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प्रा० एस०
४१-४२
३४
१०...२...१०
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पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह P संज्ञक प्रतिमें लिखित प्रकरणानुक्रम
प्रस्तुत ग्रन्थमें मुद्रित-क्रम प्रबन्धनाम
पत्र.पृष्ठि.पंक्ति
प्रबन्धक
प्रकरणांक पृष्ठांक १ *पादलिप्ताचार्य प्रबन्ध
प्रा० १...२...१
स० ३...१...१४ २ *रत्नश्रावक प्रबन्ध
प्रा० ३...१...१४
स० ५...२... ६ ३ उज्जयन्ततीर्थआत्मकरण प्र०
(प्रा०
६२२१
स० ६...१...१२ ४ मुञ्जराज प्रबन्ध
६.......१२ ७...२...६
५ २२-६२३ १३-१५ ५ अमारिविषये कुमारपाल प्र०
प्रा० .२... ७ स० ८...१... ५
६८३ ६ राणकआंबड प्रबन्ध
प्रा० ८...१... ५ स० ९...२... ७
६८१-८२ ७ रामराज्योपरि कथा
प्रा० ९...२... ७ स७ १०...१... ७
६१२ ८-९ रैवततीर्थोद्धार तथा पाज प्रबन्ध {प्रा० २०....... २२
स० १०...२...१०
२२-२३ ६६२-६६३ १० आरासणसत्कनेमिचैत्य प्र०
स० ११...१... ७ ११ रैवततीर्थ प्रबन्ध
प्रा० ११...१... ७ स० ११...२... ३
६२१९ १२ फलवर्द्धिकातीर्थ प्रबन्ध
प्रा० ११...२...३ स. ११...२... ९
६५७ १३ पृथ्वीराज प्रबन्ध
प्रा० ११...२...१० स. १२...२... ९
४० ६१९९-१२०० ८६-८७ १४ जयचन्द प्रबन्ध
प्रा० १२...२... ९
४१ ६२०२-२०५ ८८-९०
स० १४...१...८ १५ शत्रुञ्जयोद्धार प्रबन्ध
प्रा० १४...१... ८
५० ६२२२-१२२३
स० १५...१...२ १६ मंत्रियशोवीर प्रबन्ध
प्रा० १५...१...३
६१०९-६११० स० १६...१... ७
४९-५१ १७ सातवाहन प्रबन्ध
प्रा० १६...१... ८
स० १६...२... ६ १८ शान्तिस्तव प्रबन्ध
प्रा० १६...२.... स० १७...१...२
६२३२ * ये दोनों प्रबन्ध, राजशेखर सूरिके प्रबन्धकोशमेंके हैं। पिछले प्रबन्धके अन्तमें उल्लेख है कि रत्नश्रावकप्रबन्धो विसर्जिताः (तः?) श्रीराजशेखरसूरिभिर्मलधारिगच्छीयर्विरचितः।' प्रबन्धकोशमें आ जानेसे अर्थात् ही हमने इनको प्रस्तुत ग्रन्थमें स्थान देना अनावश्यक समझा।
इस कथाके बाद, सिद्धराजकी स्तुतिविषयक निम्नलिखित सुप्रसिद्ध श्लोक लिखा हुआ है
महालयो महायात्रा महास्थानं महासरः। यत्कृतं सिद्धराजेन क्रियते तन्न केनचित् ॥१॥
इसके बाद वे दो तीन पंक्तियां लिखी हुई हैं, जो प्रस्तुत संग्रहमें, विक्रमप्रबन्धके १० वें प्रकरणमें हमने (पृष्ठ ५, पंक्ति १९-२३) दी हैं । इसमें प्रारम्भकी पंक्ति 'अन्यदा एकं पण्डितं द्विजं कणावचयं कुर्वाणं विक्रमादित्यः प्राह-।' इस प्रकार है; और दोनों गाथाओंमें कुछ थोडासा पाठ-भेद भी नजर आता है। इस प्रतिमें ये गाथाएं इस प्रकार हैं
निअउअरपूरणम्मि असमत्था किं च तेहिं जाएहिं । सुसमत्था जे न परोवयारिणो तेह(हिं)वि न किंचि ॥१॥ तेह (हिं)वि न किंचि भणिए विक्कमराएण देवदेवेण । दिन्नं मायंगसयं एगा कोडी हिरण्णस्स ॥२॥ ।
* विक्रमके साथ सम्बन्ध रखनेवाले, जितने प्रकरण हमको इन संग्रहोंमें मिले, उन सबको हमने, इस ग्रन्थमें, 'विक्रमप्रबन्ध' ऐसा एक मुख्य शिरोलेख दे कर, उसके अवान्तर प्रकरणों के रूप में सङ्कलित किया है । इसलिये यह 'रामराज्योपरि कथा'वाला प्रस्तुत प्रतिमेंका प्रकरण भी, इस १ संख्यावाले मुख्य प्रबन्धके अन्तर्गत एक प्रकरण-खण्ड है। ऐसा ही आगे भी वस्तुपाल आदिके प्रबन्धमें समझना चाहिए।
इस प्रबन्धके बाद, एक वह श्लोक लिखा हुआ है जिसमें, सिद्धराजने देवसूरिके कथनसे सिद्धपुरमें, एक चतुर्दारवाले जैन मन्दिरके बनवानेका उल्लेख है। प्रस्तुत प्रन्थमें, वह श्लोक (क्रमांक ९६) पृष्ठ ३० पर, मुद्रित है।
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