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पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह विषय-वर्णन उसी प्रकारका है। इसलिये हमने उनको भी, अलग न निकालकर उनके सजातीय प्रकरणों के साथ, इस संग्रहमें शामिल ही रखना उपयुक्त समझा है । इनमेंसे कुछ तो ऐतिहासिक प्रकरण हैं, जो, चाहे जिस दृष्टिसे महत्त्वके ही गिने जाते हैं; और कुछ लोककथात्मक हैं जिनका विशेषत्व, हमारे देशके प्राचीन सामाजिक संस्कार
और लौकिक व्यवहारकी दृष्टिसे, अवश्य ही अनुशीलनीय है। ६२. संग्रह ग्रन्थोंका सामान्य परिचय , पाठक देखेंगे कि, प्रस्तुत ग्रन्थके, प्रथम पृष्ठ पर, शिरोलेखके नीचे ही चतुष्कोण रेखाके भीतर
[P. B. Br. G. Ps. सज्ञकसङ्ग्रहग्रन्थेभ्यः सङ्ग्रहीतः] ऐसी पंक्ति हमने लिखी है। इसका अर्थ यह है कि इस पुरातनप्रबन्धसंग्रहमें जितने प्रबन्ध या प्रकरण हैं, वे, जिनको हमने P. B. Br. G. Ps. ऐसी संज्ञा दी है उन पुराने लिखे हुए संग्रह ग्रन्थों परसे सङ्कलित किये गये हैं । इन संग्रहोंमें ये सब प्रकरण या प्रबन्ध, उस क्रममें नहीं लिखे हुए हैं जिसमें हमने उन्हें यहां छपवाया है । यहां पर जो इनका क्रम दिया गया है वह प्रबन्धचिन्तामणिके अनुसरणके रूपमें है । प्र० चिं० में जो प्रबन्ध या प्रकरण जिस क्रममें आया है उसी क्रममें हमने इन प्रकरणोंको मुद्रित किया है। यह भी ध्यानमें रहे कि ये सब प्रकरण सभी संग्रहों में नहीं मिलते। कोई प्रकरण किसी संग्रहमें मिलता है तो कोई किसीमें । कोई कोई प्रकरण एकाधिक संग्रहमें भी मिलता है । एवं कोई प्रकरण एक संग्रहमें एक ढंगसे लिखा हुआ मिलता है तो दूसरे संग्रहमें दूसरे ढंगसे । इस प्रकार इन ५ संग्रहोंमें परस्पर जितनी समानता है उतनी ही विभिन्नता भी है। एक हिसाबसे ये न एक-कर्तृक हैं, न एक-कालिक हैं, न एक-क्रमिक हैं । तथापि हैं ये सब समान-उद्देशक और समान-विषयक । इनमें से कौन प्रकरण, किस संग्रहमें मिलता है उसका ज्ञापन करानेके लिये, प्रत्येक प्रकरणके शिरोलेखके साथ, P. B. G. आदि तत्तत् संग्रहका निर्देशक सङ्केताक्षर दे दिया है । एकाधिक संग्रहमें जो कोई प्रकरण मिला और यदि उसमें कुछ पाठ-भेद प्राप्त हुआ तो उसे हमने या तो पाद-टिप्पनीमें उद्धृत कर दिया है, या प्रचलित पंक्ति-ही-में, चतुष्कोण रेखावृत करके, प्रक्षिप्त कर दिया है । अर्थानुसन्धानका ठीक विचार कर, जहां जैसा उचित मालूम दिया वहां वैसा किया गया है।
३. संग्रह ग्रन्थोंका विशेष परिचय . (१) P संज्ञक संग्रह-संघके भण्डारके नामसे पहचाने जानेवाले पाटणके प्रसिद्ध जैन ग्रन्थागारमेंसे प्राप्त ३० पन्नोंका यह एक बहुत जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थ है। वर्तमानमें, इसकी प्राप्ति हमें, विद्याविलासी साहित्योपासक मुनिवर श्रीपुण्यविजयजीके द्वारा हुई है इसलिये इसका संकेत हमने, पाटण और पुण्यविजयजी दोनोंकी स्मृतिमें, P अक्षरसे किया है । इस प्रतिका दर्शन सबसे पहले हमको कोई सन् १९१४ - १५ में हुआ था जब हमने पाटणके उक्त भण्डारके सब ग्रन्थोंका, एक एक करके, सूक्ष्म अवलोकन किया था और प्रशस्ति आदि ऐतिहासिक साधनोंके, सर्व प्रथम, टिप्पन करने शुरू किये थे। यह प्रति उस समय, उक्त भण्डारमें यों ही अनुल्लिखित-सी और अज्ञात-सी पडी थी । हमने इस पर रेपर वगैरह चढाकर और उस पर प्रबन्धसंग्रह ऐसा नाम लिख कर व्यवस्थित रूपसे रख दिया । तब हमें यह खयाल नहीं था कि भविष्यमें, किसी दिन, इस प्रबन्धसंग्रहका हमारे ही हाथसे, ऐसा समुद्धार होगा। हमें इसकी स्मृति भी नहीं रही । पीछेसे, जब हमने इस सिंघी जैन ग्रन्थमालाका प्रारम्भ किया और उसमें प्रबन्धचिन्तामणि-ही-को पहले हाथमें लिया तब, हमारी प्रार्थना पर उक्त मुनि श्रीपुण्यविजयजीने और और ग्रन्थोंके साथ इस संग्रहको भी भेज दिया, जिसकी प्राप्ति हमें एक बहुमूल्य रत्नके जितनी प्रीतिकर प्रतीत हुई। इस संग्रहको मुख्य रख कर ही हमने इस प्रस्तावित संग्रहका संकलन करना आरंभ किया। ... इस प्रतिके कुल ३० पन्ने हैं। पहले पन्नेकी पहली पूंठी बिना लिखी-कोरी रखी गई है । दूसरी पूंठीके दाहिने भागपर ३३ इंच चौडाई और ४३ इंच लंबाई वाला, जिनप्रतिमाका एक बहुरंगी चित्र आलेखित है । पाठकोंको
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