्धर, ल्हूसड्डु अरु बलुयान संख कु जाणइ तांह पर । छत्तीस लक्ष नराहिवइ विहिविनडिओँ हो किम भयउ, जइचंद न जाणउ जल्हुकइ गयउ कि मूउ कि धरि गयउ॥ पतनागतं वर्षद्वयेनोक्तम् । तेनैव पूर्वमुक्तम्(२७९) जइतचंदु चक्कवइ देव तुह दुसह पयाणउ, धरणिधसविरदमद पडद गयर भंगाणाओं। 30 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयचन्दप्रबन्धः। सेसु मणिहिं संकियउ मुक्कु हयखरि सिरि खंडिओं, तुओ सो हरधवलु धूलि जसु चिय तणि मंडिओं। उच्छलीउ रेणु जसग्गि गय सुकवि ब(ज)ल्हु सचउं चवइ, वग्ग इंदु बिंदु भुयजुअलि सहस नयण किण परि मिलइ ॥ ६२०४) इतश्च वाराणस्यां प्रतोलीद्वारे चतसृषु वंशानां भारिका पञ्च शतानि प्रापक्षिष्यन्ते (प्रक्षिप्यन्ते?) सन्ध्यायां 5 यदि चूर्ण न क्षिप्यते तदा कूपकाः पतन्ति । एक...............पत्तनोपरि कटकमादाय प्रस्थितः । तत्पुरं भक्त्वा भाण्डागारमपारं वस्तुजातं चादाय प्रत्यावृत्तः । मार्गे जलवृष्टिर्जाता । इन्धनानि न प्राप्यन्ते । सूपका......... विना रसवतीं कथं कुर्मः ? । मत्रिणोक्तम्-भाण्डागारे किमप्यस्ति ? । चन्दनं पट्टदुकूलागरकाष्ठानि च बहूनि सन्ति । तानि च प्रज्वालयत । एवं रसवतीं कृत्वा.........लोकयितुं (2) व्रजन् वैद्यः शीतकालं भणित्वा अश्वानां तिलकुट्टी दत्त्वा व्याघृतः सिरःस्थिता शेषतिलकुट्टयोऽपि श्यत् (१) तस्याः परिमलमाघ्राय तिलकुट्टी............ 10 चिन्तितं ममैष मनोरथो दुष्टः । एवं जाते नृपो रुष्टः। तत्कालमुत्तारके समागत्य सर्वस्वटिप्पां कृत्वा नपाय जन प्राहिणोत । तेन नपं नत्वा............इदं पत्रकमर्पितम । बीटकं च वनवासार्थे याचितमस्ति । नृपस्तव(त् )प्रेक्ष्य चकितः। ततः स्वयमायातः । मत्रिणा प्रणतः सन् इदमभ्यधात् ।............किमुक्तं यदेवं पत्रकमप्रेषीत् । देव ! मम मनसा नीचामिलापसूचकेन कथितम् । राज्ञा मानं दत्तम् । - ६२०५) अथैकदा सुहागदेव्या नृपो व्याहृतः-देव! राज्यं कस्स दास्यथ ? । नृपेणोक्तम्-कर्पूरदेव्यात्मजस्य । 15 मम पुत्रस्य कथं न ? । त्वं सङ्ग्रहणी, अतस्ते पुत्रोऽयोग्यः । सा त्वर्द्धराज्यस्वामिनी । धनेन परिपूर्णा । तया तदैव मनसि विधाय गर्जनके स्वपुरुषान् प्रहित्य सुरत्राणः सहाबदीन आनीतः। योऽन्तरा पृथ्वीराज विगृह्य योगिनीपुरे स्थितः । तया कथापितम्-मया आहूतः समागच्छेथाः। इतः पृथ्वीराजे दिवं गतौ श्रीजैत्रचन्द्रेण वर्धापनकान्यारब्धानि । गृहे गृहे घृतेनोदम्बरक्षालनमारब्धम् । तूर्यरवः प्रववृते । मन्त्री राजकुले न याति । केनाप्युक्तम्-देव! पृथ्वीराजमरणं मत्रिणो विचारे नायातम । 20 एवं चतुर्थदिने मत्री राजकुलं प्राप्तः । राज्ञोक्तम्-मत्रिन् ! चिराद् दृष्टोऽसि । देव ! राजकार्यव्यग्रतया नायातं मया । देव! केयं खडखडा । राज्ञोक्तम्-किं न वेत्सि पृथ्वीराजमरणम् १ । एवं विधे वैरिणि मृते वर्धापनकानि किं न विधीयन्ते । मत्रिणोक्तम्-तमिन् हते विषादं कत्तुं युज्यते हर्षो वा ? । राज्ञोक्तम्-कथम् १ । देव ! प्रतोली भवति, तस्सामयोमयानि कपाटानि, अर्गला च अयोमया । यदा सा भज्यते, कपाटौ च पृथग्भवतः, तदा दुर्गस्य किं स्यात् । तथा देव ! स पृथ्वीराजस्तव अर्गलासम आसीत् । तसिन् विनष्टे गृहसूत्रं कर्तुं 25 युक्तं वा वर्धापनकम् । तिष्ठतु वर्धापनकम् । देव ! यदद्य पृथ्वीराजस्य तत्कल्ये आत्मनो ज्ञेयम् । मत्रिणा मेलापकः प्रारब्धः। तया सुरत्राणस्य कथापितम्-यदत्रैव स्थेयं परत्र न गन्तव्यम् । देव्या नृपो विज्ञप्तः-देव ! मेलापकः किं कुरुते ? । तुरुष्कः प्रत्यासन्नवस्वभूमौ विद्यते तव नामापि न गृह्णाति । कोशव्ययं मत्री वृथैव कुरुते । राज्ञा मत्री उक्तः सर्वः कोऽपि विसीदति मेलापकं विसर्जय । मत्रिणोक्तम्-अस्तु । अनेन कार्यमस्ति । पुनरेकदा तया नृपो व्याहृतः । मत्रिणोक्तम्-देव ! वर्षद्वयं अहं व्ययं करिष्ये । नृपेणोक्तम्-सोऽपि 30 मदीयम् । मत्रिणा सामन्तान् प्रेष्य नृपो व्याहृतः-देव ! बीटकस्य प्रसादं कुरु यथा तपोवने यामि । नृपेण देव्या वचसा विसृष्टः। वर्षद्वयादनु तया सुरत्राणः समाकारितः। स भारं विमुच्य जरीदकेन धावितः(?) । नृपस्य कटकेन सह युद्धे जाते सुरत्राणो भनः प्रणष्टः । इतः सुरत्राणपल्या पति चिन्तातुरं विलोक्य उक्तम्-देवास्ये श्यामता कथम् १ । सुरत्राणेनोक्तम्-युवत्या वार्त्तया समागताः परं पश्चाद्गमनं दुर्घटम् । देव! मम खमं जातं यत्-अह पु. प्र.स.12 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसज्जन्हे म्मदपुत्रमहमदं यदि सेनान्यं करोषि तदा ते जयः स्यात् । तदा ते आकारिताः । तेषां पञ्चशती मिलिता । देव्योक्तम्-स वामनेत्रे काणोऽस्ति । स आकारितः दलपतिश्च कृतः। इतः शेषमपि कटकमानीतम् । इतः सुहागदेव्योक्तम्-देव! राज्यं कस्य । कर्पूरदेव्यास्तनयस्य । यदि मत्स्नोर्ददाति भवान् तदाऽद्यापि परचक्र चलति । राझोक्तम्-त्वयाऽऽनीतम् १ । तया प्रोक्तम्-अन्येन केन । तदा स्त्रीचरितं नीतिं च स्मृत्वा-ज्येष्ठपुत्रमभिषिच्य, 5 तामदृष्टव्यमुखाऽऽसीरित्युक्त्वा दृष्ट्वा(? ज्येष्ठा )याः सुतं राज्ये निवेश्य, पतिमारिकायास्तस्याः सुतं वृद्धि (०द्धं १) सहादाय नृपो युद्धाय निस्ससार । महति संयुगे जायमाने नृपेणोक्तम्-रे गलितकंसस्य ६४ जोटकानि निश्वानानां किं स्फुटितानि ? । [कथं]न श्रूयन्ते । देव ! वाद्यमानानि सन्ति परं शृङ्गिणीगुणैरुपलप्सा(रुद्धा)नि । नृपस्तत् श्रुत्वा उदरे शस्त्रिको क्षिप्त्वा पुत्रं चाग्रे करिण्यधिरोप्य यमुनायां करिणमक्षेप्सीत् । स पश्चत्वमाप । ज्येष्ठपुत्रोऽपि निःसृत्य युद्धे विनष्टः । संवत् १२४८ वर्षे चैत्र शुदि १० दिने वाराणसीमा10 दाय सुरत्राणः प्रवेशं कतुं प्रवृत्तः । कर्पूरदेवी यमगृहं प्रविष्टा । द्वितीया सुहागदेवी लघुपुत्रमादाय प्रतोल्यां स्थिता। सुरत्राणेनोक्तम्-केयम् १ । देव ! यया त्वमिहानीतः। सुरत्राणेन वदने निष्ठीवनं कृत्वा एकसै धगडाय, या पत्युर्न जाता सा मे भविष्यति इति वदता, प्रदत्ता । पुत्रस्तु तुरुष्कः कृतः। .. ॥ इति श्रीजैत्रचन्द्रनृपतेः प्रबन्धः ॥ (G.) सङ्ग्रहे जयचन्द्रनृपवृत्तम् । 16 ६२०६) अन्यदा कोपकालाग्निरुद्र १, अवंध्यकोपप्रसाद २, रायगृहबोलादि विरुदानि श्रीपरमर्दिनः श्रुत्वा श्रीजयचन्दोऽसहमानस्तदुपरि ससैन्यश्चचाल । तद्देशभंगं कुर्वाणः कल्याणकटकनाम्नी राजधानीमाजगाम स क्रमेण । परं कोऽपि विज्ञप्तिकां कर्तुं न शक्रोति यत्कटकमागतम् । परं स्वयं परमर्दिराजा परसैन्यं दृष्ट्वा दुग्गातः...... । ततो राजा सैन्येन रुद्धः। वर्षमेकं जातम् । पश्चात्परमर्दिना राज्ञा मल्लदेवमहामात्येन सह मंत्र विधाय तत उमापतिधरं मंत्रिराजमाकार्य इत्युक्तम्-यत् मंत्रिविद्याधरसमीपं गत्वा तस्स किंचित्कथयित्वा त्वं 20 सैन्यमुत्थापय । ततः स 'आदेशः प्रमाण मित्युक्त्वा सायं प्रतीहारमुक्तः सन् मंत्रिविद्याधरसमीपमगमत् । उमापतिधरमंत्रिणा एकं सुभाषितं पत्रे विलिख्य मंत्रिराज्ञो विद्याधरस्याने मुक्तम् । तदिदम्(२८०) उपकारसमर्थस्य तिष्ठन् कार्यातुरः पुरः। मूर्त्या यामतिमाचष्टे न तां कृपणया गिरा ॥ एतदर्थमवधार्य निशीथे एव पल्यंकस्थितो राजा समुद्धृत्य क्रोशपंचके मुक्तः । प्रातः राजा दुग्गं न पश्यति । ततः पृष्टम् । मंत्रिणा विद्याधरेणोचे सर्व स्वरूपम् । राजा क्रुद्धः । ततो विद्याधरः प्राह-राजन् ! कथं 25 ममोपरि कोपं कुरुषे । कणवृत्तिः क्वापि न गताऽस्ति । ततो राजाह-अतोऽहं क्रुद्धः, यतस्त्वया मम लीला विनाशिता । अनेन सुभाषितेन मम राज्यमपि कथं नार्पितम् । एतद्भणने बिरुदानि मुक्तानि । मानं राज्यं च सर्व मुक्तम् । इति भणित्वा जयचन्द्रः स्वस्थानमगमत् । ४२. वराहमिहिरवृत्तम् (G.) ६२०७) पुरा वराहमिहिरो विद्यार्थी ज्योति शास्त्रं पठन् उपाध्यायगोरक्षणां करोति । तत्र नित्यं लग्नं मण्डयित्वा 80 पठिताभ्यासं करोति । एकदा सिंहलग्नं मण्डितम् । प्रमादाद्विसर्जनं विस्मृतम् । गृहगतेन तेन भोजनसमये स्मृतम् । तत्र गतः । शिलोपरि निविष्टः सिंहो दृष्टः । निर्भयेन सता सिंहोदराधो लग्नं विसर्जितम् । सूर्यस्तुष्टः । षण्मासं विमानस्थितेन नक्षत्रग्रहतारागणं विलोक्य समागतेन 'वाराहीसंहिता'प्रमुखज्योतिःशास्त्राणि निर्ममे । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागार्जुनप्रबन्धः। अथ वराहमिहिरस्य पुत्रो जातः । ततः पित्रा जातके चतुरशीतिवर्षाणि आयुर्वर्तितम् । तदनु जिनदीक्षादीक्षितश्रीभद्रबाहुपार्श्वे व‘पनिकाकृते मनुष्यः प्रहितः । तद्वचः श्रुत्वा सूरिभिरुक्तम्-जातस्य सप्तदिनानि आयुरस्ति । सप्तदिनान्तेऽस मार्जारिकया मरणं भविष्यति । तेन सर्वत्र मार्जारिका रक्षिता । निर्णीतवेलायां अर्गलिकामार्जारिकया मरणमजनि । ततो विषण्णेन तेन पुस्तकैः सह काष्ठभक्षणं प्रारब्धं यावता तावता तत्रागतेन श्रीभद्रबाहुना कथितम्-कथं काष्ठसाधनं कुरुषे ।। शास्त्राणि न वितथानि । परं या दोरिका भवताभिज्ञाने विहि । ताऽभूत् सा कुब्जिकया महाकष्टेन प्राप्ता। तदा वेलाव्यतिक्रमोऽजनि । तया तु सप्तदिनान्येवायुस्ततो मानितम् ॥ ४३. नागार्जुनप्रबन्धः (Br.) ६२०८) ढंकपर्वते श्रीशत्रुञ्जयशिखरैकदेशे राजपुत्ररणसिंहस्य भोपलानाम्नी सुता जातानुरागो वासुकिर्नागराजः सिषेवे । पुत्रो जातः । नागार्जुन इति नाम कृतम् । स च वासुकिना सुतस्नेहात् सर्वासामौषधानां पत्राणि फलानि भोजितः। तत्प्रभावेन सर्वसिद्धिभिरलङ्कृतः सिद्धपुरुष इति ख्यातः । पृथिवीं विचरन् पृथिवीस्थान-10 पत्तने सातवाहननृपस्य कलागुरुर्जातः । स च विद्याध्ययनार्थ पादलिप्तकपुरे पादलिप्ताचार्य विद्यार्थी सेवते । स गुरुः पादतललेपबलेन तपोधनेषु विहरितुं गतेषु श्रीशत्रुञ्जयादिषु देवान्नत्वा स्थानमायाति । आगताना नागार्जुनश्चरणक्षालनं कृत्वा स्वाद-वर्ण-गन्धादिभिः सप्तोत्तरं शतमौषधानाममीलयत् । तेनोपदेशं विनाऽपि जलेन चरणलेपे कृते कुर्कुटोत्पातमुत्पत्य पतितो व्रणजर्जरिताङ्गो गुरुभिः पृष्टः-किमेतत् १ । पूज्यपादप्रसादः । कथम् । यथास्थिते उक्ते गुरवस्तस्य कौशल्येन रञ्जिताः । गुरुभिरुक्तम्-गुरून् विना कलाः कथं 15 फलदाः स्युः। प्रसादमाधातु गुरवः । भवतो मिथ्यात्ववासितस्य कलां न दमि । श्रावकत्वमङ्गीकुरु । तेन तथा कृते, तन्दुलजलेन लेपं कृत्वा गगने खैरं व्रजति स । ६२०९) एकदा खैरं विचरता गुरुमुखात् श्रुतम्-यत् रससिद्धि विना दानेच्छा न पूर्यते । तदनु रसं परिकर्मयितुं प्रवृत्तः। खेदन-मर्दन-जारण-मारणानि चक्रे। परं स्थैर्य न बध्नाति । गुरवः पृष्टास्तैरुक्तम्-दुष्टनिर्दलनसमर्थश्रीपार्श्वनाथस्य दृष्टौ साध्यमानः सर्वलक्षणोपलक्षितया महासत्या मृद्यमानो रसः स्थिरीभूय 20 कोटिवेधी भवति । तत् श्रुत्वा स श्रीपार्श्वनाथप्रतिमामन्वेष्टुमारेमे । इतश्च नागार्जुनेन खपिता वासुकिया॑तः । प्रकटीभूतः। पृष्टं च-श्रीपार्श्वस्य काश्चिदिव्यां प्रतिमां कथय । तेनोक्तम्-पुरा द्वारावत्या श्रीसमुद्रविजयेन श्रीनेमिनाथमुखात् श्रीपार्श्वप्रतिमा प्रासादे स्थापयित्वा पूजिता। पूर्दाहानन्तरं समुद्रेण प्लाविता । प्रतिमा तथैव समुद्रमध्ये स्थिता । कालेन कान्तीपुरीवासिनो धनपतिनामकस्स सांयात्रिकस्स यानपात्रं देवतातिशयात् खलितम् । अत्र जिनविम्ब तिष्ठतीति दिव्यवाचा निश्चित्य, तत्र नाविकान् निक्षिप्य आमतन्तुभिः सप्तभिर्वद्धो-25 द्धृता प्रतिमा । स्वपुरे नीत्वा प्रासादे स्थापिता । चिन्तातीतो लाभो जातः । स नित्यं नित्यं पूजां करोति । ततः सर्वातिशयसम्पन्नं तद्विम्बं ज्ञात्वा नागार्जुनो रससिद्ध्यै सेडीनदीतटेऽपहृत्यानीतवान् । तस्य पुरतः श्रीशातवाहनस्य नृपस्य चन्द्रलेखां देवीं महासती व्यन्तरीसानिध्यादानीय प्रतिनिशं रसमर्दनं कारयति । एवं तत्र भूयो भूयो गतागतेन देव्या बांधव इति प्रतिपन्नः। तया तेषामौषधानां मर्दने कारणं पृष्टम्-कोटिवेधी रसोऽसौ । अन्यदा देव्या स्वपुत्रयोरुक्तम्-यत्सेडीनदीतटे नागार्जुनस्य रससिद्धिर्भविष्यति । तौ रसलुब्धौ 80 नागार्जुनान्तिकमागतौ। कपटेन रसं जिघृक्ष छन्नं भ्रमन्तौ यस्था रन्धनीगृहे नागार्जुनो भुनक्ति तामालपतः । त्वं नागार्जुनरसवतीं लवणबहुलां कुर्याः । यदा तां क्षारां वक्ति तदा कथनीयम् । षण्मासान्ते क्षारेत्युक्तया + जैनानां मते देवानां मनुजेन सह सम्बन्धो न युज्यते-टिप्पनी। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे तयोक्तम् । ताभ्यां रससिद्धिनिश्चिता । तस्य वधोपायं पृच्छन्तौ भ्रमतः । केनाप्युक्तम्-अस्य दर्भावरान् मृत्युः । नागार्जुनेन द्वौ कुतपौ भृतौ ढंकपर्वतस्य गुहायां क्षिप्तौ । पृष्ठचराभ्यां ताभ्यां ज्ञातौ वलमानो दर्भाङ्कुरेण जने मृतः । कुतपो देवतया हृतौ ।। (२८१) अजाते चित्रलिखिते मृते च मधुसूदन!। . क्षत्रेषु त्रिषु विश्वासश्चतुर्थो नोपलभ्यते ॥ देवतया कुपितया, द्वावपि पश्चात्तापपरौ-आवाभ्यां किमकारि यः खटिकासिद्धः कलावान् स हतः, तं हत्वाऽऽवाभ्यां किं साधितमिति-चिन्तयन्तौ मारितौ ।। ॥ इति नागार्जुनप्रबन्धः ॥ ४४. श्रीपादलिप्तसूरिप्रबन्धः (B.) (२८२) जयन्ति पादलिप्तस्य प्रभोश्चरणरेणवः । श्रियः संवनने वश्यचूर्णतः प्रणताङ्गिनाम् ॥ ६२१०) तत्र कोशला नाम नगरी । विजयब्रह्मा भूपः। तत्र प्रसिद्धः प्रफुल्लः श्रेष्ठी । रूपेणाप्रतिमा [प्रतिमाणा नाम] भार्या परं वन्ध्या । अनेकौषधदेवपूजोपयाचितैरपि नापत्यमाप। अन्यदा विखिन्ना श्रीपार्श्वनाथचैत्ये वैरोळ्यादेवीं कर्पूरागुरुभिः सम्पूज्योपवासाष्टाह्निकां चक्रे । ततो देवी प्रकटीभूय पुत्रवरं ददौ, इत्याख्यातवती च15 पुरा नमिविद्याधरान्वये श्रीकालिकाचार्यसन्ताने विद्याधरगच्छे श्रुतसमुद्रपारगश्रीआचार्यनागहस्तिगुरूणामनेकलब्धिवतां पुत्रेच्छया पादप्रक्षालनजलं पिब । ततः प्रातरुपाश्रये गत्वा तपोधनहस्तस्थितं पादोदकं पीतम् । प्रभुनमस्कृतः । धर्मलाभपूर्वमित्यादिदेश-यतो दशहस्तान्तरे पयःपानेन तव पुत्रो दशयोजनान्तरे यमुनापरतीरेऽनेकप्रभावनिधानं वर्द्धिष्यते । तथान्ये तव पुत्रा नव भविष्यन्ति । तयाऽभाणि-प्रथमपुत्रो भवतां दत्तः। गुरुभिर्भणितम्-संघमुख्यो भविता । जातः पुत्रः । प्रभूणामर्पितः । अष्टवार्षिको नीत्वा शुभलने प्रव्रज्यां दत्त्वा 20 च मण्डननामगणिसमीपे मुक्तः पठनाय । वर्षमध्ये श्रुतपारगो जातः । अन्येधुरारनालं गुर्वादेशेनानीयेर्यापथिकीं प्रतिक्रम्य गुर्वग्रे गाथां पठितवान् (२८३) अंबं तंबच्छीए अपुप्फि पुप्फदंतपंतीए। __ नवसालिकंजीयं नववहूइ कुड्डएण मे दिन्नं ॥ इति श्रुत्वा गुरुभिः प्राकृतशब्देन पलित्तो इति-शृङ्गाराग्निना प्रदीप्त इत्युक्तः । ततोऽसौ दशमे वर्षे पदस्था25 पनायां मथुरागमने सङ्घोपकारं [क]त्वाऽऽकाशगमनसिद्धौ कतिचिदिनानि स्थित्वा पाटलीपुत्रपत्तने गतः । तत्र मुरंडो राजा । तस्य केनापि गुप्तमुखदंडकार्पणे प्रभुणा श्रीपादलिप्तेन उष्णोदकेन मदनं स्फेटयित्वा बुद्ध्योन्मोचने तथा गंगेटीसमा(?)गुरूणां समीपे मूलपर्यन्तपरिज्ञापनाय प्रेषणे नद्यां तारयित्वा मूले बुडिते बुद्ध्या मूलं परीक्षा । श्रीमदाचार्यैस्तन्तुग्रथिततुम्बकोन्मोचने प्रहिते केनापि नोन्मुक्तम् । ततो मुरंडनृपतिः समीपमागत्योन्मोचिते प्रभूणां गौरवं चक्रे । अन्यदा राज्ञः शिरोवेदनायां श्रीगुरुभिराकारितैः शिरोवेदनाविनाशार्थमात्मीयजानुस्त30 जेन्या पुनः पुनः स्पृष्टा (२८४) जह जह पएसिणिं जाणुअंमि पालित्तउ भमाडेइ । तह तह से सिरवयणा पणस्सए मुरंडरायस्स ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादलिप्तसूरिप्रबन्धः। अन्ये मंत्ररूपामिमां गाथां जपन्ति, ततः शिरोवेदना याति । प्रभावतो राजा नित्यं भाक्तिं करोति । एकदोपाश्रयागतेन राज्ञा पृष्टम् एते तपोधना भवतां भणितं दानमानादि विना कुर्वन्ति ? । इति पृष्टे गंगा कुतो वहति ? । तपोधनेन गंगायां गत्वा दण्डकं तारयित्वा-पूर्वाभिमुखी वहति-इति गुरोरने कथितम् । (२८५) निवपुच्छिएण भणिओ गुरुणा गंगा कओमुही वहइ। संपाइअव्वं सीसो जह तह सव्वत्थ कायव्वं ॥ इत्थं नृपो गुरुभिः समं तिष्ठन् दिनानि गच्छन्ति न ज्ञातवान् । अन्यदा लाटदेशे ओंकाराख्यनगरे प्रभवो बालैः समं क्रीडन्ति । देशान्तराद्वन्दितुमायातश्रावकाणामुत्तरं कृत्वा सिंहासनोपवेशे पुनरायातश्रावकोपलक्षणे वाला क्रीडतीति सत्यभाषणे बालगुरोर्वचसा जहर्षुः । अन्यदा गुरवो मार्गे गच्छत्सु शकटेषु तपोधनेषु विहाँ गतेषु क्रीडनसमेतवादिनो विप्रतार्य पटीं प्रावृत्य सिंहासने सुप्ताः । वादिभिरागत्य पुनर्विभातकथकताम्रचूडसूरः (स्वरः) कृतः । प्रभुभिर्बिडालखरे कृते वादिनो मानहीना जाताः। पश्चात्तैरुक्तं मध्ये कः ? गुरुभिरुक्तम्-देवः । तैरु-10 तम्-को देवः । गुरुभिरुक्तम्-अहम् । तैरुक्तम्-कोऽहम् । गुरुभिरुक्तम्-श्वा । तैरुक्तम्-कः श्वा । गुरुभिरुक्तम्-त्वम् । तैरुक्तम्-कस्त्वम् । गुरुभिरुक्तम्-देवः । इति पुनरावृत्त्या निर्जिताः। तथापि गाथामेकां पप्रच्छु:(२८६) पालित्तय कहसु फुडं सयलं महिमंडलं भमंतेणं । दिट्ठो सुऔं व कत्थवि चंदणरससीअलो अग्गी॥ सूरयोऽविलम्बेनोत्तरं ददुः(२८७) अयसाभिओगमणदूमिअस्स पुरिसस्स सुद्धहिअयस्स । होइ बहुं तस्स फुडं चंदणरससीअलोअग्गी॥ इति वादिजयः कृतः। ६२११) अन्यदा श्रीशत्रुञ्जये तीर्थयात्रां कृत्वा कृष्णभूपरक्षितं मानषे(खे)टपुरं श्रीपादलिप्तगुरवः प्राप्ताः । तदनु शत्रुञ्जये रैवतके संमेतेष्टापदे च तीर्थयात्रां चिकीर्षवः सुराष्ट्रादेशमायाताः । तत्र ढंकानामपुरी विहरन्तः समेतास्तत्र नागार्जुनो योगी भावी गुरुशिष्यः । तद्वृत्तं चेदम्-संग्रामराजपुत्रः, प्रिया सुव्रता, शेषाहि-20 खमसूचितपुत्रस्य नागार्जुननामकरणम् । स वर्षत्रयदेश्यः क्रीडन्-सिंहार्भकं विदार्य तन्मांसं खादन् पितृवारितः। यत्क्षत्रकुले नखी न भक्ष्यते । तदायातसिद्धपुरुषेणाख्यातम्-मा विषीद, तव पुत्रो रससिद्धो भावी । तदनु कलाविद्भिः कुर्वन् संगीतं रससिद्धो जातः । सूरिं तत्रायातं ज्ञात्वा पर्वतभूमौ स्थितः । स्वशिष्येण पादलेपेच्छु। तृणरत्नपात्रे सिद्धरसं ढौकितवान् । गुरुणा सित्वा भित्तावास्फाल्य शतखण्डे कृते शिष्यं विच्छायमुखमावर्य भोजनं दापयित्वा व्यावर्तमानस्य काचपात्रे निरोधं कृत्वा प्राभृतं प्रेषितम् । उद्घाट्य विलोकिते क्षारगन्धेन निरोधं 25 ज्ञात्वा कुम्पको भग्नः । दैवयोगाद्वहिसंयोगे सा समूत्रा मृत् सुवर्णं जाता । नागार्जुनेन ज्ञातम् । तस्य प्रभोर्मलमूत्रादिसंगेन पाषाणादयोऽपि सुवर्णीभवन्ति । अहमेतावन्ति दिनानि यावदनेकौषधोपक्रमं मुधा कृतवान् । अस्य प्रभावे का कथा । ततोऽसौ विनयनम्रो मदं त्यक्त्वा प्रभुपादसेवाचरणक्षालनादिकां देहशुश्रूषां करोति । श्रीसूरयः साधुषु विहाँ गतेष्वाकाशयानेन पूर्वोक्तपंचतीर्थेषु यात्रां कृत्वा नित्यमायान्ति । ततो नागार्जुन: पादलेपौषधानि जिज्ञासुश्चरणक्षालनोदके पीते वादेनौषधानि ज्ञात्वा पादलेपे च कृते ताम्रचूडवदुचैःप्रदेशादु-30 पतन् गुल्फे जानौ च पीडितो रक्तक्लिन्नो गुरुभिदृष्टः । उक्तश्च-अहो पादलेपे गुरुं विनापि सिद्धः। तेनोक्तम्-भगवन् ! गुरुं विना कुतः सिद्धिः । गुरुणोक्तम्-अहं तव बुद्धा तुष्टो विद्यां ददामि । यदि मे जिनशासनभक्तिं गुरुदक्षिणां ददासि । यत: Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे (२८८) दीहरफणिंदनाले महिहरकेसरदिसामुहदलिल्ले। ऑपिअइ कालभमरो जणमयरंदं पुहइपउमे ॥ ततो विश्वहितं जिनधर्ममाद्रियस्व । तेनोक्तम्-पूज्यादेशः प्रमाणम् । ततो गुरुणोक्तम्-आरनालमिश्रतन्दुलेनैकेनौषधानि पिष्ट्वा पादलेपे खगमनसिद्धिः । ततस्तेन कृतज्ञतया विमलाद्रिसमीपे महासमृद्धं श्रीवीरप्रतिमाधि5ष्ठितं गुरुमूर्तियुतचैत्यान्वितं श्रीपादलिप्ताभिधं पुरं चक्रे । तत्र श्रीवीराग्रे श्रीगुरुभिः श्रीवीरस्तवश्चक्रे । 'गाहाजु अलेणे त्यादि । अत्र सुवर्णसिद्धिराकाशयानं च गुप्तमस्ति । तथा गुरोः श्रीनेमिचरितं श्रुत्वा कौतुकारैवतकाद्रेरघा स्वर्णसिद्ध्याकाशयानबलेन सर्व दशार्णमण्डपादि नागार्जुनश्चक्रे । अद्यापि लोकैस्तत्सर्वमप्यालोक्यते ।। ६२१२) अन्यदा प्रतिष्ठानपुरे श्रीशातवाहनराज्ये चत्वारः शास्त्रसंक्षेपकृतो महाकवयः समेताः । राज्ञः पुरस्तैः श्लोकस्यैकैकः पादः पठितः । तथाहि10 (२८९) जीर्णे भोजनमात्रेयः, कपिलः प्राणिनां दया । बृहस्पतिरविश्वासः, पंचालः स्त्रीषु माईवम् ॥ एवं तदुक्ते राज्ञा महादाने दत्ते भोगवती वाराङ्गना न स्तौति । केवलं पादलिप्तानेव स्तौति । तं मुक्त्वाऽऽकाशगामी विद्यासिद्धो महाकविः सर्वगुणनिधिरन्यो न हि । इति ज्ञाते राज्ञः सन्धिविग्रहकः शंकरो नाम मत्सरी असहमानोऽवादीत् । ततो मानखेटपुरात् कृष्णभूपति मुत्कलाप्य शातवाहनेन श्रीपादलिप्ता आनीताः। नगर15 द्वारे बृहस्पतिर्विद्वान् परीक्षार्थ रौप्यकचोलके घृतं विलीनं प्रहितवान् । प्रभुभिर्धारिणीविद्यया तन्मध्ये सूत्रप्रोतां सूची प्रक्षिप्य प्रहिता । इति जये भूपः प्रवेशं महोत्सवेन कारितवान् । उपाश्रये स्थिताः। नित्यं भूपश्चरणोपास्ति कुरुते । तत्र नव्या 'तरङ्गमाला कथा' कृता, व्याख्याता च । पाञ्चालकविः मत्सरेण न स्तौति । मदन्थाद् उद्धृत्यानेन कृता । अन्यदा कपटमृत्युना प्रभूणां तद्गृहद्वारे शिविकागमने पाञ्चालेन शोकाद् उक्तम्(२९०) आकरः सर्वशास्त्राणां रत्नानामिव सागरः। गुणैर्न परितुष्यामो यस्य मत्सरिणो वयम् ॥ तथा(२९१) सीसं कहव न फुटं जमस्स पालित्तयं हरंतस्स । जस्स मुहनिज्झराओ तरंगलोला नई बूढा ॥ पाश्चाल! तव वचनाद् अहं मृतोऽपि जीवित इति गुरोरुत्थाने महीभुजा निष्कास्यमानो मित्रं भणिस्वा 25 पाञ्चालो गुरुभिर्दानमानाभ्यामावर्जितः। ततो गुरवो निर्वाणकलिकाम् , सामाचारीम् , प्रश्नप्रकाशज्योति शास्त्रं च कृत्वा आयुःक्षयं परिज्ञाय नागार्जुनेन समं श्रीशत्रुञ्जयं गताः। तत्र नाभेयं नत्वा द्वात्रिंशदिनान्यनशनं कृत्वा देहं मुक्त्वा द्वितीयकल्पे इन्द्रसामानिकः सुरो जातः। ॥इति श्रीपादलिप्तगुरूणां प्रबन्धः॥ (G.) सङ्ग्रहे पादलिप्तसूरिवृत्तम् । 80 ६२१३) एकदा श्रीपादलिप्तसूरयो यात्रायां गगने गच्छन्तः पुरुषाकारच्छायया दृष्टाः। ततो नागार्जुनेन वन्दन हेतोः प्रार्थिताः । तैरुक्तम्-यात्रां विधाय वलंतः समेष्यामः । तथाविहिते कूटबुधा जलेन स्वागतमिषाचरणप्रक्षालनं कृतम् । तद्वर्णगंधरसाखादतः सप्तोत्तरशतमौषधीनां परिज्ञातम् । ततस्ताः सर्वा अपि संमील्य चरण Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअभयदेवसूरिप्रबन्धः। लेपोऽकारि । तदनु स दर्दुरवदुत्प्लत्य पतितः । एवं गुरुभिदृष्टः । गुरुभिरुक्तम्-किमेतत् ? । तेन निजकूटं प्रकाशितम् । गुरुभिः सुशिष्यं विज्ञाय तन्दुलजलेन लेपः कथितः । ततो गगनगामिनी विद्याऽजनि । ____एकदा वर्षासु पौषधशालाद्वारि जले क्रीडमानं शिष्यप्रायं पृष्टाः कैरपि वादिभिः-श्रीपालित्तय सूरिवरा वसतौ संति ?-इति पृष्टाः सूरयः तानन्यमार्गेण वाहयित्वा स्वयं सिंहासने कपटनिद्रया सुप्ताः । तैः समागस्य कुर्कुटवरो विहितः । श्रीमरिभिमार्जारस्वरोऽकारि । वचनेन भक्षिताः । ततः पृष्टमिति । तद्यथा-'पालित्तय 5 कहसु फुडं० ॥ ततो गुरुभिरुक्तम्-'अयसाभिओगसंतावियस्स० ॥ एतया नमस्सया पराजिताः । नमो विधाय गताः। ४५. श्रीअभयदेवसूरिप्रबन्धः (B. BR. ) ६२१४) श्रीबुद्धिसागरसूरिभिः श्रीजिनेश्वरसूरिभिश्च वसतिनिवासे कृतेऽन्यदा श्रीजिनेश्वरसूरयो विहारेण धारापुरीं गताः। तत्र श्रेष्ठी महीधरः, भार्या धनदेवी, तत्पुत्रोऽभयकुमारनामा । अन्यदा श्रेष्ठी गुरुवन्दनाय गतः । 10 संसारमसारमाकर्ण्य वैराग्यवानभयः पितरमापृच्छय दीक्षाग्रहणे ग्रहणासेवनारूपशिक्षाद्वययुतः समग्रसिद्धान्तपारगामी महाक्रियो जातः । गुरुभिराचार्यपदस्थापने श्रीअभयदेवसूरिर्विहरन् पल्यपुरे श्रीवर्द्धमानसूरिषु दिवं गतेष्वभयदेवसूरीणां तत्र स्थितानां महादुर्भिक्षे सिद्धान्तास्तद्वृत्तयोऽपि त्रुटिताः। यदवस्थितं तदपि दुःखबोधत्वात् खिलं जातम् । शासनदेवी रात्रौ प्रभुं जगौ-यदङ्गद्वयं मुक्त्वा नवाङ्गानां वृत्तिं कुरु । सूरिराह-श्रीसुधर्मखामिकृतसिद्धान्तविवरणे मन्दमतित्वादुत्सूत्रप्ररूपणादनन्तसंसारित्वम् । परं त्वामनुल्लङ्घयां करिष्यामि । देव्यो- 15 क्तम्-यत्र सन्देहस्तत्राहं मर्त्तव्या । यथा श्रीसीमन्धरस्वामिपार्थाद् सन्देहमङ्गं कुर्वे । प्रभुभिर्ग्रन्थपूर्णतावधि यावदाचाम्लाभिग्रहोऽग्राहि । सम्पूर्णेषु ग्रन्थेषु शासनदेव्या पुस्तकलेखनाय रत्नखचिता स्वर्णमयी ऊतरी समवसरणे मुक्ता । सर्वत्र दर्शिता कोपि मूल्यं न कुरुते । तथा राजमहाराजश्री[भी] मेन द्रम्मलक्षत्रयदाने पुस्तकानि लेखयित्वा समग्रदेशाचार्याणां दत्तानि । ६२१५) अथ श्रीअभयदेवसूरयो धवलकके आगताः । आचाम्लतपसा रात्रिजागरणेन च प्रभूणां रक्तविकारो 20 जातः । तदा जनो वदति-यदुत्सूत्रप्ररूपणया शासनदेव्या रुष्टया देहं विनाशितम् । गुरुमिः शोकेनाऽनशनाथं रात्रौ धरणेन्द्रः स्मृतः । तेन सर्परूपेण देहलिहने गुरुभिख़तम्-कालेन दष्टः । धरणेन्द्रेण खमे आदिष्टम्यन्मयाऽयं तव रोगो ग्रस्तः। एकं जिनोद्धारं कृत्वा प्रभावनां कुरु। श्रीकान्तीपरीयधनेन वणिजा समदान्तरा यानपात्रस्तम्भे व्यन्तरोपदेशेन धनेन मूर्तित्रयमाकृष्टम् । एका चारूपग्रामे । द्वितीया श्रीपत्तने अंबिलीतले श्रीनेमिनः । तृतीया स्तंभनग्रामे सेडिकानदीतटे तरुजाल्यन्तरा भूमिमध्ये न्यस्ताऽस्ति तां प्रकाशय । अत्र 25 महातीर्थ भविष्यति । (२९२) पुरा नागार्जुनो योगी रससिद्धो धियां निधिः। - रसमस्तम्भयद्भूम्यन्तःस्थबिम्बप्रभावतः॥ ततः स्तम्भनकाख्यो ग्रामस्तेन न्यस्तः । तदेषाऽपि तव कीर्तिः स्यात् शाश्वती पुण्यभूषणा । अन्यादृष्टा वृद्धा सुरी मार्ग कथयिष्यति । श्वेतश्वारूपः पुरः क्षेत्रपालोऽपि प्रातः संघस्य पुर आयातः। वाहनसहस्रेकयुताः 30 सूरयो वृद्धा-श्वेतश्वानदार्शतमार्गाः सेडीतीरमायाताः। वृद्धा-श्वानौ तिरोहितौ । तत्र गोपालाः पृष्टाः-यद किमपि पूज्यमस्तीह ? । तेषामेकेनोक्तम्-अत्र जाल्यां किमप्यस्ति । यतोऽत्र ग्रामे महिणल्लपट्टिलकस्य गौर्नित्यं चतुर्भिस्तनैः क्षीरं क्षरति। गृहे न दुह्यते । तत्र तैः क्षीरं दृष्ट्वोपविश्य श्रीमदाचार्यैः 'जयतिहुअण' इत्यादिवृत्त Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे द्वात्रिंशता स्तवे कृते श्रीपाश्वे प्रकटीभूते, समग्र [सङ्घ] सहितैर्वन्दिते, देहरोगो गतः। तत्र स्नात्रपूजाधं कृत्वा प्रासादार्थ द्रव्यं मीलयित्वा महिषपुरात् श्रीमल्लवादिशिष्य आनेश्वराभिधो नियुक्तः। कर्मान्तरं कारयामास । शुभ मुहूर्ते श्रीअभयदेवसूरयो बिम्ब स्थापयामासुः । धरणेन्द्रादेशात् स्तोत्रमध्यात्तद्वयं मन्त्रगर्भित निष्काशितम् । तमिन् प्रत्यक्षीभवने, त्रिंशद्वृत्ता स्तुतिर्जाता । सा पठ्यमाना क्षुद्रोपद्रवविनाशिनी । ततः प्रभृत्यदस्तीर्थ 5 मनोवाञ्छितपूरणं जातम् । रोगशोकादिदुःखदावधनाधनः। अद्यापि कल्याणके प्रथमकलशो धवलककीयस्य सङ्घस्य । बिम्बासनस्य पश्चाद्भागेऽक्षरपंक्तिरैतिह्यात् श्रूयते । पूर्व कथैषा प्रथिता जने । (२९३) नमस्तीर्थकृतस्तीर्थे वर्षे द्विकचतुष्टये । (२२२२) आषाढश्रावको गौडोऽकारयत् प्रतिमात्रयम् ॥ . (२९४) श्रीमानभयदेवोऽपि शासनस्य प्रभावकः। पत्तने श्रीकर्णराज्ये धरणोपास्तिशोभितः ॥ (२९५) विधाय योगनीरोधं धिकृतापरवासनः । परलोकमलंचक्रे धर्मध्यानैकधीनिधिः ॥ ॥ श्रीअभयदेवसूरिप्रबन्धः ॥ ४६. वाग्भटवैद्यवृत्तम् (G.) 15 ६२१६) पुरा मालवके वाग्भटनामायुर्वेदवेदी प्रथमं कुपथ्येन निजदेहे रोगानुत्पादयति, औषधेन पुनर्निवारयति । एवमेकदा जलोदरमुत्पादितम्, तदौषधं विहितम् । कुटुंबकस्येति उक्तं च-यन्मम चतुःप्रहरं यावत् जलं याचितमपि न देयम् । दैवयोगेन कुटुंबस्य तद्वचो विस्मृतौ गतम् । प्रहरचतुष्टयानन्तरं जलोदरे क्षीणेऽपि जलं न पायितः । पिपासापीडितो मृतश्च । अतः(२९६) कचिदुष्णं कचिच्छीतं कचित् कथितशीतलम् । कचिद् भेषजसंयुक्तं कचिद्वारि न वारितम् ॥ ६२१७) राज्ञः श्रीभोजस्य सिंहद्वारि वाग्भटवैद्यपरीक्षार्थमश्विनीकुमारौ पक्षिरूपं विधाय नित्यं नित्यं वारत्रयं 'कोऽभुक्' इति रवं विधाय गच्छतः । राज्ञा तदनवगत्य सर्वेऽपि विद्वांसः पृष्टाः । कोऽपि किमपि न कथयति । तदा वाग्भटेनोक्तम् (२९७) अशाकभोजी घृतमत्ति योऽन्धसा पयोरसान् शीलति नातिपोऽम्भसाम् । अभुक विरुट वातकृतां विदाहिनां मलप्रमुक् जीर्णभुगल्पशीररुक् ॥ ततोऽश्विनीकुमाराभ्यां निजरूपमाविर्भूय वाग्भटोऽतिप्रशंसितः । ६२१८) अथ वृद्धवाग्भटजामात्रा लघुवाग्भटेन कृष्णच्छायाप्रवेशदर्शनेन राज्ञः क्षयरोगोत्पत्तिनिवेदिता । 30 राज्ञोक्तम्-ततो मम वर्षत्रयमेवायुरस्ति । तेनोक्तम्-नैवं राजन्! (२९८) यावदुच्चसति प्राणी तावत् कुर्यात् प्रतिक्रियाम् । कदाचिदैवयोगेन दृष्टारिष्टोऽपि जीवति ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे॒व्यम्बाप्रबन्धः । ९७ रसं विधाय देवं निरामयं विधास्यामि । रसे जाते रसं गृहीत्वा राजसदसि समागतः । तत्रागतेन रसकूपको भग्नः । राज्ञोक्तम्-आः किमेतद्विहितं भवता ? । तेनोक्तम् - राजन् ! किमौषधेन कार्यम् ? । देवो निरामयो जातः । रसगन्धदर्शनेन च कृष्णच्छायामिषात् क्षयरोगो निःसृत्य गतः । एकदा श्रीनृपस्य शिरसि शिरोर्त्तिरतीव जाता । ततो वाग्भटेनोक्तम् - राजन् ! शिरसि दर्दुरी जाताऽस्ति । ततस्तेन शस्त्रकर्म्मणा तालु उत्तारितम् । दर्दुरी दृश्यते परं न निःसरति । धर्तुं न शक्यते । तदनु जलभृतस्थालं धृतम् । तत्रापि नायाति । ततो जामात्रा लघुवाग्भटेन तदवलोक्य निजरुधिरभृतस्थालं दर्शितम् । तद्गन्धेन सा तत्रागता । राजा निरामयो जातः । ततः पृष्टेन लघुवाग्भटेनोक्तमिति - यदियं रक्तजा, रक्तं विना जले नायाति । ततः प्रमुदितो वृद्धवाग्भटः सकला अपि कलाः शिक्षयति । ४७. रैवततीर्थप्रबन्धः (P.) (२१९) अथ श्रीने रैवतकाचलस्थस्योत्पत्तिर्यथा - भारते क्षेत्रेऽतीतचतुर्विंशतिकायां तृतीयतीर्थङ्करसागर - 10 समये उज्जयिन्यां नरवाहनो नृपः । अन्यदा तस्मिन् पुरे सागरजिनः समवसृतः । स नन्तुं ययौ । व्याख्यायामनु केवलिपर्षदं वीक्ष्य पृष्टम् - प्रभोऽहं केवली कदा ? | स्वामिनाऽऽदिष्टम् - आगामिचतुर्विंशतिकायां श्रीनेमिजिनतीर्थे निर्वाणं ज्ञानं च भविष्यति । इति ज्ञात्वा ततस्तस्मिन् भवे श्री सागरतीर्थेशपार्श्वे दीक्षां गृहीत्वा, तपः कृत्वा, पञ्चमदेवलोके दशसागरोपमायुरिन्द्रो जातः । तेन तत्र स्थितेनावधिज्ञानेन पूर्वभवं ज्ञात्वा वज्रमयीं मृत्तिकामानीय श्रीअरिष्टनेमिपूजानिमित्तं विम्बं कारितम् । स्वर्गे दशसागरोपमं यावत्पूजितम् । आत्मनश्चायुः प्रान्तमवधिना 15 विज्ञाय श्रीनेमेक्षा ज्ञान- निर्वाणकल्याणकत्रयस्थानं विलोक्य श्रीरैवतकगह्वरे स्वर्गानेमिप्रतिमां गृहीत्वा समेतः । तत्र गह्वरमध्ये चैत्ये गर्भगृहत्रयं कृत्वा रत्न- मणि-स्वर्ण - मयविम्बत्रयं कृत्वा तत्र [ स्थापितं ]..... काञ्चनबलानकं कृतम् । तत्र वज्रमृत्तिकामयविम्बं स्थापितम् । ततः स इन्द्रः स्वर्गाच्युत्वा बहु संसारं भ्रान्त्वा श्रीनेमितीर्थसमये महापल्लिदेशे क्षिति[पु]रनगरे..... • श्री मिस्तत्र समवसृतः । पुण्यसारो वन्दितुं समागतः । श्रीनेमिना उपदेशो दत्तः । श्रीनेमिपार्श्वे धर्मावाप्तिः । पृष्टाः स्वामिनः पूर्वभववृत्तान्तः20 रैवतके गत्वाऽऽत्मकृतं नेमिविम्बं पूजयित्वा नमस्कृत्य खनगरे समागत्य, सुतं राज्ये निवेश्य, नेमिपार्श्वे दीक्षां गृहीत्वा तपसा कर्म्मक्षयं कृत्वा .. ... र्जितम् । मोक्षं गतः । श्रीनेमे रैवतकाचले कल्याणत्रिकं समजन | पुण्यवद्भिस्तत्र लेप्यमयं विम्बं चैत्यं च कारितम् । लोके च पूज्यमानं जातं. कस्मीर देशात् कल्पप्रमाणेन रैवतकगिरौ श्रीनेमिं नमस्कर्तुं समागतः । तत्र बिम्बं स्नात्रजलेन गलितं दृष्ट्वा मासद्वयक्षपणं कृतं ... स्वर्णमयं विम्बं समानीय स्थापितम् । यतः - (२९९) नववाससएहिं नवुत्तरेहिं रयणेण रेवयगिरिम्मि । संठविअं मणिबिंबं कंचणभवणाओ नेऊण ॥ तथा वामनावतारे वामनेन रैवते श्रीनेम्यग्रे बलिबन्धनसामर्थ्यार्थं तपः कृतम् । ४८. देव्यम्बाप्रबन्धः ( B. BR ) $ २२०) सुराष्ट्रामण्डले कोडीनारपुरे सोमभट्टो द्विजः । स श्रावकस्य देवशर्मद्विजस्य पुत्रीमम्बिकानाम्नीं 30 परिणीतवान् । पुत्रद्वयमस्ति । इत एकदा तस्य गृहे किञ्चित्पर्वास्ति । तत्र पाके निष्पन्ने तपोधनौ विहर्तुमायातौ । श्वश्रू गृहे नास्ति । अम्बया महाभक्त्या प्रतिलाभितौ । प्रातिवेश्मिकया श्रश्वये निवेदितम् । वैश्वदेवेऽपूजिते पु० प्र० स० 13 25 For Private Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे द्विजेष्वभुक्तेषु शूद्राणामन्नं दत्तम् । एषा वधूः न सामान्या । तयाऽऽराटिः कृता । सोमभट्टे समायाते उक्तम् । तेन तातादिना ताडयित्वा निष्कासिता । सा सुतद्वयमादाय, एकं कट्यां कृत्वा परमङ्गुल्यां, निःसृता । श्वश्या पुत्र: पृष्ठे सानुतापया प्रहितः-त्वरितं गत्वा समानय । इतः शिशुः सुतस्तृषितो नीरमयाचत । तया श्रीनेमिचरणौ स्मृत्वा मही पादेन दारिता । दीर्घिका प्रादुर्बभूव । सुतो नीरं पायितः । वृद्धेनोक्तम्-अहं क्षुधितः । तत्राम्रः 5 प्रकटीबभूव । तत्र सहकारलुम्बि गृहीत्वा पुत्रायार्पयत् । इतः पाश्चात्ये प्रियमायान्तं दृष्ट्वा भीता श्रीनेमिपादौ स्मृत्वा कूपे पुत्रैः सह झम्पां ददौ । सोऽपि स्त्री-भ्रूणघातिनं खं मन्यमानः पृष्ठौ झम्पां ददौ । अम्बा रैवतके श्रीनेमिचैत्येऽधिष्ठात्री जाता । सोमस्तस्या वाहने सिंहो जातः। ॥ इति देव्यम्बाप्रबन्धः॥ ४९. उज्जयन्ततीर्थात्मकरणप्रबन्धः (P.) 10६२२१) सुराष्ट्रायां गोमण्डलन[ग]रे सप्तशतयोधैः सह सप्तपुत्रावृतस्त्रयोदशशतशकटयुतस्त्रयोदशकोटीस्वामी धारानामा श्रावकः सङ्घ कृत्वा तीर्थ[न]मस्यै गतः । विमलाद्रौ युगादिं नत्वा रैवततलहट्टिकायां स्थितः। तीर्थ दिग्वस्त्रैः पूर्वमधिष्ठितमस्ति । तैरपि पञ्चाशद्वर्षभोगात् पश्चाद्वौद्धान् वादे जित्वा आत्मायत्तं कृतम् । दिगम्बराणां द्वादशवर्षाणि जातानि । श्वेताम्बरीयधाराकेनोक्तं चतुरशीतिमण्डलाचार्याणां समीपे-यदहं देवं नन्तुं समेतः । तैरुक्तम्-दिगम्बरीभूयागच्छ । तेनाचिन्ति-प्राणान्तेऽपि स्वगुरुलोपं न कुर्वे । अन्यदुजयन्तनतिं 15 विना गृहे न यामि । चिन्तात्तॊ जातः। पुत्ररूचे-किं कारणम् । हे पुत्रास्तीर्थ नन्तुं न लभ्यते । पुत्रैरुक्तम् दिग्वस्त्राधिष्ठिते तीर्थेऽपि किं कार्यम् ? । तातेन कथितम्-पूर्वमात्मीयमेव, इदानीमेभिरधिष्ठितम् । एवं तर्हि बलादपि यास्यामः, चिन्ता न कार्या । तत्पुत्रैमण्डलाचार्याणां कथापितम्-यद्वयं बलादपि तीर्थ वन्दिष्यामहे । तैर्निजभक्तखंगारस्य ज्ञापितम् । तेन किञ्चित्सैन्यं प्रहितम् । तैः पुत्रैस्तस्य सैन्येन साकं युद्धं प्रारब्धम् । सप्त पुत्राः सप्तशतयोधसहिता मारिताः। सङ्घपतिर्धाराको न भुङ्क्ते । तृतीयोपवासेऽम्बिकयाऽभाणि-वत्स! कन्यकुज20 देशे गोपालपुरे आमो राजा । स पूर्वभवे भूण्डपर्वते तपस्वी तपस्तत्वा नृपोऽभूत् । तस्य पार्श्वे बप्पभट्टिसरयः सन्ति । तैरेते जीयन्ते नान्येन । एतेषां मत्रा व्यन्तराश्च सबलाः। इति ज्ञात्वा तत्र गच्छ । धाराकः सङ्घ मुक्त्वाऽष्टश्रावकैः सह तत्र गतः। श्रीसूरयस्तदा आमराजस्य सभायाश्चाग्रे रसेन व्याख्यां कुर्वाणाः सन्ति । धाराकेन नत्वा सङ्घाज्ञा तेषां दत्ता । राज्ञा साक्षेपमैषिष्ट । आचार्यैस्तत्पार्श्वतो वृत्तान्तः पृष्टः। तेन समूलं वृत्तान्तमुक्तम् । राज्ञा खभावश्रवणरैवतप्रभावाकर्णनहर्षपूरवशादभिग्रहो गृहीतः-श्रीनेमिनतिं विना न भोक्ष्ये । तद्भा25 र्यया कमलादेव्या कथितम्-सोमेश्वरनमस्करणं विना न भोक्ष्ये । ततः सर्वेऽपि चलिताः। लक्ष १ पोठियां, उष्ट्रसहस्र २०, हस्ति ७००, घोटक लक्ष १, पदाति लक्ष ३, श्रावकसहस्र २० । राजा त्रिंशत्तमे दिने स्तम्भतीर्थे आगतः । रात्रावम्बिकयाऽभाणि-राजन् ! श्रीनेमिस्तव सत्त्वेनात्रैष्यति । प्रभाते पारणं कार्यम् । यत्र च गृहली पुष्पप्रकरथोपरि त्वया तत्र खनितव्यं हस्तेन नेमिः प्रग(क)टीभविष्यति । प्रभाते तदेव जातम् । नेमि नतः । राजपन्याऽभाणि-स्वामिन् ! पारणं क्रियताम् । त्वां विना कथं करोमि । तत् क्षणात्सोमेश्वरलिङ्गः प्रादु30रभूत् । तद्दिने नदीस्थाने सोमनाथेन च्छिरा (१) नीतो अभिज्ञानाय । तत्रेभ्यानां देवकुलद्वयकृते द्रव्यमर्पितम् । एतसिन्पुरे प्रासादद्वयं कारयितव्यम् । यथा वलमानाः पश्यामः । ततः प्रयाणकं जातम् । सङ्घसमीपे मानुषं प्रहितम् । सूरिभिर्मण्डलाचार्यपार्श्वे-यदि युध्यते तदा बहुजीवसंहारो भवति; अतो वादे जय-पराजयौ ज्ञेयम् । सभ्याः कृताः। मासं यावद्वादो जातः । श्रीनृपेण धाराकेन च प्रभूणामग्रे विज्ञप्तम्-बहवो दिना जाताः। प्रभुणाऽभाणि-अद्य निर्वाहयिष्यामि । एकत्रिंशे दिने प्रभुणा भणितं मण्डलाचार्याग्रे यदद्य मण्डले कुमारी उपवेश्या । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनस्वामिकारितशत्रुञ्जयोद्धारप्रबन्धः । .९९ कुमारी यस्य तीर्थ दत्ते तस्य तीथं जातम् । तैर्भणितम्-एतत्प्रमाणम् । प्रथमं दिग्वस्त्रैमण्डले मण्डिता कुमारी । पात्रं नापूरि तैः । ततः श्रीवप्पभट्टसूरयो वसतौ ध्याने उपविष्टाः । सङ्घशो वासान् दत्त्वा प्रहितः । तेन कन्याशीर्षे वासाः क्षिप्ताः । ततः पात्रेणाभाणि(३००) इक्कोवि नमुक्कारो जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स। संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥ (३०१) उजितसेलसिहरे दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स । तं धम्मचकवादि अरिहनेमि नमसामि ॥ इति गाथाद्वयं तस्या मुखात्सर्वैरपि श्रुतम् । तद्दिनादात्मीयं तीर्थ सञ्जातम् । ॥ इति उजयन्ततीर्थात्मकरणप्रबन्धः ॥ 10 20 ५०. वनखामिकारितशत्रुञ्जयोद्धारप्रबन्धः (P.) ६२२२) अथैकदा दशपूर्वधराः श्रीवज्रस्वामिगुरवो मधुमत्यां नगर्या समायाताः । श्रीशत्रुञ्जयदेवं नन्तुं गताः । देवं नमस्कुर्वद्भिर्भोजमेकमागतं दृष्टम् । देवार्चकः पृष्टः-रे! किमिदम् । देव ! प्रत्ययान् पूरयति । चिन्तितम्जिनशासनस्य मुख्यमिदं तीर्थम् , परं तत्र कपर्दी मिथ्यात्वी जातः एतन्न सुन्दरम्-इति विचिन्त्य मुहुयानगरे पुनरायातः। चिन्तितं ध्यानबलेन-अस्य तीर्थस्य क उद्धारः कर्ता। अस्य नगरनिवासी सौराष्टिकप्राग्वाटो भावडश्रेष्ठिपुत्रो जावडः । तं मत्वा देशनामध्ये उक्तम् । तच्छ्रुत्वा जने गते जावडस्तु स्थितः-प्रभो! यदादिष्टं 15 अन्यः कोऽप्यहं वा । भवानेव । भगवन् ! ममाष्टादश प्रवहणानि क्वापि सन्ति न वा, तन ज्ञायते । वर्ष १२ जातानि । अधुना भोजनमपि कष्टेन भवति । स एव............गृहे गतः। अङ्गशौचं कृत्वा यावद्देवपूजायां प्रवृत्तः तावद्वर्धापनिकेनेत्युक्तम्-यत् प्रवहणान्यष्टादश क्षेमेणागतानि । श्रेष्ठिना विम्बस्याग्रे जलं मुक्तम् । (३०२) ...गरबालणि वलिणि वलि कित्तीसु अन्भडभंज। ___अत्तागमणु न जाणिउं तुह पनरह मुह पंच ॥ __ यत्तेषु द्रव्यमेष्यति तत्तीर्थार्थे । भुक्त्वा वाहणवस्तून्युत्तार्य गुरूणां [पार्थे] गतः । प्रभो! योग्यता जाता। उद्धाराय यतध्वम् । गुरुभिर्विमृष्टम्-आदौ बिम्ब पोतके (?) क्रियते । तन्नागपुरप्रत्यासन्नमकडाणाग्रामे मम्माणीनामखाणौ बिम्ब निष्प.........स्ते मूले द्रामलक्ष एकं व्ययति । तत्राश्वानवीरक्रियेण (?) क्रीत्वा विम्बमानीयताम् । जावडिस्तु द्रव्यमादाय तत्र गतः । विम्बं क्रीत्वा आनिनाय । कपर्देरनुभावाद्धिम्बं यावती भूमि दिने च[टति] तावती रात्रौ पश्चाद्याति । गुरुभिरुक्तम्-श्रेष्ठिन् ! उपवासं कृत्वा धौतवसनानि परिधायैकस्य 25 चक्रस्य तले त्वया स्थेयम् , अपरस्य श्रेष्ठिन्या । प्रीतौ दम्पती तथा स्थितौ । तयो............त्थितं स्वरूपेण । प्रातरुत्थायोपरि नीतम् । इतः श्रीवज्रस्वामी श्रीमरुदेव्याधिष्ठायकं ध्यानबलाद्धोगवलाच स्वायत्तं चके। क्रमेण शेषा अपि स्वायत्तीकृताः। ते तु कपर्दिनमन्वेषयन्ति । स तं यातं वा । एवं षण्मासप्रान्ते कपर्दी क्रीडायां गतः । शेषव्यन्तरैः स्थानं शून्यं मुक्तम् । इतो लेप्यबिम्बं मण्डपे समानीतं शैलमयं मध्ये स्थापितम् । ६२२३) तत्र नूतनकपर्दी स्थापितः । स पूर्व टीम्बाणाग्रामे-कोऽपि मधुमत्यां कथयति-कोलिक आसीत् ।30 तस्य द्वे भार्ये-एका हा[डिः] अपरा कुहाडिः । स चीवरं प्रत्यहं वणयति । उभयतस्ताभ्यां प्रान्ताया......करे मद्यभुम्भल्यो वर्त्तते। यदा यस्याः समीपे सयाति सा तदा तं पाययति । इतश्च सुव्रताचार्यास्तनुगमनिकायां गताः। तैदृष्ट्वा विमृष्टम् । एष अविरतः । अस्थायुः कियत् । घटीद्वयं विमृश्य आहूय उक्तः-भोस्त्वया अनिच्छता Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ग्रन्थिबन्धनं कार्य तत्र गतेनोन्मोचनं कार्यम् । नमो अरिहंताणं इति कथनीयं मुखे । इत्युदित्वा सूरयो गताः । इतः शकुनिकागृहीतसर्पमुखाद्गरलं तन्मये पपात । तेनाज्ञातेन पीतम् । स मृतः, अणपनी-पणपन्नीव्यन्तराणां मध्येऽवतीर्णः । इतः कलकलं कुर्वाणाः सर्वेऽपि राजभवनं ययुः । यदस्माकं कोलिको निरपराधो व्रतिभिर्मारितः । तेन अनार्येण सूरयो धृत्वा वधाय आदिष्टाः। स कोलिकस्तु नमस्कारप्रभावान्मृत्वा व्यन्तरो जातः । प्राग्भवं 5 निरूप्य गुरूणां परिभवं दृष्ट्वा ग्रामोपरि शिलां चकार । राजप्रमुखः सर्वो जन आत्तॊ जातः । इतो व्यन्तरेणोक्तं मारयिष्यामि । कथम् ? । मम गुरून् शीघ्रं मुञ्चत यथा न मारयामि । एते ममोपकारिणः । एतेषां प्रसादान्मया देवत्वं प्राप्तम् । ततः सर्वैर्गुरवः क्षामिता नृपप्रभृतिभिः । इति च लोकसमक्षं जगौ___(३०३) मजासी मंसरओ इक्केण वि चेव गंठिसहिएण । सोहं तु तंतुवाओ सुसाहुवाओ सुरो जाओ ॥ 10 व्यन्तरस्तु नमस्कृत्य गतः । स यक्षः कपर्दीनाम दत्त्वा श्रीवज्रस्वामिभिस्तीर्थे स्थापितः । इतः पूर्वकपर्दी आयातः। बिम्बपरावृत्तं दृष्ट्वा आराडि विधाय निस्सृतः । तदा पर्वतस्तु द्विधा जज्ञे । सदाफला वनस्पत्यपि तदा ज्वलिता । अतः कपर्दिना गुरव उक्ताः-प्रभो ! ममापराधं क्षान्त्वा इहैव मां स्थापयत । गुरुभिरुक्तम्त्वमनर्हः । तव मिथ्यात्वं गच्छतो वारा न लगति । त्वयाऽत्र न कार्यम् । अहमन्यत्र गत उद्वेगकारी भविप्यामि । गुरुभिरुक्तम्-त्वं याहि । ततः स देवपत्तने गतः । तत्र तैय॑न्तरैरपरद्वारे क्षेपितः । तत्र कपर्दिबारिका 15 जाता । इतः प्रतिष्ठा जाता । तथा महाध्वजवेलायां श्रेष्ठी सपत्नीक उपरि गत्वा नर्तितुं प्रवृत्तः । ततः पूर्वकपदिनाऽपहृत्य क्षीरोदार्णवे क्षिप्तः । लोके इति ख्यातिर्जाता-भौतिकेनापि पिण्डेन स्वर्ग गतः । एवं द्रम्मलक्ष १९ व्ययेन श्रीयुगादिदेवबिम्ब प्रतिष्ठाप्य स्थापितम् । ॥ इति श्रीशत्रुञ्जयोद्धारप्रबन्धः॥ ५१. कपर्दियक्ष-जावडिप्रबन्धः (Br:) 20 ६२२४) मधुमत्यां नगयां कपर्दिनामा कोलिकः । आडि-कुहाडिनान्यौ कलत्रे अभक्ष्यापेयसक्तः। तत्प्रस्तावे योगन्धराचार्यास्समाजग्मुः। अन्यदा तंगणिकायां गच्छद्भिः पूज्यैर्भार्यावचनस्ताड्यमानः कोलिको दृष्टः । आचार्यैभणितम्-अहो कोलिक ! आगम्यतामसत्समीपे । तेन चिन्तितम्-किमपि याचिष्यन्ति वस्त्रादिकम् । आचार्येण श्रुतेन विलोकितम्-कियदायुरस्य । ततः पश्यन्ति घटिकाद्वयं यावत् । अहो कोलिक! प्रत्याख्यानस्य प्रथमं पदं नमो अरिहंताणं इति त्वया भणनीयम् । मद्यं पिबताऽभक्ष्यं भक्षयता ग्रन्थिश्छोटनीयः । नमो अरिहं25 ताणमिति भणित्वा भक्षणपानानन्तरं तथैव ग्रन्थिर्वन्धनीय इति प्रतिश्रुते, सूरिषु गतेषु शकुनिकागृहीतसर्पमुखाद्गरलं मांसखंडमध्ये पपात । तद्भक्षणादसौ मृतः । अणपन्नी-पणपन्नीव्यन्तरमध्ये प्रबलो व्यन्तरो जातः । अवधिना दृष्टम्-गंठिसहितपसः प्रभावादहं देवो जातः । इतश्च तद्भार्याभ्यां राजकुले गत्वेति कथितम्-महाराज! पाखण्डिभिरावयोर्भर्त्ता मारितः । किमपि कथितं तन्न जानीमः । मिथ्यादृष्टीनां च वचनात् राज्ञा गुप्तौ कृताः सूरयः । तेन व्यन्तरेणात्मशरीरमधिष्ठाय राज्ञोऽग्रे भणितम्-यन्महाराज! क्षाम्यन्तां आचार्याः । अन्यथा 30 तव नगरोपरि शिलां पातयिष्यामि । राज्ञा पादयोर्विलग्य सूरयः क्षामिताः। शिला संहृता । लोकविदिता गाथा भणति(३०४) मंसासी मज्जरओ इक्केणं चेव गंठिसहिएण। सोहं तु तंतुवाओ सुसाहुवाओ सुरो जाओ। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाखणराउलप्रबन्धः। १०१ इति प्रभूणामग्रे नाटकं रचितम् । पश्चाद् ईदृशं चोक्तम्-भगवन् ! मया किं कर्तव्यम् ? । प्रभुणोक्तम्-भो! त्वया पाश्चात्यभवे बहूनि पातकानि कृतानि, तेषां शुद्धिहेतोः श्रीशत्रुञ्जयमहातीर्थे सङ्घसाहाय्यकारी भव । तस्य कपर्दिनामा यक्षः सञ्जातः । अग्रीयकपर्दिना सह तस्य वर्ष १२ विग्रहः सञ्जातः । कोऽपि न पराजीयते । इतश्च मधुमत्यां नगर्या प्राग्वाटज्ञातीयश्रेष्ठी जावडिः, भार्या सीतादेवी, प्रवहण १८ पूरयित्वा समुद्रमध्ये प्रवहणसहितचित्रवल्ली (?) मध्येऽपतत् । क्रमेण वर्ष १८ सञ्जातानि । एकयाऽपि रीत्या निस्सरीतुं न शक्यते । 5 बहूनां देवानां आराधना कृता । पुनः कस्यापि साहाय्यं न जातम् । तदा चिन्तितम्-एकदा व्याख्यानमध्ये श्वेताम्बराचार्यैरिति भणितम् । यतः-'कान्तार०' इत्यादि । नूतनकपर्दिना रात्रौ स्वमं प्रदत्तम्-यदहो जावड ! पसिन पक्षेऽभ्रं दृश्यते तस्मिन्पक्षे प्रवहणानि चालनीयानि । अग्रे पुनः ऋयाणकं वापितं जावडेन । प्रवहणानि लघुत्वेन न सञ्चरन्ति । कसिंश्चिद्वीपे समागत्य छगणकर्करै त्वा पञ्चमदिने समुद्रं निस्तीर्य मधुमत्यां नगर्या समागतो जावडः। छगणानि सुवर्णीभूतानि, कर्करा रत्नानि सञ्जातानि । तदनन्तरं सङ्गं कृत्वा श्रीशत्रञ्जये श्रीऋष-10 भदेवनमस्करणाय गतो जावडः। यावत् स्नात्रं करोति तावद् अग्रीयलेप्यमयबिम्बस्य नासिका गलिता। महाविषादो जातः । एतस्मिन् प्रस्तावे दशपूर्वधरेण श्रीवज्रस्वामिनाऽऽदिष्टो जावड:-अद्य रात्रौ कपर्दियक्षस्य भोगं कृत्वा कायोत्सर्गे स्थीयताम् । तत्करणानन्तरं रात्रौ कपर्दिना भणितम्-यदहो जावड! मम्माणाकरे मम्माणनगरे बाह्ये पूर्वदिशि या राइणिर्विद्यते तस्या अधः फलहिका मम्माणापाषाणमयं विद्यते, तां कारयित्वा इहानय । तस्या घटापने मूल्ये चानयने लक्ष ९ व्यये जाताः । पर्वतोपरि यावन्मानं दिनेऽध्यारोहयते 15 तावन्मानं रात्रौ वलति । श्रीवज्रस्वाम्यादेशात् रथकलचक्रस्याध एकत्र स्वयमन्यत्र श्रेष्ठिनी स्थिता । तद्भाग्यादेवतासाहाय्याच न निवृत्तो रथकलः । उपरिगतं विम्बम् । वज्रस्वामिगणधरेण प्रतिष्ठितम् । अग्रेतनं बिम्बमुत्थाप्यते नोत्तिष्ठति । षण्मासावधि भोगकरणेन श्रीवज्रस्वामिध्यानेन सर्वान् व्यन्तरान् आत्मायत्तीकृत्य षण्मासान्ते काप्याघे (1) कपर्दिनि क्रीडार्थ गते, नूतनकपर्दिवचनेनाद्यविम्बमुत्थाप्य नूतने स्थापिते, तदधिष्ठायके नूतने कपदिनि कृते, आद्य आराटि मुक्तवान् । तदनुभावात्पर्वतो द्विधा जातः । ध्वजारोपणप्रस्तावे जावडो भार्यासहित: 20 प्रासादोपरि नृत्यन् आद्यकपर्दिनोत्पाट्य वैताढ्यपर्वते उत्तरश्रेण्यां नीतः । एवं बिम्बस्थापनम् । (३०५) श्रीविक्रमादित्यनृपस्य कालादष्टोत्तरे वर्षशते व्यतीते। शत्रुञ्जये शैलशिलामयस्य कारापिता जावडिना प्रतिष्ठा ॥ ॥ इति श्रीकपर्दियक्ष-जावडिप्रबन्धः॥ ५२. लाखणराउलप्रबन्धः (B. P.) ___25 ६२२५) शाकम्भरीपुयां चाहमानो लक्ष्मणः। स वर्तनाय भार्यामादाय एकमन्त्यजं च सहायं कृत्वा देशान्तरं चलितः । मार्गवशानडूलपुरे सर परिसरे देवकुले दिनं विश्रान्तः । इतः सन्ध्यायां द्विजैरागत्योक्तम्-हे पान्थ! पुरस्य मध्ये समागच्छ । अत्र मेदानां प्रतिभयेन रात्रौ कोऽपि बहिर्न तिष्ठति । लाखणेनोक्तम्-वयं पथिका मार्गस्थाः। प्रतोल्यः सूर्योदये उद्घाट्यन्ते । अतोऽत्रैव स्थास्यामः । द्विजैरुक्तम्-अप्रमत्तैः स्थेयम् । तेषु गतेषु लाखणः सह सहायेन' सजीभूय स्थितः। इतो रात्री मेदधाटी प्रसृता । लाखणेन सह सहायेन युद्धं कृतम् । जन २० पतिताः । 30 तावुभावपि घातातौ पतितौ । प्रातर्द्विजैरेत्य पत्नी पृष्टा-कस्ते भर्ता ? कः सखा ? । तया दर्शितावुत्पाव्य नीतौ । पालितौ । रुद्धघातेन तेन द्विजा मुत्कलापिताः । तैरुक्तम्-क यास्यसि । तेनोक्तम्-यत्र निर्वाहो भविष्यति । वयमत्रैव करिष्यामस्त्वयाऽसाकं पुरे मेदोपद्रवो रक्ष्यः । स स्थितः । द्विजैस्तु ग्रासः कृतः। तेन जनाः ५ अन्ये 1B ससखायः। 2 B मेदानामुपद्रवो रक्षणीयः । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे स्थापिताः । प्रतोली दातुं न यच्छति । मेदानां स्थानेषु गत्वा तेषु धाट्यां निर्गतेषु पाश्चात्ये उपद्रवं करोति । तैः कथापितम्-यद्वयं नडलसीमायां नैष्यामः । त्वया नों ग्रामेषु नागम्यम् । क्रमेण जनाः २० स्थापिताः पार्थे । समीपग्रामेषु वला विहिताः । मेदानां कथापितम्-मम करदेषु ग्रामेषु नोपद्रवः कार्यः। एकदा धाटीमादाय मेदपाटे गतः । तत्र धाटी भन्ना । लाखणो घातजर्जरः कृतः पतितः । इतस्ते यावदुच्छसितुं जनाः 5 प्रवृत्तास्तावदसणि देव्या गोत्रजया शकुन्तिकारूपं कृत्वोपरि निपत्य रक्षितः । रात्रौ उत्थाय मन्दं मन्दं वपुरं गतः । एकदा देव्या व्याहृतम्-त्वां महान्तं विधास्से चिन्ता न कार्या । प्रातर्मालवेशमुकेरको वातप्रेरितो मुत्कला समेष्यति । त्वया कुण्ड्यः कुङ्कुमजलै त्वा प्रतोल्युपर्युपविश्य स्थेयम् । अग्रे गच्छतां हयानां छटा देयाः। येषां ता लगिष्यन्ति तेषां वर्णपरावों भविष्यति । मध्ये प्रवेशं च विधास्यन्ति । प्रातस्तथैव कृतम् । बहवोऽश्वाः प्रविष्टाः पुरान्तः । तथा महान्तमेकमश्वं दृष्ट्वा स्थानपालेन गले लगित्वोक्तम्-भव भव इति । तदनु प्रविशन्तः स्थिताः । 10 वाहरायां समागतायां पृष्टम्-अस्माकमश्वाः प्रविष्टा भविष्यन्ति । लाखणेनोक्तम्-मध्ये समेत्य पश्यत । तैरश्वसाधनं निरैक्षि द्वौ हयौ लब्धौ । तावादाय गताः । येषां छटा लग्नास्तेऽश्वाः शेषाः स्थिताः । एवमश्वसहस्र१२" जाताः । महदाधिपत्यं जातम् । ६२२६) एकदा स्वगृहोपर्युपविष्टेन काचिद्विप्रवधूः स्नान्ती दृष्टा । पश्चाविजानाहूय प्रोक्तम्-अहं भवतां पुरं त्यक्षामि । तैरुक्तम्-कथम् ?, तवेह गतस्य किं विनष्टम् । यदि मे भूमिमर्पयत बाह्ये गृहार्थे वासाय वा तदा 15 तिष्ठामि । द्विजैः पुरस्य बाह्ये वासाय भूरर्पिता । तत्र धवलगृहमारब्धम् । काष्ठदले निष्पद्यमाने, भित्तयः पृथुला जाताः । पट्टास्तु हस्खाः । सूत्रकारै चिन्ति-किमुत्तरं करिष्यामः । वेश्या एका पृष्टा-वयं केनोपायेन निस्तरिष्यामः । तयोक्तम्-न भेतव्यम् । सा वर्धापनार्थ स्थालमादायाक्षतैर्भूत्वा राजकुलं गता । पृष्टा राज्ञा-किमिदमद्य । देव! लाखणगृह" वर्द्धितम् । कथम् ? । पश्यत, भित्तयः पृथुलाः पट्टा न्यूनाः । स तदेव शकुनं मत्वा तां सत्कृत्य प्राहिणोत् । तत्र राजकुलद्वारे गोत्रदेवीप्रासादो महान् कारितः । तथाऽष्टादश जैनाः प्रासादा 20 महान्तो निष्पन्नाः, प्राकारश्च । एवं क्रमेण नड्डलराज्यं जातम् ।। ६२२७) एकदा कस्यापि श्रेष्ठिनः पुत्री कुमारिका दृष्टा । सा पाणिग्रहार्थे याचिता । तया पिता व्याहृतः-मम श्रावकत्वं प्रयाति, पुत्राश्वामिषभक्षिणः स्युः । अतो यदिति मन्यते-यन्मे पुत्रा मातृशाले वर्द्धनीयाः। इति मानिते सा परिणीता । सुते जाते मातृशाले प्रेष्यते । तत्र सर्वे पुत्रास्तस्या वर्द्धिताः । राउलेनोक्तम्-तव पुत्राणां किं ग्रासं ददामि ? । भाण्डागारे मुञ्च, तथा वणिजां च पति दापय । राउलेन तथा कृतम् । वणिग्भिः सह विवाहादि25 सम्बन्धा जाताः । ते भाण्डागारिका जाताः। तस्य सुता आसल-राउलप्रभृतयः ३२ (द्वात्रिंशत् ) जाताः । *ते वलापर्वतस्य तीरे पृथक् २ स्थापिता दुर्गेषु तदा । तस्यान्वये राउलकेहण-केतूनाम्ना शाखाद्वये राज्यद्वयं जातम् । नडले सुवर्णगिरौ च*। लाखणपूर्वजाः-वासुदेव नरदेव वीकम वल्लभराज दुर्लभराज चान्दण गोऊ" अजयरा वीघरा सिंघरा । लाखण-बलिराज सोही माहिन्द अणहिल जीन्दराज आसराज आहूण कीतू समरसीह उदयसीह चाचिगदेव सामतसीह काह्नडदेव-इत्यादि । ॥ इति लाखणराउलप्रवन्धः॥ 30 1 B कुरुते। 2 B त्वस्माकं । 3 B विंशतिः। 4 B जर्जरितः । 5 B असिणि । 6 B तुरगाणां। 7 B भवतु भवतु इत्युक्तं। 8 B वहारया समागतया। 9 B अवलोकयत । 10 B विलोकितं। 11 B एवं सहस्र१२ अश्वानां जाताः। 12 B वेश्मो०। 13 B ब्राह्मणी। 14 B यातस्य । 15 B वासार्थे । 16 B सूत्रधारैः। 17 P 'गृहं' नास्ति । 18 B सुतमुत्पद्येत पितृगृहे प्रेषयति । 19 B ते तत्र वर्द्धिताः। 20 B ततो राउलेन पंक्तिपिता । 21 B वणिभिः सह पाणिग्रहः पुत्राणां कारितः। * एतदन्तर्गता पंक्तिः B प्रतौ न लभ्यते। 22 B वासदेव। 23 B नास्ति । 24 B गाउ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः। ५३. चित्रकूटोत्पत्तिप्रबन्धः (P.) ६२२८) कान्यकुब्जे काश्यां शम्भलीशो नृपो राज्यं करोति । इतः शिवपुरे कतिचिद्रामाधीशश्चित्राङ्गदो नृपः। एकदा तस्य सभायां कोऽपि योगी समेतः । स नित्यमेति राजानं न वक्ति । षण्मासान्ते नृपेण सेवाकारणं पृष्टः स आह-देव! निर्जनं कुरु । तथा कृतम् । राजन् ! मम गुरुणा विद्या दत्ताऽस्ति । तस्याः पूर्वसेवा जाता, उत्तरसेवा तिष्ठति । सा तु त्वां द्वात्रिंशल्लक्षणं विना न भवति । राज्ञा मानितम् । देव्यष्टमीदिनेऽसिहस्तेन त्वया कूटाद्रा-5 वागम्यम् । ओमित्युक्ते स गतः। देव्या पटान्तरितया तच्छुतम् । तया अमात्याने उक्तम् । मत्रिणोक्तम्-यदा नृपो याति तदा मम कथ्यम् । नृपः सन्ध्यायां शिरोतिमिषेण तां विसृज्य, यदा चलितस्तदा देव्या मत्री ज्ञापितः । स पश्चाच्चचाल । नृपोऽन्यग्रे गतो योगिनमैक्षिष्ट । मत्र्यपि च्छन्नं स्थितः । योगी नृपमग्निकुण्डपार्श्वे विमुच्य स्नानाय गतः। मत्री प्रकटीभूय नृपमाह-देव! अयं कपटी । त्वां हत्वा स्वर्णपुरुष कर्ता । अतो गम्यते । नृपः प्राह-वाग् मे मा यातु । मत्री आह-यदाऽसौ कथयति फेरकान् देहि तदा त्वया कथ्यम्-अहं न वेमि, 10 भवानग्रे भवतु । इत्युक्त्वा मत्री वृक्षान्तरितोऽभूत् । योगी समेतः । तेन ध्यानमारब्धम् । अग्निकुण्डमुद्दीपितम् । नृपं प्राह-फेरकान् देहि । त्वमपि मम दर्शय नाहं वेद्मि । स उत्थाय तथा कर्तुं लमः। उभावपि त्वरितं धावतः। वानराभिमुखं नृपमप्रेरयत् । तावन्मत्रिणा राज्ञा च सोऽन्तः क्षेपितः। स स्वर्णनरोऽभूत। उभावपि तं लात्वा गृहमागतौ । तत्प्रभावाद्वित्तं जातम् । स पश्चात् पुरस्थानमवलोकयन् पर्वतमधिरूढः । तत्र यावान् दुर्गों दिने निष्पद्यते तावानिशायां पतति । पूजया तत्रत्यो व्यन्तरस्तुष्टः । तेनोक्तम्-अहं पुरस्य भारं सोढुं न क्षमः । 15 अतः स्थानान्तरे कुरु । तत्र जलाद्यं पूरयिष्यामि । पश्चादुर्गः पर्वतोपरि अन्यत्र प्रारब्धः। चित्रकूटेति नाम कृतम् । वासे जायमाने उपरि लोका न मान्ति । पश्चान्नृपेणोक्तम्-कोटीध्वजा मध्ये वसन्तु, लक्षेश्वरा बहिः । एवं कोटीध्वजानां गृहसहस्रम् । एवं पुरे निष्पन्ने काशीश्वरेण शम्भलीशेन दुर्गों वेष्टितः । स स्वर्णपुरुषं याचते । विग्रहे वर्ष १२ जाते राज्ञा घासं शिरसि दत्त्वा वनराः प्रहिताः, मध्यतनं स्वरूपमादातुम् । यावत्ते घासयुता मत्रिगृहाधस्तात् सन्ति तावद्गवाक्षस्थितया मत्रिपुत्र्या पिता उक्तः-तात! पर्वताधस्तादेते वाणिज्यकारका 20 एतान् दिनान् किं स्थापिताः । शुल्कमादाय किं न प्रेष्यन्ते । तेन सित्वोक्तम्-एतत्परचक्रं मत्वा, मया त्वं दुर्गस्यैव मध्ये दत्ता। तव पुत्रोऽपि जातः। परमेतन्न याति । तां वार्ता श्रुत्वा तैर्नृपाने उक्तम् । स निराशीभूय गन्तुं प्रवृत्तः। स्वदलं प्रेषयत् । स दुर्गमवलोकयन् यदा गन्तुं लग्नः, तावता गवाक्षस्थितया बाकरीवेश्यया सूक्तमुक्तम्(३०६) गण्डूपदा किमधिरोहति मेरुशृङ्गं किं वारबेरज(?)गिरौ निरुणद्धि मार्गम् । _ शक्येषु वस्तुषु बुधाः श्रममारभन्ते दुर्गग्रनहिलतां त्यज शम्भलीश!॥ . 25 नृपः प्राह-तथा कुरु यथा दुर्ग गृह्णामि । तया प्रोक्तम्-कटकं सन्नद्धं कुरु । अयमत्रत्यो मध्याह्ने प्रतोलीत्रयमुद्धाव्य दानं दत्ते । यदाहं स्नात्वा केशविवरणं करोमि तदा ढौकनीयम् । सङ्केते मिलिते दुर्गो भेलितः। चित्राङ्गदस्तु स्वर्णपुरुषं कण्ठे बवा वाप्यन्तः पपात । नृपेण सा खनितुमारब्धा । तत आदेशो जातः-विरम वा कटकं हनिष्यामि । स नृपश्चित्राङ्गदपुत्र राज्येऽधिरोप्य स्वपुरीं गतः। ततोऽभिपठ्यते-'चित्रकूटमिदं भद्रे' इति । ॥ इति चित्रकूटोत्पत्तिप्रबन्धः॥ 30 ५४. श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः (B.) ६२२९) चित्रकूटे हरिभद्रो द्विजश्चतुर्दशविद्यापारीणो महावादी । तस्य इयं प्रतिज्ञा यस्याहं भणितं न परिच्छिनगि तस्य शिष्यो भवामि । तत्र श्रीबृहद्गच्छे श्रीजिनभद्रसूरयः कृतचतुर्मासकाः सन्ति । तेषां प्रवर्तनी याकिनी साध्व्यु[पा] श्रयेऽस्ति । एकदा प्रतिक्रमणानन्तरं काऽपि साध्वी आवश्यकं गुणयति । तया गाथा उक्ता Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ___(३०७) चक्किदुगं २, हरिपणगं ५, पणगं चक्कीण ७, केसयो ६, चक्की ८। केसव ७, चक्की ९, केसव ८, दुचक्कि ११, केसी अ १२, चक्की अ १२॥ इयं गाथा हरिभद्रेण गुण्यमाना श्रुता । अजानस्तत्र प्रविष्टः । प्रवर्त्तन्या उक्तम्-कः प्रविशत्यत्र ? । तेनोक्तम्-अतिचिगचिगापितम् । प्रवर्त्तन्या उक्तम्-नूतनं लिप्तं चिगचिगायते । प्रसादं कृत्वा अस्सा अर्थ कथयत । 5 यदि श्रवणेच्छा तदा गुरूणां पार्थादवगन्तव्या । स गतः । प्रातर्गुरूणां पौषधागारे गतः । उक्तम्-इमां गाथां व्याख्यानयत । गुरुभिरुक्तम्-किं प्रतिज्ञायाः । तेनोक्तम्-सा तथैव । तर्हि एषा सिद्धान्तगाथा पूर्वापरसम्बन्धं परीप्स्यते स च दीक्षां विना तपश्चरणं च विना न भवति । तर्हि मे दीक्षां दीयताम् । तदा ब्रह्मलोकः सम्भूय उक्तवान्-वयं दातुं न दद्मः । हरिभद्रेणोक्तम्-कथं न दत्थ ।। (३०८) पक्षपातं परित्यज्य मध्यस्थीभूयमेव च । विचार्य युक्तियुक्तं यद् ग्राह्यं त्याज्यमयुक्तिमत् ॥ (३०९) पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ (३१०) दुर्योधनखकुलनाशकरो बभूव विष्णुहरस्त्रिपुरदाहकरः किलासीत् । __ क्रौंचो गुहोऽपि दृढशक्तिहरं चकार वीरस्तु केवलजगद्धितसर्वकारी ॥ ___15 (३११) स्वार्थारम्भप्रणतशिरसां पक्षपातात् सुराणांहप्तात्मानं करजकुलिशैर्दानवेन्द्र निहन्तुम् । सि...तस्त्रिभुवनगुरुः सोऽपि नारायणोऽस्मिन् रागद्वेषप्र......कस्य न स्यात्पशुत्वम् ॥ (३१२) विष्णुः समुद्यतगदायुतरौद्रपाणिः शम्भुल्लन्नरशिरोऽस्थिकपालमाली । अत्यन्तशान्तचरितातिशयस्तु वीरः कं पूजयाम उपशान्तमशान्तरूपम् ॥ . (३१३) मातृमोदकवद् बाला ये गृह्णन्त्यविचारितम् । ते पश्चात्परितप्यन्ते सुवणेग्राहको यथा ॥ (३१४) नेत्रैर्निरीक्ष्य विषकण्टककीटसर्पान् सम्यग् यथा ब्रजति तान् परिहृत्य सर्वान् । कुज्ञानकुश्रुतिकुमार्गकुदृष्टिदोषान् ज्ञात्वा विचारयत पर........वादः॥ भो! मया सम्यग् यत्तद्विमृष्टम् । (३१५) न वीतरागादपरोऽस्ति देवो न ब्रह्मचर्यादपरं [चरित्रम् ] । नाभीतिदानात्परमस्ति दानं चारित्रिणो नापरमस्ति पात्रम् ॥ इति द्विजान् सम्बोध्य दीक्षां जगृहे । कृतयोगोद्वहनः सिद्धान्तसारमधीतच गुरुणा पदे स्थापितः । श्रीहरिभद्रसूरय इति नाम कृतम् । तैश्चतुर्दशशतानि कृतानि सिद्धान्तरहस्यभूतानि [प्रकरणानि] । चिन्तितम्-क एतान् लेखयिष्यति ? । वणिक् दरिद्री एको दृष्टः । तस्य व्याहृतम्-मत्कृतान् ग्रन्थान् लेखय । गुर्वाज्ञा प्रमाणमित्युक्ते, गुरुभिरुपदिष्टम्-अद्य मण्डपिकायां ये मधूच्छिष्टमयाः स्तम्भाः समायान्ति तानादाय गृहे 30 शोध्य पश्चादागन्तव्यम् । तथाकृते स हिरण्यकम्बाभिर्धनवान् जातः । तेन रूप्यपत्रेषु स्वर्णाक्षरैस्तानि लेखितानि । गुरुभिश्चित्रकूटोपरि प्रासादे औषधानि सम्मील्य स्तम्भः कृतः । तत्र प्रक्षिप्य मुक्तानि । स स्तम्भो न पानीयेन गलति, न च्छिद्यते, नाग्निना दह्यते । । 20. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धर्षिप्रबन्धः। १०५ ६२३०) एकदिा] सूरीणां भागिनेयौ व्रतं जगृहतुः । सूरिभिः प्रमाणान्यध्यापितौ । ताभ्यां बौद्धानां प्रमाणानि दुरवबोधानि श्रुतानि । गुरव उक्ताः-भगवन् ! भवतामादेशेन बौद्धदेशे गत्वा तेषां प्रमाणान्यधीत्य जैनाभिप्रायेण कृत्वा यास्यावः । गुरुभिर्वारितावपि निर्बन्धं कृत्वा चेलतुः । बौद्धदेशे गतौ । तत्राव्यक्तवेषौ विद्यामठे पठितुं प्रवृत्ती । स्वस्थाने समेतौ ग्रन्थपरावर्तने प्रवृत्तौ । बौद्धाधिष्ठाच्या तारादेव्या वायुयोगात् पत्रमुडाप्य लेखशालायां क्षिप्तम् । 'नमो जिनाय' इति दृष्ट्वा छात्रैरुपाध्यायस्य दर्शितम् । तेनोक्तम्-कोऽपि जैनश्छन्न-5 मधीते । ततोत्र वाटिकाद्वारि जिनप्रतिमां मण्डयध्वम् । सर्वेऽप्युपरि चरणं दत्त्वा बजतः । जैनस्तु न यास्यति, तदा ज्ञास्यते । सर्वेऽपि चरणं दत्त्वा निःशङ्कं गताः। उभाभ्यां विमृष्टम्-वयं ज्ञाता अस्माकमेतत्परीक्षार्थ कृतम । ततो वृद्धेन कर्णात् खटिकामादाय बम्भसूत्रं कृतम् । उपरि चरणं दत्त्वा गतौ । निजाश्रयात् शास्त्राण्यादाय निर्गतौ । बौद्धाचार्यैर्नृपं प्रत्युक्तम्-यत् देव ! शासनसर्वस्वमादाय द्वौ श्वेताम्बरौ नष्टौ । नृपस्तु अनुपदं जातः । इतो हंसेनोक्तम्-वत्स! अहं रहितस्त्वं कस्यापि शरणे प्रविशेथाः । हंसस्तु युवा मृतः । परमहंसः कस्मिन्नपि पुरे 10 प्रविश्य शरणे गतः । पृष्ठिलग्नं कटकमायातम् । बहिस्तनेन याचित:-भोः। त्वमपि बौद्धभक्तः । तदमुं धर्मविद्वेपिणमर्पय । तेनोक्तम्-शरणागतं नार्पये । यादृशस्तादृशो वाऽस्तु । परमहंसेनोक्तम्-मम बौद्धाचार्यैर्वादोऽस्तु । यद्यहं पराजीयते तदा मार्यः । बौद्धैर्जितो मारितः । इतस्तस्य रुधिरालिप्ता रजोहतिः कयाचिद्देव्या शकुनिकारूपया चित्रकूटे पौषधागारे परित्यक्ता । गुरुभिरुपलक्षिता । निषद्यादर्शनात् ज्ञातमरणाः शिष्याणां रौद्रध्यानं गताः। बौद्धानामुपरि प्रकुपिताः । इत उपाश्रयात्पाश्चात्ये तैलकटाहिर्मण्डिता । तत्र मत्रवलेन आकाशमार्गेण बौद्धा 15 एत्य कटाह्यां पतन्ति पतङ्गवत् । एवं सप्तशतानि । ततो गुरुभितिवृत्तान्तः श्रावक एकः शिक्षा दत्त्वा प्रहितः। स मध्ये प्रवेष्टुं न लभते । तेनोक्तम्-गुरूणां श्रीजिनभद्रसूरीणां पार्थादहमागतोऽसि । मध्ये मोचितः । तेनोक्तम्-प्रभो! अहमालोचनार्थी गुरूणां सकाशे गतः । मया प्रायश्चित्तं याचितम् । गुरुभिरहं भवतां पार्श्वे प्रहितः। प्रसादं विधाय मम प्रायश्चित्तं दीयताम् । प्रभो ! मया पञ्चेन्द्रियजीवस्य विराधना कृता । साऽत्यर्थ यते । गुरुभिरुक्तम्-सुबहु प्रायश्चित्तमेष्यति । तर्हि भवतां किं भविष्यति यदि मम इयत् । ततो ज्ञातम्-मम गुरुभिवृत्तमवग-20 तम् । तदा हि अवामुखीजाताः। श्रावकेणोक्तम्-गुरुभिः कथापितम् , कथं समरादित्यचरितं नावगतम् । तेन एकस्मिन् भवे पिष्टमयः कुर्कुटो हतः, एकविंशतिवारान् पिष्टकुर्कुटसङ्क्रान्तेन व्यन्तरेण वैरं कृतम् । तत् स्मृत्वा श्रीहरिभद्राचार्या वधानिवृत्ताः । पुनः सङ्घ मील्य प्रायश्चित्तं कृतवन्तः। तदनु 'समरादित्यचरितं' वैराग्यामृतमयं चक्रुः । कालेनानशनं कृत्वा दिवं गताः । इति प्रतीतम् । (३१६) महत्तराया याकिन्या धर्मपुत्रेण धीमता । आचार्यहरिभद्रेणाष्टकवृत्तिरियं कृता॥ 25 :: ॥ इति श्रीहरिभद्रसूरीणां प्रबन्धलेशः॥ ५५. सिद्धर्षिप्रबन्धः (B. BR.) ६२३१) अथ सिद्धर्षेः [प्रबन्ध ] उच्यते-श्रीमालपुरे दत्त-शुभंकरौ भ्रातरौ महर्द्धिको श्रीमालज्ञातीयौ । इतश्च शुभंकरस्य सुतः सीधाकः । दत्तस्य सूनुर्माघः। स सीधाको बाल्यतोऽपि द्यूतव्यसनी पित्रा कृष्णाक्षरितः । एकदा रममाणेन हारितम् । पितुर्ग्रहाचौर्यं विधाय दत्तम् । अन्यदा रममाणेनोक्तम्-द्रम्म ५०० यावत् क्रीड-30 यध्वम् । द्रम्मान् ददामि, शिरो वा ददामि । तैरुपवेशितो द्यूतकारैः, तेन हारितम् । द्रम्मा याचिताः । रात्रौ श्रीवीरप्रासादे धरणकं दत्त्वा सुप्तेषु द्यूतकारेषु सिद्धः प्रासादभित्तेसम्पां ददौ । पौषधागारमध्ये पतितः । गुरुभिर्व्याकृतः-कस्त्वम् ? । तेन स्वनाम उक्तम् । ग्रहणयोग्यं किमस्ति । तेनोक्तम्-तथ्यम् , परं मम दीक्षां यच्छत । पु० प्र० स०14 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रन्हे द्यूतकाराः प्रातः शिरो ग्रहीष्यन्ति । अतो दीक्षा स्तोककालमप्यस्तु । गुरुभिर्नक्षत्राण्यवलोक्य प्रभावकं मत्वा दीक्षितः। प्रातः श्राद्धास्तं दृष्ट्वा गुरूनूचुः-प्रभोऽद्य कल्ये परिवारः किं स्तोकोऽस्ति, यदस्य घटानुकारिमाणि. क्यस्य दीक्षा दत्ता ? । भवतु यादृशस्तादृशो वा । इत उपवेशने स्वाध्यायपुस्तिकां दृष्ट्वा 'उपदेशमाला'मादिमध्यावसानां विलोक्य पाठं ददौ । गुरुभिश्चिन्तितमहोप्रज्ञाऽस्य । इतो द्यूतकाराः समायाताः। भो ! बहिरेहि । किं 5 पाखण्डेन छुट्यसे । श्रावकैरुक्तम्-किं देयम् । पञ्चशती द्रम्माणाम् । वयं दास्यामः । कस्यापि कारणे दीनोऽसौ मुच्यते । पुनरमाकं पार्श्वे समेष्यति । श्रावकैरुक्तम्-यासति ततो यातु । द्यूतकारैरुक्तम्-तर्हि असाभिर्मुक्तः । ते गताः । स सिद्धान्तमधीतवान् , प्रमाणग्रन्थाश्च । सिद्धेनोक्तम्-भगवन् ! बौद्धा महावादिनः श्रूयन्ते । तत्र गत्वा तानिर्जित्य समेष्यामि । गुरुभिरुक्तम्-जैनानामेष धर्मो न यत् कस्यापि सम्मुखं गम्यते । य उपविष्टानां समभ्येति सोऽभ्येतु । सनिबन्धात् व्रजन सूरिभिरुक्तः यदि तत्र गतः परावर्त्य से तैस्तदा वयं मुत्कलापनीयाः। 10 इदं किमादिष्टम् ? । बौद्धानां देशे गतः। तेषां खरूपं दृष्टम् । (३१७) मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया मध्ये भुक्तं पानकं चापराहे । द्राक्षाखण्डं शर्करां चार्धरात्रौ मोक्षश्चान्ते शाक्यसिंहेन दृष्टः॥ एवंविधानाशीर्वादांश्च शुश्राव(३१८) ध्यानव्याजमुपेत्य चिन्तयसि कामुन्मील्य चक्षुः क्षणं पच्यानइशारानरचनमिमं त्रातापिनो रक्षसि। मिथ्या कारुणिकोऽसि निर्गुणतरस्त्वत्तः कुतोऽन्यः पुमान् सेयं मारवधूभिरित्यभिहितो बुद्धो जिनः पातु वः॥ (३१९) आत्मा नास्ति पुनर्भवोऽस्ति सततं कर्मास्ति कर्ता विना गन्ता नास्ति शिवाय चास्ति गमनं बुद्धोऽस्ति बद्धो न च । इत्येवं गहनेऽपि यस्य न मुनेाहन्यते शासनं खद्योतैरिव भास्करस्य किरणा बुद्धो जिनः पातु वः॥ तथा 'शुष्का शष्कुली भक्षयतो भगवतो बौद्धस्य पञ्चज्ञानानि समुत्पन्नानि' इत्यादि श्रुत्वा बौद्धाचार्य जगौयदहं जैनः, परं त्वदर्शनमादरिष्यामि । तैर्दृष्टै पाय निवेदितः-यदसौ जैनः स्वदीक्षा ग्रहीष्यति । नृपेण गौरवं कृतम् । दुकूलानि परिधापितः, अलंकृतश्चाभरणैः । प्रातलेग्नं बौद्धदीक्षायाः। रात्रौ तेन गुरूणां वचः स्मृतम् । 25 प्रातः पणबन्धं तेषां निवेद्य चलितः। श्रीमाले श्रीजिनसिंहसूरीणां पार्श्वे प्राप्तः । आचार्य ! मुत्कलाप्यसे; मया तेषां शासनं तत्वभूतमवगतम् । गुरुभिरुक्तम्-किञ्चिदसानपि ज्ञापय । तेनोक्तम् । गुरुभिः प्रत्युत्तरे दत्ते आहभगवन् ! नैतद्वचोऽहं ज्ञापितः । अनेन वचसा तान् निर्जित्य समेष्यामि । गुरुभिः पूर्वबद्धं कृत्वा प्रेषितः । तत्र तैः परावर्तितः। पुनर्गुरुसमीपे आयातः। तैस्तु बोधितः । एवं सप्तवेला एहिरे-याहिरांचके । अष्टमवेलायां बौद्धेरुक्तमिहैव तिष्ठ तत्र वा । तेनोक्तम्-चतुरो वादिनो मया सह प्रेषयत । तानादाय श्रीमाले पौषधागारे 30 आयातः । उक्तं द्वारस्थेन-आचार्य! मुत्कलाप्यसे । तैरुक्तम्-मध्ये आगच्छ । मध्ये आयातः । नतिं विनाप्युपविष्टः । गुरवो 'ललितविस्तरा'वृत्तेः पुस्तकमुपवेशने विमुच्य स्वयं तनुगमनिकायां चलिताः । तेन सोल्लुण्ठमभिहितम्-एभिबौद्धाचाराक्रान्तानां तनुगमनिका सुलभा एव । सूरयो गताः । स पुस्तिकां वाचयितुं प्रवृत्तः। 'सिवमयल'इत्यालापवृत्तिमनुचिन्त्य बौद्धः सह वादं कृत्वा गुरुप्वनागच्छत्सु तानिरुत्तरीचक्रे । गुरुष्वागतेषु, अभ्युत्थानं कृतम् । गुरवो विज्ञप्ता: एकोऽहमामं आत्मपञ्चमो भूत्वा समागमम् । उक्तं तेन Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ न्याये यशोवर्मनृपप्रबन्धः। (३२०) नमोऽस्तु हरिभद्राय तस्मै श्रीप्रभसूरये । मदर्थ निर्मिता येन वृत्तिललितविस्तरा ॥ तैः सह प्रववाज । पश्चादुपदेशमालावृत्तिः कृता । पश्चात्सूरिपदमनुपाल्य समाधिना दिवं गतः॥ ॥ इति सिद्धर्षिप्रबन्धः॥ ५६. शान्तिस्तवप्रबन्धः (P.) ६२३२) कोरण्टके वीरचैत्ये देवचन्द्रनामोपाध्यायः । तत्र श्रीसर्वदेवाचार्या वाराणस्याः सिद्धिक्षेत्रे गन्तुं मनसः । समायाताः। तत्र कियदिनाः स्थिताः । उपाध्यायः पदेऽस्थापि । देवसूरिरिति नाम कृतम् । स्वयं यात्रायां गताः। तत्पट्टे प्रद्योतनसूरयः। ते च विहरन्तो नड्डले गताः । तत्र श्रेष्ठी जिनदत्तः, प्रिया धारिणी, सुतो मानदेवः सूरीणामुपाश्रये गतः । धर्म श्रुत्वा प्रव्रज्यां जग्राह । सर्वसिद्धान्ततत्त्वज्ञो जातः । सूरीश्वरैः पदे स्थापितः । जया-विजयाख्यौ देव्यौ नमतः । अथ तक्षशिलायां पञ्चशतीतीर्थपवित्रितायां महान् रोगो जातः । न कोऽपि कस्यापि वेश्मनि याति । पुरीं शून्यप्रायां वीक्ष्य सङ्ग्रेनाचिन्ति-सर्वेऽप्यधिष्ठायका नष्टाः । इति चिन्तिते शासन-10 देव्या उपदिष्टम् सर्वे व्यन्तरास्तुरुष्कव्यन्तरैरुपद्रुताः । वर्षत्रयानन्तरं तुरुष्कभङ्गो भावी । इति ज्ञात्वा यदुचितं तत्कार्यम् । पुना रोगशान्त्यै उपायोऽस्ति । नड्डलनगरे श्रीमानदेवसूरीणां चरणोदकेन सिञ्चत खमानुपाणिः यथा डामरं नश्यति । एवमुक्त्वा तिरोदथे । तैः सर्वैः सम्भूय वीरदेवनामा श्रावको नड्डुले प्रहितः। स तत्र गतः । नैषेधकी कृत्वा मध्ये गतः। सूरयो ध्यानपरा दृष्टाः । जया-विजयादेव्यौ नमस्कर्तुमागते, उपवरककोणे उपविष्टे । यदा स मध्ये उपवरकं गतस्तदा देव्यौ दृष्ट्वा चमत्कृतः । अहो राजर्षयोऽमी । एतेषां पादोदकात्कथं शान्तिर्भ-15 विष्यति । मयि दृष्टे ध्यानमारब्धम् । सूरिणा ध्यानं मुक्तम् । ततः सावज्ञं वन्दिताः । देव्यौ तच्चित्तं ज्ञात्वाऽदृष्टबन्धनैस्तं बबन्धतुः । स प्रभुणा मोचितः। आगमनकारणे सूरिभिः पृष्टे, श्रावकवीरदेवेनोक्तम्-तक्षशिलासङ्घनोपद्रवरक्षार्थ प्रभुपादमूले प्रेषितः । मम वि[क]ल्पो जातः । जयादेव्या उक्तम्-यत्र भवादृशाश्छिद्रान्वेषिणः श्रावकास्तत्र गुरवो नागमिष्यन्ति । सूरिभिरुक्तम-वयमत्रस्थाः शान्ति करिष्यामः । श्रीशान्तिनाथ-पार्श्वनाथमत्रगर्भ श्री'शान्तिस्तव'मर्पयित्वा प्रहितः । स तस्यां गतः। तस्मिन् पठ्यमाने शान्तिर्जाता । वर्षत्रया नन्तरं] पुरी 20 तुरुष्कर्भमा । अद्यापि भूमिगृहे तस्यां पित्तलानि बिम्बानि सन्ति । ततः प्रभृति एष स्तवः सञ्जातः । ॥ इति शान्तिस्तवप्रबन्धः ॥ ५७. न्याये यशोवर्मनृपप्रबन्धः (B. BR. P.) ६२३३) कल्याणकटके पुरे यशोवर्मनृपतिस्तेन धवलगृहद्वारे न्यायघण्टा बद्धा । एकदा राज्याधिष्ठात्री देवी नृपव्रतपरीक्षार्थ धेनुरूपं कृत्वा वत्सस्य तत्कालजातस्य मार्गे कृत्वा स्थिता । नृपसूनुर्वहिलामारूढस्तत्रायातः । वेगेन 25 वहिला वत्सचरणयोरुपरि भूत्वा गता । वत्सस्तु मृतः । धेनुः कोकूयते, अश्रूणि मुञ्चति । केनाप्युक्तम्-राजद्वारे गत्वा न्यायं याचख । सा गता। तया शृङ्गाग्रेण घण्टा चालिता । नृपस्तु भोजनायोपविष्टः । शब्दं श्रुत्वा बभाषे-रे! कोऽयं घण्टां चालयति । सेवकैर्विलोक्योक्तम्-देव! कोऽपि न, भुज्यताम् । नृपः प्राह-निर्णयं लब्ध्वा भोक्ष्ये । नृपः स्थालं त्यक्त्वा प्रतोल्यां स्वयमायातः । कमप्यदृष्ट्वा धेनुं प्राह-केन पराभूतासि । तं मम दर्शय । साग्रे भूता, नृपः पृष्ठौ लग्नः । तया वत्सो दर्शितः। नृपेणोक्तम्-केनेयं वाहिनी वाहिता ? । स पुरो भवतु 130 1 B वाहिन्यधिरूढः। 2 B वाहिनी। 3 B याता। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे कोऽपि न वक्ति । नृप आह-तदा भोक्ष्ये यदा स प्रकटीभविष्यति । लङ्घने जाते प्रातः कुमारेणोक्तम्-देवाहमपराधी । मम दण्डं कुरु । नृपेण वाहिनीमानाय्य सार्ताः पृष्टाः-कोऽय दण्डः। तैरुक्तम्-देव! राज्यधर एक एव कुमारस्तस्य को दण्डः। नृपः प्राह-कस्य राज्यम् , कस्य सुतः। मम न्याय एव महान् । यद्भवति तद्भूत। तैरुक्तम्यो यस्य कुरुते, तस्य तद्विधीयते । नृपेणोक्तम्-इह खपिहि । स सुप्तः । नृपेणोक्तम्-वाहिनीमुपरि वेगेन वाह5 यत । कोऽपि न कुरुते । नृपस्तदाह-(B नृपः कामाश्राविण्यामिदमवादी-) मे पुत्रस्नेहो न, विनश्यतु वा जीवतु । यावत्स्वयमुपविश्य वेगेन वाहयति कुमारचरणयोरुपरि तावद्देवी प्रकटीभूय पुष्पवृष्टिं चक्रे । न गौर्न वत्सः । राजन् ! मया तव चित्तपरीक्षणं कृतम् । नृपस्य सुतो वल्लभो न्यायो वा' । पुत्रादपि न्यायस्तव वल्लभः । चिरं राज्यं कुरु । ॥ एवं न्याये यशोवर्मप्रबन्धः॥ ५८. अम्बुचीचनृपप्रबन्धः (Ba. P.) ६२३४) एकदा द्वारिकायां कृष्णो राज्यं करोति । पाण्डवपितृव्यो विदुरः कृष्णेन प्रधानः कृतः। दिन प्रति १६ गद्याणा ग्रासे कृतास्तस्यापरं न किमपि । एकदा विदुरेणोक्तम्-त्वं मेऽधिकं न ददासि, अतः कस्याप्यन्यस्य पार्थे यास्यामि । कृष्णः प्राह-तव प्राप्तिरियती, नाधिकास्तीति । विदुरेणोक्तम्-प्राप्तिरस्ति परं त्वया वारिता । तर्हि राजान्तरं व्रज-इत्युक्तः । कृष्णेन स प्रहितः । कृष्णेन सर्वेषां भूपतीनां कथापितम्-यद्विदुरस्य १६ गद्याणाधिक 15 न देयम् । स सर्वत्र भ्रान्त्वा समायातः । कृष्णाग्रे बभाषे-मम त्वं काल इव पृष्ठे लग्नः । तवाज्ञयाऽधिकं कोऽपि न यच्छति । कृष्णः प्राह-तर्हि द्विजरूपं कुरु । अहमपि तव बटुको भविष्यामि । हस्तिकल्पपुरेऽम्बुचीचो नृपतिर्महात्यागी। परं कर्णयोर्न शृणोति । तृषितस्त्वम्बु इति वक्ति, बुभुक्षितश्चीचु इति वदति । तस्य पुरे आवाभ्यां गम्यते। गतौ तत्र । विदुरो भव्यविप्रवेषं चकार, कृष्णस्तु बटुकरूपम् । विदुरेण नृपस्याशीर्दत्ता । नृपेण प्रधानसम्मु खमालोकितम् । प्रधानरुक्तम्-कलशे करं क्षिप्वा चीरिकाया आकर्षणं कुरु । विदुरेणाधः करं क्षिप्त्वा कृष्टा, 20 विलोकिता। ग० १६ तत्र लिखिताः । बटुकरूपेण कृष्णेनोपरितनी गृहीता। तत्र चीरिकायां कोटिलिखिता । प्रधानैरवादि-अकिश्चित्करोऽयम् । एष च भाग्यवान् । अस्माकं दाने षोडश निकृष्टाः । कोटिः सर्वोत्तमा । ततः प्रत्यावृत्तौ । कृष्णेनोक्तम्(३२१) न विद्या धनलाभाय जनजाड्यसमृद्धये । आत्मानमम्बुचीचं च मां च दृष्ट्वा मुखी भव ॥ 25 त्वं विदुरोऽहं कृष्णो नृपस्त्वकिश्चित्करः । इति विमृश्य विदुरः स्वस्थो जातः । ॥ इति अम्बुचीचप्रवन्धः ॥ 1-2 एतद्वाक्यद्वयं P आदर्श नास्ति । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (P.) सङ्ग्रहगता अवशिष्टा विधि-परोपकारादिविषयकप्रकीर्णप्रबन्धाः । - ५९. विधिविषये उदाहरणम् । ६२३५) पोतनपुरे नरवाहनो नृपः । सुमित्रो मत्री । अन्यदा अन्तःपुरे पुत्री जाता । नृपेणोत्सवे कारिते, षष्ठीदिनेऽमात्यस्य विसयो जातः । षष्ठीदिने विधिरेत्य ललाटेऽक्षराणि क्षिपति । तदेतत्सत्यं असत्यं वा-इति सन्देहे, स्वयं खड्गमाधाय छन्नं स्थितः। अर्द्धरात्रौ स्त्रीरायाता । सा कुङ्कुममादायाक्षराणि क्षिप्वा यान्ती मत्रिणा 5 प्रणामपूर्व पृष्टा-देवि ! प्रसादं कृत्वा कथय, कान्यक्षराणि क्षिप्तानि? । तयोक्तम्-मा पृच्छ । निर्बन्धेन पृष्टा आह-इयं कोरिकसुतस्य पत्नी भविष्यति । इत्युक्त्वा तिरोदधे । प्रातर्मत्री विषण्णस्तं वृत्तं नृपाय आचख्यौ । नृपेणोक्तम्-तस्य सुतो जातमात्रोऽस्ति, स बालोऽपि व्यापाद्यः । इत्युक्ते मत्रिणोक्तम्-देव! बालहत्यां कः करोति । तदैव व्यापादयिष्यामः । क्रमेण कन्या वर्द्धिता, सोऽपि वर्द्धितः । राजगृहे कर्माणि कुरुते । षोडशवार्षिक तसिन्नमात्येनोक्तम्-देव! स डिम्भः कथं व्यापादनीयः । इतः कस्मैचिन्नृपपुत्राय कन्या दत्ता। षण्मासान्ते 10 लग्नं मत्वा नृपेण स भूर्जानर्पयित्वा (१) विधिनिमत्रणाय उक्तः-रे वत्स! विधि निमत्र्यागच्छ । तेनोक्तम्खामिन् ! सा कास्ते । तन्न जाने-मत्रिणोक्तम् । लङ्कायां स चलितः । अग्रे गच्छन् कस्मिंश्चित्पुरे श्रेष्ठिहवे उपविष्टः । तेन पृष्टम्-क्व यास्यसि । तेन खभावोक्तौ गृहे नीत्वा श्रेष्ठिना भोजितः । उक्तम्-विध्यग्रे मम सन्देशो वाच्यःमदीयं भवनं कथं ज्वलति । तेनोक्तम्-कथयिष्ये । तं श्रुत्वाऽग्रे गच्छन् पुरमेकमुद्धसं दृष्ट्वा मध्ये प्रविष्टः । शोभाभिरामं पश्यन् राजाङ्गणे नृपसिंहासनाध्ये निविष्टः । सन्ध्यायां पुरशोभा जाता । नृपः समाययौ । तेन नम-15 स्कृतः। कोऽसि त्वम् ? । स्वरूपे उक्ते स०-मम सन्देशो विध्यग्रे वाच्यः-यन्मे पुरं प्रातर्दिशो दिशं कथं याति। तच्छ्रुत्वा प्राति]श्चलितः। समुद्रोपकण्ठे गतः। चिन्तातुरो मत्स्येनैकेन व्याहृतः-भो मनुष्य! कोऽसि त्वम् ? खभावोक्तौ तत्रापि तेनाप्युक्तम्-यदि मे सन्देशं कथयसि तदा तत्र नयामि । तेनोक्तम्-वद । तेनोक्तम्-मदीये जठरे दापः कथम् । स पृष्ठिमधिरोप्य उपकण्ठे मुक्तः। तेनोक्तम्-वलनं कथम् ? । सप्तप्रहरान् प्रतीक्षयिष्ये । इति श्रुत्वा स गतः। इतः प्रतोलीराक्षसेषु धावितेषु तेनोक्तम्-विधेः स्वरूपं समर्प्य वलन्नेष्यामि । तैर्मध्ये मुक्तः । स 20 रावणनृपालयसप्तमभूमौ कुचेला कोद्रवदलनपरां विधि राक्षसनिवेदितां ननाम । खरूपेऽर्पिते सा हृष्टा जाता । वत्स! त्वं गच्छ । लग्नसमये एष्यामि । सन्देशान् पृष्ट्वा समुद्रोपकण्ठे गतः। तत्र तं मत्स्यं दृष्ट्वा, तेन पृष्टः-मत्सन्देशं कथय । पूर्वभवे त्वं विद्यापारगो ब्राह्मणः । विद्यादाने कृपणो जातः। मृत्वा मत्स्यो जातः । पूर्वभवविद्यया तव देहो दह्यते । यदि विद्यां ददासि, तदा ते स्वास्थ्यं भविष्यति । सोऽपि जाति स्मृत्य तस्यैव विद्यामदात । पुनः परतटे नीतः स विद्यावान् । पुनः शून्यपुरे सन्ध्यासमये नृपाय मिलितः। तेन शून्यताकारणे 25 पृष्टे, उक्तम्-अत्रैव पुरे तव पिता दुर्गरोधे सन्नह्य बहिनिःसृतः । धारातीर्थे मृतः । मस्तकं विना त्वया अपि संस्कारः कृतः। करोटिका कालदण्डचण्डालगृहेऽस्ति । तया डिम्भानि रब्बापानं कुर्वन्ति । पश्चात्तव तातो व्यन्तरो जातः । स यथा यथा तां करोटिकां ताप्यमानां पश्यति तथा तथा क्रुद्धः सन् पुरं शून्यं विधत्ते । रात्री तया शीतया जातया स्वास्थ्यं करोति । नृपेण तामानीयाग्निसंस्कारः कृतः । तस्मिन् पुरे खास्थ्ये जाते, स्वपुत्री दत्त्वा बहुपरिकरः प्रेषितः । पुनः श्रेष्ठिपुरे गतः । श्रेष्ठिनातिथ्ये कृते वार्ता पृष्टा । तेनोक्तम्-वित्तवानपि त्वं 30 कृपणस्तव गृहे देवगुरुसुहासिण्यादयो निःश्वस्य शापं यच्छन्ति-ज्वलत्वस्य गृहम् । तेन सत्यं मत्वा दानेश्वरो जातः । वपुत्रीं दत्त्वा प्रेषितः । इतो लग्नदिने स खपुरे गतः। जनैर्वरो मत्वा मध्ये नीतः । केनाप्यलक्षितेन Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे किश्चिमोक्तम् । हस्तमेलकवेलायां पुरे पूर्ववरः समाययौ । स केनाप्यसत्कृतो मध्ये समागतः । विवाहं मत्वा युद्धसजो जातः । इतो विधिना समेत्य नृप उक्तः-राजन् ! मा विषीद; भो मत्रिन् ! त्वमपि मा विषीद । किं विसरसि त्वया पृष्टाऽहम् ? । मयोक्तं पूर्व मद्वाक्यमन्यथा कथं भवति । एषाऽस्यैव भवतु । अन्यां परिणाप्य द्वितीयः प्रेषितः । इति विधिर्यद्विधत्ते तद्भवति, मनुष्यकृतं न भवति । ६०. परोपकारविषये उदाहरणम् । (३२२) नीचाः शरीरसौख्यार्थमृद्धिव्यापाय मध्यमाः। कस्मैचिदद्भुतार्थाय यतन्ते पुनरुत्तमाः ॥ ६२३६) कश्चित्परोपकारी न्यायी पुमान् अन्यायनगरे गतः। तत्र राजाप्रभृति सर्वेऽप्यन्यायिनो वसन्ति । तेन स्वजीवनार्थ विक्रेतुं कोहलकानि समानीतानि । विक्रेतुं लग्नः । 'ईछ' सम्बन्धेन नवकोहलकानि गतानि । 10 चत्वारो विलोक्यन्ते । खेटके पतितः। स आत्मानं विक्रेतुं कामोऽपि न छुटति । तेन पुरुषेण चिन्तितम्-कथं अथापि प्रतीकारं करोमि ? । श्मशानभूम्यां गतः । तत्र मृतकानां दा दातुं न ददते । मृतकमहत्त्वानुमानेन द्रव्यं याचते । लोकैः पृष्टम्-कस्त्वम् ? । राज्ञीशालकः । तस्य द्रव्यं ददाति । ततोऽनन्तरं दापो भवति । तेन कियद्भिर्दिनैर्द्रम्माः सहस्रदशो मेलिताः । राज्ञः (ज्ञा?) पुरोहितः पृष्टः । तद्भूम्यां समागतः । द्रम्मानां सहस्रं याचते । पञ्चशत्या निर्वाहः । राज्ञोऽये लोकेन रावा कृता । राज्ञा शब्दितः । स मुक्तकेशः कौपीनवासाः 15 प्रत्यक्षपिशाच इव दृष्टः । पृष्टः-कस्त्वम् । राज्ञीशालकः । कोऽपि राज्ञीशालको वर्त्तते कस्मिन्नगरे । तेनोक्तम्-'नव कोहलां ईछ तेर' एवं कुत्रापि वर्तते । तेन समस्ता द्रम्मा राज्ञः समर्पिताः । तस्य राज्ञा व्यापारो दत्तः । नगरेऽन्यायो रक्षितः । समस्तलोकानामुपकारकरो बभूव । 20 ६१. उद्यमविषये उदाहरणम् । (३२३) उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। पुरुषस्य चोपविष्टस्य देवता न च सिद्धिदाः ॥ ६२३७) केनापि पुंसा देवी चामुण्डा आराधिता । परितोपं गता क०-याचस्व । तेन कथितम्-यच्चिन्तयामि तत्प्राप्तिः । तव भविष्यति इति कृत्वा देवीभवनान्निःसृतः। चिन्तितम्-मम शरीरे सर्वाङ्गीणानि आभरणानि भवन्तु । जातानि । गृहस्योपरि व्रजन्मार्गे सार्थेन सह चौरैदृष्टः । सार्थो गृहीतः। स उपविश्य स्थितः । केपि नंष्ट्वा गताः, केऽपि योधिताः । स लकुटैः कुट्टयित्वा गृहीतः । आभरणानि गतानि । शरीरे दूमितो गाढं देवीं 25 भञ्जनाय लोढी गृहीत्वा गतः । देव्या कथितम्-कथं मां भञ्जसे ? । त्वया चौरात् कथं न रक्षितः १ । यदि युद्धं कुरुत त्वं तदा स्कन्धाभ्यामवतरामि, यदि पलायनं कुरुत तदा पादाभ्यामवतरामि । उपविश्य स्थितस्तदाऽहं किं करोमि ? । देव्या स भङ्ग कुर्वनिषिद्धः । ततः स्वगृहे गतः । यदि उद्यमः क्रियते तदा सिद्धिर्भवति । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णवाराविषये उदाहरणम् । ६२. दानविषये उदाहरणम् । (३२४) पश्चादत्तं परैर्दत्तं लभ्यते वा न वा खलु । खहस्तेनैव यद्दत्तं तद्दत्तमुपतिष्ठति ॥ (३२५) सद्यस्तृप्यति भोक्तारं यस्योद्देशेन दीयते । सत्यं वदामि कौन्तेय! यो ददाति स भुञ्जते ॥ ६२३८) कयाचित्प्रोषितभर्तृकया पत्यागमनकारणं विलोकयन्त्या दिना घनतरा गताः। भर्तुः पार्थात्पश्चादेको जनस्तस्याः समाचारदर्शनार्थं समायातः । सा अन्यासक्ता दृष्टा । तया चिन्तितम्-अहमनेन ज्ञाता । स पुनरपि भारं प्रति चलनाय लग्नः। तस्य चलतो द्वौ मोदको समर्पितौ सम्बलार्थम् । एको विषमिश्रितो द्वितीयो न । यथेष विषमिश्रितमोदकभक्षणेन विनश्य भर्तुरग्रे गृहस्वरूपं न कथयति । स चलितः । तस्यैव ग्रामगोन्द्रके निर्विण्णो भर्ता तस्या उपविष्टो दृष्टः । क्षुधाऽऽक्रान्तः । तत्र द्वौ जनावुपविष्टौ । तेनैको मोदकस्तस्या भर्तृयोग्यं 10 दत्तः। एकस्तेन भक्षितः । विषमिश्रितमोदकभक्षणेन लहरितः । मूच्छां प्राप्तः । तावता दण्डपाशिकैर्धतः ससखा । लोको मिलितः । तस्योपद्रोतुं लमः । मारणार्थ नीतो जनः । भार्यायाः शुद्धिर्जाता । मोदकभक्षणेन दूरदेशादायातो मम भर्ता विनष्टः । स जनो मारणार्थं नीतोऽस्ति । तया चिन्तितम्-मम विरूपदानतस्तात्कालिकं फलं जातम् । अहमेनं जनं मुंश्चापयामि । तया तत्र गत्वा कथितः-यादृशं दानं दत्तम् , तस्य तात्कालिकं फलं दृष्टं तादृशम् । जनो मुश्चापितः । लोकानामग्रे कथितम्-यादृशं दीयते तादृशं प्रत्यक्षं दृश्यते; यादृग् दत्तं 15 तादृग् लब्धम् । तस्याः सत्यकथनेन विषं जपित्वोत्तारितम् । स निरामयो जातः । तदनन्तरं सा तस्य विषये एकचित्ता गृहस्थधर्म पालयति । यादृग्दीयतेऽन्यस तादृक् प्रत्यक्षं दृश्यते इति भावः ।। (३२६) अपलपति रहसि दत्तं प्रत्ययदत्तेन संशयं कुरुते । तस्य हि नश्यति सर्व मूलतस्तानिशम्यैताम् ॥ ६३. कर्णवाराविषये उदाहरणम् । ६२३९) देवदत्तेन व्यवहारिणा प्रवहणगतेन एकस्यात्मीयवणिकपुत्रस्य हस्ते चत्वार्यमूल्यकानि रत्नानि गृहे कलत्रयोग्यानि प्रहितानि । तेन वणिक्पुत्रेण चतुर्गामधू(कू)टजनानां लञ्चां दत्त्वा साक्षिणः कृताः । यदा देवदत्तः समायाति तदा युष्माभिरिति कथनीयम्-वयं साक्षिणः कृत्वा, तव कलत्रयोग्यानि चत्वारि रत्नानि प्रदत्तानि । कियद्भिर्दिनैः प्रवहणे समायाते देवदत्तः कुशलेनागतः । कलत्रपार्श्वे पृष्टम्-मया तव योग्यानि चत्वारि रत्नानि प्रहितानि, आनय तानि, प्रविलोक्यन्ते रत्नपरीक्षकाणां दर्श्यते । तया कथितम्-मम योग्यं केनचिन्न समर्पितानि 125 वणिक्पुत्रः पृष्टः । तेन कथितम्-मया चतुरो नगरमध्यस्थान् व्यवहारिणः साक्षिणः कृत्वा तव प्रियायोग्यानि समर्पितानि । तैरपि कथितम्-तव प्रियायोग्यानि समर्पितानि वयं साक्षीकृत्य निश्चयेनासिन्नर्थे न सन्देहः । तेन चिन्तितम्-अहमनेन वणिक्पुत्रेण साक्षिभिश्च [मुषितः] कोऽपि नगरमध्ये न यो न्यायान्यायं विलोकयति । कर्णवारां सत्यां कुरुते । केनचिजनेन कथितम्-कर्णवारी मृतः । पुनस्तस्य लघुपुत्रो विद्यते एकः । देवदत्तस्तस्य गेहे गतः। पुत्रस्य मात्रा स आवर्जितः। तया कथितम्-किमर्थं समायातः। कर्णवारां प्रच्छनाय । 30 तया कथितम्-अरे वत्स! तव पिता नगरमध्यस्थां समग्रां कर्णवारां कुर्वन् लोकानां मध्याहुतरं द्रव्यं समानयत् । त्वं किमपि न कुरुषे । अन्यत्त्वां लघु भणित्वा कोऽपि न मन्यते । मातरहमपि तस्य पुत्रो भवामि । समग्रं निर्णयं करिष्ये । यतः Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ 10 तस्य समीपे देवदत्त उपविष्टः । कर्णवारा कथिता । व्यवहारिणश्चत्वारोऽप्याकारिताः । पृथक् पृथगुपवेशिताः । तेषां समीपे पृ०, तैः क० - वयं साक्षीकृत्य तस्य प्रियायोग्यं समर्पितानि । भव्यम् । तेन खबुद्ध्या पडसूधीलोअको 5 विभज्य चतुर्णां समर्पितः। कथितं च- यावन्मात्राणि सन्ति तावन्मात्राणि कुर्वन्तु । चत्वार्यपि रत्नानि तैः कूटसाक्षिभिरन्यादृशानि २ कृतानि । तेन कर्णवारीपुत्रेण कथितम् - भोः वणिक्पुत्र ! रत्नानि सकालेऽपि समर्पय, मा राजग्राज्यो (ह्यो) भव । एते कूटसाक्षिणश्च राजग्राह्या भविष्यन्ति । ततस्तेन श्रेष्ठियोग्यानि रत्नानि समर्पितानि । पादयोश्च पतितः । कर्णवारीपुत्रस्य पदं जातम् । अतः सत्यां कर्णवारां कुर्वतां द्रव्यप्राप्तिर्यशच इह लोके परलोकेsपि । श्रेष्ठ्यपि रत्नानां सौख्यं विलसित्वा स्वर्गभाग्जातः । ॥ इति कर्णवाराविषयकप्रबन्धः ॥ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे (३२७) सिंहशिशुरपि निपतति मदकुलझङ्कारभूषिते करिणि । न पुनर्नखमुखविलषि (लिखितभूतलकुहरस्थिते नकुले ॥ (d) सङ्ग्रहगता अवशिष्टाः प्रबन्धाः । $ २४०) श्रीवाक्पतिराजकविना भारतं कर्तुं प्रारब्धम् । तावता निशि द्वैपायनः समागतः । तेनोक्तम्- किमर्थं पादमवधारिताः । तेनोक्तम् - तव पार्श्वे याचितुम् । किम् ? यत् त्वं भारतं मा कृथाः । पुस्तकमर्पय । तेन तथाकृतम् । गीर्वाणवाण्यपि निषिद्धा । ततो गौडवधनामा प्राकृतग्रन्थो विहितः । 15 ६ २४१) श्रीसारंगदेवप्रधानो राज्ञा रामदेवेन पृष्टो निजस्वामिनः कीर्तिस्फूर्ति अवादीत् । राज्ञोक्तम्- सर्वं भव्यम्, परं पानं करोति । पानकः शशाङ्ककलङ्कः । तेनोक्तम् - देव ! सत्यम्, परं मातृ-भगिनीं जानाति । रामदेवस्य पितृव्यसुता लुखाईराणी अन्तःपुरेऽस्ति । इति श्रुत्वा लज्जितः । ६२४२) अथ अभयदेवनामा द्विजः प्रभासे सरस्वत्यां स्नानं विधाय समागत्य च श्रीसोमेश्वरं नमस्कृतः । तद्धर्मशिलायाः पुरः शफरी जीवन्ती पतिता तस्यैव शरीरे लग्ना मृता च । तेन सानुकम्पेन प्रायश्चित्तं पृष्टम् । 20 केनापीति गदितम् - सुवर्णरूपमयी दीयते शफरी । तेन न मानितम् । ततः सर्वत्र प्रायश्चित्तहेतोर्भ्रमन् श्रीस्तम्भतीर्थे गुरुर्जीववधमांसभक्षणप्रायश्चित्तं सिद्धान्ते वाचयन्नभूत् । तेन श्रुतम् । यद्यस्य जीवस्य यावन्तीन्द्रियाणि भवन्ति, तद्वधे तावन्मितशतोपवासा विधीयन्ते । तन्मानितम् । ततो दीक्षात्ता | श्रीअभयदेवसूरयो जाताः । (२४३) कुम्भीपुरे यशोधनो व्यवहारी । तस्य पुत्रो विद्यानन्दो विस्तरेण परिणीतः । दीपालिकायामागता वधूः । तेनोक्तम्- कथा कथ्यतामिति । तया लज्जया नोक्तम् । सा मुक्ता । ततः पित्राऽपरां परिणायितः । पूर्व25 वदुक्ते सापि मुक्ता । पुनः पित्रा दूरं गत्वा कन्यां याचयित्वा परिणायितः । तया पृष्टया कथितम् - कीदृशीं कथां कथयामि ? अनुभूतां श्रुतां वा, दृष्टां वा । तेनोक्तमनुभूताम् । एवमुक्ते तया मन्दं २ द्रव्यं पितृगृहे प्रविष्टं कृतम् । एकदा निशि गृहं ज्वालितम् । तदनु निर्धनतयात्मचतुर्थकुटुम्बं निःसृतम् । कस्मिन्नपि नगरपाद्रे संम्बलमिषेण पिता गतः, मातापि गता, सोऽपि तां विहाय गतः । सा तु द्रव्यबलेन राजकुमारवेषं विधायावलगां जग्राह । तस्य पिता महिषवित्तोऽजनि । माता मासोपवासिन्यजनि । स कोरिको जातः । त्रयमपि तया संगृहीतम् । वर्षान्ते 30 तमाकार्य कथितम् । अद्यापि कथां कथयामि नो वा । जातम् । एवं पुनः व्यवहारी जातः विहितो भार्यया । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G. सङ्ग्रहता अवशिष्टाः प्रबन्धाः । .६२४४) केनापि राज्ञा वाद्यालिगतेन कश्चित्पुमान् करीरशिखरस्थानि करीराणि विचिन्वन्नुदितः-रे सुप्राप्यानि अमूनि विहाय कथं कष्टप्राप्यानि चिनोषि । तेनोक्तम्-सुप्राप्यानि पश्चादपि ग्रहीष्यामि, पूर्वमहमसाध्यानि साधयिष्यामि । राज्ञा तुष्टेन व्यापारो दत्तः। स महासुखं भुङ्क्ते। एकदा प्रातः पृष्टः-कथमुन्मना इव दृश्यसे ?। तेनोक्तम्कुसुमशय्यायां वृन्तेन दूमितोऽस्मि । ततो राज्ञा उन्मत्त इति सर्वमादाय व्यापारानिर्वासितः । एवं यावत् जा जा पडइ अवत्थडी०॥ 5 २४५) राजा-अमात्य-तलारक्ष-व्यवहारिणां पुत्राः मित्राणि च कर्म-बुद्धि-विक्रम-व्यवसायान् मन्यन्ते । विवादे जाते देशान्तरं प्रति चलिताः। एकेन व्यवसायप्रयोगात् कस्यापि हट्टे द्रव्यमुपार्जितम् । द्वितीयेन [धाटीतो(१) ] ग्रामो रक्षितः । तृतीयेन बुद्धिवशात् तटस्थेन सरोवरमध्यकीर्तिस्तंभपाशो दत्तः । चतुर्थस्य कर्मवशात् पदाभिषेको जातः। (३२८) यद्भविष्याधिको धीरैर्व्यवसायी प्रकीर्तितः । तस्मादप्यधिको लोके भाग्यवान् राजिलो यथा । 10 ६२४६) कर्मोपक्रमप्रशंसकं नरद्वयं राज्ञा केनापि कूपे प्रक्षिप्तम् । दिनत्रयं जातम् । राज्ञा तयोर्मोदकदशक प्रहितम् । उपक्रमवता गृहीतम् । मोदकपञ्चकं कर्मप्रशंसकस्यार्पितम् । तन्मध्ये रत्नपञ्चकमभूत् । राज्ञा तौ बाह्यनिष्कासितौ । भाग्याधिकेन रत्नानि दर्शितानि । अतो भाग्यमेव श्रेयः। ६२४७) वसन्तपुरे जितशत्रुराजा सभां सचित्रां कारयन्नस्ति । अत्रान्तरे चित्रकरदारिका भक्तमादायागता | 15 इतश्च वृद्धो बाह्यभूमौ गतः। ततस्तया तत्र क्रीडया भुवि बर्हिबह चित्रितम् । ततो विलोकनायागतेन नृपेण पिच्छभ्रान्त्या करः क्षिप्तः । नखावली भग्ना । सा हसिता । राज्ञोक्तम्-कथम् । तयोक्तम्-चत्वारोऽपि मूर्खाः । एकश्चतुष्पथे घोटकं त्वरयन् दृष्टः। द्वितीयो मम पिता, यो भक्ते समागते बहिर्गन्ता । तृतीयो राजा, यः समभूमि मत्पितुर्वृद्धस्य चित्रार्थ ददाति । तुर्यस्त्वम् । ततस्तेन सा परिणीता । ततः सा राज्ञोऽग्रे कथां कथयतिराजन् ! शृणु । कोऽपि...............अन्तःपुराणां आभरणानि भूमिगृहे स्वर्णकारपार्थात् कारयति । तेन तत्र 20 स्थितेन कथितम् । संप्रति अस्तमनं जातम् । स कथं जानाति । राजन् ! राज्यन्धत्वात् । - द्वितीयदिने-राजन् ! व्यवहारिसुता काचित् पित्रा मात्रा भ्रात्रा मातुलेन च चतुर्षु स्थानेषु दत्ता । लग्नदिने चत्वारोऽपि वरा विवादं विदधते । सा विवादं विज्ञाय मृता । एकेन सह गमनं कृतम् । द्वितीयेन तस्या अस्थीनि तीर्थे प्रक्षिप्तानि । एकः पिण्डं ददाति । तुर्यो मृतसंजीविनीविद्याग्रहणार्थं देशान्तरे गतः । तेन कुत्रापि रुदमानं बालकं चुल्लके क्षिप्तवती कापि नारी दृष्टा । तेनोक्तम्-आः किमेतद्विहितम् ? । तया पुनर्जीवितः । तेन 25 तत्र विद्यामादाय सापि जीविता । पुनश्चतुर्णा वादो मारुयकेन भन्नः । येन जीविता स पिता । येनास्थीनि तीर्थे क्षिप्तानि स भ्राता । यः सहोत्पन्नः सोऽपि भ्राता । पिण्डदाता भर्ता ज्ञेयः । तृतीयदिने-केनापि राज्ञा चौरद्वयं [पेटीमध्ये निःक्षिप्य नद्यां] प्रवाहितम् । कसिन्नपि नगरे केनापि राज्ञा निष्कासितम् । पृष्टम्-कियन्ति दिनानि जातानि । ताभ्यां तुर्य दिनं [ कथितं ] कथं ज्ञातम् ? । राजन् ! चातु- - र्थिकज्वरप्रभावतः। 30 पु.प्र. स. 15 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे चतुर्थ दिने - कस्यापि राज्ञोऽन्तःपुरद्वयम् । एकया महे गन्तुकामया निजाभरणपेटिका कस्याश्चिनिजसख्याः समर्पिता । तया हारवोरितः । तया समेतया पेटिकां दृष्ट्वा कथितम् - मम हारः केनापि चोरितः । राजन् ! कथं ज्ञातः । काचमयपेटित्वात् । पञ्चमदिने–कस्यापि राज्ञो रत्नचतुष्टयम् - नैमित्तिको, रथकारः, सहस्रयोधी, वैद्यश्व विद्यते । अन्यदा तस्य राज्ञः 5 सुता विद्याधरेणैकेनापहे । ततो राज्ञोक्तम्-य आनेष्यति स परिणेष्यति । इत्थमुक्ते नैमित्तकेन मार्गो दर्शितः । रथकारेण गगनगामी रथश्चक्रे । सहस्रयोधिना स जितः । सा राजपुत्री विद्याधरमारिता वैद्येन सज्जीकृता । एषां को भर्त्ता ? | वादे जायमाने तया काष्ठभक्षणं कृतम् । नैमित्तिकेनापि तया सह कृतम् । द्वावपि सुरंगान्तर्भूत्वा सुखं स्थितौ । 1 $ २४८) कुत्रापि केषामपि आचार्याणां जलोदरमुत्पन्नम् । केनापि वैद्येन स्वरूपं विलोक्य पृष्टम् - यूयं किं 10 कुरुथ ? । तैरुक्तम्-ग्रन्थ एकः प्रारब्धोऽस्ति । तत्र सरोवर्णनं क्रियमाणमास्ते । तदवगत्यौषधं कारितम्, इत्युक्तं 'च-यन्मरुदेशवर्णनं विधत्त । तथाकृते आचार्याणां जलोदररोगोऽगमत् । ९२४९) केचिदाचार्या अतीव विद्वांसः कर्मयोगात् कुष्ठिनो जाताः । तत औषधोपचारैरपि रोगमनिवर्तमानं वीक्ष्य श्रीसेरीसके यात्रायां यात्वा देवाग्रे त्रिविधाहारप्रत्याख्यानं विधायोपविष्टाः । दिनसप्तकमजनि । पश्चाचतुर्थाहारोऽपि त्यक्तः । तदात्वागतव्यन्तरैः स्थितव्यन्तरपार्श्वे पृष्टमिति - कथं भवतामियन्तो दिवसा महाविदेहे 15 लग्नाः । तैरुक्तम्- महं तेजः पालकलत्रं भीमगान्धिकगृहे सुतात्वेनोत्पन्नमास्ते । तया परिणयनोचितया पाणिग्रहणं परित्यज्य श्रीसीमंधरस्वामिकरेण दीक्षा गृहीता । पित्रा पाणिग्रहणद्रव्यं तत्परित्रज्यायाः समये व्ययितम् । तदुत्सवं विलोकयतामस्माकमियन्ति दिनानि लग्नानि । ततस्तैराचार्याणां कथितमिति - भवान् सप्तमभवे भावसारोऽभूत् । तेन रङ्गभाण्डतप्तजलेन वाडिमध्ये नक्कुलनालकसप्तकं विनाशितम् । तेन कर्मणा त्वं सप्तमभवेऽस्मिन् कुष्ठी जातः । तवायुः स्तोकमास्ते । कर्मापि परिक्षीणम् । यदि भणसि ततस्तवारोग्यता दीयते । परमागामिभ20 वेऽपि कर्म वेदयिष्यसि । तद्वचो निशम्य प्रातः श्रावकानापृच्छय सूरयस्तथैव स्थिताः । $ २५०) अन्यदा वामनस्थलीवास्तव्यः पण्डितवीसलो लोलीयाणके गतः । तत्र जायमाने जागरणे व्यासे - नैकेन वागस्याग्रे लोलीयाणकं व्याख्यातम् । यदद्य मनुष्याणामेकादशसहस्रा उपोषिताः सन्ति । स्नानं कुर्वन्ति च । वीसलेनोक्तम् - किं स्नानेनामुना १ । पुरे मदीये लघुकास्मीरे वामनस्थलीनामनि गोलक्षमेकं वाल- ओनिनदीये खानं कृत्वा तृणमपि खादति । 25 ९ २५१) कस्यापि व्यवहारिणः खमे मुखे उन्दरिका प्रविष्टा । तेन रोगो जातः । षण्मासाः संजाताः । केनापि मतिमता वैद्येन भोजनं दत्त्वा ऊपालो दत्तः । तदन्तः कृत्रिमा मूषिकाः पतिताः । ततो नीरोगो जातः । ९२५२) बहूनां विदुषां सभाक्षोभो भवति इत्यर्थे कथा - पण्डितौ द्वौ कुत्रापि पठित्वा कस्मिंश्चिदेशान्तरे महति रायतने गतौ । ततो बीजपूरकमेकं भेटाकृते गृहीत्वा भूपसमीपं गतौ । सभां महतीं विलोक्य क्षुभितौ । राज्ञः पुरो वीजपूरकं मुक्तम् । राज्ञोक्तम्- पूर्णं पूर्णं किमेतत् ? । पण्डितेनोक्तम् - राज्ञो भेटायां 'लींबडस' केन 30 भाव्यम् । ततो हसितः । तावता द्वितीयेनोक्तम् - यत् भवति 'भसाक्षोभः' । C Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G. सङ्ग्रहता अवशिष्टाः प्रबन्धाः । ६२५३) कच्छदेशे बहुचौरोपद्रवं विज्ञाय राज्ञा जिणहा नामा व्यापारी प्रेषितः। स चौरं मारयत्येव । एकदा चारणेन चौरी कृता । स धृतः आरक्षकेण । चारणं भणित्वा मत्रिजिणहाकस्य देवपूजां विदधतो विज्ञप्तम् । करसंज्ञया मत्रिणोक्तम्-मारयत । तदा चारणेनापाठि । 'इकु जिणहा इकु जिणवरह' । ६२५४) एकदा पारणादिनोपरि श्रीयशोभद्रसूरीणां क्षमाश्रमणानि समागतानि । दाक्षिण्यात्सर्वत्र मानितम् । ततस्तद्दिने ग्रामग्रामात् श्रीसङ्घः सकलोऽपि मिलितः । यत्र न यान्ति तत्र ते श्राद्धा विषादं कुर्वते । अतस्तां 5 बहुरूपिणी विद्यां स्मृत्वा रूपान् विधाय सर्वेषां मनोरथाः पूरिताः। ६२५५) रावणविजयं विधाय समेतेन श्रीरामेणायोध्याप्रवेशे समस्तलोकपार्श्वे 'धान्यस्य कुशलं गृहे' इत्थं पृष्टम् । लोकानां चेतसीति जातम्-यद्वर्षाणि चतुर्दशयावद्वने स्थितः। अन्नप्राप्तिर्न जाता । अतः प्रथममेवेदं पृष्टम् । इङ्गित राज्ञा तदवगत्य महाजनो निमत्रितः। प्रहरद्वये आकारितः। तेषां सुवर्णस्थाले महामूल्यानि रत्नानि मुक्तानि । एकैकस्याभिमुखमालोकयति । एकेनोक्तम्-देव ! नवीना रसवतीयम् । परं रत्नानि न शक्यते भोक्तुम् । 10 यद्येवं जानीथ तदा मम पृच्छायां कथं हसिताः । शृणुत-'उत्पत्तिर्दुर्लभा यस्य । (३२९) अन्नं प्राणा बलं चान्नम् अन्नं जीवितमुच्यते । परमौषधमन्नं हि सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् ॥ ६२५६) खरतराणामाचार्याणां निशि कोऽपि रंको दुर्भिक्षे परिभ्रमन् शालाद्वारि समागतः पूत्करोति । गुरुभिः श्रुतो वारितोऽपि न याति । ततो गुरुभिर्बहिनिःसृत्य वारितः-अरे ! अन्यत्र याहि । वयं दर्शनिनः । ततो विशेषतश्चरणयोर्लगित्वा स्थितः । ततो गुरुभिस्तपोधनमुत्थाप्य श्रावकस्सैकस्याकारणं प्रहितम् । तस्य भोज-15 नायार्पितः । तेन निजगृहे नीत्वा निजबालकशीताशनं भोजितः । अत्याहारेण विसूचिकया मृतः । शुभध्यानेन व्यन्तरोऽजनि । ज्ञानेन ज्ञात्वा पुनरपि रंकवेषं विधाय तथैवागतः । गुरुभिरपि तथैवोत्थाय वारितः । स निजरूपं प्रकटीकृत्येति जगाद-भगवन् । भवतां प्रसादेन ममेदृशी संपत्तिरजनि । ततः किमपि याचध्वम् । तैरुक्तम्-वयं किं याचामहे । यैस्तवान्नं दत्तं तानेव हि व्यवहारिणो विधेहि । अपरं यो गुरून् पूजयिष्यति तस्य गृहे न दारिद्यम्-इत्युक्त्वा मम पूजां कारय सर्वत्र । 20 ६२५७) कस्यापि राज्ञो राज्ञी वदति-नृप ! मम भ्रातुर्व्यापारं देहि । विष|यम् (?) । राजाह-राज्ञि! व्यापारस्तस्य दीयते, यो व्यापारं कर्तुं जानाति । सा न तिष्ठति । ततो दत्ता हस्तिपदरक्षा । ततश्चतुष्पथे लोकैः सह कलहं कृत्वाऽऽगतः। ततो राज्ञा कस्यापि पूर्वव्यापारिणो नित्यमवलगां विदधतः पदभ्रष्टस्य हस्ति पदे रक्षाव्यापारो दत्तः। चतुष्पथे तत्र डालं दत्त्वा यो य आयाति तस्य तस्याग्रे वदति-अत्र राज्ञो गजशाला भविता; अत्र पुनः पट्टहस्तिन आलानस्तम्भो भावी । एवं भणतस्तस्य व्यवहारिभिरुक्तम्-इह मा कृथाः, अमगृहाणि 25 पातयिष्यन्ति । इति च्छद्म कृत्वा द्रव्यं गृहीतम् । प्रातर्लक्षसंख्यधनान्यादाय राज्ञोऽग्रे मुक्तानि । पृष्टं च नृपेण । भणितो यथार्थः । हर्षितेन भूपेन महान् व्यापारो दत्तः। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे परिशिष्टम्. १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः। २५८) अवन्तिदेशे प्रतिष्ठानपुरे विक्रमो राजपुत्रो भट्टमात्रयुतो रोहणे तदासन्नपुरे कुम्भकारगृहे खनित्रम् । प्रातः खनीपार्श्वे भट्टेन मातुर्मतिः। हा दैवमिति । सपादलक्षमूल्यं रत्नम् । वलन् भट्टेन कुशलम् । तत्करा5 दाच्छिद्य खनीकण्ठे(३३०) धिम् रोहणगिरि दीनदारिद्र्यव्रणरोहणम् । दत्ते हा दैवमित्युक्ते रत्नान्यर्थिजनाय यः॥ ततो अवन्तिदेशपार्श्वे पटहस्पर्शेन राजा । मुहूर्त विनापि सो दध्यौ । कोऽपि कोपी सुरः प्रतिदिनं नृपं हन्ति । निशीथे भोजनादीनि पल्यङ्के निजदुकूलाच्छादितोच्छीर्षकम् । दीपच्छायामाश्रित्य कृपाणपाणिः । तुष्टो ऽहमग्निवेतालो भक्त्या । नित्यं देयम् । प्रतिपन्नम् । आयुःप्रश्ने वस्खामिप्रश्नः । शतमेकं नोनाधिकम् । यतः10 (३३१) सा नत्थि कला तं नत्थि ओसहं तं किं पि नत्थि विन्नाणं । जेण धरिजइ काया खजंती कालसप्पेणं ॥ रणेन जितो अग्निवेतालः सिद्धः। यतः(३३२) सत्त्वैकतानवृत्तीनां प्रतिज्ञातार्थकारिणाम् । प्रभविष्णुर्न देवोऽपि किं पुनः प्राकृतो जनः॥ २५९) प्रियङ्गुमञ्जरी कन्या पं० वेदगर्भः। आम्रसंबन्धे कोपितः । पतिविलोकनाय वने, तृषा, पशुपालः, 15 करचण्डी । योग्यं ज्ञात्वा गृहे आनीतः । षण्मासीं वपुःसमारणा । स्वस्ति० । प्रधानमुहूर्ते नृपसभायाम् । क्षोभात् । उशरद् । नृपविस्मयम् । पण्डितः प्राह(३३३) उमया सहितो रुद्रः शंकरः शूलपाणियुग । रक्षतात् तव राजेन्द्र ! टणत्कारकरं यशः॥ __ततो नृपेण स्वपुत्रीं । पण्डितोक्तं मौनमेव कु० । तया परीक्षार्थ पुस्तकशोधने बिन्दुमात्रारहितान्यक्षराणि । नखच्छेदिन्या महिषीपाल एव निर्णीतः । अतःप्रभृति जामातृशुद्धिः । चित्रभित्तौ महिषीनिवहे दर्शिते तदाह्वा20 नोचितानि वचांसि । महिपीपाल एव नि० । कालीदेवीमारराध । पुत्रीवैधव्यभीतेन नृपेण दासी० । देव्येव तुष्टा । तज्ज्ञात्वा राजसुताऽऽगता तत्र । अस्ति कश्चिद् वागविशेषः । कुमारसंभवादिकाव्यत्रयम् । कालिदासप्रबन्धः। ६२६०) श्रे० दान्ताककारितावासगृहीतशयनेन पतामीत्युक्ते सुरे पत इत्युक्ते नृपे पतितं कनकपुरुषं प्राप्तवान् । [सुवर्ण] पुरुषसिद्धिः। २६१) अन्यदा कोऽपि विदेशी सामुद्रिकज्ञः । अपलक्षणराजा षण्णवतिदेशस्वामी । कर्बुरात्रम् । कृपाणि25 कामाकृ० । अं० दर्शयामि तव । ३२ लक्षणाधिकं नावगतम् । पारितोषिकम् । सत्त्वपरीक्षाप्रबन्धः । ६ २६२) अथ परकायप्रवेशं विना सर्वमफलम् । श्रीपर्वते भैरवानन्दयोगिपार्श्वे पूर्व तत्रागतविप्रेण सह प्राप्य वलन्तौ स्वदेशे मृतपट्टहस्तिनमालोक्य" (३३४) वर्मप्राहरिके द्विजे निजगजस्याङ्गेऽविशद्विद्यया, विप्रो भूपवपुर्विवेश नृपतिः क्रीडाशुकोऽभूत्ततः। पल्लीगावनिवेशनात्मनि नृपे व्यामृश्य देव्या मृतिम् , विप्रः कीरमजीवयन्निजतनुं श्रीविक्रमो लब्धवान् ॥ __ -परवपुःप्रवेशविद्यासिद्धिः। १ नृपाभावे च देशं विनाशयति । (टिप्पनी)। २ प्रथमं धूमं ततो ज्वाला ततः साक्षात् सः। (टिप्पनी)। मेघदूत, रघुवंश। (टिप्पनी)। 30. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः । ११७ ६२६३) श्रीविक्रमनृपो राजपाटिकायां श्रीसङ्घसहितं श्रीसिद्धसेनाचार्य सर्वज्ञपुत्र इति । परीक्षार्थ मानसं नमस्कारम् । आचार्येण(३३५) धर्मलाभ इति प्रोक्ते दूरादुच्छ्रितपाणये । सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटिं नराधिपः॥ सज्ञा दीयमाने निरीहतया नादृतैराचार्यैर्भूरनृणी विधीयतामनेन कनकेन ततस्तथैव कृतम्'। ६२६४) अन्यदा कोऽपि निःस्वः करात्तायसकृशदरिद्रपुत्रकः । उपालब्धेन भूपेन दत्तदीनारलक्षमादाय गतः। 5 राजा तं पुत्रकं कोशे नि० । यामत्रयेणागतगजाश्वलक्ष्म्यो निशि० सत्त्वादनुमता जग्मुः । चतुर्थयामे सत्त्वनामा पुरुषः । छुर्यात्मघातं यावत् । तावत् तस्मिन् तुष्टे स्खलिते च पूर्वगता अप्याजग्मुः। गमनसङ्केतव्याघातिना सत्त्वेन विप्रलुब्धानां न गतिर्योग्या वः । विक्रमादित्यसत्त्वप्रबन्धः । २६५) अथ श्रीभोजो नित्यं भावनाभावितः प्रातः रैटङ्ककान् ददौ । (३३६) रोदिको मन्त्री-आपदर्थं धनं रक्षेत्। राजा-भाग्यभाजः क चापदः। मत्री-दैवं हि कुप्यते कापि। राजा-सञ्चितोऽपि विनश्यति । सभाभारपट्टे । पञ्चशतीपण्डिताग्रे राजा(३३७) इदमन्तरमुपकृतये प्रकृतिचला यावदस्ति सम्पदियम् । विपदि नियतोदयायां पुनरुपकर्तुं कुतोऽवसरः॥ (३३८) निजकरनिकरसमृद्ध्या धवलय भुवनानि पार्वणशशाङ्क!। सुचिरं हन्त न सहते हतविधिरिह सुस्थितं कमपि ॥ (३३९) अयमवसरः [ सरस्ते सलिलैरुपकर्तुमर्थिनामनिशम् । इदमपि सुलभमम्भो भवति पुरा जलाभ्युदये ॥] (३४०) कतिपयदिवसस्थायी पूरो दूरोन्नतश्च भविता ते । ___ तटिनितटद्रुमपातनपातकमेकं चिरस्थायि ॥ 20 (३४१) यदनस्तमिते सूर्ये न दत्तं धनमर्थिनाम् । तद्धनं नैव पश्यामि प्रातः कस्य भविष्यति ॥ -इति वकृतं श्लोकम् । ६२६६) अन्यदा राजा राजपा० ।[काष्ठवाहं प्रति-] (३४२) कियन्मानं [जलं विप्र ! जानुदप्नं नराधिप!। कथमीहगवस्था ते न सर्वत्र भवादृशाः॥] (३४३) लक्षं लक्षं पुनः [ लक्षं मत्ताश्च दश दन्तिनः। दत्तं भोजेन तुष्टेन जानुदनप्रभाषिणे ॥]25 ६२६७) अन्यदा निशीथे राजा(३४४) यदेतचन्द्रान्तर्जलदलवलीलां प्रकुरुते तदाचष्टे लोकः शशक इति नो मां प्रति तथा । चौरः- अहं विन्दं मन्ये त्वदरिविरहाक्रान्ततरुणीकटाक्षोल्कापातव्रणशतकलङ्काङ्किततनुम् ॥ 30 १. एकदा रात्रौ नष्टचर्यायां तैलिकेन द्वीपदी पुनः २ प्रातः पृष्टः क.____ अम्मीणउ संदेसडउ नारय कन्ह कहिज्ज । जग दालिद्दिहि दुत्थिउ बलिबंधणह मुइज ॥ २. जाउ लच्छि धणकणकलिय अन मयगल मयमत्त । तरल तुरंगम जाउ सवि तउ म न जायसि सत्त ॥ .......... ३. हिमसमयो वनवहिर्जवपवनस्तडिच्च ते विभवम् । हन्त सहन्ते यावत् तावद् दुम ! कुरु परोपकृतिम् ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 5 (२६८) स्वधर्मवहिां प्रेक्ष्य (३४६) 15 20 ११८ 25 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे (३४५) अमुष्मै चौराय प्रतिनिहितमृत्युप्रतिभिये प्रभुः प्रीतः प्रादादुपरितनपादद्वयकृते । सुवर्णानां कोटीर्दश दशनकोटिक्षत गिरीन् करीन्द्रानप्यष्टौ मदमुदितगुञ्जन्मधुलिहः ॥ तत्कृतं यन्न केनापि तद्दत्तं यन्न केन चित् । तत्साधितमसाध्यं यत् तेन चेतो न दूयते ॥ इति दर्पान्धे पुरातनो मत्री कोऽपि श्रीविक्रमादित्यधर्मवहिकायां प्रथमं काव्यम् - (३४७) अष्टौ हाटककोटयस्त्रिनवतिर्मुक्ताफलानां तुली पञ्चाशन्मदमत्तगन्धमधुपक्रोधोद्धुराः सिन्धुराः ॥ तारुण्योपचयप्रपञ्चितदृशां वाराङ्गनानां शतं दण्डे पाण्ड्यनृपेण ढौकितमिदं वैतालिकस्यार्पितम् ॥ इत्याकर्ण्य निर्गर्वनृपः । ६२६९) आगतसरस्वतीकुटुम्बम् । दासी (३४८) बापो विद्वान् [ बापपुत्रोऽपि विद्वान् आई विदुषी आई धूयापि विदुषी । काणी चेटी सापि विदुषी वराकी राजन् मन्ये विद्यपुत्रं कुटुम्बम् ॥ ] ज्येष्ठं प्रति समस्यापदम् -'असारात्सारमुद्धरेत्' । दानं वित्ता० । तत्पुत्राय - हिमालयो नाम नगाधिराजः, प्रवालशय्या शरणं शरीरम् - इति भूपवाक्यम् । (३४९) तव प्रतापज्वलनाज्जगाल, हिमा० । चकार मेना विरहातुराङ्गी, प्रवाल० ॥ ज्येष्ठभार्यां प्रति - 'कवणु पियावउं खीरु' । (३५०) जईय रावणु जाइयउ दहमुह इक्कु सरीरु । जणणि वियं भी चिंतवइ कवणु पियावउ खीरु ॥ § २७०) अन्यदा गूर्जरदेशविद्वत्ताज्ञानाय श्रीभीमं प्रति गाथा - (३५१) हेलानिद्दलियम हे भकुंभपयडियपयावपसरस्स । सीहस्स मण समं न विग्गहो नेय संघाणं ॥ (३५२) अंधयमुआण कालो भीमो पुहवीइ निम्मिओ विहिणा । जेण सयं पि न गणियं का गणणा तुज्झ इक्कस्स ॥ श्रीगोविंदाचार्यकृता गाथेयम् । अन्धधृतराष्ट्र १०० सुता हता भीमेनेति । I ४० वाल १ सुवर्ण । एवंविधा अष्टौ । 2 पलशतैरेका तुला (टिप्पनी) । For Private Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 परिशिष्ट. १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः । ११९ ६२७१) दामरसन्धिविग्रही । अत्यन्तकुरूपः। (३५३) यौष्माकाधिपसन्धिविग्रहपदे दूताः कियन्तो द्विज !, ___ मादृक्षा बहवोऽपि मालवपते! ते सन्ति तत्र विधा। . प्रेष्यन्तेऽधममध्यमोत्तमगुणप्रेक्ष्यानुरूपक्रम तेनान्तर्गतमुत्तरं प्रददता धाराधिपो रञ्जितः ॥ ६२७२) अन्यदा शीततौं निशि कंचिन्नरं प्रेक्ष्य प्रातः-कथं शीतं सोढम् ?-त्रिचेल्या। राजा-का सा? . (३५४) रात्रौ जानु[र्दिवा भानुः कृशानुः सन्ध्ययोद्धयोः। राजन् ! शीतं मया नीतं जानु-भानु-कृशानुभिः॥] ६२७३) भूपतितकणाशं रोरं प्रति(३३६) नियउयरपूरणट्ठा असमत्था तेहिं किं पि [जाएहिं । सुसमत्था वि हु जे न परोवयारिणो तेहि वि न किं पि॥ (३५६) परपत्थणापवन्नं मा जणणि ! जणेसु एरिसं पुत्तं । मा उयरे वि धरिजसु पत्थियभंगो कओ जेण ॥ राज्ञोचे-कस्त्वम् ? तेनोचे-] राजशेखरनामाहम् । तस्य हस्तिनीदानं कृतम् । पुनस्तेनोक्तम्(३५७) शीतत्रा न पटी०, निर्वाता न कुटी०, वृत्तिारभटी०, श्रीमदुःभोज तव प्रसादकरटी भक्तां ममापत्तटी॥ ६२७४) अर्जुनसाध्यो दुःसाधो राधावेधो भोजेन साधितः । हट्टशोभायां तैलिकेन सूचिकेन खविज्ञानेन निर्गः कृतः। (३५८) भोजराज! मया ज्ञातं राधावेधस्य कारणम् । धाराया विपरीतं हि सहते न भवानपि ॥ ६२७५) सर्वदेवांगजौ शोभन-धनपालौ । तदुपाश्रये श्रीवर्द्धमानसूरिस्तन्निमत्रितः प्राह 20 (३५९) भजेन्माधुकरी [वृत्तिं मुनिम्लेंच्छकुलादपि । एकान्नं नैव भुञ्जीत बृहस्पतिसमादपि ॥] (३६०) अपमानात्तपोवृद्धिःसन्मानाच तपाक्षयः। अर्चितः पूजितो विप्रो दुग्धा गोरिवगच्छति ॥ (३६१) पुनराप्याय्यते धेनुस्तृणैरमृतसंभवैः। एवं जापतपोभिश्च पुनराप्याय्यते द्विजः॥ -याज्ञवल्क्यः । संतोषतुष्ट आरब्धस्नाने धनपाले विहर्तुमागतसाधुभ्यां दधिसंबन्धेन बुद्धे-'कतिपयपुरखामी'। बोधात्पूर्व शोभनमुनिम्-गर्दभदन्त भदन्त ! नमस्ते । मर्कटकास्य वयस्य ! सुखं ते । ६२७६) अन्यदा नृपो मृगया० । एण वेधे । धनपाल:(३६२) रसातलं यातु तवात्र पौरुषं कुनीतिरेषा शरणो ह्यदोषवान् । निहन्यते यद् बलिनापि दुर्बलो हहा महाकष्टमराजकं जगत् ॥ (३६३) किं कारणं तु धनपाल ! मृगा यदेते व्योमोत्पतन्ति विलिखन्ति भुवं वराहाः। 30 देव ! त्वदनचकिताः श्रयितुं स्वजातिमेके मृगाङ्कमृगमादिवराहमन्ये ॥ (३६४) वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते [प्राणान्ते तृणभक्षणात् । सदैवैते तृणाहारा हन्यते पशवः कथम् ॥] संन्यस्तमृगयो नृपो नगरं प्रतिः । १. निधानसंबन्धे प्रतिबोधः सर्वदेवस्य । शोभनस्य दीक्षा (टिप्पनी) । 25 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 15 .१२० पुना राजप्रश्नः - यूपं कृत्वा० । (३६६) सत्यं यूपं तपो ह्यग्निः कर्माणि समिधो मम । अहिंसामाहुतिं दद्यादेष यज्ञः सनातनः ॥ - इति शुकसंवादादर्हद्धर्माभिमुखो राजा । ९२७७) अन्यदा सरस्वतीकण्ठाभरणप्रासादे खत्तके रत्या सह हस्ततालदानपूर्व स्मरं मूर्तिमन्तमालोक्य हासायोक्तः पण्डितः प्राह 10 (३६७) स एष भुवनत्रयप्रथितसंयमः शंकरो, बिभर्ति वपुषाऽधुना विरहकातरः कामिनीम् । ade the निर्जिता वयमिति प्रियायाः करं करेण परिताडयन् जयति जातहासः स्मरः ॥ (३६८) पाणिग्रहे पुलकितं वपुरैशं भूतिभूषितं जयति । अङ्कुरित इव मनोभूर्यस्मिन् भस्मावशेषोऽपि ॥ 25 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे. (३६५) नाहं स्वर्गफलोपभोग [तृषितो नाभ्यर्थितस्त्वं मया, सन्तुष्टस्तृणभक्षणेन सततं साधो न युक्तं तव । स्वर्गं यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो, यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवैः ॥] 30 इत्यादिना प्रीतो नृपः । ९२७८) यानवणिग्मदनमयपट्टिकायां प्रशस्तिकाव्यानि । नृपोक्तः स आह । नीरधौ शिवायतने, मदनपट्टिकां नियोज्येयं प्रशस्तिः । 1 हरशिरसि शिरांसि यानि रेजुर्हरिहरितानि लुठन्ति गृध्रपादैः ॥ 20. चेद्विसंवादस्ततः कवित्वनियमः । राजा तदैव यानानि नीरधौ । तथैव कृते षण्मासैः काव्यार्द्धम् । (६२७९) तिलकमञ्जरीग्रन्थे वाच्यमानेऽधः कच्चोलम् | [ मामत्र कथानायकं, विनीता स्थाने अवन्ती, शकावतारपदे महाकालं कुर्वन् यद्याचसे तत्तुभ्यं ददामीति । ] (३७०) दोमुहय निरक्खर लोहमइय नाराय तुज्झ किं भणिमो । जाहिं समं कणयं तुलंतु न गओसि पायालं ॥ (३६९) अयि खलु विषमः पुराकृतानां भवति हि जन्तुषु कर्मणां विपाकः । सर्वैरपि पण्डितैरस्योत्तरार्द्धे पूर्यमाणे विसंवदति नृपोक्तो धनपाल : राज्ञा दग्धा कोपात् सा प्रतिः । सुतासान्निध्यात् पुनरुद्धरिता । ६२८०) क्वापि पर्वणि स्नानव्यग्रे लोके अलब्धभिक्षो भार्याताडितो विप्रो राजनरैः सभानीतः । राजोक्तः(३७१) अंबा तुष्यति न मया न [ लुषया सापि नाम्वया न मया । अहमपि न तया न तथा वद राजन् ! कस्य दोषोऽयम् ॥ ] सर्वपण्डितानवबोधे खबुद्ध्या राजा ज्ञात्वा लक्षत्रयी प्रसादीकृता । कलहमूलं दारिद्र्यमेव । ९२८१) अन्यदा सर्वदर्शनमुक्तिमार्गे पृष्टे षण्मासावधौ निशि श्रीशारदा नृपं प्रति- 'श्रोतव्यः सौगतो ० ।' लोकमिमं राज्ञे दर्शनिभ्यश्च समादिश्य तिरोहिता । (३७२) अहिंसालक्षणो धर्मो मान्या देवी सरखती । ध्यानेन मुक्तिमाप्नोति सर्वदर्शनिनां मतम् ॥ For Private Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्. १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः । १२१ ६२८२) परोन्नत्या राज्ञोक्तः श्रीमानतुङ्गसूरिरात्मानमापाद [ ४४] शृङ्खलाबद्धं कारयित्वा प्रति काव्यं शृङ्खलाभङ्गः । इत्थं प्रभावना । श्रीमानतुङ्गाचार्यप्रबन्धः । (३७३) उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृतम् । आयुषः खण्डमादाय रविरस्तमयं गतः ॥ (३७४) लोकः पृच्छति मे वार्ता शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्माकं आयुर्याति दिने दिने ॥ (३७५) श्वः कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्निकम् । मृत्युर्न हि प्रतीक्षेत कृतं चास्य न वा कृतम् ॥ 5 (३७६) मृतो मृत्युर्जरा जीर्णा विपन्ना किं विपत्तयः । व्याधयो व्याधिताः किन्नु हृप्यन्ति यदमी जनाः ॥ ॥ श्रीहर्षस्यानित्यता श्लोक ४ प्रबन्धः ॥ ६२८४) अन्यदा निशि वीर० 10000 ९२८३) श्रीभोजो भीमं प्रति वस्तु ४ । वेश्यया स्पृष्टः पटहः । गणिका १, तपस्वी २, दानेश्वर ३, धूतकार ४ - इति वेश्योक्तम् । श्रीभीमो भोजं प्रति प्रा० । वस्तुचतुष्टयप्रबन्धः । -- (३७७) माणसणा (डा) दस दस दसा सुणीइ लोअपसिद्ध । मह कंतह इक्क ज दसा अवर ति चोरिहिं लिद्ध ॥ प्रातः कृपयानीय प्रत्येकं लक्षमूल्यं बीजपूरद्वयं प्रच्छन्नं दत्तम् । तेन तत् स्वरूपमज्ञात्वा पत्रशाकाट्टे । तेनायज्ञाते कस्यापि भेटार्थम् । तेन श्रीभोजाय । (३७८) वेलामहल्लकल्लोलपिल्लियं जइ वि गिरिन ईपत्तं । अणुसरह मग्गलग्गं पुणोवि रयणायरे रयणं ॥ परेषामदशाः । यतः (३७९) प्रीणिताशेषविश्वासु वर्षाखपि पयोलवम् । नाप्नुयाच्चातको नूनं नालभ्यं लभ्यते क्वचित् ॥ (३८०) सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा । पुराकृतं कर्म तदेव भुज्यते शरीर हे निस्तर यत्त्वया कृतम् ॥ + टिप्पन्याम् - पुरा मयूर - बाणाख्यौ भावुकशालकौ राजमान्यौ । बाणः स्वभगिनीमिलनाय ययौ । मयूरेण निशि तामनुनीयमानामशृणोत् । 'गतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी शीर्यत इव प्रदीपोऽयं निद्वावशमुपगतो घूर्णित इव । प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो.... भूयो भूयः पठन् बाणः कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चंडि ! कठिनम् ॥' सा लज्जिता, कुष्ठी भवेति शशाप बन्धुम् । शीतत नृप। ये मयूरेण बरकोढीति सोपहासमूचे । तेन खादिराङ्गारकुण्डोपरि सिक्ककं विधाय प्रतिकाव्यं सिक्ककपदं क्षुरिकया छिन्दन् पंचभिः काव्यैर्निरालम्बः, सूर्यप्रसादात् पुनर्नवो देहः । राज्ञो विस्मयः । मयूरस्तदीया पादौ पाणीच छित्वा षष्ठेऽक्षरे भवानीप्रसादेन नवौ पाणी पादौ च जातौ । तयोर्महिमा वादश्च । राजादेशात् काश्मीरं प्रति चेलतुः । सरस्वत्यादेशेन जिताजितनिर्णये जितस्य पुस्तकानि अग्नौ ज्वाल्यानि इति प्रतिज्ञा । धारासमीपे - रे रे शाटकमलनिर्धाटक ! नगरे का वार्ता ? । अश्वावहं० ॥ लोहकार० - मृतका यत्र० ॥ कुलाललिकया- पर्वताग्रे० ॥ नापितस्य - जलनाडी पत्थरि० ॥ चित्रकरस्य विहितानिर्विषा० ॥ सरस्वती पुरे देव्या समस्यार्पिता - 'शतचन्द्रं नभस्तलं ।' 'दृष्टं चाणूरमल्लेन' । बाणेन शीघ्रं - दामोदरकराघात विह्वली कृतचेतसा दृष्टं० ॥ मयूरस्य सूर्यसान्निध्यात् पुस्तकेष्वदग्धेषु द्वयोर्मानम् । शिवशासनं विनाऽन्यत्र कास्तीशी शक्तिस्ततो...... चाहूताः श्रीमानतुङ्गाचार्याः । पु० प्र० स० 16 10 15 20 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १२२. 15 ॥ बीजपूरप्रबन्धः ॥ ९२८५) एको न भव्य इति [ रात्रौ ] पाठितेन शुकेन सभायां [ प्रातः ] केनाप्युत्तरमददता षण्मासावधिं 5 याचित्वा वररुचिर्देशान्तरं भ्रमन् श्वमोचादानासमर्थपशुपालं लात्वा वस्त्रान्तरितस्कन्धारोपितश्वः । नृपसभां नृपप्रश्नः । स प्राह-देव ! लोभ एको न भव्यः । यतः पुरातनप्रबन्धसङ्घ (३८१) लोकं विलोक्य धनधान्यवरेण्यपुण्यं प्राप्य प्रधानवनिताजनिताभिरामम् । किं मूढ ! कांक्षसि मुधा वसुधातलेऽस्मिन् रे जीव पीवरतरं सुकृतं कृतं न ॥ (३८२) अहो लोभस्य [साम्राज्यमेकच्छत्रं महीतले । तरवोऽपि निधिं प्राप्य पादैः प्रच्छादयन्ति यत् ॥ ] (३८३) तावन्नीतिर्विनीतत्वं मतिः शीलं कुलीनता । यावन्नहि जयी लोभः क्षोभं नाभ्येति जन्तुषु ॥ ॥ एको न भव्य - प्रबन्धः ॥ (३८४) कविषु कामिषु भोगिषु योगिषु द्रविणदेषु जितारिषु साधुषु । धनिषु धन्विषु धर्मधनेषु च क्षितितले नहि भोजसमो नृपः ॥ (३८५) किं नन्दी किं मुरारिः किमु रतिरमणः किं विधुः किं विधाता, किं वा विद्याधरोऽयं किमथ सुरपतिः किं नलः किं कुबेरः । नायं नायं न चायं न खलु नहि न वा नापि नासौ न चैष, क्रीडां कर्तुं प्रवृत्तः स्वयमपि च हले भूपतिर्भोजदेवः ॥ (३८६) क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः, स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः । + एतदग्रे टिप्पन्यां इमे श्लोका लिखिता लभ्यन्ते देव त्वं जय ! कासि ? लुब्धकवधूः पाणौ किमेतत्पलं, क्षामं किं सहजं ब्रवीमि नृपते यद्यस्ति ते कौतुकम् । गायन्ति त्वदरिप्रियाश्रुतटिनीतीरेषु सिद्धाङ्गनाः, गीतान्धा न चरन्ति देव ! हरिणास्तेनामिषं दुर्बलम् ॥ सीतेति नाम । वादी नष्टः । चेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूलः सद्बान्धवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः । गर्जन्ति दन्ति निवहास्तरलास्तुरङ्गा राजन् ! न किंचिदिह नेत्रनिमीलनेऽस्ति ॥ १ ॥ शीतना न पटी न चानिशकटी नास्ति द्वितीया पटी, निर्वाता न कुटी प्रिया न गुमटी भूमौ च घृष्टा कटी । वृत्तिर्नारभटी न तुन्दलपुटी नाथास्ति मे सङ्कटी, श्रीमद्भोज ! तव प्रसादकरटी भंक्तां ममापत्तटी ॥ २ ॥ वक्त्रांभोजं सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते, बाहुः काकुत्स्थवीर्य स्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते समुद्रः । वाहिन्यः पार्श्वमेताः कथमपि भवतो नैव मुञ्चन्त्यभीक्ष्णं, स्वच्छेऽत्र मानसेऽस्मिन् कथमवनिपते तेऽम्बुपानाभिलाषः ॥ ३ ॥ आबाल्याधिगमान्मयैव गमितः कोटिं परामुन्नतेरस्म त्संकथयैव पार्थिवसुतः संप्रत्यसौ लज्जते । इत्थं खिन्न इवात्मजेन यशसा दत्तावलम्भोऽम्बुधेर्यातस्तीरतपोवनानि तपसे वृद्धो गणानां गणः ॥ ४ ॥ शौर्य शत्रुकुलक्षयावधि यशो ब्रह्माण्डभाण्डावधिस्त्यागस्तर्कुकवाञ्छितावधिरियं क्षोणी समुद्रावधिः । श्रद्धा पर्वतपुत्रिकापतिपदद्वन्द्वप्रणामावधिः श्रीमद्भोजमहीपतेर्निरवधिः शेषो गुणानां गणः ॥ ५ ॥ सुरताय नमस्तुभ्यं जगदानन्ददायिने । अत्र विजया - आनुषङ्गि फलं यस्य भोजदेव भवादृशाः ॥ ६ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्. १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः । १२३ दुःपूरोदरपूरणाय पिबति स्रोतःपति वाडवो, जीमूतस्तु निदाघसम्भृतजगत् सन्तापविच्छित्तये ॥ ॥ श्रीभोजप्रबन्धः॥ ६२८६) सपादलक्षप्रहितारिकातः पालिताब्दयुगशीला वकुलादेवी वेश्या श्रीभीमेनोढा । तस्याः पुत्रः हरपालदेवस्तदङ्गजस्त्रिभुवनपालदेवस्तस्य श्रीकुमारपालः । श्रीसिद्धभीतः कियन्त्यब्दानि देशान्तरे व्यतिक्रम्यागतः 5 पत्तने श्रीकर्णश्राद्धे । आलिगकुम्भकारगोपितः। ततः क्षेत्रे सूडमध्ये अन्वागतनरैः कुन्ताग्रेण । ततः प्रान्तरं व्रजन उंदरटंका २०० ततो दिनत्रयक्षधार्तः । कयापि करम्भकेन प्रीणितः । एवं परिभ्रमन उदयनपार्श्वे शम्बला) स्तम्भतीर्थे पौषधागारं गतः । उदयनपृष्टाः श्रीहेमसूरयः-राजायं भावी । द्वयोः प्रत्येकं राज्यप्राप्तिपत्रमर्पितम्' । कुमारः-यद्यदस्तथ्यम्, ततस्त्वमेव राजाऽहं सेवकः । प्रभुभिर्जिनशासनप्रभावकेन भाव्यमिति हृष्टो मत्रिणा शम्बलादिना प्रीणितो मालवे । कुण्डिगेश्वरप्रासादे । 10 (३८७) पुन्ने वाससहस्से सयंमि वरिसाण नवनवइ अहिए । होही कुमरनरिंदो तुह विक्कमराय सारिच्छो॥ गाथामालोक्य जातप्रत्ययः। श्रीसिद्धस्तं श्रुत्वा तमाचोरितरब्बाकबाहडेन नामा(?) पत्तने मुहडासाप्रतापमल्लपत्नी बा० ऊमादे बंधुर्वणिगट्टे ।। (३८८) पुत्रादपि प्रियतमैकवराटिकाणां मित्रादपि प्रथमयाचितभाटकानाम् । 15 - आजानुलम्बितमलीमसशाटकानां वज्रं दिवः पततु मूर्ध्नि किराटकानाम् ॥ प्रातर्भावुकेन राजसभां नीतः। संवृतांचल एकः । योजितकरोऽन्यः । कुमारपालः पञ्चाशद्वर्षदेश्यो राज्यम् । हता राजवृद्धा विश्वासघातकत्वात् । नादिपरभावुकाङ्गभङ्गो नेत्रकर्षणम् । यतः(३८९) आदौ मयैवायमदीपि नूनं तन् नो दहन्मामवहेलितोऽपि । इति भ्रमादङ्गुलिपर्वणाभिस्पृशेत नो दीपमिवावनीपम् ॥ (३९०) प्रभासमृद्धिरेवैषा जीवितं राज्यसंपदः । यथाम्भः कमलशोभायै तैलं वा दीपदीधितेः॥ शास्त्रम् । ततः प्रोढिमा । आलिगकुम्भकारस्य सप्तशतग्राममितचित्रकूटीयपट्टी। श्रीउदयनाङ्गजो महामात्यो बाहडदेवः । कर्षका अङ्गरक्षपदे ।। ६२८७) श्रीपत्तने लातानशनाम्बाविमानभङ्गे विप्रेरित्यसूयया श्रीहेमसरिर्मालवे । 'आपण पई प्रभु०' इति चिंतापराः। श्रीउदयनोक्तागमाः कृतज्ञमौलिना श्रीकुमारेणोक्तम्-नित्यं आगन्तव्यम् । श्रीहेम०-भुंजीम० ॥ 25 राजा एको वासः । इति प्रेत्य शुभायेति । ततः सदा गमनागमने । कोऽपि मत्सरी । विश्वा० ॥ सिंहो० ॥ रात्रौ भोजने । अधामधा० ॥ मृते खज० ॥ (३९१) पयोदपटलच्छने नाश्नन्ति रविमण्डले। अस्तं गते तु भुञ्जाना अहो भानोः सुसेवकाः॥ यशश्चन्द्रगणिनासने प्र०। राजा-जीवं विना कथं प्र० १ । गुरवः-भवतां गजाद्या रिपौ सजी०, उत नित्येवायं राजव्यव० । तद्गुणरञ्जितेन पूर्वप्रतिपन्नराज्ये दीयमाने प्रभुः । राजप्रति० ॥ संनिहीगि० ।। इति प्रीणितो 30 राजा । श्रीहेमसू रिचरित्रं पृष्टः श्रीउदयनः प्राह६२८८) धन्धुके [ मोढकुले ] चाचिग-चाहिणिपुत्रश्चाङ्गदेवोऽष्टाब्दः श्रीदेवचन्द्रसूरिभिस्तत्रागते रममाणो दृष्टः। , संवत् ११९९ वर्षे कार्तिक शुदि २ रवौ हस्ते पट्टाभिषेकः । 20 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पुरातनप्रबन्धसङ्घ लक्षणानि वीक्ष्य-यद्ययं क्षत्रियकुले तदा सार्वभौमः, यदि वणिग-विप्रकुले तदा महामात्यः, चेद्दर्शनं प्रतिपद्यते तदा युगप्रधान इवेति विचार्य तत्पुरसङ्घ मेलयित्वा गृहं गताः । चाचिगे ग्रामान्तरे मात्रा स्वागतादिना श्रीसङ्घस्तोषितः । श्रीसङ्घो मत्पुत्रार्थमागत इति हर्षाश्रूणि मुञ्चन्ती खं रत्नगर्भ मन्या विषण्णा । यतस्तत्पिता मिथ्यात्वी । ग्रामेऽपि नास्ति । स्वजनानुमता माता गुरुभ्यो निजं पुत्रं ददौ । आचार्यैः प्रश्ने ओमित्युच्चरन् गृहीतः । 5 तत् ज्ञानान्मुक्ताहारः पुत्रदर्शनावधिं चाचिगः । उदयनः स्वावासे बांधवभक्त्या प्री० । तदनु चाङ्गदेवं तदुत्सङ्गे निवेश्य पञ्चाङ्गप्रणामपूर्वं दुकूलत्रयं लक्षत्रयं च ढौकितवान् । चाचिगः प्राह - क्षत्रियमूल्ये १०८०, अश्वमूल्ये १७५०, सामान्यस्यापि वणिजो मूल्ये नवनवति कलभां इति । त्वं लक्षत्रयं ददत् स्थूललक्षायसे । मत्सुतोऽनस्तव भक्तिरनर्घ्यतमा तर्हि अस्य मूल्ये भक्तिरस्तु । द्रव्यं न लामि । मन्त्री - साधु साधु; युक्तं ब्रूहि । चाचिगःयूयमेव प्रमाणम् । ततो गुरुभ्यो द० । 10 (३९२) धनधान्यादिदातारः सन्ति वचन केचन । पुत्रभिक्षाप्रदः कोऽपि पुनरत्र न दृश्यते ॥ दीक्षया कुलयुगोज्ज्वलनम् । यतो महाभारते - (३९३) तावद् भ्रमन्ति संसारे पितरः पिण्डकांक्षिणः । यावत् कुले विशुद्धात्मा यती पुत्रो न जायते ॥ श्री हेमसूरिपादाः । ९ २८९) श्री सोमेश ० राजादेशात् । यत्र तत्र समये ० ॥ १ ॥ भववी० || २ || राज्ञाऽऽरात्रिकाद्यनु तमेकान्ते 15 देवगर्भागारे - मत्समस्त्वत्समः शंसमो नहि । भाग्यवशादेतत्रयसंपत्तिः । शिवदं देवं ब्रूहि । आचार्या :ईशमेव प्रादुः कुर्वे । यथा तन्मुखेन शिवमार्ग वेत्सि । नृपाश्चर्यम् । आवयोरेकाग्रयोः सर्व सुकरम् । मया ध्यानं त्वया धूपोत्क्षेपः । जलाधारोपरिहेमाभः । दुरालोकश्चक्षुषातिरूपः । असंभाव्यस्वरूपः । तपस्वी प्रादु० । राज्ञः स्तुतिः । नृपेणादेशं देहीत्युक्ते, मोहनिशादिनमुखात्तन्मुखादिति तद्वाणी । राजन्नयं महर्षिः सर्वदैवतावतारः । ज्ञानमयः । एतद्दिष्ट एवासन्दिग्धो मोक्षः । तिरोदधे । श्रीहेमाचार्यो राजन्निति यावद् ब्रूते, राजा तावन्ननाम 20 पादांभोजम् । तदादेशाच्यक्तं मांसमद्यम् । ततः पत्तने बोधः । आज्ञावर्तिषु ० ' । तृतीयव्रताधिकारे मृतकद्रव्यद्वासप्ततिलक्षमितं पठ्ठे पाटितवान् । १२९०) सुराष्ट्रासुंसुमाररणे आखुनानीतदशायां काष्ठप्रासादोऽपनीय नव्यपाषाणरचनायां कृताभिग्रहो रणभग्न उदयनो देवद्रव्यं २ याचन् खजनैरुक्तं बाहडामडसुतौ करिष्यथः । पात्राभावे तद्वेषधारिणं वण्ठं ननाम | आराधना । 25 (३९४) जिने वसति चेतसि त्रिभुवनैकचूडामणौ कृतेऽनशनसद्विधौ सकललोकबद्धाञ्जलिः । समस्तभवभावनाप्रतिकृतिं समभ्यस्यतः स चान्त्यसमयक्षणः कचिदुपैति पुण्येऽहनि ॥ स्वर्गः । वण्ठोऽपि तद्भावनादैवतेऽनशनः । ततः खजनैः पत्तने उक्तौ बाहड - आम्बडौ कृताभिग्रहौ । वर्षत्रयेण संपूर्णः प्रासादः । मम्माणिविम्बम् । १ ९९ लक्षाः स्युः- टिप्पनी । २ देशेषु अष्टादशसु १४४४ प्रासादाः का० । मारिं निवारयामास । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्. १. प्रवन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः । (३९५) त एव जाता जगतीह जन्तवः स्वकीयवंशस्य त एव भूषणम् । य एव देवे च गुरौ च बान्धवे यथाखमौचित्यविधानतत्पराः॥ 000 मोक्षार्थ स्वधनेन शुद्धमनसा पुंसा सदाचारिणा। बद्धं तेन नरामरेन्द्रमहितं तीर्थेश्वराणां पदम् , प्राप्त जन्मफलं कृतं जिनमतं गोत्रं समुद्योतितम् ॥ ॥श्रीशत्रुञ्जयोद्धारः॥ ६२९१) कपर्दिनानुमतेन केनापि सभायां कामन्दकीनीतौ(३९६) पर्जन्य इव भूतानामाधारः पृथिवीपतिः। विकलेऽपि हि पर्जन्ये जीव्यते न तु भूपतौ ॥ राज्ञोक्त 'मेघस्य राज्ञ उपम्या।' इति संसद्धर्षे । श्रीकपर्दिनोक्तम्-उपमा १, औपम्यं २, उपमेयं ३ । ततो 10 नृपेण वर्षेण व्याकरणं काव्यम् । विचारचतुर्मुखप्रबन्धः । ६२९२) 'रोम्णां ग्रहणमाकरे' मूलपाठे पं० उदयचन्द्रः प्राह-'प्राणितूर्याङ्गाणा'मित्येकत्वम् । ततो रोम्णो ग्र०॥ ६२९३) घृतपूरयोग्यायोग्ये । एकभिडबन्धप्रासादाः ३२ कारिताः । प्रायश्चित्तपः। ६२९४) उन्दरद्रव्येणोन्दरवसही कारिता । करम्भसम्बन्धे करम्बकविहारः । सपादलक्षीयमारितयूकव्यवहारिसारेण यूकावसही। 15 ६२९५) नृपेणोक्त आलिगनामा प्रधानपुरुषः प्राह-श्रीसिद्धेऽष्टनवतिगुणाः, द्वौ दोषौ । त्वयि द्वौ गुणौ, दोषा अष्टनवतिरित्युक्ते, असमाधौ छुरिकां चक्षुः। श्रीसिद्धस्य गुणाः ९८ रणासुभटता-स्त्रीलम्पटताभ्यां तिरोहिताः । तव कार्पण्यादयो दोषा रणशूरता-परनारीसहोदरताभ्यां तिरोहिताः । आलिगप्र० । (३९७) यूकालिक्षशतावलीवलवलल्लोलोल्ललत्कम्बलो दन्तानां मलमण्डलीपरिचयाहुर्गन्धरुद्धाननः। नासावंशनिरोधनागिणिगिणत्पाठप्रतिष्ठास्थितिः । ___ सोऽयं हेमडसेवडः पिलपिलत्खल्लिः समागच्छति ॥ अशस्त्रो वधः । पौषधागारपाचँ । श्रीयोगशास्त्रं श्रुत्वा(३९८) आतङ्ककारणमकारणदारुणानां वक्त्रेषु गालिगरलं निरगालि येषाम् । तेषां जटाधरफटाधरमण्डलानां श्रीयोगशास्त्रवचनामृतमुजिहीते ॥ ॥वामराशिविप्रप्रवन्धः॥ ६२९६) सुराष्ट्रातश्चारणौ(३९९) लच्छि वाणि मुहकाणि ए पहं भागी मुहु मरउं। हेमसूरि अस्थाणि जे ईसर ते पंडिआ॥ नृपेण दत्तखहस्तप्रभुपादानां प्रा० आरात्रिकानं० 25 00-00 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 20 १२६ ९ २९७) यात्रामनोरथे नृपे युगलिका - डाहलदेशीयः श्रीकर्णस्त्वां प्रति । राजा खेदं गुर्वन्ते । श्रेयांसि ० ॥ १॥ 5 प्रभुः-प्रारभ्यते० ।। प्रारभ्य विघ्ननिहता । विभैः ० ॥ २ ॥ द्वादशयामे धर्मेण विनापगमः । किंकर्तव्यमूढो नृपः । ताम्बूलत्यागे । युगलिका - रात्रौ प्रयाणे वटलग्नकण्ठहारेण मृतः श्रीकर्णः । द्वासप्ततिसामंतयुतः श्रीसद्धेन सह सप्तदशहस्तमिते प्रभुजन्मभूमिस्वयंकारितविहारे प्रभावनां कृत्वा श्रीशत्रुञ्जये । त्वया चरणग० ॥ १ ॥ यत्त्वया जगतीनाथ । न्यहन्यत मनोभवः ||२|| दुक्खक्खउ० || ३ || विविधप्रार्थनावसरे - इकह पुलह० ||४|| पठितनवे चार नवलक्षान् ददौ राजा । नृपादेशात् आंबडेन त्रिपष्टिलक्षै रैवतकपद्या । तीर्थयात्राप्रबंधः । ० 10 १२९८) देशादाकारितश्रीदेव चन्द्रसूरिभिः कनकोत्पत्त्यवसरे । मुद्गरसप्रायद्त्तविद्यया त्वमजीर्णभाक्, मिमां विद्यां मोदक० तव मन्दाग्नेर्ददामि इति । श्रीहेमचन्द्रसूरिदेवत्वात् ६ मासै राजाऽपि । 30 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे (४००) हेम तुहाला कर मरू जिह अच्चन्भुअरिद्धि । जे चंपह हिठा मुहा तीह उपहरी सिद्धि ॥ त्रिपाठे लक्षत्रयम् । चारणप्रबन्धः ॥ ― (४०१) स्वस्ति श्रीमति पत्तने नृपगुरुं श्रीहेमचन्द्रं मुदा शक्रः प्रणिपत्य विज्ञपयति स्वामिन् त्वया सत्कृतम् । चन्द्रस्याङ्कमृगे यमस्य महिषे यादस्सु याद: पतेविष्णोर्मत्स्य वराहकच्छपकुले जीवाभयं तन्वता ॥ (४०२) नत्रं शिरः कुरु तुरुष्क कलिङ्ग लिङ्गं त्यक्त्वा वनं व्रज गजव्रजमङ्ग यच्छ मुञ्चायुधं मगध मालव मालपोचैर्नन्वेष गूर्जरपतिः कुपितोऽभ्युपैति ॥ (४०३) मौलिं मालवनायको नमयति खामङ्गुलिं जाङ्गल स्वामी कृन्तति दक्षिणक्षितिपतिर्गृह्णाति दन्तैस्तृणम् । सिन्धौ सिन्धुपतिर्निमज्जति नगोत्सङ्गे च वङ्गेश्वरो नश्यत्याशु निशम्य यस्य जयिनः प्रस्थान भेरीखरम् ॥ ॥ श्रीकुमारपालप्रबन्धः ॥ $ २९९) [ मरुवास्तव्यः ] श्रीमाल ऊदाको वणिगू वर्षायां घृतक्रयार्थम् । [ टिप्पण्याम् - रात्रौ व्रजन् कर्म - करैरेकस्मात्केदारादपरस्मिन्नीरैः पूर्यमाणे 'के यूयम् ?' अमुकस्यामुकाः । ममापि क्वापि सन्ति ? । तैः कर्णावत्यां 25 तवापि सन्ति । शकुनग्रन्थिः । सकुटुम्बस्तत्र कर्णावत्यां [ वायटीय प्रासादे छीम्पिकाभोजनं तद्दत्तस्थितिः । लक्ष्मीवृद्धौ नव्यावासखाते निधिः । ततः स उदयनमन्त्री । [ टि० - तत्रातीतादिचतुर्विंशतिजिन ७२ समलंकृतः प्रासादः कारितः । ] (४०४) कृतप्रयत्नानपि नैति कांश्चन स्वयं शयानानपि सेवते परान् । येsपि नास्ति द्वितयेऽपि विद्यते श्रियः प्रचारो न विचारगोचरः ॥ तदङ्गजा बाहडदेव १, आम्बड २, चाहड ३, सोलू ४ [ अपरमातृकाः ] | कथ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्. १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फित कतिपयप्रबन्धसंक्षेपः । १२७ (३००) सान्तु राजपा० स्वकारितप्रासादे वाराङ्गनास्कन्धन्यस्तहस्तं कमपि चैत्यवासिनं ददर्श । देवान् चन्दित्वा स नतः । स लज्जितः श्रीमलधारहेमान्ते प्रव्रज्य संवेगात् श्रीशत्रुञ्जये १२ वर्ष तपस्तेपे । (४०५) रे रे चित्त कथं भ्रातः प्रधावसि पिशाचवत् । अभिदं पश्य चात्मानं रागत्यागात्सुखी भव ॥ (४०६) संसारमृगतृष्णासु मनो धावसि किं सुधा । सुधामयमिदं ब्रह्मसरः किं नावगाहसे ॥ देववन्दनाय तत्र गतः श्रीसान्तूस्तं प्रेक्ष्य विस्मयः । सः - (४०७) जो जेण सुद्धधम्मंमि ठाविओ संजएण गिहिणा वा । सो चेव तरस जायइ धम्मगुरू धम्मदाणाओ ॥ || लज्जाप्रबन्धः ॥ 1000000 ३०१) जित ८४ वादः कुमुदचन्द्रः श्रीदेवसूरिशिष्यरत्नप्रभः प्रदोषे गुप्तवेषो रात्रौ कु० मठे । तेन कस्त्वमित्युक्ते । अहं देवः । को देवः । अहम् । अहं कस्त्वं श्वा । श्वाकः । त्वम् | त्वं कः । अहं देवः । इति 10 चक्रभ्रमदोषात् । (४०८) हंहो श्वेतपटाः किमेष कपटाटोपोक्तिसण्टङ्कितैः संसारावटकोट रेऽतिविकटे मुग्धो जनः पात्यते । तत्त्वातत्त्वविचारणासु यदि वो हेवाकलेशस्तदा सत्यं कौमुदचन्द्रमवियुगलं रात्रिंदिवं ध्यायत ॥ (४०९) कः कण्ठीरवकण्ठकेसरसटाभारं स्पृशत्यंहिणा कः कुन्तेन सितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं काङ्क्षति । कः सन्नह्यति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतंसश्रिये यः श्वेताम्बरशासनस्य कुरुते वन्द्यस्य निन्दामिमाम् ॥ (४१०) खद्योतद्युतिमातनोति सविता जीर्णोर्णनाभालयच्छायामाश्रयते शशी मशकतामायान्ति यत्राद्रयः । इत्थं वर्णयतो नभस्तव यशो जातं स्मृतेर्गीचरं तस्मिन् भ्रमरायते नरपते ! वाचस्ततो मुद्रिता ॥ श्रीसिद्ध राजसभावादावसरे कुमुदः श्रीहेमचन्द्रं प्रति । पीतं तक्रम् । श्वेतं तक्रम्, पीता हरिद्रा । युवयोः को 20 वादी ? | श्रीदेवसूरिभिरयं बालः । अनेन को वादः । त्वमेव वालो योऽद्यापि कटीद० वस्त्रं न धत्ते । (४११) नारीणां विदधाति निर्वृतिपदं श्वेताम्बरप्रोल्लसत्कीर्तिस्फातिमनोहरं नयपथप्रस्तार भङ्गीगृहम् । यस्मिन् केवलिन विनिर्जितपरोत्सेकाः सदा दन्तिनो राज्यं तजिनशासनं च भवतश्चौलुक्य ! जीयाच्चिरम् ॥ 5 15 25 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ६३०२) ३६००००० ग्रामकन्यकुजदेशकल्याणकटकपुरे श्रीभूयराजा राजपा० । स्त्री प्रेक्ष्य कामातः । यतः(४१२) न पश्यति दिवा घूकः काको नक्तं न पश्यति । __कामातः कोऽपि पापीयान् दिवा नक्तं न पश्यति ॥ खनरेणानायि प्रोक्तखनीचत्वात्-पूर्वे धृतकरा सा मुक्ता लजितेन राज्ञा । खकरौ छेदितौ गवाक्षगौ निज5 यामिकैरेव । महाकालाराधनादागतौ करौ । मालवदेशं तसै दत्त्वा तापसः संजातः।। ६३०३) कन्य० एकदेशगूर्जर० वडीयारदे० पञ्चासरग्रामे चापोत्कटवंश्यं झोलिकास्थं बालं वनाग्रे आरोप्य माता रन्धनादिः श्रीशीलगुणसूरिभिस्तन्मातुवृत्तिं दत्त्वार्पितो वीरमतिगणिन्या पाल्यमानः। वनराजनामा ८ वर्षः। देवपूजा विना० मूषकान् मार० । गुरुणा निषिद्धोऽपि दण्डयोग्या अमी । तस्य जातके राजयोगं मत्वाऽयं महा राजा भावीति मातुः सम ।[चौर मातुलेन सह ] धाट्यादिना चरति । काकरग्रामे धनिगेहं मुष्णन् दधिभाण्डे 10 करे पतिते भुक्तोऽहमिति सर्व हित्वा गतः। अन्यदा तद्भगिन्या श्रीदेव्या निशि गुप्तवृत्त्या बन्धुवात्सल्यात् खानादिनोपकृतो मम राज्ये त्वयैव तिलकं विधेयम् । अन्यदा चौरैः क्वापि वने रुद्धेन जाम्बाकेन ५ शरमध्यात् २ भने । श्रीवन[रा]जेनोक्तं मे महामात्यो भावीति । ३०४) अथ कन्यकु० तद्राजसुता महणका कंचुकसंबन्धे गूर्जर० पञ्चकुलं षण्मासैरुद्राहित २४ लक्षपारुथकद्रमान् , ४००० तेजीतुरङ्गान् , [ सौराष्ट्रघाटे ] लात्वा यान् श्रीवनराजेन हत्वा वर्ष वने स्थित्वा, पुरनिवेशाय 15 भूमि विलोकयता अणहिलगोपः प्राप्तस्तेन यत्र शशकेन श्वा त्रासितस्तत्र तन्नाम्नाणहिल्लपुरम् । [ ५० वर्षीयः] प्रतिपन्नभगिन्या तिलकम् । जाम्बाको महामात्यः। आचार्यवचसा श्रीपार्श्वप्रतिमालंकृतं निजाराधकमूर्तियुतं पश्चासरं कारितम् । सं०८०२। ६३०५) श्रीमूलराजा [वकारितप्रासाद] धर्मस्थानारक्षं विलोकयन् सरस्वतीतीरे एकान्तरोप० पंचग्रासा० कांथडिकं तपस्विनं आरोपिततृतीयज्वरकम्पमानकंथाकं प्रेक्ष्योवाच । सर्वथा कथं न हीयते । मुनि:-अभुक्तं 20 कर्म न० । नृपेण धर्मस्थानरक्षणायाभ्य० सः।। (४१३) अधिकारात् त्रिभिर्मासैमठापत्यात्रिभिर्दिनैः। शीघ्रं नरकवाञ्छा चेद्दिनमेकं पुरोहितः॥ इति निषिद्धो नृपः। ६३०६) श्रीपरमारवंश्यश्रीहर्षभूपो राज शरवणमध्ये जातमात्रं बालं प्राप्य देव्यै० स मुञ्ज इति नाम । ततः [राज्ञः] सीन्धलः सुतः। मुळे राज्यं रुद्रादित्यो महामात्यः । उत्कटत्वात्सीन्धलो निष्काशितः । गूर्जरदेशे 25 कासद्रासन्ने निजपल्लीं कृत्वोवास । दीपाली निशि मग० चौरवध्यभूमिपार्श्वे शूकरं प्रति बाणम् । शबेन सङ्केतः। सीन्धलेन निवार्य शरेण हतः किरिः। सी० तव सङ्केतकाले शूकरवधः श्रेयानथाधुनेति । तत्साहसतुष्टः । प्रेतो भूम्यपाति बाणवरं श्रीमुञ्जान्त्यसमयं प्रकाश्य गतः। मालवे गतः। श्रीमुञ्जसम्पदैकदेशं प्राप्तः। पुनरुत्क० नेत्रे कर्षिते । ग्राममेकं दत्तं ग्रासार्थम् । पञ्जरगेन भोजः सुतः । तज्जातकम् । १ टि-सतीत्वं दासदास्यऽहं सत्यम् । २ राज्यरक्षायै परमारराजपुत्रान्नियोज्य । ३ टि०-१०९८ वर्षे मूलराज्याभिषेकः । मूलार्कः श्रूयते शास्त्रे सर्वकल्याणकारकः । अधुना मूलराजेन योगश्चित्रं प्रशस्यते ॥ स्वप्रतापानले येन लक्षहोमं वितन्वता । सूचितस्तत्कलन्त्राणां बाप्पावग्रहनिग्रहः ॥ कच्छपलक्षं हत्वा सहसाधिकलम्बराजमायातम् । संगरसागरमध्ये धीवरता दर्शिता येन ॥ ४ टिप्पन्यां-वयजलदेवनामानं निजं विनेयं तेन राज्ञोऽभ्यर्थनया जात्यघुसणस्याष्टौ पलानि मृगमद ४ कर्पूर १ द्वात्रिंशद्वाराङ्गनाः । एवं ग्रा० कृत्वा स्थापितः स्वयं ब्रह्मचारी० । राज्ञा परीक्षा । ताम्बूलप्रहारेण कुष्टिनी सजां च० इत्यादि । ५ टि-गय गय रह गय तुरय गय, पायकडानि भिच्च । सग्गठिउ करि मंतणुं महंता रुहाइच ॥ -> < Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्. १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपय प्रबन्धसंक्षेपः । १२९ (४१४) पश्चाशत् पञ्चवर्षाणि मासाः सप्त दिनत्रयम् । भोक्तव्यं भोजराजेन सगौडं दक्षिणापथम् ॥ [ ज्ञानिपार्श्वात्पुत्रभिक्षां याचितः । अभ्यस्तशास्त्रष्टुत्रिंशद्दण्डायुधः, अधीत्य ७२ कलाऽकूपारपारंगतः समस्तलक्षणलक्षितः स ववृधे । ] इत्याकर्ण्य श्रीमुञ्जनान्त्यजेभ्यः स० । तैः सानुकम्पैरभीष्टदेवं स्म० । (४१५) मान्धाता स महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः, सेतुर्येन महोदधौ विरचितः कासौ दशास्यान्तकः । अन्ये येsपि युधिष्ठिरप्रभृतयो यावत् भवान् भूपते, नैकेनापि समं गता वसुमती मन्ये त्वया यास्यति ॥ इति राज्ञे सम० । श्रीमुञ्जः खेदादि ० । यौवराज्ये भोजः । ९ ३०७) अथ तिलङ्गदेशपतैलपनृपरणे बद्धो मुञ्जः । कारायां तद्भगिन्या सह भार्या सं० । मृणालवती स्वमुखं दर्पणे विलोकयन्ती विषण्णा मुञ्जनाभाणि । (४१६) पभणइ मुंजु मुणालवइ जुवणु गियउं म झूरि । जइ सक्कर सयखंड थिय तोइ स मीठी चूरि ॥ इति तां मो० । निजप्रधानदापितसुरङ्गासङ्केते राजा तां प्रतीक्षमाणस्तया' स्वभ्रातुः कथितम् । तैलपेन प्रतिकुटं भ्राम्यमाणो मुञ्जः १ टि०-हृदं काव्यं पत्रके आलिख्य नृपतेः समर्पयामास । तद्दर्शनात् नृपतिः खेदमेदुरो भ्रूणहत्याकारिणं स्वं मन्यमानः । श्रीभोजोन्मानितयुवराज्यादिना । मुअस्तु तिलङ्गदेशीयराज्ञा तैलपदेवनाम्ना सह योद्धुं गतः । तेन भग्नो बद्धश्च विडंब्य निपातितश्च । २ तत्र गतोऽसौ वृद्धां मां त्यक्ष्यतीति विमृशनया । ३ टि० - आपतं हससि किं दविणान्धमुग्ध, लक्ष्मीः स्थिरा न भवतीह किमत्र चित्रम् । किं त्वं न पश्यसि घटीर्जलयन्त्रचक्रे, रिक्ता भवन्ति भरिताः पुनरेव रिक्ताः ॥ १ ॥ पु० प्र० स० 17 (४१७) सउ चित्तहं [सट्ठी मणहं बत्तीसडी हियाहं । अम्हे ते नर ढाढसी जे वीसस्या त्रीआहं ॥ 15 (४१८) झोली त्रूटी किं न मूयउ किं न हूउ छारह पुंजु । Rice दोरी दोरीयड जिम मंकडु तिम मुंजु ॥ एकस्मिन् दिने एकां भिक्षोत्तरं कुर्वाणां स्त्रीं प्राह मुञ्जः 20 (४१९) भोली मूधि म गर्छु करि पिक्खिवि पडुसयाई । चऊदसहं बहत्तरहं मुंजह गयह गयाई ॥ [ इत्थं सुचिरं भिक्षां भ्रामयित्वा भूपादेशात् ] अन्यदा वधकाले [ नरैरुक्तमिष्टदैवतं स्मरेत्युक्तं ] मुञ्जेन(४२०) लक्ष्मीर्यास्यति गोविन्दे वीरश्रीवर वेश्मनि । गते मुझे यशःपुञ्जे निरालम्बा सरखती ॥ शूलीप्रोतं नित्यं दधिलिप्तमौलिं तैलपः कारयामासामर्षादिति ॥ 1000010 ६३०८) कियतां कार्पटिकानां त्वं राज्यं ददासीति भवान्योक्तो भवस्तां गां पङ्कमनां कृत्वा नुरूपस्तटस्थः पान्थान् उ० । तैरासन्नश्रीसोमेश्वरदर्शनोत्कैरुपहसितः । केनापि कृपावता पथिकवृन्देनोद्धरणप्रारम्भे सिंहरूपेण शम्भुना त्रासिते कश्चिदेकोऽवज्ञातभयस्तस्याः पार्श्वे स्थितः । स एव योग्यो राज्यस्येत्युक्ता गौरी भवेनेति । 25 5 For Private Personal Use Only 10 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ९३१०) प्रतिष्ठाने श्रीशातवाहनो राजपा० आसन्ननद्यां झपहासे ज्ञानसागरसाधुना त्वं पूर्वं काष्ठवाहको नित्यं सक्तीमनम् । अन्यदा मासोपवासिनं मुनिं प्रेक्ष्य पूर्वभवे कस्यापि न दत्तम् । यतः(४२१) रम्येषु वस्तुषु मनोहरतां गतेषु रे चित्त ! खेदमुपयासि कथं वृथा त्वम् । पुण्यं कुरुष्व यदि तेषु तवास्ति वाञ्छा पुण्यैर्विना नहि भवन्ति समीहितार्थाः ॥ तद्दानात्त्वं श्रीशातवाहनः । देवग्रस्तझषेण ह० । 10 १३० पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे ९३०९) कश्चित्कार्प ० श्रीसोमेश्वरयात्रायां यान् पथि लोहकारौकसि निशि भार्यया स्वपतिं छुर्या हत्वा कार्यटिकशी छुरी मुक्ता बुम्बापातः । तलारकैस्तस्य करौ छिन्नौ । तेन दैवोपालम्भे निशि श्रीसोमेशः पूर्वं एकेनाजा कर्णयोर्धृता परेण मारिता । ततः साऽजेयं नारी, येन मारिता स पतिः । त्वया कर्णौ धृतौ । तवागमे उल्लसितकोपे त्वत्करौ तौ । ततो मे उपालम्भः कथमिति । कृपाप्रबन्धः ॥ 15 (४२३) दानपात्रमधमर्णमिहैकग्राहि कोटिगुणितं दिवि दायि । साधुरेति सुकृतैर्यदि कर्तुं पारलौकिककुसीदमसीदत् ॥ (४२४) पूर्वपुण्यविभवव्ययबद्धाः सम्पदो विपद एव विमृष्टाः । पात्रपाणिकमलार्पणमासां तासु शान्तिकविधिर्विधिदृष्टः ॥ ततः प्रभृति पात्रदानादि || श्रीशातवाहनपात्रदानप्रबन्धः ॥ ९३११) खेडमहास्थाने देवादित्यसुता रूपवती बालविधवार्कसन्मुखावलोके तेनैव भुक्ता, गर्भे, वने मुक्ता । पुत्रजन्म । साष्टाब्दः । लेखशालिकपराभूतो मातृपार्श्वे पितृनामानवगम्य मर्तुकामोऽर्केण करे कर्करोऽर्पितः । साप20 राधे शिलान्यथा तवैव शिलेत्युक्तः । ततः स शिलादित्यः । तत्पुरनृपेण परीक्षायै तथा कृते मृते राज्ञि स एव राजा; अर्कदत्ताश्वारूढो नभश्वर इवेच्छाविहारी महाप्रतापी जैनमुनिवासितः श्रीशत्रुञ्जयोद्धारकः। कदाचित्सौगतैः श्वेताम्बरपराभवे श्रीशत्रु अधिष्ठितम् । तद्भागिनेयो मल्लनामा क्षुल्लः । वेषपरावर्तेन बौद्धपार्श्वे पठन् निशीथे खे यान्त्या भारत्योक्तः के मिष्टाः । वल्लाः । पुनः षण्मासान्ते निश्येव केन सह । घृतगुडाभ्यामित्युक्ते तुष्टायां भारत्यां जिताः सौगता निःकाशिता देशात् शिलादित्ये सभापतौ । तत आचार्यपदं श्रीमल्लवादिसूरिः ।। मल्लवादिप्रबन्धः । 25 (४२२) मीनानने प्रहसिते भयभीतमाह श्रीशातवाहनमृषिर्भवतात्र नद्याम् । यत्सक्तुभिर्मुनिरकार्यत पारणं प्राक् दैवाद्भवन्तमुपलक्ष्य झषो जहास ॥ जातस्मृतिः । अहोदानम् । यतः ९३१२) श्रीमालपुरे माघपण्डितः । पित्राऽपि [ टि० - कुमुदपण्डितेन ] स्वपुत्रापन्निराकरणाय वर्षशतदिन - मितनाणकहारकान् दत्त्वा भोगायानेकशो दत्त्वा च विपेदे । तद्दिदृक्षयांगतश्रीभोजं सबलं रञ्जयामास । मरकतबद्धा भूमिर्दिव्या । काचबद्धा सञ्चारकभूः । दैवज्ञोक्तप्रान्ते पादे श्वयथुः । पुण्यक्षये देशमोचः । यतः 1 १ टिप्पण्यां-भोजान्ते भोजनम् । शीतत प्रावरणम् । प्रच्छादककदशनं भोजितः लादितश्च रात्रौ स्तोकान्नं स्निग्धम् * । प्रतलमाच्छादनम् । शुषिरत्रम्बकस्तम्भान्तः प्रविष्टाभितापेन न शीतार्तो राजा । * टिप्पण्या उपरि टिप्पणी-५०० गवां दुग्धं २५० पानं यावत् ४ गावः । तापिते तस्मिन् कण्डारकेण शालिर्विधीयते पाके शर्करादिना संस्कृते स्तोके परिवेषिते राजा तृप्तः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्. १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः । (४२६) देशं खमपि मुश्चन्ति मानम्लाने महाशयाः। दिवावसाने व्रजति द्वीपान्तरमहर्मणिः॥ धारायां गतः। पुस्तकग्रहणकार्पणपूर्व श्रीभोजात्कियद् द्रव्यमानेयमित्युक्ता भार्या गतोपलक्षिता नृपेण । विषादः । पुस्तकाद्यपत्रे काव्यम्(४२६) कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोजखण्डं त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः। उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं हतविधिल लितानां ही विचित्रो विपाकः ॥ अस्यैव काव्यस्य सर्वो-मूल्यम् । परं लक्षं १, सा मार्गे याचकैः । नाक्षराणि-प्रस्मृतः किमथवा० ॥ गृहागता पत्या प्रशंसिता । अन्यदा भिक्षा०-अर्था न सन्ति न च मुं० ॥ (४२७) दारिद्र्यानलसन्तापः शान्तः सन्तोषवारिणा । दीनाशाभङ्गजन्मा तु केनायमुपशाम्यति ॥ व्रजत व्रजत प्राणाः ॥ ततो मृतः । नृपेण तजातेभिल्लमाल इति ॥ पण्डितमाघप्रबन्धः॥ 5 ६३१३) डाहलदेशे देमतराज्ञी महायोगिनी गणकवचसोनम्भितगर्भा १६ यामान् यावत् श्रीकर्णजन्म । 10 अष्टमयामे सापि मृता । मुखे हारावाप्तिर्नयन० ॥ श्रीकर्णप्रबन्धः ॥ 15 ६३१४) श्रीसिद्धराजोपरोधेन श्रीहेमव्याकरणं १ वर्षेण सम्पूर्णम् । (४२८) भ्रातः पाणिनि ! संवृणु प्रलपितं कातन्त्रकन्था वृथा ___मा कर्षीः कटु शाकटायनवचः क्षुद्रेण चान्द्रेण किम् । कः कण्ठाभरणादिभिर्वठरयत्यात्मानमन्यैरपि श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुराः श्रीसिद्धहेमोक्तयः॥ ___६३१५) मालवान्महास्थाने श्रीसिद्धराजा जैनप्रा० धजं प्रेक्ष्य कुपितः। विप्राः-देव अयं ध्वजारोपः पुरापि । यतो नगरपुराणे(४२९) पञ्चाशदादौ किल मूलभूमेर्दशोर्द्धभूमेरपि विस्तरोऽस्य । उच्चैस्त्वमष्टैव तु योजनानि मानं वदन्तीति जिनेश्वराद्रेः॥ ततो जैनप्रा० ध्वजाः। ६३१६) डाहलदेशीयनृपसमस्यागता । 'आयुक्तः प्राणदो लोके ।' पूरिता श्रीप्रभुभिः । ६३१७) जाम्बान्वयिश्रीसजनदण्डेशेनोद्ग्राहितवर्षत्रयसुराष्ट्राद्रव्येण काष्ठप्रासादमपनीय श्रीनेमिप्रासादोद्धारः। चतुर्थवर्षे आनायिते सजने नृपेण द्रव्ये मार्यमाणे तत्रत्यागतव्यवहारिभिर्दीयमाने । द्रव्यं पुण्यं वावधारयतु खामीत्युक्ते सजने राजा पुण्यमग्राहीत् । ततः पुनरप्यधिकारः। तीर्थद्वये योजन १२ ध्वजा दत्ता। 30 १ टिप्पण्याम्-अर्था न सन्ति न च मुञ्चति मां दुराशा त्यागान सङ्कुचति दुर्ललितः करो मे । ___ याजा च लाघवकरी स्ववधे च पापं प्राणाः स्वयं व्रजत किं परिदेवितेन ॥ क्षुरक्षामः पथिको मदीयभवनं पृच्छन् कुतोऽप्यागतस्ततिक गेहिनि किंचिदस्ति यदयं भुक्ने क्षुधापीडितः । वाचास्तीत्यभिधाय नास्ति च पुनः प्रोक्तं विनैवाक्षरैः स्थूलस्थूलविलोललोचनगलवाष्पाम्भसा बिन्दुभिः ॥ श्रीमालेषु धनवत्सु सत्सु क्षुधाविनष्टे पुरुषरते भिल्लमा० । २ टिप्पणी-दण्ड-मुण्ड-डम्भनानि सोमेश्वरे दृष्टा सिदेशस्य गिरिनारे हर्षः । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्राहे (४३०) नृपव्यापारपापेभ्यः स्वीकृतं सुकृतं न यैः। तान् धूलिधावकेभ्योऽपि मन्ये मूढतमानरान् ॥ ॥ इति श्रीरैवतकोद्धारप्रबन्धः ॥ ६३१८) अन्यदा श्रीसिद्धराजः श्रीसोमेश्वरयात्रां कृत्वा वलन् रैवतं गन्तुमिच्छविप्रैर्मात्सर्याल्लिङ्गाकारमिति 5 निषिद्धः श्रीशत्रुञ्जये आकृष्टकृपाणिकैविप्रेनिषिद्धो रात्रौ कार्पटिकवेषेणारुरोह । सरोमाञ्चं देववन्दनम् । द्वादशग्रामोद्ाहितं दत्तम् । ६३१९) श्रीपत्तने आभडवणिग् कांस्यकारगृहे घर्घरादिना ५ विशोपकैराजीविकः । श्रीहेम० पार्श्वे २ प्रतिक्रामन् अधीतरत्नप० परिग्रहं प्रमाणीकुर्वन् प्रभुभिः सामु० द्रमा ३ [लक्षाः-टि०] मोकला मोचिताः । अन्यदा क्वापि ग्रामेऽजाव्रजं चरन्तं प्रेक्ष्य कण्ठे पाषाणं मूल्येन लात्वा मणिकारपार्थादुत्तेजितं श्रीसिद्धराजमुकु10 टावसरे लक्षद्रव्येण दत्तम् । तेन 'द्रव्येणागतमाञ्जिष्ठाठामानि क्रीत्वा तद्विक्रयावसरे सांयात्रिकैर्जलचौरभयात्तदन्तर्निहिता हैमकाम्ब्यः । ततः श्रीसिद्धराजमान्यो जैनप्रासादादि ॥ वसा० आभडस्य प्रबन्धः ॥ ६३२०) अन्यदा श्रीसिद्धराजेन धर्मतत्त्वादिपृष्टेषु सर्वदर्शनिषु निजस्तुतिपरनिन्दकेषु आकारितश्रीहेमसरिः १४ विद्यारहसं विमृस्य पौराणिककथा पुरा कश्चिद् व्यवहारी पूर्वोढां पत्नीं हित्वा सङ्ग्रहिणीकृतसर्वस्वः पूर्वया वशीकरणायाभ्यर्थितगौडदेशीयेनोक्तम्15 रश्मिवद्धां गामिव तव पतिं करोमीत्युक्त्वाऽचिन्त्यौषधं दत्त्वाऽऽहारान्तर्देयम् । तथाकृते पतिौंः । तत्प्रतीकारमजानन्ती विश्वविश्वाक्रोशान् स० । निजं निन्दन्ती एकदा मध्यन्दिने तापाक्रान्तापि शाड्वलभूमिषु तं चारयन्ती कस्यापि तरोस्तले विश्रान्ता विलपन्ती खे वाणीम० । तत्रागतो विमानारूढो भवो भवान्या तदुःखकारणं पृष्टो यथावस्थितं निवेद्य च तस्यैव तरोश्छायायां पुंस्त्वहेतुमौषधं तन्निबन्धादादिश्य ति० । सा तदनु तच्छायां रेखाङ्कितां कृत्वा तन्मध्यवर्तिन औषधाङ्कुरान् लात्वा मुखे क्षिः । तेनाप्यज्ञातौषधेन स गौर्नरः । यथा तदज्ञातमेष20 जाङ्कुरः समीहितकार्यसिद्धिं चकार, तथा कलियुगे मोहात् तिरोहितं पात्रपरिज्ञानम् । ततः सर्वदर्शनाराधनेन तदपि मोक्षदं भवतीति निर्णयः। तथा, द्वैपायन-युधिष्ठिरभीमसंवादे पात्रपरीक्षायाम्(४३१) मूर्खस्तपस्वी राजेन्द्र ! विद्वांश्च वृषलीपतिः। उभौ तौ द्वारि तिष्ठेते कस्य दानं प्रदीयते ॥ 25 युधिष्ठिरः- (४३२) सुखासेव्यं तपो भीम! विद्या कष्टदुरासदा। विद्वांसं पूजयिष्यामि शरीरैः किं प्रयोजनम् ॥ भीमः- (४३३) श्वानचर्मस्थिता गङ्गा क्षीरं मद्यघटस्थितम् । अपात्रे पतिता विद्या किं करोति युधिष्ठिर ॥ टिप्पण्याम्-पत्नी प्रसूता दुग्धं न प्रामोति बालकः सीदति तदर्थमजां गृहीतुकामो गतः। नीलं जलं धूर्तव......ज्ञातं रत्नम् । गृहीता सा सटोकरा तन्मध्यरत्नम् । २ टिप्पण्यां-विसा० आभटेन पूर्वे निर्धनेन ९ लक्षाः परिग्रहपरिमाणे मुस्कलाः कृताः । पुनर्धने जाते तपोधनानां १ घृतघट प्रतिदिन सत्रुकारोऽवारितः । सदा साधर्मिकवात्सल्यम् । प्रतिवर्षे सर्वदर्शनार्चा । एवमप्रशस्तिप्रासाद-प्रतिमा-पुस्तकादि गुप्तवृत्या साधर्मिकादि दानादिपुण्यानि कृतानि । ८४ वर्षायुःप्रान्ते धर्मव्ययवहिकायां ९८ लक्षदर्शने खेदः । पुनः सुतैः २ लक्षे सप्तक्षेत्र्यां दत्वा अष्टलक्षीं च मानयित्वा कोटिः पूर्णीकृता । पुनः सुतास्ताशा एवाऽभवन् । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्. १. प्रबन्धचिन्तामणिगुम्फितकतिपयप्रबन्धसंक्षेपः । द्वैपायन:- (४३४) न विद्यया केवलया तपसा वापि पात्रता । यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रचक्षते ॥ एवं गुणोपेतपात्रभक्त्या मुक्तिः। इति प्रभुनिवेदिते श्रीसिद्धराजः सर्वधर्मान् आ०॥ सर्वदर्शनमान्यताप्रबन्धः॥ F३२१) मांगूः क्षत्रियः पाराच्यौ भूम्याम् । भोजने घृतकुतपः । दाढायां सोहल १, अपाटवे पथ्ये यवागूः ५ माना । अाहारे के वैद्येनोक्ते पुनः ५ माना । निषिद्धः । नृपेण निरा० । समयोचितम् । स्नानावसरे गजः 5 श्वानेन । तबलेन पीडितो मृतः॥ मांगूप्रबन्धः ॥ ६३२२) ओतुना खद्धशुकसाकमृतश्रीजयकेशिराजानं श्रुत्वा निजतातपुण्याय श्रीमयणल्लदेवी श्रीसोमे० । त्रिवेदिनं विषं जलन्यासावसरे प्राह-यदि भवत्रयपातकं लासि, तदा ददामि नान्यथेति । गजादि तमै । सोऽपि ददानस्तयोक्तः प्राह-त्वं पूर्वार्जितपुण्येनेदृशी जाता। दानादिना भवेन भवः श्रेयस्करः। भवत्या भवत्रयपातकं मे पापघटं लात्वाधमः कश्चिद्विप्रः खं तदापकं च भवाम्भोधौ पातयति । मया तु वित्तमेतदादाय पुनर्ददता 10 लब्धादष्टगुणं पुण्यमिति ॥ पापघटप्रबन्धः ॥ ६३२३) श्रीसिद्धे निशि सुप्ते वण्ठौ पराक्रम-कर्मणि प्रा० । (४३५) यदिह क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते । मूलसिक्तेषु वृक्षेषु फलं शाखासु जायते ॥ नृपेण तदाकर्ण्य कर्मवि० । अपरदिने स्वप्रशंसकस्य लेखः। अस्मै वण्ठाय शताश्वसामन्तता देयेति । सान्तूपार्श्वे निश्रेण्या अङ्गभङ्गे मञ्चकेन गृहे, अपरो लेखं लात्वा गतः । प्रातःसामन्तता इति श्रुत्वा राजा कर्मैव ब०115 यतः-नैवाकृति० ॥ (४३६) यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् । तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनु धावति ॥ (४३७) नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगाः विधिर्वन्ध्यः सोऽयं ननु विहितकमैकफलदः। फलं कर्मायत्तं तत्किममरैः किं च विधिना नमः सत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ॥ ॥कर्मप्राधान्यप्रबन्धः॥ ६३२४) जातस्मृतिः श्रीमयणल्लदेवी श्रीसोमेशयात्रायां बाहुलोडपुरद्वासप्ततिलक्षपाटितपट्टा सपादकोटिमूल्यां हेमपूजां तुलापुरुषादिना सर्वान् प्री० । (४३८) सङ्ग्रहैकपरः प्राप समुद्रोऽपि रसातलम् । दाता तु जलदः पश्य भुवनोपरि गर्जति ॥ 25 रात्रावगतेशेनागतात्र कार्पटिका पुण्यं याच्यमित्युक्ता दर्पान्धा निजनरानायिता सती याच्यमानाप्यददाना कियद् व्ययितमित्युक्ताह-अहं भिक्षावृत्त्या शतयोजनानि......दीकृत्यात्रागता कल्ये कृतोपवासा पारणकदिने कस्माद् अपि खलं प्राप्य तत्खण्डेनेशं सम्पूज्य तदंशमतिथये दत्त्वा पारितम् । त्वं पुण्यवती यस्सा एवंविधं कुटुम्बदानादि । ममाल्पपुण्ये कथं लोभः । यदि न कुप्यसि तदा बुवे । ममाधिकं पुण्यम् । यतः + टिप्पण्या-एकोऽपि यात्रिकः पञ्चशती द्रम्माणां याच्यते । नरस्त्रीयुग्ममपि एतदेव । पश्चान्मातृ-पुत्रौ हस्ते लगित्वा गच्छतः । इत्यादि विप्लवं दृष्ट्वा मयणल्लदेवी०। . 20 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे (४३९) सम्पत्ती नियमः शक्तौ सहनं यौवने व्रतम् । दारिद्रये दानमित्यल्पमपि लाभाय कथ्यते ॥ दानं दरिद्रस्य० ॥ निगर्वा जाता ॥ श्रीमयणल्लदेवीयात्राप्रवन्धः॥ 10 F३२५) श्रीसिद्धराजः सागरकण्ठवर्ती । चारणौ(४४०) को जाणइ नरनाह चित्तु तुहालउं चक्कवइ । लहु लंकह लेवाह मग्गु निहालइ करणउत्तु ॥ 5 (४४१) धाई धोया पाय जेसल ! जलनिहि ताहिला। पइं लइया सविराय इकु विभिषणु मिल्हि मुहु॥ F३२६) छलान्वेषिणं मालवाधीशमागतं याचितेशयात्रापुण्यं तद्दानेन सान्तूः परामुखीचकार । आगतभूपकोपे तत्पुण्यं मया तव दत्तमिति बोधितः । (४४२) यस्यो-तिलकस्य निर्मलयशःसन्दोहसन्दोहितां सामग्रीमवलोक्य लोलनयनः कैलासशैले वसन् । कास्थीनि क वृषः क निर्जरनदी केन्दुः क भोगिप्रभुः पप्रच्छेति शिवां समाधिविगमे देवः शिवः साद्भुतम् ॥ (४४३) मर्निद्रादरिद्रैः कुरुभिरुरुभयैः सोपलिङ्गैः कलिङ्गै रङ्गैरुत्सृष्टरडैरवगणितवनुर्दण्डतूणैश्च हूणैः। सुमैः शौण्डीर्यजिखैरनुसुतविभवारण्यवाटैर्विराटै ाटैः विद्यल्ललाटैरजनि गजघटाभोगरुद्धेऽस्य युद्धे ॥ (४४४) मुद्गानुद्गतमुद्गरानुरुगदाघातोद्धतान् व्यन्तरान् वेतालानतुलानलाभविकटान झोटिङ्गचेटानपि । जित्वा सत्वरमाजितः पितृवने नक्तंचराधीश्वरं बद्धवा बर्बरमुर्वरापतिरसौ चक्रे चिरात्किङ्करम् ॥ ॥ श्रीजयसिंहप्रबन्धाः ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ पातसाहिनामावलिः। (G.) सज्ज्ञकसङ्ग्रहस्यान्ते पातसाहिनामावलिः । (१) सं० १२६३ वर्षे पातसाहि साहबदीनेन गजणपुरात्समागत्य पृथ्वीराजं लाहउरमून्धउरयोरन्तराले निहत्य ढिल्ली गृहीता । वर्ष ३ राज्यं कृतम् । (२) ततः सं० १२६६ वर्षे मार्गमासे सुरत्राणसमसदीनो दाउदपुरात् ढियां समागतः। वर्ष २६ राज्यं कृतम् । (३) ततः संवत् १२९२ वर्षे श्रावणशुदि २ द्वितीयायां कटकादागत्य कूटं कृत्वा पूर्वसुरत्राणं हत्वा पातसाहि 5 पेरोजः समजनि । मास ६ राज्यं कृतम् । पश्चादाखेटके गतो यमुनातटे कयलोपरीग्रामे मारितः। (४) ततस्तत्पुत्री दउलती। दिनपञ्चकं यावद्राज्यं कृतम् । पश्चात्सा मुख्यैर्लम्पटत्वेन मलिका नाम्नी व्यापादिता। (५) ततः परं वर्ष ३ मास ६ शून्यं जातम् । तदा मलिककूबडीपुत्र मोजदीन मलिको ढिल्ल्यां समभूत् । सं० १२९६ वर्षे राज्यं वर्षद्वयं यावत्कृतम् । स नानामलिकभेदेन मृतः। (६) ततः पातसाहि पेरोजपुत्रः अलावदीनो नानामलिकेन राज्ये स्थापितः । वर्ष ३ राज्यं कृतम् । 10 (७) ततः सं० १३०१ वर्षे आसाढमासे पूर्वस्यां दिशि वहडाइचनगरान्मलिक समसदीनः समागतः । तेन दिल्यां वर्ष २१ राज्यं कृतम् । (८) ततः सं० १३२२ वर्षे फाल्गुनमासे त्रयोदश्यां शुक्रवारे नसरदीनसाहिना राज्यं कृतम् । वर्ष एकं यावत् । (९) ततः सं० १३२३ वर्षे चैत्रवदि २ द्वितीयायां ग्यासदीनो राजा जातः । वर्ष २० राज्यं कृतम् । (१०) सं० १३४३ वर्षे चैत्रमासे कोकामलिकभेदेन मोजदीन पातसाहिर्जातः । वर्ष ३ मास ३ राज्यं जातम् । 15 (११) सं० १३४६ वर्षे फाल्गुनशुदि ६ षष्ट्यां खलचीवंशीय मलिकजलालदीनेन राज्यं कृतम् । वर्ष ६ मास ९। स यमुनातीरे पंभराग्रामसमीपे मलिक अलावदीनेन मारितः। (१२) ततः जलालदीनपुत्रो रुक्मदीनो राज्यधरो बभूव । मास ३ राज्यं कृतम् । (१३) सं० १३५२ वर्षे सुरत्राणः अलावदीनो जातः । वर्ष [२१] राज्यं कृतम् । (१४) सं० १३७३ वर्षे माघशुदि ११ दिने पातसाहि अलावदीनपुत्रः सहावदीनः पातसाहिर्जातः । मास २॥० 20 राज्यं चकार । (१५) ततः सं० १३७३ वैशाखशुदि ३ दिने सुरत्राण अलावदीनपुत्रः कदुबदीनः पातसाहिर्जातः । वर्ष ५ राज्यं कृतम् । (१६) ततः सं० १३७८ वर्षे ज्येष्ठशुदि २ दिने कदुवदीन [पुत्रः] पोसरुषानु पातसाहि नसरदीनो राज्यधरः। मास ४ राज्यं कृतम् । (१७) सं० १३७८ वर्षे भाद्रपद शुदि २ द्वितीयायां देपालपुरस्थानात् तुगलकगा.........तो ढिल्ल्यां नसरदीनं हत्वा ग्यासदीन पातसाहिर्जातः । वर्ष ४ राज्यं कृतम् । लषणावती नगरात्समागतः सुरत्राणः पुत्रेण महमूंदेन तुगलाबाद.........मध्ये कूटयत्रप्रयोगेण मारितः। (१८) ततः सं० १३८० वर्षे आषाढशुदि २ द्वितीयायां महमूदपातसाहिर्जातः। वर्ष २७ राज्यं कृतम् । बालराजा जात......। (१९) ततः संवत् १४०७ वर्षे श्रीपातसाहि पेरोजनामाजनि । . 25 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे. (P.) सञ्ज्ञकसङ्ग्रहस्य अन्तिमोल्लेखः । सिरिवत्थुपालनंदणमंतीसरजयतसिंहभणणत्थं । नागिंदगच्छमंडणउदयप्पहसूरिसीसेणं ॥ जिणभद्देण य विक्कमकालाउ नवइ अहियवारसए । नाणा कहाणपहाणा एस पबंधावली रईआ ॥ -oooooo१४२९ श्रीजिराप० श्रीसावदेवसू० स्खं चरित्रं न वेडितं पश्चात् ढिल्यां ग० स्वमुपायं पश्चात् संवत् १४३० भाद्र० मासे श्रीगिरनारे समभाव० त्वा परलो. जगाम | संवत् १५२८ वर्षे मार्गसिर १४ सोमे श्रीकोरण्टगच्छे श्रीसावदेवसूरीणां शिष्येण मुनिगुणवर्द्धनेन लिपीकृतः। मु० उदयराजयोग्यम् । श्रीः। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पु० प्र० स० 17 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहस्य अकाराद्यनुक्रमेण पद्यानुक्रमणिका For Private Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे पद्यानुक्रमणिका। --con पद्याङ्क पृष्ठाङ्क पद्याङ्क ११८ अस्मिन्नसारसंसारे २०५ २५३ २५१ २० ३७२ ३८२ ९२ ৩৩ २९० १५७ .५९ ५२ १२५ १२८ १२३ ११७ अंधयसुआण कालो ३५२ अंबं तंबच्छीए २८३ अंबड ]हंतु वाणीउ ११९ अंबा तुष्यति न मया ३७१ अकार्षीदनृणामुर्वीम् अगहु म गहि दाहिमआँ २७६ अजाते चित्रलिखिते २८१ अस्थि कहंत किंपि न दीसइ अत्रास्ति खस्ति शस्तः अथैकदा तं निशि दण्डनायकम् १४१ अद्धां अद्धां नयणलां अधिकारात् त्रिभिर्मासैः ४१३ अधीता न कला काचित् २०६ अन्नं प्राणा बलं चान्नम् ३२९ अन्नदानैः पयःपानैः अन्वयेन विनयेन विद्यया २४६ अपमानात् तपोवृद्धिः ३६० अपलपति रहसि अमुष्मै चौराय ३४५ अम्ह एतलइ संतोस ११२ अयमवसरः [ सरस्ते ] अयसाभिओगमणदूमिअस्स २८७ अयि खलु विषमः ३६९ अर्था न सन्ति ४८ अशाकभोजी घृतमत्ति अष्टौ महाङ्गाश्च चतुःशतानि अष्टौ हाटककोटयः असकृन्मूर्खमप्यन्यम् अहं स्मरामि तादात्म्यात् अहलो पत्तावरिओ अहिंसालक्षणो धर्मः अहो लोभस्य साम्राज्यम् आः कण्ठशोषपरिपोष० आकरः सर्वशास्त्राणाम् . आचार्या बहवोऽपि सन्ति आतङ्ककारणमकारण आत्मा नास्ति पुनर्भवोऽस्ति आदौ मयैवायमदीपि नूनम् आपदथै धनं रक्षेत् आपद्गतान् हससि किम् आयाताः कति नैव यान्ति आयान्ति यान्ति च परे आयुर्योवनवित्तेषु आशाराज इहाजनिष्ट आसन्ने रणरंभे आस्तां सुधा किमधुना आस्यं कस्य न वीक्षितम् इक्कु बाणु पहुवीसु जु इक्को वि नमुक्कारो इच्छउ इअरमणोरहाण इतोऽब्धिः परितो मृत्युः इदं ज्योतिर्जालम् इदमन्तरमुपकृतये इयं कटिमत्तगजेन्द्रगामिनी ११६ ३९८ ३१९ ३८९ ३३६ ३२ २४० १९८ २०७ १५३ ११५ ३२६ ११९ १११ ११८ ३३९ ११७ १२० १८ ९६ १७२ २७५ ३०० २८ २१५ २९७ २२५ ३४७ २५४ ३३७ ११८ ५७ गामिनी ..३५ .. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नृपतिसभायाम् उच्चाटने विद्विषताम् उज्जित से लसिहरे उत्क्षिप्य टिट्टिभः पादा उत्तंसकौतुककृते उत्थायोत्थाय बोद्धव्यम् उत्प्लुत्योत्प्लुत्य गतिं कुर्वन् उदयति यदि भानुः उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति उन्मीलन्मणिरश्मिजाल० उपकारसमर्थस्य ७ ३४ ३७३ १९४ ५२ ३२३ २७१ २७७ २८० "" ३३३. उमया सहितो रुद्रः एकं वासः सुरेशैः १९६ एकत्वं भुवनोपकारक इति २१३,२५० एतस्याः कुक्षि कोणे एतावतैव वीसल ! एषु श्रीजयसिंहदेवनृपतिः एहे टीलालेहिं धार न . ओ आलिउ जु होइ 33 कं कं देशमहं न गतः कः कण्ठीरवकण्ठकेसर ० कतिपय दिवस स्थायी कलिकवलनजाग्रत्पाणि० कल्पद्रुमस्तरुरसौ कविषु कामिषु भोगिषु सज्ज का त्वं सुन्दरि ! जल्प कान्ते कान्ते शीघ्रमागच्छ कालिका नट्टा नट्टा काउं करिस मार किं कारणं नु धनपाल ! किं कुर्मः किमुपाळंमेमहि पद्याङ्क ८९ २१२ ३०१ ८८ २०० १६० ११४ १२९ १३३ १८३ ७५, ४०९ ३४० २३३ २१० ३८४ १७ २६८ १७० ६१ १०८ ३६३ २२१ पद्यानुक्रमणिका । पृष्ठाङ्क २९ ७० ९९ ९ १४ १२१ ६४ १८ ११० ८५ ८८ ९० ११६ ६४ ७०, ७४ २९ ६८ ५८ ३५ ५० ५१ ६२ २७, १२७ ११७ ७२ ६९ १२२ १२ ८३ ५९ २२ ३५ ११९ ७१ किं कृतेन यत्र त्वं किं नन्दी किं मुरारिः किं वर्ण्यते कुचद्वन्द्वम् १२० ३८५ ६० २४३ १६८ कियन्मात्रं जलं विप्र ! ३४२ कीर्त्तिः कन्दलितेन्दु ० २२९ कुमुदवनमपश्रि श्रीमदम्भोज ० ४७, ४२६ कृतप्रयत्नानपि नैति ४०४ ९२ केवलिओन भुंइ Shaहुओ विभुं ९३ कोजाइ नरनाह ! कोशं विकाशय कुशेशय ० किमस्तु वस्तुपालस्य किमिह कलिनरेन्द्रम् कचिदुष्णं क्वचिच्छीतम् क्व तरुरेष महावनमध्यगः क्षित्वा वारिनिधिस्तले क्षुत्क्षामः पथिको मदीय० क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः खद्यद्युतिमान गण्डूपदा किमधिरोहति गतप्राया रात्रिः गम्भीरयभर जिरवो गयगय रहगय तुरयगय गया ति गंगह तीर गुरवः परःशतास्ते गाम्भीर्ये जलधिः बलिः गुणचन्द्र जय जनतः गुणाली जन्महेतूनाम् गुरुर्भिषक युगादीशः गोगाकस्य सुतेन गौरी रागवती त्वयि घटकाप्येका घट् चक्किदुगं २ हरिपणगं५ चक्रः पप्रच्छ पान्थम् पद्याङ्क For Private Personal Use Only ४४० १५२ २९६. ३२ १२३ ४९ ३८६ ४१० ३०६ ४३ १७५ २५ १११ १६९ २३७ ८२ १९५ २१७ ९७ १८८ ११८ ३०७ २७३ १३९ पृष्ठाङ्क ४० १२२ २२ ७३ ५९ ११७ ७१ १८, १३१ १२६ २९ २९ १३४ ५७ ९६ १४ ४२ १८ १२२ १२७ १०३ १५ ६१ १४ ३५ ५९ ७२ २८ ६४ ७० ३१ ६३ ३८ १०४ ८५ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे पद्याङ्क फ्याङ्क १९७ २०८ UN ० ८८ ow २७९ ३५० -२८२ २८४ १२ mm १०१ १३० ४५ ३९४ १२८ ५० ४२७ १३१ २०३ २८ २८९ ७२ १४६ चिन्तामणिं न गणयामि चौलुक्यः परमार्हतः च्यारि जोड नीसाण हय च्यारि पाय विचि जइतचंदु चक्कवइ जईय रावणु जाइयउ जयन्ति पादलिप्तस्य जह जह पएसिणि जह सरसे तह सुक्केवि जाकुड्यमात्यसज्जन० जिने वसति चेतसि जिम केतू हरि आजु जीतउं छहि जणेहिं जीणे भोजनमात्रेयः जीवादिशेति पुनरुक्तम् जेसल मोडि म बाह जो जेण सुद्धधम्मंमि झोली तुट्टवी किं न मूड झोली त्रुटी किं न मूयउ झोली ड्रगरबालणि वलिणि व्हाणं कुंकुमकद्दमेहि त एव जाता जगतीह तत्कृतं यन्न केनापि तत्र चित्रचरितः तन्वन्ति डंबरभैरः तव प्रतापज्वलनाजगाल ताण पुरओ य मरीहं ता किं करोमि माए तावच्चिअ गलगजिं तावद् भ्रमन्ति संसारे तावन्नीतिर्विनीतत्वं तिक्खा तरिअ न माणिआ तुह मुंडिए घणेहिं । तेजःपाल! कृपालधुर्यः । १०७ ४०७ तेजःपालोऽनुशास्ति १५४ तेहि विन किं पि त्रिंशद्विमिश्रा त्रिशती चराणाम् २२४ त्रिहि लक्ष तुषार २७८ |. त्वं जानीहि मयास्ति २३६ दंसेमि तं पि ससिणं १२१ ९२ दन्तानां मलमण्डली ९२ दरिद्रान् सृजतो धातुः २७२ दहनेन विनाशितं पुरा १९० दानपात्रमधमर्णम् ४२३ १२४ दामोदरकराघातविह्वली. दारिद्यानलसंतापः दिगम्बरशिरोमणे! ९४ दिग्वासाश्चन्द्रमौलिः २३२ ५५ दीपः स्फूर्जति सज्जकज्जल० २३९ ३५ दीहरफणिंदनाले २८८ १२७ दुःषमाजलधौ येन दुर्योधनः खकुलनाशकरो ३१० .१२९ [ दूसा ]....जम (१) वीर १२७ देव ! दीपोत्सवे रम्ये देव ! द्विजप्रसादेन २६७ १२५ देव ! खर्नाथ ! कष्टं २५६ देवाचार्यबलात् युक्तः देशं खमपि मुञ्चन्ति ४२५ ८० दोमुहय निरक्खर ३७० ११८ धनधान्यादिदातारः धर्मलाभ इति प्रोक्ते ३३५ .धांगा दोसु न वइजला १२६ धाई धोया पाय जेसल ४४१ धिगू रोहणगिरिम् ३, ३३० १२२ ध्यानव्याजमुपेत्य ३१८ न कृतं सुकृतं किञ्चित् नगरे वससि हे बाले २६६ नग्नैर्निरुद्धा तरुणीजनस्य २९ १०४ ४१८ ३०२ ५४ ३९५ ३४६ ૨૮ २६ १३१ २६१ ३४९ ३९२ १ १२० १२४ ११७ ४८ M १२ १२४ ३९३ ३८३ १,११६ २०२ २ ليل Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नग्नो यत्प्रतिभाघर्मात् न नद्यो मद्यवाहिन्यः न पश्यति दिवा घूकः भिक्षा दुर्भिक्षे नमस्यामो देवान् नमानसे माद्यति नमेस्तीर्थकृतस्तीर्थे नमोऽस्तु हरिभद्राय नम्रं शिरः कुरु तुरुष्क नयणिहिं रोसु निवारि नयनविषयं यातश्चाषः न लाभयामो ललनाम् नवजलभरिआ मग्गडा नववासस एहिं नवुतरेहिं न विद्यया केवलया न विद्या धनलाभाय न वीतरागादपरोस्ति नाखानि खानितटतो नादत्ते भसितम् नाभिपङ्कजमङ्कजन्म ० नारीणां विदधाति नास्माकं हृदि दर्पसर्प • नाहं खर्गफलोपभोग ० निअउ अरपूरणमि निजकरनिकर समृद्धया नियउयरपूरणट्ठा नियsयरपूरणासा निरीक्ष्य मन्त्रिन् ! द्विज० निर्नामताम्बुधौ मज्जत् निवपुच्छिण भणिओ निव्वूढपोरिसाणं नीचाः शरीरसौख्यार्थम् नीवारप्रसवाप्रमुष्टिकवलैः नृपव्यापारपापेभ्यः पद्याक ६६. ५९ ४१२ ४६. ४३७ .६४ २९३ ३२० ४०२ १४९ ८४ ९१ ५५ २९९ ४३४ ३२१ ३१५ १०२ १८१ २४४ ४११ ७९ ३६५ ४ ३३८ ३५५ १६३ २११ ११७ २८५ २१ ३२२ ११५ २६०, ४३० पद्यानुक्रमणिका । पृष्ठाङ्क २.५ १९ १२८ १७ १३३ २४ ९६ १०७ १२६ ५६ २८ २९ १९ ९७ १३३ १०८ १०४ ३४ ६१ ७३ १२७ २८ १२० ५ ११७ ११९ ५९ ७० ३८ ९३ १२ ११० ३६ .७८, १३२ नेत्रैर्निरीक्ष्य विषकण्टक ० परं गरुआ गिरनार पक्षपातं परित्यज्य पक्षपातो न मे वीरे पङ्के पङ्कजमुज्झितम् पञ्चाशत् पञ्चवर्षाणि 53 पञ्चाशदादौ किल पडिबोहिअ महिवलओ M पण सरी वासाई पण मुंजु मुणालवइ पयोदपटलच्छन्ने परपत्थणापवन्नं परिओससुंदराई पर्जन्य इव भूतानाम् पल्योपमसहस्रैकम् पश्चाद्दत्तं परैर्दत्तम् 33 पाणिग्रहे पुलकितम् पाणिप्रभापिहित कल्पतरु ० पालित हसु फु पिब खाद च चारुलोचने पुण्डरीकनिवहैर्विराजितम् पुत्रादपि प्रियतमैक ० पुनराप्याय्यते धेनुः पुन्ने वाससहस्से पुरा नागार्जुनो योगी पूर्वं वीरजिनेश्वरे भगवति पूर्वपुण्यविभवव्य य० प्रभाधिनाथैर्मुनिभिः प्रभासमृद्धिरेवैषा प्रभोः श्रीमानतुंगस्य प्राग्वाटवंशाभरणम् प्रीणिताशेषविश्वासु For Private Personal Use Only पद्याङ्क ३१४ १०४ ३०८ ३०९ ४० ३८ ४१४ ४२९ ७० २६९ ४१६ ३९१ ३५६ १८ ३९६ . १६४ १९२ ३२४ ३६८ १७९, २४९ २८६ ५८ १८९ ३८८ ३६१ ३८७ २९२ १२४ ४२४ ६७ ३९० ३९ १४० ३७९ १४१ पृष्ठाङ्क १०४ ३४ १०४ १०४ १५ १५ १२९ १३१ २६ ८३ १२९ १२३ ११९ १२ १२५ ५९ ६३ १११ १२० ६१, ७४ ९३ १९ ६३ १२३ ११९ १२३ ९५ ४२ १३० २६ १२३ १५ ५२ १२१ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ फणिपतिमघवाद्या यत्र बंभ अट्ठ नव बुद्ध बल गरुआ गिरनार बाणे गिर्वाण गोष्ठीम् बापो विद्वान् बापपुत्रो बीजलिआ बीजी वार बृहस्पतिस्तिष्ठतु मन्दबुद्धिः बौद्ध वैष्णवैर्विष्णु भन्माधुकरीं वृत्तिम् भाऊ राहिं काई भीमदेवस्य नृपस्य afai भैम् भूप भ्रूपल्लवप्रान्त • भूभृतां निजगृहेषु भोजराज ! मया ज्ञातम् भोली मूधि म ग करि भ्रातः पाणिनि संवृणु मई नाईउं सिद्धेश मंडी मुरकी रद्द कर मंसासी मज्जरओ मच्चिय अलहतो. मज्जासी मंसरओ मन तंबोल म मागि मद्वैर्निद्रादरिद्रैः कुरुभि० मन्त्रीश ! गुरवस्तुभ्यम् महत्तराया याकिन्या मह वरिस्ठ सा गोलिणि मन गव्वु माणसणा(डा) दस दस मातृमोदकवद् बाला मानं मुञ्च खामिनी मान्धाता स महिपतिः माण्ड कुरुद्वेगम् मार्गे कर्द्दमदुस्त पद्याङ्क १५९ ७२ १०९ २४८ ३४८ १०५ ९० २०१ ३५९ १९३ १३६ ९५ २१४ १३९ ३५८ ४१९ ४२८ १०० १४२ ३०४ १६ ३०३ .१०६ ४४३ १५५ ३१६ १७४ २३ ३७७ ३१३ ४१ ४१५ ३० २०४ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्र पृष्ठाङ्क ५८ २७ ३५ ७४ ११८ ३५ २९ ६८ ११९ ६३ ५१ ३० ७० ५१ ११९ १२९ १३१. ३४ ५२ १०० १२ १०० ३५ १३४ ५८ १०५ ६० १४ १२१ १०४ १५ १२९ १४ ६९ मित्रद्रोही कृतघ्नश्च मिलिते तद्दलयुगे मीनाने प्रहसिते मुंज भइ मिलाइ ० "" मुक्त्वापि पुण्डरीकाक्षम् मुखमुद्रया सहान्ये मुख-भोजमुखाम्भोज ० मुद्गानुद्गतमुद्गरान् कोहेतुर्ज मूर्ख तपखी राजेन्द्र ! मृतो मृत्युर्जरा जीर्णा मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय ० मेरुणा मनुजदुर्लभेन मौलिं मालवनायकः यः सप्ताननसप्तिसोदर ० यत्त्वयोपार्जितं वित्तं थाह यदनस्तमिते सूर्ये यदि विदितचरित्रैः यदि क्रियते कर्म देतच्चन्द्रान्तर्जलद ० ये द्यूतकारस्य यद्भविष्याधिको धीरैः यद्यपि हर्षो यन्मयोपार्जितं वित्तम् यशःपुञ्ज मुञ्ज यशोवीर! लिखत्याख्याम् यस्योर्वीतिलकस्य निर्मल० यादोऽङ्गशोणितकषायित० यावदुच्छ्रवसति प्राणी या श्रीः स्वयं जिनपतेः यूकालिक्ष शतावली : यो में गर्भस्थितस्यापि पद्याङ्क २६४ १५० ४२२ २६ २७ २४५ २२८ २३५ ४४४ १५६ ४३१ ३७६ ३१७ १३८ ४०३ २४२ १३० ४३६ ३४१ २३४ ४३५ ३४४ २०९ ३२८ ४४ २२० २४ १३१ ४४२ ८७ २९८ १७८ ३९७ २७० पृष्ठाङ्क ८१ ५७ १२० १४ १४ ७३ ७१ ७२ १३४ ५८ १३२ १२१ १०६ ५१ १२६ ७३ ५० १३३ ११७ ७२ १३३ ११७ ६९ ११३ १६ ७० १४ ५० १३४ २९ ९६ ६१ १२५ ८४ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रैौष्माकाधिपसन्धिविग्रह० रम्येषु वस्तुषु मनोहरतां रसातलं यातु तवात्र राजस्त्वं राजपुत्रस्य राजा स्वयं हरति माम् राणा सव्वे वाणिया रात्रौ जानुर्दिवा भानुः रामनन्दश शिमौलिवत्सरे रे रे ग्राम कुविन्द रे रे चित्त कथं भ्रातः रे रे वातुललोकाः, लक्षं लक्षं पुनः लक्षम् लक्ष्मि प्रेयसि केयमास्य ० लक्ष्मीं नन्दयता रतिम् लक्ष्मीर्यास्यति गोविन्दे लच्छि वाणि मुहकाणि लब्धाः श्रियः सुखं स्पृष्टं लिखतु लिखतु धाता लिखन्नास्ते भूमिम् लोकं विलोक्य धनधान्य० लोकः पृच्छति मे वार्तां वंशार्द्धार्द्धरस्फुर्त्या वाढीत वढवाण वाहरिके द्विजे वस्तुपालसचिवेन वस्त्रप्रतिष्ठाचार्या वार्द्धमाधवयस्सौधे वाहनौषधिपाथेय ० विघ्नाधिव्याधिसंहत्र विधाय योगनीरोधम् विप्रे प्राहरिके नृपः विभुता- विक्रम-विद्या विमलदण्डपतिर्विमल ० विश्वासप्रतिपन्नानाम् पद्याङ्क ३५१ ४२१ ३६२ २६५ १० ११० ३५४ ९८ २५९ ४०५ १६७ ३४३ १८७ २३० ३६, ४२० ३९९ २१८ १७७ ४२ ३८१ ३७४ २५५ ११३ ३३४ १९१ ६५ ९९ १६६ १३७ २९५ ६ १४८ १४३ २६२ यद्यानुक्रमणिका । पृष्ठाङ्क ११९ १३० ११९ ८१ ११ ३५ ११९ ३१ ७७ १२७ ५९ ११७ ६२ ७१ १५, १२९ १२५ ७० ६१ १५ १२२ १२१ ७६ ३५ ११६ ६३ २५ ३३ ५९ ५१ ९६ ७ ५५ ५३ ८१ विष्णुः समुद्यतगदायुत विस्फारस्फारधन्वा वेला महल्लकल्लोल० वेषः कोपि तुरुष्क० वेसा छंडि वडइति वैधव्यसदृशं दुःखम् वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते वैरोचने रचितवत्यमरेश • व्रजत व्रजत प्राणा शतानि चाष्टादश शत्रुञ्जये जिने दृष्टे शशि दिवाकरयोर्ग्रहपीडनम् शीतत्रा न पटी० शूराः सन्ति सहस्रशः श्रीगर्वोष्मभिरुप्मषु श्री चौलुक्य ! स दक्षिणः श्रीमत्कर्ण परंपरागतभवत् ० श्रीमत्प्राग्वाटवंशे श्रीमानभयदेवोऽपि श्रीवस्तुपाल तव भाल० श्रीवस्तुपाल ! प्रतिपक्षकाल ! श्रीवस्तुपालः श्रियमेष श्रीवस्तुपालस्य पत्नी श्रीविक्रमादित्यनृपस्य श्रीविक्रमादित्यनृपात् श्रीशत्रुञ्जय - रैवताभिघ ० श्री सिद्धपुरे रम्ये श्रोतव्यः सौगतो धर्मः कार्यमद्य कुर्वीत श्वानचर्मस्थिता गङ्गा श्वेताम्बराः कलितकम्बल useडीयां षंगार चित्तहं सट्टी महं स एष भुवनत्रयप्रथित For Private Personal Use Only ० पद्याङ्क ३१२ ५६ ३७८ ८५ ३१ ३६४ २५७ ५० २२३ १६५ ५१ ३५७ १२२ १७३ १२५ २१६ १४४ २९४ १८६ २४७ २३८ १४५ ३०५ १३५ १५८ ९६ ५७ ३७५ ४३३ ८० १०३ ४१७ ३६७ १४३ पृष्ठाङ्क १०४ १९ १२१ २९ १४ ११ ११९ ७७ १८ ७१ ५९ १८ ११९ ४२ ६० ४३ ७० ५३ ९६ ६२ ७४ ७२ ५४ १०१ ५१ ५८ ३० * १९ १२१ १३२ २८ ३४ १२९ १२० Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहे पद्याङ्क पद्याक पृष्ठाङ्क २५२ २४१ ४३९ १४ १३४ १९९ २२२ २६३ १४७ १८० ६१ ११२ १६२ ५८ ७० १२१ सुवर्ण........ग्रीवामण्डने सूत्रे वृत्तिः कृता दुर्ग० सेजपालकसहस्रचतुष्कं . सेतुं गत्वा समुद्रस्य सोऽयं कुमारदेवी कुक्षि० सौरभ्यमालगुणमाल. वायूद्धकरङ्ककुट्टनरता खस्ति क्षत्रियदेवाय खस्ति श्री भूमिवासात् स्वस्ति श्रीब्रह्मलोकात् खस्ति श्रीमति पत्तने खामिन् समुद्रविजयात्मज खारंभप्रणतशिरसाम् संतः समंतादपि तावकीनम् संसारमृगतृष्णासु सङ्ग्रहैकपरः प्राप सङ्घो वाग्भटदेवेन सत्यं यूपं तपो ह्यग्निः सत्त्वैकतानवृत्तीनाम् सद्यस्तृप्यति भोक्तारम् पृष्ठाङ्क । समुद्र त्वं श्लाघेमहि । सम्पत्तौ नियमः शक्तौ . सयलजणाणंदयरो ८१ सरिसे माणुसजम्मे सा नत्थि कला सिंहशिशुरपि निपतति सीसं कहव न फुटुं सुकृतं न कृतं किञ्चित् ७१ सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि सुखासेव्यं तपो भीम सुन्दरसरि असुरांह ६१ हंसर्लब्धप्रशंसैः १०४ हंहो श्वेतपटाः किमेष हरिहर ! परिहर गर्व १२७ हा कस्स पुरोहं १३३ हारो वेणीदंडो हूणवंशे समुत्पन्ने १२० हृदि वीडोदरे वह्नि ११६ हेम तुहाला कर मरू १११ । हेलानिद्दलियमहेभ० २ ३३१ ३२७ २९१ २१९ ३८० ४३२ १३२ २३१ ७४,४०८ २५८ १२६ २७४ २२७ २२६ ४०१ १७६ ३११ १३४ ४०६ ४३८ १६१ ५० ७२ २७,१२७ ___७६ ५८ ३६६ ३३२ ४०० ३२५ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रहान्तर्गतविशेषनाम्नां सूचिः। *अकाराद्यक्षरानुक्रमेण * १०० ३९, ४०, ६२ अमृतवत्सला अम्बड अम्बा अम्बावीदेवीप्रासाद अम्बिका अम्बुचीच अयोध्या अरिटनेमि) अरिष्टनेमि । अरिष्टनेमिप्रासाद अरिसिंह [राजवैद्य] आडि आत्रेय आदिदेव । आदिनाथ आनाक आभड १०८ ។។។ ५४, ३८ ३३, ४३, ४७, ४८ १२४, १३२ ३६,८२ आभीर १३४ आभू आम अर्जुन ११९ १२४ ३२, ४६, १२६ ३४, ४७ आमड। आम्बद्ध आम्बा आम्बाक आंबासण आम्र आनेश्वर आरासण आहेत आलति १०० १०२ १३५ ओंकार [ नगर] अ अइबुक मल्लिक अग्निक वेताल अग्निपखालउ [पछेवडउ] अङ्केवालिया [ग्राम] ६८,७० भङ्ग [जनपद] अचलेश्वर अच्छोदक [सरोवर] अजमेरीय [ संघ] अजयपाल [राजा] ४७-४९ अजयरा १०२ अजितसिंह सूरि अढारहीउ अणपन्नी अणहिल [राय] अणहिल गोप १२८ अणहिलपुर ५३ अणहिलवाड अणहिल्लपत्तन अणहिल्लपुर १२, ३३ "पुरी ) अणुपमडी (अनुपमा) अनादि राउल [तपखी] मठ ३८ अनुपम देवी ५४, ५७, ६३, ६५, अनुपम सर अनुपमा अन्धय (अन्धक) अभय ४२ " कुमार ६, ३३, ९५ अभयदेव सूरि ४३, ९५, ९६, ११२ अभिनवार्जुन अभिनव राम अमर [ पण्डित, कवि] अमृतमयी पु०प्र० स० 19 ३०, ३१ आलि १२३ १२५ अर्बुदगिरि १३, ५१, ५२, ६३, ६५, ६५,७०, ८४, ८५ अर्बुदचैत्य अलवि अलवेसरी अलावदीन [सुरताण] अवन्तिदेश ११६ अवन्ती [ नगरी] १४ अवन्तीसुकुमाल अवलोकनशिखर अशोकचन्द्र अशोकवनिका अश्वपति अश्वराज अश्विनीकुमार अश्वेश्वर अष्टकवृत्ति [प्रन्थ] १०५ अष्टादशशती [ देश] अष्टापद [पर्वत] ४२, ९३ असणिदेवी १०२ अहम्मद आ आकाशयान [ विद्या] आकृष्टिविद्या ४७, ७५ भाकेवालीय [ग्राम] ७८ १०३ आलिग [ कुम्भकार] आलिग [प्रधान] आलिग [पुरोहित] आवश्यक [ग्रन्थ] आशराज आशाराज आशापल्ली आशी [ नगर] आषाढ [श्रावक ] आसपाल आसराज आसराज-प्रबंध आसराजवसही आसापल्ली आहडग्राम ८४ ११८ ३३,६१ ५२-५४, १०२ । आल्ह १०२ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह ho इन्द्रजाल विद्या ४४ cho ईश्वरसूरि २४ b १२ २२ १४ उज्जयन्त ४२, ९८ उज्जयिनी १, २, १२, २३, ३१, ३८, ९७ उर्जित सेल उजिलसिहर। उत्तरमथुरा उत्तररामचरित्रगान उदयचन्द्र १२५ उदयन ३२, ३४, ४२, ४३, १२३, १२४, १२६ उदयप्रभ । ६४, ७६० उदयप्पह । उदयराज १३६ उदयसिंह उदयसीह । १०२ उपदेशमाला [ग्रन्थ ] १०६ उपदेशमाला-वृत्ति १०७ उमा १०, ११६ उमापतिधर - उरंगल [पत्तन] १४, ४४ कान्यकुब्ज ८८, १०३, १२८ कान्हड देव [ नडला] कान्हाक कामन्दकीनीति १२५ कामल कामला कामिकतीर्थ ८४ कालदण्ड १०९ कालिका [देवी] कालिकाचार्य ११, १२ कालिङ्गीयक ४६ कालिदास १०,७४, ११६ काली देवी ११६ काशी ६, १०३ काश्मीर कासगृह ) कासद्रा [ग्राम] १२८ कासहद ) काह्नडदेव १०२ किराडू २३ १०२ कुङ्कण कुण्ड(ण्डि)गेश्वरप्रासाद ३८,१२३ कुन्ती २६ १३६ १३५ कटक [नगर] कडी [ग्राम] कण्टेश्वरी [देवी] ४१, ४२ कण्ठाभरण [व्याकरण] १३१ कदुबदीन [पातसाहि] १३५ कन्यकुब्ज १२, ९८ कपर्दि [मंत्री] कपर्दि [यक्ष] ४८,६४,६६,७०,१०१ कपर्दिबारिका १८. कपर्दियक्षप्रासाद ६४ कपिल ९४, १०४ कपिलकोट कपूरी २४ कमलकेदारा [ वापी] कमलादित्य कमलादेवी ९८ कयलोषरी [ग्राम] करणउन (कर्णपुत्र) ३५ करडाक करम्बकविहार १२५ कर्णउत्त (त्र) २३, ३४, ३५, १३४ कर्ण [चौलुक्यवंशीय] ९६, १२३ कर्ण [डाहलदेशीय ] २३, १२६, १३१ कर्णदेव कर्णवारी कर्णाट २७ कर्णाटेश १४ कर्णावती २७, २८, १२६ कर्मसिंह कर्पूरदेवी कस्तुरी २४ कस्मीर कलिङ्ग १२६, १३४ कल्याणकटक १०७, १२८ कांऊ कांथडिक [ तापस] १२८ काकरग्राम १२, १२८ १३ कीतू कुबेर १११ १२२ २७, १२६ उदा ।(उदयन) अदाका जदावसही ऊपरमालपर्वत ऊपरवट [अश्व] ऊमादे कुमर (कुमारपाल) १२३ कुमरविहार कुमरिक (कुमारपाल) ३८,३७ कुमारदेव (कुमारपाल) ३४ कुमारदेवी ३७, ३८, ३९, ४१,४४४७, ५२, ५३, ५५,५८, ६५, १२३ कुमारदेवीसर कुमारपाल कुमारसंभव [काव्य] १०, ११६ कुमुद [पण्डित ] कुमुदचन्द्र २७-३०, १२० कुम्भीपुर कुमरड (कुमारपाल) - ४७ १३४ ऋषभदेव ऋषभप्रासाद ऋषभबिम्ब २४ ओ काकू ओजेनिनदी ओढरजाति ११४ . १३१ कइंबास [मंत्री] कच्छदेश कच्छेश्वर १९,२१ कातन्त्र [व्याकारण] कादिक कानडा [राग] कान्ति कान्ती | कान्तीपुरी) ८६, ८७ ११५ कुलचन्द २५, ३० २४, ९१,९५ । कृष्ण कहाडि ९३, १४, १०८ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णदेव के केदार केदारयात्रा केरुदण कैलाशहास कोका मठिक कोडीनार कोणाग्राम कोरण्टक [ प्राम ] कोरण्टगच्छ कोरिक कोलिक कोशला कोण कौन्तेय क्षिति [र] क्षीरोदवापी संगार [प] खंडेराय [स] खरतर खर्पर नी खापरका खेड [ महास्थान ] गंगा [न] गंगाधर 'गज्जणपुर गणपति [ व्यास ] ख गगनगामिनी [ विद्या ] गगनटि [नायक ] गया गर्जनक गांगल गांगाक गाङ्गेयकुमार गद्य भारत गन्धर्वसर्वस्व गन्धर्वसेन गन्धवह [ श्मशान ] राणा [ इन्द्रजालिक ] ४५ ५०, १०२ ६५ १०१ २२ १३५ ९७ ५१ १०७ १३६ १०९, ११२ १८० ९, ९२ ४६ १११ ९७ २४ ग ७, ८, ३५, ६६, ९३ २६ ९५ ૪ १३५ ८० ३२, ९८ ७४ ११५ ६ १३५ ५ ८२, १३० ७८ २४ १ ५ ३६ ३५ ८६,८९ २९ ३६ २० गाजणपति गाडर गिरनार विरिनार विशेषनाम्नां सूचिः । गूर्जरत्रा गूजरात गूर्जरी गोऊ गुणचन्द्र गुणवर्द्धन गुणाकरसूरि गूढमहाकालप्रासाद गूर्जर गोगा गोगाक गोगामठ गोदावरी गोईयाक गोधा गोप्रियक गोपगरि गोपालपुर गोमण्डल ४७ ४९ ३५, ३८, ५१, ५८ १३६ २६, २८ १३६ १६ १० १२, २१, २७, २९, ५०, ६९, ७९, ११८, १२६, १२८ १९, २३, २५, २८, ५० ३५ ७९ गोला (गोदावरी) गोविन्द गोविन्द [ चाचरीयाक ] गोविन्दाचार्य गीड [ देश ] १९९६, गडवथ [काव्य ] गौरी गौर घूघलमण्डलिक घृतवसतिका ग्यासदन [ पातसाहि ] ग्रथिल - भीमदेव चरी चण्ड चण्डप चण्डप्रसाद १०२ ३० ३१ ५० ११, १३, १४, २० घ च ४६ ६९ ६१ २०, २६ ९८ ९८ २० १५, १२९ ७८ ११८ १२९, १३२ ११२ १२९ २१ १३५ ४९ ६९ ७५ ७० १२ ५३ ५३, ५५ चण्डिकास्तुति चतुर्भुज चन्दनबाला चन्दनवसही 'चन्दना चन्दनचरित चन्दबलदिभ चन्दबलिद चन्दकि चन्दोमाणा [माम ] चन्द्रज्योत्स्ना चन्दप्रभ चन्दप्रभादितीर्थ चन्द्रावती चपलदे चाङ्गदेव चाचरीयाक चाचिग पाचगदेव चाणूरमल्ल चान्दण चान्द्र चापोत्कट चामुण्ड चामुण्डराज चामुण्डा चारण चारुकीर्ति चारूपग्राम चालुक्य चाहड चाहमान चाहिणी चाहिल चित्रकवली चित्रकूट चिजाद चीच चैत्रच्छ चौलुक्य छाडा [ ठकुर] चिचिप १४७ १६ ८७ २६ छ ५० २४ ७५ ८६ ८६, ८८ ८६ ६८ २४, २५ ४३, ६१, ८३ ४३. ५२ ४३ १२३, १२४ ७६ १२३, १२४ ६७, १०२ १६ १०२ १३१ १२, १२८ ११, ११० २३, ३४, ३५, ४७, १२५ १५ ९५ ५६ ३२, १२६ ८६, १०१ - १२३ ५२ ८२ २६, ३८, ४४, १०३, १०४ १०३ १०८ १२ ६९ ४३ ३७, ४३, ६१, ६९, ७४, १२७ ३०, ४५ २० Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ छिपिका छेकभारत जइचन्द जतचन्द जलदेवी जगड जगडू जगड़क जगदेव जयकेशी जयचन्द जयतलदेवी जयतसिंह जया जलदीन [सुरत्राण ] जल्दु [ कई ] } [ हस्ती ] जसपडह जसवीर जाकुदि जाङ्गल जाम्ब जाम्बड [ वर्ग ] जाम्बाक जावड जावड ६९ जयमङ्गलमूरि १३६ ५० ३१, ४४ जयसिंघ सिद्धराय जयसिंह | सिद्धराज २३, २५, ३४ } ३७, ४५, ४७, ५८, १३४ १०७ ५०, १३५ ८८ ३५ ५०, ५१ ३४ जावालिपुर जावालिपुरी जासिल जिनभड़ जिनदादाफ ज जितशत्रु जिन चन्द्रसूरि जिनदस जिनदीक्षा जिनदेवी जिनधर्म जिनविस्व ८० २९ ८८ ८८ ५४ ૪૨ ८० ૮. २५, ८५ २९, ३६, १३३ ८६, ९० १२६ १६१ ३१ १२ ९९ ९९, १०२ ३२, ४९, ५० ६७ ३१ १३६ ११५ ११३ ३१, ४३ ७८, १०७ ९१ २६ १०, ९४ ९१ जिनभद्रसूरि जिनभुवन जिनमत जिनवल्लभसूरि जिनशासन जिनसिंहसूर जिनेश्वर रि जिराप- (सी) जीन्दराज जीर्णदुर्ग जेठेवा पुरातनप्रबन्धसङ्घद्द जेसल ( जयसिंह ) जेसल जैत्र जैत्रचन्द्र जैन जैनप्रासाद जैनवाचक जैनव्यम्वर झींझरीयाग्राम डीम्वाणाग्राम टंकपर्यंत माणी [ग्राम ] डाक [ प्राम ] डामर [ सान्धिविग्रहिक ] डाल [ देश ] [री] दिल्ली तक्षशिला वरंगला तरंगमाला }[ 색 तारणगढ तारणदुर्ग ) तारणदुर्गप्रासाद 5 त [कथा] तारादेवी तिलकमअरी [कथा] ] तिलंग [ देश ] तिहुअणपाल १०३, १०५ ५१ १६ ४३ १६, ७० २३, १०६ ९५ १३६ १०२ ६० ७८ २३, ३५, १३४ ३५ ४४ ८४, ८९ ६८, ८३, १०५ २४, ६५ ५९ ५१ ६५ ९९ ६५ ६५ २१, २३ १२६, १३१ ९१, ९२ ९३ ७०, १३५, १३६ १०७ ९४ ९.४ ४८ ४७ ४७ ८७, १०५ १२० १२९ રૂઢ तिहुभगसिंह ) तिहुअणसीह } ;} तुगलाबाद तुगलकगाबाद तुरक तुरष्क तुरुष्क तेजपाल तेजपुर तेजल (तेजःपाल) सेजलपुर तेजूका तैपदेव त्रिपुर त्रिभुवनपाल त्रिभुवनसिंह धारापदीपमासाद त्रिभुवन स्वामिनी त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितभण्डार थ दत्त दन्तकश्रेष्ठि दरिद्रनर १३५ ८७ १,८६ ४९, ५०, ९०, १२६ ५२-५७, ६१, ६६-७१, ७३, ७५, ११२ ७० ६६, ६७ ६०, ६५ दलती दक्षमणी दक्षिणक्षिति [ देश ] दक्षिणमधुरा दक्षिणापथ दशरथ दशार्णमण्डप दशास्य दाउदपुर दान्ताक दामोदर दाहिमा दिगम्बर दिगम्बर चैत्य दुर्गसिंह दुर्योधन द ३२ ३२ ५४ १४, २१, १२९ १०४ ३७, ४४, १२३ ५४ ** - ७७ ** १३५ २८ १२६ ११: १९, १२९ १७, १०५ २ २ ५८ ૪ १२८ १३५ ११६ १६ ८६ १८, २६-२९, ७१ ९८ १५ ६७ १०४ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नां सूचिः। १४९ १०२ ४९ धवलक[पुर] धवलक्क । धवलक्कका , धवलका ) , ५४, ५५ ६१, ६७ २६, २७, ३२, ३३, ६३, ६६, ७५, ९५, ३१,७० २३ धवलार्जुन धांगा, धांगाक धामदेव धारा [नगरी] ९२ ३१ १४, १७, १९, २०, २१, २३, २६, ३५, ४४, ५१,५२, ९५, ९८, ११९, १३१ ७९ ७० नागड ४९, ५०, ६७,६८, ७७,८० नागपुर २६, ६६, ९९ नागपुरीय नागर नागराज ३३, ४३ नागलदेवी नागहस्ति नागार्जुन ९१, ९३-९५ नागिंद १३६ नाटसारि [राग] नानाक [कवि] नानामलिक नामलदेवी नायक नारायण निघणशर्मा निर्वाणकलिका [प्रन्थ] निहाणा [प्राम] नीत [ठक्कर] नीलपट [संप्रदाय] नेमि [नाथ, जिन ] ३१, ३४, ४३ ५३, ६५, ६९, ८४, ९१, १३५ दुर्लभराज दुसाज दुसाजुत्र देपाक देपालपुर १३५ देमतराज्ञी १३१ देमता देवगिरि देवचन्द्र ८३, १०७, १२३, १२६ देवदत्त १११, ११२ देवधर ८८ देवपत्तन ३८,४३,५४,६१,१०० देवप्रभ [ सूरि] देवल [महं०] देवशर्मा देवशाखा [रागिणी] देवसूरि । २५-३१, १०७, १२७ देवाचार्य २७,२८, ३१,४३, ४४ देवाचार्यपौषधागार देवादित्य ८२, १३० देवेन्द्रसूरि दोधकपञ्चशती द्वात्रिंशतिका [प्रन्थ ] द्वारभट्ट ४६, ७९ द्वारवती द्वारिका द्वैपायन ११२, १३२, १३३ १५ धाराक धारागिरि धारागिरिवाटिका धारिणी [ विद्या] धारिणी [ श्रेष्ठिनी] धारू धृतराष्ट्र W६ ११८ नगरपुराण नट्टनारायण १३१ ४७ ७९ नकुल [पुर] १०७ १०१ ९२, ९७ ८१, ८२ नेमिचैत्य नेमिप्रासाद नेमिमन्दिर नेह(ढ) नोडा सईद १०८ १२२ ५४, ९५ ९२ ११९, १२० नड्डुला(कान्हडदेव) नन्द नन्दिवर्धन नन्दिवर्द्धनपर्वत नन्दी नन्दीश्वरप्रासाद नमि नमिविद्याधरान्वय नयसार [भ] नरचन्द्र सूरि नरदेव नरपति नरवर्मदेव नरवा नरवाहन नरसमुद्र [पत्तन] नल नसरदीन नसरदीनसाही नांदउद्दी धनदेव धनदेवी धनपति धनपाल धनासी [राग] धन्ध धन्धुक्क धन्धू परमार धन्याधार [ देश] धरणिग धरणीश्वर धरणेन्द्र धर्मसूरि धवल [मंत्री] १०२ पंचम [राग] पंचाल [देश] पंचासर [ग्राम ] १२, १२८ पंपा [ सरोवर] पखाउज पणपन्नी १०० पत्तन [अणहिलपुर] २१, २३, २५, २८-३३, ३५, ३६, ३८-४०, ४३-४५, ४७-५०, ५४, ५५, ५७, ६२, ६५, ६६, ६८,७५, - ७९,८०,८९,९५,९६, १२३, ___१२६, १३२ २० ४०, ११, ९७, १०९ २८, २९ १२२ १३५ १३५ पद्मलदेवी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह बडू 4 ११५ १३५ पनाकर पुलकेशी पमानन्द [काव्य, ग्रंथ] पुष्करिणी पबंधावली पुष्कलावतीविजय परकायप्रवेशविद्या पुष्पाभरण परमहंस १०६ पुष्फचूला परमर्दी ९. पूनड [साधु] परमार वंश] १२, २३, २५, ४३, पूर्णचन्द्र ४४, १२८ परिमल पृथिवीस्थान [पत्तन] 'पल्यपुर पृथ्वीराज ८६, ८९, १३५ पल्लीग्राम पेटलाउद्र पहुविराय, पहुवीस (पृथ्वीराज) पेथू २५ पाटलिपुत्र पेथूहर २५ पारलिपुर । [पत्तन ] पेरोज पाणिनि १३१ पोतनपुर १०८ पाण्डव १०८ प्रतापमल्ल ३८, ३९, ४३, १२३ पातसाहि ८३, ८७, १३५ प्रतापसिंह पाताक ८२ प्रतिष्ठानपत्तन पादलिप्त(प्तकपुर) ६३, ९१ प्रतिष्ठानपुर ९४, ११६ पादलिप्त सूरि ९१-९४ प्रतिमाणा पाद्रदेवता प्रथिमराज पापक्षय [ हार] ४०, ४१ प्रद्योतनसूरि १०७ पारस [श्राद्ध ] प्रफुल्ल [श्रेष्ठी] ९२ पाराचि [भूमि] प्रभास [तीर्थ ] ६१, ६५, ११२, १२३ पारूथक प्रश्नप्रकाश [प्रन्थ] प्रल्हादनपुर पार्वती प्राकृत [भाषा] ६, ९२, ११२ पार्श्व [नाथ, जिन ] ६८,८३, ९१, ९६, प्राग्वाट [वंश] २६, ४३, ५२, ५३, १०७ ६२, ६८,१०१ पार्श्वचन्द्र प्राचीमाधव पार्श्वतीर्थ प्रियंगुमारी पार्श्वनाथचैत्य ६०,९५ प्रियमलेक [ तीर्थ ] पार्श्वनाथप्रतिमा . प्रेमलदेवी पार्श्वनाथबिम्ब पार्श्वमूर्ति पालित्तय [ सूरि] फणिपति पालीवाणक पासिल [श्रावक] फलवर्द्धिका ग्राम पाहिणी पिप्पलाचार्य पुंडरीक ६६, ७० पुण्डरीकिणी [ नगरी] बउली पुण्यसार बकुलादेवी १२३ २९ । बङ्गालदेश बडूया [चाचरीयाक] बनास नदी ब(ध?)न्धुराज बप्पभट्टसूरि ९८,९९ बर्बर [वेताल] १, १३४ बर्बरक २३ बलि [राजा] ८२, ९७, १०२ बहडाइच १३५ बहुरूपिणी [ विद्या] ब्रह्मक्षत्रिय ब्रह्मा बाकरी [वेश्या ] बाण [कवि] बापड [राजपुत्र] बालचन्द्र बालधवला बालभारत बालहंससूरि बावन बाहडदेव ३२, ३९,४०,४६, १२३, १२४, १२६ बाहुक [ शल्यहस्त ] बाहुडदेव बाहुलोडपुर १३३ बीजलिआ बुद्धि [योगिनी] बुद्धिसागरसूरि बृहद्गच्छ २६, १०३ बृहस्पति २९९२ बोटिक ४१ बोसरिक। बोसरी । बोहित्थ [वंश] ६८,८३, ९८, १०५, १०६, १३० ब्रह्मदेवकुल २४ भ . भक्तामरस्तव भट्टमात्र १,५,७, ११६ भद्रबाहु भद्रेश्वर भयहरस्तव २८ ९४ पारूथा [ दम्म ] २१ ३२ फत् १६ ८८ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नां सूचिः। १५१ ५४ १०२ ११, ९२ ८१ ५३, ५४ २३-२५ मघव मड्डाहडपुर मण्डनगणि मतोडातीर्थ मथुरा मदन मदनपाल मदनब्रह्म मदनायतन मद् [देश] मधुमती मधुसूदन मनोरमा मम्माणनगर मम्माणाकर मम्माणी [खनि ] मयण मयणल(ल्ल)देवी १३२ ९९-१०१ ९२ ७१ भरत [राजा, चक्री] .. ४२, ५८ भव (शिव) १३२ भवानी (पार्वती) भाऊ भाण्डागारिक भानुमती भारती १९,८१-८३ भारत, छेक गद्य - बाल - (महाभारत) १११ भावड भिल्लमाल १८, १३१ भीम २१, २३, ५४, ६५, ११८, १२१, १२३, १३२ भीमगान्धिक ११४ भीमडाक भीमदेव ५१, ५२, ९५ भीमप्री[य]द्राम ३३, ३४, ६५ भुण्डपर्वत भुवनपाल भुवनपालेश्वरप्रासाद भूणपाल भूण्डपर्वत भूयराज १२८ भृगुकच्छ २६,४०, ७५ भृगृपुर ४०, ५६, ६२, ६५, . १०१ १०१ २८, ३५, ३६, १३३, १३४ १५, १६ ११ १२६ महिणल्ल पट्टिलक महिरावण महिषपुर महीधर महुआ महेश्वर मांगू १३३ माइंदेव माऊ २५, ५४ माऊहर मागध माघ [कवि] १७, ७४, १०५, १३०, १३१ माघकाव्य १७ माणिकउ [पछेडउ] ४० माणिक्य २७, २८, ३३, माणिक्यसूरि ५०, ६४, ७६ माधव ३२, ३३, माधवदेव २४, २५ माधवपंडित २४, २५ मानखे(षे)टपुर ९३, ९४ मानतुङ्ग सूरि १५, १६, १२१ मानदेव सूरि १०७ मानस [ सरोवर] मारव मालदे मारुक । ३२, ५० मारुयक ४८, ११३ मालव १७, २०, २३, २४, ३१, ३५, ४४, ६५, १०२, ११९, १२३, १२६, १२८, १३१ मालवक १०, २१, ९६ मालवपति मालवमण्डल मालवराज्य मालवा मालवेश माल्हणादेवी माहिन्द माहेच माहेश्वरप्रासाद माहेश्वरी मिणालवई ८२ ३२, ८४ १२७ ५१ १३५ मयणसाहार मयूर [कवि] मरहट्ठदेश मरु [भूमि] मरुदेवी मरुमण्डल मरुस्थली मलधार [गच्छ] मलयपर्वत मलिककूबडी मलिका मल्लदेव मल्लवादि [सूरि] मल्लिक मल्लिकार्जुन महणक महणका महमद महमूंद महापल्लि महाभारत महाविदेह महाराष्ट्रीय महावीर भैरव [राग] भैरवानन्द [ योगी] भोगवती भोगावह भोगीन्द्र भोज [ नृप] १४, १७-२३, ५१, ७१ ७२, ९६, ११७, ११९, १२१, १२२, १२९-१३१ भोजस्वामिप्रासाद भोपलदे भोपला . ५४, ६५, ९० ८३, ९६, १३० ५० ३९, ४०, ४६, ४७ १३ १२८ ४३ १३५ १२४ ६९, ११४ मंडलीनगरी मकडाणा मगध १२६ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह २४ ७८ M रुद्दाइच (रुद्रादित्य) रुद्र [शिव] ११६ रुद्रमहाकाल रुद्रादित्य [मंत्री] १३, ४४, १२८ रूपवती १३० रैवत [ गिरि, तीर्थ ] ३४,४७, ५२, ५३, ६०, ६५, ६९, ८२, १३२ रैवतक [पर्वत] ३४, ४३, ६१, ९३, ९४, ९५, ९८, १२६, १३२ रैवतकपद्या १२६ रैवततलहट्टिका रोदिक (रुद्रादित्य) रोहणगिरि, रोहणाचल १, ११६ १८० मुरारि ११७ १३५ ९१ १२२ ८४, ८० मुञ्ज [नृप] १३, १५-७२, याकिनी [साध्वी] १२८, १२९ याज्ञवल्क्य ११९ मुणालवई १२९ युगादिदेव ४३, ६६, ८३, १०० मुगल १३४ युगादिदेवप्रासाद २३, ५२ मुद्गलबंदी युगादिदेवभाण्डागार २४ मुद्गलपातसाहि युगादिफलही मुनिचन्द्र युधिष्ठिर १२९, १३२ मुनिसुव्रत [देव] युगंधराचार्य मुनिसुव्रतचैत्य यूकावसही १२५ मुनिसुव्रतप्रासाद योगशास्त्र १२५ मुरंडनरपति योगिनीपुर ८६,८७, ८९ १२२ मुहडासा [प्राम] १२३ रंक [ वणिक्] १,८२, ८३ मुहुयानगर रघुपति मून्धउर रणसिंह मूलराज १३, ७७, १२८ रति १२० मृणालवती १४, १२९ रतिरमण (कामदेव) मेघ [राग] रत्नपुञ्ज मेडतकपुर १३ मेद [जाति] १०१, १०२ रत्नप्रभ १२७ मेदपाट ४४, १०२ रत्नशेखर मेरी मेरु रसीयाक । मेलगपुर राजपुत्रवाटक मेवाड राउल ५०, ५१ मेहता [प्राम] राजविडम्बननाटक २१, २२ मोगा राजविहार मोजदीन [ सुरत्राण ] ६६, ७०, १३५ राजशेखर ११९ मोढकुल १२३ राजस्थापनाचार्य [ बिरुद] मोढेरपुर राजिल राजीमती ८० राम (रामचन्द्र) ८,९,२६,४७-४९, यक्षदेवकुल ११५ यक्षनाग रामकथा यमुना [नदी] ९२, १३५ रामदेव ११२ यवनव्यंतर रामराज्य यशःपटह [ हस्ती] रामशेन [ग्राम] यशश्चन्द्र १२३ रामायण यशोधन रायविड्डार [ बिरुद] यशोधर रायविहार यशोभद्र ७५, ११५ रावण १०९, ११५, ११८ यशोराज राष्ट्रकूटीय यशोवर्मा ६, २३, २४, ३५, १०९ रासिल्लसूरि यशोवीर ४९-५३, ६७, ७०,७१ । रुक्मदीन १३५ रसीअउपयोगी ८५ ६७ ११३ लंका लक्ष्मण लक्ष्मी लक्ष्मीधर लख[मणसेन लखणावतीपुरी ८४, ८८ लघु वाग्भट ललितविस्तरा [वृत्ति] १०६, १०७ ललिता ललि(ल)तादेवी ५४, ६३, ६५ लवणप्रसाद ५४, ६५ लवणसमुद्र लवदोसिक लषणावती १३५ लहर [ ठकुर] लाखण १०१, १०२ लाछलदेवी ३३ लाट [देश] ३२,६८,९३, १३४ लाडदेश लाषाक लाहउर १३५ लीलादेवी लीलावती लीलू लुखाई लूणपसा । लूणप्रसाद लूणसीह लूणिग و १३ س س ه س ११२ ہر ___७९ ५२, ५४ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवसही लोलियाणक लोहहिक } [ इम्म ] य जलिया वङ्गेश्वर वचनवत्सला वज्रस्वामी वज्राकर वटकूपपुर वटपद्रपुर वडीवारदेश वयाग्राम वढवाण वत्थुपाल (वस्तुपाल ) वमाण ( वर्द्धमान) वनराज वयजू वयजूका वररुचि वराहमिहिर वर्द्धमानपुर वर्द्धमानसूरि बलभी [पुर] बलही वल्लभराज वल्लभा वसंत [ राग ] वसन्तपुर वसाह वस्तुपाल वापथ [ तीर्थ ] यांका [आम] वाक्पतिराज वाग्भट [ मंत्री ] Sarrr [वैद्य ] वाघराग्राम वाचस्पति ५२, १५ ११४ पु० प्र० स० 20 ५० ६५ ૪. १२६ २४ ९९, १०१ १ ૬૪ ** १२८ ७६ ३५ १३६ ९९ १२, १२८ ३१ ५४ ८१ ९०, ९१ ६७ ६८, ८३, ९५, ११९ ८२, ८३ ८३ १०२ २४ ७९ ११३ ३३, ४३, ४४, ४७, ४८, ६१, ८० ५२-५५, ५७, ५९, ६१-६४, ६६-७५, ७७, ७८, ८० ६० ३१ ११२ ३२, ४०, ४२, ४३, ५८, ९७ ९६, ९७ ३२ ७२ विशेषनाम्नां सूचिः । वाणारसी वादी देवसूरि वामणी वामदेव वामन वामनखली वामराशि वायदज्ञातीय वायडपुर वाराणसी वाराही संहिता बालही वालीनाह वासुकि वासुपूज्य चैत्य विक्रम (विक्रम) विक्कमकाल विकमराय विक्रम १३६ ८३ १२३ ४, ६, १०, ११६, ११७ विक्रमसेन ५, ८ विक्रमादित्य १, ३, ९,५१,१०१, ११८ विक्रमार्क ४-७ विखि विजयचन्द्र विजयब्रह्म विजयसेन विजया विदुर विद्याधर [ मंत्री ] विचारवाच्छ विद्यानन्द विद्यापुर विनम विभीषण विमल [ मंत्री ] विमलचन्द्र विमलवसति १५, २०, ६५ ३० २४ ७५ ९७ ६२, ६८, ११४ १२५ ૩૮ ३२ ८६, ८८-९०, १०७ ९० विमलयसहि विमलादि विमानविभ्रम ११४ ५२ ९१ २७ विराट [ देश ] विवेकवृहस्पति [ बिरुद ] विश्वमल्ल ४२ .. ९५ ५५, ६४, ७५ १०७ १०८ ८८, ९०, १२२ ९२ ११२ ६७ ५८ १३४ ५१-५३ .२६ ५१ ५२ ६३, ९४, ९८ २४ १३४ २८, २९ ६६ विष्णु टीकम वीकमभो" बीघरा वीर [जिन ] वीरणाग वीरप्रतिमा वीरदेव वीरधवल वीरम वीरमति बीज (वीरधवल) वीराचार्य बीलू वीसल बीसलदेव वीसलिक वृद्धसरस्वती वृषभ [ जिन ] बेणीकृपाण [ बिरुद ] वेदगर्भ वैदिक वैष्णव व्याघ्रपल्ली व्यास व्यासविद्या शंकर शंख शक शावतारतीर्थ शङ्केश्वर [ ग्राम ] शङ्खेश्वरपार्श्वनाथ शत्रुयलटिका शत्रुञ्जयमाहात्म्य शत्रु अययात्रा सम्भलीश शम्भु १५३ ६९, १०४ १०२ १०२ ३२, ४२, १४, १०४ २६ ८३ ३२, १०७ ५४-५६, ६५-६७, ६९, ७८ ५४, ६५-६७ १२८ ३ श ५७ ૪૨ २४ ६६-६८, ११४ ५०, ६८, ७७-८० ९४, ११६, १२० ५६, ५७, ७४ ८७ १२० ६९ ६८ (संडेराज ) ५६ शत्रुक्षय [ तीर्थ] ३२, ४१, ४३, ५९, ६१.६४-६६, ६०, ७५, ८३, ९१,९३, ९९-१०१ १२६, १२७, १३० १३२ ७४ ५८ ७५ .६६ २० ६९ ७८ ११६. १९ ટ ५४ ७४, ७८, ८० ૮. १०३ १०४, १२९ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पुरातनप्रबन्धसङ्घहे २६ १०७ १०७ १२० १ २६ ८२ १०३ ३६ م शाकसैन्य साङ्गण-चामुण्डराज शाकंभरी [पुरी] ३१, ८६, ८७,१०१ घ(ख) गार साङ्गण [डोडिआक] शाकटायन [व्याकरण] - १३१ पं(ख)भराग्राम १३५ साजण (सज्जन)[मंत्री] शाक्यसिंह षड्दर्शनमाता [बिरुद] सातवाहन ११, ९१ शातवाहन ९४, १३० षोसरुषानु (खुशरुखान) १३५ सातूक [महं०] शान्तिकलश सान्तू [मंत्री] ३१, ३५, १०७, शान्तिनाथ १३३. १३४ सईभरी (शाकंभरी) शान्तिस्तव साभ्रमती सइंवाडीघाट शारदा [देवी] सामंतसीह १०२ सईद [ नोडा] शासनदेवी सामाचारी [ग्रन्थ] संखराज साम्ब शिलादित्य संखेश्वर शिव १०, १९, ४८, ६८ सारंगदेव ११२ संग्रामराजा शिवपत्तन संमेत [गिरि, तीर्थ] सारस्वतमंत्र शिवपुर सालाहण संयोगसिद्धि [शिप्रा] ४०,४१, ४७ शिवभूति सावदेवसूरि १३६ संस्कृत [भाषा] शिवमार्ग १२४ सगर [चक्रवर्ती ] साहबदीन [पातसाहि ] ८७, ८९, १३५ शिवशासन सजन [कुलाल] साहारण २७ २८ शिशुपावलध [ काव्य] १७ सिंधरा सज्जन [ दण्डनायक] ३४, ४९, १३१ १०२ शीलगुणसूरि १२, १२८ सिंह सज्जन [ साकरीयाक] शुभंकर १०५ सण्डेरगच्छ सिंहणदेव शृङ्गारकोडि (साडी) ४०, ४६ सण्डेराज (खण्डेराज)[शंखलु] ५६ सिद्धराज [जयसिंह] २३-२५,२८,३०, सत्यपुर ३४-३६, ३८, ३९, ४७, शोभन [मुनि] ११९ सपादलक्षग्रन्थ (महाभारत) ८५, १०५, १२३, १२५, शोभनदेव [सूत्रधार] समरसिंह ४९ १२७, १३१-१३४ श्री [ कन्या ] समरसीह १०२ सिद्धचक्रवर्ती २८, २९ श्रीदेवी १२, १२८ समराक सिद्धनाथ २३, २५ श्रीधर ४२ समरादित्य सिद्धपाल [कवि] श्रीपर्वत ६, ६५, ११६ समरादित्यचरित १०५ सिद्धपुर ३०, ४४, ४५ श्रीपाल [कवि] ४२, ४३ समसदीन [पातसाहि] १३५ सिद्धर्षि श्रीपुंजराज ५१, ८४, ८५ समुद्र विजय ६१, ८१ सिद्धसारस्वत श्रीप्रभसूरि १०७ सरस्वती [देवी] १०, २६, २७, ४३, सिद्धसेन सूरि ३८, ११७ श्रीमाता ५१, ५२,८४-८६ ११२, १२०, १२९ सिद्धसेन दिवाकर १० श्रीमाल [पुर] १७, १८, ३२, ३४, सरस्वती [नदी] सिद्धहेम [व्याकरण] ४२,४९,८३,१०५, सरस्वतीकण्ठाभरण प्रासाद सिद्धि [योगिनी] १०६, १२६, १३० सरस्वतीकुटुम्ब सिन्धलु श्रीमालज्ञातीय सर्वदेवाचार्य सिन्धु श्रीराग सहस्रकला २४, ४९ सिन्धुल १३, १५ श्रीहर्ष [कवि] १२८ सहस्रकिरण [ ताडक] ४०,४१, ४७ सिराणा [ग्राम] श्रेणिक [राजा] ४२ सहस्रलिङ्ग [ सरोवर] सींधण श्वेतपट २७, २९ सहावदीन [पातसाहि] १३५ श्वेताम्बर १५, २७, २८, १०१, साइंदेव सीतादेवी १०१ १०५, १२७, १३० साऊ - २४, ५४ सीतारामप्रबन्ध श्वेताम्बरीय २७, ९८ । सागर [द्विज] २६,९७ | सीधाक १०५ शैव १२८ १३१ r ११८ १०७ १२६ ६७ सीता Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम्नां सूचिः। सीन्धल १२८ सीमंधर [खामी, जिन ] २६, ६९, ९५, ११४ सेरिसक [तीर्थ ] ४७,४८ सीमंधरप्रासाद सीलण सुंदर सर सुंसुमार सुगति सोम सुधर्मस्वामी सुधानिधि वापी सुन्दरिसरित् सुभट सुभद्रा सुमतिप्रभ [गणी] सुमाया सुमित्र सुमेसर (सोमेश्वर) सुरत्राण ३१ ८६ ५१,६६,८६ सेडी [नदी] स्तम्भनग्राम सेडूयक [हस्ती] स्थूलभद्रचरित ४७ स्वर्गारोहणप्रासाद सेरीसकताथ ११४ स्वर्णगिरि सेषर स्वर्णगिरिदुर्ग सेहर सोनल ३४, ३५ सोपारक ५३, ५५, ९८ हंसगति सोमचन्द्र हंस विश्रामवापी सोमनाथ [महादेव] हजयात्रा सोमनाथयात्रा हम्मीरी सोमभट्ट ९७, ९८, हरदेव [ चाचरीयाक] सोमभद्र हरपालदेव १२३ सोमेश १३३ हरिचन्द्र सोमेश्वर [महादेव ] ३५, ३६, ३८, ४७, हरिभद्र सूरि १०३-१०५, १०७ ६१, ६९, ७२, ७८, हरिसिद्धि [ देवी] ८६, ९८, ११२, हरिहर १२९, १३०, १३२ हर्ष [राजा] सोमेश्वरदेव [कवि] हस्तिकल्पपुर सोमेश्वरयात्रा ८२, १३२ हांसी सोरठी [राग] हारीज सोलू १२६ हिंदुक सोहगा हिमाद्रि सोहालक [ग्राम] हिमालय , सोही १०२ १३४ सौगत [मत] १९, ८३, १२०, १३० हुणवंश सौभाग्यदेव हेमचन्द्र [सूरि] ३७, ४२, ४३, सौरमन्त्र १२६, १२८ सौराष्ट्र हेमडसेवड १२५ सौराष्ट्रिक हेमप्रभ सूरि स्तम्भतीर्थ ४४, ५४, ५५, ६४, हेमव्याकरण १३१, ६५, ७३, ७४, ९८, हेमचन्द्र सूरि ३७, ३८, ४४, ४६, ११२, १२३ ४९, ५८, १२३, स्तम्भन (स्तम्भतीर्थ ?) १२४, १३२ | स्तम्भनकाचार्य १८ - हेमाचार्य ३३, ४४, ४५, ४७ सुरपति १२२ सुराष्ट्रा ३४, ५८, ६३, ९३, ९७, ९८,१२४, १२५, १३१ सुललित ११८ सुवर्णनर सुवर्णगिरि १०२ सुवर्णपुरुष सुवर्णसिद्धि सुव्रता सुवताचार्य सुशीला सुहादेवी सुहागदेवी ४८, ४९,८८,८९,९. सुह्म १३४ सूमेसर (सोमेश्वर) सूर्यशतक सेडउ [हस्ती] सेडिका Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ [[विरुद्ध] अगस्त्य अग्नि [राजा ] अग्निवेताल अच्छोद [ सरोवर] अजयदेव | अजयपाल अजितनाथ [जिन] अहिल [नारूयाद] अहिलपुर [पत्तन] } [चालुक्य ] प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थान्तर्गतविशेषनाम्नां सूचिः । ॥ अकाराद्यक्षरानुक्रमेण ॥ अनादिभूपति [ तपखी ] अनुपम देवी ( अनुपमा अनुपमासर अन्धय [ अन्धक ] अ] [देश ] अभयदेव [सूरि] अभिनन्द [कवि] अम्बा after } अयोध्या अरिष्टनेमिप्रासाद अहम्ती अर्जुन अर्जुनदेव [ मालवभूपति ] अर्णोराज [ शाकम्भरीश ] भष्ट [देश ] अर्बुद [नाग] अर्बुद गिरि अर्बुद तलहट्टिका अ] [देव] अहंन्दी [ग्रन्थविशेष ] अलका [नगरी] अवन्ति [ नगरी ] ३० ६९, ७६ ६२ २, ३, ३२ ६३ १३, १५, १७, ३२, ४७, ६०, ७४, ७७, ७८, ८१, ८६, ०७११९२११६ ९६, ९७ अवन्ति [देश ] अन्तिम [मुनि ] अश्विनी कुमार अष्टापद [ पर्वत ] अष्टापद-प्रासाद उदयन-चैत्य उदयन - विहार उदयप्रभदेव ११४ आकृष्टि विद्या आकेवालीया [ग्राम ] ९६ | गडदेव १०५ | उदयमति [राज्ञी ] उदा [ उदयन ] १५ आगडेश्वर १३ १५ उपासकदशा [ सूत्र ] नाक (अर्णोराज) [सपादलक्षीय] ७६,७९ ९४, ९८ ६९-७० आनाक [व्याप्ररीय ] आमद [वसाद] आभीर [द] आम [ नृपति ] आम्बड } [मंत्री ] आभ्रभट आर्हत [ दर्शन, मत ] १०७, १२० १०२ | आलिंग [ प्रधान ] आ ६४ 'उवसग्गहर' [ स्तोत्र ] ९२ १२३ १८. १०३-५ ५६, ८०, ८१ ८६-८८, ९७ १०० २८ आलिग [ कुलाल ] ४२ ७७, ८० ३१ | आलिग (मिग ? ) [ पुरोहित] ६० (टि० ), ८२ ७९,९१ ૪૮ १०१ ९८ १०१ ५५ कण्ठाभरण [ व्याकरण ] ५५ कन्यादुर्ग ११४ ७१ आलूषा [राधार] १०९ १२३ आवश्यकवदनानियुक्ति [ग्रंथ] १३ शराज [मंत्री] आशराज-बिहार आशा [मिल] २८ ३१, ५५ आशापही ९७ १ उत्तराध्ययन सूत्र] ७ (टि०) उदयचन्द्र [पण्डित ] १२२ 978 १०१ आशाम्बर [ दिगम्बर ] आसविली [ग्राम] इ ७६ ૮૩ ११० ८०, ९७, १०१ २१ ६३ ३९ १३ उज्जयन्त प्रासाद २, ३, २५, ४१, उज्जयिनी [ नगरी ] ५०, १०६, १२१ उझा [ग्राम ] ६६ ९० उदयन [मंत्री] ५६, ७७, ७९, ८१, ८३, ८४, ८६, ८७, ९७ ८८ ५६ ६९ ५४, ५५ उ उमा उमापतिधर उर्वशी ऋषभ [ जिन ] ऋषभनाथ- प्रासाद ऋषभपञ्चाशिका [स्तुति ] एकपद [ क्षेत्रपाल ] ए १८.१९, ९५ १९ १०० १३, १५ .६१ १६ ११, १२, ३१, १२३ ८ इन्द्र [ पति ] कम्ड (कृष्ण) कपर्द [ मंत्री ] ६२ कप (क्ष) कपिलकोट [ दुर्ग ] करणउत्तु ( कर्णपुत्र = करणोत ) [ सिद्धराज ] ८७, ८८, ९०, ९६ १००, १२४ १९ ९५ [नगरी] जयन्त [पर्यंत तीर्थं] ६५, १३, १००, ५८ ९१ १०१ करम्यक-विहार ६५ कर्ण [पुराणकालीन ] १३, ५५, १०३, ११५ कर्मदेव डालीय] ४९-५२०९, ९२ ८, १३ ७१, ७२ | कर्णदेव [ चालुक्यवंशीय] ५४-५६, ७७ क १६, कच्छ [देश ] कच्छप [लक्षराज ] कटेलीया [ पाषाणविशेष ] कण्डेश्वरी-प्रासाद ५६ ९९ ४ ११२, १२३ ९० ११९ ६ (टि०) ६२ ६२ sa १२३ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कर्णमे [प्रासाद] कर्णसागर [तदाग] ५५, ७०, ७१ ५५ कर्णाट [देश ] ३१,५४, ६६, ७४, ९५ कर्णादेश कर्णावती कर्णाङ्गज [ सिद्धराज ] कर्णेश्वर कर्पूर (कवि) कर्मप्रकृति [ मत्यविशेष ] कवि [नदी] कल्पज्ञान] [दखी] कालज्ञ (विरुद] कलिक [देश] कल्याणकटक कल्याणत्रयचेत्य कविबान्धव [. बिरुद ] कंकूलोल कंस काकर [आम] काफल [पण्डित] काकुचीर्य काकू काकूयाक } [ वणिक् ] कात [ व्याकरण ] कात्यायिनी कानीन [ मुनि ] कान्ती [ पुरी ] काम्यक [सापस ] कान्हडदेव कान्हू [ व्यवहारी ] कापिल [ दर्शन ] २५ ५५, ५६, ६६, ८३ कामन्दकीय [नीतिशास्त्र ] कामलता कामिततीर्थ कालभैरवीय कालमेघ कालिका [देवी ] कालिदास [कवि] कालिन्दी [नदी] शहद [ नगर ] काशि [ नगरी ] काश्मीर [देश ] कीर (देश) ७८ ११४, ११५ ३५ ५६, ५९ | कुमरनरिन्द (नरेन्द्र ) [ कुमारपाल ] ८, ७८ ५५ कुमारदेवी ९८ ५० कुमारदेवीसर १०१ ३७ कुमारपाल ८० ३१ ११ १०१ ९० १८ १९५ १२, १३ ૬૮ २७ १०७, १०८ ६१ २३ ४२ ७९ १०१ १२ १२८ १२६ कुमारबिहार [प्रासाद] ८९, ९१, ९२, ९६ कुमारसम्भव [काव्य ] ५ १३, १११, १२० १८ ७८ ९० ६३ प्रबन्धचिन्तामणिविशेषनामसूचिः । ८८ १८ कीर्तिराज कुण [ देश ] कुडङ्गेश्वर-प्रासाद कुन्तल मण्डल कुबेर १३, ५०, ७४, ८९, ११३ ६० (टि०) कुमुदचन्द्र [पण्डित, वादी ] कुरुकुखा देवी कुलचन्द्र [पण्डित] कुसुमपुर कृष्ण केशव कैलास ७६-७९, ८१, ८६-९०, ९२, ९४, ९५,९७, कोरबा [देवी ] कोपकालानल [ षिरुद ] कोल्लापुर कोलूया [ गूर्जराश्ववार ] कोशल [ देश ] कोश (g) कोटकी [सीलग] कौरवेश्वर क्षपणक क्षेमराज [देश] ख संगार [आभीरराणक] खण्डशति [व्य ] ६० (टि० ) खेडा [ महास्थान ] ११० १२३ ४ ३, ४, ५, १०२ ७५ २१ १८ ८० ग गगनगामिनी [विद्या ] गहा [नदी] गाय गाडर [ अरघट्ट] गाथाकोश [गाथासप्तशतीग्रंथ ] गिरिनगर गिरिवार ९५ | गुडजातीय [सुभट ] ६६-६६ ६८ ३२ ३१ ३१, ८०, ८८, ९५, ११८ ११६ ७३ ૪૮ ९६ १३ ११४ १४, १५ ५४, ७६ ४१ ७४, १०४, ११३ गुणचन्द्र [ विद्वान् ] गूढ महाकाल-प्रासाद गुर्जर 95 33 १० १२२ ६५ १०२ 33 دو ८ १ ८५ ५५ गौरी 93 33 गोवर्द्वन [राजा] ११२ गोविन्द ११६ गोविन्दाचार्य गौड [देश ] गौडदेशीय गोपाल देश परिवी नाथ नृपति मण्डल गुर्जराचीवर गुर्जरेश्वर गोदावरी [ नदी ] गोलानई ( गोदावरी नदी ) चरटराज्य १०६ चाङ्गदेव चाचिग ११९ | चाचिणेश्वर प्रासाद १ ७ (टि० ) १३, ३१, ४८, ६२, ९५. ४६. १२, १४, १६, २१, २०, ३१, ३९, ४५, ४६, ५१, ५८, ६६, ९४, ९७ १२, २५, ७४ ७८ २० ૬૨ ७२. १६, ५४ ९, २२ २४ १११ ९, २५ २८ २२, ७६, ११२ ७० १०२, १२३ [ती] चण्डिका चण्डिका-प्रासाद चन्दनाचार्य चन्दनाथ देव चन्द्रप्रभ [जिन ] चन्द्रप्रभबिम्ब चन्द्रसूरि चन्द्रलेखा [राज्ञी ] चन्द्रावती [ नगरी ] चम्पा [नगरी ] १३ ९७ चापोरकट वंश चाणक्य चन्द्र [व्याकरण] 39 33 च ७९ ૧૮ ४४, ६० (टि० ) ४९ २० १०१ १०८ १०९ १ १२० १०१ चामुण्डराज [चापोत्कट] [ चालुक्यवंशीय ] [राष्ट्रकूटान्ययी ] चामुण्डा [गोत्रजादेवी) १३ १४ ૨ ८३ २० ६७ ६१ १२, १५, १६ १५ १९, २० ९८ ८३ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरण [जाति ] चाह [उदयमपुत्र, राजपरह] चाह [सचिव ] चाडकुमार चहुमान [ वंश ] चित्र चित्रसिद्धि [विद्या] चित्रकूटपट्टिका चिन्तामणि (गणेश) चूडामणि प्रन्थ (अर्हन्तश्री ) चेदि [देश ] चोड [देश ] चौलुक्य [ वंश ] चौलुक्यचक्रवर्ती छत्रशिला छाला [ग्राम ] छिप [कवि] जम्बूद्वीप जयकेशी [ राजा ] ज उणानई [ यमुनानदी ] जगपण [ बिरुद ] जगदेव जयचन्द्र जयदेवी जयदेव [ पण्डित ] 33 जयदेव - भवन जाम्ब [ मंत्री ] जामदय जालन्धर [ देश ] जाबालिपुर ५८, ९२, ९३ | जिनधर्म ९४ ९८ ७९ १०२ ९९ १०८ ८० १२१ ३९ २१ छ [ जयसिंह, सिद्धराज ] जाह्नवी जिन जिनदन्तरि प्रबन्धचिन्तामणिविशेषनामसूचिः । ९३ ६९ ४० ११ २० ११४, ११५, ११६ ६६ ५४, ७४ 33 गरि [जयसिंह ] २१,१११] [तेजःपालपुत्र ] ६१, ६८, ७३, ७९ – जैन [ दर्शन, धर्म, मत ] ८१, १२६, १२७ २५, ७९०, ८० जिनप्रासाद जिनपूजा जिनबिम्ब जिनशासन जिनेन्द्रव्याकरण जीमूतवाहन जेसल [ जयसिंह, शिवराज ] प्रेमप्रासाद जैन मुनि जैनविचारप्रमथ जयन्त जयन्ती [देवी] जयम [] ६३ जयसिंह [सिद्धराज ] ५५, ६०, ७१, ७६ | तापसी दिक्षा ९५९६ तरङ्गदुर्ग जाङ्गल [ देश ] जाङ्गलक झाला [ ज्ञाति ] झोलिका विहार जैनागम जैनाचार्य जैनालय जोगराज ज्ञानसागर [ मुनि ] १२, १७, १९, ६८, ७८, ९५ १२, १३, ६५ तिलङ्ग [देश ] ९६ [ब] ५८, ६५, ७५ ७५ १०५ ८, १३, ३६, ४४, ६३, ९४, ९७, १०७ २८, ६१, ६२, ६३ १०, ९९, १०७, ११९ तुरुष्क तेजलपुर झ ड ७४, ११३ डामर (दामर) [ सान्धिविग्रहिक ] ९८, १०४ ९६, १०३ ६० डाहल [ देश ] ६० (टि०) ९६ द [पर्यंत ] ५५ ढिल्ली [नगरी ] ९५ १०१ ११४. तेजः पाल ६२, ८१ पिदेव [राजा] १०१ | त्रिपुरी ढ तिलकमञ्जरी [कथा] ३७, ६३ त्रिपुरुष [प्रासाद, १२३ १२४ | त्रिभुवनपाल ९७, १२० त्रिभुवनपालविहार विषष्टिशलाकापुरुवचरित्र त ८२१२४पाद ६० थ १०३ थाह (?) [ वाइड, टिप्पणी ] द १२, १०७, ११८ ३८ १४ १० ३७ ८२ ९३ ३०, २१, २२, २४ ४९, ६४, ९२ ११ ९६ ४१ १७, २२, ३१ ११७ ९७, ११४, ११७, ११८ १०० ९८, ९९, १०३-५ १७, २२, २३, ३१ १३ दक्षिण [देश ]] दक्षिणापथ दण्डक [ राजपुत्र ] दण्डाहि [ देश ? ] दधीचि ऋषि ] दरिद्रपुत्रक धर्मस्थान ] दशरथ दशवेकालिक [ सूत्र ] दससि (दशशिरस, रावण ) दहमुह (दशमुख > दान्ता [ श्रेष्ठी ] दामर [ सान्धिविग्रहिक ] दुर्लभराज दुर्लभसर दूहाविद्या देवाद देमति [ राज्ञी ]' देवचन्द्र [ सूरि ] देवराज [ पट्टकिल ] ९५ देवरि ११९ देवाचार्य }[ यादी ] देवादिस्य धनद धनपति " धनपाल [कवि] धनेश्वर ३ १७, १८, ५३, ६१,८१ द्वारवती [ नगरी ] याश्रय [ महाकाव्य ] ध धरणिग घरणेन्द्र ३०-३२, ३४, ५१, ५२ दिगम्बर (दिग्वासस ) ३२, ६६ ६८, ११४, १२२-१२३ ७७ ८७ ८६, १२८ १२३ ६९ ९५ २२ १५ ५३ १०३, ११५ ५ २४ ३६ २३ २८ ५ २० २० ९२ ६५ ४९ ६० (टि०), ८३, ९३ ९८ ६६, ६७, ६९ ६७, ६९ १०६ १२० ६१ १२३, १२४ १२० ३६-४२ १२० १०५ १२० Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ १०१ प्रियव्रत ६२ ११२ प्रवन्धचिन्तामणिविशेषनामसूचिः । धर्म [वादी] । नेमि [नाथ, जिन] ६५, १२० । पृथु धर्मदेव | नेमिनाथ-प्रासाद पृथ्वीराज [ सपादलक्षीय] ११६, ११७, धर्मवहिका नेमिनाथबिम्ब ११८ धर्मशिला प्रतापदेवी धाता (विधाता) पञ्चग्राम १०४ प्रतिष्ठानपुर धामणउलि [प्राम] १२२ पञ्चासर [प्राम] १२, १३ प्रद्युम्नाचार्य धारा [ नगरी] १३, २०, ३२, ३५, ३६, पञ्चासरचैत्य प्रबन्धचिन्तामणि [ग्रन्थ] १, १२५ ४१,४५, ४८, ५९, ७६, १२१, | पत्तन [अणहिल्लपुर पाटण] १३, १४, १५, प्रबन्धशत [ग्रन्थविशेष] धारा [पणस्त्री] १७, २०, ५३-५५, ५०-६२, प्रभासक्षेत्र ८९,१०१ धारादुर्ग ५८, ५९ ६५, ६६,६९,७७, ८२-८४, प्रवर नगर धारानाथ ८७,८९-९१,९४,९८ प्राकृत [भाषा] धारापति पत्तन-पाटलीपुत्र १०६ धाराश्रेष्ठी प्राकृतसूत्र १२२, १२३ पत्तन-सोमनाथ प्राग्वाट [वंश] धुन्धुक्कक पद्माकर ६० (टि.) धुन्धुका प्रियङ्गमञ्जरी पद्मावती [ देवी] ११४ पम्पा [ सरोवर] नगरमहास्थान परपुरप्रवेशविद्या ६,१०६ नगरपुराण परमईि [नृपति] ९७, ११४-११६ फूलड [ पशुपाल] नन्द [नृपे] १०६, ११८ परमार [वंश] १८,२१,५९,७६ नन्दिवर्धन परमार राजपुत्र ११ बप्पभट्टिसूरि १२३ नन्दी परमार्हत [ बिरुद] बम्बेरानगर नन्दीश्वरावतार [प्रासाद] पराशर [ ऋषि] ६० (टि०), ८२ बर्बर [वेताल] ७३, ७६ नल [ नृपति] पल्लीग्राम १०७ बलि [राजा] ८, १९, ११५ नरवर्मा पाटलीपुत्र [पत्तन] १०६, ११८ बल्लाल [नृपति] नरवाहन [खगार] पाणिनि [व्याकरण] ६१, १२१ बाउलाग्राम नर्मदा पाण्डव बाण [कवि] नयचक्र [ग्रन्थ] पाण्ड्यनृप बारप [सेनापति] नवधण ('न) ६४, ६५ पाताक १०७ बालचन्द्र [पण्डित] नवाझवृत्ति [ग्रन्थ] १०७, १२० पादलिप्तपुर १००, ११९ बाल-मूलराज नहुष [राजा] पापखउ [ हारु] ८१ बाहड (वाग्भट)[मंत्री] नाइकिदेवी पापघट बाहडपुर नागार्जुन [योगी] १९,११९, १२० पारूथक [ द्रम्मविशेष] नाचिराज [कवि] ५४, ५७ बाहुलोड [नगर] पार्थकथा नाडोल [प्राम] ६० (टि.) बाहुलोडकर नाणाग्राम पार्श्वनाथ [जिन, तीर्थ ] बीज [राजपुत्र] ८७, १२० १५ नाभाग [नृपति] पार्श्वनाथप्रतिमा बुद्ध [ देव] १०७ नाभि [नृपति] ६२, ६३ पार्श्वनाथबिम्ब १२० बृहस्पति [गण्ड] ८४, ८५, ९१ नाभिभू [प्रथमजिन] पालिताणक [स्थान ] १०० बृहस्पतिमत नारय (नारद) पालित्ता (पादलिप्ता०)चार्य बौद्ध [दर्शन, मत] ६३, ६९, १०७ नारायण पावक [पर्वत ] १०० ब्रह्मपुरी नास्तिक [ दर्शन] पाहिणि ८१,८३ ब्रह्म-प्रासाद नीतिशास्त्र पीपलुला [तडाग] ब्रह्मा नीलकण्ठ [महादेव] पुण्यसार १११ ब्राह्म [ दर्शन] नीलकण्ठेश्वर पुष्कर ७६ ब्राह्मी [ देवी, सरखती] १०२ १०० १०७ ११५ पार्वती १३ १३ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामर स्तोत्र भट्टमात्र भट्टारिका भी रूआणी भट्टारिका- योगीश्वरी भद्रबाहु [ सूरि ] भरत [ नृपति ] भरतखण्ड भर्तृहरि भव [शिव) भवानी भागीरथी भारत (महाभारत) भारती भारुयाड [ साखड ] भार्गव मिलमाड भीम, भीमसेन भीम, भीमदेव [ची भूणपाल भ्रूणपालेश्वर प्रासाद २८, ३३, भृगुपुर भैरव भीमदेव [ चौहवय २] भीमडीया ( टिप्पणीत ) भीमेश्वर देव भीआणी [भहारिका] प्रासाद भूपल [ कुमारी ] भूय [ग] डदेव भूय [ग] डेश्वर प्रासाद भूयराज भैरवदेवी भैरवानन्द [ योगी ] भोगपुर भोगीन्द्र भोज, भोजदेव भोजस्वामि-प्रासाद भोयएव (भोजदेव ) भंभेरी [ नगरी ] ४५ १, २, ८ ५३ १४ ११८, ११९ ६२, ६३, ८६, ८७ ६२ १२१ मदनरेखा ६३, १२३ १२३ १२७ १, १०७ ४२, ५०, १०७ १३ ११५ ३६ प्रबन्धचिन्तामणिविशेषनामसूचिः । ११९ १४, १५ १४, १५ ११, १५ ८८, १०२ म (मक्का) तीर्थ मण्डलीकत्रागार [ बिरुद ] मण्डडीनगर मतिसागर मधुरा [पुरी ] मदनपाल मदनराशी मदनशङ्करप्रासाद मध्यदेश मनु मम्माण [ खनी ] २०, ९७ १] २०, २५, ३४, ४५, ४६, ५१-५४, ७७ १७, १८ ३१ ५३ ५३ १०२ १०२ महादेव मल्लदेवी मयूर [ कवि ] मरुदेव मरुदेवि मरुदेश } मरुमण्डल मरुवृद्ध मधारी [विरुद] महवादी [सरि ] मलिकार्जुन मणका महाकाल महाकाल-प्रासाद १२३ ५५ ६ ३१ १०६ २२, २५, २६, २८, ३०, ३१-३६, ३९, ४१, ४३, ४५-४७, ४९-५१, ५२, माणिक्य [ पण्डित ] १०४, १०५, १२१ माणिक पछेवड मानहाचार्य ३४ ४५ मानस [ सरोवर] ९५ मान्धाता [ नृपति ] महानन्द महाभारती कथा म महाराष्ट्र [ देश ] महालक्ष्मी [देवी ] महावीर [जिन ] महावीर चैत्य मही नदी महेश्वर महोदय माघ [कवि पण्डित] माजू [शाला ] माङ्गपण्डिल १०३ ९४ १७ १११ १३ ५५, ५६ ५८ ११८ २० २६.७२ ६२ ८७, १०३ ५४, ५७, ६७, ७४ ४४ ६३ ६२ ६२ ५६, १०७ ९६, १०० ५७ १०७ ८०, ८१, ९५ १२ ८, ४१, ६१ २० (टि०) ६१ ८५ ११८ ४२ ७१ ७३ ६० १०० ४९ ८५ ७६ ३४-३६, १०२ मारव मालदेव ८१ ૪૪ ६३ २२ मालव मालवक मालवपति मालविक मालवी मालवीय मालिम माहेच मिथिला " २०, ५८ ५९. ૪ १०३ १९ १३ मुअ [राज, रुप] २०-२५, २८, ३१, ५० मुञ्जाल [मंत्री ] [महोपाधक] ५४, ५९ ९९ १५. १७ ५६ २३ ६९. .. ३९. मुञ्जलदेव मुञ्जालदेव प्रासाद स्वामी 33 35 मुणाई (मृणालवती ) मुनिदेवाचार्य १०० } [देश, मण्डल] १९–१२, १५, ३२, ४५, ५१, ५८, ५९, ६१, ६२, ७१, ७४, ७६, ७८, ८१, ९५, १२१ ३१, ९७ मूलराज [बाल मूलराज, कुमार मूलराजवस हिका मूलेश्वर प्रासाद मृणालवती मेघनाद मेरुतुङ्गाचार्य मेवाड [देश ] मोठ वंश मोडसहका मुनिसुव्रत [जिन ] मुरारि मूलराज [१] १६-१९,३९,६१,९५ ७२ | म्लेच्छ देश ७२ ६७ " मोढेर पुरावतार [ प्रासाद ] म्लेच्छ 39 मण्डल राजा " यमुना [नदी] यशः पटह [ हस्ती ] यशश्चन्द्र [गणी] ३ ९५ २] य ९६ ५३ १७ १७ २३ १२२ १, ६९ ९५ ૮૨ ૮૨ १०. ७३, ११७, ११८ ७२ १०८. ९७. ११३ ५९ ८२, ८८ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ , ११४ .... Gur 6 6 ainsi alte tikai ki ३९ प्रबन्धचिन्तामणिविशेषनामसूचिः । यशोधवल १२२, १२३ । वस्तुपाल [ महामात्य] ९८, १००, १०२, यशोभद्र [सूरि] रोहक [महामात्य] ___१०३, १०५ यशोराज रोहण, रोहणाचल वाग्भट [मंत्री] यशोवर्मा ५८-६१, ७४, ७६ ९२-९४ यशोवीर १०१, १०२ लंक [गढ] (लङ्का) २३, ५८ , , (लघु, बृहत् ) [वैद्य] १२१ युगादिदेव [जिन] ४५, ६६, ८६, लक्खउ (लाखाक) [वैद्यक ग्रन्थ] १२१ १०५, १०७ १६, १९ वाणारसी [नगरी] २०, ५०, ७४, युधिष्ठिर २२, ८२ लक्षराज , यूका विहार लक्ष्मणसेन. ११२ गदिवेतालीय [बिरुद] योगराज १४, १५ | लक्ष्मी ३५, १०४ वामराशि [विप्र] योगशास्त्र ८६, ९०, ९२, १०८ लक्ष्मीपति १२७ वायटीय [गच्छ ] १०१ योगीश्वरि [भट्टारिका]-प्रासाद लष (ख) णावती [पुरी] ११२ वायटीय जिनायतन लघु भैरवानन्द [योगी] ६० (टि.) वाराही ग्राम रघु [कुल, राजा] ७३, ८६ लघु वाग्भट [वैद्य] १२२ वाराहीय च रङ्क [वणिक्] १०८, १०९ लङ्का [नगरी] १३, ३२, ३९, ६६, ७२ वाराही संहिता [ग्रंथ] रणसिह ११९ लच्छि (लक्ष्मी) ४५ वालाक [देश] रति ४० ललितसर १०० वाल्मीकि [ऋषि] ४२ रतिरमण लवणप्रसाद [राजा] ९४, ९८, १००, वासुकि [नागराज] ११९, १२० रखपरीक्षा अन्य १०३, १०४ वासुदेव रत्नप्रभ [पण्डित] लाखाक [फुल उत्र] - १८, १९ विक्क(क)मकाल १५, १०९ रत्नमाल [पुर] लाछि [छिम्पिका] विक्रम [प] २, ४, ६, ७, ९ रशेखर १०९, ११० लाट [देश] ___३१, ९५ विक्रमार्क १,५,२७,८२,१०६,१२१ रत्नाकर [पण्डित] लाटेश्वर विक्रमादित्य ) विक्रमार्क संवत्सर १३ लीला [ठकुर, राजवैद्य] रखादित्य विग्रहराज राज [राजपुत्र, क्षत्रिय] लीलादेवी राजघरह [बिरुद] विचार चतुर्मुख [बिरुद] लूणिग [मंत्री] १००, राजपितामह [] ___८०,८१ विजयसेन सूरि ९९, १०४ लूणिगवसहि [प्रासाद] राजमदनशङ्कर [,,] विजया [पण्डिता] राजविडम्बन [नाटक] विदिशा [नगरी] राजशेखर [कवि, अकालजलद ] वटपद [ग्राम] विद्याधर [मंत्री] ११३, ११४ राजिराज (1) वडसर , विद्यापति [महाकवि] वढवाण , राम [दाशरथी] १९, २४, ५५, ७३ विनायक [गणपति] वढीयार [देश] १२ रामचन्द्र [कवि, प्रबन्धशतकर्ता] ६३, ६४ विनीता [नगरी] वनराज _१२, १३, १४ विभीषण ५८, ७३ वयजल्लदेव [तपस्विभूपति] रामेश्वर-प्रासाद विमल गिरि वयजलदेव [प्रतीहार] रावण [लङ्कापति] २४, २८ ९७ विमलवसहिका राष्ट्रकूट [वंश] वररुचि [पण्डित]. विमलवाहन ४, ३८, ९० वराहमिहिर [पण्डित] ११८, ११९ विरञ्चि ११६ रुद्रमहाकाल-प्रासाद वर्द्धमानपुर ६४, ८६, १२५ विरहक [वृक्ष विशेष] वर्द्धमानप्रतिमा १०९ विशाला [नगरी] वर्द्धमानसूरि ३६, १०९ विशोपक [देश?] रेवा [नदी] वलभीपुर १०७-९, १२२ | विश्वल वलभीभंग विश्वामित्र ६० (टि.), रैवतक २० विश्वेश्वर rro १५ ६५ १०१ रुद्ध रुद्रादित्य मंत्री] २१, २२, २३ रुदाइच। [मत्रा] रैवत [पर्वत] १०९ ६५, ८७, १०८, | वलभराज Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्णु वीतराग [न्य] वीरवल वीरमती [ आर्या, गणिनी ] वीसलदेव वृद्धवादी [ सूर] वृषभदेव प्रासाद वैदिक [धर्म ] बेरसिंह [अन्य] व्यास [ष] शकटाल [मंत्री ] शकुनिका विहार शावतार [ तीर्थं ] शङ्कर शपुर शची शतानन्दपुर शत्रु [तीर्थ] [पति] [महासाधनिक] शातवाहन [राजा ] शान्तिसूरि ६२,८५ शीलगुणसूरि शीलसुन्दरी ८६, १२८ ९८, १००, १०३-५ शुक्र [ मुनि ] श शाकटायन [ व्याकरण ] शाकम्भरी [ पुरी] शारदा [देवी ] शासनदेवता शिखण्डि शिप्रा [ नदी ] शिवि] [राजा]] शिखादित्य शिव निर्माल्य शिवपत्तन शिवपुराण शिवभक्त शिवभवन पिलिङ्ग शिवा शिशुपालवध [ काव्य ] शीता [पण्डिता ] १२ १०४ (डि०) ६-७ १५ ११९ ८६-८८, १०० ४१ ४, ४० १२३ १०२, १०३ १२३ १०४ ११८ ५७, ६५, ८४, ८६, ८७, ९३, १०३, १०५ ११६ ६१,६८ १६, १७, ७६ ११९, १२० ६६ ४२ १२१ प्रबन्धचिन्तामणिविशेषनामसूचिः । १२, १३ ६६ ९९ ३८ संयोगसिद्धि सिप्रा ५४ साङ्काइ [ गोत्र ] ८१ साखड [ भारुयाड ] ६३ साङ्गण १०१ ३६, ३७, ४२ ४२ १०४ ६३ शैव [ दर्शन ] ४२ | शैवेय [ जिन ] ४२ संवाद [आख्यान ] शुभकेशी शुहारकोटी साडी शोभन [ मुनि, पण्डित ] शोभनचतुवैिशतिका [प्रन्थ ] शोभनदेव [ प्रतीहार ] [ सूत्रधार] " श्रियादेवी श्रीदेवी श्रीपर्वत श्रीपाल [वि] श्रीपुअ [राजा ] श्रीमाता श्रीमान [ पुर, नगर ] श्रीमालवंश श्री (सील) } श्वेताम्बरशासन बेतपर श्वेताम्बर पडसाद प ( [प] ख ) ङ्गार सइद [नौवित्तक] सउंसर ६६, ६८, ६९, ९९ १०० ६७ स } ६ ૬૪ ११० ११० १४, १६, १०९ सगर सज्जन [ दण्डनायक ] सत्यपुरावतार [प्रासाद ] सपादलक्ष [ देश ] सातवाहन कथा साम मंत्री १०१ | सान्त्वस हिका साश्रमती [नदी] सामन्तसिंह १३ १२ सर्वज्ञपुत्र सहस्रलिङ्ग [ सरोवर] १२० ९९ १०६ १०३ १०७, १०८, १०९ ७, १७, ४२, ६३, ९६ ७४ १०९ समुद्र विजय [राजा ] १२० १८, ८५ सरसति [देवी] ४५, ५४ सरस्वती २५, ४२, ६३, ६० (टि०) सहका साइखा [[नृपति] सिंहपुर ५६ | सिंहभट टि० २१ ६७ सिताम्बर सातवाहन [राजा ] सातवाहन [गाथाकोश ] सामल सालाह (शालिवाहन ) ७१ ६५ | सिद्धपुर सिताम्बरदर्शन सिताम्बरशासन सिद्ध चक्रवर्ती सिद्ध नृपति सिद्धर्ता (सिद्धराज ) १०२ सिद्धराज ( जयसिंह ) ८६ ५२ सरस्वती [ नदी ] १८, ६३, ७५, ८९ ११५ सरस्वतीकण्ठाभरण [बिरुद ] सरस्वतीकण्ठाभरण - प्रासाद ३५ सरस्वती कुटुम्ब ४३ सर्वदेव १०० ३९, ४० १०४ २७ ३६ / सुरताण ८० सिद्धसेन [सूरि ] ६५ सिद्धहेम [ व्याकरण ] सिद्धा सिन्धुदेश १०० [सिद्धराज ] १६, १७, ६४, ७६, ७९, ९०, ९१, ९४, ९५, ११६, ११७ सिन्धुपति सिन्धुराज ( सीन्धल ) सिप्रा [नदी ] सिवभवण ( शिवभवन ) सीन्धल (सिन्धुराज ) ७ ५४, ५८, ६१, ६२, ६४, ७४ ८१ ३६ १३ ९८ १० ४४, ४९, ६७, ८२, १०७, १२२, १२३ १०३ ६६ १० १० ५६-५८, ७५ ५७ सी [ कौतुकी ] सुधर्मा [देवसभा ] सुप्रतिष्ठान [ नगर ] सुभगा [ ब्राह्मणी ] ७१ १५, १६ ५९ ११ ९१ १९, २९, ११५ ७१ २१ [जयसिंह, सिद्धराज ] ५५, ५७-६२, ६४-६७, ६९-७७, ७९, ९१ ७, ८ ६०, ६१ ११४ ९१ ६१ ६३ ७५, ७८ ३२ ७६ (टि० ) २१ १२१ ३९ २१, २२ ७४, ९६ ७२ १ १०६ १०३ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२, १०७ १०७ प्रबन्धचिन्तामणिविशेषनामसूचिः । सुराष्ट्रा [देश] ६५, ८६, ९२ | सोमेश्वरयात्रा ५८, ६५, १०८, १२३ / हम्मीर सुवर्णपुरुषसिद्धि [विद्या] ५, ९३, १०८ सोलाक [बइकार] ८० हर ३८-४०,९९ सुव्रत-प्रासाद ८७,८८ सोलाक [मण्डलीकसत्रागार] ५६, ९४ हरिपालदेव सूनलदेवी सोहड [मालवनृपति] हरिभद्र सूरि सूहवदेवी ११३-११४ सौगत [मत] हर्ष [नृपति] सेडउ [हस्ती] सौगतमठ हारीत [ऋषि] सेडी [नदी] १२० सौराष्ट्र [देश, मण्डल] १६, ७६, ९५ हिमालय [पर्वत] सैन्धव [देश] सौराष्ट्र घाट सैन्धवा [देवी] | स्तम्भतीर्थ ६० (टि.), ७७, ९१, १०२ हेमड सेवड सोमनाथ [महादेव] १५, १७, ५७, ८४ स्तम्भनक [प्राम] १०७, १२० हेमचन्द्र सूरि ५७, ५९, ६०,६१, ६४, सोमेश्वर [महादेव] १९,५१,५७,५८, स्थूलिभद्चरित्र ६० (टि.) हेमसूरि ६६,६७-७०,७७,८०७१, ८२, ८५, १०१, १२३ स्मृतिवाक्य | हेमाचार्य J८२, ८४, ८५, ८७,८९, सोमेश्वर [कवि] १०२, १०३, १०५ स्वर्गारोहण-प्रासाद ९२, ९३,९७, १०१, सोमेश्वर [प्रधान] खायम्भु १२७, १२८ सोमेश्वरपत्तन १४, १७, ७४, ९१ हेमनिष्पत्ति [विद्या] सोमेश्वर-प्रासाद . ८४ हनुमान् ३८ । हैहय वंश] हेमखड्ड १८ For Private &Personal use Only . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंघी जैन ग्रन्थ माला // मुद्रितग्रन्थाः॥ 1 प्रबन्धचिन्तामणि [ मेरुतुजाचार्यविरचित] 2 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह [ प्रबन्धचिन्तामणिसम्बद्ध-अनेकानेकपुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह ] 3 प्रबन्धकोश [ राजशेखरसूरिविरचित ] 1 विविधतीर्थकल्प [जिनप्रभसूरिविरचित ] 5 Life of Hemachandracharya [By Dr. G. Buhler ] // सम्प्रति मुद्यमाणग्रन्थाः // 1 प्रबन्धचिन्तामणि-तृतीय भाग [ हिंदी भाषान्तर विवेचनसमन्वित ] | प्रबन्धचिन्तामणिसम्बद्ध-ऐतिह्यसाधनसङ्ग्रह [ शिलालेख, ताम्रपत्र, ग्रन्थप्रशस्ति आदि] 3 प्रबन्धकोश-द्वितीय भाग [ हिंदी भाषान्तरादि] 4 विविधतीर्थकल्प-द्वितीय भाग [ हिंदी भाषान्तरादि] 5 प्रभावकचरित्र [प्रभाचन्द्राचार्यकृत ] मूलभाग तथा हिन्दी भाषान्तरादि 6 पुरातनसमयलिखित जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह 7 जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह 8 जैनशिलालिपिका [ शिलालेख-ताम्रपत्रादिसङ्ग्रह ] 9 देवानन्दाभ्युदयकाव्य [ मेघविजयोपाध्यायविरचित ] 10 कुवलयमाला कहा [ उद्दयोतनसूरिकृता बृहत्कथा ] पत्रव्यवहार भारतीनिवास, नं. 18, संचालक-सिंघी जैन ग्रन्थमाला सिंघीसदन, 48, गरियाहाट रोड, अहमदाबाद (गुजरात) बालीगंज, कलकत्ता अथवा Published by Babu Rajendrasinha Singhi, for Singhi Jaina Jnanap itha, Ballygunge, Calcutta. Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Kolbhat Street, Bombay. For Private & Personal use only