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________________ १२ B संज्ञक प्रतिमें लिखित प्रकरणानुक्रम प्रबन्धनाम १-७ [ विनष्ट ॥ १-७ ॥ ] ८ श्री पुंजराजस्तत्पुत्री श्रीमातावृतांतः ॥ ८ ॥ ९ वराहमिहरप्रबंधः ॥ ९ ॥ १० नागार्जुनोत्पत्ति-स्तंभनकतीर्थावतारप्रबंधः ॥ १० ॥ ११ भर्तृहरोत्पत्तिप्रबंधः ॥ ११ ॥ १२ वैद्यवाग्भटप्रबंधः ॥ १२ ॥ १३ पादलिप्तसूरिप्रबंधः ॥ १३ ॥ १४ मानतुंगाचार्यप्रबंधः ॥ १४ ॥ १५ वीरगणीप्रबंधः ॥ १५ ॥ १६ अभयदेवसूरिप्रबंधः ॥ १६ ॥ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह | प्रा० स० प्रा० [ स० ЯТО ( स० Jain Education International प्रा० [ स० | प्रा० स० [ प्रा० स० प्रा० सं० । प्रा० स० प्रा० स० पत्र. पृष्ठि. पंक्ति ० ० - ७...१...१२ ७...१...१२ ८...१... १ 6... 9... 9 ८...२... ११ ८...२... १२ ९...१... १० ९...१... १० ९...२... १३ ९...२... १३ ११...२... ४ ११...२... ४ १२...२... ११ १२.२... १२ १४... २... ४ प्रस्तुत पुस्तक में मुद्रित क्रम प्रबन्धांक प्रकरणांक ० ० ० ० ० For Private & Personal Use Only ० ० ० ० ० ० ४४ ६२१०-१२१२ ६२४–१२७ ● ४५ ९२१४-९२१५ पृष्ठांक ० ० • ० ९२-९४ १५-१६ ० 1. प्रारंभ १ से ६ तकके पत्र अनुपलब्ध होनेसे, १ से ७ तकके प्रबन्ध विनष्ट हो गये हैं । ये विनष्ट प्रबन्ध किस किस विषयके थे इसके जाननेका कोई साधन नहीं है । ९५-९६ 2 यह वृत्तांत प्रबन्धचिन्तमणि गत इसी नामके प्रबन्धके साथ [ हमारी आवृत्तिके पृष्ठ १०९ - ११०९ प्रकरणांक २०४-२०५] प्रायः शब्दशः मिलता हुआ है। इससे संभव है, कि इसके संग्राहकने यह प्रबन्ध उसी ग्रन्थ में से नकल किया हो। संभव कहनेका कारण यह है कि इन दोनों में यद्यपि पाठकी समानता प्रायः शब्दशः मिलती हुई है, तथापि, क्वचित् किंचित् प्रकारका पाठभेद भी मिलता है; और यह पाठभेद उससे कुछ भिन्न प्रकारका है जो प्रबन्धचिन्तामणिकी अन्यान्य सब प्रतियों में मिलता है । 3-6 ये चारों प्रबंध भी प्रबन्धचिन्तामणि स्थित उन्हीं नामोंके प्रबन्धोंकी प्रायः शब्दशः नकल हैं। इनका क्रम भी वैसा ही है जैसा प्र. चि० में है । [ देखो, हमारी आवृत्तिके पृष्ठांक ११८ से १३२; और प्रकरणांक १२१८ से २२४ तक ] इनमें भी उसी प्रकारका कुछ पाठभेद मिलता है जो ऊपर वाली टिप्पनी में सूचित किया गया है । प्र० चि० स्थित वराहमिहर प्रबन्ध में जो दो पद्य मिलते हैं [ पद्यांक २६१ - २६२ ] वे इस संग्रहमें नहीं हैं । 7 संग्रहका १३ वां पत्र अनुपलब्ध होनेसे इस प्रबन्धका विशेष भाग अप्राप्य है । विद्यमान १३ वें पत्र में इस प्रबन्धकी निम्न उद्धृत पंक्तियां प्राप्त होती हैं श्रीमद्वीरगण स्वामिपादाः पांतु यदादरात् । कषायादिरिपुत्रातो भवेन्नागमनक्षमः ॥ १ ॥ श्रीमालं नगरं, तत्र धूमराजवंशीयो देवराजो नृपः । तत्र वणिगूमुख्यः शिवनागो महावणिजः । अन्यदा श्रीधरणेंद्वाराधनात् परितोषे कलिकुंडक्रमं सर्वसिद्धिकरं अष्टनागकुलविषहर धरणेंद्रावाप्ततन्मंत्रगर्भ धरणेंद्रस्तोत्रं चक्रे । तदद्यापि जगति विषहरम् । तस्य पूर्णलता प्रिया । तत्पुत्रो वीरः । अनेककोटिद्रव्याधिपः । पित्रा सप्त कन्याः परिणायितः । ततः पितरि मृते वैराग्यान्नित्यमेव श्रीवीरवंदनाय याति । अन्यदा मार्गे संजातचौरोपद्रवेन स्वशालकगृहं गतः । तस्य माता शुद्ध्यर्थमायाता । शालेन हास्याच्चौरैर्वीरविनाशे.........। 8 इस प्रबन्धक प्रारंभकी ५-६ पंक्तियां, विनष्ट १३ वें पत्र में विलुप्त हैं लेकिन BR संग्रहमें भी यह प्रबन्ध उपलब्ध होता है इस लिये उसमेंसे इसकी पूर्ति हो जाती है । विलुप्त पत्र में, प्रारंभको पंक्तिसे ले कर, प्रस्तुत मुद्रित संग्रह [ पृ० ९५] की पंक्ति १४ वीं आये हुए 'नवाज्ञानां वृत्ति' शब्द तकका पाठ चला गया है । www.jainelibrary.org
SR No.002629
Book TitlePuratana Prabandha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1936
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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