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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य । ५८-६९ {प्रा० २०........ . . . १०९-११० १९ शत्रुञ्जय माहात्म्य प्रबन्ध प्रा० १७...१...३ ६१२२-६९४८ स० २०...१...१४ - [वस्तुपाल प्रबन्धान्तर्गत उत्तर भागा] २० लूणिगवसही प्रबन्ध प्रा० २०...१...१४ xx स० २०...१...१८ २१ मयूर सर्प प्रबन्ध (प्रा० २०...१...१८ स० २०...२... ५ २२ मंत्रि उदयन प्रबन्ध प्रा० २०...२... ५ स० २१...१... ६ २३ वसाह आभड प्रबन्ध प्रा० २१.......६ २१ ६ ६१ ३३ स० २१...२...२ २४ श्रीमाता प्रबन्ध (प्रा० २१...२...२ __३८ १९६ ८४ स० २१...२...२० २५-२६ तारणगढप्रासादरक्षण तथा {स. २२...२... ९ प्रा० २१...२...२० ४७-४८ अजयपाल प्रबन्ध २७ वस्तुपाल प्रबन्ध [१] आशराज प्रबन्ध' प्रा० २२...२...१२ स. २२...२...१७ [२] वस्तुपाल प्रबन्धान्तर्गत पर्वभाग प्रा० २२...२...१८ ३५ ११७-६१२२ स० २४...२... ७ [३] वस्तुपाल प्रबन्धगत परिशिष्टात्मक-/प्रा० २४...२...." ६९-७१ रस० २५...१...१८ ___ अन्तिम वर्णन २८ विधिविषयक उदाहरण प्रा० २५...२...१ ६२३५ स० २६...१... ७ २९ स्त्रीचरित्र प्रबन्ध प्रा० २६...१.... स. २६...२...२ [विक्रमचरित्रान्तर्गत] || इस प्रबन्धका समावेश वस्तुपाल प्रबन्धके अन्तर्गत होता है। यह इस जगह बिना किसी पूर्वसंबन्धके यों ही शुरू होता है। इसका आदि वाक्य 'श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं लिख्यते' ऐसा है और उसके बाद, फिर वे सब पद्य लिखे हैं जो इस संग्रहमें १५७ से लेकर १६५ तकके क्रमांकमें दिये हुए हैं। इसके बाद, उसीके आगेके १२३ वें प्रकरणवाला वर्णन चालू होता है जो आखिरमें १४८ वें प्रकरण साथ, समाप्त होता है। यह एक प्रकारसे वस्तुपालप्रबन्धका उत्तरभाग है। पूर्वभाग आगे जा कर लिखा है, जो २७ वें प्रबन्धमें मिलता है। यह प्रबन्ध इस P संग्रहके अतिरिक्त BR संग्रहमें भी लिखा हुआ है, और वह कुछ जरा विस्तृत रूपमें है। इसलिये हमने प्रस्तुत ग्रंथमें, उसीको मुख्य स्थान दिया है और इस प्रतिवाले प्रबन्धको उसकी पाद-टिप्पनीके रूपमें उद्धृत कर दिया है।-देखो पृष्ठ ५३ परकी पहली टिप्पनी। 1 इस प्रबन्धको हमने छोड दिया है । एक तो इसका सम्बन्ध, यों ही प्रबन्धचिन्तामणिगत विषयके साथ नहीं है; और दूसरा कारण यह है कि, प्रस्तुत प्रतिका वह पन्ना जिसमें यह प्रबन्ध लिखा हुआ है, एक किनारे पर इतना खिर गया है कि जिससे इसका पाठोद्धार करना सर्वथा अशक्य-सा हो गया है। 2 प्रतिमें तारणगढप्रासादरक्षणप्रबन्ध तथा अजयपालप्रबन्ध ये दोनों प्रकरण जुदा जुदा प्रबन्ध करके लिखे हैं। हमने इनको एक ही 'अजयपालप्रबन्ध' के शीर्षकके नीचे दो जुदा जुदा प्रकरणोंके रूपमें मुद्रित किये हैं। 3 'आशराजप्रबन्ध' वस्तुपाल प्रबन्ध-ही-का आदिम भाग होनेसे हमने इसे, उसी प्रबन्धके अन्तर्गत ११६३ अंकवाले प्रकरणके तौर पर रख दिया है । यह प्रकरण, इस प्रतिके सिवा BR और Ps संज्ञक संग्रहोंमें भी मिलता है और वह कुछ विशेष स्पष्टतावाला है इस लिये हमने मुख्य स्थान उसको दे कर, इस प्रतिवाले उल्लेखको पाद-टिप्पनीमें प्रविष्ट कर दिया है।-देखो, वहीं, पृष्ठ ५३ परकी तीसरी टिप्पनी। 4 इसका प्रारम्भ, $११७ वें प्रकरणके (पृष्ठ ५४, पंक्ति १२) "इतो व्याघ्रपल्लीयोराणक आना०" इस वाक्यसे होता है, और समाप्ति पूर्वोक्त शत्रुजय माहात्म्यवाले उल्लेखके (पृ. ५८, पंक्ति ११) पूर्ववर्ती "तत्र यात्राथै यतनीयमिति।" इस वाक्यके साथ होती है। 5 यह वर्णन, पृष्ठ ६९ पर मुद्रित, १४९ वें प्रकरणके "अत्रातनःप्रबन्धः कथनीयः।" इस वाक्यसे प्रारंभ होता है और पृष्ट ७१ की ५ वीं पंक्तिमें मिलनेवाले "[सं०] १३०८ तेजःपालो दिवं जगाम ।" इस उल्लेखके साथ समाप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002629
Book TitlePuratana Prabandha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1936
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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