________________
प्रास्ताविक वक्तव्य ।
१५
प्रा. स०
४२...२... ९ - - -
४०
१९९-२००
. .
.
.
८६-८७
.
५० पृथ्वीराजप्रबंधः ॥४६॥ ५१-५२ [ विनष्टं ॥४७-४८॥] ५३ नाहडराजप्रबंधः ॥ ४९ ॥ ५४ लाखणराउलप्रबंधः ॥५०॥ ५५-५८ [विनष्ट ॥५१-५४॥] ५९ कुलचंद्रप्रबंधः ॥५५॥ ६० भोजप्रबंधः ॥ ५६ (१)॥
प्रा० - स. १६...१...
प्रा० ४६...१... रेस० - -
० 100I।
६२२५-२७
०१-०२
३१
१८-१९
प्रा० स० प्रा.
५०........ ५०...१...१६ ० ० ०
1 ४३, ४४, और ४५ ये ३ पत्र विलुप्त हैं इस लिये यह प्रबंध इस संग्रहमें अपूर्ण ही है। मुद्रित पृष्ठ ८६ की पंक्ति १२ में कष्ट मुक्तम् । इतः' इस शब्दके साथ, आदर्शका ४२ वां पत्र समाप्त होता है।
2 ऊपरवाली टिप्पनीमें सूचित किये मुताबिक यहां पर आदर्शके ३ पत्र विलुप्त हो जानेसे पृथ्वीराजप्रबन्धके बादके दो और प्रबन्ध संपूर्णतः नष्ट हो गये हैं। वे प्रबन्ध किस विषयके थे इसके ज्ञानका कोई साधन नहीं है।
8 विनष्ट पत्र ४५ में इस प्रबन्धका आदि भाग नष्ट हो जानेसे, और, इस B संग्रहके सिवा अन्य P आदि संग्रहों में इसकी प्राप्ति न होनेसे प्रस्तावित संग्रहके चालू क्रममें इसको स्थान नहीं दिया जा सका । पत्र ४६ में इसकी सिर्फ निम्नोद्धृत शेष पंक्तियां प्राप्त होती हैं।
......व्याहृतम्-भवान् किमपि स्मरसि?। तेनोक्तम्-न । तृतीयवेलायां मृतकेनोत्थाय योगिनः शिरश्छिन्नम । नाहडेन स ज्वालितः। वह्नौ निक्षिप्तः। स्वयं तटस्थे प्रासादे स्थितः। प्रातरवलोकयति, योगी ज्वलितो न वा। तावत्स्वर्णपुरुषं ददर्श । तस्य बलात् क्रमेण राज्यं प्राप। अर्बुदाद्रौ नाहडतटाकं कारयित्वा गर्जनप्रतोल्याः कपाटमादाय तत्र प्रचिक्षिपे । तथा जावालिपुरे राजधानिः कृता। पंडितयक्षदेवस्य मातुलमिति भणित्वा भक्तिं कर्तुं प्रवृत्तः। एकदा क्वापि कटके गतस्तत्र सर्वपरिकरो मारितः। मात्रा शुद्धिमलभमानया पंडितः पृष्टः । भागिनेयस्य सारा न प्राप्यते । पं० उक्तम्-एकाकी वस्त्रं विना मध्यरात्री समेत्य गुफायां स्थास्यति, तत्र चीवराण्यादाय जनःप्रेष्यः। स तत्र स्थितः। तस्य मिलितम् । वस्त्रपरिधानं कृत्वा मध्ये समायातः। मात्रा पंडितेनोक्तं कथितम् । तदनु हृष्टः । एकदा पंडितेनोकम्-वत्स! अस्माकं योग्यं किमपि कीर्तनं कारय । भूमिं दर्शयत । पंडितेन भूमिदर्शिता। तत्र नाहडसरः कारितम् । पुनः पंडितो रुष्टः । चरणयोर्निपत्य राज्ञोक्तम्-अधुना कारयिष्ये । तत्र दर्शितायां भूमौ नाहडवसहीति प्रासादः पं० यक्षदेवनाना कारितः। एवं नमस्कारप्रभावाद् विपद् गता। सुवर्णपुरुषः प्राप्तः । स नाहडराशा जावालिकुंडे निक्षिप्तः॥ इति नाहडराजप्रबंधः॥४९॥
4 मूल आदर्शके ४७, ४८ और ४९ ये ३ पन्ने विलुप्त हैं इसलिये इस प्रबन्धके समाप्ति-सूचक पत्रांकादि नहीं दिये गये। परंतु ४६ ३ पन्नेमें जो इस प्रबन्धका अन्तिम शब्द उपलब्ध है उस परसे यह कहा जा सकता है कि अगले पत्रकी पहली ही पंक्तिमें यह प्रबन्ध समाप्त हो गया होगा। यह अन्तिम शब्द 'जींदराज' है जो मुद्रित पृष्ठ १०२ की पंक्ति २८ में दृष्टिगोचर हो रहा है।
5 ५० वें पन्ने में जो कुलचन्द्र प्रबन्ध उपलब्ध है उसका क्रमांक ५५ दिया हुआ है, इसलिये, ऊपरवाली टिप्पनीमें सूचित किये गये ४७,४८, और ४९ इन ३ विनष्ट पनोंमें ५१ से ५४ तकके ४ प्रबन्ध विलुप्त हो गये हैं।
6 इस ५० वे पन्नेमें जो वर्णन विद्यमान है वह सब भोजप्रबन्ध विषयक ज्ञात होता है और उपर्युक्त कुलचन्द्र नामक प्रबन्ध भी उसीका एक अवान्तर-सा प्रकरण है। मुख्य प्रबन्ध जो भोज नृप विषयक है उसका ३६ वां पद्य, इस ५० वें पत्रकी पहली पंक्तिमें समाप्त होता है । अन्तिम पंक्तिमें जो पद्य पूर्ण होता है उसका क्रमांक ६७ है। इससे यह विदित होता है कि, पिछले विनष्ट ३ पन्नों में से, कमसे कम ४९ वा पत्र तो इसी भोजप्रबन्धके वर्णनसे व्याप्त होगा, और कुछ गद्य पंक्तियोंके साथ १ से ३६ तकके पद्य उसमें होंगे। शेष ४७ और ४८ इन दो पन्नोंमें किस किस विषयके प्रबन्ध थे उसके जाननेका कोई साधन नहीं रहा । इसी तरह यह भोजप्रबन्ध भी कितना बडा होगा, तथा अगले कौनसे पन्नेमें समाप्त हुआ होगा; उसके ज्ञानका भी कोई उपाय नहीं है। क्यों कि ५० के बाद, ७० तकके एक साथ २०, पर्ने अप्राप्य हैं। इन पनोंमें भोजप्रबन्धके अतिरिक्त और भी ३-४ प्रबन्ध विनष्ट हो गये हैं। ७१ वें पत्रमें जो 'सिद्धसेनदिवाकरप्रतिबोधप्रबन्ध' पूर्ण होता है उसका क्रमांक ६० दिया हुआ है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org