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विक्रमपुत्र - विक्रमसेनसम्बन्धात्मकाः ५ प्रबंधा: -
३५ आद्यपुत्तलिकाप्रबंधः ॥ ३१ ॥
३६ द्वितीय
[॥ ३२ ॥]
॥ ३३ ॥
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३७ तृतीय ३८ तुर्य
॥
३९ विक्रमसम्बन्धे रामराज्यकथा
प्रबंधः ॥ ३५ ॥
४० विश्वासघातकविषये नन्दपुत्रप्रबंधः ॥ ३६ ॥
४१ उदयननृपप्रबंधः ' ॥ ३७ ॥
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३४ ॥
४२ कुमारपालकृतामा रिप्रबंधः ॥ ३८ ॥ ४३ कुमारपालकृततीर्थयात्राप्रबंधः ॥ ३९ ॥
४४ मंत्रिसांतूप्रबंधः ॥ ४० ॥ ४५ सज्जनदंडपतिप्रबंधः ॥ ४१ ॥ ४६ आभडवसाहप्रबंधः ॥ ४२ ॥ ४७ वस्तुपालप्रबंधः';
- वस्तुपालकाव्यानि ॥ ४३ ॥ ४८ न्याये यशोवर्मनृपप्रबंधः ॥ ४४ ॥ ४९ अम्बुचीचनृपप्रबंधः ॥ ४५ ॥
पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह ।
प्रा० २५...१... ५ २५...१...१२
. स०
प्रा०
स०
। प्रा०
। स०
प्रा०
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प्रा०
स०
प्रा०
स०
प्रा०
स०
२५... १...१२ २५...२... १ २५...२... १
२६...१... ४
प्रा० २८...१...१० स० २९...१...११
स० । प्रा० । स०
२६...१... ४
२७...१... ५
प्रा०
स०
२७... १... ५
२७...२... ६
SSTO स० ( प्रा० । स०
२७...२... ६ २८...१...१०
प्रा० २९...२... ७ स० ३०...२...६
प्रा० ३०...२...६
सं० ( प्रा०
३१...१... ४ ३१...१... ४ ३१...१...१५
३१.१.१५ ३२... १... ३
२९...१.११ २९...२... ६
३२...१... ४ ४२...१... ५
2...9... ४२... १... १५ ४२...२... १ ४२... २... ९
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९८४-८५
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६५८
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२१
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३५ ९११५ - ९१४८
९ २३३ ६२३४
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८-९
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४१-४२
४२-४३
३१-३२
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1 यह प्रबन्ध, राजशेखरसूरि रचित प्रबन्धकोशमें उपलब्ध इसी नामके प्रबन्धके साथ [ हमारी आवृत्तिके पृष्ठ ८६-८८, प्रकरणांक §१०३-$१०५] प्रायः शब्दशः मिलता है। संभव है कि प्रबन्धकोशकारने यह प्रबन्ध इसी संग्रह में से नकल कर लिया हो। इस संभवता में वही कारण सूचित किया जा सकता है जो ऊपरकी टिप्पनी नं. २ में उल्लिखित किया गया है । प्रबन्धकोशवाले पाठमें और इस संग्रहवाले पाठ में किंचित् किंचित् ऐसा पाठभेद उपलब्ध होता है, जो मात्र किसी लिपिकर्ताका किया हुआ न हो कर किसी विद्वान् संग्रहकर्ताका किया हुआ प्रतीत होता है। और इसी लिये यह पाठभेद उन पाठभेदोंसे भिन्न है जो प्रबन्धकोशकी अन्यान्य प्रतियोंमें उपलब्ध होते हैं ।
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१०७-०८
१०८
† प्रबन्धकोशमें उपलब्ध होनेसे इस प्रबन्धको हमने प्रस्तुत संग्रहमें पुनर्मुद्रित करना उचित नहीं समझा ।
2 इसका प्रारंभ 'अथ श्रीवस्तुपालप्रबंधो यथाश्रुतः ।' इस वाक्यसे होता है । फिर वह पद्य लिखा है, जो पृष्ट ५३ पर, पांक १४४ के तौर पर मुद्रित है।
साथ,
प्रस्तुत आदर्श पत्र ३४, ३५, ३६, और ३७ अनुपब्ध हैं। लेकिन यह प्रबंध BR. P. और Ps. संग्रहों में भी किंचित् पाठभेदों के और कुछ वर्णन-भेदोंके साथ, उपलब्ध होनेसे त्रुटित भागकी पूर्ति उन संग्रहों परसे कर ली गई है। इसका समाप्तिवाक्य इस प्रकार है'॥ इति श्रीवस्तुपालप्रबंधो गुरुपारंपर्याल्लिखितो न पुनः स्वबुद्ध्या ॥
इस पंक्तिके बाद, वस्तुपालकी प्रशंसावाले वे २४ पद्य लिखे हुए हैं जो पृ० ७१ से ७३ पर, पयांक २२२ से २४६ तक मुद्रित हैं ।
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