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प्रास्ताविक वक्तव्य ।
६१. प्रबन्धचिन्तामणिसम्बद्ध पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह
रातन-प्रबन्ध-सङ्ग्रह नामका यह ग्रन्थ प्रबन्धचिन्तामणिके द्वितीय भागके रूपमें प्रकाशित किया जा रहा है, इसलिये इसका पूरा नाम हमने 'प्रवन्धचिन्तामणिसम्बद्ध-पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह' ऐसा रखा है।
प्रबन्धचिन्तामणिके सम्पादन करनेका जबसे हमने सङ्कल्प किया, तभीसे उसके साथ सम्बन्ध रखनेवाली, साहित्यिक और ऐतिहासिक, सब प्रकारकी यथाप्राप्य साधन-सामग्रीके सङ्कलित करनेका प्रयत्न शुरू किया। भिन्न भिन्न प्रकारके और भिन्न भिन्न विषयके जैन ग्रन्थोंका अवलोकन करते हुए, हमने देखा कि कई उपदेशात्मक और कथात्मक ग्रन्थों में भी इस विषयकी कितनी ही सामग्री छुपी हुई पडी है। कई ग्रन्थ, जिनका मुख्य विषय तो है आचारप्रतिपादक, लेकिन उनमें भी, इस प्रकारकी कुछ इतिहासोपयोगी बातें लिखी हुई मालूम दीं। इसलिये हमने सोचा कि यदि यह सब सामग्री, चाहे उसमें कुछ अधिक विशेषता या नवीनता न भी हो, उन उन ग्रन्थों में से चुन चुन कर एकत्रित की जाय और उसे एक संग्रहके रूपमें प्रकट कर दी जाय, तो इस विषयके विद्वानों और विद्यार्थिओं-दोनोंको संशोधनादि कार्य करनेमें बहुत कुछ सरलता और नवीनता प्राप्त हो सकेगी। इस विचारसे प्रेरित होकर, हमने उन उन ग्रन्थोंमेंसे इस सामग्रीको, एक एक करके चुनना शुरू किया। हमारी पूर्व कल्पना थी कि इस सामग्रीको, प्रबन्धचिन्तामणिके परिशिष्टके रूपमें, उसी ग्रन्थके अन्तमें, दे दी जायगी। लेकिन एकत्रित करते करते हमें वह सामग्री इतनी विस्तृत मालूम देने लगी कि जिससे उसको, प्रबन्धचिन्तामणि ही जितने बडे, अलग ग्रन्थ के रूपमें, दूसरे भागके तौर पर, निकालनेका निश्चय करना पडा । उस निश्चयानुसार, प्रस्तुत द्वितीय भाग उस सामग्रीसे समलङ्कृत होता; लेकिन पाठक देखेंगे कि इसमें वह सामग्री भी नहीं है। इसमें जो सामग्री उपस्थित की जा रही है वह उससे भिन्न संग्रह ग्रन्थोंमेंकी है; और वह सामग्री, अब इसके बादके ग्रन्थमें, तीसरे भागमें, प्रकाशित होगी। ऐसा होने में कारण यह है कि-ज्यों ज्यों हम इस विषयमें अधिक खोज करते गये त्यों त्यों हमें कुछ और भी अधिक उपयुक्त और स्वतंत्र ग्रन्थात्मक कितनीक सामग्री प्राप्त होने लगी। पाटण, पूना, भावनगर, अहमदाबाद, राजकोट वगैरह स्थानोंसे हमें कुछ ऐसे पुराने ग्रन्थ मिल आये, जो खास कर प्रबन्धचिन्तामणि-ही-के ढंगके स्वतंत्र संग्रहरूप मालूम दिये, लेकिन जिनमें कर्ता वगैरहका कोई उल्लेख नहीं पाया गया। इनमें कोई कोई संग्रह तो बहुत पुरातन मालूम दिये-शायद प्रबन्धचिन्तामणिकी रचनासे भी पुरातन । जब हमने इन संग्रहोंका परस्पर मिलान करके देखा तो, इनमें कुछ प्रकरण तो ऐसे मिले जो एक दूसरे संग्रहके साथ शब्दशः साम्य रखते हैं। कई प्रकरण परस्पर न्यूनाधिक वर्णनवाले मालूम दिये । कोई प्रकरण किसी में कुछ पाठ-फेर वाला है, तो कोई किसीमें कुछ भाषा-भेद वाला है। और, कितनेएक प्रकरण एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न भी हैं और नवीन भी हैं। इनमें कोई कोई प्रकरण ऐसे भी दिखाई दिये जो प्रबन्धचिन्तामणिगत उस प्रकरणके साथ सर्वथा एकता रखते हैं। कुछ प्रकरण ऐसे हैं जो प्र० चिं० में तो नहीं हैं लेकिन प्रबन्धकोशमें हैं। और कोई कोई प्रकरण प्र. चिं. या प्र० को० की पूर्तिके लिये ही लिखे गये हों ऐसे मालूम देते हैं।
इस प्रकारके इन संग्रहोंमेंसे, हमने कुछ पूर्ण और कुछ अपूर्ण ऐसे समूचे ५ संग्रहोंका प्रस्तुत ग्रन्थके लिये, पृथक् तारण किया है । इनमेंके प्रायः बहुतसे प्रबन्धों या प्रकरणोंका सम्बन्ध, किसी-न-किसी रूपमें प्र. चिं. के साथ है। जो कुछ थोडेसे प्रकरण ऐसे भी हैं जिनका सीधा सम्बन्ध उक्त ग्रन्थके साथ नहीं है, तथापि उनका रंगढंग और
पु.प्र. प्रस्ता. १
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