________________
पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह।
.
००
०
प्रा. - - - स. ७१...१... ६ प्रा० ७१...१... ७ स० ७२...१...१२ प्रा० ७२...१...१३ स० - - -
६२२९-३०
६२३१
१०३-०५ १०५-०७
६१-६३ [ अनुपलब्ध ॥ ५७-५९॥] ६४ सिद्धसेन दिवाकरप्रतिबोध
प्रबंधः ॥ ६॥ ६५ हरिभद्रसूरिप्रबंधः ॥ ६१॥ ६६ सिद्धर्षिप्रबंधः ॥ ६२॥ ६७ [विनष्ट ॥ ६३ ॥] ६८ श्रीपालकविप्रबंधः ॥ ६४॥ ६९ षड्दर्शनप्रबंधः ॥६५॥ ७० नीलपटवधप्रबंधः ॥६६॥ ७१ देवाचार्यप्रबंधः ॥ ६७॥
६३२
प्रा० - - - स० ७५...१... ९ प्रा० ७५...१... ९ स० ७५...१...१४ प्रा. ७५...१...१४ स. ७५...२... ४
प्रा० ७५...२... ५ रेस० - - -
१६
६५३-६५५
२५-३०
1 उपर्युल्लिखित टिप्पनीमें सूचित किये गये मुताबिक इस प्रबन्धकी सिर्फ ५-६ पंक्तियां ही, विद्यमान पत्र ७१ में, उपलब्ध हैं। इसलिये यह अपूर्ण प्रवन्ध प्रस्तुत संग्रहमें सम्मीलित नहीं किया गया।
2 ७२ के बाद ७३ और ७४ ये दो पत्र विलुप्त हैं इसलिये यह प्रबन्ध अगले पत्रमें किस जगह समाप्त होता है सो अज्ञात है। इस भादर्शके सिवा BR संग्रहमें भी यह प्रबन्ध उपलब्ध होता है इसलिये इसकी शेषपूर्ति वहीं से की गई है। इस प्रतिमें, यह प्रबन्ध, मुद्रित पृष्ठ १०६ की पंक्ति २४ में आये हुए 'निवेदितः' शब्दके साथ खण्डित होता है।
3 विद्यमान ७५ वें पत्र में इस प्रबन्धकी नीचे दी हुई सिर्फ अन्तिम ८ ही पंक्तियां उपलब्ध होती हैं। और सब विशेष भाग पिछले विलुप्त पत्र में विनष्ट हो गया है, इसलिये इस त्रुटित प्रकरणको भी प्रस्तुत संग्रहके चालू क्रममें स्थान नहीं दिया गया।
.............हतीनां तेजस्विवातसव्ये नभसि नयसि यत्प्रांशुपूरप्रतिष्ठाम् । अस्मिन्नुत्थाप्यमाने जननयनपथोपद्रवस्तावदास्तां
सोढुं शक्यं कथं वा वपुषि कलुषतादोष एष त्वयैव ॥४॥ एकचक्षुर्विहीनोऽयं शुक्रोऽपि कविरुच्यते । चक्षुर्द्धयविहीनस्य युक्ता ते कविराजिता ॥५॥ नृपेणोक्तम्-किमपि परं पृच्छयताम् । भगवता समस्यार्पिता-'अन्ध! कियन्ति वियन्ति भवन्ति ।'
'एकमनेकमिदं वियदासीन्मध्यमवाप्य घटप्रभृतीनाम् । तद्वत्तषु घटादिषु नष्टेष्वन्ध ! कियन्ति वियन्ति भवन्ति ॥६॥
पुनरर्पिताबक चट तपसे त्वं शाखिनि क्वापि सान्द्रे
श्रय झटिति तटिन्याष्टिट्टिभस्त्वं तटानि । इह सरसि सरोजच्छन्ननीडे समंता
ललितगतिरिदानी रंस्यते राजहंसः ॥७॥ भगवन्नुत्तारके गत्वा स्थानमार्जारयोरमेध्यं युगलान्वितं सरस्वतीं प्रति होम प्रारेमे । देव्युवाच-रे! मम शरीरे स्फोटकान् किमुत्थापयसि । तेनोक्तम्-मया सप्त भवानाराधिता। षट्सु भवेषु स्तोकस्तोकमायुर्मत्वा सप्तमे बाहुल्यादायुष एवं याचिता 'यदहमजेयो भूयासं, मयाऽत्र पत्तने श्रीदेवाचार्याणांपुरतस्तथा श्रीपालस्य पुरतो हारितम् । देव्याह-मया पत्तनं वर्जितमासीत्, कथं नु त्वमिहायातः। स नृपस्य छन्नं निःसृत्य गतः॥ इति श्रीपालकवेःप्रबन्धः ॥६॥ ___4 प्रस्तुत B संग्रहमें, इस प्रबन्धकी सिर्फ वे ही ६ पंक्तियां विद्यमान हैं जो मुद्रित पृष्ठ २६ की टिप्पनीमें दी गई हैं। आगेका भाग पन्नोंके विनष्ट होजानेसे खण्डित है। यह प्रबन्ध BR संग्रहमें भी, कुछ पाठभेद के साथ, उपलब्ध होता है इसलिये इसकी स्थानपूर्ति, उसी संग्रह परसे की गई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org