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________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह होना चाहिए । कहीं भी हों, लेकिन है वह पंक्ति इसी संग्रहके साथ सम्बन्ध रखनेवाली; इसमें कोई सन्देह नहीं है। इन गाथाओंका अर्थ है यह कि-"नागेन्द्र गच्छके आचार्य उदयप्रभ सूरिके शिष्य जिनभद्रने, मंत्रीश्वर वस्तुपालके पुत्र जयन्तसिंहके पढनेके लिये, विक्रम संवत् १२९० में, इस नाना-कथानकप्रधान प्रबन्धावलिकी रचना की।" ___ इस उल्लेखसे स्पष्टतया ज्ञात होता है कि प्रस्तुत संग्रहके लिपिकर्ताने जिन पुराने संग्रहोंमेंसे ये सब प्रबन्ध नकल किये उनमें 'नाना कथानक प्रधान प्रबन्धावलि' नामका (या उसके सूचक वैसे ही किसी और नामका) एक संग्रह वह भी था जिसकी रचना, मंत्रीश्वर वस्तुपालके पुत्र जयन्तसिंहके पढनेके लिये, संवत् १२९० में उदयप्रभसूरिके शिष्य जिनभद्रने की थी। जिनभद्रकी इस नाना कथानकवाली प्रबन्धावलिका स्वतंत्र अस्तित्व अभी तक और कहीं हमारे देखने में नहीं आया इससे यह पता नहीं लग सकता कि इस प्रबन्धावलिमें सब मिलाकर कितने कथानक थे और कौन कौन विषयके थे। प्रस्तुत संग्रहके लिपिकर्ताने, जैसा कि ऊपर दी हुई सूचिसे ज्ञात होता है, इन प्रबन्धोंको कई भिन्न भिन्न ग्रन्थों मेंसे लिखा है और सो भी अस्तव्यस्त ढंगसे। इससे इसमें पुराने और नये प्रबन्धोंका एक साथ संमिश्रण हो कर उनकी एक तरहसे खिचडी बन गई है, जिससे यह जानना या निश्चय करना भी कठिन-सा हो गया है कि, इसमें उक्त गाथा-कथित जिनभद्रके रचे हुए प्रबन्ध कितने और कौन कौन हैं; तथा उसके पीछेके कितने और कौन कौन हैं ?। तथापि भाषा और रचना-शैलीका सूक्ष्मतया निरीक्षण करने पर इसमेंके कितनेएक प्रकरणोंका कुछ कुछ विश्लेषण या पृथक्करण किया जा सकता है। पूर्वोक्त राजशेखर सूरिके रचे हुए जो पादलिप्ताचार्य और रत्नश्रावक नामके दो प्रबन्ध इसमें संगृहीत हैं उनकी तथा प्रबन्धचिन्तामणिमेंसे नकल किये गये वलभीभंग प्रबन्धकी भाषा, और और प्रबन्धोंकी भाषासे बिल्कुल अलग पड जाती है। मंत्रियशोवीर प्रबन्ध और वस्तुपाल-तेजःपाल प्रबन्ध-ये दोनों प्रकरण भी किसी दूसरेकी कृति होने चाहिए । क्यों कि इन दोनोंमें वर्णित कितनीक वस्तु-घटनाएं संवत् १२९० के पीछेकी हैं । यशोवीर प्रबन्धमें, संवत् १३१० में जलालुद्दीन सुल्तान द्वारा, मारवाड अन्तर्गत जालोरके दुर्ग सुवर्णगिरिपर किये जानेवाले आक्रमणका उल्लेख है; और इसी तरह, वस्तुपाल प्रबन्धमें, संवत् १३०८ में होनेवाले मंत्री तेजपालके मरणका निर्देश है । अतः ये दोनों प्रबन्ध अर्थात् ही जिनभद्रके बाद की रचना है। इनके अतिरिक्त, और सब प्रबन्ध, यदि उक्त जिनभद्रकी कृतिरूप मान लिये जाय तो उसमें कोई बाधक प्रमाण हमें नहीं दिखाई देता । ६५. P संग्रहके कुछ महत्त्वके प्रबन्ध इस संग्रहमें, कुछ प्रबन्ध, ऐतिहासिक दृष्टि से बडे महत्त्वके हैं । पृथ्वीराजप्रबन्ध (१३), जयचन्द्रप्रबन्ध (१४), मंत्रि यशोवीरप्रबन्ध (१६), वस्तुपालतेजःपालप्रबन्ध (१९, २०, २७), मंत्रिउदयनप्रबन्ध (२२), वसाह आभडप्रबन्ध (२३), अजयपालप्रबन्ध (२५-२६) और लाखणराउलप्रबन्ध (३२) आदि प्रकरणोंमें इतिहासोपयोगी जो सामग्री मिलती है वह बहुत ही विश्वसनीय और विशेषत्ववाली है। इसका विशेष ऊहापोह करना यहां अप्रासंगिक है । इस ग्रन्थके अगले भागों में उसका यथेष्ट अवलोकन और आलोचन आदि करनेका हमारा संकल्प है ही। .. हम यहां पर, एक बात पर विद्वानोंका लक्ष्य आकर्षित करना चाहते हैं; और वह बात यह है कि इस संग्रह गत पृथ्वीराज और जयचन्द विषयक प्रबन्धोंसे हमें यह ज्ञात हो रहा है, कि चन्दकवि रचित पृथ्वीराजरासो नामक हिन्दीके सुप्रसिद्ध महाकाव्यके कर्तृत्व और कालके विषयमें जो, कुछ पुराविद् विद्वानोंका यह मत है कि 'वह ग्रन्थ समूचा ही बनावटी है और १७ वीं सदीके आसपासमें बना हुआ है' यह मत सर्वथा सत्य नहीं है। इस संग्रहके उक्त प्रकरणों में जो ३-४ प्राकृत-भाषा पद्य [पृष्ठ ८६, ८८, ८९ पर] उद्धृत किये हुए मिलते हैं, उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002629
Book TitlePuratana Prabandha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1936
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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