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________________ पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह। १०७ . 6 १३ वसाहआभडप्रबन्ध प्रा०३...२...१२ २१ ६६१ स० ३...२...२६ ३३ १४. न्याये यशोवर्मप्रबन्ध प्रा० ४...१...१ स. ४...१...८ ४८ ६२३३ १५ अंबुचीचप्रबन्ध प्रा०४.......८ स० ४...१...१४ ६२३४ १६ द्वात्रिंशद्विहारप्रतिष्ठाप्रबन्ध । प्रा०४...१...१९ स. ४...२...३ . २९८७ ४४ १७ विप्पभडिप्रबन्धान्तर्गतप्रकरण प्रा. ४...२...४ स० ४...२... ९ १८ सिद्धर्षिप्रबन्ध प्रा०४...२...१० ६२ स० ५....... ६ ५५ २३१ १०५ १९ माघपण्डितप्रबन्ध प्रा. ५...१...६ स० ५...२...१३ ६२८-३० २० भोजषड्दर्शनप्रबन्ध प्रा० ५...२...१३ स० ५...२...१५ ६३२ २१ देवाचार्यप्रबन्ध प्रा० ५...२...१६ स० ६...२...२१ २२ फलवर्द्धितीर्थप्रबन्ध प्रा०६...२...२२ ६५७ स० ६...२...२५ ३१ २३. जिनप्रभसूरिप्रबन्ध प्रा० ७...१...१ सि०७...२...२० । ६१०.(४) G संज्ञक संग्रह राजकोट (काठियावाड) निवासी जैन गृहस्थ श्रीयुत गोकुलदास नानजीभाई गान्धीके निजी पुस्तक संग्रहमेंसे यह प्रति हमें प्राप्त हुई है । गोकुलदास नामका सूचन करनेके विचारसे इस प्रतिका संकेत हमने G अक्षरसे किया है। इसकी पत्रसंख्या कुल १९ है, लेकिन बीचमें ८ के बादका १ पत्र विलुप्त हो गया है इसलिये अब इसके १८ ही पन्ने विद्यमान हैं। ये पन्ने चौडाईमें ४ इंच और लंबाईमें १२१ इंच जितने हैं। पत्रके प्रत्येक पार्श्वमें १५-१६ पंक्तियां लिखी हुई हैं । लिखावट बहुत अच्छी है-अक्षर सुवाच्य और सुन्दराकार है। प्रति कहीं, कभी, पानीसे कुछ भींग गई मालूम देती है और इसलिये किसी किसी पन्नेका कुछ कुछ हिस्सा एक दूसरे पन्नेके साथ चिपक जानेसे, कहीं कहीं कुछ अक्षर या शब्द नष्ट हो गये हैं। प्रस्तुत पुस्तकके पृष्ठ ३५ और ४५ आदिमें जो खण्डित पाठ दिया हुआ दिखाई देता है, वह इसी सबबसे है। प्रति अच्छी पुरानी है। लेकिन, खेद है कि लेखकके नामादिका कोई निर्देश नहीं मिलता । इसके अन्तमें जो पातसाहिनामावलि लिखी हुई है उससे इतना अनुमान किया जा सकता है कि, वि० सं० १४०७ के बाद, दिल्लीके बादशाह पेरोज (फिरोजशाह) के राज्यकालमें यह लिखी गई होनी चाहिये । । यद्यपि, यह संग्रह एक प्रकारसे संपूर्ण ही है-आद्यन्तका कोई भाग खण्डित नहीं है, लेकिन, इसके पन्नोंपर जो मूलभूत क्रमांक लिखे हुए हैं उनसे सूचित होता है कि यह एक किसी बहुत बडी पोथीका एक छोटासा हिस्सा मात्र है । पन्नोंके ये मूलभूत क्रमांक प्रत्येक पन्नेकी दूसरी पूंठी (पृष्ठि) पर, दाहिनी ओरके हासियेके मध्यभागमें, गेरूआ रंगसे रंगे हुए चंद्रक पर लिखे हुए हैं। इसमें प्रथम पत्रका यह क्रमांक १२६ है और अन्तिम पत्रका १४४ । बप्पभट्टिसूरिके प्रबन्धका एक प्रकरण इस संग्रहमें लिखा हुआ मिलता है लेकिन अन्यान्य संग्रहोंमें इस विषयका कोई प्रकरण या वर्णन न होनेसे हमने इसको मूल ग्रन्थमें सम्मीलित नहीं किया। बप्पभट्टिसूरिके सम्बन्धमें अनेक ऐसे छोटे बडे स्वतंत्र प्रबन्ध लिखे हुए भण्डारोंमें मिलते हैं, और इन सबका एक स्वतंत्र पृथक् संग्रह करनेका हमारा संकल्प है। इसलिये प्रस्तुत संग्रहमें इस प्रकरणको केवल संग्रहकी दृष्टिसे टिप्पनीके परिशिष्ट रूपमें दे दिया है। ___.. जिनप्रभसूरिका सम्बन्ध प्रबन्धचिन्तामणि वर्णित व्यक्तियों के साथ न होनेसे तथा विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ, जो इन्हींकी एक विशिष्ट कृति है और इस ग्रन्थमालामें इतःपूर्व मूल रूपसे प्रकाशित भी हो चुका है, उसके द्वितीय भागमें इनके विषयका समग्र साहित्य एकत्रित करनेका निर्धार है, इसलिये, इस प्रबन्धको भी अन्थान्तर्गत नहीं किया गया । परंतु संग्रहमात्रकी दृष्टिसे टिप्पनीके परिशिष्टमें मुद्रित कर दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002629
Book TitlePuratana Prabandha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1936
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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