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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य | ९ पता हमने उक्त रासोमें लगाया है और इन ४ पद्योंमें से ३ पद्य, यद्यपि विकृत रूपमें लेकिन शब्दशः, उसमें हमें मिल गये हैं । इससे यह प्रमाणित होता है कि चंद कवि निश्चिततया एक ऐतिहासिक पुरुष था और वह दिल्लीश्वर हिंदुसम्राट् पृथ्वीराजका समकालीन और उसका सम्मानित एवं राजकवि था । उसीने पृथ्वीराज के कीर्तिकलापका वर्णन करनेके लिये देश्य प्राकृत भाषामें एक काव्यकी रचना की थी जो पृथ्वीराजरासोके नाम से प्रसिद्ध हुई । हम यहां पर, पृथ्वीराजरासोमें उपलब्ध विकृत रूपवाले इन तीनों पद्योंको, प्रस्तुत संग्रह में प्राप्त मूलरूपके साथ साथ, उद्धृत करते हैं, जिससे पाठकोंको इनकी परिवर्तित भाषा और पाठ - भिन्नताका प्रत्यक्ष बोध हो सकेगा । प्रस्तुत संग्रहमें प्राप्त पद्य - पाठ । इक् बाणु पहुवीसुजु पईं कई बासह मुक्कओं, उर भिंतरि खडहडिउ धीर कक्खंतरि चुक्कउ । बीअं करि संधीउं भंमइ सुमेसरनंदण !, एहु सु गढि दाहिमओं खणइ खुदइ सभरिवणु । फुड छंडि न जाइ इडु लुब्भिउ वारइ पलकउ खल गुलह । नं जाणउं चंदबलहिउ किं न वि छुट्टद्द इह फलह ॥ - पृष्ठ, ८६, पद्यांक (२७५). अग म गहि दाहिमओं रिपुरायखयंकरु, कूड मंत्र मम वओं पड्डु जंबूय ( प १ ) मिलि जग्गरु । सहनामा सिक्खवर्ड जर सिक्खिविडं बुज्झई, जंपर चंदबलिड मज्झ परमक्खर सुज्झइ | पहु पहुविराय सभरिघणी सयंभरि सउणइ संभरिसि, कई बास विभास विसट्टविणु मच्छिबंधिबद्धओं मरिसि ॥ - पृष्ठ वही, पयांक (२७६). त्रिहि लक्ष तुषार सबल पाषरीअहं जसु हय, चऊदस्य मयमत्त दंति गज्जंति महामय । वीसलक्ख पायक सफर फारक्क धणुद्धर, सड अरु बलु यान संख कु जाणइ तांह पर । छत्तीसलक्ष नराहिवइ विहिविनडिओ हो किम भयउ, जइचंद न जाणउ जल्हुकह गयउ कि मूउ कि धरि गयउ ॥ - पृष्ठ ८८, पद्यांक (२८७). पृथ्वीराजरासो में प्राप्त पथ-पाठ । एक बान पहुमी नरेस कैमासह मुक्यौ । उर उप्पर थरहयौ बीर कष्पंतर चुक्यौ ॥ बियौ बान संधान हन्यौ सोमेसर नंदन । कर निग्रह्यौ षनिव गड्यौ संभरि धन ॥ थल छोरि न जाइ अभागरौ गाड्यौ गुन गहि अग्गरौ । इम जपै चंदबरहिया कहा निघट्टै इय प्रलौ ॥ -रासो, पृष्ठ १४९६, पद्य २३६. Jain Education International अगह मगह दाहिमौ देव रिपुराइ षयंकर । करमंत जिन करौ मिले जंबू बै जंगर ॥ मो सहनामा सुनौ एह परमारथ सुज्झै । अ चंद बिरद्द बियो कोइ एह न बुज्झै ॥ प्रथिराज सुनवि संभरि धनी इह संभलि संभारि रिस । कैमास बलिष्ठ वसीठ बिन म्लेच्छ बंध बंध्यौ मरिस ॥ — रासो, पृष्ठ २१८२, पद्य ४७६. असिय लष तोषार सजड पष्षर सायद्दल | सहस हस्ति चवसट्ठि गरुअ गजंत महाबल ॥ पंच कोटि पाइक सुफर पारक्क धनुद्धर । जुध जुधान बर बीर तोन बंधन सद्धनभर ॥ छत्तीस सहस रन नाइबौ विही त्रिम्मान ऐसो कियौ । जैचंद राइ कविचंद कहि उदधि बुडि कै धर लियौ ॥ - रासो, पृष्ठ २५०२, पद्य २१६. इसमें कोई शक नहीं है कि पृथ्वीराजरासो नामका जो महाकाव्य वर्तमान में उपलब्ध है उसका बहुत बडा भाग पीछेसे बना हुआ है । उसका यह बनावटी हिस्सा इतना अधिक और विस्तृत है, और उसमें मूल रचनाका अंश इतना अल्प और वह भी इतनी विकृत दशामें है, कि साधारण विद्वानोंको तो उसके बारेमें किसी प्रकारकी कल्पना करना भी कठिन है | मालूम पडता है कि मूल रचनाका बहुत कुछ भाग नष्ट हो गया है और जो कुछ अवशेष रहा है वह भाषाकी दृष्टिसे इतना भ्रष्ट हो रहा है कि उसको खोज नीकालना साधारण कार्य नहीं है । मनभर बनावटी मोतीके ढेरमेंसे मुट्ठीभर सच्चे मोतीयोंको खोज नीकालना जैसा दुष्कर कार्य है वैसा ही इस सवालाख लोक प्रमाणवाले बनावटी पद्योंके विशाल पुंजमेंसे चंद कविके बनाये हुए हजार पांच सौ अस्त-व्यस्त पद्योंको ढूंढ नीकालना I २ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002629
Book TitlePuratana Prabandha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1936
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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