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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । ३ इस चित्रके दर्शनका प्रत्यक्ष लाभ हो इसलिये हमने, पन्ने के अतिरिक्त, चित्रकी पूरी नापका भी एक हाफ्टोन ब्लॉक अलग बनवा कर उसकी छबी इसके साथ दे दी है । तदुपरान्त, १ ले, १२ वें और अन्तिम ३० वें पन्नेकी द्वितीय पृष्ठि ( पूंठी ) के चित्र भी हम साथमें दे रहे हैं जिससे इस प्रतिके अक्षर, पंक्ति और लिखावट आदिकी, पाठकोंको प्रत्यक्षवत्, ठीक ठीक कल्पना हो सके । प्रतिके पन्नोंकी लंबाई प्रायः १२ इंच और चौडाई ४३ इंच है । पंक्तियों और अक्षरोंका परिमाण सब पन्नोंमें एक-सा नहीं है । किसी पृष्ठ पर १३ पंक्तियां, किसी पर १४, किसी पर १५ और किसी किसी पर १९-२० तक हैं । अन्तिम पृष्ठपर लिपिकर्ताने जो अपनी परिचायक पंक्ति लिखी है उसे हमने ग्रन्थान्तमें, पृष्ठ १३६ पर, मुद्रित कर दिया है । इस पंक्तिके लेखसे मालूम होता है कि‘संवत् १५२८ वें वर्षके मार्गसिर मासकी १४ - वदि या सुदि सो नहीं लिखा- सोमवार के दिन, कोरण्ट गच्छके सावदेव सूरके शिष्य मुनि गुणवर्धनने, मुनि उदयराजके लिये इसकी प्रतिलिपी की' । लेकिन प्रतिका साद्यन्त अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि यह पूरी प्रति मुनि गुणवर्धनकी लिखी हुई नहीं है । इसकी लिखावट दो तीन तरहकी मालूम दे रही है । प्रथम पत्रसे लेकर १५ वें पत्रके प्रारम्भकी दो पंक्तियों तककी लिखावट किसी दूसरेके हाथकी है - और फिर उसमें भी दो तरहकी कलम मालूम देती है- और उससे आगेकी सब लिखावट मु गुणवर्धन हाथी है । प्रतिका लेख कुछ अव्यवस्थित और अशुद्धप्राय है । कहीं कहीं त्रुटित भी है । कई स्थलों पर लिपिकर्ताने अक्षरों तथा पंक्तियोंकी पूर्तिके लिये'. .' इस प्रकारकी अक्षरशून्य कोरी जगह रख छोडी है । ७ पकी दूसरी पृष्ठि पर तो पूरी ४-५ पंक्तियां ही इस प्रकार खाली रखी हुई हैं। इससे दो बातें सूचित होती हैं - एक तो यह कि यह पूरी प्रति एक साथ और एक हाथसे नहीं लिखी गई; इसका प्रारंभ किसी दूसरेने किया और समापन किसी दूसरेके हाथसे हुआ। दूसरी बात यह है कि इसका मूल आदर्श भी कोई एक ही संग्रह न होकर जुदा जुदा दो तीन संग्रह होने चाहिए । सिवा इसके, मूल आदर्शोंमेंसे कोई प्रति ऐसी भी मालूम देती है जो त्रुटित या खण्डित हो । ऐसा होना यह ज्ञात कराता है कि वह प्रति तालपत्रात्मक होनी चाहिए और उसका कुछ अंश नष्ट-भ्रष्ट और कोई पत्र विलुप्त हो गया होना चाहिए । तालपत्र लिखित पुरातन ग्रन्थों में प्रायः ऐसा होता रहता है । उनके उद्धार स्वरूप, जो पीछेसे कागज पर ग्रन्थ लिखे गये, उनमें ऐसे खण्डित या त्रुटित भागकी सूचना करनेवाले अनेक रिक्त स्थान, जिस उस ग्रन्थमें देखे जाते हैं। इसके उपरान्त, यह प्रति भी बहुत जीर्ण दशाको प्राप्त हो गई है और प्रायः प्रत्येक पन्नेका, बायें ओरका, ऊपरका कुछ हिस्सा, जो या तो आगसे कुछ जल गया हो या पानीसे कुछ सड गया हो, नष्ट हो रहा है । इससे हमको तत्तत् स्थलोंपर कुछ अक्षर या शब्द और भी अधिक छोड देने पडे हैं । पृष्ठ ११.१४.३४.३५.४१.४८.५० आदि पर जो पंक्तियोंके बीच बीचमें '.. . 'ऐसे अक्षरच्युत बिंदुमात्र वाले पंक्त्यंश रखे गये हैं वे इसी बातके सूचक हैं । इस प्रतिका आयुष्य अब बहुत नहीं है । इसके लिखनेमें जो स्याही प्रयुक्त हुई है उसमें क्षारकी मात्रा बहुत अधिक होनेसे वह कागजको पूरी तरह खा गई है । जितनी दफह इसे हाथ लगाया जाता है उतनी ही दफह इसके कागजके टुकडे खिरते जाते हैं और पन्ने टूटते जाते हैं । सिर्फ प्रारम्भके ५-७ पन्ने कुछ ठीक हालत में हैं; पिछले पन्नों की स्थिति उत्तरोत्तर खराब हो रही है । १४. P संग्रहका आन्तर परिचय हम ऊपर लिख आये हैं कि, प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रबन्धों या प्रकरणोंका जो क्रम दिया गया है वह मूल संग्रहोंके क्रममें नहीं है । यहां पर हमने उनको प्र० चिं० के क्रममें मुद्रित किया है । मूल संग्रहोंमें, वे इससे भिन्न रूपमें, आगे पीछे, लिखे हुए हैं। प्रस्तावित संग्रहका क्रम कैसा है, और कौन प्रकरण किस पन्नेमें, कहांसे प्रारंभ होता है और कहां समाप्त होता है, इसका दिग्दर्शन करानेवाली सूची नीचे दी जाती है जिससे संग्रहगत प्रबन्धक्रम, और उसका आन्तरिक परिचय भी, पाठकोंको ठीक ठीक हो जायगा । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002629
Book TitlePuratana Prabandha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1936
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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