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पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह ।
कठिन कार्य है । तथापि, जिस तरह, अनुभवी परीक्षक, परिश्रम करके, लाख झूठे मोतीयोंमें से मुट्ठीभर सच्चे मोतीयोंको अलग छांट सकता है उसी तरह भाषाशास्त्र-मर्मज्ञ विद्वान इन लाख बनावटी श्लोकोंमें से उन अल्पसंख्यक सच्चे पद्योंको भी अलग नीकाल सकता है जो वास्तवमें चन्द कविके बनाये हुए हैं।
हमने इस महाकाय ग्रन्थके कुछ प्रकरण, इस दृष्टिसे, बहुत मनन करके पढे तो हमें उसमें कई प्रकारकी भाषा और रचना पद्धतिका आभास हुआ । भाव और भाषाकी दृष्टिसे इसमें हमें कई पद्य ऐसे अलग दिखाई दिये जैसे छासमें मक्खन दिखाई पडता है । हमें यह भी अनुभव हुआ कि काशीकी नागरी प्रचारिणी सभाकी ओरसे जो इस ग्रन्थका प्रकाशन हुआ है वह भाषा-तत्त्वकी दृष्टिसे बहुत ही भ्रष्ट है। उसके संपादकोंको रासोकी प्राचीन भाषाका कुछ विशेष ज्ञान रहा हों ऐसा प्रतीत नहीं हुआ । विना प्राकृत, अपभ्रंश और तद्भव पुरातन देश्य भाषाका गहरा ज्ञान रखते हुए इस रासोका संशोधन-संपादन करना मानों इसके भ्रष्ट कलेवरको और भी अधिक भ्रष्ट करना है। इस ग्रन्थमें हमें कई गाथाएं दृष्टिगोचर हुई जो बहुत प्राचीन हो कर शुद्ध प्राकृतमें बनी हुई हैं। लेकिन वे इसमें इस प्रकार भ्रष्टाकारमें छपी हुई हैं जिससे शायद ही किसी विद्वान् को उनके प्राचीन होनेकी या शुद्ध प्राकृतमय होनेकी कल्पना हो सके। यही दशा शुद्ध संस्कृत श्लोकोंकी भी है। संपादक महाशयोंने, न तो भिन्न भिन्न प्रतियोंमें प्राप्त पाठान्तरोंको चुनने में किसी प्रकारकी सावधानता रखी है, न खरे-खोटे पाठोंका पृथक्करण करनेकी कोई चिन्ता की है; न कोई शब्दों या पदोंका व्यवस्थित संयोजन या विश्लेषण किया गया है न विभक्ति अथवा प्रत्ययका कोई नियम ध्यानमें रखा गया है। सिर्फ 'यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया ।' वाली उक्तिका अनुसरण किया गया मालूम देता है।
मालूम पडता है कि चंद कविकी मूल कृति बहुत ही लोकप्रिय हुई और इस लिये ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों उसमें पीछेसे चारण और भाट लोग अनेकानेक नये नये पद्य बनाकर मिलाते गये और उसका कलेवर बढाते गये। कण्ठानुकण्ठ प्रचार होते रहनेके कारण मूल पद्योंकी भाषामें भी बहुत कुछ परिवर्तन होता गया। इसका परिणाम यह हुआ कि आज हमें चंदकी उस मूल रचनाका अस्तित्व ही विलुप्त-सा हो गया मालूम दे रहा है। परंतु, जैसा कि हमने ऊपर सूचित किया है, यदि कोई पुरातन-भाषा-विद् विचक्षण विद्वान् , यथेष्ट साधन-सामग्रीके साथ पूरा परिश्रम करे तो इस कूडे-कर्कटके बडे ढेरमेंसे चन्द कविके उन रत्नरूप असली पद्योंको खोज कर नीकाल सकता है और इस तरह हिन्दी भाषाके नष्ट-भ्रष्ट इस महाकाव्यका प्रामाणिक पाठोद्धार कर सकता है। नागरीप्रचारिणी सभाका कर्तव्य है कि, जिस तरह पूनाका भाण्डारकर रीसर्च इन्स्टीट्यूट महाभारतकी संशोधित आवृत्ति तैयार कर प्रकाशित कर रहा है, उसी तरह, वह भी हिन्दी भाषाके महाभारत समझे जानेवाले इस पृथ्वीराजरासोकी एक संपूर्ण संशोधित आवृत्ति प्रकाशित करनेका पुण्य कार्य करें। ६६. (२) B संज्ञक संग्रह - पूज्य प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराजके स्वर्गवासी शिष्य श्रीभक्तिविजयजीका शास्त्रसंग्रह, जो भावनगरकी जैन आत्मानंद सभाके भवनमें सुरक्षित है, उसमेंका यह एक त्रुटित संग्रह है । भक्तिविजयजी और "भावनगरके स्मृत्यर्थ इस संग्रहका संकेत हमने B अक्षरसे दिया है । इसका आदि और अंत भाग अनुपलब्ध है। तदुपरान्त बीच मेंके भी बहुतसे पत्र अप्राप्य हैं । अन्तिम पत्र जो विद्यमान है उसका क्रमांक ७५ है । उसके आगेके कितने पन्ने नष्ट हो गये हैं उसके जाननेका कोई साधन नहीं है। प्रारंभके १ से ६ तकके पत्र, फिर १३, ३४, ३५, ३६, ३७, ४३, ४४, ४५,,४७, ४८, ४९, ५१ से ७० (२० पन्ने एक साथ ) और ७३, ७४-इस प्रकार कुल
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