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मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक 18
महाकइपुप्फयंतविरइउ
महापुराणु [ महाकवि पुष्पदन्त-विरचित महापुराण ]
चतुर्थ भाग
तीर्थकर मुनिसुव्रत एवं नमि का जीवन-चरित
(सन्धि 68 से 80)
अपभ्रंश मूल - सम्पादन डॉ. पी. एल. वैद्य
हिन्दी - अनुवाद डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर
G चना
भारतीय ज्ञानपीठ
दूसरा संस्करण : 2001 - मूल्य : 120 रुपये
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अनुवादकीय (प्रथम संस्करण, 1983 से)
महाकवि पुष्पदन्त के 'महापुराण' का यह चौथा खण्ड, बस्तुतः मूल रचना के दूसरे खण्ड का एक अंश है। सन्धि 68 से 80 तक 13 सन्धियों के इस भाग को स्वतन्त्र चौथे खण्ड के रूप में प्रकाशित करने का कारण यह है, कि आम पाठकों को पुष्पदन्त द्वारा विरचित 'रामायण काव्य' स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध हो जाए। 68वीं सन्धि में बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ का चरित है, क्योंकि इन्हीं के तीर्थकाल में राम, लक्ष्मण और रावण, जो क्रमश: आठवें नारायण, वासुदेव और प्रतिवासुदेव हैं, उत्पन्न हुए।
ग्रन्य का अगला खपड़ पाँचवाँ होगा, जिसमें 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ और नौवें नारायण वासुदेव और प्रतिवासुदेव (बलराम, कृष्ण और कंस) का वर्णन है।
प्राचीन भारतीय साहित्य को, विशेषतः प्राकृत और अपभ्रंश के क्षेत्र में उपलब्ध साहित्य को व्यवस्थित करने और अनुपलब्ध साहित्य को प्रकाश में लाने की दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ जो काम कर रहा है वह सचमुच सराहनीय है। इस काम के लिए वह, तब तक सम्मान के साथ जाना और माना जाएगा जबतक यह देश है और उसमें प्राचीन भाषाओं की साहित्य-कृतियों को जानने की उत्सुकता रखनेवाले लोग रहेंगे। जो रहेंगे ही।
इस अवसर का उपयोग करते हुए, मैं ज्ञानपीठ के न्यासधारियों और खासकर उसके अध्यक्ष समाजरत्न साहू श्रेयांस प्रसाद जी तथा प्रबन्ध-न्यासी श्री अशोक जैन से यह अपील करना चाहूँगा (हालाँकि मैंने उन्हें देखा नहीं है, और न उनकी रुचियों की मुझे जानकारी है) कि वे इसके लिए कुछ
अधिक धन की व्यवस्था कर सकें तो अच्छा है। क्योंकि, अभी अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू के रिटमिचरित्र का प्रकाशन नहीं हो सका है। मैं दो साल पहले उसके एक खण्ड (यादवकाण्ड) को सम्पादित करके दे चुका हूँ। परन्तु शायद प्रकाशन बजट की सीमाओं के कारण हर वर्ष उसका प्रकाशन रुक जाया करता है। रिटणेमिचरित यउमचरिउ के बराबर महत्त्वपूर्ण, बल्कि कई बातों में उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसमें समग्र महाभारत की कथा है। पज्मचरिउ का मूल भाग 1960 के आस-पास सम्पादित होकर उपलब्ध था, जबकि रिद्वणेमिचरित अभी-अभी सम्पादन की प्रक्रिया में है। इसके दूसरे काण्ड भी सम्पादित होकर तैयार हैं, लेकिन जबतक पहला काण्ड नहीं छप जाता तबतक दूसरे काण्ड की 'प्रेस कापी' तैयार करने का कोई औचित्य नहीं है। अलावा इसके कुन्दकुन्दाचार्य के, जो जैनों की आध्यात्मिक विचारधारा के पनःप्रवर्तक आचार्यों में महत्त्वपर्ण हैं. ग्रन्धों का वैज्ञानिक सम्पादित संस्करण एक पंखला में उपलब्ध नहीं है। भाषिक दृष्टि से उसका अध्ययन आज तक नहीं हुआ, व्युत्पत्तिमूलक शब्दकोश आदि बातें तो बहुत दूर की हैं। कुन्दकुन्दाचार्य की भाषा अकेली नहीं है, वह उस भाषा से जुड़ी है
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जिसमें भूतबली पुष्पदन्त और धरषेणाचार्य ने पटूखण्डागम की रचना की है। अतः उसकी भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन वस्तुतः पूरे युग की भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन है। इसी प्रकार श्वेताम्बरों के आगमों की प्राकृत के भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन के निष्कर्षों का प्रकाशन एक ऐतिहासिक आवश्यकता है। उसके वाद आती है शौरसेनी और दाराष्ट्री प्राकृतों की प्रवृत्तियों के वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता। इस देश में सम्प्रदायों के मिलन और विश्व मानवतावाद की बातें बहुत होती हैं, परन्तु ऐसे महानुभाव कितने हैं जो इस दिशा में गहरी रुचि रखते हैं ? जो हैं उनमें से अधिकांश के पास साधनों का अभाव है। अतः उन साधन-सम्पन्न श्रीमानों, संस्थापकों से मेरा अनुरोध है कि भाषा के खाते में जो कुछ उनके पास है उसे यदि पूरी प्रामाणिक व्यवस्था के साथ वे उपलब्ध करा सकें, तो यह उनका अविस्मरणीय प्रदेय होगा। ऐसा किसी पर कोई दबाव नहीं है, सिर्फ अनुरोध ही कर सकता हूँ।
प्रस्तुत कृति के प्रकाशन के लिए मैं सदा की तरह ज्ञानपीट के निदेशक भाई लक्ष्मीचन्द्र जी, ग्रन्धमाला सम्पादक श्रद्धेय पं, कैलाशचन्द्र जी और डॉ. ज्योतिप्रसाद जी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। ज्ञानपीट के प्रकाशन अधिकारी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन ने शीघ्र प्रकाशन के लिए जो अथक प्रयास किया है उसके लिए वे साधुवाद के सच्चे पात्र हैं।
-देवेन्द्रकुमार जैन
15 अगस्त, 19 11 उषा नगर, इन्दौर-425 009
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
हिन्दी साहित्य के प्रथम प्रामाणिक इतिहासकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल प्राकृत की अन्तिम अपभ्रश अवस्था से हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ मानते हुए, उक्त अपभ्रंश को प्राकृताभास हिन्दी कहने के पक्ष में थे। उनके अनुसार, तान्त्रिकों और योगमार्गी बोडों द्वारा रचित पद्यों (दोहों) में यही भाषा प्रयुक्त है । इसके अलावा, इस अपभ्रश और 'पुरानी हिन्दी' का प्रचार शुद्ध साहित्य या फास्य-रचनामों में भी 1050 से 1375 तक (भोज से लेकर हम्मीरदेव तक) पाया जाता है। इस प्रकार सवा तीन सौ वर्ष के इस काल के प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर लिखित रचनाओं को स्पष्ट प्रवृत्ति का निश्चय करना कठिन है । अतः यह अनिर्दिष्ट लोकप्रवृत्ति का काल है। उसके बाद मुसलमानों के आक्रमण शुरू होने पर उनकी प्रतिक्रिया से हिन्दी साहित्य में एक प्रति उभरती है. जो काफी बंधी हुई है। रीति शृगार आदि के अलावा यह प्रवृत्ति चारण या राजाश्रित कवियों द्वारा निबर अपने बाश्रयदाता राजामों के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं में लक्षित होती है। यह प्रबन्ध-काव्य परम्परा ही रासो-काव्य या वीरगाथा काम्प कहलाई। कुल मिलाकर 'भाविकाल' के दो भेव है!अनिदिष्ट काल 2. बीर-गापा या रासो काल । भाषा के बारे में शुक्ल जी का कहना है कि इन काव्यों की भाषा परम्परागत है, उस समय की बोलचाल की भाषा नहीं है। उसमें प्राकृत की रूढ़ियाँ हैं । वह तत्कालीन बोलचाल की भाषा से लगभग दो सौ वर्ष पुरानी भाषा है।
आदिकाल के मन्तर्गत शुक्ल जी, अपभ्रंश (देवसेन, पुष्पदन्त, सिखों की रचनाओं, हेमचन्द्र बारा उन्धुत दोहों की भाषा) और देशी भाषा (रासो काव्यों की भाषा) का उल्लेख करते हैं। आचार्य शुक्ल ने अपने उक्त विचार 1929 में उस समय व्यक्त किये पे जब अपभ्रंश साहित्य प्रकाश में नहीं आ परन्तु 1960 तक अपभ्रश के स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसे शीर्ष कवियों की रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी थी। फिर भी डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनका विवार इसलिए नहीं किया क्योंकि यह साहित्य हिन्दी प्रवेश में लिखा गया साहिम नहीं है । बड़े विस्तार से उन्होंने इस बात का विचार किया है कि ऐसा क्यों हुआ। उनका कहना है कि गाहड़वार राजाओं ने (वैदिक धर्म मानने के कारण) देश्यभाण के कवियों को आभय नहीं दिया; वूसरे, इस प्रदेश में वर्जनशील ब्राह्मण समाज का प्रभाव था। हो सकता है उनका कहना सही हो, परन्तु इससे उपलब्ध साहित्य के अध्ययन न करने का औचित्य सिद्ध नहीं होता । क्योंकि भाषा मानसून की तरह, अपर ही ऊपर उड़कर नहीं निकल जाती, किनारों को छूने के लिए उसे मध्य में से गुजराना होता है। मध्यदेश उसमे अछूता नहीं रह सकता, वह अछूता रहा भी नहीं । सूर, तुरूसी, कबीर, जायसी की रचनाएं इसका सबूत हैं । आखिर बज और अवधी एकदम पैदा नहीं हो गई । यषि गॉ. द्विवेदी अध्ययन करते तो कम से फम उन्हें इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना पड़ता कि हिन्दी साहित्य का आविकास विरोधों और स्वतो ववतो म्याघातों का काल है । या उन्हें यह नहीं लिखना पड़ता कि 'इस युग में एक भोर श्रीहर्ष जैसे बड़े-बड़े कवि हए, जिनकी रचनाएं अलंकृत काव्य-परम्परा की सीमा पर पहुँच गई । दूसरी ओर, अपभ्रश में ऐसे कवि हए जो अत्यन्त सरल और संक्षिप्त शब्दों में अपने मनोभावों को प्रकट करते थे। यह बात 'नैषधकाम्य' के श्लोकों और 'सिद्ध-हेम-व्याकरण' में आये दोहों की तुलना से स्पष्ट हो जाएगी।'
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महाकवि पुष्पवंस कृत महापुराण
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मेरे विचार में, इसमें अन्तविरोध की कोई बात नहीं। श्रीहर्ष की भाषा की तुलना पुष्पदन्त की अपभ्रश से करने पर यह स्वतः स्पष्ट हो जाएगा। पुष्पदन्त के दो ममूने उक्षुत है
"धीरं प्रविहिय मामयं सीह हयसर सामपं सिय सेत्तिय सानयं मिसिसियं हिसामपं"
एक सरल नमूना
"पर उवयारिस जीवउ वताई दीष्णुशरणु विहसगं संतहं । गोमल कति गिय महामंडलि हरिगुण कहा हुई आहंगलि।"
(महापुराण 85/17) इसमें विरोध कहाँ है ? विरोध तुलनीयों के गलत चयन में है।
आलोध्ययुग में दूसरा विरोधाभास यह है कि एक ओर उसमें दिग्गज आचार्य हुए तो दूसरी ओर निरक्षर सम्त जिनके द्वारा ज्ञान प्रचार के बीज बोए गए । परन्तु ऐसा किस युग में नहीं हुवा ? क्या बाज ऐसा नहीं है ? वास्तव में यह बीज बोने का नहीं. फसल काटने का काम है । बुद्ध और महावीर ने लोकभाषाओं में उपदेश देकर ऊंचा तत्वज्ञान आम जनता को सुलभ कराने की जो परम्परा डाली थी, या बीज बोये थे वे इस युग में अंकुरित पल्लवित होकर झाड़ बन चुके थे। और फिर आत्मज्ञान के लिए साक्षर या पढ़ा निखा होना इस देश में कतई जरूरी नहीं रहा । पढ़े-लिखे भी मूर्ख हो सकते हैं और निरक्षर भी आत्मज्ञानी ।
यह कितनी अजीब बात है कि आचार्य द्विवेदी इस युग को अन्धकार का युग माने और लिखें, 'अन्धकार के इस युग को प्रकाशित करने वाली जो भी चिनगारी मिल जाए, उसे जलाए रखना चाहिए क्योंकि वल एक बहत बड़े आलोक की संभावना लेकर आई होती है। उसमें युग के संपूर्ण मनुष्य को उद्वासित करने की ममता होती है। चिनगारी से द्विवेदी जी का अभिप्राय मध्यदेश में लिखी गई छोटी-मोटी रचना से है:
में धर की चिनगारी चाहिए, पड़ोस की धधकती आग से कोई मतलब नहीं।' आखिर क्यों ? क्या घर की चिनगारी ही पूर्ण मनुष्य को प्रकाशित कर सकती है, पड़ोस की भाग नहीं ? वास्तव में डॉ. विवेवी चाहते
किहिन्दी वाले अपभ्रश और अबहछ या देश्य मिश्रित अपभ्रश के साहित्य का गहन अध्ययन करें परन्तु प्रश्न था कि हिन्दी अनुवाद के बिना बह करे कौन? भारतीय ज्ञानपीठ ने सचमुच इस दिशा में बढ़त बड़ा ऐतिहासिक कार्य किया है।
पुष्पदन्त को रामकथा आदिपुराण (महापुराण 1-37 संधिया) की रचना के बाद कवि पुष्पदन्त का मन कई कारणों से सजन से उचट जाता है। मंत्री भरत यदि हाथ जोड़कर उनके सामने बैठकर घरमा नहीं देते तो शायद ही कवि महापुराण का वेष भाग लिखता। भरत अपने अनुरोध से कवि को मना लेते हैं और पुष्पदन्त बीस
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
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तीर्थंकरों (अजितनाथ से लेकर मुनिसुव्रत तक) का वर्णन करने के बाद रामकाव्य की रचना करते हैं । रामायण के सृजन क्षणों में पुष्पदन्त का मन आशा और उत्साह से फिर भर उठता है, क्योंकि इसमें बलदेव (राम) और वासुदेव (लक्ष्मण) के गुणों का कीर्तन है। कवि अपनी बुद्धि के विस्तार के अनुसार उनका वर्णन करता है । यद्यपि वह कलिकाल की दुरवस्था से खिन्न है, दुर्जनों के स्वभाव का वह भुक्तभोगी है। फिर भी, भरत के अनुरोध पर सृजन के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वह तैयार है । कवि एक बार फिर अपनी लाचारी की याद दिलाता हुआ कहता है प्राचीन कवियों की पंक्ति में होना तो बहुत दूर की बात, मेरे पास कोई सामग्री नहीं है। अपनश में रामायण के कर्ता कवि स्वयंभू महान् है, जो हजारों लोगों से सम्मानित है। दूसरे कवि हैं चतुर्मुख जिन्होंने रामायण की रचना की है, जिनके चार मुख हैं मेरा तो एक ही मुख है और वह भी खंडित, वह भी दुष्टता से भरा हुमा :
'म एक्कु तं पि विहिणा पेसुण्ण
खंडिय मंडित' ।'
हो सकता है मेरा कहा विद्वानों को धम को अच्छा। किए भी
अपनेपन की क्षमा मांगते हुए, काव्य रचना प्रारम्भ करता हूँ। मेरा विश्वास है कि रामकथा के कुछ प्रसंग विचक्षणों को आकर्षित किए बिना नहीं रह सकते । ये हैं- राम का यश, लक्ष्मण का पुरुषार्थ और सीता का सतीत्व ।' कवि कहता है कि जिस तरह जलबिंदु कमलपत्र पर मोली की शोभा को धारण करता है, उसी तरह उत्तम आश्रय पाकर काव्य शोभा पाता है
'जलबिंदु व पोमपत्ति थिय
मुसाहसवणु समुष्वह इ आसयगुणेण कण्णु वि सह । 69/2
जिन घटना सूत्रों की बुनावट में कवि राम के यश, लक्ष्मण के पुरुषार्थ और सीता के सतीत्व के रंगों को उभारता है, वे हैं सीता का अपहरण, हनुमान् का गुणविस्तार, कपटी सुग्रीव का मरण, तारापति (सुग्रीव) का उद्धार, लवण समुद्र का संतरण और निशाचर कुल का नाश । कवि सीता के अपहरण को केन्द्र में रखकर ही उक्त सूत्रों को बुनता है। पुष्पदन्त के रामायण-सृजन का दूसरा महत्त्वपूर्ण बिन्दु भाव और नाना रसभावों से युक्त राम-रावण युद्ध ।
-भरत का भक्ति
69वीं संधि
दूसरी जैन रामायणों की तरह, पुष्पदन्त भी अपनी रामायण राजा श्रेणिक और गणधर गौतम के संवाद से प्रारम्भ करते हैं, यद्यपि, उनकी रामकथा गुणभद्राचार्य की परंपरा पर आधारित है, जो विमलसूरि के 'पउमचरिय' को रामकथा से भिन्न है। इससे स्पष्ट है कि समान स्रोत होने पर भी रामकथा के कवि विभिन्न घटनाओं प्रभावों को ग्रहण करते रहे हैं, या उनकी नई व्याक्या करते रहे हैं। उनका संबंध श्रेणिक गौतम संवाद से जोड़ना एक पौराणिक रूढ़ि मात्र है ।
चार्म की रामकथा में राम का सीता से विवाह जनक के पशुयश से जुड़ा हुआ है। सगर का आख्यान भी यज्ञसंस्कृति से जुड़ा हुआ है, जो उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है । काव्य के रंगमंच पर जो पात्र आते हैं या जो घटनाएँ प्रस्तुत की जाती हैं, वे जैन दार्शनिक विश्वास के अनुसार पूर्वजन्म के नेपथ्य से
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महाकषि पुष्पवंत कृत महापुराण
शुरू होती हैं। अपने तीसरे जन्म में राग और लक्ष्मण, विजय और चन्द्रचूल के रूप में मित्र थे। रनपुर के राजा प्रजापति का बेटा चन्द्रकुल था। मंत्री के पुत्र का नाम बिजय था। भर-जवानी में उन्होंने युवा सेठ श्रीदत्त की पत्नी पूर्वरदत्ता का अपहरण कर लिया । प्रजा के विरोध करने पर राजा ने दोनों को जंगल में लेजाकर वध का आदेश दिया। मंत्रियों और पोरजमों के कहने पर मारने के बजाय, उन्हें गहन जंगल में ले जाया गया। वहां मंत्री ने जैन महामुनि महाबल से दोनों कुमारों का भविष्य पूछा । मुनि ने कहा-दोनों बालक तीसरे भय बलराम और वाराणहारी। तब उन दोनों ने नदीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार तप करते हुए उन्होंने मधुसूदन और पुरुषोत्तम का वैभव देखकर निदान किया कि जैन तप का यदि कोई प्रभाव हो, तो मुझे भी अगले जन्म में यह सब वैभव प्राप्त हो । विजय मरकर सनत्कुमार देव हुआ, उसका नाम स्वर्णचूल पा। इधर चन्द्र चूस मणिचूल नाम का देवता हुआ । स्वर्ग से व्युत होकर उनमें से मणिचूस काशी के राजा दशरथ की सुचला रानी का पुत्र राम हुआ। मौर, स्वर्णचूल दूसरी रानी कैकेयी से लक्ष्मण नाम का पुत्र हुआ। बड़े होने पर उनकी धाक दूर-जूर फैल चुकी थी। गोरे और काले रंगवाले वे दोनों कुमार ऐसे लगते 'थे मानो राजा दशरथ रूपी गरुड़ के पवेत और काले दो पंख हों। संख्यातीत काल बीतने पर दशरथ को काशी से अयोध्या आना पड़ा था। इसी बीच दशरथ के पुत्र भरत और शत्रुघ्न भी उत्पन्न हुए।
राजा जनक ने यश की रक्षा और सीता के स्वयंवर का जो निमंत्रण भेजा उसमें राम भी आमंत्रित थे। बशरथ के पास भी लिखित पत्र आया। उसमें लिखा था कि जो इस परम कृत्य वाले यज्ञ की रक्षा करेगा, उसे मैं अपनी सुकन्या सीता दूंगा। मंत्री बुद्धिविशारद ने पत्र का समर्थन करते हुए यज्ञ को रक्षा को परम कर्तव्य बताया। दूसरे मंत्री अतिशयमति ने इसका विरोध करते हुए राजा सगर का उदाहरण दिया। उसने कहा कि चारण नगर के राजा सुमोधन को रानी अतिथि की सुंदर कन्या सुलसा के स्वयंवर में अयोध्या का राजा सगर पहुँचा । कन्या की माँ अतिथि उसे अपने भाई के पुत्र मधुपिंगल को देना चाहती थी। तब सगर के पुरोहित मंत्री ने झूठा सामुद्रिक शासन बनाकर उसे धरती में गड़दा दिया। एक किसान को वह मिला। द्विजवर के रूप में मत्री वहाँ पहुंचा और उसने अलग अर्थ किया कि जो मधुपिगल को विवाह मंडप में प्रवेश देगा उसकी कन्या विधवा हो जाएगी। मभूपिंगल लज्जा के कारण वहां से भाग गया। बढे सगर ने कन्या से विवाह कर लिया। मधुर्षिगल ने जैनदीक्षा ले ली। एक दिन नगर में भिक्षा के लिए जन मधूपिंगल घूम रहा था वहां उसे सगर के कस्ट जाल का पता चला । उसने आक्रोश में आकर यह निदान बांधा कि सगर मेरे हाथ से मरे यदि जैन तप का कोई प्रभाव हो। वह मरकर असुरेंद्र का वाहन पानी भैसा हुआ, साठ हजार भंसाओं का अधिपति। जिनवर के धर्म को स्वीकार करते हए भी बह क्षमाभाव के बिना दुर्गति में गया। उसे ज्ञात हो गया कि किस प्रकार वह सगर के द्वारा ठगा गया। उसने मन-ही-मन कहा कि देखें अयोध्या का राजा यह अब कैसे बचता है। वह सालकायण नाम का वेदमंत्रों का उच्चारण करनेवाला ब्राह्मण बन गया, श्रेष्ठ मुनियों को दूषित करनेघाला और हिंसक ।
इसी बीच, पर्वतक की कथा शुरू होती है। विप्रवर क्षीरकदंब के तीन शिष्य थे, एस उसका बेटा पर्वतक जो पढ़ने में कमजोर था, दूसरा राजा बसु और तीसरा नारद । एक दिन वे वन में गये । क्षीरकदव ने वह एक जैनमुनि से उनका भविष्य पूछा। उन्होंने कहा कि नारद सर्वार्थसिदि जाएगा, और बाकी दो नरक, यज्ञ के फल के कारण । क्षीरकदंब की पत्नी राजा बसु को पीटने से बचाती है। मह उसे बर देता है। आचार्याणी उसे भविष्य के लिए सुरक्षित रखती है। वह पति से लगड़ा करती है कि वह नारद को विशेष पढ़ाते हैं, अपने लड़के को नहीं । क्षीरकदंब विविध प्रयोगों द्वारा पस्ली को बताता है कि नारद जन्म से प्रतिभाशाली है, जबकि पर्वतक मंदबुद्धि है । अन्त में क्षीरकदंब नारद को परिवार सौंपकर जैन हो गया। वह मर कर स्वर्ग गया । बहुत दिनों बाद नारद और पर्वतक में अज' शब्द के अर्थ को लेकर विवाद हो गया। नारद
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
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के मनुसार अज का अर्थ तीन साल का पुराना जौ था, जबकि पर्वतक के अनुसार बकरा। लोगों ने पर्वतक को नगर से निकाल दिया। पर्वतक मालकायण का शिष्य हो गया। वे दोनों अयोध्या नगरी पहुंचे। पशुयश का प्रचार करते हुए तथा यज्ञ में होमे गए पशुओं को साक्षात् देव बताते हुए, राजा सगर को उन दोनों ने धोखा दिया। उनके बहकावे में भाकर राजा ने अपनी पत्नी सुलसा भी यज्ञ में होम दी। पत्नी के वियोग से दूखी होकर सगर ने एक दिन जैन मुनि से पूछा, 'क्या पणओं का वध धर्म है ?' उन्होंने कहा कि ही अहिंसा से धर्म होता है और हिंसा से अधर्म । सगर के पूछने पर मुनि ने बताया कि सातवें दिन उसके ऊपर बिजली गिरेगी। सगर ने आकर पर्वतक से कहा । उसने जनमुनि की निंदा की । असुरेन्द्र ने राजा को नभ में मुनि सुलसा देवी के दर्शन करा दिए। सगर दुगुने उत्साह से यज्ञ में लग गया। अन्त में राजा सगर पर गाज गिरती है और वह मारा जाता है। असुरेन्द्र ने एक बार फिर कपट भाव किया और राजा वसु को स्वर्ग के विमान में स्थित बताया।
सगरका मन्त्री आनंदित हआ। उसने कहा कि मुखों ने यज्ञ की निंदा की। उसने भी राजस्थ यश किया, विद्याधर दिनकर ने उसे आड़े हाथों लिया और राजा के एक मास के होम को नष्ट कर दिया । महाकाल के विस्तार को भी नष्ट कर दिया। नारद का मन आनंदित हुआ । असुरेन्द्र ने घोषणा की कि पर्वतक तुम नाश को प्राप्त मत होओ। तुम चारों तरफ जिनप्रतिमाएं स्थापित कर दो जिससे विद्याधर विद्याएं प्रवेश न कर पाएँ । वे दोनों नरफ गये । असुरेन्द्र ने लोगों से कहा कि उसने अपना बदला
70ो संधि
अतिशयमति मंत्री के हित वचन सुनकर राजा दशरथ का मिथ्या दर्शन नष्ट हो गया। उसने जैन धर्म ग्रहण कर लिया । राजा के मंत्री महाबल ने पुत्रों का प्रताप देखने के लिए, उन्हें यज्ञ में भजने का प्रस्ताव रखा। राजा दशरथ ज्योतिषी से राम लक्ष्मण के भविष्य के बारे में पूछता है। वह बताता है को सतानेवाले राघण को मारकर विजयी होंगे। देशरय भुवनविख्यात रावण के बारे में पूछताह। पुरोहित कहता है कि नागपुर में राजा नरदेव था। उसने दीक्षा ले ली। आकाश में जाते हुए चपलबेग और विचित्रकेतु विद्याघरों को देखकर उसने निदान बौधा कि तप के प्रभाव मे मेरा इन विद्याधरों जमा ऐश्वर्य हो। विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघ शिखर में सहस्रगीव नाम का राजा था। वह झगडा करके वहाँ से त्रिकट नगर में आ गया। उसने लंका का निर्माण कराया । बीस हजार वर्ष उसने उस नगरी का पालन किया। शतप्रीव ने पच्चीस हजार वर्ष। पंचदशग्रीव बीस हजार वर्ष जीकर मर गया। पुलस्त्य पन्द्रह हजार वर्ष । उसकी पत्नी मेषलक्ष्मी की कोख से राजा नरदेव रावण के रूप में उत्पन्न हआ। उसका कोई प्रतिमम नहीं पा 1 राजा मय ने अपनी कन्या मन्दोदरी से उसका विवाह कर दिया। एक दिन आकाशमार्ग से जाते हुए उसने ध्यान में लीन मणिवती को देखा। रावण की मति चंचल हो गई। उसने कन्या को ध्यान से विचलित करना चाहा। होमणिवती ने यह निदान बौधा कि अगले जन्म में वह उसकी कन्या होफर उसकी ही मौत का कारण बने । अगले जन्म में वह मंदोदरी की कन्या हुई। ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सुनकर रावण ने उसे मारना चाहा । परन्तु मारीच ने मंदोदरी को समझाकर उसे मंजुषा में रखवाकर मिथिलानगर के उद्यान में गड़वा दिया। एक किसान को वह मंजूषा मिली जिसे उसने वनपाल को देदी। उससे वह राजा जनक को दी गई। जनक ने उसे अपनी पत्नी को दे दिया। सीता जब बड़ी हो गई तो उसके स्वयंवर के सिलसिले में राजा दशरथ ने राम लक्ष्मण को वहां भेजा। राम ने उससे विवाह कर लिया। वे उसे बिनीतपुरी (मयोष्ण) ले आए। वसंत के आने पर अयोध्या में वसंत क्रीश की धम मच गयी। राम ने पिता से अनुमति लेकर परंपरागत वाराणसी पर कम्जा कर लिया। इस प्रकार राम, लक्ष्मण और सीता काशी में रहने लगे।
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महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण 11 संधि
कलहप्रिय नारद ने जाकर रावण से कहा, 'सीता जैसी अनिन्द्य सुन्दरी तुम्हारे योग्य है।' रावण सीता को समझाने के लिए पहले अपनी बहन चंदनखा को भेजता है । लेकिन यह असफल लौटती है और उल्टे रावण को ही समझाती है। रावण उसे मना कर, पुष्पक विमान में जा बैठता है।
72ी संधि
रावण मारीच को लेकर वाराणसी गमा । उस समय राम और सीता वसंत क्रीड़ा के अनंतर वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। रावण कहाँ पहुंचा । उसने कपटपक उसके अपहरण का निश्चय किया। मारोष सोने का मृग बनकर दौड़ता है, राम पीछे-पीछे दौड़ते हैं। बहुत दूर ले जाकर मारीच संकेत करता है और इधर रावण सीता का अपहरण कर लेता है । वह उसे ले जाकर नंदन वन में रखता है और विद्यारियों से उसको समझाने के लिए कहता है । सीता विलाप करती है। वह रावण के प्रस्ताव को ठुकराती है।
73 संधि
सीता के अपहरण से दुखी राम मूछित हो जाते हैं। दशरथ स्वप्न में सीता के अपहरण की बात जानकर इसकी सूचना राम को देते हैं। विद्याधर सुग्रीव और हनुमान राम से भेंट करते हैं । सुग्रीव अपना परिचय देते हुए, अपनी समस्या उनके सामने रखता है कि उसके भाई बालि ने उसे निकाल कर उसकी पत्नी ले ली है।हनुमान् सीता का पता लगाने का आश्वासन देते हैं। सम्मेदशिखर पर जाकर वे सिक्षकद जिनालग सीना करते हैं। हननमंका के लिए काम करते हैं। वह भ्रमर का रूप धारण कर लंका नगरी में प्रवेश करते हैं। वहां वह रावण को सिंहासन पर स्थित देखते हैं।
इधर अनुसरों को सीता के शरीर का वस्त्र मिलता है। वहाँ सीता में आसक्त रावण का किसी भी काम में मन नहीं लगता । वह सीता को समझाता है। सीता उसे मुंहतोड़ उत्तर देती है। मंदोदरी राषण को समझाती है। मंदोदरी सीता को उसके पैरों के कुछेक विशेष चिह्नों से पहचान लेती है।
हनुमान् सीता से भेंट करते हैं और प्रत्यभिज्ञान के साथ राम का संदेश देते हैं। वह राम के वियोग की भी स्थिति के बारे में बताते हैं। हनुमान सीता को आश्वासन देते हैं। राम का वृतान्त मिलने पर सीता मंदोदरी के अनुरोध पर भोजन करती है । हनुमान् राम के पास सीता का संदेश लेकर पहुंचते हैं।
74 वीषि
हनुमान विस्तार से सीता के वियोग का वर्णन करते हैं। राम की पंचागमंत्रणा । राम एक बार फिर रावण के पास दूत भेजते हैं। हनुमान् दुवारा दूत बनकर जाते हैं। राम विस्तार से दूत को समझाते है। हनुमान् लंका में प्रवेश करते हैं। उनके सौंदर्य को देखकर लंका की विद्यारियों का मन विचलित हो उठता है। हनुमान् रावण को समझाते हैं। रावण इसे रंडा कहानी कहकर दूत की बात टाल देता है। रावण के विभिन्न सामंत भी अपनी-अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं।
75वीं संधि
हनुमान् लौटकर आते हैं । इधर लक्ष्मण बालि से युद्ध करते हैं। हनुमान् अपने दौत्य का प्रतिबेदन प्रस्तुत करता है। राम से मिलने के लिए बालिका दूत आता है। वह कहता है कि यदि राम सुग्रीव को निकाल बाहर करें, तो बालि उनकी अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार है। यह सीता को
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
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वापस ला सकता है। राम ने कहा यदि वह अपना हाथी देता है तो वहीं इस मित्रता का कारण हो सकता है। राम ने दूत के साथ अपना आदमी भेजा। बालि के राजमंत्री ने उससे कहा- राजा वालि हाथी नहीं, असि प्रहार देगा। टूल ने वापस आकर, कानों को कटु लगनेवाले वे शब्द राम से कहे। राम स्वयं को कठिन स्थिति में पाते हैं, इधर कुआ उधर बाई लक्ष्मण और हनुमान् उस पर चढ़ाई करते हैं । बालि-बध ।
76 वीं संधि
राम लंका पर चढ़ाई के लिए प्रस्थान करते हैं। विभीषण रावण को समझाता है। सेना और बुद्ध का वर्णन ।
1778 वीं संभि
हनुमान् केन लौटने पर राम की चिन्ता विभीषण उन्हें समझाता है। युद्ध का वर्णन रावण विभीषण को बुरा-भला कहता है। युद्ध का वर्णन लक्ष्मण के द्वारा रावण का वध । मंदोदरी का विलाप । विभीषण जी पश्चात्ताप करता है। उसके अनुसार रावण का एक ही दोष है कि उसने जैनधर्म का आदेश न मानते हुए परस्त्री का अपहरण किया। राम रावण का दाह संस्कार करते हैं। युष्पदन्त का कथन है कि दूसरे की स्त्री से राम होने पर भी हलके समझे जाते हैं। विभीषण को राजपट्ट बांधा जाता है।
79 वीं संधि
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उसके बाद राम पृथ्वी का परिभ्रमण करते हुए, कोटिशिला पहुंचते हैं। लक्ष्मण कोटिशिला उठाते हैं। दोनों भाई गंगा के किनारे-किनारे चलते हैं और उसके उद्गम स्थान पर पहुं बते हैं। यहां उन्होंने पटमंड ताने लक्ष्मण ने समुद्रपर्यन्त अपना रथ हाँका ये नयध देश आए। वहाँ उनका अभिषेक किया गया और भी कई कीमती वस्तुएँ उपहार स्वरूप प्राप्त हुई। समुद्र के किनारे-किनारे जाकर वर को फिर सिंधु को जीतकर प्रभास तीर्थ को जीता। फिर लेण्ड दिशा के समस्त शत्रुओं को जोता विजयार्ध की दोनों श्रेणियों को जीत कर इतमातंग विद्याधर की कन्याएँ पग की देव दिशा के म्लेच्छा खंड को जीतकर भूनिमंडल पर अपना राजदंड घुमाकर वे अयोध्या लौट आए। वहाँ राजा राम लक्ष्मण का अभिषेक हुआ। वे दोनों इन्द्र को लीला करते हुए रहने लगे। उन्हीं दिनों शिवगुप्त मुनि का नंदनवन में आगमन होता है। वे जैनधर्म का उपदेश देते हैं। जैन दृष्टिकोण से वे संसारचक्र का विचार करते हैं, दूसरे दार्शनिक के मतों का खंडन भी उपदेश सुन कर राम श्रावक व्रत धारण कर लेते हैं। लक्ष्मण ने एक भी व्रत ग्रहण नहीं किया। दशरथ के मरने पर भरत और शत्रुघ्न साकेत में अधिष्ठित हुए। राम और लक्ष्मण वाराणसी गए। राम का पुत्र विजयराम हुआ, उनके सात पुत्र और हुए। लक्ष्मण का पुत्र पृथ्वीचन्द्र था। उसके और भी पुत्र हुए। बहुत समय बीतने पर पृथ्वी पर अनिष्ट लक्षण प्रकट हुए। राम ने दान दिया और जिन पूजा की। लक्ष्मण की मृत्यु। राम और सीता का शोक राम ने चार घातिया कर्मों का नाश किया, देवताओं ने पुष्पों की वृष्टि की राम को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। परमावादी लोग यही कहते हैं कि धन किसी के साथ नहीं जाता। धरती रूपी राक्षसी ने किसकिस को नहीं खाया !
रामकथा की पृष्ठभूमि
पुष्पदन्त की रामकथा में कथा कम, काम्य-तत्त्व अधिक है। कवि मनुष्य की भौतिक इच्छाओं को निस्सर रता, तप त्याग और नैतिक मूल्यों का चित्रण तत्कालीन सामन्तवादी पृष्ठभूमि में करता है। जीव का अपना कर्म ही उसके सुख-दुःख, बन्धन और मोक्ष के लिए उत्तरदायी है। चूंकि कर्म का कर्ता और
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महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण
भोक्ता वह खुद है इसलिए वर्तमान में वह जो है उसके लिए वह खुद जिम्मेदार है। जैन दर्शन का यह सिद्धान्त कवि के सुजन का आधारभूत सिद्धान्त है जो उसके चरित्र-चित्रण और घटनाओं के वर्णन में प्रतिविम्बित है। यह होते हुए भी उनकी कविता के कुछ भौतिक मुल्य भी हैं जिन्हें रामकथा के पात्र जीते हैं और जिन के प्रति कवि का संवेदनशील लगाव है। कवि के रामकाक्ष्य के आध्यात्मिक मूल्य परम्परा से प्राप्त हैं, पहले से निर्धारित हैं और जिनके अनुसार पात्र असा जोकहीने ल: मोरिंग हार है उसे कलात्मक अभिव्यक्ति देना ही कवि का उद्देश्य है।
पुष्पदन्त ने जिस परम्परागत रामकथा को चुना है और उसे जिस रूप में काव्य के सारे मे डाला है, उसमें सामन्तवाद के आदर्शों को स्पष्ट छाप है। उदाहरण के लिए, राम और लक्ष्मण ने पूर्वकालीन तीसरे भव में, जब वे राजपुत्र और मंत्री-पुत्र थे, युवा सेठ की पत्नी कुबेरदत्ता का अपहरण किया था। प्रजा के विरोध करने पर दोनों को फाँसी होती, परन्तु वृद्धजनों के बीच-बचाव के कारण वे बच गए, और जैन तप करके वे बलभद्र और वासुदेव हुए। उन्हें फ:सो पर नहीं लटकाए जाने का दूसरा कारण महाबल मुनि का यह भविष्य-कदन रहा है कि दोनों तीसरे जन्म में महापुरुप होने वाले हैं। प्रश्न है कि यदि भविष्य कथन में यह बात निकलती कि दोनों महान् की जगह मामान्य पुरुष या आम आदमी होने वाले है तो क्या राज्य मृत्युदण्ड माफ कर देता? दुसरा निष्कर्ष यह है कि लोग सत्ता का दुरुपयोग करने के लिए ही सत्ता में जाते हैं। सत्ता का सुख ठोस, जबर्दस्त और मम्मोहक है। चाहे वह सामंतवाद हो या प्रजातन्त्र, राजपुरुष और उनके निकट के लोग सुरासुन्दरी में लिप्त रहन रहे हैं । लिप्त तो दूसरे भी हैं । मर्यादित लिप्त होना बहुत बुरा भी नहीं है। परन्तु जिसके हाथ में सत्ता होती है (चाहे धन की हो या राज्य की) उन्हें मनोरंजन के क्षेत्र और साधन अधिक सहजता से सुलभ होते हैं। हो सकता है राम-लक्ष्मण ने अपने तीसरे भव में वह सब न किया हो जो कर्म फल निवासी जैन कवियों ने उनके साथ जोड़ दिया है. सत्-असत कम का फल बताने के लिए। लेकिन जब इम राम के वर्तमान जीवन में उतार-चढ़ाव देखते हैं तो सोचते हैं कि उसका कोई न कोई कारण जरूर रहा होगा। संगार में अचानक कुछ भी घटित नहीं होता, कारण कार्य और नाय कारण । कारण-कार्य की इस शृखला का नाम ही संपार है। प्रत्येक दर्शन इस श्रृंखला की व्याख्या अपने ढंग से करता है। जैन-नर्णन में भी इसकी व्याख्या कर्म सिद्धान्त के आधार पर की है। इसका उद्देश्य यह बताना है कि व्यक्ति जो कुछ करता है उसका फल उसे ही भोगना पड़ता है। उसमें किसी की भागीदारी नहीं हो सका। रार की नरव रावण का वर्तमान जीवन भी उसके पूर्व कमों का फल है। रागढेप की क्रियाप्रतिक्रियाएँ जन्म-मनालगनक चलती है।
पुष्पदन्त की रामकथा में कोयी के वरदान, राम का वनवास, सीता की अग्नि परीक्षा, राम द्वारा सीता का निर्वासन, राम लवगांकुश, जटायु, बलयात्रा आदि प्रसंग नहीं है। एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह है कि राजा दशरथ को म्वाज में रावण द्वारा सीता के अपहरण का आभास मिल जाता है जिसकी सूचना दे राम को भेज देते हैं। विभीषण को लंका का राजा बनाकर सम लक्ष्मण और सीता के साथ दिग्विजय पर निकलते हैं, जो लक्ष्मण के धंचक्रवर्ती बनने के लिए जरूरी है। उसको यह दिग्विजय, भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय से मिलती-जुलती है।
चरित्र-चित्रण
दशरथ - पुणवन्त के अनुसार, दशरथ जन्मत: जैन नहीं थे। प्रारम्भ में वे हिंसक यज्ञों में विश्वास रखते थे। अपने मन्त्री अतिशयमन के, जो जन धा, समझाने पर उन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया।
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
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उनका महत्व नहीं है कि वे राम-लक्ष्मण के पिता है। लक्ष्मण कैकेयी से उत्पन्न है, इसलिए भरत को राजपाट दिलाने के लिए वर माँगने और उससे सम्बन्धित घटनाएं पुष्पदन्त की रामायण में नहीं हैं। मन्त्री के उपदेश मे वद्य दशरथ का मिथ्यादर्शन दूर हो जाता है फिर भी मन्त्री महावत के अनुरोध पर वे राम-लक्ष्मण को मिथिला भेज देते है । परम्परा से प्राप्त काशी के छिन जाने पर दशरथ के मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। राम के अनुरोध करने पर वे सीता सहित राम-लक्ष्मण को वाराणसी भेज देते हैं। स्वप्न में सीता के अपहरण का आभास पाकर वे इसकी सूचना राम को भेजकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं।
जनक - जनक का चरित्र भी स्पष्ट रूप से उभरकर नहीं आता। सीता उनकी पालित कन्या है। बहु मिथिला नगरी के राजा हैं, जो यह सोचते हैं कि यज्ञ में पशु वध से स्वर्ग मिलता है। यज्ञ की रक्षा करना उनके लिए सम्भव नहीं है। इसलिए उन्होंने दूसरे राजाओं सहित दशरथ के पास यह पत्र भेजा कि जो विद्याधरी से यज्ञ की रक्षा करेगा उसे वे पृथ्वीपुत्री सोता देंगे बहुत न उपहारों और लेख के साथ दूत दशरथ के पास आया। राम के शत्रुओं का विनाश करने पर जनक शीता का विवाह राम से कर देते हैं।
राम जैन पुराणों के अनुसार, राम साठवें बलभद्र है। वे कौशल्या के नहीं, सुबह के पुत्र है। सुन्दर शरीर होने से राम कहा गया जिस समय राम की तभी कैकेयी से लक्ष्मण से का कवि ने दोनों के शौर्य और सौन्दर्य का वर्णन एक साथ किया है। एक हिमगिरि के शिखर के समान है तो दूसरा अंजनगिरि के शिखर की तरह दोनों गंगा और यमुना के प्रवाहों की तरह हैं। राम के तीरों
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के प्रसार को देखकर दुश्मन कांप जाते हैं। शस्त्र और शास्त्र दोनों में उनका समान अभ्यास है। मन्त्री महाबल और चतुरंग सेना के साथ राम जनकपुरी जाते हैं, विद्याधरों से यज्ञ की रक्षा करने के साथ वे हिंसक यज्ञ को दिन्या करते हैं। जनक राम को सीता अर्पित कर देते हैं। राम के साथ सीता ऐसी प्रतीत होती है जैसे धवल मेघ के साथ बिजली कुछ दिन राम और लक्ष्मण मिथिला में सकते है। इस बीच पिता दशरथ के दूत भेजने पर राम, वधू के साथ अयोध्या जाते हैं सबसे पहले वे जिन प्रतिमा की पूजा करते हैं। प्रसन्न होकर दशरथ सात दूमरी कन्याओं का शम के साथ विवाह कर देते है। इसी प्रकार खोल कन्याओं से लक्ष्मण का विवाह किया गया। वसन्त कीड़ा के बाद राम, दशरभ से कहते हैं कि परम्परा से प्राप्त वाराणसी नगरी अपने अधिकार में कर लेना उचित है। पिता के सामने वे राजनीति शास्त्र का लम्बा-चौड़ा बखान करते हैं । अन्त में पिता की अनुमति पाकर राम लक्ष्मण एवं सीता को साथ ले वाराणसी पहुँचते हैं। नगर की अनिताओं पर उनके कामतुल्य सौन्दर्य की तीतर प्रतिक्रिया होती है। धीरोदात कुलीन सामन्त राजाओं की तरह लक्ष्मण के साथ राम का नगर में प्रवेश होता है। दही, अक्षत और सरसों स्वीकार करते हुए दोनों भाई राज्यलय में प्रविष्ट होते हैं। किसी को प्रिय वचन से, किसी को उपहार से किसी को रण के उद्भट शब्द से, किसी को उपकार से किसी को नौकरी देकर सभी को संतुष्ट करते हैं। इस प्रकार दोनों भाई किसी को प्रेम से, और किसी को बाहुबल से अपने अधीन करते हैं । कितने ही वनपालों और माण्डलीक राजाओं को जीत लेते हैं ।
नारद के उकसाने पर रावण मारीच की सहायता से सीता के अपहरण की योजना के साथ वारापसी के उद्यान में पहुँचता है, वहाँ राम वसन्त-कीड़ा के अनन्त र वृक्ष की छाया में सीता के साथ विधान कर रहे थे। उन्हें देखकर रावण को लगता "विश्व में एक मात्र राम कृतार्थ हैं कि जिनके पास सीता जैसी सुन्दर स्त्री है।" राम मायावी स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए दौड़ते है और इधर रावण सीता को उड़ा ले जाता है। लम्बा रास्ता चलने से पके हुए राम जब वोटने हैं, तो शाम को हुआ सूरज उन्हें परदार (रायण) की तरह दिखाई देता है। लक्ष्मण के यह कहने पर कि जब आप मृग के पीछे गए थे और मैं सरोवर में था, तभी
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महाकछि पुष्पवंत कृत महापुराण से सीता वन में नहीं है। यदि वह जीवित है (हिंसक पशु यदि उन्हें नहीं खा गया हो) तो यह आपका प्रबल पूण्य माना जाएगा। राम मूठित होकर धरती पर गिर पड़ते हैं। उपचार के बाद होश में आने पर सीता के बिना उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता। वह वन्य प्राणियों और पेड़-पौधों से सीता के बारे में पूछते हैं । खोज करने वाले अनुचरों को वांस पर टेगा सीता का उत्तरीय मिलता है, जिसे लाकर वे राम को देते हैं। राम उसे छाती से लगाते हैं और अपनी आँखें पौंछते हैं 1 दशरथ के स्वप्नदर्शन से यह मालम होने पर कि सीता का अपहरण रावण ने किया है, भरत और शान भी उनकी सहायता के लिए वहां पहुंचते हैं।
राम का दूत बनकर गए हुए हनुमान् सीता से राम के बारे में कहते हैं: वह तुम्हारे वियोग में दबसे हो गए हैं। वे प्रतिदिन आपकी याद करते हैं। वह न तो बोलते हैं और न किसी चीज में उनका मन रमता है। वह किसी स्त्री को देखते नहीं। तुम्हारा ध्यान वह उसी तरह करते हैं जैसे योगीश्वर शाश्वत सिद्धि का 1 हनुमान् राम और सीता के मिलन की अंतरंग पहवान बताते हैं। उससे स्पष्ट है कि दोनों में एक दूसरे के प्रति प्रगाव प्रेम पा । हनुमान् जब सीता की कुशलवार्ता लेकर आते हैं तो देखते हैं कि दुर्ग के भीतर राम 'हा सीते, हा सीते चिल्ला रहे हैं और अपनी छाती पीट रहे हैं
"हा सीप सीय सकलुण कमंतु
णिय करयलेप कर सिक हर्मत" हनुमान् को देखकर वह पूछते हैं---"क्या मेरे बिना, मूछित होकर स्पक्त प्राण वह गिरी पड़ी है या मृत्यु को प्राप्त हो गई है ? वह कुशलबार्ता लाने वाले हनुमान का प्रगाढ़ आलिंगन करते हैं। पंचांग-मंत्रणा के बाव, राम एक बार फिर हनुमान को दूत बनाकर भेजते हैं। रावण की चुनोती स्वीकार कर राम लंका पर पढ़ाई के लिए प्रस्थान करते हैं। विभीषण के मिलने पर राम कहते हैं कि यदि चित्त से चिप्स मिल जाय तो पराया भी भाई के समान हिसकारी है । इसके विपरीत भाई यदि नित्य र बढ़ाता है तो वह दुश्मन है। युद्ध में रावण माया के बल से सीता के सिर को काटकर राम के सामने डालता है। राम सीता को मरा हबा जानकर मूछित हो जाते हैं। कठिनाई से होश में आते हैं। सक्ष्मण के द्वारा रावण के मारे जाने पर, आनन्द से उद्वेलित राम रोमांचित हो उठते हैं। वे लोगों की मनोकामनाबों को पूरा करते हैं। कवि कहता है कि राम के समान कोई नहीं है जिन्होंने रावण की मृत्यु होने पर विभीषण को राज्य दिया और सुधियों तथा सुभटों का प्रतिपालन किया।
पुष्पपन्त की रामायण में सीता के अपहरण या रावण के नन्दनवन में रहने के कारण लोक में कोई सुरसुरी नहीं उत्पम्न होती। और, न स्वयं राम के मन में इस बात को लेकर उथल-पुथल है कि रावण ने सीता का अपहरण किया । बल्कि राम के आवेश से अंगद हनुमान आदि अशोक बन में जाफर सीतादेवी की प्रशंसा कर केवाव की विजय की सूचना देते हैं और उन्हें से आते हैं। सीता राम से मिलती है। कवि उपमाएं है
"माणिय मिलिय रेवि बलबउ, अमरतरंगिषिणाइ समुवः। हेमसिवि णावइ रसिमड, केवलणागरिद्धि गं मुहर विग्यवाणि मागिय परमत्यद, वर-काइमहणं पंडियसस्थाह। चितसृद्धि में चारुमुणिवह, पं संपुष्णकति छणयवहू । में वर मोक्खालग्छि अरहंतह, बगुगसंपय पं गुणवंतह। 78/27
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आलोचनात्मक मूल्याकत
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--मानो गंगा समुद्र से जा मिली हो, स्वर्णसिदि रससिद्धि से मिल गई हो; मानो केवलज्ञान को ऋठि युद्ध से, विष्यवाणी परमार्थ से जा मिली ही; मानो पंडित समूह से श्रेष्ठ कविद्धि मिल गई हो; भव्य मुनियों नो निहदि सिम गई हो, गाजिर पूर्णचन्द्र को सम्पूर्ण कान्ति । मानो अरहन्त से श्रेष्ठ मुक्ति लक्ष्मी जा मिली हो, या गुणवान् को मानो बहुगुण संसि मिल गई हो।
राम रोती हुई मंदोदरी को समझाते हैं, शोक विह्वन इन्द्रजीत को धीरज बंधाते हैं, रावण के समस्त भाइयों को बुलाकर, नागरिकों को शंका दूर कर, महामंत्रियों से विचार-विमर्श कर, विघ्नकारी तस्वों का उन्मूलन कर, जिनेन्द्र का अभिषेक कर, यज्ञ और विविध दान कर, शत्रु और मिन के प्रति मध्यस्थ भाव धारण कर, सामन्तों को अपने पक्ष में यथायोग्य निमंत्रित कर, गृहों और ब्राह्मणों आदि की पूजा कर, धर्म का पालन कर और अधर्म से डरकर, राम विभीषण को लंका के राज्य पर आसीन कर देते हैं, उन्हें राजपट्ट बांध देते हैं। राम के विजयाराम तथा सात और पुत्र होते हैं। पश्चात् राम दुस्वप्न देखते है। वे शान्ति विधान करते हैं । लक्ष्मण की मृत्यु से राम शोक मग्न हो उठते हैं और अंत में शिवगुप्त मुनि से थावक व्रत और फिर दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
राम का पन्तम्-हनुमान् और सुग्रीव को शरण देने के कारण, जब बालि युस की चुनौती देता है तो राम की स्थिति 'इस मोर कुआं और उस ओर खाई' वाली हो जाती है। इधर बालि उधर रावण । एक तो सूर्य और फिर ग्रीष्म काल ! एक तो तम और दूसरे मेघजाल ! एक तो अभव और फिर कवच से युभत ! एक तो यम और फिर पूर्णकाल ! एक तो साप और दूसरे विषली दृष्टि ! एक तो शनि और दूसरे वष्टि | एक तो दुर्धर दशमुख विरुद्ध है, और प्रसरे दालि क्रुद्ध है!"मित्र क्षीण है और शत्रु बलवान हैं।"
(7514) हनुमान् सीता की कुशलवार्ता के प्रसंग में राम से कहते हैं
"णबवणकता , व वसंतह । सुमा कोइस, धीरतें हस। जिन गुग जापा, तिह तुरा जाणह । तुह सा राणी, वंति समाणी। भाहं वन्चर, लगु वि ण मुच्चइ ।
कुल हर बुत्ति व, धम्मपवित्ति au" (74/1) -जिस सरह नववन से सुन्दर वसंत को कोयल याद करती है, उसी तरह वह तुम्हें याद करती है। जिस तरह जानकी धीरता से धरती और जिनगुण को जानती है वैसे ही तुम्हें जानती है। तुम्हारी पह रानी शांति के समान भव्यों को अच्छी लगती है। वह कुलधर की एक क्षण को भी नहीं छोड़ी जाती युक्ति और धर्म की पवित्रता की तरह है।
सीता-पुष्पदम्त के अनुसार सीता रावण की पुत्री है. पूर्वभव की, विद्यासाधना में रत मणिवती नाम की। पूर्वभव में काम पीड़ित रावण ने उसका ध्यान विचलित करना चाहा था, तब तपस्विनी पन्या ने यह निवान गांधा था कि यह अगले जन्म में इस कामान्ध की बेटी के रूप में जन्म ले और इसकी मौत का कारण बने। अनिष्ट की आशंका से रावण जैशव अवस्था में उसे मंजूषा में रखवाकर मारीच के जरिए जनकपुरी के उद्यान में गड़वा देता है । वनपास लाकर उसे राजा जनक को देता है । जनक उसे बेटी की तरह पालते हैं । सौता मानिन्ध मुन्दरी है। उसकी सुन्दरता पर कवि सारे सौन्दर्य-उपमान निछावर कर देता है। धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देने पर, राम से उसका विवाह होता है।
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महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण
सीता का वास्तविक चरित्र तब शुरू होता है जब नारद मुनि के उकसाने पर रावण सीता के अपहरण की योजना बनाता है। सबसे पहले पन्द्रनमा दूती बनकर सीता के पास आती है। उसे देखकर वह विद्याधरी कहती है कि रूप में सीता के सामने उवंशी और रंभा भी कुछ नहीं हैं । चन्द्रनखा राम को पुण्यवान मानती है। पूछने पर वह स्वयं को धनपान की मां बताती है । वह जानना चाहती है कि उन्होंने पूर्व जन्म में कौन-सा प्रत किया जिससे इतनी सुन्दर हुई, वह भी उस स्वाधीन यौवन को साधेगी। सीता उससे कहती हैतुम नारीत्व क्यों चाहती हो ? रजस्वला होने पर वह चंडाल के समान है। वह अपने कुटुम्ब का स्वामित्व प्राप्त नहीं कर सकती। किसी कुल में पैदा होती है और बसी होने पर किसी दूसरे कुल में ले जाई जाती है। स्वजनों के वियोग पर रोती है, आँसू बहाती है। मंत्रणा के समय किसी को अच्छी नहीं लगती। जब तक जीती है पराधीन जीती है। दुभंग, दुष्ट, दुर्गध, दुराशय, अंधा, बहरा, रोगी, गूंगा, क्रोधी, निर्धन, कुटिल असा भी पति मिलता है नारी को उसी को मानना होता है। दूसरे का पति कितना ही बड़ा हो, वह पिता के समान है। विधवा होने पर मुड मटा कर तप करना पड़ता है। बचपन में पिता रक्षा करता है, जवानी में पति रक्षा करता है, बुढ़ापे में बेटा रक्षा करता है, ताकि वह कोई खोटा काम न कर । भोजन और सोने में उसे दूसरे के अधीन रहना पड़ता है। इसलिए तुम महिलापन को क्यों मांगती हो? गह सुनकर पन्द्रनखा अपनासा मह लेकर रावण के पास जाकर कहती है-सीता अपने व्रत से नहीं टल सकती। भले ही घरती अपने स्थान से हिग जाए । रावण के अपहरण करने पर सीता मूछित हो जाती है, स्वर्णपुत्तलिका की तरह यह धरती पर पड़ी है । सुधीजनों की याद से उसकी वेदना दुगुनी बढ़ जाती है। सीता यद्यपि निश्चेतन हो जाती है फिर भी उसका वस्त्र नहीं हसता। जार की चंचल दष्टि आखिर कहां ठहरेगी? कवि कहता है कि सती और सुभट के मजबूती से बंधे हुए वस्त्र (परिफर) हाथ से नहीं छूटते । मोत का अवसर आ जाने पर भी दोनों का परिकर बन्ध नहीं छूटता
"वाणिवसगु सहि सुहगह करासि ग बिपट्टा ।
मरणि सभावडिह परियारविहि विहि विग फिट्टा ॥" 72/7 रावण उसको इसलिए नहीं छूता क्योंकि उसे अपनी विद्या के चले जाने का डर है।
दूत्तियों द्वारा रावण की प्रशंसा किये जाने पर, सीता उन्हें मूर्ख समझकर चुप रहती है। रावण को चक्ररत्न की प्राप्ति होने पर भी सीसा हरती नहीं। राम की खबर मिलने तक वह भोजन छोड़ देती है। हनुमान अब उनसे राम का सन्देश कहते हैं तो वह समझती है कि उसे भोजन कराने के लिए शत्रु का यह कूट-कपटजाल है । लेकिन हनुमान के गूढ़ अभिज्ञान वचन सुनकर वह विश्वास कर लेती है कि यह रामदत है, और भोजन कर लेती है। वह मंदोदरी से कहती है कि उसके जीते-जी उसे राम के पास भेज दिया जाए। अंत में तपश्चरण कर वह सोलहवें स्वर्ग जाती है।
भरत और लक्मण-यद्यपि पुष्पदन्त ने प्रस्तावना में कहा है, कि इसमें (उनकी रामकथा में) राम का पश और लक्ष्मण का पौरुष है। परन्तु लक्ष्मण के चरित्र का पूर्ण विकास नहीं हो सका है। इसी प्रकार कवि राम और रावण के युद्ध को अनेक रसभाव का उत्पादक और भक्ति से भरे मरत के चरित्र का कारण मानता है, परन्तु उसमें भरत का चरित्र कहीं नहीं दिखाई देता । फिर पुष्पदन्त द्वारा रामकथा में राम का वनवास है ही नहीं। राम लक्ष्मण के साथ अपने पूर्वजों को पुनः अपने आधिपत्य में लेने के लिए जाते हैं, जहां नारद के कहने पर रावण सीता का अपहरण करता है। इसकी सूचना दशरथ राम को भेज देते हैं। परंपरागत रामकथा के जिन प्रसंगों को पष्पदन्त ने विस्तार दिया है. वे, सीता अपना हनुमान के गुणों का विस्तार, कपटी सुग्रीवराज का मरण, तारा का उद्धार, लवण-समुद्र का संतरण और राक्षस वंश का विनाश ।
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
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शृगार , ऋतु और प्रकृति वर्णन
शाओं सान गौरमिपति से लगनाप राजा जनक, सीता को राम के लिए दे देते हैं। हलधर सीता को ऐसे ग्रहण करते हैं, मानो जलधर ने बिजली को पकड़ लिया हो। मानो परमात्मा ने त्रिभवन लक्ष्मी को ग्रहण किया हो, मानो चन्द्रमा से कुसुममासा विकसित हुई हो । दशरथ दूत भेजकर राम को अयोध्या खुलवाते हैं। राम सीता के साथ अयोध्या आकर घी, दूध और धाराजलों से जिनेश्वर प्रतिमा का अभिषेक करते हैं। राजा वा रथ संतुष्ट होकर सात दुसरी कन्याओं से राम का विवाह कर देते हैं तथा लक्ष्मण का सोलह दूसरी कन्याओं से । इसी पुष्ड भूमि में वसंत ऋतु का आगमन होता है । कवि कहता है मानो वसन्त राम-लक्ष्मण का विवाह देखने माया हो।
वसन्त का यह रूप देखिए–'अभिनव सहकार वृक्षों से महकता हुआ, कसाली की तरह मधु धाराबों से बहता हबा, हेमंत की प्रभुता को समाप्त करता हुआ, दसों विशामों में अपने चित्रों को प्रेषित करता हुआ, नवांकुरों से चमकता हुमा, पल्लवों से हिलता हुआ, सुन्दर बावड़ियों के जलरूपी पीर को हटाता तुआ, नीले शैवाल तीर, सूर्य के तीक्ष्ण प्रताप और दिनों की लम्बाई को दिखाता हुआ, अशोक वृक्षों को पत्र-ऋद्धि, मोक्ष (अर्जुन) वृक्षों की दुष्ट फागुन के द्वारा मोक्षसिधि (पत्र क्षरण) प्रकट करता हुला, वाउल पक्षियों के पारीरों को छाया करता हवा, बनलक्ष्मी के मोस रूपी आंसुओं को पोंछता हुआ, तिलक वृक्षों के पत्रों में तिलक बिलास करता हुआ, लतारूपी कामनियों में रस उत्पन्न करता हुआ, प्रियों के अभिलाषा कवच को चीरता हुमा, कनेर पुणों के पराग से धूमरित करता हुआ, मानिनियों के मानगिरि को चूर करता हा, मडराती हुई प्रमरमाला से गुनगुनाता हुआ, उत्तुंग वृक्षों पर दिनों को गंवाता हुमा, मन्दार कुसुमों के पराग से महकता हुश्रा, रमण की अभिलाषा के विलास से घूमता हुवा।'
___ कवि कहता है कि जो अभी तक वन में खुपचाप विचरण कर रहा था वह सुन्दर फोकिल अब मधु का सेवन कर रहा है और बार-गार मालाप कर रहा है । मतवाला कॉन प्रलाप नहीं करता ?
(70/4) वसंत को उन्मादकता में राम का अपनी प्रेयसियों के साथ कोड़ा करने का दृश्य अनोखा ही है
"कोणा बज रही है, आपानक पिया जा रहा है । प्रियजनों के चित्त साधे जा रहे हैं। सप्त स्वरों में मधुर गाया जा रहा है। निरन्तर गहरा प्रेम बढ़ रहा है। पराग से प्रचुर मल्लिका पुष्पों की माला बांधी जा रही है । सुगंधित द्रव्यों का छिड़काव किया गया है। नूपुरों को झकार की तरह मयूर नाच रहे हैं । जहाँ भ्रमर भ्रमण कर रहे हैं ऐसे दमनक पुष्पों के घर में फूलों की सेज पर सोया जा रहा है। कामदेव अपने पुष्प तीरों को साध रहा है और तपस्वियों के बड़प्पन को नष्ट कर रहा है। रूठी हुई प्यारी को मनाया जा रहा है,उसे काम की सुखद पीड़ा दी जा रही है। सरोवर की जलकीड़ा से शरीरों को सिंचित किया जा रहा है, मंत्रों से केशर मिश्रित जल छोड़ा जा है। दिखाई पड़ने वाले अंगों से रस बढ़ रहा है। प्रणयिनियों के सूक्ष्म कटिवस्त्र गीले हो रहे हैं। नील कमलों की मालाओं के ताड़न से, सुन्दर खिले हुए पलाश वृक्षों से प्रज्वलित तथा जिसमें प्रिय-त्रिमतमाएँ अपनी इच्छानुसार एक-दूसरे को मना रहे हैं ऐसा वसन्त तेजी से बढ़ रहा है।" (70/15)
रावण की दूती जब वाराणसी पहुंचती है, तो उसके निकट स्थित नंदन वन इस प्रकार दिखाई देता है
"जिसमें धरती वृक्षों की जड़ों से अबरुव है, आकाश पुष्प-पराग से धूसरित है । जहाँ वृक्ष-पाखानों पर बन्दर क्रीड़ा कर रहे हैं; ताड़ और तमाल के वृक्ष आसमान को छू रहे हैं । जहाँ बिल्व चिंचा और पुष्प
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महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण वृक्षों के दल हैं, जिसमें हिरनों ने दांतों से अंकुरों को कुतर डाला है, जहां स्वच्छ और प्रकंपित जलकण उछल रहे हैं, जो अगुरु और देवदार वृक्षों से गघन है, जिसमें वृक्षो की रगड़ से आग निकल रही है, दिणाओं के मुख सुरभित धुएं की गन्ध से सुवायित है, अशोक वृक्षों के पत्ते हिल-एल रहे हैं, हवा से प्रेरित माधबी-लता के पत्र धरती पर उड़ रहे हैं, जहां कीर, कुरर, कारण्ड बाल-लताओं के घरों में कलरव कर रहे हैं, अलकों की तरह जहाँ भ्रमर समूह उड़ रहा है, जो विविध केलिगृहों से विराट है, जहाँ मनुष्य केतकी के पराग से सुवासित हो उठे हैं, जिसमें विद्याधर, पक्षेन्द्र और दानवेन्द्र की समांतर क्रीड़ा हो रही है।" (71/12)
कपि रावण की दूती के माध्यम से लक्ष्मण की प्रेम-क्रीड़ा का शब्दचित्र इस रूप में खींचता है
"कोई एक मयूर के साथ हास्य-पूर्वक नत्य करती लोगों के नयनों को भाती,मणाल के अंत में स्थित भ्रमरों की पंख से अलंकृत तथा दोनों पाव भानों पर रखा हा कमल ऐसी शोभा देता कामदेव का बाण' हो, जिसे वह देवों और मनुष्य के हृदय को विदारण करने के लिए दिखा रही है । हंस के साथ जाती हुई कोई अपनी गति का लीला-बिलास भी भूल जाती है। भौरा किसी के कतरल पर आकर क्पा बैठ जाता है वह मूर्ख अपने को शतदल पर बैठा हा मान रहा है। किसी के निकट मा लगा हुआ हरिन उससे दीर्च कटाक्ष की मांग करता है। किसी ने कमल को अपने कान पर धारण कर लिया है पर नेत्रों से विजित होने के कारण चारा भूरका है। श्रीनगालों की किकिणियों से युक्त लता का कटिसूत्र बांध रखा है । किसी एक ने जाकर जबर्दस्ती राम को पकड़ लिया और उन्हें पराग पिजरित (पीला) कर दिया मानो संध्या राग ने चांद को पोला कर दिया हो । या फिर शारदीय मेघ शोभित हो उठा हो । किसी ने जुही का फूल उपहास में दिया । किसी ने अपना सरस मुब दिखाया। जाति कुसुम को जातिबाला क्यों कहा जाता है जबकि उसका आनन्द संकड़ों प्रमर उठाते है फिर भी आदरणीया वह उसे अपने सिर पर बांधती है ! अपना मतलब सधने पर सभी लोग मोह में पड़ जाते हैं । कोई घूतं भ्रमरी मोगरे के पुष्प को छोड़कर अपनी देह हिलाकर गुनगुनाकर सौग सुरभित प्रिय मरूबक पर जा बैठती है।" (71113)
"कोई दर्पण में चमकत हुए अपने दांतों के साथ कुंद पुष्पों को देखती है। अपनी देहगंध से मौलश्री पुष्प की ओर अधरों के संबंध से बिम्बाफल की परीक्षा करती है । कोई फूले हुए सहकार वृक्ष को देखती है, कोई बाला वासुदेव के साथ बाहयुद्ध चाहती है। नवकलियों से मतवाला और बोलता हुवा निष्कपट शुक वियोग दुःख को कुछ भी नहीं मानता । मन को कुपित करनेवाले उसे उसने कसकर पकड़ लिया, इती से बह (शुक) मुख में (चोंच में) लाल रंग का हो गया । कोई शुभ करनेवाली, हाथ में इक्षुबह लिये हुए ऐसी प्रतीत होती है, मानो विषम धनुष को धारण किये हुए हो। कोई पुष्पमाला का इस प्रकार संचार करती है, मानो कामदेव तीरों की पंक्तियाँ दिखा रहा हो। कोई पलाश पुष्पों को इकट्ठा करती है, और लक्ष्मण के लिए उपहार में देती है। स्निग्ध साल कुटिल और तीवे वे ऐसे मालूम होते हैं, मानो वसंत रूपी सिंह के नख हों। कोई काली कोयल को देखती है और पूछती है। दूसरी हंसकर उत्तर देती है कि लोगों के विरहानल के धुएं से काली यह इस समय भी बोल रही है। इसका मधुर मधु में रत विष दोनों ही प्रवासियों के मानस को आहत करता है । यदि आज मुझ से लक्ष्मण रमण करता है तो कोयल का यह प्रलाप मुझे सुख देता है।"
"सीता की अंगुलियों के पानी से सींचा गया नील कमल पुण्य से पवित्र राम के उर पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो दर्पणतल में मृग से लांछित पूर्ण चन्द्र शोभित हो । श्याम नारायण (लक्ष्मण) ने किसी महासती को इस प्रकार सींच दिया, मानो मेघ ने वनस्पती को सींच दिया हो, मानो यह (नाभि का) रोमावली रूपी अंकुर को छोड़ रहा हो, मानो वह मुखकमल से खिल गई हो। कोई सपन स्तन रूपी फलसंपदा को दिखाती है। जैसे कामदेव की सुन्दर लता हो। बार-बार सींचे जाने पर वह, जिसमें कपुर के कण
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आलोचनात्मक मूल्याकन
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उछल रहे हैं, ऐसे लीलापूर्वक हंसती है। प्रिय के हापों से नहलाई गयी किसी की चोली का सूत्रजाल टुट जाता है, शिथिल गीला वस्त्र गिर जाता है, वह लजा जाती है, और पानी में अपना अंग छिपाती है। कोई लक्ष्मण के मुख की कांति से श्याम रक्त कमल को काला देखती है, सखियों को दिखाकर अपना विचार बताती है। कोई कानों से लग कर कहती है,हे ललित ! इसे सींचो यह पद्मावती है। जिससे यह आदरणीय विरहिणी श्रीवित रह सके इसे केशर का लेप दो। हे देव, इसे वक्षस्थल से पीड़ित करो।
यह सुनकर मान श्रेष्ठ कुमार ने एक को वस्त्र के अंचल से पकड़ लिया तथा एक और दूसरी के स्तनों पर थोड़ा-थोड़ा मुसकाते हुए उसने जलयंत्र से जल छोड़ा दिया।" (71/15-16)
स्त्रियों के प्रकार
सुन्दर वर या वधू पाने की चाह मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है, जो मानव-मात्र में पाई जाती है। भारत की पितृप्रधान संयुक्त परिवार प्रया में (राजपरिवारों को छोड़कर) वर-वधू के चयन का अधिकार परिवार के प्रमुख को था । परिवार के स्तर और वर-वधू के भावी सुखी जीवन की दृष्टि से सम्बन्ध तय करते समय जिन बातों पर विचार किया जाता रहा है उनमें एक बात यह भी थी कि सामुद्रिक शास्त्र के लक्षणों के अनुसार घर और कन्या उपयुक्त हैं या नहीं। कभी-कभी इसका दुरुपयोग भी होता था। दुरुपयोग करने वाले हर युग में रहे हैं। राजा सगर की घटना इस बात का बढ़ा दिलचस्प उदाहरण है कि किस प्रकार चाटुकार मंत्रियों द्वारा सत्ता-प्रमुख उल्लू बनाए जा रहे हैं। राजा सगर चारणयुगल नगर के राजा सुयोधन की कन्या मलमा के स्वयंवर में जाता है। कन्या की मां अतिथि अपने भाई के पुत्र मधुपिंगल से उसका विवाह करना चाहती है। इधर, सगर की दासी मंदोदरी कन्या को बरगला लेती है । जब यह पता चलता है कि कम्पा मधुपिगल को ही दी जाएगी, तो सगर का मंत्री एक चाल चलता है। वह एक कपट-वाक्य ताइपत्र पर लिखकर चुपचाप मंजूषा में बन्दकर खेत में गड़वा देता है । दूसरे दिन हल चलाते समय किसान को वह मंजषा मिलती है । वह राजा सुयोधन को दिखाई जाती है। उसे भली-भांति पढ़ा जाता है। इतने में मंत्री पाहाण के छन वेश में आकर अत्यन्त मीठे राग में राजा को समझाता है कि जो घर काना, बोना. पीला. अन्धा, गंगा, लंगड़ा, निर्धन, दुर्बल, बुद्धिहीन, विट्ठल, मान और लज्जा से रहित, रोग से पराजित, कोड के कारण नष्ट शरीर, कटे हाथ-पैर वाला, निम्न काम करनेवाला, स्त्रियों और बच्चों की हत्या करनेवासा, कठोर, निर्दय, साधुकर्म की निन्दा करने वाला, जिसका अपया बढ़ रहा हो, खोटे कुल वाला, आलसी, व और कुत्सित देह वाला तथा दन्य को प्राप्त हो ऐसे लोगों को तो कुल और धन से हीन कन्या भी नहीं दी जानी चाहिए । जो रामा पिंगल को विवाह के मंडप में जाने की अनुमति देता है वह अपनी कन्या के लिए मेघश्य और दुख ही सायेगा।" (69/20-21)
ऊपर खोटे बर के जो लक्षण गिनाये गये हैं, उन्हें देखकर सामान्य आदमी भी अपनी कग्या ऐसे बर को नहीं देगा। लेकिन यह कहना कि पिंगल को कन्या देना उसके वैधव्य को बुलाना है, मंत्री का कपर कथन है।
सुनकर मधु पिंगल चुपचाप चल देता है और राजा सगर सुलसा से विवाह कर लेता है। जब रावण सीता पर मनुरक्त होता है तो मय उससे कहता है कि किसी स्त्री को अपने अधिकार में करने के पहले यह देख लेना जरूरी है कि वह भी अनुरक्त है या नहीं; और यह भी कि कामशास्त्र के अनुसार यह उपयुक्त है या नहीं । कामशास्त्र में स्त्रियों की चार जातियां बताई गई हैं भद्रा, मंदा, लता और हंसा । इनमें भद्रा सर्वांग सुन्दर होती है, जबकि मंदा मोटी, भारी और बड़े स्तनोंवाली । लता लम्बी, छरहरी, पसेकी तरह दुबली होती है, जबकि हंसा ठिगनी और मांसल ।
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महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण
ऋषि, विद्याधर यक्ष, पिशाच आदि की स्त्रियों के कई प्रकार होते हैं। तापसी स्त्री सीधी और | पेशाखिनी तामसिक और नासमझ होती है । खेचरी (विद्याधरी) मदिरा और फूलों की शौकीन होता घुमक्कड़ | यक्षिणी धनकण के लोभ के अधीन होती है। सारंगी, मृगी, रिट्ठनी, शशि, धृतराष्ट्रणी, महिषी, खरी और मदकरी - ये आठ युवतियाँ कही गई हैं। इनमें सारसी अपने स्वन-कलों से प्रिय के वक्ष को प्रेरित करती है और उसके साथ को नहीं छोड़ती। मृगी अपने बान्धवों को दान देने से संतुष्ट होती है। कोटने पर डरती है और गीत सुनती है। रिट्ठणी पुत्र रूपी पात्र से दुखी रहती है, उसका कोए जैसा शब्द होता है और युद्ध से भयंकर स्थान को छोड़ देती है। शशि दुख की भाजन और निमीलित नेत्रों वाली होती है, निर्दय और दूसरे घर के कौर को देखने वाली । धृतराष्ट्रणी कमलों के सरोवर में क्रीड़ा करनेवाली महिषी भयंकर कोष के भावेग में बोलने वाली खरी खेलती हुई हँसती है, कहकहा लगाकर किए गये हाथ और पाव के प्रहार को सहन करती है । मदकरी मांस खानेवाली, मजबूत पकड़वाली, साहस दिखानेवाली और कुकर्म का निर्वाह करनेवाली होती है ।
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कवि पुष्पदन्त ने देशी स्त्रियों का भी उल्लेख किया है— मालवी स्त्री शिव चाहनेवाली होती है। वाराणसी में उत्पन्न होनेवाली वनवासिनी स्वभाव से लम्पट और दुष्ट बोलनेवाली होती है। अनुं ददेश की स्त्री मंदगामिनी होती है, उसका पहला काम दूसरे के धन को छीनना है। दिन की मर्यादा बांधकर रतिरस का संधान कर तब का मकोड़ा करती है। सिंधु देश की स्त्री प्रिय के घर में शोभित होती है और अपने प्रिय को प्राण और धन दोनों अर्पित कर देती है। कोशल देश की स्त्री का भाव मायावी होता है । सिंहल देश की बाला को रति के गुण से पाया जा सकता है । द्रविड़ देश की स्त्री को दन्त और नखच्छद से पाया जा सकता है। आंध्र महिला परिपूर्ण रस से चौंक जाती है। सुन्दर आलाप से लाद देश की स्त्री लजा जाती है। उड़ीसा देश की स्त्री कामविज्ञान से भेदन करने योग्य है। कलिंग देश की महिला उपचार का प्रयोग करती है । रश देश की स्त्री शुष्क और रूखी होने पर भी रंजन करती है। सौराष्ट्र की स्त्री चुम्बन मात्र से संतुष्ट हो जाती है। गुजरात देश की स्त्री अपने काम में दक्ष होती है। महाराष्ट्र देषा की स्त्री को कितना भी अनुशासित किया जाए तब भी उसका धूर्तपन दिखाई देता है। कोंकण देश की स्त्री को कुछ भी दिया जाए, वह उसका विचार करती हुई क्षीण होती रहती है । पाटलिपुत्र की स्त्री प्रसन्न काम लीलाओं का प्रदर्शन करनेवाली, जांघ पर जय रखनेवाली होती है। पारियात्र की महिला पुरुष के अनुकूल या प्रतिकूल कुछ भी व्यवसाय करनेवाली होती है। हिमवंत देश की महिला कुछ मंत्र बीजाक्षर जानती है जिससे वर उसके पैरों पर जा पड़ता है। मध्यदेश की नारी कला का घर होती है तथा कमल की तरह कोमल होती है। (71 /6,7,8 ) प्रकृति के विचार से भी युवतियां तीन प्रकार की होती हैं-वात, कफ और पित्त के भेद से पित्त प्रकृति वाली बात-बात में रूठती है। उसे दिन-प्रतिदिन धूर्तता से संतुष्ट करना चाहिए। पीले नखोंवाली बुद्धिमान और गोरी को कोमलता से रतिविह्वल करना चाहिए। यदि वह उन्नत स्तनों ओर उत्तम अंगवाली समझो तो शीतल आलिंगन देना चाहिए। जिसकी शीतल गन्ध हो, श्वेत दुपट्टा हो उसे भी शीतल आलिंगन देना चाहिए | श्लेष्म प्रकृतिवाली श्यामल उज्ज्वल वर्णवाली होती है, अभिनव कदली के अंकुर के समान कोमल । दोष देख लेने पर वह निश्चय से चूक जाती है। फिर इस जन्म में वह कभी भी पास नहीं पहुँचती । उसे सत्म, विनय और दाम से ग्रहण करना चाहिए, नहीं तो उसके बंग को नहीं छूना चाहिए। जिसका रतिजल से भरपूर कोमल कटितल है, दुगंध रहित पारीर का सुन्दर सौरभ, लाल नाखून, सुन्दर हाथ-पैर हैं ऐसी सुन्दरी साधारण सूरत में आदर करनेवाली होती है। वात प्रकृतिवासी विलासिनी, श्याम और कठोर होती हैं। खूब खाती है और खूब बोलती है। उसके साथ कठोर प्रहारों और गम्भीर शब्द से रमण किया जाय
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मालोपनारमक मुल्यांकन
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तभी उसकी कामाग्नि पाान्त होती है। प्रकृति की भिन्नता के आधार पर इनके भी मन्च, तीक्ष्ण तीमतर तथा विशुद्ध-अशुद्ध आदि भेद होते हैं।
यज्ञ-संस्कृति
नारद, पवर्तक और राजा वसु आचार्य क्षीरकवंच के शिष्य हैं। इनकी कथा तत्कालीन यश-संस्कृति और शिक्षा-व्यवस्था पर प्रकाश गलती है । पर्वतक आचार्य का पुत्र है । पढ़ने में निहायत कमजोर । आचार्यपत्नी पति से झगड़ा करती है। 'तुमने अपने बेटे को कुछ नहीं सिखाया, दूसरे के बेटों को विधान बना दिया।' यह सुनकर आर्य कहते हैं: "प्रमरों को गंध लेना, बगुलों को मछली पकड़ना किसने सिखाया? हंसों को नीर-क्षीर विवेक की शिक्षा किसने दी? शुभे! तुम्हारा बेटा जड़बुद्धि है जबकि यह नारद स्वभाव से ही पटु है। आचार्य दोनों से विविध प्रयोग करवाकर अपना कपन सिद्ध कर देते हैं। उस जमाने में पुस्तकों के बजाय, प्रकृति निरीक्षण और सहज तर्क से शिक्षा दी जाती थी। आपार्य ही शिक्षक और परीक्षक दोनौं था । बहुधा वह निष्पक्ष होता था। उस समय 'ताडन' की भी प्रथा थी। गुरु राजपुत्र की भी पिटाई से नहीं चकता था। एक दिन आचार्य क्षीरकदंब ने छड़ी से राजा वसु की जमकर पिटाई कर दी, यदि पत्नी नहीं मचाती तो उसका कचूमर निकल जाता । क्षौरकदंब, अन्त में, पुत्र पर्वतक और पत्नी दोनों नारद को सौंपकर तथा राजा वसु से कहकर जिनदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । बहुत दिन बाद 'मज्ज' शब्द के अर्थ को लेकर दोनों में विवाद हो जाता है। नारद के अनुसार, 'अज' का अर्थ तीन साल पुरामा जो है जबकि पर्वतक के अनुसार 'बकरा'। नारद के अर्थ के समर्थक दूसरे हिंसक बुद्धजीवियों ने पर्वतक को श्रावस्ती से निकाल बाहर कर दिया। लगता है, यज्ञसंस्तुति के विरोध का गाम
क समें होने वाला पशुवध था। अपमानिप्त और ऋद्ध पर्वतक की नील तमालवन में सालंकायण बिध से भेट होती है। वह एक शिलातल पर बैठा हा पेड़ की छांव में अपवित्र शास्त्र पढ़ रहा था। वास्तव में बह पूर्व जन्म का मधुपिंगल था, जिनका विवाह बुआ की लड़की सुलसा से होने वाला था। परन्तु राजा सगर का मंत्री मूठ सामुद्रिक शास्त्र की रचनाकर, उस लक्षणहीन बताकर, सगर से सुलसा का विवाह करवा देता है । हताश मधुपिंगल जैन मुनि बन जाता है। बाद में वस्तुस्थिति मालूम होने पर वह प्रतिशोध की भावना से प्राण त्याग कर स्वर्ग में असुरेन्द्र का वाहन बनता है । सगर से बदला लेने के लिए वह झूठी श्रुति का पाठ करता हुआ साथी की खोज में है। सालंकायण पर्वतक को पूर्व जन्म का गुरुभाई बताकर कहता है : मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ, मैं चाहता हूँ कि तुम्हें यह विद्या सौंपकर निश्चिन्त हो जा:
हा कंछुइ अज्नु परह मरमि णियविज्जा पई जि अलंकरभि । (69/29)
पर्वतक उसका शिष्य बन जाता है। सालंकायण कपटनीति और मंत्रशक्ति से राजा सगर और उसकी पत्नी मुलसा को यज्ञ में होम कर अपना बदला चुका लेता है। इस प्रकार व्यक्तिगत रागद्वेष के कारण यशों की हिसा और भी विकृत हो गई । नारद अयोध्या पहनकर इसका विरोध करता है। उसका तर्क है कि यदि ऐसा वेद, जो पशु मारने, हड्डियों चूर-चूर करने, चमड़े को छेदने-भेदने का विधान करता है, प्रशस्त है और ऋषियों के द्वारा देखा गया है, तो खड्ग (गेंडा) वेद क्यों नहीं ? कुविवेकी ! जा जा, हट यहाँ से।
"वणपरहं मारंतु मदिव्यई पूरंतु वम्मा छिरंतु यम्माई भिवंतु।
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महाकवि पुष्पदंत कृत महापुराण
इसिविट्ट सुपसत्थु जावेउ परमत्थु । तह खग्गु किणेय, जत्राहि कुश्वेिय।" (69/32)
वेद मूलतः ज्ञान को कहते हैं, वह जिस संथ में हो वह भी वेद कहा जाता है। नारद का कहना है कि 'वेद' हिंसामूलक नहीं हो सकता। उनका दूसरा तर्क यह है कि यदि 'वेद' पुरुषकृत नहीं है, तो प्रश्न उठता है कि वर्ण (क ख ग घ. आदि) आकाश में उत्पन्न होते हैं या मनुष्य के मुख में ? यदि आकाश में स्फरित होते हैं तो अक्षर कहाँ ? बिन्दु कहाँ ? अर्थ कहां और छन्द कहाँ ? जिसमें मन ने प्रयत्न किया है, ऐसे मनुष्य के मन्त्र के बिना उक्त चीजें (अक्षर, निन्दु आदि) पैदा नहीं हो सकते । फहाँ कार्य और कहा कारण ? कहाँ ज्ञान और कहाँ ज्ञेय ? कहीं आकाश में कमल ही मकता है : ही निरूप में शब्द हो सकता है ? अरे दूसरों का मांस निगलमेवाले द्विज (सभी नहीं) वेव में हिंसा कैसे?
"जई पोरिसेओ वि, णउ होइ भण तो वि। वण्णमणि गणिकि फरहपरवणि। अपसरई कहि बिंदु कहिं अत्य, कहि छंदु । कय मणपपत्तेण, विण परिसव सेग। कहि हैड कहि वेज, कहिं णाषु कहि गेउ। कहिं गगि प्रथितु णोवि कहि सदु ।।" (69.32)
नारव का उक्त तर्क वस्तुतः पुष्पदन्त का तर्क है जो एक भाषा वैज्ञानिक तकें है। 'वेद' उचरित या लिखित ज्ञान का नाम है जो वणी (स्वरों और व्यंजनों) वाला है, वणे (ध्वनि) आकाश में नहीं, मनुष्य के मुंह में ही स्फुटित होते हैं। वे अपने आप नहीं होते, स्थान और प्रयत्न के योग से ध्वनि की उत्पत्ति मानवमुख में होती है। (पुरुषवत्रण)। मनुष्य मुख से ध्वनि के उच्चारण के पूर्व गन प्रयत्न करता है । भाषा का आधार ध्वनि है। ध्वनि के उत्पन्न होने की उक्त व्याख्या वनि-उत्पत्ति की पुष्पदन्त की भाषा व्याख्या से पूरी मेल खाती है
"मात्मा बुद्धमा समेत्यन, मनो युद्ध.फ्ते विवक्षया। मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरपति मारुतम् ।।"
अर्थात् आत्मा बुद्धि से अर्थों को इकट्ठा करती है और बोलने की इच्छा से मन को प्रेरित करती है। मन कायाग्नि को उबुद्ध करता है, वह हवा (प्रागवायु) को प्रेरित करता है। उसमे स्वर पैदा होता है । इससे स्पष्ट है कि भाषा अभिव्यक्ति की मानसिक प्रक्रिया है। पुष्पदन्त का तर्क है कि वेद चाहे लिखित हों या उचरित, अमरात्मक होने से वह पौरुषेय है । कहने का अभिप्राय यह कि धर्म का निर्णायक तत्त्व मनुष्य का विवेक है। धर्म का काम धारण करना । जो चेतना का संहार करनेवाला हो, वह धर्म नहीं हो सकता।
"होई असिह धम्म हिसइ पाउणिहत्त"
(महापुराण 69/30)
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मालोचनात्मक मूल्यांकन मनुष्य की पवित्रता की कसौटी
मनुष्य की पवित्रता उसके आचरण की पवित्रता है । यदि गंगा का जल पवित्र है तो वह मलमूत्र क्यों बनता है ? गंगा का स्नान यदि पापों का हरण करनेवाला है तो फिर मर्यालयों को मोक्ष क्यों नहीं होता? यवि मिट्टी देह में लगाने से अंधकार दूर होता है तो सुअर को स्वर्ग विमान में होना चाहिए ? यदि मगचर्म धर्म से उज्जवल है तो मृग समूह को दुनिया में श्रेष्ठ होना चाहिए ? इसलिए जो विज मांस खाता है, वह प्रेष्ठ नहीं हो सकता । यदि दूब (दर्भ) से धर्म होता है तो भृगकुल धरती में क्यों भटकता फिरता है ? वह रात दिन घास चरता है, फिर इन्द्र के विमान में क्यों नहीं प्रवेश करता? गाय या काकपंख के स्पर्श से अथवा सोकर उठने पर पी देखने से यदि पाप नष्ट होते हैं और लोग प्रवर (देव/बड़) बनते हैं तो बैलों और कौओं को स्वर्ग में देव होना चाहिए? निस्कर्ष यह कि मनुष्य की पवित्रता की कसौटी हिंसक कर्मकाण नाहीं बल्कि दूसरे को अपने समान रामझना है
'जो पह अप्याण सम्गण'
दूती प्रसंग और नारी मूल्य
मारीच के परामर्श पर, रावण अपनी बहन चन्द्रनखा को सीता के पास बूती बनाकर भेजता है। वाराणसी के निकट चित्रकूट वन में सीता को देखकर पहले तो विद्यधारी चन्द्रनया सोचती है कि सीता मान को चूर-चूर करने वाली उर्वशी, गौरी, तिलोत्तमा और रंभा से भी अधिक रूपवती है, वह काम की मल्लिका है : यद विनारती हुई वह शीघ्र बलिया बन जाती है और युवतियों का मनोरंजन करने लग जाती है। एक रानी पूछती है--"तुम कौन हो ! फिस लिए यहाँ आई ? क्या देख रही हो ? चित्रलिखित की तरह क्यों रह गई हो।" उत्तर में दती कहती है-"मैं यहां के पनपाल की माँ है । मह बताओ कि पूर्वभाव में तमने क्या प्रत किया था जिससे तुम्हें यह रूपराशि मिली ? मैं उस व्रत को करना चाहती है।" यह सुनकर सीता ने उसे डांटा, "तुम स्त्रीत्व क्यों चाहती हो? यह तो सबसे खराब है। रजस्वलाकाल में वह चंडाल तरह है । उसे कभी अपने वंश का स्वामित्व नहीं मिलता। किसी एक कुल में उत्पन्न होती है और बड़ी होने पर किसी दूसरे के द्वारा ले जाई जाती है । स्वजन के निधन पर आठ-आठ आंसू बहाती है। जब घर में कोई मंत्रणा की जाती है तो कोई उससे नहीं पूछता। जब तक वह जीती है वह परवश जीती है। फिर उसे जैसा भी पति (अभागा, दुष्ट, दुर्गन्धयुक्त, दुराशयी, अंघा, बहरा, पागल, गंगा, असहिष्णु, निर्धन और कुटिल) मिले उसी को स्वीकारना पड़ता है। उधर चाहे चक्रवर्ती हो या इन्द्र, कुलगुणधारी स्त्री होकर उसे पितातुल्य मानना चाहिए। अपनी कुल मर्यादा का उल्लंघन करना ठीक नहीं। इस नारी जीवन से क्या ? विधवा पन में सिर घटाओ और तपश्चरण से स्वयं को वण्डित करो। मूक बचपन में पिता रक्षा करता है, जवानी में पति रक्षा करता है, उसी प्रकार बुढ़ापे में बेटा रक्षा करता है जिससे वह कूल में कलंक न लगाए। उसका घूमना-फिरना दूसरों के अधीन है। घर यानी सोने और खाने के जेलखाने से महिला की मुक्ति नहीं । बुढ़ापे के समय बुड्ढी होने पर जो महिसापन अत्यन्त अभागा होता है, उसमें आग लगे, वह तुमने क्यों मांगा ?" सीता की यह प्रतिक्रिया सुनकर दुती का मुख स्याह हो जाता है । वह समझ जाती है कि सीता के चरित्र का खंडन संभव नहीं। इसके दृढ़ संकल्प के सामने मेरी धूर्तता नहीं चल सकती । वह नौ दो ग्यारह हो जाती है । यह तो हुआ एक पक्ष । उक्त कथन का दूसरा पक्ष यह है कि इसमें मध्ययुगीन भारतीय नारी (कुलीन) की स्थिति और पीड़ा की यवार्य अभिव्यक्ति तो है परन्तु उसका समाधान आध्यात्मिक है । (महापुराण 72/22)
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महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण
रावण का सामतवादी दृष्टिकोण
प्रेम प्रसंग में बहन से बढ़कर विश्वसनीय दूती दूसरी नहीं हो सकती, हालांकि सभी बहनें दूती नहीं होती। रावण चन्द्रनया की बात भी नहीं मानता यद्यपि बह कहती है कि चाहे रागद्वेष जिनेन्द्र को नष्ट कर दे परन्त तुम सीता जैनी सती का उपभोग नहीं कर सकोगे ।" रावण का उत्तर है, जो अच्छा लगे उसे अवश्य वश में करना चाहिए। क्या सांप के भम नागमणि को छोड़ दिया जाए? वह सीता के सतीत्व में विश्वास नहीं करता। उसका तर्क है कि सन की सज्जनता, पुरिष की प्रभुता, पहारकी हरियाली और सती का सतीरव, दूर तक रहते हुए ही सुनने में अच्छे लगते हैं । पास आने पर वे तार-तार खण्डित दिखाई देते हैं
"अवसु विमति किम्बइ जं रुच्चा, किविसमस्या फणिमणि मुच्चाह अलसा सिरितूरेग पबच्चा। सुहिसयणत्तम पुरिसपत्तगु, गिरिमसिणत्तणु सहहि सइत्तणु । दूरयरस्थ सूर्णतह चंग पासि असेसु बिपरिसियभंग।"
(महापुराण 71/21) सीता को देखकर रावण को प्रतिक्रिया है कि जो ऐसे स्त्रीरत्न का मोग नहीं करता उसे घरवार छोड़कर मुनि होकर वन में चले जाना चाहिए ।
रावण बब सीता से कहता है : "राम-लक्ष्मण की बात छोड़ो, दशरथ भी मेरा दास था। जब सिरका पढामणि उपलब्ध हो, तो पैरों के आभूषण का क्या करना?नौकर की स्त्री को देह का क्या गौरख? खड़ाऊँ को मणिमण्डन से क्या ? मेरी दासी होते हुए भी तू महादेबी हो सकती है। माती हुई लक्ष्मी को हाय मत दे!" तो इसमें नारी के प्रति उसके सामंतवादी दृष्टिकोण की स्पष्ट मलक मिलती है।
कवि और प्रकृति का आक्रोश
स्वर्णमृग दिवाकर रावण जन सीता का अपहरण करता है तो पुष्पदंत का कविहृदय सीता के चरित्र की ढ़सा की तुलना उस सुघट से करता है जो अंतिम क्षण तक अपने परिकर को नहीं छोड़ता (72/7)। पति के बियोग से अस्तव्यस्त सीता विधिवश, रावण के हाथ से छूटकर पहाड़ी प्रदेश में स्वलित हो जाती है, उस समय वह ऐसी प्रतीत होती है, जैसे स्वर्णनिमित पुतली हो
"ण वाहिलय कामडिय ।" (72/7)
फिर बेहोश होने पर भी उसका हाथ परिघान से नहीं हटता। जार (रावण) की चंचल दृष्टि उस पर कैसे घूम सकती है?
"परिहाण ण तो वि ताहि हलाइ, पल जार दिदि कहि परिघुला।"
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होता है ?
मान
[31
फिर भी परस्त्री का लोभी वह दुष्ट वहाँ आ धमकता है। गाँव का कुत्ता कभी लज्जिज
अब प्रकृति की प्रतिक्रिया देखिए
" गिरते हुए, अपने लाल कोपलों से वृक्ष रो रहा है कि है रावण, तू दूसरे की स्त्री क्यों लाया ? वन अपनी शाखाएं उठाकर कह रहा है कि हाय नारीरश्न का मरण का पहुंचा ! भ्रमर कान के पास गुन गुना कर कहता है, है स्वामी, यह अनुचित है। राषण परस्त्री के सुख की इच्छा करता है यह देखकर शुक टेढ़ी नजर करके चला जाता है। जैसे वह भी रावण से उद्विग्न हो । कोयल भी विलाप करती हुई कहती हैआदरणीय रावण, तुम सीता से तभी रमण करो यदि तुम अपना अपयश मुझ जैसा काला चाहते हो। लोकप्रिय हंसाबलि कहती है- तुम्हारी कीर्ति मेरे समान सफेद है। इस स्त्री का उपभोग कर तुम उसे मेला मत करो और लंकापुरी के ऐश्वर्य को नष्ट मत करो। लाल-लाल कोपलों वाला मामवृक्ष ऐसा मालूम हो रहा है, मानो राजा के अन्याय की ज्वाला से मारक्त हो उठा हो
"रावण, किं प्राणिय पर जुव तद सिहं
।
बगु गाई करइ साहद्धर हा पत्त नारियणमरणु । अति कष्णा सण दणुराण एवं अनुणाई भणह । इच्छ दससित पश्मणि सुहं कजल बंकि बिजाइ गृहं ।
सो विनिवहु उबेइम कोड बिल व आइच ।
सुमन महणिह महहि जह
बइदेहि भडारा रमहि तह । हंसावलि लव व सोमापय नई मेही तेरी किशि सिय
मा महलहि मावि एहतिय
मा णासहि लंका उरिहि सिप ।
मंब लोहिम पल्लवल लिट
णं निमग्नावसिहि अलिउ (728)
सतापुरुष द्वारा नैतिक मूल्यों की खुली अवमानना पर कवि केवल आक्रोश व्यक्त कर सकता है, पर कभी-कभी उसकी छाया प्रकृति में देखता है, जैसा कि हिन्दी की नई कविता में हो रहा है।
क्तियाँ, लोकोक्तियाँ
ग्यारह सन्धियों का काव्य होते हुए भी पुष्पवन्त का यह रामायण काव्य ( पोम चरित) भाषा और शैली की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है । उसमें सूक्तियों और लोकोक्तियों की भरमार है। उदाहरण के लिए कुछेक सूक्तियाँ द्रष्टव्य है---
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32]
महाकवि पुष्पदंत कृत महापुराण
प्रजापति राजा कहता है जो व्यक्ति अज्ञानी और न्याय का विध्वंश करनेवाला है, वह अपने को राज्यधर क्यों कहता है ?
अपनी प्रशंसा करना गुण का दूषण है। मिध्यादर्शन तप का दूषण है। नीरस प्रदर्शन नट का दुषण है। ब्याकरण रहित काध्य कवि का दूषण है । गुण्डों और दुष्टों को पालना धन का दूषण है। द्विविधामरण यत का दूषण है । जोर से बोलना युवती का दूषण है । चुगसी और विच्छिन्न बुद्धि पंडित का दूषण है । राजा का मूखं और आलसी होना लक्ष्मी का दूषण है। पाप करना और खोटे मार्ग में चलना जनता का दुषण है । अकारण हँसना गुरु का दूषण है । बेटे का दुर्व्यसनी होना कुल का दूषण है। (69/7)
"अपरहमें किस्जद कम्मरइ
जा सा गिद्दहहण कासु मद।" (6989) -जो कार्य को गति अति शीघ्र की जानेवाली है, वह किसे दाह उत्पन्न नहीं करती?
"गुरु चवद ए किर कित्ता
मतिमा सरसप अंतड।" (69/19) –मन्त्री कहता है—यह तो कितना है, मेरे लिए तो यह त्रिभुवन सरसों के बराबर है।
"जहि कंकु रायसु व गणित एरंडकप्प रुक्स व भणिउ । जहि गुणवंतु वि बोसिहल्ल सम्
तहि जे निरर्यति ययविरम् ।" (72/11) -जहाँ बगुले को राजहंस समझा जाता हो और एरंड को कल्पवृक्ष कहा जाता हो, जहाँ गुणों को दोषवाला कहा जाता हो वही जो चुप रहते हैं, वे विद्वान हैं।
"वारिज्जइ टुक्को केण णियह ।" (73/19) —आई हुई नियति को कौन टाल सकता है ?
X
"हा कठ्ठ-कट्ट कणएं अडिज
माणिक्कु अमेज्झमझि पडिउ ।" (74/11) -खेद है कि काठ को सोने से जड़ दिया गया । माणिक्य गन्दी जगह गिर गया।
"को नगद रयंघो एलियाण दुग्गं ।" (74/12) -कौन पापाग्ध (आत्मरक्षा के लिए) गाडरों का दुर्ग चाहेगा?
__ "को रंडकहाणियाउ सुणई"174712) -कौन राों की कहानियां सुनता है ?
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
"धुत्तहि किज्जइ कासउ पंडरु ।" (69:33) -धूतों द्वारा काला पीला किया जाता है।
करुणांत काध्य
रामायण का अन्त करुण और शोकपूर्ण है। रावण के निधन पर, रनिवास इन शब्दों में आर्तनाद कर उठता है
"हा भत्तार हार मणरंजण, हा भालयल-तिलय प्रयणंजन । हा करफंसअणियरोमंजुम, मालिगणकीलाभूसियभुय । पर विणु अगि सास जिजह, संपरदुखसमूह सहिज्जा। हा पिययम भणंतु सोमायर,
कंबह गिरवसेस प्रतेउव।" (78/22) विभीषण का शोक भला किसके हृदय को द्रवीभूत नहीं कर देगा ! वह अपनी छाती पीटपीटकर रोता है
___ "हाय मैंने यह क्या भयंकर काम किया ! अब सरस्वती शास्त्र की रचना नहीं कर सकती, अब कीति दसों दिशाओं में नहीं घूमेगी । विजयलक्ष्मी आग विधवापन को प्राप्त हो गई। शक्ति का प्रवर्तन आज समाप्त हो गया। अब इन्द्र बरकर नही चलेगा । अब चन्द्र अपनी कांति के साथ होगा। अब सूरज भाकाश में खुद चमकेगा । आज कपीन्द्र आराम से सोएगा।" (78/23)
रामायण : कवि का प्रतिनिधि काव्य
जैसाकि कहा जा चुका है 'महापुराण' कई चरित-काव्यों का संकसन मन्य है। 'नाभेय चरिउ' पुष्पदंत का बृहद् चरित-काव्य है, उसमें उनकी प्रतिभा पूर्ण निखार पर है। परन्तु दूसरे चरित-काव्यों में भी उनकी सृजनात्मकता और उसके तत्वों का समावेश है।
जब पुष्पदन्त कहते हैं कि 'रामायण मा पोमचरित (पद्मचरित) को कहते हुए मैं अपनी बुद्धि के विस्तार में कमी नहीं करूंगा और मंत्री भरत के अम्पथित बचन का निर्वाह करूंगा', तो इसका अर्थ है कि रामायण के वर्णन में वह अपनी प्रतिभा का सर्वोत्तम प्रयोग करेंगे। एक बार फिर, कवि रामकथा के पूर्व कवियों का स्मरण करता है और आत्म-विनय एवं दुर्जननिन्दा के साथ विद्वत-सभा से क्षमायाचना पूर्वक 'रामकथा' प्रारम्भ करता है । वह यह भी कहता है कि जब सुकवि (कपि और कदि) द्वारा प्रकाशित मार्ग पर चलते हुए रावण भी चौंक जाता है, तो राम के धम्मगुण (धर्म और धनुष के गुण) के शब्द को सुनकर, अमुख दुर्जन कहाँ पहुंच सकता है ? भंगिमा मे कवि बता रहा है कि वह पूर्व कवियों द्वारा प्रकाशित काव्य-मार्ग पर चलकर ही रामायण की रचना कर रहा है। वह यह भी कहता है कि "मैं तो जिनवर के चरण-कमलों का भ्रमर हूँ। मेरे द्वारा गुनगुनाया यह यद्यपि गिरर्थक है, फिर भी यह सुनने में कोगल, कानों को सुसा देनेवाला और मानिनी स्त्रियों और शिणुओं के मुखों को विकसित करनेवाला है।"
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34]
महाकषि पुष्पवंत इस महापुराण रामायण की काव्य-शैली अलकत शैली है। प्रारम्भ में ही रत्नपूर के राजा प्रजापति का वर्णन है
" जित्तउं जमकरण
सस्थ जिस सरासह वि
अंबुधि जिस स वि (8914) ध्यान दें कि 'जिउ की जगह 'जित्त' भूत कृदन्त (जित के 'a' को अनावश्यक द्वित्व) का प्रयोग सर्वत्र है। 'मेन' का 'जे' और 'बुद्धया' का 'बुदिह' । अपभ्रंश में ऐसा कठोर नियम नहीं है कि मध्यम व्यंजन का लोप हो हो । हिन्दी 'जीता' का 'विस' से सीधा सम्बन्ध है। दोनों में सामान्यभूत में कृदन्त क्रिया का ही प्रयोग है वह भी कम वाच्य में । करण कारक को 'ने' संस्कृत विभक्ति इन/एन का विकास है । जे/जेन/ येन से बिसने के विकास की कथा यह है कि आगे चलकर संस्कृत के यस्य/तस्य/मस्य के बचे हुए रूप (जिस/ उस/इस) मूल सर्वनाम की तरह प्रयुक्त होने लगे और उनमें विभक्ति या परसर्ग का प्रयोग बस्री हो गया।
इस प्रकार अलंकृत शैली में होते हुए भी पुष्पदन्त की भाषा सरल है, छोटे-छोटे वाक्यों में धारावाहिकता है । कषि की निरलंकृत सरल शैली का एक दूसरा नमूना देखिए--
"अत्यतु गिवार को मिहिरु को रखाइ मावंत मरण । जगि कासु ण दुक्का जमकरण विअगावि पश्छमरइ वापस-सरि पइसरह ।।" (69/8)
और अब यमक और श्लेष हाली शैली देखिए
"अहि सालि रमभ कोला हरई, अह सालि धन छत्तंसरई । जहिं सालिकमल छज्य सर,
जहिं सालिहिमाई अक्स्वरई।" (69/11) तित क्रिया में भी 'त' सुरक्षित है
"ते सत्प, सुगंति गुणति षण,
मउप मुर्यति ण वहरि सह ।” (69113) इसी प्रकार कृवंत क्रिया में भी "त" सुरक्षित है
"सोहा वसंतु पगि पइसरंतु
अहिणव साहारहिं महमहंतु ।" (70/14) और यह लयात्मक शैली का उदाहरण भी देखिए
"वना वीणा पिज्जा पाणं, पियमानुस चित साही ।
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आलोचनात्मक मूल्यांकन
[35 गिजाइ मदरं साता सरालं,
वह पेम्म पसरा प्रसरात ।" (70115) संस्कृत के 'अजस्त्रतर' से विकसित 'असराल' की तुलना कबीर के प्रयोग 'न सोइए असराल' से कीजिए, और देखिए
"मगुणिज्जा रुसंति पिपल्ली,
वाविना वपसुहेल्ली।" (70/15) पुष्पक विमान के वर्णन की शैली निराली है
"सारयाऊरियायाससकास बबुजलुल्लोपर्य
हेमघंटाविस तष्टंकारसंतासिशसाग ।" (7211) और, पुष्पदन्त की यह शैली जो उन्हें स्वयं अत्यन्त प्रिय रही है
"वगु वीसह जिम्मल भरिय सर, सीयहि जोवणु निक महरसर । वषु बीसइ संचरस कम,
सोहि जोष्वगु वरमुहकमलु ।" (72/2) राम वन में सीता के विषय में पूछ रहे है
"सई कामणि रई हिंम्माण, पुच्छह वणि मिगई प्रमाणमाण। रेहंस-हंस सा हंसगमण
पई पिछी कल्पह पिलरमण ।" (73/4) जिनभक्ति की सरस प्रौली, जिसमें क्रिया का प्रयोग नहीं है
"ण भीएस पंखा, गणिवा ण भुक्खा। ग सहा प सोओ, ग राओ ण रोयो। (73/9)
जब कभी भारतीय आर्यभाषा के विकास के सन्दर्भ में यह तर्क दिया जाता है कि प्राकृत की तुलना में संस्कृत कृषिम भाषा थी। इसी प्रकार अपभ्रश काव्य की भाषा थी, बोलचाल की नहीं। कोई भाषान तो कृत्रिम होती है और केवल काष्प की भाषा होती है । संस्कृत की तुलना में प्राकृत कितनी ही सहा व्यापार वाली भाषाएँ हों, उस वचन-व्यापारों की भी अपनी भाषागत व्यवस्था होती है। इसी प्रकार संस्कृत कृत्रिम भाषा नहीं है, परन्तु जो भाषा बोलवाल में थी (बह कौन थी इसका विवेचन विद्वान् अपने-अपने कोण से करते हैं) उसे संस्कारित किया गया, यानी समय-प्रवाह और प्रयोग के कारण आनेवाली विभिन्नताओं में उसे स्पिरता प्रदान की गई।
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विषय-सूची
संधि
1
बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत की वन्दना उपरान्त प्राणत स्वर्ग में जन्म लेना निर्माण का आदेश नगरी का निर्माण प्राप्त स्वर्ग के देव का रानी के गर्भ में सीकर के रूप में अवतरित होना। पांचों कस्यापकों का उल्लेख | वैराग्य हाथी का पूर्वभव-स्मरण मुनिसुव्रत का आहार ग्रहण करना । इन्द्र द्वारा ज्ञान की प्राप्ति केवलज्ञान की प्राप्तिद्वारा समवसरण की
1
I
उनहत्तरी संधि
। हरि वर्मा का जिनदीक्षा लेना और मृत्यु इन्द्र द्वारा कुबेर को राजगृह में नगरी के
रानी सोमदेवी का सोलह स्वप्न देखना।
रचना चतुविध संघ का वर्णन मुनिसुव्रत को निर्वाण की प्राप्ति। हरिषेण का परित हैमाम का चरित मोक्ष की प्राप्ति ।
I
I
राम कथा की प्रस्तावना राजा श्रेणिक का गौतम स्वामी से प्रश्न पूछना गौतम गणधर का कथा प्रारंभ करना मलय देश और रत्नपुर का वर्णन राजा प्रजापति चन्द्रचूल और विजय का जन्म राजपुत्र और मन्त्रिपुत्र के अत्याचार राजा द्वारा दोनों का घर से निष्कासन, मृत्युदन्ड का आदेश नीति कथन मंत्रियों द्वारा बोच1 बचाव। जैन मुनि का उपदेश । भविष्य वाणी चन्द्रनूल और विजय का निदान बांधना। दोनों का स्वर्ण में देव होना। काशी देश का वर्णन राजा दशरथ का वर्णन । स्वयंमूल और मणिचूल देवों का क्रमशः राम और लक्ष्मण के रूप में मुबला और कैकेयी के गर्भ में आना । बलभद्र राम और नारायण लक्ष्मण का वर्णन दशरथ का अयोध्या नगरी में प्रवेश भरत और शत्रु का जन्म मिथिला के राजा जनक हारा पशु-य और सीता के स्वयंवर में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दूतों का उपहार लेकर आना मन्त्री अतिशयमति द्वारा यज्ञ का विरोध, राजा सगर का आख्यान राजा सगर का चारण-युगल नगर के राजा सुयोधन की कन्या सुलसा के स्वयंवर में जाना । रास्ते में छाय मन्दोदरी का विवाह के लिए भड़काना सुयोधन की परनी अतिथि का अपने भाई पिंग के पुत्र मधुपिंगल से कम्या के विवाह करने का प्रस्ताव सगर के मन्त्री की कपटचाल झूठा ज्योतिषशास्त्र बनाकर मधुवियल को अपमानित होकर
1
1
ले जाने के लिए विवश करना उसका विरक्त होकर जिनदीक्षा ग्रहण कर लेना | निदान पूर्वक मरकर उसका स्वयं में असुर होना राजा सगर की धूर्तता जानकर उसके मन में प्रतिशोध की भावना का उत्पन्न होना
उसका
1-11
12-43
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विमा-मामी
[37
बनकर वेद पढ़ते हुए अयोध्या के वन में पहुँचना। क्षीरकदम्ब का वृत्तान्त। राजा वसु, पवर्तक, और नारद का उनसे विद्या ग्रहण करना।क्षीरकदम्बका बसु को पोटमा। गुरु पत्नी द्वारा उसे बचाना। वसु को सिंहासन की प्राप्ति । पर्वबक का प्रायोगिक परीक्षा में असफल रहना। पत्नी का पति को उलाहना देना । पति क्षीरकदम्ब का अपनी पत्नी को समझाना कि उसका बेटा जड़ मूर्ख है। 'अज' शब्द को लेकर विवाद । पर्वतक का निर्वासन । उसका सालकायण का सहायक बन जाना । सासंकायण और पर्वतक का मिलकर राजा सगर से बदला लेना। यज्ञ में दोनों को होम देना। नारद का अयोध्या जाकर यज्ञ का विरोध करना। नारद का यह तर्क कि यम-कर्म से शान्ति महीं होती।
सतरवों संधि
44-63
मन्त्री की अच्छी वाणी सुनकर राजा का मिथ्यादर्शन नष्ट होना । राजा दशरथ का पुरोहित से रावण का पूर्वभव पूछना। सारसमुच्चय देश के नागपुर नगर के राजा नरदेव द्वारा दीक्षा लेकर तपश्चरण करना । विधाघर चपलवेग को देखकर निदानपूर्वक मरना और स्वर्ग में देव होना । विजयाध पर्वत के मेघ शिखर का राजा सहस्रग्रीव का खिन्न होकर त्रिकुट पर्वत पर आ बसना। उसकी वंश-परम्परा का अंतिम राजा पुलस्त्य का गद्दी पर जैठना । उसकी पत्नी मेधलक्ष्मी से रावण का जन्म । रावण के प्रताप का वर्णन। एक बार पत्नी सहित उसका पुष्पक विमान में विहार करना। विद्या सिद्ध करती हुई मणिवती पर आसक्त होना । विघ्नों से परेशान होकर मणिवती का इस संकल्प के साथ मरना 'मैं पुत्री होकर इसकी मौत का कारण बर्न ।' मन्दोदरी के गर्भ से रावण की पुत्री सीता के रूप में उसकी उत्पत्ति। अपशकुन होने पर राक्षण द्वारा उसे मंजूषा में रखकर मिथिला नगरी के उद्यान में गड्या दिया जाना। किसान को हल चलाते हुए कन्या मिलना और राजा जनक के पास उसका पहेपना । जनक द्वारा सीता का पालन-पोषण । सीता के सौन्दर्य का वर्णन। राम से सीता का विवाह। अयोध्या आगमन । राम का सात अन्य कन्याओं से विवाह । बसन्त का आगमन । वसन्तक्रांडा का देश के लिए प्रस्थान। काशी पर आधिपत्य । राम-सक्ष्मण के रूप-सौन्दर्य को देखकर नगरवनिताओं की प्रतिक्रियाएं और कामुक अनुभाव ।
इकहत्तरधी संधि
64-83
नारद का वर्णन । नारद का रावण को भड़काना । रावण की प्रशंसा। राम से सीता के विवाह की नारद द्वारा सूचना देना । रावण द्वारा आक्रमण की योजना बनाना । कलहप्रिय नारद का प्रस्थान । मारीच और विभीषण का रावण को समझाना । कामप्रशास्त्र के अनुसार स्त्रियों के विविध प्रकारों का वर्णन । दूती के रूप र बहिन चन्द्रनखा को भेजना । काशी के निकट चित्रकूट उद्यान का वर्णन । राम-लक्ष्मण की अन्तःपुर के साथ कीड़ा । जल-क्रीड़ा। उधर सीता के अनिन्ध सौन्दर्य को देखकर चन्द्रनखा का मुग्ध होना । बद्धा बन कर सीता से बातचील। सीता के नारीविषयक विचार । चन्द्रनखा की वापसी । विरोध के बावजूद रावण का काशी के लिए प्रस्थान ।
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38]
महाकवि पुरुपर्वत कृत महापुराण
84-95
बहत्तरवौं संधि
पुष्प विमान का वर्णन । चित्रकूट और सीता के यौवन का तुलनात्मक वर्णन । राम की प्रशंसा । स्वर्णमग की चेष्टाएँ। राम का उसका पीछा करना। रावण का राम के रूप में छस से सीता का अपहरण । लंका के लिए प्रस्पान । सीतादेवी की प्रतिक्रिया । भ्यः प्राणियों और प्रकृति की प्रतिक्रिया 1 विद्यारियों का सीतादेवी को फुसलाना। सीसा का कडा उत्तर । सीता की प्रतिज्ञा कि लेखपत्र से प्रिम की खबर मिलने पर ही वह भोजन ग्रहण करेगी। लक्ष्मण को चक्र की प्राप्ति।
तिहत्तरवी संधि
96-125 वर्णनगन सेट से हरा की नापसी और सन्ध्या का आगमन । सम्ध्या का वर्णन । सीता की खोज चिन-जन्तुओं और पौधों से सीता के बारे में पूछना । राम को सीता का उत्तरीय मिलना। दशरथ द्वारा राम को सीतापहरण की सूचना । दो विद्याधरों का आकर बालि का वृतान्त कहना । सिद्धकूट जिनालय में जिनेन्द्रदेव की बन्दना । नारद का भविष्य कथन । राम द्वारा सुग्रीव को सहायता का बचन देना 1 हनुमान् का दौत्य वर्णन । समुद्र का वर्णन । त्रिकूट पर्वत का वर्णन । लंका का वर्णन : सिंहासन पर आरूढ़ रावण का वर्णन । हनुमान् का भ्रमर बनकर रावण को समझामा। विद्यारियों और वन की शोभा का वर्णन । धनथी और सीता की कान्तिविहीन श्री की शुलना । हनुमान का आक्रोश और प्रतिक्रिया। रावण की काम-अवस्थाओं का चित्रण। रावण का सीता के सामने होंगे मारना। रावण को मंदोदरी द्वारा समझाना। मंदोदरी को वास्तविकता का पता चलना। सीता की प्रतिक्रिया। हनुमान की सीता से मेंट।
अंगूठी और लेख का समर्पण । हनुमान द्वारा अपना परिचय । अभिज्ञान के प्रमाण देना। चहत्तरवौं संधि
1267141 लंका से हनुमान की वापसी और राम से निवेदन । राम द्वारा हनुमान की प्रशंसा। आक्रमण की तैयारी। पंचांग मन्त्र का विचार । फिर से दूत भेजे जाने का निश्चय । पुनः हनुमान को सूत बनाकर भेजा जाना । हनुमान् को राम द्वारा समझाना कि विभीषण से किस प्रकार मिलना है। हनुमान का लंका में प्रवेश । लंका की वनितामों पर उसके रूप की प्रतिक्रिया । विभीषण से भेंट । विभीषण द्वारा रावण से हनुमान की भेंट कराना। रावण का हनुमान के साथ अभद्र व्यवहार। हनुमान द्वारा सीता की वापसी पर जोर देना। रावण के गर्वोक्ति पूर्ण वचन । आबेगपूर्ण उत्तर-प्रत्युत्तर।
हनुमान की चुनौती। पचहत्तरवीं संधि
142-153 हनुमान की वापसी और दौत्य कार्य की रपट राम के सामने प्रस्तुत करना । बालि के दूत का आगमन । राम को दुविधा । राम का। बालि के पास दूत भेजना । बालि का संधि करने से इंकार कर देना । बालि का हनुमान् को पटका रमा । घमासान लड़ाई। राम की जीत। किष्किंधा नगरी में प्रवेश | किष्किंधा नगरी का वर्णन | शरद ऋत का आगमन । राम द्वारा विद्याओ की सिद्धि।
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विषय-सूची
39] छिहत्तरषों संधि
154-165 सेना का कूच । प्रस्थान का वर्णन । समुद्रतट पर पड़ाव। रावण और विभीषण का संवाद । विभीषण का राम से मिलना। विभीषण की राम से भेट। हनुमान का नन्दन वन में प्रवेश । नन्दनवन का वर्णन । ध्वंस का वर्णन । लंका को जला कर हनुमान की
वापसी। सतहत्तरवीं संषि
166-180 रावण के पक्ष के प्रमुखों द्वारा विद्याओं को सिवि। साधना पर होने वाले उपसर्ग। यक्रवात का वर्णन । विद्याधरों द्वारा राम को विद्याओं का दिया जाना । युद्ध के लिए प्रस्थान । मदगज का वर्णन | रावण की प्रतिक्रिया। रावण की तैयारी। सेना के विभिन्न अंगों की गतिविधियाँ । वीरांगनाओं की प्रतिक्रियाएँ। आमा-सामने लड़ाई।
मायावी युद्ध। महत्तरवौं संधि
181-211 यूख के नगाड़ों का बजाना । वीरांगनाओं द्वारा बिदाई। उनकी प्रतिक्रिया और वीर पतियों से अपेक्षाएँ। राम और रावण की सेनाओं में भिड़न्त । सभटों को प्रतिक्रियाएँ । मारकाट का वर्णन । रावण और विभीषण में वचन-प्रतिवचन । राम और रावण में इन्द्र । लक्ष्मण का चक्र उठाना । आकाश से कुसुम वृष्टि । रावण का वध । मन्दोदरी का विलाप । विभीषण का विलाप । उसके द्वारा इस सारे काण्ड के लिए नारद को दोषी ठहराना। राम का विभीषण को समझाना। रावण का दाह-संस्कार।
शान्ति-कर्म। मन्दोदरी को सांत्वना देना। उम्पासीयों संषि
212-223 पीलगिरि पर आसीन राम और बन की तुलना । राम के आदेश से लक्ष्मण का शिला उठाना । सौनन्द यक्ष का प्रवेश । लक्ष्मण को सौनंदक तलवार भेंट करना । अचक्रवर्ती बनने के लिए राम के साथ लक्ष्मण की दिग्विजय। राम और लक्ष्मण द्वारा मनोहर नामक वन में शिवगुप्त मुनि के दर्शन । मुनि द्वारा तत्त्वोपदेश । पूर्वभव कथन । लक्ष्मण
का निधन । राम द्वारा जिनदीमा लेना। मुक्ति। अस्सी संधि
226-242 नमीश्वर की वन्दना । वत्सदेश का वर्णन । राजा पार्थिव रानी सती। पुत्र सिद्धार्थ । राजा पार्थिव द्वारा जिनमुनि के दर्शन हेतु सपरिवार जाना। तत्वोपदेश । पूष सिद्धार्थ 'को राजगद्दी देकर राजा का जिनदीक्षा ग्रहण करना । सल्नेखना विधि से मरकर अपराजित विमान में अहमेन्द्र होना । मिथिला का राजा विजय । गहिणी वप्रिल । अहमेन्द्र का इक्कीसवें तीर्थंकर नमीश्वर के रूप में वप्रिल के गर्भ में प्रवेश । गर्भ और जन्म-कल्याण | राज्याभिषेक, राम्य, तप-कल्याण । केवलज्ञान और सम्मेदशिखर पर
निर्वाण । मुक्ति प्राप्ति । चक्रवर्ती जयसेन के चरित का वर्णन | परिशिष्ठ
243-258 अंग्रेजी में टिप्पणियाँ और उनका हिन्दी रूपान्तर
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महाका-पुप्फयंत-विर इयउ महापुराणु
अठ्ठसहिमो संवि जो तित्थंकर वीसमउ बीसु विसयविसवेणिवारणि ।। जोईसरु जोइहिं णमिउ' जो बोहित्थु भवण्णवतारणि ॥ध्रुवकं ।।
जो दिव्ववाणिगंगापवाह जो रोस हुयासणवारिवाहु । जो मोहमहाधणगंधवाहु जो मोक्खणयरवहसस्थवाहु । तणुगंधे जो सनु चंदणासु पउणइ जो तेएं चंदणासु। जो पणमिउ रामें लक्षणेण धम्मेण अहिंसालक्खणेण। जणु जेण णिहिउ सग्गापबग्गि जो सरिसचिस्तु रिउबंधु वग्गि। जे मिच्छतुच्छधीरंगरत दप्पि दुट्ठ तिट्ठागरत। जे धुम्मिरक्छ पीयासवेण जे बद्धा गुरुकम्मासवेण । जे कयलालस मासासणेण जे विरहिय परहियसासणेण । जेणारिहिं वसा आया रएण ते मक्क जास आयारएण, सुद्धोयणि सुरगुरु कविल' भीम वयणेण विणिज्जिय जेण भीम।
अड़सठवीं संधि जो बीसवें तीर्थकर हैं, जो विषयरूपी विष के वेग को दूर करने के लिए गरुड़ हैं ,जो योगीश्वर योगियों के द्वारा प्रणम्य हैं और जो संसार रूपी समुद्र के संतरण के लिए जहाज हैं।
10
जो दिव्यवाणी रूपी गंगा के प्रवाह हैं, जो क्रोध रूपी अग्नि के लिए मेघ हैं, जो मोह रूपी महामेघ के लिए पवन हैं, जो मोक्ष रूपी नगर-पथ के लिए सार्थवाह हैं, जो शरीर की गन्ध से चन्दन के समान हैं, जो अपने तेज से चन्द्रमा का तिरस्कार करने वाले हैं, जो राम और लक्ष्मण के द्वारा प्रणम्य हैं जिन्होंने हिंसा लक्षणवाले धर्म के द्वारा लोगों को स्वर्ग और मोक्ष में स्थापित किया है, जो शत्रुवर्ग और मित्रवर्ग में समान चित्त है। (ऐसे भी लोग हैं जो मिथ्यात्व और ओछी (सांसारिक) बुद्धि के राग में अनुरक्त हैं, गर्वीले, दुष्ट और तृष्णा रूपी विष से युक्त हैं, मद्य पीने के कारण जिनकी आँखें घूम रही हैं, जो भारी कर्मों के आस्रव से बंधे हुए हैं, जो लालसा करने वाले हैं, जिसमें एक माह में आहार ग्रहण किया जाता है, ऐसे तथा दूसरों का कल्याण करने वाले जिन शासन से, जो रहित है, जो राग से नारियों के वचनों के अधीन हैं, वे भी उन मुनिसुव्रत तीर्थकर के आचार के अनुष्ठान से मुक्त हुए हैं। जिन्होंने अपने भयंकर शब्दों से गौतम कपिल और भीम को जीत लिया है। ऐसे मुनिसुव्रत के समान दूसरा कोई नहीं है। (1) 1. AP णविउ । 2. A 'बहे सत्य। 3. AP पविज । 4. AP जो। 5. AP घुम्मिरच्छि।
6. AP add after this: जे बिरहिय (P रहिय) सया वि आयारएण। 7. A वसु आया। 8. A जे मुक्क । 9. AP add after this: सेलोइयसुदायारएण।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[68. 1.13 तिहयणि ण कोइर. इसमःगु समा जानु नाचा गु णिच्चल परिपालिय सुवयासु पणवेप्पिणु तहः मुणिसुब्बयासु। पत्ता-तहु जि कहतरु वज्जरमि श्रेण विमुच्चमि दुग्गइदुक्खहु ॥ 15
अटु दि कम्मई णिट्ठविवि देहु मुएप्पिणु गच्छमि मोक्खहु ।।1।।
एस्थेव य कयकरारिकंप
भरहंगदेसि पुरि अस्थि चंप। तहिं असिजलधारा हरियछाउ जगु जेण कियउ हरिवम्मराउ। सो एक्कहिं दिणि उज्जाणु पत्तु दिट्ठउ अणतथीरिउ विरत्तु । अणगार णाणि परमत्थसवणु वंदेप्पिणु णिसुणिवि धम्मसवणु। सत्तंगसंगु सुइ णिहिउ रज्जु अप्पणु पुणु कियउं परलोयकज्जु । तत्तउं तउ सहुं बहुपस्थिवेहि णिग्गथमगपत्थियसिवेहि। होइवि एयारहअंगधारि
अरहंतपुण्णपन्भारकारि। तणुचाएं मुउ हुउ प्राणइंदु हरिवम्मु सकतिइ जिसचंदु । तहु आउ वीससायरई तेत्यु तणु भणु विहत्थि पुणु तिउणु हत्यु । सियलेसु चित्तपडिचारवंतु अवहीइ णियइ पंचमधरंतु।
10 णीससइ देउ दहमासएहि पुणु वीसहिं वरिससहसगएहि ।
जिनका सम्यग्दर्शन आकाश के समान अनंत है, जिन्होंने निश्चित रूप से सुबतों का परिपालन किया है, ऐसे उन मुनिसुव्रत को प्रणाम कर--
पत्ता–उन्हीं के कथांतर को कहता हूँ, जिससे मैं दुर्गति के दुःख से विमुक्त हो सकू, आठों कर्मों का नाश कर और शरीर का त्याग कर मोक्ष पा सकू ।।1।।
इसी भरत क्षेत्र के अंग देश में चंपा नाम की नगरी है। उसमें क्रुर शत्रुओं को कंपन उत्पन्न करने वाला हरिवर्मा नाम का राजा था। जिसने असिरूपी जलधारा से विश्व को कान्तिहीन बना दिया था ऐसा वह एक दिन उद्यान में पहुँचा, वहाँ उसने अनंतवीर्य नामक विरक्त मुनि को देखा, जो परिग्रह से रहित, झानी तथा वास्तविक श्रमण थे। उनकी वन्दना कर और 'धर्म' का श्रवण कर पुत्र को सप्तांग राज्य देकर उसने स्वयं अपना परलोक का काम साधा दिगम्बर मार्ग से जिन्होंने कल्याण की प्रार्थना की है ऐसे बहुत-से राजाओं के साथ उसने तप किया। ग्यारह अंगों को धारण करते हुए, अरहंत के पुण्य का उत्कर्ष करते हुए शरीर छोड़कर, कान्ति में चन्द्रमा को जीतनेवाला वह हरिवर्मा प्राणत इन्द्र हुआ। वहाँ उसकी आयु बीस सागर थी। उसका शरीर तीन हाथ का था । श्वेत लेश्या से युक्त वह मनःप्रवीचार वाला था। अवधिज्ञान से वह पांचवें नरक की भूमि तक देख सकता था। दस माह में वह श्वास लेता था तथा बीस हजार वर्ष बीतने पर
10. Pतुह। (2) 1. AP कयउ । 2. P हरिवम्म । 3. A सशु पहवि मुउ। 4. AP पाणइंदु । 5. A पाससहाएहि;
Pवाससहसगएहि ।
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68.4.2]
महाका-पुस्फयंत-निरइयउ महापुराण घत्ता–देउ मणेण जि आहरइ सुहमई पोगलाई रसरिद्धई ।।
अयणमेत्तु जीविउ थियउ पयडई जायइं कालहु चिधई॥2।।
ता तहु चरित्तु णिच्चप्फलेण धणयह भासिउ आहंडलेण। इह भरहि मगहरायगिहि दित्तु पुरि सइ राउणामें सुमित्त । जिणपायपोमजुयरेणुलित्तु
- हरिवंसकेउ कासबसुगोत्तु । अप्पडिमसत्ति णं सिद्धमंतु किंवण्णमि सोमाएविकंतु। एयहं गंदणु जिणु सोक्खहेउ होही प्राणयचुर देवदेउ । भो धणय धणय कल्लाणमित्त एयहं दोहं मि करि पुरि विचित्त । ता रइय णयरि दविणाहिवेण दिप्पं तवणिज्जे णवेण। पासायतिरहचच्चरहिं गयणयललग्गवरगोउरेहि। सरिसरणंदणवणजिणघरेहिं रक्खिज्जती णियकिकरहिं । पत्ता-तहि सँउहहु सत्तमि तलि घणथणमंडलहारबिलंबिणि।।
सुहं सोवती सयणयलि पेच्छइ सिविणय रायणियंबिणि ॥3॥
मत्तसिंधुरं सियधुरंधुरं। हरिणराययं
लच्छिकाययं। घत्ता---वह देव, मन से रस से समृद्ध सूक्ष्म युद्गलों का आहार करता । जब उसका छह माह जीवन शेष रह गया, तो उसके अंत समय के चिह्न प्रकट होने लगे। ।।2।।
(3) तब उसके चरित का कथन निश्चपल इन्द्र ने कुबेर से किया--"इस भारत के मगध देश की राजगह नगरी में सुमित्र नाम का राजा निवास करता है, जिनवर के चरण कमलों की धूल का प्रेमी, हरिवंश का ध्वज और कश्यप गोत्रीय । अप्रतिम शक्ति जो मानो सिद्धमंत्र हो। सोमदेवी के उस स्वामी का मैं क्या वर्णन करूं । प्राणत स्वर्ग से च्युत होकर वह देवदेव, इन दोनों के सूख का कारण जिनपुष होगा। हेमल्याणमित्र, धनद-पानद इन दोनों के लिए तुम पवित्र नगरी की रचना करो।" तब कुबेर ने चमकते हुए नए स्वर्ण से नगरी की रचना की। प्रासाद पंक्तियों, रथ-चौरस्तों, आकाशतल को छूने वाले श्रेष्ठ गोपुरों, नदियों, सरोवरों, नन्दनवनों और जिन मंदिरों से अपने अनुचरों से बह नगरी रक्षित थी।
धत्ता-उस नगर में प्रासाद के सातवें भाग पर, जिसके सघन स्तन मंडल पर हार झुल रहा ऐसी उस रानी ने शयनतल पर सुख से सोते हुए स्वप्नमाला देखी ॥३॥
मतवाला गज, श्वेत बैल, सिंह, लक्ष्मीमूर्ति, दृष्टि के लिए सुखद पुष्पमाला, चन्द्रविम्ब, (3) 1. AP णिच्चफलेण'। 2. A रामगिहु । 3. AP पाणयचुउ । 4. P तवणिज्ज तबेण । 5. P 'रले
लग16. P णिवकिकरेहि। 7. AP सउहहिं । (4) I.A लच्छिकामयं ।
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[68.43
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण फुल्लदामयं दिट्टिकामयं । चंदबिबर्ग
उययतंबयं । चंडकिरणयं मीणमिहुणयं । कुंभजुयलयं
दलियकमलय। कमलवासयं
सुरहिवासयं। अमयमाणिहि अमरवारिहि। सोहनूस
दिव्वमासणं। सिहरसुंदर इंदमंदिरं। धुयधयालयं विसहरालयं । णिहियतिमिरय रयणणियरयं ।
कदिलचलसिहं जलियहुयवहं । पत्ता-इय जोइवि सिविणय सइइ सुत्तविबुद्ध भासिङ दइयहु ॥
सेण वितं तहि अविलय जे फलु होसइ पुज्वविरइयहु ॥4॥
10
15
*5
तुह कुच्छिहि इच्छियगुणमहंति होसइ सुउ' तिहुवणणाहु कंति। सुरधणधारंचिइ रायगेहि
अच्छरहिं पसाहिइ देविदेहि । सावणतमबीयहि सवणरिक्खि
पंडुरु करि आयउ अंतरिक्खि । देबिइ दिठ्ठउ समुहारविदि
पइसंतु सेतु रयणिहि अणिदि। हरिवामुराउ जो प्राणईदुः
सइगन्भवासि थिउ सो जिणिदु। आयउ वंदइ सयमेव इंदु
किर कवणु गहणु तहिं सूरचंदु । उदयकाल में आरक्त सूर्य, मीनयुगल, घटयुगल, जिसमें कमल विकसित हैं और जो सुरभि से वासित है ऐसा सरोवर, अमरों के द्वारा मान्य क्षीर समुद्र, सिंहों से भूषित दिव्य आसन, शिखरों से सुन्दर इन्द्रभवन, जिसमें ध्वज प्रकम्पित हैं ऐसा नागपर, अंधकार को नष्ट करने वाला रत्नों का समह, कपिल (भूरे या बदामी) रंग की चंचल ज्वालाओं वाली प्रज्वलित आग ।
पत्ता-इन स्वप्नों को देखकर, सोते से जागकर सती ने अपने पति से कहा। उसने भी, पूर्वोपार्जित पुण्य का जो फल होगा, वह उसे बताया।4।।
__ "इच्छित गुणों से महान् हे कान्ते, तुम्हारी कोख से त्रिभुवनस्वामी पुत्र होगा। राजगृह मगर के 'देवधन से अंचित, तथा अप्सराओं के द्वारा देवी की देह शुद्ध होने पर श्रावण कृष्णा द्वितीया के दिन श्रावण नक्षत्र में अंतरिक्ष से सफेद' गज आया, देवी ने उसे अपने अनिंद्य मुखकमल में रात में प्रवेश करते हुए देखा । हरिवर्मा राजा जो प्राणत स्वर्ग का इन्द्र था, वह जिनेन्द्र के रूप में सती के गर्भवास में आकर स्थित हो गया। आया हुआ इन्द्र स्वयं वन्दना करता है, फिर वहाँ सूर्यचन्द्र के बारे में क्या कहना ? नष्ट कर दिया है मोहजालजिन्होंनेऐसे मल्लिनाथ तीर्थंकर
2. A धरिकमलयं । 3. A सीहभूसिमं । 4. A विहिय'; P विहय । 5. A तहु । (5) 1.A जिणु। 2.AP पाणइंदु । 3. P सो थि।
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68. 6. 81
महाका-युएफयंत-विरइया महापुराणु गइ मल्लिदेवि यमोहजालि चउपण्णलक्खवरिसंतरालि। उप्पण्णउ णिउ सक्केण तेत्यु तं मेरुमहागिरिसिहरु जेत्थु। अहिसिंचिउ पंडसिलायलग्गि १५ माणित णिहिट स्मारमिण! आणदें णच्चिउ कुलिसपाणि तह बयण विणिग्गय दिव्यवाणि । सुव्वउ मुणिसुव्वउ भणिवि णाहु गउ णिययणिवासहु तियसणाहु । घत्ता- वड्डइ देउ लहंतु पय लक्खणवंतु जणंतु सुहं जणि ॥
सालंकार कतिइ सहिउ कम्वविवेउ णाइ वरकइयणि ।।5।।
10
पहु वीससरासणमियसरीरु पियवयणभासि गंभीर धीरु। परिणयमऊरबरकंठवष्णु
दहदहदहसहससमाउ वण्णु। सत्तद्धवरिससहसाई जाम थिउ कि पि बालकोलाइ ताम। दहपंचसहासद्दहं धरित्ति
भुजिवि जोइवि करिवरहु वित्ति। आहारु ण गेण्हइ णेय चार पइ गरविंदहु वज्जरइ चारु। करि पुन्वतालपुरि आसि राउ कुच्छियमइ जणियकुपत्तभाउ । बंभणहं दितु मणिकण यदाणु मुउ काणणि हुउ गउ गलियदाणु ।
सुंयरइ सल्लइपल्लवदलाई। सुंयरइ सीयलसरिसरजलाई। के बाद, चौवन लाख वर्षे हो जाने पर उनका जन्म हुआ। इन्द्र उन्हें वहाँ ले गया कि जहाँ सुमेरुपर्वत का शिखर था। पांडुशिला के अग्रभाग पर उनका अभिषेक किया गया। उन्हें घर लाया गया, और अपनी माता के सामने रख दिया गया। इन्द्र आनन्द से खूब नाचा, उसके मुख से दिव्यवाणी निकली, नाथ को सुव्रत मुनिसुव्रत कहकर देवेन्द्र अपने निवास स्थान के लिए चला गया।
घता-लक्षणयुक्त पद (चरण) लेते हुए, जनों में सुखै उत्पन्न करते हुए, अलंकारों से युक्त तथा कान्ति से सहित देव उसी प्रकार बढ़ने लगते हैं जैसे श्रेष्ठ कविजन में काव्यविवेक बढ़ने लगता है ॥5॥
16)
स्वामी का शरीर बीस धनुष प्रमाण सीमित था। वह प्रिय वचन बोलने वाले गंभीरधीर थे। उनकी कान्ति तरुण मयूर के कण्ठ के रंग की थी। उनकी आयु तीस हजार वर्ष की थी। जब साढ़े तीन हजार वर्ष हुए, तब तक वह बाल क्रीड़ा में स्थित रहे। इस प्रकार पन्द्रह हजार वर्षों तक धरती का भोगकर; तथा गजवर की वृत्ति देखकर कि वह आहार नहीं करता है न तृणकमल लेता है, राजाओं के स्वामी वह यह सुन्दर बात कहते हैं कि पहिले यह हाथी तालपुर में अत्यंत खोटी बुद्धि वाला और अत्यंत कुपात्रभाव वाला राजा था। यह ब्राह्मणों के लिए मणि और सोने का दान देता था। मरकर वन में यह, जिसका मदजल गल रहा है, ऐसा हाथी हुआ।
4. AP add after this : वसाहमासि पर कसणपविख, दहमइ दिणि ससि थिइ सवणरिक्खि ।
5. P धरि 16.A कतिसहिउ । (6) 1. AP सत्तद्धसहसवरिसाई।
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[68.6.9
महाकवि पुष्पवन्त विरचित महापुराण सुंयरइ करिणीकरलालियाई गिरिगेरुयरयउद्ध लियाई। सुंयरइ सिसुमयगलकीलियाई करतालयहिंदोलियाई। घत्ता-एंव कहेप्पिणु मुक्कु गउ गउ सो विझहु कहिं मि सइच्छइ ।
अग्गइ सयणहं परियणहं णरणाहेण पबोल्लिज पच्छह ।।6।।
जहिं णरणाह यि होति गय कालेण हय । तहिं कि किज्जइ सिरिधरण जिणतवचरणु। किज्जाकाणणि पइसरिवि थिरु मणु धरिवि । सुररिसिहि वि सो तहि संथविउ सक्के हविट। विजयह रज्जु समप्पियउ तिणु केपियां, गउ सिवियइ अवराइयइ
सुविराइयई। ओइण्णउ' जिणु णीलाण तरुवेल्लिणि। वसाहइदिसमीदियहि
पिच्चंदवहि'। सवणि सहासें सहूं णिवह
जगबंधवहं । छठुव वासें तवु गहिउं
अमरहि महिउ। भिक्खहि मुणि गज रायगिह विच्छिपणछि। बसहसेणरायस्स धरि
थिउ पुण्णभरि। जं पासुययरु लद्ध जिह सं भोज्जु तिह। यह, सल्लकी लता के पल्लवदल की याद कर रहा है, वहाँ के शीतल नदी-सरोवर के जलों की याद कर रहा है, वह याद कर रहा है पर्वत की गेरुरज से व्याप्त हथिनी के सूड़ों का लाड़, वह याद कर रहा है शिशुगजों की क्रीड़ाएं एवं सूंड और तालवृक्ष के आंदोलन।
पत्ता-इस प्रकार कहकर, उन्होंने गज को मुक्त कर दिया । वह अपनी इच्छा से विध्याचल में कहीं भी चला गया। बाद में राजा ने स्वजनों और परिजनों के सामने कहा ॥6॥
जहाँ राजा भी समय के चक्र में पड़कर हाथी होते हैं वहाँ श्री को धारण करने से क्या ? जिनवर का तपश्चरण करना चाहिए, वन में प्रवेश कर और अपने मन को स्थिर कर । तब वहाँ लोकान्तिक देवों ने भी उनकी संस्तुति की। इन्द्र ने अभिषेक किया। राज्य को तिनका समझा, और विजय' के लिए, सौंप दिया, अत्यंत शोभित अपराजित शिविका में बैठकर, वह गए। जिन, वृक्षों और लताओं से सधन नीलवन में उतरे, और वैशाख कृष्णा दसवीं के दिन (जब कि चन्द्रमा पथ से जा चुका था) श्रावण नक्षत्र में एक हजार जगबंधु राजाओं के साथ, छठा उपवास करके उन्होंने तप ग्रहण कर लिया। देवों ने उनकी पूजा की । स्पृहा से रहित वह भिक्षा के लिए राजगृह गए। वृषभराजा के पुण्य से परिपूर्ण घर में जाकर स्थित हो गए। जैसा प्राशुकतर भोजन
(7) AP करीइ। 2. A फाणण। 3. AP मणु थिरु ! 4. AP कम्पियन । 5. A रुइराइ. Komits सुविराइयइ। 6.AP उबइण्णउ। 7.A णिच्द यहि। 8. Aसवणसहासे। 9. Aविच्छिण्ण।
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68. 8.6]
महाका-पुष्कयंत-विरापत महापुराण {जिवि पुणु तेत्थाउ गउ कयसुहिविजउ । खरतवतावें तत्ताहो।
सुविरत्ताहो। णव झीणई णिम्मच्छरई
संवच्छरई। आयउ पुणु तं तरुगहणु
वम्महमहणु। दिवखारिक्खि पश्खि कहिए मासें सहिए। णवमीदिणि चंपयह तलि
थिउ धरणिय लि। पोसहजुयलें गलियमलु
हूयउ सयलु। केवलविमलु अणंतयरु
सुरखोह्यरु। पत्ता-कोमलकरयलघत्तियहिं" कुसुमहिं चित्तलंतु गयणंगणु ।।
णं चित्तवड्डु पसारियड जलि पलि महियलि माइ ण सुरयणु ।।7।।
20
सहसक्खें विरइउ समवसरणु उवविठ्ठ भडारउ तिजगसरणु । चर अचरु असेसु वि जणहु कहइ तहिंपसु वि चारु चारित्त, वहइ। जाया देवहु रिसिवित्तिअरुह अट्टारह गणहर मल्लिपमुह । दहदोअंगई रिसि जे धरंति पंचसयई ताहं वि वज्जरंति। सिधुपहं सहासह एक्कास तत्तिय केवलि ओहीविहीसा |
वइकिरियह दुसहस दोसयाई भुवर्णतपसिद्धिहि संगयाई। उन्हें मिला, उसे उन्होंने उसी प्रकार ग्रहण कर लिया। जिन्होंने सुधियों की विजय की है, ऐसे वह, वहाँ से भोजन करके चले गए। अत्यन्त प्रखर तप से संतप्त, और अत्यन्त विरक्त उनके ईया से रहित नौ साल व्यतीत हो गए। फिर कामदेव का मंथन करने वाले वह वृक्षों से गहन उसी वन में आए । वैशाख कृष्णा नौवीं के दिन श्रवण नक्षत्र में चंपक वृक्ष के नीचे धरणी-तल पर बैठ गए। दो प्रोषधोपवासों से नष्टमल वह सम्पूर्ण अनन्तानन्त देवों को क्षोभ करनेवाले केवलज्ञान से पवित्र हो गए।
घत्ता-कोमल हाथों से फेंके गए पुष्पों के द्वारा आकाश के प्रांगण को चित्रित करता हआ देव समूह धरती, जल और थल में नहीं समा सका, मानो चित्रपट फैला दिया गया हो। ।।7।।
देवेन्द्र ने समवसरण की रचना की। त्रिजग की शरण आदरणीय उसमें बैठे। वह चरअचर अशेष जन से कहते हैं, वहाँ पशु भी सुन्दर चरित्र का आचरण करता है। देव के मुनि वृत्ति वाले योग्य मल्लि प्रमुख अठारह गणधर थे। जो बारह अंगों को धारण करते हैं वे पाँच सौ कहे जाते हैं। शिक्षक इक्कीस हज़ार थे, और इतने ही केवलज्ञानी थे। अवधिज्ञान के ईश और विक्रिया-ऋद्धि को धारण करनेवाले दो हजार दो सौ थे। भुवनान्तर में प्रसिद्धि को प्राप्त, तथा 'अपने नय से परमतों का विध्वंस करनेवाले, वादी मुनि बारह सौ थे। सूक्ष्म सोपराय का नाश 10. A सुहविजयो। 11. तसयहो। 12. A सुविरत्त यहो। 13. AP'घल्लियहि । 14. AP चित्तवटु । 15. APणहयलि।
(8) 1. A ओहीविमोस।
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माकषि पुष्पदन्त विरबित महापुराण
[68.8.6 णियणयविद्ध सियपरमयाहं
वाइहिं बारहसय संजयाहं । पणदहसय पुणु मणपज्जयाहं
णासियसुप्पयरिउसंपयाह। पण्णाससहासई संजईहि
सावयह लक्खु यदुम्मईहि.। मंदिरवयणारिहि तिण्णि लक्ख
सुर तिरिय असंख णिरुद्धसंख। 10 हिंडेप्पिणुः एव महीयलंति
मासाउसेसि थिइ जीवियंति । फग्गुणतमदसमिहि सवणजोइ णिसि पच्छिमसंझहि मुक्ककाइ। रिसिसहसे सहुं संमेयकुहरि
सिद्धउ थिउ जाइवि तिजगसिहरि' । पत्ता-अरसु अगंधु अवण्णमा फाससद्दवाज्जिउ गयरूबउ ।।
मुणिसुव्यउ महुं दय करउ सुद्ध सिद्ध हुउ गाणसहावउ ॥ 8 ॥
णिब्द सुब्बइ जो णिज्जियारि इह जायउ महिवइ चक्कधारि। हरिसेणु णाम तहु तणउं चरिउ .णिसुणह पवित्त परिहरिवि दुरिउं। वरभारहवरिसि अणंततिरिथ गंथियकुगंथबंधणबहित्यि'। गरपुरवरि णाहुणराहिरामु तउ करिवि हरिवि कलि कोहु कामु। सुविसालविमाणि विमाणसारि संभूयउ अमरु सणकुमारि । इह खेत्ति भोयपुरि दोहबाहु इक्खाउसि पिउ पउमणाहु ।
तह देबि किसोयरि सुद्धसील अइरा एरावयगमणलील। करने वाले मनःपर्ययज्ञानी पन्द्रह सौ थे। आयिकाएँ पचास हजार थीं। श्रावक एक लाख थे। अपनी दुर्मति का नाश करनेवाली तथा मन्दिर का व्रत ग्रहण करनेवाली श्राविकाएँ तीन लाख थीं । देव असंख्यात और तियंत्र संख्यात । इस प्रकार धरतीतल पर विहार कर, जब उनके जीवन की आयु एक माह बाकी रह गई, तो फागुन कृष्णा दसवीं के दिन श्रवण योग में रात्रि की पश्चिम संध्या में सम्मेद शिखर पर, मुक्तकाय वह एक हजार मुनियों के साथ, सिद्ध हो गए और त्रिजग के शिखर पर स्थित हो गए।
घत्ता अरस, अगंध, अवर्ण, स्पर्श और शब्द से रहित और रूपरहित, मुनिसुक्त तीर्थंकर; मुझ पर दया करें कि जो शुद्ध सिद्धि और ज्ञानस्वभाव हो गए हैं ! ॥४॥
(9)
मुनिसुव्रत भगवान के निर्वाण प्राप्त कर लेने पर, शत्रुओं को जीतनेवाला जो चक्रवर्ती राजा हुआ था उसका नाम हरिषेण था। अपने दुरित का नाश करने के लिए, तुम उसका पवित्र चरित्र सुनो । अनन्तनाथ के तीर्थकाल में उत्तम भारतवर्ष में, जो कुत्सित ग्रन्थों की रचना से मुक्त है, ऐसे नरपुरबर में मनुष्यों के लिए सुन्दर राजा तप कर तथा पाप, क्रोध और काम को दूर कर, विमानों में श्रेण्ड विणाल नामक विमान में सनत्कुमार देव उत्पन्न हुआ। यहाँ भरतक्षेत्र में भोगपुर में दीर्घबाहु, इक्ष्वाकुवंशीय राजा पद्मनाभ था । उसको, शुद्धचरित्र ऐरावत के समान 2.A महि डिडेपिणु इम महिगलति । 3. A सिसिहरि ।
(9) 1. A कुगंथिबंधण । 2. AP विवाणि विवाण' ।
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68. 10.8]
महाकइ-पुस्फयंत-विरायड महापुराण एयहं सो सुरु अंगरुह जाउ हेमाहु समाजुयपरिमियाउ। हलक्खणु वीसधणुप्पमाणु कतीइ चंदुतेएण भाणु । गउ तेण समउं पिउ पुहइवीरु मणहरवणि णविधि अणंतवीरु। रिसि हूयउ पहु पंकरुणाहु पुत्त आयण्णिवि धम्म साह । घत्ता–लइयई पंचाणुव्बयइं पंच वि इंदियाई णियमंतें।। आवेप्पिणु पुरु' रज्जि थिउ पुण्णपहावें काले जंतें ।। १ ।।
10 उप्पण्णउं पहरणु परि रहंगु पविदंडु चंडु रिउदिपणभंगु । णित्तिसु तहि जि धवलायवत्त सिरिहरि कागणि मणि चम्मजुत्त । जणणहु केवलसिरि देहु' पत्त एक्कहिं खणि तणएं णिसुय बत्त । जाइवि जिणु वंदिवि रसियवज्ज घरु आविवि विरइय चक्कपुज्ज । मंदिरवइ थवइ पुरोहु अवरं सेणावइ णिज्जियवीरसमरु । करितुरयणारिरयणाई जाई विज्जाहरेहिं दिग्णाई ताई। उल्लंघियाइं सायरजलाई संसाहियाइं धरणीयलाई। काराविय किणरखयरसेव दसिकय अणेय गणबद्धदेव।
गमनलीला वाली अइर नाम की देवी थी। वह देव इन दोनों का पुत्र उत्पन्न हुआ। हेमाभ दस हजार वर्ष की आयु वाला। शुभ लक्षण उसका शरीर बीस धनुषप्रमाण था । वह कान्ति में चन्द्रमा और तेज में सूर्य था । पृथ्वीवीर पिता उसके साथ मनहर उद्यान में गया और अनन्तवीर को प्रणाम कर पद्मनाभ मुनि हो गया । पुत्र ने भी साघु धर्म सुनकर;
घत्ता–पाँच अणुव्रत ग्रहण कर लिये । तथा पाँचों इन्द्रियों का नियमन करते हुए, नगर में आकर राज्य में स्थित हो गया। पुण्य के प्रभाव से समय बीतने पर ।।।।
(10) उसे घर में प्रहरण चक्र उत्पन्न हुआ। शत्रुओं को घात देने वाला प्रचण्ड वनदण्ड, तलवार, वहीं पर धवल आतपत्र, भण्डार घर में कागणि चर्म युक्त मणि, पिता के शरीर को केवलश्री प्राप्त हुई । एक ही क्षण में पुत्र ने यह बात सुनी 1 जाकर जिन की वन्दना कर, तथा घर आकर जिसमें बाय बज रहे हैं, इस प्रकार चक्र की पूजा की । गृहपति, स्थपति, पुरोहित और जिसने वीर युद्ध जीता है ऐसा सेनापति, तथा जितने गज, तुरंग और नारीरत्न हो गए जो विद्याघरों ने दिये। उसने सागर जलों को पार किया और धरणीतलों को साध लिया। किन्नरों और विद्याधरों से 3. AP पुहाधीस। 4. AP जायउ। 5. A घम्मलाहु । 6. P पंचेंदियाई । 7. P omits पुरु | 8. A जतें
कालें।
(10) 1. A देहि । 2. A 'धीरसमस ।
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10]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[68. 10.9 महि हिंडिवि खंडिवि वइरिमाणु आवेप्पिणु तं पुणु णिययठाणु। कत्तिइ गंदीसरि सरकयंतु अहिसिंचिवि अंचिवि अरुहु संतु। 10
उववासिउ छणवासरि पसरणु जावच्छइ णिसि परवइ णिसणु । पत्ता-इंदणीलणीलंगएण चंदबिबु ता गिलिउ विडप्पें ।। णहभायणयसि संणिहिउ घोट्टिउ बुद्ध व कसणे सप्पें ।। 10 ।।
। णं किउ अलिजू हेण कमलु णं पावे सुक्किउ छइउ विमलु। संणिह्यि विहाएण व विवित्ति मयणाहि धोयकलहोयवत्ति'। चितइ पहु बिहु गहगत्यु जेम काले कउलेवउ हउ मि तेम। लाइ जामि हणमि दुबकम्मजोणि "महसेणह ढोइवि सयलखोणि । गउ पुहइणाहु वेग्गार सिरिमंतसलि सिरिणायमूरि। पणवेप्पिणु लइयउ तवोविहाणु तसथावरजीवह अभयदाणु। से दिण्णउं जीवदयालुएण गिरिसिद्रि सुइरु लंबियभुएण ।
सेवा कराई; अनेक गणबद्ध देवों को वश में किया। धरती पर परिभ्रमण कर बैरियों के मान का खंडन कर, कार्तिक मास को (अष्टाह्निका में) नंदीश्वर पर्व में कामदेव के शत्रु सन्त अर्हत् का अभिषेक और पूजा कर पूर्णिमा के दिन उपवास कर, राजा जब रात्रि में बैठा हुआ था
पत्ता–इन्द्रनील के समान नीले शरीर वाले राहु ने चन्द्र बिम्ब को ऐसे निगल लिया, जैसे आकाश रूपी पात्र के तल में रखे हुए दूध को काले साँप ने पी लिया हरे | 100
मानो भ्रमर समूह ने कमल को ढक लिया हो, भानो पाप ने विमल पुण्य को आच्छादित कर लिया हो, मानो विधाता ने गोल-गोल धुले हुए चाँदी के पात्र में कस्तूरी को रख लिया हो। राजा सोचता है जिस प्रकार चन्द्रमा राहु से ग्रस्त है, उसी प्रकार मैं भी काल से कवलित होऊँगा। लो मैं जाता हूँ और दुष्कर्मों की परंपरा का अन्त करता हूँ। महिसेन को समस्त भूमि देकर, वैराग्य से प्रचुर राजा चला गया। उसने सीमंत पर्वत पर श्रीनाग मुनि को प्रणाम कर तपविधान अंगीकार कर लिया। उसने बसस्थावर जीवों को अभयदान दिया। जीवों के प्रति दयाल वह गिरि के शिखर पर बहुत समय तक, हाथ लम्बे कर सूर्य किरणों का भयंकर ताप सह
(11) LAकलहोयपत्ति । 2.Aइह। 3. AP महिसेकह।
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68. 11.11]]
[11
महाका-पुष्फयंत-विरइया महापुराणु विसहेवि' भीम रविकिरणताउ विद्ध सिवि मिच्छामोहभाउ। तवदंसणणाणचरित्तरिद्धि आराहिवि गउ सव्वत्थसिद्धि । पत्ता-हरिसेणहु भरहाहिवहु अहमिदत्तणु तं तह सिद्धउं ।।
दिवसोक्खसंदोहयरु जंण पुप्फदंतेहि वि लद्धउं ।।।1।।
10
इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालकारे महाभश्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे मुणिसुब्बयणिवाण हरिसेण
कहतर णाम अट्ठसट्ठिमो परिच्छेओ समत्तो ।।68॥
कर मिथ्या मोहभाव का नाश कर, तप-दर्शन-ज्ञान और चरित्र ऋद्धि की आराधना कर सर्वार्थसिद्धि को पा गया।
घत्ता-हरिषेण और उस भरत राजा को वह अहमेन्द्रत्व सिद्ध हुआ, दिव्य सुख समूह को करने वाला जो सुख नक्षत्रों को भी प्राप्त नहीं हो सका ।।11॥
प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का मुनिसुव्रत-निर्वाण हरिषेणकथांतर नाम का अड़सठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ॥6811
4.P विसदेषि मुणिवरु रवि। 5. A 'णियाणगमणं। 6. P adds another पुष्पिकाः मुणिसुव्वपजिणपसमचक्कट्टि हरिसैण एतच्चरियं सम्मत्तं; K gives it in the margin in second hand.
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एक्कूणहत्तरिम संधि
मुणि सुव्यजिणतित्थि तोसियसुररामायण || हरिहलहरगुणथोत्तु जं जायचं रामायण || ६ || (1)
foresafaree उरहमि निव्वाहमि पर भत्थिमर्जु कलिका सुट्टु गलस्थिय सामग्गिण एक्कवि अस्थि महु कइराउ सयंभु महायरिज चमुचयारिमुहाई जहि महु एक्कु तं पहुं खंडिय भई छंदु लक्खणु भावियउं
इतंपि किं पि एवहि कहमि । परिपालमि पडिवण्णउं थियउं । जणु युज्जणु अण्णु वि दुत्थियउ । फिर कवण' लीह चिरकइहिं' सहुं । सो सयणसहास हि परियरिउ । सुकइतणु सीस काई तहिं । विहिणा पेसुण्णउं मंडियजं अप्प जणि हासउ पावियउ ।
5
10
उनहत्तरवो संधि
मुनिसुव्रत जिन तीर्थंकर के काल में देवांगनाओं को संतोष देनेवाला तथा नारायण और बलभद्र के गुणों के स्तोत्र से युक्त जो रामायण हुआ ।
(1)
अपनी बुद्धि के विस्तार से नहीं चूकते हुए, मैं उसे कुछ इस समय कहता हूँ। मैं भरत के द्वारा अभ्यर्थित का निर्वाह करता हूँ, और जो मैंने स्वीकार किया है उसका मैं पालन करता हूँ । मैं कलिकाल से अत्यन्त पीड़ित हूँ। लोग दुर्जन हैं, और मैं हीन स्थिति में हूँ । मेरे पास एक भी सामग्री नहीं है । मैं प्राचीन कवियों की पंक्ति में कैसे आ सकता हूँ ? एक महा आदरणीय कविराज स्वयंभू थे जो हजारों स्वजनों से घिरे हुए थे। एक चतुर्मुख थे, जिनके चार मुख थे। ऐसी स्थिति में मैं अपना सुकवित्व किस प्रकार कहूँ ? मेरा एक ही मुख है। वह भी खंडित । विधाता ने मेरे साथ दुष्टता की। न तो मैंने छंदशास्त्र का और न लक्षणशास्त्र का विचार किया है । मैंने लोगों में उपहास पाया है। यद्यपि पण्डितों के हृदय में मैं प्रवेश नहीं कर पाऊँगा फिर भी
11 P बुद्धि विस्थरु। 2. P भरहअम्मत्थिय। 3. P क्रमण । 4. Ap चिरु कहि । 5. A सुयणसहासें; P सुयणसहासेहि 6. P सीसर ।
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69. 2.9]
[13
महाका-पुष्फत-बिरामज महापुराणु बहहियवइ जइ वि ण पइसरमि घिद्वत्ते तइ वि कव्व् करमि | मह खमउ भडारी विउससह आयण्णहु रहुवइरायकह । छत्ता-सुकइपयासियमगि मणि दहमुह वि चमक्कइ ।।
रामधम्मगुणसद्दि अमुहु पिसुणु कहिं बुक्कइ ।।1।।
जिणचरणकमलभसले झुणिउं मई एउ*णिरत्थु वि रुणुरुणिउं। सुइपेसलु कण्णविइण्णसुहु वियसावियमाणिणिभिमुहु। साइ लग्गइ चित्ति वियक्खणहु जसु रामहु पोरिसु लक्षणहु । वहदेहिसइत्तण भसियउं जलबिद व पोमपस्ति' थिय । मुत्ताहलवण्णु समुबहइ आसयगुणेण कषु वि सहइ । जंविरइ मंदमंदमईहिं अम्हारिसेहिं जगि जडकईहिं। जं जगि पसिद्ध सीयाहरणु जं अंजणेयगुणबित्थरणु । जं विडसुग्गीवरायमरणु जं तारावइअब्भुद्धरणु ।
जं लवणसमुद्दसमुत्तरणु जणिसियरवंसह खयकरणु । धृष्टता से काव्य की रचना करता हूँ। आदरणीय विद्वत्-सभा मुझे क्षमा करे। अब रघुपतिराज की कथा सुनिए।
पत्ता-सुकवियों के द्वारा प्रकाशित (सुकइ-सुकपि, सुकवि ) मार्ग में रावण भी मन में डरता है, तथा राम के धनुष की डोर के शब्द वाले उस मार्ग में, खरदूषण आदि दुष्ट कैसे आ सकते हैं ? (कवि का अभिप्राय यह है कि रामायण काव्य लेखन का मार्ग बड़े-बड़े कवियों द्वारा प्रकाशित है । उसमें राम के धर्म और धनुष का वर्णन है, अत: उसमें दुष्टों की पहुँच का प्रश्न नहीं उठता)।
जिन भगवान् के चरणकमलों के भ्रमर द्वारा कहा गया यह (काव्य) मैंने व्यर्थ गुनगुनाया। राम का यश और लक्ष्मण का पौरुष सुनने में मधुर कानों को सुख देने वाला तथा मानिनी स्त्रियों के शिशु मुख को विकसित करने वाला स्वयं विद्वानों के चित्त को खींच लेता है। इसमें सीता देवी का भूषित सतीत्व है। जिस प्रकार कमल (पद्यपत्र) पर स्थित पानी की बूंद मोती के सौंदर्य को धारण करती है, उसी प्रकार, पद्य पत्र (राम रूपी पात्र) पर अवलंबित मेरा काव्य, अक्षय गुण से शोभित होता है, हम जैसे अत्यन्त मन्द बुद्धिवाले जड़ कवियों ने जो राम काव्य की रचना की है, जग में जो सीता का हरण प्रसिद्ध है, जो हनुमान के गुणों का विस्तार है, जो कपटी सुग्रीय का मरण है, और जो सुग्रीव (तारापति) का उद्धार है, जो लवण-समुद्र का संतरण है, और जो निशाचर वंश का क्षय करने वाला है
7. P चक्कवह। 8. A समुह ।
(2) 1. AP 'भमरें। 2. AP एत्थु । 3. A लइ । 4. P पोमवत्ति। 5. A समुदहं उत्तरणु ।
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14]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[69.2.10
घत्ता--भरहह भत्तिभरासु' बहुरसभावजणेरडं ।।
तं आहासमि जुज्झु रावणरामहु' केरऊं।।2।।
जिणचरणजुयलसंणिहियमइ आउच्छइ पहु मगहाहिबइ। णिरु संसयसल्लिङ मज्झु मणु गोत्तमगणहर मुणिणाह भणु । किं दहमुह सहुं दहमुहहिं हुउ किर' जम्में गायउ तासु सुउ। जो सुम्मइ भीस असुलबलु कि रक्तसुकधी मालु कि अंचिउ तेण सिरेण हरु कि वीसणयणु कि वीसकरु । किं तहु मरणावह रामसर कि दीहर थिर सिरिरमणकर । सुग्गीवपमुह णिसियासिधर कि वाणर किं ते णरपवर। कि अज्जु वि देव विहीसणहु जीविउ ण जाइ जमसासणहु । छम्मासई णिद्द' णेय मुयइ कि कुंभयण्णु घोरइ सुयाइ । कि महिससहासहि धउ लहइ लइ लोउ असच्चु सब्बु कहइ । वम्मीयवासवयणिहि णडिउ अण्णाणु कुम्मन्गकूवि पडिउ। पत्ता-गोत्तम पोमचरित्त, भुवणि पवित्त पयासहि ।।
जिह सिद्धत्थसुएण दिट्ठउँ तिह महुं भासहि ।।3।। घत्ता और जो भक्ति से भरे भरत के लिए अनेक रसों और भावों को उत्पन्न करने वाला है, ऐसे उस रावण-राम के युद्ध का मैं कथन करता हूँ।
10
जिन भगवान् के चरणकमलों में अपनी बुद्धि को स्थिर करता हुआ मगधराज श्रेणिक पूछता है, "मेरा मन संशय से अत्यन्त पीड़ित है। इसलिए हे मुनियों के स्वामी गौतम गणधर, मुझे बताइये कि क्या रावण दस मुखों के साथ उत्पन्न हुआ था? क्या जन्म से ही उसका पुत्र इन्द्रजीत उससे बड़ा था? जो भीषण अतुल बल वाला सुना जाता है,क्या वह राक्षस था या दुष्ट मनुष्य ? क्या उसने अपने सिरों से शिव की पूजा की थी? क्या उसके वीस नेत्र व बीस हाथ थे? क्या राम के तीर उसके मरण के कारण थे या लक्ष्मी का रमण करनेवाले लक्ष्मण के लम्बे स्थिर हाथ उसका वध करने वाले थे तथा पैनी तलवार धारण करनेवाले सुग्रीव आदिजन क्या बैंदर थे या कि नरश्रेष्ठ ? हे देव, आज भी विभीषण का जीव यम शासन में नहीं जाता । क्या कुम्भकर्ण इतनी घोर नींद में सोता है कि छह महीने तक नींद नहीं छोड़ता? क्या वह हजारों भैंसों से भी तृप्ति को प्राप्त नहीं होता? लो सब लोग असत्य कहते हैं। वाल्मीकि और व्यास जैसे कवियों से प्रवंचित होकर अज्ञानी लोग कुमार्ग के कुएँ में पड़ते हैं।
__घत्ता-हे गौतम, इस संसार में आप पवित्र पद्मचरित्र को प्रकाशित कीजिए। सिद्धार्थ सुत (महावीर) ने जिस प्रकार से देखा है, वैसा मुझे बताइए। 6. P भत्तियरामु। 7. AP रामण" ।
(3) 1. P कि जमें। 2. AP सो सुम्मद । 3. A मणुवकुल । 4. AP Tय जिद्द 1 5. APT पउर्म ।
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69.4.13]
महाका-पुप्फयत-चिरइया महापुराण
115
15
ता इंदभूइ गंभीरझुणि सेणियरायहु कह' कहइ मुणि। इह भरहि भवावहारिणिलइ फुल्लियकणयारबउलतिलइ। . मायंदगोंदगोंदलियसुइ महमयिकलमकेयारजुइ। णिपीलिउच्छरससलिलहि" संतुठ्ठपुठ्ठपंथियणिवहि ।
जाहिब मलमदेसंदर रयणडार भवणरुइहयसरइ । तहिं वसइ फ्यावइ पयधरण जें दडे जित्तउं जमकरणु । जें सत्यें जित्त सरासइ वि में बुद्धिइ' जित्तउ भेसइ वि। जें रिद्विइ जित्तउ सुरवइ वि जे भोएं जित्तउ रइवइ वि। तहु राय जयणसुहावणिय बाणावलि मयणहु तणिय । रूपेण सरिच्छी उब्वसिहि गुणवंत कंत कंति व ससिहि। सुउ चंदचूलु चंदु व उइउ सिसुमंति मित्त तेण वि' लइउ । पत्ता-सो विजयकु पसिद्ध 'णं ससिरवि गयणगणि ।।
बेपिण बि सह खेलेति बद्धणेह घरपंगणि ।।4।।
तब गंभीर स्वर वाले गौतम गणधर मुनि राजा श्रेणिक से कथा कहते हैं-भव का नाश करने वालों (सर्वज्ञों) के स्थानभूत इस भरतक्षेत्र में, जिसमें कनेर, बकुल और तिलक के वृक्ष खिले हुए हैं, जहाँ आम्र वृक्ष समूह पर तोते बोल रहे हैं, जो महकते हुए धान के खेतों से युक्त हैं । जहाँ पेरे जाते हुए गन्नों के रसों के सलिलपथ (प्याउ) हैं, जहाँ पथिक जन संतुष्ट और पुष्ट हैं. ऐसे मलरहित मलय देश के, अपने भवनों की कान्ति से शरद की शोभा का अपहरण करने वाला रत्नपुर नगर है। उसमें प्रजापति राजनिवास करता है, जिसने दण्ड के बल पर यमकरण को जीत लिया था, जिसने शास्त्र से सरस्वती को भी जीत लिया, जिसने बुद्धि से बृहस्पति को भी जीत लिया, जिसने ऋद्धि से इन्द्र को भी जीत लिया, जिसने भोग में कामदेव को भी जीत लिया, ऐसे उस राजा की नेत्रों को सुहावनी लगने वाली रानी थी, जो मानो कामदेव को बाणवलि थी। रूप में वह उर्वशी के (समान) थी। वह गुणवती कान्ता, चन्द्रमा की कान्ति के समान थी। उसका चन्द्र के समान चन्द्रचूल पुत्र उत्पन्न हुआ। उसे भी शिशु मन्त्री पुत्र मित्र के रूप में मिला।
पत्ता-आकाश में चन्द्रमा के समान वह विजय नाम से प्रसिद्ध था। 'परस्पर बद्धस्नेह वे दोनों घर के आंगन में खेलते थे।
me.
(4) 1. AP सई। 2.A भयावहारि। 3.A कणियार। 4. A मायंदगोच्छ” P मायंदगोंदि। 5. A केयारहए। 6. A 'उच्छु। 7. A बुदें। 8.P रूएं। 9. Poraits पसिद्ध ।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[69. 5.1
तरुणीकडक्खोहविक्खेवमूढाइ जोव्वणसिरीए सरीराहिरूढाइ । णिण्णद्वदप्पिणिविकटतुट्टीइ घोराण जाराण चोराण गोट्ठी । णं तावसा के वि अरहंतदिक्खाइ ते बे वि ण चरंति रायस्स सिक्खाइ । अन्जाम तम्हारे त मरिन गिद्धगा दिण्णबहुदविणणियरम्मि । गोसमवणिदेण वइसवणरिणीद जायस्य कलहस्स णं चारुकरिणीइ। 5 विण्णाणवंतस्स संसारसारस्स सिरिदत्तणामस्स वणिवरकुमारस्स। करधरियभिगारचुयवारिधारेण णियधीय रमणीय दिण्णा कुबेरेण । बालेण बालालयं झत्ति गंतूण णमिण' जय देव देव त्ति वोत्तण। केणावि पावेण रइरहसजुत्तीइ रूवं वरं वणियं वणियउत्तीइ । रेहतराईवदलदीहणेत्ताइ
ती संणिहा का कुबेराइदत्ताइ। 10 तं सुणिवि सिरुधुणिवि विद्वत्थधम्मेण' संचरिवि वियडं तुरं कूरकम्मेण ।। वणिभवणि पइसरिवि बहुसहसहाएण' हित्ता कुमारी धरणाहजाएण । रोवंति वेवंति वरइत्तहत्याउ णट्ठाउ णारीउ विलुलंतवत्थाउ । पत्ता-णिव परिताहि भणंत पुरि अण्णाउ कुमारहु ।।
गय तरुसाहाहत्थ वणिवर रायदुवारहु ॥5॥ 15
(5)
युवतियों के कटाक्षों-समूह के विक्षेप से मूढ़ यौवनश्री के शरीर पर अभिरूढ़ होने पर (युवक होने पर) तरुणियों के कटाक्षों के विक्षेप से विवेकशून्य, शरीर को आक्रान्त करने वाली यौवन रूपी लक्ष्मी, नष्ट दर्प से भरी निकृष्ट तुष्टि तथा भयंकर विटों और चारों ओर की गोष्ठो (संगति) के कारण वे दोनों, राजा की शिक्षाओं का आचरण नहीं करते थे। उसी प्रकार, जिस प्रकार कोई तपस्वी अरहत की शिक्षा का आचरण नहीं करते। एक दूसरे दिन उसी नगर में, जिसमें निर्धन लोगों को प्रचुर धन समूह दिया गया है, गौतम सेठ की वैश्रवणा गृहिणी से पुत्र उत्पन्न हुआ मानों सुन्दर हथिनी से बच्चा उत्पन्न हुआ हो। विज्ञान से युक्त संसार में श्रेष्ठ श्रीदत्त नाम के उस वणिक कुमार को कुबेर नाम के सेठ ने हाथ में धारण किये गए भिगार के गिरते हुए पानी की धारा के साथ अपनी सुन्दर कन्या दो। किसी मूर्ख ने शीघ्र बालक चन्द्रचूल के घर जाकर जयदेव-जयदेव कहकर नमस्कार किया। तब रति के वेग से युक्त उस वणिकपुत्री के श्रेष्ठ रूप का वर्णन किया। शोभित कमलदल के समान दीर्घ नेत्रों वाली कुबेर दत्ता के समान कोई भी स्त्री नहीं है। यह सुनकर धर्म को ध्वस्त करनेवाले उस क्रूरकर्मा चन्द्रचूल ने अपना सिर पीटा और शीन ताबड़-तोड़ जाकर सेठ के घर में प्रवेश कर अनेक समर्थ सहायों के साथ उस राजा के
15) 1. A कहक्लेवविश्खोह P "कडक्खोहविक्खेय 2. A बुद्धीद। 3. AP ता वासरे। 4. A विऊण । 5. A श्री संणिहा । 6. A विद्वत्थकामेण । 7. A "सहावेण । 8. P हाउ । 9. AP
भयंता ।
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69.1.2]
महाका-एफपत-विसापर महापुराण
आउच्छिउ राएं पउरयणु विष्णवइ णवंतु तसंततणु' । तुह तणुरुहु परदविणई हरइ परिणियउं कलत्त, ण उव्वरइ । पइसरउ भडारा वियष्णु वणु अण्णेत्तहि जीवउ जाउ जणु । ता राएं पुरवरतलबरहु आएसु दिपणु असिवरकरहु । सिरकमलु विलुचवि णिठुरहु पेसहि तणुरुहु वश्वसपुरहु । अण्णाणु णायविद्ध सयरु खलु सो' कि बुनचइ रज्जधरु । जो दुठू कठ्ठ णिद्धम्मयरु सो खंडमि हउं अप्पणउं करु । हियउल्लङ दुक्खें सल्लियउं ता पउरें मंतिहि बोल्लियउ । घत्ता–णदणु हणहं पण जुत्तरं जइ सो मणहु ण रुच्चइ ।।
गिरिदुग्गमि कंतारि तो दूरंतरि मुच्चइ ।।6।।
पह भणइ जाउ कि तेण महुं गुणदूसणु अप्पपसंसणउं
हां दमि चिरु धम्मेण सह । तवदूसणु मिन्छादसणउं।
पुत्र ने वर के हाथ से रोती और काँपती हुई उस त्रस्त कुमारी का हरण कर लिया।
पत्ता-तब अपने हाथ में वृक्ष की डालें लेकर वणिकवर राजद्वार पर पहुंचे यह कहते हुए कि कुमार के अन्याय से नगरी की रक्षा कीजिए।
(6) पौरजन से राजा ने पूछा । कांपते हुए शरीर से नमस्कार करते हुए एक पौरजन बोला : "तुम्हारे पुत्र दूसरों के धन का अपहरण करते हैं, यहाँ तक कि विवाहित स्त्रियाँ भी उन से नहीं बचती हैं। हे आदरणीय जन (लोग), या तो विजन वन में प्रवेश करें या अन्यत्र जाकर जीवित रहें।" तब राजा ने हाथ में तलवार धारण करने वाले नगर कोतवाल को आदेश दिया कि उस निष्ठुर का सिरकमल काटकर पुत्र को यम नगर भेज दो। जो अज्ञानी न्याय का नाश करने वाला है, वह दुष्ट है, उसे राज्यधर क्यों कहा जाता है ? जो दुष्ट निंदनीय और अधर्म करने वाला है उसे मैं हाथ से नष्ट करूंगा। उसका हृदय दुःख से पीड़ित हो उठा। इस बीच नगरप्रमुख और मंत्रियों ने कहा
पत्ता-बेटे को मारना अच्छा नहीं। भले ही वह मन को अच्छा नहीं लगे। पहाड़ों से दुर्गम दूर जंगल में उसे छोड़ दिया जाए।
राजा कहता है : वह मेरा पुत्र है, इससे मुझे क्या ? मैं चिरकाल तक धर्म से आनन्दित रहूँगा। अपनी प्रशंसा करना गुण के लिए दूषण है। मिथ्यादर्शन तप का दूषण है। नीरस प्रदर्शन करना
(6) 1. AP तसंतमण । 2. A परसरणु; P पइसरह । 3. P कि सो। 4. A महिवह। 5. A ता।
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[69. 7.3
महाकषि पुष्पदन्त विरचित महापुराण गडदूसणु णीरसपेक्खणउं' कइदूसणु कच्छ अलक्खणउं । धणदूसणु सहखलयणभरणु' बयदूसणु असमंजसमरणु' । रइसणु खरभासिणि जुवइ सुहिदूसणु पिसुणु विभिण्णमइ । सिरिसणु जडु सालसु णिवइ जणदूसणु पाउ पत्तकुगइ। गुरुदूसणु णिवकारणहसणु' मुणिमणु कुसुइससमब्भसणु । ससिदूसणु भिगमलु मसिकसणु कुलदूसणु गंदणु दुव्वसणु । पत्ता-लइ जं तुम्हहं इठ्ठ मई वितं जि पडिवण्णउं ।।
जाइवि कुलवुड्ढेहिं बालहं उत्तर दिण्णउं ।।7।।
10
कि परकलत्त उदालियउं उज्जल अप्पाणउँ मइलियां। कि बप्प सुदप्प कुसंगु किउ' परयारचोरकीलाइ थिउ । कुद्ध पिउ एवहिं को धरई तुम्हार जीविउ अवहरइ। तं णिसुणिवि सिसु चवंति गहिरु अत्यंतु णिवारइ को मिहिरु । को रक्खइ आवंतउं मरण जगि कासु ण ढक्कइ जमकरण । कु वि अग्गइ कुवि पच्छइ मरइ चश्वसदततरि पइसरह। मंतीसे करपल्लवधरिया सुय बेपिण वि किंकरपरियरिया।
सारबिलगम दाहणि पइसारित रिण वि गिरिगहणि । नट का दूषण है। व्याकरण से शून्य काव्य कवि का दूषण है। कुटिल और दुष्ट लोगों का पालन करना धन का दूषण है। संदेह (शल्य) के साथ मरना प्रत का दूषण है। दुष्ट बोलना नबयुवती की रति (प्रेम) का दूषण है। कुगति को प्राप्त करने वाला पाप लोगों का दूषण है। अकारण हैसना गुरु का दूषण है । खोटे शास्त्रों का अभ्यास करना मुनि का दूषण है। और काला मृग-चिल्ल चन्द्रमा का दूषण है, और दुर्व्यसनी पुत्र कुल का दूषण है।
पत्ता-तो जो तुम लोगों को अच्छा लगे वही मैंने स्वीकार किया। तब कुलवृद्धों ने जाकर बालकों को उत्तर दिया।
तुमने दूसरे की स्त्री का अपहरण क्यों किया? तुमने उज्ज्वल अपने को कलंकित किया है। घमंडी, तुमने खोटी संगति क्यों की ? दूसरों की स्त्रियों के दिलों को चुराने की क्रीड़ा में तुम क्यों लगे ? तुम्हारे पिता इस समय क्रुद्ध हैं, उन्हें कौन रोक सकता है, वह तुम्हारे जीवन का अपहरण करेंगे? यह सुनकर कुमार गंभीर स्वर में कहता है कि डूबते हुए सूर्य को कौन बचा सकता है ? आती हुई मौत से कौन बच सकता है ? संसार में रोग किसके पास नहीं पहुँचता? कोई आगे और कोई पीछे मरता है। इस प्रकार यम की डान के नीचे प्रवेश करता है। मंत्री अनुचरों से घिरे हुए दोनों पुत्रों का हाथ पकड़कर उन्हें बड़े-बड़े वृक्षों में लगी हुई चंचल दावाग्नि से जलते हए गहन घन में ले गया । गणनाथ के मुखिया कामदेव का बल नष्ट करने वाले गणनाथ
(7) 1. AP पीरसु । 2, A सह खलयर। 3. AP असमंजसु । 4. A भसणु । 5. Aजि । (8) I. A सदप्यु। 2. A उदयंतु। 3. AF 'पल्लवि धरिया ।
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[19
69.9.10]
महाकइ-पुप्फयंत विरयइयड महापुराणु गणणाहहु यवम्महबलहु दीवय णवंत महाबलहु । रायागमणायवियाणएण कुच्छियमइ धाडिय राणएण। परमेसर ए णर भय्व जइ वर एवहिं तुहं उद्धरहि तइ । घत्ता-दुम्मइमलमइलेहि कुंअरिहि कहि जाएवउं॥
अनि अलिप करत एहि काई पावेव ॥४॥
मणि भणइएत्थु दिहि'करिवि तवे होहिति सीरि हरि तइयभवे । णामेण रामलक्षण विजई तं णिसुणिवि जाया तरुण जई । गउ मंति णिहेलणु पय णवइ णरणाहहु वइयरु विण्णवइ । वसुहाहिव तणुरुह गिरिविवरि आरण्णि णिहिय वणवासिंघरि । कासु वि सकम्मउग्गुग्गमहो' तणुदुक्खलक्खबिहिसंगमहो'। विसहावियदंडण मुंडणई" पंचिदियदप्पविहंडणई। णिवणयणई मुक्कसुयजलई ओसासित्ताई व सयदलई । हा हा मई रूसिवि किं कियउं कि बालजुयलु दुक्खें यउं। अइरहसे किज्जइ कज्जरइ जा सा णिद्दहइण कासु मइ।
मणु मंतें परियाणिवि पइहि अक्खिउ जिह पासि णिहिय जइहि। 10 मुनिनाथ महाबल को नमस्कार करते हुए उसने उन्हें दिखाया और कहा कि हे परमेश्वर, राजनीति-शास्त्र के न्याय को जानने वाले राजा ने दुष्ट बुद्धि वाले इन दोनों कुमारों को निकाल दिया है । यदि ये दोनों भव्य जीव हों तो इस समय आप इनका उद्धार करें।
पत्ता-दुर्मति के मल से मैले ये कुमार कहाँ जायेंगे ? हे भगवन्, आप बताइये कि ये किस भव्यता को प्राप्त होंगे (इनका भविष्य क्या होगा?
मुनि कहते हैं कि ये यहाँ दीर्घ तप करके तीसरे भव में बलभद्र और नारायण होंगे। राम और लक्ष्मण के नाम से विजेता। यह सुनकर, वे दोनों युवा मुनि हो गए, मंत्री घर गया। वह राजा के चरणों में प्रणाम कर वृत्तान्त बताता है कि हे राजन्, दोनों कुमारों को पहाड़ के विवर में एक जंगल में वनवासी के घर छोड़ दिया गया है। शरीर के लाखों दुःखों और भाग्य के संगम से अपने कर्मों के उग्र उदय के कारण कोई भी व्यक्ति जिसमें दंड और मुंडन सहा गया है, ऐसे पाँचों इन्द्रियों के दर्प के विखंडनों को भोगता है। राजा की आँखें अश्रू धारा छोड़ती हुईं ओस से भीगे हुए कमल दल के समान मालूम होती थीं (वह विलाप करने लगा) कि मैंने क्रुद्ध होकर यह क्या किया! क्यों मैंने अपने दोनों बच्चों को दुःख से मार डाला ! जो कार्य में अत्यंत जल्दबाजी करती है, ऐसी वह बुद्धि किसे नहीं जलाती ! राजा के मन को जानकर 4. APणमंत । 5. AP कुमरहिं । 6. P भयवंतहिं।
(9) 1. Pबिहि12. Aणिहेलणि पद। 3.A उमरगमहो। 4.A 'दिहि"। 5.AP इंडण । 6. P मुंडणहो। 8. AP णिहछ ।
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20]
10
महाकवि पुष्पवरत विरचित महापुराण
[69.9.11 जिह दोहिं मिलइयउं तवचरणु ता जायउं तायहु सिसुकरुणु । कोमलतणु णीसारिवि घरहु पंदण पट्ठविवि वणंतरहु। घत्ता---डह बुणिदिरु रज्जु रज्जु जि पाउ णिरुत्तउं ।। रज्जमएण पमत्त ण सुणइ" जुत्ताजुत्तउं ॥७।।
10 णियगोत्तिउ' णियकुलि संणिहिउ वणु जाइवि राएं तबु गहिउ । भरहेण व अहिषविधि रिस प हलु मुणिवसहु । गज मोक्खहु अक्खयसोक्खमइ थिउ णाणदेहु णिग्वाणपइ। खग्गउरहु बहि कयधम्मकिसि आयाबणजोए बालरिसि। थिय जइयतुं तइयतुं महि जिणिवि महसूयणु समरंगणि हणिवि। सुप्पह पुरिसोत्तम दिट्ठ पहि ससिचूलें चितिउं हिययरहि । दौसइ गरणाहहु जेरिसडे महु होउ पहुत्तणु तेरिसडं। मुड' सणकुमारु हुउ रिसि विजउ सुरु णामु सुवण्णचूलु सदउ । कमलप्पाहि विमलविमाणवरि णिवतणउ मणिप्पहि अमरघरि ।
मणिचूलु देउ जायउ पवरि कलहंसु व विलसइ कमलसरि । मंत्री ने उसे यह बताया कि किस प्रकार उसने मुनि के पास बालकों को रख दिया है और किस प्रकार दोनों ने सप आचरण स्वीकार कर लिया है। यह सुनकर पिता को बालकों के प्रतिकरुणा उत्पन्न हो गई। वह कहता है कि कोमल शरीर वाले पुत्रों को घर से निकालकर वन के भीतर मैंने भेजा दिया !
घत्ता--पंडितों की निन्दा करनेवाले राज्य का नाश हो । निश्चय ही राज्य एक पाप है। राजमद में पागल होकर व्यक्ति अच्छे-बुरे का विचार नहीं करता।
(10) अपने गोत्र के व्यक्ति को कुल परम्परा में स्थापित कर राजा ने वन में जाकर तप ग्रहण कर लिया और जिस प्रकार भरत ने ऋषभ तीर्थंकर की अभिवंदना कर दीक्षा ग्रहण की थी उसी प्रकार मुनिश्रेष्ठ महाबल को प्रणाम कर उसने भी दीक्षा ग्रहण की। अक्षय सुमति वाला वह मोक्ष चला गया तथा ज्ञानशरीर वह निर्वाण पद पर स्थित हो गया। खड्गपुर के बाहर धर्म की खेती करनेवाले बाल-ऋषि आतापन योगसे जब स्थित थे तब उन्होंने धरती जीतकर तथा युद्ध के प्रांगण में मधसदन को मारकर जानेवाले सुप्रभ और परुषोतम को रास्ते में देखा तो चन्द्रचल अपने मन में सोचने लगा, जिस प्रकार को प्रभुता इस नरनाथ को दिखाई देती है मेरी भी वैसी प्रभुता हो। विजय मुनि मरकर सनत् कुमार स्वर्ग में स्वर्णचूल नाम का दयालु देव हुआ। कमलप्रभ नाम के बिमल श्रेष्ठ विमान में तथा राजपुत्र (चन्द्रचूल) मणिप्रभ देव विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ। वह ऐसे मालूम होता था जैसे कमल सरोवर में कलहंस घोभित हो रहा हो ।
9.A पटुविय । 10. AP पमत्तु। 11. AP मुणइ। (10) I. AP णियणत्तिज। 2. A दिदि । 3. A मुए । 5. AP सणकुमारे।
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69. 11. 12]
महान्पुष्कयंत विषय महापुराण
घत्ता - अं अणिमाइगुणेहिं बहु विद्वेण णिउत्तरं ॥ तं दिविदीहरु कालु बिहिं मि दिब्बु सुहुं भुत्तउं || 101
11
इह भरवरिसि कासीविसइ । जहि सालिधण्णछेत्त तरई । जहि सालिहियाई व अक्खरई । गोहणई चरंतई पह जि पड़ । दीति हरियतणपुट्ठाई । दवखारसु पिज्जइ मुहरसिउ । फणिवेल्लित्तपत्तलि थियजं । देसियढक्करिजंपणरवहि । अणभरिय हि वाणारसिपुरिहि । णिवसइ णिउ जियरिज थिरु सवसु । णउ दोसायरु जायज ॥ जो इक्खाउहि वंसि णरवइरूढिइ' आयउ ।। 11
सरवरमरालच विखयभिसइ जहिं सालिरमणकीलाहरई जहि सालिकमलखणई सरई सिसुहसपंयइ मयरंदरइ रोमंत संतुट्ठाई उच्छुरसु जंतणालीहसिउ ओ सीयलु दहिल्लियउं
जहि जिम्मइ पहिययणहिं पर्वाहि ओहामिय अलयाउरिसिरिहि तर्हि दसरहु दसदिसिणिहियजसु
घत्ता - - कुवलय बंधु वि पाहु
[21
10
5
धत्ता - जो अणिमा गुणों के द्वारा अनेक प्रकार के वैभव से युक्त है, स्वर्ग में ऐसे लम्बे समय तक उन दोनों ने दिव्य सुख का भोग किया ।
( 11 )
इस भारतवर्ष में काशी नाम का देश है, जो सरोवर के हंसों के द्वारा आस्वादित कमलनियों से युक्त है । जहाँ स्त्रियों और पुरुषों के रमण करने के लिए क्रीड़ा घर हैं । जहाँ शालि धान्य के तरह-तरह के खेत हैं। जहाँ भ्रमरों से युक्त कमलों से सरोवर आच्छादित हैं। जो लिखे हुए अक्षरों के समान हैं। हँसों के छोटे-छोटे बच्चों के पैर जहाँ पराग में सने हुए हैं। जहाँ पग-पग पर गोधन चर रहे हैं। और जो संतुष्ट होकर जुगाली करते हुए हरे घास से पुष्ट शरीर वाले दिखाई देते हैं । जहाँ यंत्रनलियों से गिरा हुआ गन्ने का रस तथा मुँह को मीठा लगने वाला द्राक्षारस पिया जाता है। दही से मिला हुआ ठंडा भात नागबेली के पत्तों की पत्तल पर रखा हुआ है । जो देशी ढक्का और जंपाण वायों के शब्दों के साथ प्याऊ पर पथिकजनों के द्वारा खाया जाता है। जिसने अलका नगरी की शोभा को पराजित कर दिया है। जो जनों से व्याकुल है। ऐसी वाराणसी नगरी में दशों दिशाओं में अपने यश का विस्तार करने वाला शत्रुओं का विजेता स्वाधीन, स्थिर राजा दशरथ निवास करता है ।
छत्ता- वह राजा कुबलय बन्धु यानी चन्द्रमा था। और (दूसरे पक्ष में) धरती मंडल का स्वामी अर्थात् चन्द्रमा पर वह दोषाकार नहीं था और जो नरवरों से प्रसिद्ध इक्ष्वाकुकुल में उत्पन्न हुआ था।
5. A बहुवितवेण ।
(11) 1 A चालियभिसए। 2. P रोमंत पसुसंतुट्टाई 3. AP वाराणति । 4. A रूढि आयउ ।
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221
महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण
169.12.1
12
करगेज्झु मज्डं उन गणि सहं सुबल' णाम बेल्लह धरिणि-1 सिविणंतरि पेच्छइ उग्गमिउ रवि सहसकिरणु पयलि भमिउ । ससि कुमयकोसवित्थारयरु गज्जंतु जलहि जुज्झियमयरु । सुविहाणइ कतहु भासियउं तेण वि तहु गुज्झु पयासियउँ । तुह होसइ सणुरुहु सीरहरू हलि चरमदेहु णं तित्थया । अण्णहि दिणि सग्गहु अवयरिज सुरु कणयचूलु उयरइ धरिउ । मपरिक्खयदि गीरयदिसिहि । फरगुणि तमकालिहि तेरसिहि। देविइ णवमासहि सृउ जणिउ । तणुरामु रामु राएं भगिउ । करिवरलोयिपव्वालियउ" सिविणतरि सीह णिहालियउ। माहहु मासहु सियपढमदिणि सविसाहि जसाहिउ पहु भुवणि" । मणिचूलु देउ दसरहरया सुउ अवरुवि जायउ केक्कयइ। जोइउ लक्खणलखंकियउ सो ताएं लक्खणु कोक्कियउ। घत्ता-बेण्णि वि ते गुणवंत भुयबलतासियदिग्गय ।।
णाई सियासियपक्ख पत्थिवगरुडहु णिग्गय ।12।।
10
(12)
उसकी सुबला नाम की प्रिय गृहिणी थी। ऊँचे पयोधरों वाली जिसका मध्य भाग मुट्ठी से पकड़ा जा सकता है। एक रात वह स्वप्न में देखती है कि उगा हुआ हजारों किरणोंवाला सूर्य आकाश तल में घूम रहा है। उसने देखा कुमुदों के कोषों का विस्तार करने वाला चन्द्रमा, गरजते हुए समुद्र में लड़ना हुआ मीन युगल । दूसरे दिन सुन्दर प्रभात में उसने पति से यह बात कही। उसने भी उसका रहस्य उसे बताया कि तुम्हारा बलभद्र हलधर चरम शरीरी पुत्र होगा। वैसे हो जैसे तीर्थकर। दूसरे दिन स्वर्ग से अवतरित हुए स्वर्णचूल देव को उस रानी ने अपने पेट में धारण किया। जब चन्द्रमा मघा नक्षत्र में स्थित था, दिशा निर्मल थी, ऐसी फागुन वदी तेरस को नौ माह पूरे होने पर देवी ने पुत्र को जन्म दिया। शरीर से सुन्दर होने के कारण राजा ने उसका नाम राम रखा। फिर कैकयी ने गजवर के रक्त से लिप्त सिंह को स्वप्न में देखा,। माघ मास में विशाखा नक्षत्र से युक्त शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन राजप्रासाद में दशरथ में अनुरक्त कैकयी से मणिचूल नाम का देव दूसरे पुत्र के रूप में हुआ। पिता ने उसे लाखों लक्षणों से युक्त देखकर उसका नाम लक्ष्मण रख दिया।
__घत्ता-गुणवान अपने बाहुबल से दिग्गजों को सताने वाले वे दोनों ऐसे मालूम होते थे मानो दशरथ राजा रूपी गरुड़ के काले और सफेद दो पंख निकल आये हों।
(12) 1. A सुकल । 2. AP रमणि। 3. AP सुउ। 4.A उयरे; P उबरें। 5.A'रिक्खे चंदे; P 'रिक्खि इंदे । 6. P पच्चालियउ । 7. P सुविणंतरि। 8. AP सविसाहु । 9. AP मणि। 10. P जायच अवरु चि.।
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69. 14. 3]
महाकइ पुष्कर्यंत विश्यउ महापुराण
रेहति बे वि बलएव हरि णं गंगाजउणा जलपवह णं पुण्ण मणोरह सजणहं अवरोप्पर शिक्ष णिम्मच्छ राहं सहसाई बिहि मणिद्देसियई ' पण रहचावई तूं गतणु पुरबाहिर उववणसंठिय - अवलोइवि रामहु सरपसरु करि आउ जं लक्खणु धरइ
13
णं तुहिणगिरिजणिसिहरि' । णं लच्छिहि की लारमणवह" । णं वम्मवियारण दुज्जणहं । तेरहबारह सवच्छ राहूं । परमाउसु जइवर भासियई । ते सत्य सुगंति गुणति धणु । विद्धतहु जयउक्कंठिहु | मउ चेय मुयंति ण बइरि सह । तहु परपहरणु जिण संचरइ ।
घत्ता – कंपइ महि-संचारें, ससरसरा सणहत्थर्ह ॥ संकइ जमु" जमदूर को गउ तसइ समत्थहूं ||13||
14
रिसहाहिव संताणाइयहं संखापरिवज्जिय पुरिस गय अण्ण' कहिं जीवयकहइ
सिरिभरहसयररायाइयहं । अहमद वि जहि कालेण मय । लइ अत्थमिय पत्थियस हुइ ।
23
5
10
(13)
वे दोनों बलभद्र और नारायण इस प्रकार शोभित होते थे मानो हिमगिरि और नीलगिरि पर्वत हों, मानो गंगा और जमुना के जल प्रवाह हों, मानो लक्ष्मी की क्रीड़ा करने के पथ हों, मानो सज्जनों के पुण्य मनोरथ हों, मानो दुर्जनों के मर्म का भेदन करने वाले हों। एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या भाव से रहित जब तेरह वर्ष बीत गये तो सहसा उन्हें परम आयु वाले मुनिवरों के द्वारा कहे गये उपदेश दिये गये । पन्द्रह धनुष प्रमाण ऊँचे शरीर वाले वे दोनों शास्त्र सुनते हैं । और धनुष पर डोरी चढ़ाते हैं। नगर के बाहर उपवन में स्थित, विध्वंस करते हुए जय के लिए उत्साहित राम के तीरों के प्रसार को देखकर शत्रु अपनी मद चेतना छोड़ देता है, वह तीर नहीं छोड़ता । जब लक्ष्मण अपने हाथ में हथियार लेता है तो दुश्मन का हथियार काम नहीं करता । धत्ता - तीर-धनुष हाथ में लेकर जब वे चलते हैं तो धरती काँप जाती है । यम शंका करने लगता है । और यमदूत भी । समर्थ लोगों से कौन त्रस्त नहीं होता !
I
(14)
विश्वनाथ की कुल परम्परावाले श्री भरत और सगर के गोत्र वाले राजाओं में से जहाँ असंख्य लोग चले गये, (औरों की तो क्या ) अहेमेन्द्र जहाँ काल के द्वारा मारा जाता है वहाँ दूसरों के जीवन कथा से क्या ? राज्यसभा के अस्त होने पर हरिषेण के स्वर्ग जाने पर हजारों
(13) 1. AP हिगिरिद गीलसिरि। 2. A जलपवाह: P "जलविहु । 3. A रमणगह; P 'रवणवहु । 4. A निद्देसियउ । 5. A भासियउ । 6. A जम
(14) 1 A अण्ण वि कहि: P अहि किं । 2. A अ अत्थमिए P लद अत्यमिए ।
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241
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[69. 14.4 सव्वत्थसिद्धि हरिरसेण गइ दिणमाणे वरिसहं सहसहइ । 'सुयसुइदिणाउ जायविजइ पुण्णइ पंचुत्तरवरिससइ। असुरिंदें विद्ध सियसरि दहरह पइट्ठ' उज्झाणयरि। परियाणिवि तणयहुं तणउं बलु हुउ मयिलि सयलु वि खलु विबलु । सहुं पुतहि जायधरारइहिं सुपरिट्ठिङ पहु णियसंतइहिं । तहिं सूई णिवसंतह णरवइहि उप्पण्णउ संतोसु व जइहि । अण्णे कहि भरह पसण्णमणु अण्णेक्कहि घरिणिहि सत्तुहणु। 10 महिवइ संपूण्णमणोरहहि
चरहिं विजणेहि परबलमहहिं । सोहइ पुत्तहि सकयायरहि णं भूमिभाउ चउसायरहि। घत्ता–मिहिलाणयरिहि ताम णामें जण उणरेसरु ।
पसुवहकम्में सग्गु चितइ जण्णहु अबसर || 14||
15
मह मेरउ रक्खाइ को वि जइ वसुहासुय दिज्जइ तासु तइ । तं णिसुणिवि मंतें जंपियउं जसु णामें तिहुयणु कंपियउं । सो जासु ण जाउहाणु' गहणु जसु लहुवभाइ भडु महमणु ।
सो रक्खइ धुवु काकुत्थु तिह खेयरहिं ण हम्मइ होमु जिह । वर्षों का समय बीत गया। उनके पुत्रजन्म के दिन से लेकर विजय से युवत एक सौ पाँच वर्ष पूरे होने पर, असुरेन्द्र द्वारा राजा सगर के ध्वस्त होने पर, राजा दशरथ ने अयोध्या नगरी में प्रवेश किया। पुत्रों के बल को जानकर धरतीतल के सारे दुष्ट बलहीन हो उठे, जिनकी धरती में अनुरक्ति है ऐसे अपने पुत्रों और संतानों के साथ राजा दशरथ वहाँ अच्छी तरह रहने लगे। वहाँ सुखपूर्वक निवास करते हुए राजा के एक और पत्नी से प्रसन्न मन भरत उसी प्रकार उत्पन्न हुआ जिस प्रकार मुनि को संतोष उत्पन्न होता है। एक और पत्नी से शत्रुघ्न पैदा हुआ । पूर्ण मनोरथ वाले, परमशत्रुसेना का नाश करने वाले, स्वजनों का आदर करनेवाले उन चारों पुत्रों से राजा दशरथ इस प्रकार शोभित होता है, जिस प्रकार भूमिभाग चार समुद्रों से शोभित होता है।
पत्ता-इसी समय मिथिला नगरी में जनक नाम का राजा था। उसने सोचा पशु यज्ञ से स्वर्ग मिलता है। यज्ञ का अवसर है।
(15) जो कोई मेरे यज्ञ की रक्षा करेगा मैं उसे सीता दंगा। यह सुनकर जनक के मंत्री ने कहा : सुनो, जिसके नाम से त्रिभुवन कापता है, और जिसका रावण के द्वारा ग्रहण संभव नहीं है, योद्धा लक्ष्मण जिसका छोटा भाई है, ऐसे राम निश्चय से यज्ञ को इस प्रकार रक्षा करेंगे, जिससे विद्याधरों के द्वारा होम का नाम नहीं किया जा सकता। यह सुनकर राजा ने श्रेष्ठ दूत भेजा,
3. P दिणमागह। 4. A सहामझए; Pमहसि हए। 5. AP 'दिणाउ जाएवि लए। 6. AP
दसरहु। 7. A गुप । 8. A महिला । (15) 1.Aणाउहागु । 2.A रक्षा बंधन मे।
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[25
69.16.6]
महाका-पुपफर्यत-विरइयड महापुराण ता राएं पेसिय दूयवर गय ते बहुपाहुडलेहकर। उज्झहि दसरहहु णिवे इसउ' आलिहियवं पण्ण वाइयउं । जो रक्खइ अद्धर परमकृय लहु दिज्जइणं पच्चक्ख सृय । णामेण सीय वेल्लहलभुय किर कहु उवमिज्जइ जणयसुय । तं बुद्धिविसारए मणिउं इहलि पति का शुगडं । कउकरणु' णिहालणु रक्खणु वि लइ रक्खउ राहउ लक्खणु वि। पत्ता-कारावय होआयार हुणिय पसु वि देवत्तणु ।।
जेण लहति गरिंद तं करि जण्णपवत्तणु [11:।।
___10
16
जं जंजिवि' सग्गहु सयरु गउ सहुँ सयणहिं तणयहिं मुक्करउ । तं नव रक्खिज्जइ किज्जइ वि भावें वित्थारहु णिज्जइ वि। जगि धम्ममूलु वेउ जि कहिउ सो जेहिं महापुरिसहिं गहिउ । ते हंति देव दिवंगधर लहु पेसहि कुलसरहंसवर । रक्खेवि जण्णु सा घणथणिया सिसु परिणउ सुय' जणयहु तणिया।
ता अइसयमइणा ईरियां पई बप्प असच्चु वियारियउं । जो अनेक उपहार और लेख हाथ में लेकर गये। अयोध्या में उन्होंने दशरथ से निवेदन किया और लिखे.हुए पत्र को पढ़ा : “जो महान् क्रिया वाले यज्ञ की रक्षा करता है, उसे मैं प्रत्यक्ष लक्ष्मी के समान कोमल भुजा बाली सीता नाम की कन्या दूमा।" जनक की कन्या की उपमा किससे दी जा सकती है ! तब राजा से बुद्धिविशारद ने कहा--"यज्ञ करना, उसकी देखभाल करना या रक्षा करना इस लोक और परलोक में सुन्दर कहा गया है । तो लक्ष्मण और राम यज्ञ की रक्षा करें।"
पत्ता यज्ञ कराने वाले होता जन और उसमें होमे गए पशु, जिससे देवत्व पाते हैं, हे राजन्, उस यज्ञ का प्रवर्तन कीजिए।
(16) जिस प्रकार राजा सगर यज्ञ करके स्वजनों और पुत्रों के साथ पाप से रहित होकर स्वर्ग गया, उसी प्रकार, हे राजन्, यज्ञ की रक्षा की जानी चाहिए। उसका विस्तार करना चाहिए। विश्व में धर्म का मल वेद को माना गया है, और उसे जिन महापरुषों ने स्वीकार किय दिव्य शरीर धारण करने वाले देवता होते हैं, इसलिए शीघ्र ही अपने कुल रूपी सरोवर के श्रेष्ठ हंसों (राम, लक्ष्मण) को भेज दीजिए । यज्ञ की रक्षा करके सघन स्तनों बाली जनक को उस कन्या से बालक राम विवाह करें। तब अतिशपबुद्धि मंत्री ने कहा-"भोले-भाले तुमने यह
3. A पाहड लेवि कर। 4,P णिबेविय। 5. A अदर परमरूअ; P अक्षर परमकिय। 6. AP
सिय । 7. P करुणु। 8. A कारावय होपारहणिय; P कारावयहोआयारि। (16) ]. A जुजवि; Pइंजेवि। 2. AP णिव। 3.A कज्जइव। 4. A णिज्जइव। 5A महिउ
6.P परण।
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26]
महाकवि पुष्परम्स विरचित महापुराण [69. 16.7 सुणि भारहि चारणजुयलि पुरि जिणधम्मपहाउज्झियविहुरि । तहिं अत्यि सुजोहणु दिण्णदिहि महएबि तासु णामें अतिहि । सुय सुलस सुलक्खण जहिं जि जहिं दीसइ' भल्लारी तहि जि तहिं । तहि णिरुवमु रूउ गुणग्धविउं णिउणें विहिणा कहि णिम्मविउं। 10 छत्ता–णडवेयालियछत्तबंदिणघोसाकरिउं॥
ताहि सपंवरु जाउ सयरु' राउ हक्कारिउ ।।16॥
17
सो कोसल मेल्लिवि णीसरिउ । पहपरहरि' मज्जणि संचरिउ । दप्पणि अवलोइउ सिरपलिउ' णवचंपयतेल्ने विच्छुलिउँ । राएण वुत्त किं परिणयणु एवहिं किं छिप्पइ तरुणियणु । धेरत्तणि परिहउ पेम्मविहि विसहिज्जइ वर तवतावसिहि । ता तहु धाईइ किसोयरिइ पडिवयणु दिण्णु मंदोयरिइ। सियकेमें चंगज दीसिहइ तुह' सिरिहरि संपय पइसिहइ । ते वयणे महिवइ पुणु चलिउ गरुडद्धउ णह्यलि परिघु लिउ । दियहेहि पराइउ तं णयरु ससुरमाई संथुउ णिवसयरु' ।
जाइवि धाइइ मंदोयरिइ सई दिष्ण कण्ण तुच्छोयरिइ । असत्य विचार किया है। आप सुनिए कि भारतवर्ष के जिन धर्म के प्रभाव से दुःखों से रहित चारणयुगल नगर है, उसमें सुयोधन नाम का भाग्यशालो राजा था। उसकी अतिथि नाम की महादेवी थी। उसकी लक्षणवती सुलसा नाम की लड़की इतनी सुन्दर थी कि उसे जहाँ देखो वहीं भली दिखती थी। गुणों से युक्त उसके अनुपम रूप को चतुर विधाता ने बड़ी कठिनाई से बनाया होगा।
पत्ता-उसका वहाँ नटों-वैतालिकों, छत्रों-बंदीजनों के घोषों से आपूरित स्वयंवर रचा गया और उसमें राजा सगर को बुलाया गया।
वह (सगर) कौशल देश को छोड़कर चला। उसने स्नान करते समय उत्कृष्ट प्रभा को धारण करने वाले दर्पण के प्रतिबिम्ब में अपने सिर के सफेद बाल को देखा, जो चंपे के नये तेल से चमक रहा था। राजा ने कहा कि विवाह से क्या? इस अवस्था में तरुणी जन को क्याछया जाए! बुढ़ापे में प्रेम प्रक्रिया पराभव का कारण है, अब श्रेष्ठ तप की तपस्या को सहन करना चाहिए। सब उसकी कृशोदरी धाय मंदोदरी ने प्रत्युत्तर में कहा कि सफेद बाल से तुम अच्छे दिखोगे और तुम्हारे श्रीगृह में संपत्ति प्रवेश करेगी। उसके बचन सुनकर राजा फिर चल पड़ा, उसका गरुड़ध्वज आकाश तल में फहराने लगा। कुछ दिनों में राजा सगर उस नगर में पहुंचा और अपने ससुर के सामने बैठ गया । क्षीण कटिवालीधाय मंदोदरी ने जाकर स्वयं कान दिए (बात सुनायी)।
7. AP अवलोइय मारइ तहिं जि तहिं । 8. AP सयर राउ । (17) I. A पर पुरिवहि। 2. AP सिरि पलिउ।3. A पेम्मणिहि। 4. AP सह। 5.Aणिउ । सयक;
Pणिउ सगरु।
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69. 18.12]
महाका-पुफ्फर्यत-निरपयउ महापुराणु घत्ता-कपणइ गुणसंदोहे हियवउं सयरि णिहित्तउं" ॥ __ मायइ विहसिवि ताम अवरु पडुत्तरु बुत्तउं 117।।
18 सुणि देसि सुरम्मइ सहलवणि पोयणपुरि धणपरिपुण्णजणि । बाहुबलिणराहिवसंतइहि जायउ महु बंधु कुलुण्णइहि । तिपिंगु तासु पिय सुजसमद वीणारव णं मणसियह रइ। तहि तणउ तणउ णं कुसुमसरु तरुणीयणलाइयविरहजरु । महुपिंगु णामु तुह मेहुणउ सुइ अच्छइ आयउ पाहुणउ । अण्णेत्तहिं म करहि रमणमइ' तुह जोग्गु जुवाणउ सो ज्जि लइ । णियभाइणेज्जु बरु इच्छियज अण्णेक्कु असेसु दुगुंछियउ । सासुयइ पइत्त समारियां पडिवक्खागमणु णिवारियां । अण्णेक्क सयरहु साहिब आहरणहि पसाहियां । जंकण्णारयणु समहिलसिउं तं दुल्लहु वट्टइ विहिवसिउ । पत्ता-अतिहीदेविहि बंधु जो तिणपिंगलु राणउ ॥
महुपिंगलु तहु पुत्त आयउ मयणसमाणउ ।।18।।
10
पत्ता-कन्या ने गुणों के समूह राजा सगर में अपना हृदय स्थापित कर दिया। परन्तु उसकी माता ने हंसते हुए उसे (कन्या को) दूसरा ही उत्तर दिया।
(18) सुफल बन वाले सुरम्य देश में वन से परिपूर्ण लोगों वाला पोदनपुर नगर है, उसमें बाहुबलि राजा की वंश परम्परा में कुल की उन्नति करने वाला मेरा भाई तृणपिंग है। उसकी यशोधरी नाम की पत्नी है। वीणा के समान शब्द वाली जो मानो कामदेव की रति है, युवतीजनों को विरहज्वर उत्पन्न करने वाला मधुपिंगल नाम का उसका कामदेव के समान पुत्र है । वह तुम्हारे मामा का बेटा पाहुना बनकर आया है, और यहाँ अच्छी तरह है। इसलिए तुम किसी दूसरे में रमण की बुद्धि न करो। वह तुम्हारे योग्य युवक है, उसी को तुम ग्रहण करो। अपने भाई के पुत्र को वर के रूप में पसन्द करो और बाकी सबकी उपेक्षा कर दो। इस प्रकार सास ने अपना प्रयत्न शुरू कर दिया और प्रतिपक्ष (सगर) का बहाँ आना मना कर दिया। किसी दूसरे ने जाकर राजा सगर से कहा-जो तुमने अलंकारों से प्रसाधन किया है, और जो कन्या की इच्छा की है, वह भाग्य के बल से असंभव दिखाई देती है।
घत्ता-अतिथि देवी का भाई जो तृणपिंगल नाम का राजा है, उसका कामदेव के समान मधुपिंगल नाम का पुत्र आया हुआ है।
6.AP णिहत्त। (18) 1. Aणा लसु पेहण उ । 2. A अण्णहे तहे । 3.A रमणरइ । 4. A सवारियज; P संवारियउ।
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[69. 19.1
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
19 देहिति तासु सुय जाहि तुहुं ता पहुणा जोइउं मंतिमुहुँ । गुरु चबइ एउ किर कित्तड महुँ तिहुयण सरिसव जेत्तडउं । जई णउ परिणावमि कण्ण पइं तो मंतित्तणु किउंकाई मई। इव भणिवि कवु कइणा विहिउ वरलक्खणु दलसंचइ लिहिउ । तं कासु वि कहिं मि ण दावियउं मंजूसहि तेण छुहावियउं । बहुवण्णविचित्तचीरपिहिउ णिवउववण महियलि संणिहिलं । हलियहि हलि हत्यु जेत्थु णिहिउ नहिं छुडु भूभाउ समुल्लियउ। कउ बढियतणकट्ठयरहिन जहिं पग्गहि धवलु परिग्गहिउ" । यावारिय कम्मु करति जहिं गंगरि' मंजूस विलग्ग तहिं। आयढिवि णीय णिहेलणहु दक्खालिय पशुहि सुजोहणह। उग्वाधिय पोत्थ जोइय अण्णेक्के भल्लवाया। पत्ता—दियवरवेसें दुक्कु कई पच्छण्णु सरायइ ।। वरइत्तहु सामुद्द, भासइ कोमलवायइ ॥19॥
. काणकुंटपिगला
अंधमयपंगुलाह। णिद्धणाहं णिब्बलाहं 'बुद्धिहीण-भलाह।
10
30
(19)
तुम जाओ। कन्या उसे (मधुपिंगल को) दी जाएगी। तब राजा ने मंत्री का मुख देखा। तब गुरु ने कहा- यह मेरे लिए कितनी-सी बात है, मेरे लिए त्रिभुवन सरसों के समान है। यदि मैं तुम्हारा कन्या से विवाह न कराऊँ तो मैंने मंत्रीपन क्या किया? ऐसा कहकर कवि मंत्री ने एक उत्तम लक्षणों का काम्य बनाया और उसे पत्रसंपुट पर लिखा । उसे उसने कहीं भी किसी को नहीं दिखाया और मंजूषा में रख दिया। नाना रंग के विचित्र वस्त्र से ढकी हुई मजूषा को राजा के उद्यान की धरती में गाड़ दिया। किसान द्वारा हल पर हाथ रखते ही जहाँ शीघ्र भू-भाग जुत जाता है, जहाँ धरती गड़े हुए तिनकों और कठोरता से रहित है, जहाँ बैल लंगामों से ग्रहीत हैं, वहाँ किसान खेती का काम करते हैं और उनके हल में मंजूषा आ लगती है। वे उसे उठाकर अपने घर ले आये और उन्होंने अपने अच्छे योशा राजा को उसे दिखाया। खोलकर पोथी देखी गई और कई लोगों के द्वारा वह अच्छी तरह बांधी गई।
पत्ता-द्विजवर (ब्राह्मण) के वेश में कवि रूपी मंत्री प्रच्छन्न रूप में वहाँ पहुँचा और राग पूर्वक कोमल वाणी में वर को सामुद्रिक शास्त्र बताने लगा।
(20)
__ काले, पोले, अन्धे, गूंगे, निर्धन, निर्बल, बुद्धिहीन, पागल, मान और लज्जा से रहित और (19) 1. A कित्तल; P केत्तरउं । 2. A तिहुषणु सरिस उ । 3. A चोरु पिहिउ । 4. AP समुल्लिहिल।
SA omits this toot. 6. Padds after this: सालग्गा रणिरु गहिज। 7.A लग्गलि;
P लंगलि । 8.A कहकपच्छण । (20) !. A 'विन्भलाह;"विभलाह।
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69. 21.8]
महारुद्र- पुपफयंत विरश्य महापुराणु
माणलज्जवज्जियाहूं
कुट्ठणकाययाहूं णीय कम्मका राह
घणाहं द्दियाहं
ता सो महपिंगलु लज्जियउ free forcefव बंधवहं सेवइ हरिसेण गुरुहि पयई एतहि सो सयरु वि बालियइ अहुजिवि तहिं णववहुसुरउ उज्झावर जाइवि पाणपिउ
भावणिज्जियाहं । छिष्णपाणिपाया।
इथिभिमारयाहं ||
साहुकमणिदयाहं ।
ववमाणदुज्जसाहं' बुलकुच्छिगया हं'
गोत्तवित्तचत्त जा वि दिज्जए ण कण सा वि । घत्ता - मंडवमसि विवाहि पिंगलु जो पइसा रइ ॥ सो वित्तदुक्खु यिधीयहि वित्थार || 2011
भार कम पुरि raider विप्पे हिउ
दुक्कुलाहं सालसाहं' | दीणभावणं गयाहूं ।
21
गउ चामरछत्तविवज्जियत । लग्गउ दहदुविहहं जिणतवहं । fears अनंतs दुक्कियई । बरु लइउ सयंबरमालियइ ।
आमेल्लेप्पिणु सासुरउं । सिरि सुलसह सहु भुंजंतु थिउ । पइसइ भिक्खहि चउवण्णघरि । सामुद्द. असेसु सच्चरहिउ ।
29
5
10
5
रोगों से पराजित, कोढ़ी, क्षीण शरीर, कटे हाथ-पैर वाले नीच कर्म करने वाले, स्त्रियों और बच्चों की हत्या करने वाले, निर्दय, घिनोने, अच्छे कामों की निन्दा करने वाले, बढ़ते हुए अपयश वाले, खोटे कुल वाले, आलसियों, बढ़ती हुई खुजली से युक्त शरीर वाले, दीन भाव को प्राप्त, उनको तथा ऐसे लोगों को तो कुल और धन से रहित कन्या भी नहीं दी जाती।
पत्ता - जो व्यक्ति मंडप के भीतर विवाह में पिंगल का प्रवेश कराएगा वह अपनी कन्या के लिए, दुःख और वैधव्य लाएगा।
2. A बुज्जणा हुं 13. A दुम्मुहाहं । 4. A कुच्छियारयाहं । 5. A बहसार। 6 Promits सो (21) 1 AP एककल्लउ | 2. A अणूडुंजहि; P अणुभंजहि । 3. AP पश्स रद्द 4. A जा ता विष्पें एक्कें
(21)
इससे बेचारा मधुमंगल लज्जित हुआ और चामरों और छत्रों से रहित होकर चला गया। वह अकेला अपने बंधु और बांधवों से छिपकर जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे गए बारह प्रकार के तप में लग गया। वह हरिषेण के चरणों की सेवा करने लगा । और इस प्रकार अनन्त दुःखों का क्षय करने लगा। यहाँ भी उस बाला ने स्वयंवरमाला के द्वारा सगर को वर रूप में ग्रहण कर लिया । वह भी वहां नववधू के साथ सुरति का भोग कर फिर ससुराल छोड़कर अयोध्या नगरी में जाकर प्राणप्रिय श्री सुलसा के साथ आनन्द करता हुआ रहने लगा। जिसमें चारों प्रकार के art के घर हैं ऐसी उस नगरी में आदरणीय मुनि मधुपिंग ने भिक्षा के लिए जैसे ही प्रवेश
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30
[69.219
. . . . हासी पन्त विरचित महापुराण रिसिसील एण अवलंबियउं लच्छीमुह काई ण चुंबियउं। अवरेक्के ता तहिं भासियर्ड पइ लक्खणु किं किर णिरसियउं। घत्ता-सुणि पोयणपुरि राउहोतउ एह महीसरु ।।
गउ सुलसावरयालि चारणजुयल पुरवरु ।।21।।
10
22
पिउसससुय परिणइ जाम किर ता सयरमंतिकयकवडगिर। पोत्थर विस्थारिवि दक्खविय विवरिवि बहसइसमग्धविय। सांसुयससुरहं मणु हारियउं इहु पिंगविढि णीसारियज । अप्पुण पुणु खलु वरइत्त थिउ तेणेयहु 'दुक्खणिहाणु किंउ । तं णिसुणिवि यिवइ कुछ जइ । जिणदेसिउ तवहलु अस्थि जइ। पाविठ्ठ दुडु खलु खुद्दमइ मई पुरउ हणेवउ सयरु तइ । रिसि रोसु भरंतु भरंतु मुउ असुरिंदहु वाहणु देउ हुउ। सो सद्विसहसमहिसाहिवह कि वष्णमि महिसाणीयवइ । घत्ता-जिणवरधम्मु लहेवि खमभावें परिचत्तउ॥
खणि सम्मत्त हणेवि सुरदुगइ संपत्तउ ॥22।। किया, वैसे ही एक ब्राह्मण ने कहा- "सारा ज्योतिष-शास्त्र झूठा है। इसने (मधुपिंग) मुनि का आचरण स्वीकार किया है। इसने लक्ष्मी का मुख क्यों नहीं चूमा ?" तब एक और ब्राह्मण ने कहा, "तुमने लक्षण-शास्त्र की निन्दा क्यों की?"
घत्ता-सुनो, यह पोदनपुर का राजा होता हुआ सुलसा के स्वयंवर समय में चारणयुगल नामक महानगर गया हुआ था।
___ 10
(22)
पिता की बहन की बेटी का जब वह विवाह करने लगा तो सगर के मंत्री के द्वारा विरचित कपट वाणी से युक्त पोथी खोलकर और दिखाकर अनेक शब्दों से युक्त उसकी व्याख्या कर सास-ससुर का मन ठग लिया गया और पिंग दृष्टि वाले इसे निकाल दिया गया। दुष्ट राजा सगर खुद बर बन बैठा और इस प्रकार उसने इसे दुःखों का पात्र बनाया। यह सुनकर मुनि हृदय में क्षुब्ध हो उठा और बोला कि यदि जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे गए तप का कोई फल होता हो तो यह दुष्ट पापी, खोटी बुद्धि वाला सगर मेरे सामने मारा जाए। मुनि इस प्रकार क्रोध धारण कर और याद करते हुए मर गया और असुरेन्द्र का वाहन देवता हुआ। साठ हजार महिषों का अधिपति और महिषों का सेनापति उनका क्या वर्णन करूं!
घत्ता-जिनवर का धर्म धारण कर, किन्तु क्षमाभाव से रहित वह व्यक्ति एक क्षण में सम्यक दर्शन का हनन कर देव दुर्गति को प्राप्त हुआ। इसलिए क्रोध नहीं करना चाहिए ।
5. A मुणि। (22) 1.A दिक्खविय । 2. A 'णिहाउ।
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[69.24.2]
महारु-पुष्यंस- विरइय महापुराण
पुणु तक्खणि असुरें जाणिय जिह मामिहि मामह हित्त मइ जिह गहिय तयरि मंदगइ सहु मंतिहि साकेयाहिवइ इय* चितिवि बिरलोयणु मुहकुहरविणिग्गय वेयझुणि सुलसावइजीवियसिरिहरहु जायउ सहाउ जो दुम्मयहु 'उत्त' गसत्तधरणिय लघरि विसावसु राउ विमलजसु
23
जिह कव्वु करेष्पिणु आणियजं । जिह पिंर्गे पडवणी विरइ । तिह एवहि घुउ पावमि कुगइ | कहिँ एवहिं बच्चइ' लद्ध लइ । जायउ सो लालकायणउ | हिंसालउ दूसियपरममुणि । तहिं तासु महाकालासुरहु । आयण्णहु तह कह पव्व यहु । एत्थेव वेत्ति सावत्थिपुरि' । तह सिरिमदेविहिपुत्तु वसु ।
त्ता--में खीरकलंबु दियवरु सत्यवियारउ ।। तासु चट्टु बसु जाउ पब्वज अवरु वि णारउ ||23||
24
स सीसहि सो परमायरिउ अभाव यासणिट्ठवियणिसि
एक्aहिं दिणि काणणि अवयरिउ । उवविउ दिट्ठउ तेत्यु' रिसि ।
31
10
(23)
तब उसी समय उस असुर ने जान लिया कि किस प्रकार काव्य रचकर लाया गया था, किस प्रकार मामा' और मामी की बुद्धि को ठगा गया, और किस प्रकार मधुपिंगल ने वैराग्य धारण किया, किस प्रकार मंद गति कन्या ग्रहण की गई, और किस प्रकार मैं कुगति को प्राप्त हुआ। साकेत नगर का राजा सगर इस समय मंत्रियों के साथ बचकर कहाँ जाएगा। मैं उसे अभी लेता हूँ। फिर विचार कर वह लाल आँखों वाला सालंकायण नाम का ब्राह्मण हो गया। जिसके मुख विवर से वेद-वाणी निकल रही है, जो हिंसक परम मुनि को दूषित करने वाला है, सुलसा के पति (सगर) के जीवन रूपी लक्ष्मी का हरण करने वाले उस महाकाल सुर का जो सहायक बन गया ऐसे खोटे मद वाले प्रवर्तक ब्राह्मण की कथा सुनो ! इसी भरतक्षेत्र में ऊंचे सात धरणीतल बाले घरों से युक्त श्रावस्ती नगरी में विमल यश वाला विश्वावसु नाम का राजा था। उसकी श्रीमती नाम की पत्नी से बसु नाम का पुत्र था ।
घत्ता--उस नगर में क्षीरकदम्ब नाम का शास्त्रों का विचार करने वाला श्रेष्ठ ब्राह्मण था, राजा वसु, पवर्तक और एक और नारद उसके चेले बन गए ।
(24)
अपने शिष्यों के साथ वह महान् आचार्य क्षीरकदम्ब एक दिन जंगल में गए। बादलों से रहित आकाश के अंतराल में जिन्होंने रात्रि व्यतीत की है, ऐसे एक मुनि को उन्होंने बैठे हुए देखा । (23) 1 A अच्छाई लबू जह। 2. P तं चितिथि। 3. A कपकव्ययहु । 4. AP उत्तुंग | 5. सावत्य पुरि; P सावित्यपुर ।
( 24 ) 1. A तेण ।
1. ससुर और सास ।
5
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
उज्झाएं पर्णाविवि पुच्छियउ तीहि विदियवरछत्त तणउ वसु पन्त्रय णारयधरणियलि जिणाणसुणिच्छ' मणि वह तं णिणिवि गुरु उब्विग्गमणु' खेतु दिए वाडियउ कंटेड महदाइणिहि
eforenvy सुणिच्छिउ । बाहासइ मुणि पणट्ठपणउ । पडिहिति दो वि कमजण्णफलि । णारउ सव्वत्यसिद्धि लहइ । आज पुरु थिउ भूमिवि भवणु । अहि दिणि लट्ठिइ ताडियउ । बसु विसइ सरणु उज्झाइणिहि ।
धत्ता - पत्थिवि रविख ताए त म तासहि बालउ ॥ पथिवपुत्त, सुसील कमलगब्भसोमालउ ||24||
धरणिहि वयर्णे व ओसरिज
महुं उप्पर एंत कुद्धमणु तं णिसुणिवि इज्जs भासियउं जय महि तयहुं जि वह 'लेंते संतें पीणभु
[69. 24. 3
25
गुरु
धरिउ ।
सिसु चवइ माइ पई भणि' एब्बहिं' दिज्जउ वरु कवणु । महंत चित्त, संतोसियउं । तुहु देज्जसु धवलबलूढभरु । विसावा कमि हिउ सुउ ।
5
10
5
उपाध्याय ने प्रणाम करके उनसे अच्छी तरह से निरीक्षित अपना भावी मार्ग पूछा। अपनी प्रतिज्ञा को भंग करते हुए मुनि उन द्विजवरों और क्षत्रियों का भविष्य बताने लगे-- राजा वसु और पवर्तक नरक की धरती में पड़ेंगे क्योंकि दोनों ने अपने यश का फल कमा लिया है। नारद जिन ज्ञान के निश्चय को अपने मन में धारण करता है, इसलिए सर्वार्थसिद्धि प्राप्त करेगा। यह सुनकर अत्यन्त उद्विग्न मन से राजा घर आया और भवन की शोभा बढ़ाकर रहने लगा। एक दिन खेलते हुए उसे (वसु को ) ब्राह्मण ने निकाल दिया। क्षीरकदम्ब ने एक और दिन उसे लाठी से पीटा। थर-थर कांपता हुआ राजा वसु शुभ करने वाली गुरु पत्नी की शरण में चला गया।
धत्ता -- उसने राजा की रक्षा की और कहा कि हे स्वामी, इस बालक को ताड़ित मत करो । राजा का यह लड़का सुशील है, और कमल के मध्य भाग की तरह कोमल है।
(25)
अपनी पत्नी के शब्दों से पति हट गया। बालक कहता है कि हे माँ, तुमने गुरु को रोक लिया । क्रुद्ध मन मेरे ऊपर आते हुए। कहो इस समय मैं कौन-सा वर दूं ? यह सुनकर आदरणीया माँ ने कहा- पुत्र, मेरा चित्त संतुष्ट हो गया । जिस समय मैं बर मागू तब उस समय मुझे देता । इस प्रकार अत्यन्त महान् और बलिष्ठ बाहु वाला राजा वसु यह व्रत लेने पर अपने पिता विश्वावसु के द्वारा कुल परम्परा में स्थापित कर लिया गया। वह अपने सहचरों और
2. A भवियपु मग्गु । 3. A णाणि विणिचद्रव; P जाणु विणिच्छउ । 4. A उब्विण्णमण । 5. AP पीडियउ । 6. A लट्टे ताडियर ।
(25) 1. AP भणु। 2. A एमहि। 3. AP वउ
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7
69.26.71
महाक-कर्मत विद्रव महापुरा
अवरह्नि दियहुल्लइ वणि भमइ । पहु पेइ तं तहि पडिलवइ' । पक्खलणहु कारण संभरइ । Error safa पिछवरु । उच्छलिवि बाणु धरणियति गउ । उच्चाइवि भवणहु आणियउ । सई वडिय कंचणमयइ पीढि । किपि जणु जणु जणवई पयडई | धम्में शियसच्चेण वसु गयणाच ण णिवड 112511
सहं सहयरकिंकरहिं रमइ पहिंगण पक्खलइ णीरुवु ण पहलु पर धरइ इस चितिवि तेण विमुक्कु सरु आयासफलिमउ खंभु हउ परिमट्ठेउ हत्थे जाणिय त खंभ उप्पर हरिगीदि
घत्ता – आगु चलइ
26
णारय पव्वय गुरुगिरिगुहिलु" । पच्छा उपायह' ओसरइ । सरिवारिपवाहाकरियहं । पुण मित्तहु वयणु णिच्छियजं । भणु पवय मोरिउ केत्तियज । बिसेष्पिणु णारउ बज्जरइ । ओसरि सरहु जो पिछणिहि ।
tudents' वासरि विविह्लु चंदकर कलाउ ण जलि करइ पत्त तित्ताई' म्यूरियहं इय तेण कज्जु परिहच्छियजं es fीलकंठ सुविचित्तिय सोण मुणइ ण भणs पहि चरइ सिहिणी सत्त इह् एक्कू सिहि frकरों के साथ क्रीड़ा करता है और दूसरे के साथ दिन में घूमता है। आकाश के आंगन पक्षिकुल स्खलित होता है। राजा उसे देखता है। वह वहीं कहता है कि आकाश अरूप है, वह दूसरों को धारण नहीं कर सकता। वह उसके स्थिर होने का कारण सोचता है। यह विचार कर धनुष की डोरी खींचकर अपना पुंख वाला तीर छोड़ा। उससे आकाश में स्थित स्फटिक वाला खंभा आहत हो गया, और बाण भी उछलकर धरती पर गिर पड़ा। हाथ से छूकर उसने जाना और उठाकर अपने घर ले आया। सिंहों के द्वारा धारण किये गये उस खंभे पर उसकी स्वर्णमय पीठ पर वह चढ़ गया।
धत्ता - जनपद में लोगों को यह बात विदित हो गई कि आसन अणु मात्र भी नहीं हिलता । धर्म से और अपने सत्य से राजा वसु आकाश से भी नहीं गिर सकता ।
[33
4. P पडवल । 5. AP धणुगुणि। 6. AP ( 26 ) 1. Aता एक्कहि। 2. AP गय गिरिगुहिल 5. AP ओसर ।
भू 7. A हरिवीठि; P 3. P पच्छासु । 4
10
(26)
एक दूसरे दिन नाना फल वाले विशाल पहाड़ की गुफा में नारद पर्वतक गये। वसु ने कहा कि मयूर जल में अपने पंख नहीं करता । वह अपने पिछले पैरों से हट जाता है। तालाब के पानी के प्रभाव से प्रवाहित मयूरों के पंख गीले हैं। इस प्रकार उसने असली बात छिपा ली। और फिर मित्र का मुख देखा, हे पवर्तक, बताओ कि विचित्र पंखों वाले मयूर कितने हैं और मयूरिया कितनी हैं। वह कुछ नहीं सोचता न कहता और रास्ते पर चलता है। नारद हँसते हुए कहता है कि यहाँ एक मयूर और सात उसके मोर हैं जो पंखों के समूह वाला तालाब से हट गया है। प्रखर
रिहि गीटि । 8. वीडि A सिताई (तिलाई ? )
5
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34]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
बहुबुद्धिहीरें पीलुर यम जाणिय हत्थिणिय पुच्छिवि पउ पुरि पसरिवि
घत्ता - अक्खइ मायहि गेहि णिरु ताएं संताविउ || हण पढावित कि पिणारउ चारू पढाविड 1126||
सो जाणइ अम्मि 'असिट्ठाई करिकरिणिहि पर्यावबई कहइ सहुं कतें पयडियगरहणउं पकाई वित्त ण सिक्खविउ तं सुणिवि भट्टे घोसिय मयरंदगंधमीणाहरणु सुतेरउ सुंदरि मंदु जडु इय पणिवि पिट्ठ मेस कय ए बच्छ एप्पिणु तरुहणि
कोणि पेक्ख धुवु मुणित्रि
[69. 26, 8
पयलंतपे मजल सित्तरय । अवर वि आरूढणियंबिणिय ।
गउ तक्खणि मच्छरु मणि रवि ॥
27
वणि मोरिंगिय अदिट्ठाई । ता बंभणि रोसु चित्ति वहइ । विरइउ कोणीहलकलहणजं । परडिंभु जि सत्थमग्गि थविद । अलिक केणुववेसिउं । हंसहं वि खीरजलपिकरणु । णारउ पुणु ससहावेण पडु । सुय भासिय जणणं वियपय । परिविदूरु पविमुक्कजणिः । तहि आवहु बिहि वि कृष्णु" लुणिवि ।
10
5
10
बुद्धि से गंभीर उसने (बसु ने) पग-चिह्नों के मार्ग से जान लिया कि हाथी में रत तथा झरते हुए प्रेम-जल से धूल पोंछती हुई एक हथिनी है और उसके ऊपर एक स्त्री बैठी हुई है। तब पर्वतक उससे पूछकर नगरी में प्रवेश कर अपने मन में ईर्ष्या धारण कर चला गया।
पत्ता -- वह अपनी मां से कहता है कि घर में मुझे पिता ने अधिक सताया है। मुझे कुछ भी नहीं पढ़ाया, नारद को खूब पढ़ाया ।
6. AP मणि मच्छरु |
( 27 ) 1. AP अट्ठाई। 2. AP कोलाहल । 2. AP परिभुक्कजणि 3. AP कृष्ण ।
(27)
हे माँ, वह (नारद) बिना कहे बिना देखे वन में मयूर के चिह्नों को पहचान लेता है । हाथी और हथिनियों के चिह्नों को कहता है। यह सुनकर ब्राह्मणी मन में क्रुद्ध हो गई। जिसमें निंदा प्रकट है, ऐसा छोटा-मोटा झगड़ा उसने पति के साथ किया कि तुमने मेरे बच्चों को क्यों नहीं सिखाया। दूसरे के बच्चों को तुमने शास्त्र मार्ग में स्थापित कर लिया। यह सुनकर बेचारे ब्राह्मण ने कहा : बताओ भौंरों और बगुलों को पराग-गंध और मीनों का अपहरण करना किसने सिखाया ? हंसों को दूध से पानी अलग करना किसने सिखाया ? हे सुन्दरी, तेरा पुत्र मूर्ख और जड़ है। जबकि नारद स्वभाव से पंडित है। ऐसा कहकर उसने आटे के दो मेढ़े (ढेर ) बनाए और पैरों में प्रणाम करने वाले अपने पुत्र से कहा : हे बेटे, इसे ले जाकर घने जंगल में प्रवेश कर खूब दूर जहाँ एक भी आदमी न हो, जहाँ कोई भी न देख सके, इस प्रकार अपने मन में
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[35
69.28. 10]
महाकइ-पुप्फयंस बिरइयज महापुराण तं विसुणिवि जाइवि विविणपहि पच्छपणे थाइवि रुवखरहि । कर मउलिवि जोइणि का वि थुय पवइण उरब्भहु कण्ण लुय । घत्ता-इयरें पइसवि दुग्गे चितिउं चंददिवायर ॥
इह णियंति पसु पक्खि किणर जक्ख णिसायर' ||271
28
जहिं गच्छमि तहिं तहि अस्थि परु जइ णरु णउ तो पेक्खइ अमरु । किह कण्ण' उरम्भहु कत्तरमि घरु गंपिणु तामहु वज्जरमि । गय बेण्णि वि पेसणु अप्पियउ णारयकिउ चारु वियप्पियउ । विप्पेण वृत्त हलि हंसगइ अवलोयहि तुहु णंदणहु मइ। जाह गम्मइ लोह असुष्णु णिलउ पसुसवणहं किह विरइउ विलउ। सुरगुरु वि समाणु ण णारयहु लइ एहु वि जोग्गउ गुरुवयहु । सुय परिणि वि तासु समप्पियई वसुराएं सहुं नंपिवि पियई। तवचरणु जिणागमि संचरिवि दिउ मुउ थिउ दिव्यबोंदि धरिवि । बहकाले बिहि विहेउभरिउ पारद्ध विवाउ पवित्थरउ। णारउ अय' जव तिबरिस चवइ तं पव्वउ बयणु अइक्कमइ ।
10 निश्चित कर वहां इसके दोनों कान काट कर ले आओ। यह सुनकर एकान्त पथ में जाकर पेड़ों में छिपकर हाथ जोड़कर उसमें किसी योगिनी की सुधि की और मेढ़े के कान काट लिये।
घत्ता--दूसरे ने दुर्गम स्थान में प्रवेश कर मन में विचार किया कि यहाँ भी सूर्य और चन्द्रमा देखते हैं, और पशु, पक्षी, किन्नर, यक्ष, निशाचर भी।
(28) मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ-वहाँ दुसरा आदमी है। यदि आदमी नहीं देखता है तो देवता देखता है, मैं मेढ़े के कान कहाँ का ? मैं घर जाकर आचार्य से कहूँगा। वे दोनों गये और अपनी-अपनी सेवा का निवेदन किया। नारद का कहा हुआ सुन्दर माना गया । ब्राह्मण ने ब्राह्मणी से कहा : हे हंस की चाल वाली, अपने बेटे की अक्ल देखो किसी भी स्थान को जाया जाए, वह सूना नहीं है, फिर इसने मेढ़े के कान को किस प्रकार काटा। नारद के समान बृहस्पति भी नहीं है, अतः यही गुरुपद के योग्य है। उन्होंने अपना पुत्र और गृहिणी भी नारद के लिए सौप दी और राजा वसु के साथ प्रिय बातचीत कर जन-शास्त्रों के अनुसार तप का आचरण कर वह ब्राह्मण देव शरीर धारण कर (स्वर्ग में) स्थित हो गया। बहुत समय के बाद उन दोनों ने युक्तिपूर्वक विवाद किया जो बहुत बढ़ गया। नारद कहता है कि तीन साल के जौ को अज कहते हैं, लेकिन पर्वतक इस
4. AP जाय विणिसृणिवि । 5. AP थियणबहि । 6. AP आइवि । 7. A किंवापर। (28) I.AP कण्णु। 2. A गुरुयरह । 3.AP सुउ। 4. AP बहुकालाहिं। 5.AP पवित्थरिउ ।
6. A अइजव।
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36]
[69.28.11
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण अय पसु भणंतु सो वारियउ अवरेहि बुहेहि णीसारियउ। गउ मच्छरेण थरहरियतणु संपत्तउ णीलतमालवणु । __ पत्ता-तहिं दियवरवेसेण पब्बएण सो दिट्ठउ ।।
__ असुरसुईच मनु तपजि सिलहि णिनिहन ।।28।।
29
10
मणपणयपसंगुष्पायण
ते तासु कय अहिवायण । बुड्ढेण वि पडिअहियाउ किज पुणु वुत्त होउ तुझ जि विणउ। सुय जायज जाणिउ कि ण पई चिर खीरकलंबें अवरु मई। दोहि मि सुभउमु गुरु सेवियउ सत्थत्थु असेसु वि भावियउ । आयउ किर जोइडं तासु मुहं ता पवसिउ सो सुउ दिठ्ठ तुहुं । लइ जण्णमहाविहिकारियहं सहसाई सट्टि पसुवहरियहं । सयराहराय अग्भुखरहि मह' महियलि कारावहि करहि। हवं कंचुइ अज्जु परइ मरमि णियविज्जइ पई जि अलंकरमि । दियतरुणि ता तहु इच्छिय तं विज्जादाणु' पडिच्छियउं । पुरदेसहं घल्लिउ मारि जरु पहु को वि गवेसइ संतियरु ।
गय बेणि वितं कोसलणयर दोहिं वि संबोहिउ णिवु'" सयरु । वचन का प्रतिरोध करता है। अज को पशु कहते हुए वह मना किया गया। दूसरे पंडितों ने उसे निकाल बाहर किया। ईर्ष्या के वश वह चला गया और जिसमें हरा घास कंपित है, ऐसे नील तमाल वन में पहुंचा।
पत्ता-वहां श्रेष्ठ ब्राह्मण के वेश में पर्वतक ने उसे देखा जो पेड़ के नीचे चट्टान पर सा हुआ असुरों के शास्त्र को पढ़ रहा था।
(29) उसने उसके मन में प्रेम प्रसंग को उत्पन्न करने वाला अभिवादन किया। उस वृद्ध ने भी प्रत्यभिवादन किया और कहा कि तुम्हें भी विनय प्राप्त हो । हे पुत्र, क्या तुम यज्ञ को नहीं जानते ? बहुत पहिले मैं और क्षीरकदंब दोनों ने सुभौम गुरु की सेवा की थी। समस्त शास्त्रार्थ का विचार किया था। मैं उनका मुख देखने के लिए आया था। लेकिन वह प्रवसित हो चुके हैं। हे पुत्र, तुम्हें मैंने देखा है, यन्त्र की महाविधि कराने वाली पशुबंध से संबंधित साठ हजार ऋचाएं लो और सगर आदि राजाओं का उद्धार करो, धरती पर यज्ञ करो और कराओ। मैं तो बढा आदमी हूँ, कल या परसों मर जाऊँगा। अपनी विद्या से तुम्हीं को अलंकृत करूँगा । ब्राह्मण युवक ने उसे चाहा और उसका विद्यादान स्वीकार कर लिया। मगर और देश में महामारी का ज्वर फैल गया। राजा किसी शांति करने वाले की खोज में रहता है। वे दोनों उस अयोध्या नगर जाते हैं। दोनों ने राजा सगर को संबोधित किया। (29) I. A मणे । 2- A तं तासु। 3. P अभिवायण। 4.A पडिपणिवाउ । 5. AP होइ। 6.A
"कयो । 7. A महु । 8.A कंचु बग्छु । 9. P विज्जा । 10. AP णिउ सगरु ।
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69. 30.11]
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महाका-पुप्फयंत-विरहयज महापुरश्णु धत्ता-हुणिवि" तुरंग मयंग दणुएं दाविय मायइ ॥
कुंडलमउडफुरंत दिटु देव णहभायइ ॥29॥
30
अप्पाणउ तहिं जि' हुणावियउं देवत्त णहंगणि दावियउं । सत्तच्चिणिहित्तई चउपयह णिट्टियई सट्ठिसहसई मयहं । मायारएण जणु मोहियउ संतीइ सुहेण पयासियउं। हारावलिरुइरंजियथणिय सुलसा वि तेण हुयवहि हुणिय । गोसवि णियजणणि वि अहिलसिय सयामणिमहि' मइर वि रसिय । विप्पहं बंभणिवरंगु विहि महुणा लित्त जोहइ लिहिउँ । मह मंत्रिय हो त्र जड अवलोयवि होमिज्जंत भड । घरु जाइवि तणु घल्लिवि सयणि पहु सोयह हा हा मिगणयणि । हा सुलसि काई मई तुज्झु किंउ किह जोवियम्बु' गिड्डहिवि गिउ। ता' तहिं जि पराइउ पवरजइ पुच्छइ पणामु विरइयि णिवइ।
10 किं धम्मु भडारा पसुवहणु किं सध्यजीवदयसंगहणु ।
पत्ता-राक्षस ने (महाकाल ने) यज्ञ में हाथी-घोड़ों को होमकर उन्हें मायाबल से आकाश में दिखा दिया । आकाश में कुंडलों और मुकुटों से स्फुरित होते हुए देव दिखाई दिये।
(30) उसने अपने को भी यज्ञ में होम कर दिया और आकाश के प्रांगण में देवत्व के रूप में प्रदर्शन किया। आग में डाले गये साठ हजार पशु नष्ट हो गये। उस मायावी के द्वारा लोग ठगे गये। उसने शांति और शुभ के लिए उन्हें प्रकाशित किया। हारावलि को कांति से जिसके स्तन शोभित हैं, ऐसी सुलसा को भी उसने आग में होम दिया। गो यज्ञ में उसने अपनी माता की भी इच्छा की और सौत्रापिणी यज्ञ में मदिरा का पान भी किया। ब्राह्मणों के लिए ब्राह्मणियों के उसमांग की रचना की गई मधु से. लिप्त जो जीभ के द्वारा चाटी गई। इस प्रकार उस धूर्त के द्वारा बहुत-से लोग ठगे गये। होमे जाते हुए योद्धाओं को देखकर घर जाकर अपने शरीर को बिस्तर पर डालकर राजा सगर शोक करने लगा-हे मगनयनी, हे सरसे, मैंने तम्हारे लिए यह क्या किया ! मैंने तुम्हारे जीवन को क्यों जला डाला ! इसी बीच एक महामुनि वहाँ पहुँचे। राजा उन्हें प्रणाम कर पूछता है : हे आदरणीय, पशुओं का वध करना धर्म है ? या सब जीवों के प्रति दया करना धर्म है ?
11. A हणवि। 12. A "मउल। (30) 1. Paहिं तो। 2.P णिहित्तहं । 3.P सोपामणि। 4. A होमिज्जति। 5. A जीवियत्यु ।
6. P तो।
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38]
[69. 30. 12
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण पत्ता--तं णिसुणिवि करुणेण तेण मुणिदें बुत्तउं ।।।
" होइ अहिंसइ धम्मु हिंसइ पाउ णिरुत्तउं॥30॥
31
10
पहु' जंपइ पच्चउ दक्खवहि __ अप्पाणउ कि मुहिइ खवहि । रिसि भासइणयलरंगणडि तुह सत्तमि दिणि णिवडिहाइ तडि । णिवडेसहि परइ म भेति करि कि सग्गु' जति पसु खंत हरि । तं राएं रइयणरावयहु
मलेप्पिणु गाविवर. पावहः । तेण वि बोल्लिउ मलपोट्टलउ किं जाणइ सवणउं विट्टलउं। असुरिंदें दरिसिय देवि णहि बिउणारउ लग्गउ पुणु वि महि । सो असणिणिहाएं घाइयज वालुयपहमहि संप्राइयउ। भणु पावें को धण मारियउ रिउणा जाइवि पच्चारियउ। जंपिंगलु हर पई दूसियउ जणियकर कण्णइ भूसियउ। जं वरलक्खणु महुँ कयउ छलु भुजहि एवहिं सहु तणउं फलु । पत्ता--पुणु असुरें णहमगि मायारूवें हरिसियई॥
सा सुलस वि सो सयरु बिण्णि वि मंतिहिं दरिसियई ॥3111 पत्ता-यह सुनकर उस महामुनि ने करुणापूर्वक कहा कि अहिंसा से धर्म होता है। हिंसा से निश्चय ही पाप होता है।
(31) तब राजा कहता है कि आप इस बात को प्रदर्शित करके बताइये। आप अपने को व्यर्थ ही क्यों खपाते हैं । मुनि कहते हैं कि आकाश के रंगमंच पर नृत्य करनेवाली बिजली सातवें दिन तुम्हारे ऊपर गिरेगी। तुम नरक में जाओगे इसमें भ्रांति मत करो । क्या पशुओं को खाने बाला शेर स्वर्ग में जाता है? तब राजा ने जिसने पशुओं के लिए आपत्तियों की रचना की है ऐसे प्रवर्तक से कहा । उसने कहा कि मल की पोटली वह नीच जैन मुनि क्या जानता है ? असुरेन्द्र ने आकाश में देवी सलसा को दिखाया। तब राजा दुगुने चाव से फिर यज्ञ में लग गया। वह राजा बिजली के गिरने से मारा गया। और बालुकाप्रभ नरक में पहुंचा। बताओ पाप के द्वारा कौन नहीं मारा जाता ? तब शत्रु ने जाकर उससे कहा कि जिस मुझ मधुपिंगल को दूषण लगाया था कि यह पीला है। और जो कन्या के द्वारा अपना हाथ भूषित किया था और जो तुमने मेरे साथ वर के लक्षणों वाला छल किया। इस समय तुम उसका फल भोगो।
घत्ता--फिर उस असुर ने आकाश मार्ग में माया रूप से हंसते हुए उस सुलसा को, उस सगर के दोनों मंत्रियों के साथ दिखाया।
(31) 1. A पइ जपइ सच्च3 । 2.Aण | 3. AP सग्गि । 4. A पसु खंति। 5. AP पन्धयहुbut T
पावयहु । 6.A महि: । महो। 7.P "णिवाएं। 8. AP संपाइयउ। 9.Pजीयवि।
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69.32. 19
महाकइ-पुष्फर्यत-विरहयज्ञ महापुराण
[39
32
ता खद्धकदेण सह तबसिविदेण' । गउ णारओ सेउ तं णयरु साकेउ । तेणुत्त दियसीह पश्वय दुरासीह । वणयरई मारंतु अट्ठियइं चूरंतु । चम्माई छिदंतु वम्माई भिदंतु। इसिदिठ्ठ सुपसत्यु जइ वेउ परमत्थु । तइ खग्गु किं णेय जज्जाहि कुविवेय । जइ पोरिसेओ वि णउ होइ भणु तो वि। वण्णझुणी गयणि किं फुरइ गरबयणि । अक्खरई कहिं बिंदु कहिं अत्यु कहि छंदु । कामनापगलेग विणु पुरिसवत्तण । कहि हेउ कहिं वेउ कहिं पाणु कहिं णेउ । कहि गयणि अरविंदु णीरूवि कहिं सद्द । वेयम्मि कहिं हिंस दिय गिलियपरमंस । हिसाइ कहिं धम्मु जड मुयहि तुहं छम्मु । कत्तार दायार जण्णस्स यार। जहिं होंति होयार' सुरणारिभत्तार। तो सूणगारा वि मीणावहारा वि । पसुखद्धबद्धा' वि।
(32) तब जिन्होंने कंद का भोजन किया है, ऐसे तपस्वी समूह के साथ नारद उस श्वेत साकेत नगर के लिए गया। उसने खोटी चेष्टा वाले उस द्विजश्रेष्ठ पर्वतक से कहा कि वन पशुओं को मारनेवाला दरिद्रों को चूरनेवाला चर्मों को छेदते हुए वक्षस्थलों को चीरते हुए ऋषि के द्वारा देखा गया यदि सुप्रशस्त और परमार्थ है, तो हे कुविवेकी, तुम खड्ग की पूजा क्यों नहीं करते? यदि वेद पौरुषेय (पुरुष रचित) नहीं है तो बताओ वर्णों की ध्वनि आकाश और मनुष्य के मुख में क्यों स्फुरित होती है ? अक्षर कहाँ, बिन्दु कहाँ, अर्थ कहां, छंद' कहाँ? किया गया है मन का प्रयल जिसमें ऐसे मनष्य के मुख बिना उत्पत्ति (कारण) को और बेद कहाँ कहाँ शान? और कहाँ शेय? कहाँ आकाश में कमल होता है ? अरूप में शब्द कैसे हो सकता है ? दूसरों का मांस खाने वाले हे द्विज, वेद में हिंसा कहाँ ? हिंसा से धर्म कहाँ ? मूर्ख, छल छोड़ । (पशुओं को काटने वाले, देने वाले और हवन करने वाले यदि मनुष्यों के नेता और देवांगनाओं के स्वामी होते हैं, तो (32) 1. A तवसथिदेण । 2. AP देख। 3. A अविचार; PT अवियार । 4.AP omit this foot.
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40] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[69. 32. 20 अमराण कि होति" जइ जणि णिवडंति । पसु सम्गु गच्छति। दोसंति सकयस्थ तो अप्पयं तत्थ । होमेदिले मतेहिं सहुं पुत्तकंतेहिं ।
गम्मिज्जए सग्गु भुजिज्जए भोग्गु । . पत्ता-जलमटियचम्मेण दम्भे सुद्धि कहेप्पिणु ।। भट्ट खद्धउ मासु खगमिंगकुलई वहेप्पिणु ।।32।।
33 जइ सच्चउ बिप्प पवित्त जलु तो कि तं जायउ मुत्त ' मलु । जइ गंगाण्हाणु जि' दुरियहरु तो इम वि लहंति वि मोक्ख परु । जइ मट्टियमंडणि तमु गलइ तो कोलु विमाणे संचरइ । जइ हरिणाइणु धम्मुज्जलउं तो हरिणतलु जि जगि अग्गलउं । किं बंभणु उत्तमु तुहं कहहि तं मारिवि' मासगासु महहि । जइ दब्धे पुण्णु पवित्थरइ तो कि मयउलु भवि संसरह । तं रत्तिदियहु दब्भ जि चरइ किह इंदविमाण ण पइसरह। गोफसणपिप्पलफंसणई मुत्त ठ्ठियाई घयदसणई।
जइ पाउ हणंति हुँत पउरतो वसहकायराया वि सुर। वध करने वाले और मीनों का अपहरण करने वाले, पशुओं को खाने और बांधने वाले भी देव क्यों नहीं होते ? यदि यज्ञ में पड़ने से पशु स्वर्ग जाते हैं और कृतार्थ दिखाई देते हैं, तो पुत्र और स्त्री के साथ मंत्रों सहित अपने को उसमें होम कर स्वर्ग जाया जाए और भोग भोगा जाए ?
पत्ता-जल, माटी और चर्म तथा दूब' से शुद्धि बताकर तथा पक्षी एवं भृगकुल की हत्या कर ब्राह्मण ने मांस खाया।
हे ब्राह्यण, यदि सचमुच मंगा का जल पवित्र है, तो वह जल मल-मूत्र क्यों बन जाता है ? यदिगंगा का स्नान पापों का हरण करने वाला है तो मछलियों को भी परम मोक्ष की प्राप्ति होनी चाहिए। यदि मिट्टी शरीर पर लगाने से मोक्ष होता है तो सुअर को देव विमान में चलना था। यदि मृग के चर्म से धर्म उज्ज्वल होता है, तो मृगों का समूह श्रेष्ठ होना था। तुम ब्राह्मण उस को पवित्र कहते हो, और यज्ञ में मारकर उसके मांस का कोर बनाते हो। यदि दूब से पुण्य का विस्तार होता है तो मृगों का झुंड आकाश में क्यों नहीं फिरता? वह दिन-रात चारा चरता रहता है। इन्द्र के विमान में वह प्रवेश क्यों नहीं करता? गाय को और पीपल को छूना और सोकर उठने पर गाय को छूना, पीपल को स्पर्श करना और घी को देखना आदि यदि पाप का नाश करते
5.AP add after this : कि दुग्गई जति । 6. A णिबहंत । 7. A गच्छत । 8. A होमेहि । (33) 1. AP मुत्तमल । 2.A वि। 3, A सोक्खु । 4.P मरिवि । 5. AP दभु । 6. A किं।
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69.34.8] महाक-पृष्फर्यत-बिरामद महापुराण
[41 कि बहुवे पण वि मंति भणइ जो पम् अपाण' सम गणइ ।
10 णिग्गंथु णियत्थु वि परिभमउ छुडु मोहु लोहु मच्छरु समउ । सो पावद तं सिद्धत्त किह रसविद्ध, धाउ हेमत्त जिह । पत्ता---हिंसारंभु वि धम्मु वयणु असच्चु वि सुंदरु ।। जणु" धुत्तहि दढमूहु किजइ काल पंडुरु ।।33।।
34 जबहोमें संतियम्मु कहिङ जंतं पइ छलएहि गहिउ । अय जब जि पयरिय हुँति गउ पई लंधिउं तायहु वयणु कउ । गिरि घोसइ गुरुणा पिसुणियउं तें तइयतुं वसुणा णिसुणियउँ । ता णारउ पब्बउ रुद्दधयः तावस सावित्थिहि झ त्ति गय । पव्वयजणणिइ अब्भत्थियउ वरकालु एह पहु पत्थियउ। जइ सुंअरहि भासिउ अप्पण तो थबहि वयणु भाइहि तणउं । तं अम्महि भासिउं परिगणिउं अय जब ण होति तेण वि भणित्रं ।
जं चविउ असञ्चु सुदुच्चरित तं सधरु धरायलु थरहरिउ । हैं तो वृषभ और कागराज भी बड़े-बड़े देवता होते। बहुत कहने से क्या, मंत्री कहता है कि जो दूसरे को अपने समान समझता है, जो परिग्रह से रहित है, निर्वस्त्र है, विहार करता रहता है,
और जो मोह, लोभ, ईर्ष्या को शान्त करता है, वह उसी प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है, जिस प्रकार रस से सिद्ध धातु स्वर्णत्व को प्राप्त करती है।
घत्ता-हिंसा का प्रारम्भ करना धर्म है, और असत्यवचन भी सुन्दर है, इस प्रकार धूर्त लोगों के द्वारा मूर्ख और भी मूर्ख बनाया जाता है, तथा काले का पीला किया जाता है।
और जो तुमने यज्ञ में होम करने से शांति कर्म कहा और जो तुमने अज शब्द को बकरों के रूप में ग्रहण किया। बोये जाने पर जो जौ उत्पन्न नहीं होते थे अज कहलाये जाते हैं। इस प्रकार तुमने अपने पिता के वचनों का उल्लंघन किया है। गुरु के द्वारा कहे गये बचन की पहाड़ भी घोषणा करता है उसे उसी प्रकार राजा वसु ने भी सुन लिया। तब अपने हाथ में रुद्राक्ष माला लिये हुए नारद और पर्वतक शीघ्र ही श्रावस्ती गये । पर्वतक की मां ने यह प्रार्थना की कि यह बर मांगने का समय है, और राजा से प्रार्थना की कि यदि आप अपने कहे हुए की याद करते हैं तो आप अपने भाई के (पर्वतक के) वचन को स्थापित करो। मां के द्वारा कहा गया उसने मान लिया। अज जो नहीं होते ऐसा उसने भी कह दिया । उसने जो असत्य और दुष्ट का कथन किया, 7. AP अप्पाणें । 8. AP लोह मोहु । 9. A सिद्धतु । 10. AF जगु ।
(34) 1. P कहिल। 2.A तं । 3.A रुद्धवय । 4.A मासिउप्पण्णउ ।
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421
[69.34.9
महाकषि पृष्पगत विरचित महापुराण महिकं ठाणहु बिहडियउं आयासह आसणु णिवडियउं। णहफलिहखभचुउ चूरियउ वसु चुण्णु चुण्णु मुसुमूरियउ। पत्ता-णियमित्तहो मरणेण पव्वउ थिउ विच्छायज ।।
पडियउ गरयणिवासि वसु असच्चु संजायउ ।। 34।।
10
35
पुणु दणुएं मायाभाउ किउ वसु दाविउ सम्गविमाणि थिउ । ता सयरमंति आणंदियउ महि जण्ण कि णिदियउ । पुणु तेण वि. रायसूज रइउ दिणयरदेवें खयरें लइउ । णिवमासहोमु विद्ध सियउ महकालवियंभिउ णासियउ । णारययिउल्लउ तोसियउं अमरारें पुणरवि घोसियउं । मा णासहि पब्वय कहिं मि तुहुँ। मंतीसर माणहि अमरसुहं 1 जिबिंबइंचउदिसु यहि तिह खेयरविज्जाउ ण एंति जिह । ता ते सिट्ठउं तेहउं करिवि गय णरयविवरि' बिपिण वि मरिवि । महिसिौ लोयह भासियउं अप्पाणउं वइस मइ साहियां । देहिहि दुक्खावहु धम्मु कहिं पलु खज्जइ पिज्जइ मज्जु जहिं।
10
उससे प्रवर धरती कांप गई। भूकम्प आ गया। अपने स्थान से विघटित होकर आकाश से (राजा वसु का) आसन गिर गया। स्फटिक मणि के खम्भे चूर-चूर हो गये। राजा वसु चकनाचूर हो गया।
पत्ता-अपने मित्र की मृत्यु से पर्वतक एकदम उदासीन हो गया। राजा वसु नरक निवास में जा पड़ा और वह असत्य प्रमाणित हुआ।
35
उस दनुज ने फिर मायावी आचरण किया। जब उसने राजा को स्वर्ग विमान में स्थित दिखाया, तो सगरमंत्री आनंदित हो उठा (और बोला) कि मूखों ने यज्ञ की निंदा क्यों की? फिर उसने भी राजसूय यज्ञ किया जैसा कि दिनकर देव विद्याधर ने स्वीकार कर लिया था। नप मास का होम ध्वस्त हो गया और महिषासुर का विस्तार नष्ट हो गया। नारद का हृदय संतुष्ट हो गया। दैत्य ने पुनः घोषित किया हे पर्वतक, तुम कहीं मत जाओ। हे मंत्रीश्वर, तुम भी स्वर्ग-सुख मानो। तुम चारों ओर जिन प्रतिमाओं को इस प्रकार स्थापित करो कि जिससे विद्याधरों को विद्याएँ यहाँ न आएँ । तब उसने जैसा कहा या वैसा किया। वे दोनों सरकर नरक गये । महिषेद्र ने लोगों से कहा कि मैंने अपने वैर का बदला ले लिया है। जहां शरीरधारियों को सताया जाता है, मांस खाया जाता है, मद्य पिया जाता है, वहाँ धर्म कहाँ ? लेकिन तप के द्वारा 5. A महिकर। 6. A विडियउ। 7. A फलिहमज खंभु धुन चूरियज ।
(35) 1. P"विवाणि 1 2. AP जि ! 3. A लवित । 4. A गरयधोरि ।
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[43
69.35.4]
महाका-पटफयंत-चिरइयउ महापुराण तवचरणें आलिवि मयणपुरि णारउ अहमिद विभाणवरि । अज्ज वि अच्छइ जिणगुण महइ अइसयमइ' दसरहासु कहइ । पत्ता-भरहकुमारजणेर हो हो जण्णु कि किज्जइ ॥
जगमहंतु. अरहंतु पुष्फवंतु पणविज्जइ ।। 351
इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाभव्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुष्फयंतविरइए महाकवे रामलक्खणभरहसत्तुहणुप्पत्ती' णाम जागणिवारणं" णाम एक्कूणहत्तरिमो"
परिच्छेओ समत्तो।।69॥ कामदेव को जलाकर नारद अहमेन्द्र विमान में देव हुआ आज भी वहाँ जिन वेवों का आदर करता है । इस प्रकार अतिशय मसिवाले वह मुनि राजा दशरथ से कहते हैं।
पत्ता-हे भरत कुमार को जन्म देने वाले दशरथ, यज्ञ मत करो। विश्व में महान् अरहन्त को नमस्कार किया जाये।
प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदंत द्वारा विरचित
एवं महामण्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न
की उत्पत्ति नाम यशनिवारण नाम उनहत्तरवा परिषद समाप्त हमा।
5.AP तवमलणे । 6.A विमाणु धरि; P विवाणुवरि । 7. APइस सयमः। 8. APण। 9.A राममरहलक्वण1 10. A जग्णणिवारणं । 11.A एकत्तिमो; Pणयसद्रिमो।
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सतरिम संधि
forfa मंतिसुहासियई' मिच्छादंसणु गिट्टिउं ॥ दसरहृहियउल्लउं मेरुथिरु जिणवरधम्मि परिट्टिउं ॥ ध्रुवकं ॥
1
अवरेहिं म अरुहि णिहित्त चित्त चणा मारियपरबलेण तंबारवार सो जणु जाउ इस मुसल गयासणिधणुहरेहि वायविय मोहु भ भतयहं महरयणरिद्धि ता वृत्त निमित्तवियक्खणेण तहि तर्हि गोमणि संमुहिय थाइ
संउ समति कल्लापमित्त । एत्थंतरि उत्त महाबलेण । वि जोयहि णिमणंदणपयाउ' । जिप्पंति ण जिप्पंति व परेहिं । ताराएं आउच्छिउ पुरोहु । तं गम होइ ण होइ सिद्धि । जहि जाइ रामु स लक्खणेण । दामोयरु मुविण पर विजाइ ।
5
10
सत्तरवीं संधि
मंत्री के सुभाषित (अच्छे वचनों) को सुनकर राजा का मिथ्या दर्शन नष्ट हो गया तथा मेरु के समान स्थिर राजा दशरथ का हृदय जिन धर्म में लग गया ।
(1)
दूसरे लोगों ने भी अरहन्त भगवान् में अपना चित्त लगाया और उन्होंने अपने मंत्री कल्याणमित्र की संस्तुति की। इसी बीच शत्रु सेना का नाश करने वाले महाबल नाम के सेनापति ने कहा- राजन्, नरक का द्वार जो यज्ञ संपन्न हुआ है, उसमें अपने पुत्र के प्रताप को देखिये । झस, मुसल, गदा, अशनि और धनुष को धारण करने वाले शत्रुओं के द्वारा के जीते जाते हैं या नहीं | विज्ञान -ज्ञान तथा नय से जिसने मोह को नष्ट कर दिया है, ऐसे पुरोहित से राजा ने पूछा कि बच्चों के वहाँ जाने से धरती रूपी रत्न की सिद्धि होगी कि नहीं। बताइये बताइये। तब नमित्तशास्त्र में प्रख्यात मंत्री ने कहा- राम लक्ष्मण के साथ जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ लक्ष्मी
(1) 1.A सुहासिउं । 2. AP गिट्टिय 3. AP परिट्टियई । 4. P णिवणंदण 5. A णयविहि
मणिमोहु ।
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[45
70. 2.8]
महाकद-पृष्फयंत-विरदयउ महापुराण ए अट्ठम मइंग णिसुणिउं पुराणि संठिय सलायपुरिसाहिठाणि । जगतावणु रावणु रणि हणेवि महि भुंजिहिति खर्गे जिणेवि । बलएव जणदण सुय ण भात दससंदणु पुच्छइ विहियसंति । घत्ता–महं कहहि पुरोह लद्धविजउ भुवणत्तयविक्खायउ ।।
दहगीउ वसासापत्तजसु केण सुपुण्णे जायउ ।।1।।
जसु आसंकइ जमु वरुणु पवणु तहु एयह भणु सिचिंधु कवणु। ता कहइ विप्पु महुरइ गिराइ सुणि धादइसंडहु पुश्विल्लभाइ । आरामगामसंदोहसोहि खरदंडसंडमंडियसरोहि। रंभंतगोउलावासरम्मि जवणालसालिजवछत्तसोम्मि। गोवाल बालकीलाणिवासि तहि सारसमुच्चइ णाम देसि । णायउरि अस्थि णरदेउ राउ बंदिवि अणंत गुरु बीयराउ । संतइहि थवेप्पिणु भोयदेउ जइ जायउ मेल्लिवि बंधहेउ ।
विज्जाहरु पेच्छिवि चवलबेउ णयलि आवंतु विचित्तकेउ । स्वयं सामने आकर खड़ी होती है, वह राम को छोड़कर एक पग भी इ.र-उधर नहीं जायेगी। यह मैंने आठवें पुराण में सुना है कि राम शलाकापुरुषों की परम्परा में स्थित हैं। वह संसार को सताने वाले रावण को युद्ध में मारकर तथा धरती को तलवार से जीतकर उसका भोग करेंगे। ये पुत्र साक्षात् बलदेव और जनार्दन हैं। इसमें भ्रांति मत कीजिये । तब मन में शांति धारण करते हुए दशरथ ने पूछा
पत्ता-हे पुरोहित, मुझे यह बताइये कि दसों दिशाओं में यश प्राप्त करने वाला रावण किस पुण्य से विजयों को प्राप्त करता हुआ तीनों लोकों में विख्यात हुआ है।
(2) यम, वरुण और पवन जिससे डरते हैं उसका ऐसा अपना कौन-सा चिह्न है ? यह सुनकर ब्राह्मण मधुर वाणी में कहता है--सुनिये मैं बताता हूँ। धातकीखंड के पूर्व भाग में सारसमुच्चय नाम का देश है, जो उद्यानों और ग्रामों के समूह से शोभित है । जो कमल समूह से मंडित सरोवरों से युक्त है। जो रंभाते हुए गोकुल के समूह से सुन्दर है, और जो जवनाल (?) धान तथा जौ के क्षेत्रों से सुन्दर है, जिसमें ग्वालों के बालकों की क्रीड़ा हो रही है, उस देश की नागपूर नगरी में नरदेव नाम का राजा है । वह परमवीतराग, अनन्तमुनि की वन्दना कर तथा कुल परम्परा में अपने पूत्र भोजदेव को स्थापित कर, पाप के बंध के सब कारणों का परित्याग कर मुनि हो गया। इतने में उसने आकाश में आते हुए विचित्र पताका वाले चपलवेग नाम के विद्याधर को देखा। उसने अपने मन में यह निदान (इच्छा) वांधा कि मुझे अगले जन्म में इस विद्याधर का सुन्दर भोग 6. AP णिमुणिचं मई। 7. P भुजिहंति। 8, A omits सद्धविजः। 9. A दहगीव; P दसगोउ। 10. P सपुणे।
(2) 1. P कमणु । 2. AP कीलणणिवासि ।
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46]
[70.2.9
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण बद्धउ' णियाणु महु जम्मि होउ एहज मणहरु खेयरविहोउ। सुररमणीरमणविलासमम्गि मुउ उप्पण्णउ सोहम्मसरिंग। इह भरहरिसि' वेयड्वसेलि गयणग्गलग्गमणिमोहमेलि । दाहिणसेढिहि ह्यवइरिजीउ पुरि मेहसिरि पहु सहसमीउ । घत्ता-उववेयउ केण वि कारणिण अंतरंगि णिरु" जायउ ।।
कलहणउं करिवि सहूं बंधवहिं सो तिकूडगिरि आयउ ।।2।।
लग्गइ अडि दुव्वयणकंडु मउलाविज्जइ सुहि तेण तुडु । कि किज्जह पिसुणणिवासि वासु तहिं गम्मइ जहि कदरणिवासु । तहिं गम्मइ जहिं तरुवरहलाई तहिं गम्मइ जहिं णिज्झरजलाई। तहिं गम्मइ जहि गुणणिरसियाई सुवति' ण खलयणभासियाई। इय चितिवि त्तिवि दुगुसंक काराविय राएं गरि लंक। उप्परिथियमिरिस्थिहि विहाइ चल्लियधयहत्यहि णडइ णाई। ण सण्णइ एहि जि पुणु वि एम कि सग्गे मई जोयतु देव ।
सिंहरें" of भिदिवि विउलमेह' ससि पावइ कि घरतेयरेह । मिले। वह मरकर देवरमणियों से जिसकी विलास सामग्री भरी हुई है ऐसे सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। इस भारतवर्ष में किरणसमूह से आकाश को छूने वाला विजयाई पर्वत है। उसकी दक्षिण श्रेणी में मेघ शिखर नाम की नगरी में, शत्रु के जीव का हनन करने वाला सहस्रग्रीक नाम का राजा है।
घत्ता-किसी कारण से उसके मन में अत्यन्त उद्वेग हो गया, और वह अपने भाइयों से झगड़ा करके त्रिकूट गिरि में आ गया है।
चूंकि दुर्वचन रूपी तीर कुअवसर में ( असमय ) जा लगता है और इसलिए मित्र का मुख उससे कुम्हला गया। दुष्टों के घर में क्यों निवास किया जाए? वहाँ जाया जाए जहाँ गुफा में निवास हो, वहां जाया जाए जहाँ तरुवरों के फल हों, वहाँ जाया जाए जहाँ निसरों के जल हों, वहाँ जाय जाए जहाँ गुणों से रहित तथा गुणों का नाश करने वाले दुष्ट जनों के द्वारा कहे गये वचन सुनने को न मिले। यह विचारकर खोटी शंका को मन से निकालकर राजा ने लंका नगरी का निर्माण करवाया। ऊपर स्थित पहाड़ रूपी हाथी के समान चंचल ध्वज रूपो हाथों से वह ऐसी मालम होती थी, जैसे नृत्य कर रही हो । अपनी चेतना के द्वारा (वह सोचती है) कि क्या मैं यहां फिर भी ऐसी ही हैं। स्वर्ग में देवता लोग मुझे क्यों देखते हैं ? शिखर के द्वारा बड़े-बड़े मेघों का भेदन करके सोचती है कि चन्द्रमा उसके घर की. शोभा को क्या पा सकता है ? अपनी पुतलियों 3. A खेयरह हो। 4. A 'रिस' । 5. A 'मजह। 6. AP णिज ।
(3) 1. AP'वरफलाई। 2. AP सुम्मति। 3. A पावियसक। 4.A'हत्पिर बिहार 5.Aषोयंति 1 6. AP सिहरेहि वि। 7.AP णीलमेह।
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70.4.91
महाका-पुष्फयंत-विरायड महापुराणु जोयइ पुत्तलियाणयणएहिं णं हसइ फुरतहि रयणएहिं । परिवित्थारिवि कित्तीमुहाई दावइ पारावयरवसुहाई। घत्ता-जहिं चंदसाल चंदंसुहय चंदकतिजलु मेल्लइ ।।
कामिणिपयपहज असोयतरु उववणि वियसइ फुल्लइ ।।3।।
सा पुरि परिपालिय तेण ताव सयगीउ खगाहिज पंचवीस णिइलिवि वइरि भूभंगभीस दसपंचसहासई बच्छराह सरितह पाणि मेहलांच्छ। अंकरिंग चडिउ चंडसुमालि आहासिउ दइयह फलपयासि
गय वरिसह वीससहास' जाव । थिउ विदवंतु णाणामहीस । पण्णासगीउ मुउ जिइवि वीस । संठिउ पुलस्थि राइयधराहं । सा पेच्छ घरि पइसति लच्छि। सिविणतरंति परिगलियकालि"। गरदेव' देव थिउ गब्भवासि । ण बहुरूविणिवसियरणमंत। आवासु व णयरसंपयाहं ।
णिवरूवे आणंदु व पयाहं
के नेत्रों से जैसे देखती है और मानो चमकते हुए रत्नों के द्वारा हँसती है, अपने कीति रूपी मुखों का विकास कर जो समुद्र और धरती को दिखाती है।
धत्ता-जहाँ पर चन्द्रप्याला (छत) चन्द्रकिरणों से आहत होकर चन्द्र कान्त मणियों का जल छोड़ती है, तथा कामिनी के चरणों से आहत अशोक वृक्ष उपवन में विकसित होकर फूल उठता है।
उस नगरी का पालन करते हुए उसे जब बीस हजार पच्चीस वर्ष बीत गये तब शतग्रीव बिद्याधर अनेक राजाओं का दलन करता हुआ स्थित हुआ । उसके बाद भ्र भंग से भयंकर शत्रु का नाश कर पंचाशत ग्रीव पन्द्रह हजार वर्ष जीवित रहकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। तब धरती को अलंकृत करने वाले इतने वर्षों में फिर पुलस्त्य गद्दी पर बैठा। उसकी प्रियतमा मेघलक्ष्मी थी। वह घर में हंसती हुई लक्ष्मी के समान दिखाई देती थी। उसकी गोद के अग्रभाग में स्वप्न में सूर्य चढ़ गया। समय बीतने पर उसने पति से पूछा । इस बीच फल को प्रकाशित करने वाले गर्भ में देव राजा के रूप में स्थित हो गया जो स्वजनों को सुख देता हुआ उत्पन्न हुआ। मानो अनेक सुन्दरियों के लिए वशीकरण मंत्र ही उत्पन्न हुआ हो । अपने रूप से प्रजा के लिए आनन्द के समान तथा विद्याधरों की संपदा के निवास के समान वह था।
8.A 'रइसुहाई. 'रयसुहाई। 9.Aपयड्यउ ।
(4) 1.AP तीससहास 1 2. AP ओहामियरू जाइ लच्छि (A जायलच्छि)। 3. पढिगलिय । 4. APणरदेउ देठ।
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48]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
धत्ता
-- कुलधवलु धुरंधरु दहह्वयणु जायज मायहि जइहुं || मंदरगिरिदुग्गु पुरंदरिण महुं भावइ' किउ तइयं || 4 ||
5
पडिमल्लु व गज्जियसायराहं । *मणमत्थइ सूलु व अरिवराहं । कामवासु तरुणीयणाहं । महिमहिहरसंचालणसमत्थु । आयंत्रण पडखकालु । दुद्देण णं मज्झष्ण सूरु । णं पलयकालु हुवहु पलित | जसु असिधारइ" धर मरइ तरइ । रिसहं जो सुम्बइ वज्जकाउ ।
णवतरणि व सुरकुमुयाय राहूं' कुसुणं दिग्गवराहं णं मत्तभमरु णंदणवणाहं पवहंतमहासरिज लगलत्थु वण्णेण गरलभसलउलकालु जाउ जुवाणु जमजोहजूरु
'विसमविसंकुरु विसविसित्त तज्जियदासि व भउ धरइ' चरइ जसु सत्तसत्तसहसाई बाउ
पत्ता - जसु भइएं' रवि णं अत्थवइ चंदु व चंदगहिल्लउ ||
फणि पुरिसरुवु परिहरिवि हुउ दीहदेहु कोडल्लउ ||5||
[70.4.10
10
5
10
यत्ता - कुल में श्रेष्ठ धुरन्धर रावण जिस समय मां से उत्पन्न हुआ तो मुझे लगता है कि उस समय इन्द्र ने मंदराचल को दुर्ग बनायां ।
(5)
देव कुसुमों के समूह के लिए नव सूर्य के समान, गरजते हुए समुद्रों के लिए प्रतिमल्ल के समान, श्रेष्ठ दिग्गजों के लिए कठिन अंकुश के समान, बड़े-बड़े शत्रुओं के मन और मस्तक पर शूल के समान, नंदनवनों के लिए मतवाले भ्रमर के समान, तरुणी जनों के लिए काम वास के समान वह रावण था । जिसने बड़ी-बड़ी नदियों के जल को छेड़ा है, जो पृथ्वी के बड़े-बड़े पहाड़ों
संचालन में श्र ेष्ठ हैं, जो रंग में विष और भ्रमरसमूह के समान काला है, लाल-लाल आँखों वाला और दुश्मन के लिए काल वह रावण युवक हो गया। यम समूह को पीड़ित करने वाला वह इस प्रकार दूरदर्शनीय था मानो मध्याह्न का सूर्य हो । मानो विष से विषावल विषय विष का अंकुर हो । मानो प्रलयकाल हो या अग्नि प्रदीप्त हो उठी हो। जिसके कारण धरती डाँटी गईं दासी के समान डरती हुई चलती है और जिसकी तलवार की धार में वह मरती और तिरती है, जिसकी सतत्तर हजार वर्ष आयु है, ऐसा वह वजू शरीरवाला समझा जाता है ।
धत्ता - जिसके भय के कारण रवि अस्त नहीं होता और चन्द्रमा को राहु लग गया है, और फणि भी अपने पुरुष रूप को छोड़कर एक लम्बी देह वाला खिलौना जिसके लिए बन गया है ।
5. A भावहि ।
(5) 1.A कुमुयावराहं । 2, AP मणि मत्यय । 3. AP कामबाणु। 4. A णं सर्विसु विसंकुह विप;ि PT णं समविसमं कुरु; K records a p; समविसमंकुर । 5. P कर डर 1 6P ° धारहि । 7. AP जसु रवि णं भइयए अत्यमद्द ।
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70. 7. 1]
महाका-परफयंत-विरइया महापुराणु
खयरेण कण्ण इच्छ्यिजएण मंदोयरि' तहु दिण्णी मएण । नामिनि काम पुणयरिमाणु सहं कतइ णह्यलि विहरमाणु ।। रययायलि अलयावइहि धीय । विज्जासाहणि संजमविणीय ! जोइवि मणिवइ' झाणाणुलग्ग' मइ रायहु मयणवसेण भग्ग । पारद्ध विग्घु परिगलियतुट्टि उववाससोसकिसकायलट्ठि।' बारहसंवच्छरपीडियंगि कुद्धी कुमारि णं खयभुयंगि। णासिउ बीयबखरलौणु झाणु इहु खगवइ चिंधे जाउहाणु । महु बप्पु होड़ मई रण्णि हरउ आयामि जम्मि महं कज्जि मरउ'। णिक्किउ विरत्तु विवरीयचित्तु जाणिवि रोसंगिउ रत्तणेत्त । गउ दहमुहु खेयरि मरिवि कालि थिय मंदोयरिगल्भतरालि । घत्ता-उप्पण्णी धीय सलक्षणिय कंपावियकेलासह ।।
णं लंकाणयरिहि जलणसिह णाई भवित्ति दसासहु ।।6।।
दिणि पडिउ जलिउ उक्काणिहाउ
अप्पंपरि जायउ परणिहाउ ।
जय की इच्छा करने वाले उस विद्याधर मय के द्वारा रावण को अपनी कन्या दे दी गई। सुन्दर पुष्पक विमान में चढ़कर अपनी कान्ता के साथ वह आकाश में विहार कर रहा था। विद्या की साधना के कारण संयम से विनीत और रचित चूड़ा पाशवाली अलकापुरी के राजा की कन्या मणिवती को ध्यान में लीन देखकर राजा की मति काम से भग्न हो उठी। उसने विघ्न प्रारम्भ किया। जिसकी तुष्टि नष्ट हो चुकी है, तथा उपवास के कारण जिसकी दुबली पतली देह रूपी सृष्टि सूख चुकी है ऐसी बारह वर्षों से अपने शरीर को पीड़ा पहुँचाने वाली वह विद्याधर कुमारी प्रलयकाल की नागिन के समान फुफकार उठी। बीजाक्षरों में लगा हुआ उसका ध्यान नष्ट हो गया। उसने कहा : यह विद्याधर जो चिह्न से राक्षस है, मेरा बाप होकर मुझे जंगल में हरे और इस प्रकार आगामी जन्म में मेरे कारण मृत्यु को प्राप्त हो। उसे निष्क्रिय, विरक्त, और विपरीत चित्त जानकर क्रुद्ध और लाल-लाल आँखों वाला रावण चला गया और विद्याधरी भी मरकर मंदोदरी के गर्भ में स्थित हो गई।
__घत्ता-वह लक्षणक्ती कन्या के रूप में उत्पन्न हुई, जो मानो कैलाश पर्वत को पाने वाले रावण की भवितव्यता और लंका नगरी के लिए अग्नि की ज्वाला थी।
दिन में तारों का समूह जल कर गिर पड़ा। अपने आप हाहाकार शब्द होने लगा। धरती
(6) 1. मंदोपरि । 2. A दिलीय। 3. A महिवद । 4. Pमाणेणुलग्ग। 5. A "कायजति । 6. खए मुगि। 7. A हह । 8.A मरइ । 9. P रोसें इंगिलं रत्तु गेत्तु ।
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50]
महाकवि पुष्पवम्त विरचित महापुराण
[70. 7.2 महि कंपइ जंपई को वि साहु किह चुक्कइ एवहिं पुहइणाहु । एयइधीयइ संभइयाइ
खज्जेसइ णाई' बिसूइयाइ। खयकालें ढोइय भरणजुत्ति वणि मिमपिइ नहि दि पुनि! . सुइसुहहराउ-विहुणियसिराउ आयण्णिवि मितियगिराउ।
5 खगभूगोयरसिरिमाणणेण
मारियउ" पवुत्त दसाणणेण। कि गरलवारिभरियइ सरीइ कि सविसकुसुममयमंजरीइ। बंधवयणहिययवियारणीइ कि जाय इ धीयइ वइरिणीइ। णवकमलकोसकोमलयराउ उद्दालिवि मंदोयरिकराउ। णिम्माणुसि कामणि घिहि तेम पाविट्ठ दुट्ठ णउ जियउ जेम। 10 पत्ता-तं णिसुणिवि तें मारीयएण भणिय देवि वररूवउं ।।
तुह गम्भि भडारो थीरयणु गोत्तखयंकर हुयउं ।।7।।
मुइ'मुइ दहमुहखयकालदूग ते होतें होसइ अवर धूय । बाहापवाह ओहलियणयण ता तरुणि चवइ ओहुल्लवयण मारीयय णवतरुफलरसहि कीलतपविखरमणीयसहि।।
घल्लिज्जसु कत्थइ पुत्ति तेत्यु रविकिरणु ण लग्गइ देहि जेत्थु । काँप उठी । तब कोई सज्जन व्यक्ति कहता है कि इस समय राजा किस प्रकार बच सकता है। यह उत्पन्न हुई कन्या महामारी की तरह सबको खा जायेगी, यह क्षयकाल के द्वारा मरण की युक्ति यहाँ लाई गई है, इसलिए इस पुत्री को निर्जन वन में डाल दिया जाए । कानों के सुख का हरण करने वाली तथा शिरों को प्रताड़ित करने वाली ऐसी ज्योतिषी की वाणी सुनकर विद्याधर और मनुष्यों की लक्ष्मी का भोग करने वाले रावण ने मारीच से कहा कि विषजल से भरी हुई नदी से क्या ? विष से परिपूर्ण कुसुम मंजरी से क्या ? बाँधवजनों के हृदय को विदीर्ण करने वाली इस दुश्मन लड़की के पैदा होने से क्या? इसलिए नव कमलकोष से भी अधिक कोमल मंदोदरी के हाथ से इसे छीनकर मनुष्यों से रहित जंगल में इस प्रकार छोड़ दो, जिससे यह पापात्मा दृष्ट जीवित न रहे।
पत्ता- यह सुनकर उस मारीच ने मंदोदरी से कहा-हे देवी, तुम्हारे गर्भ से सुन्दर रूप वाला स्त्रियों में रल हुआ है, परन्तु गोत्र का नाश करने वाला है।
तुम रावण क्षयकाल की दूती के समान इसे छोड़ो-छोड़ो। क्यों कि रावण के रहने पर दूसरी कन्या होगी। तब आँसुओं के प्रवाह से जिसका नेत्र मलिन है, ऐसी उस युवती ने नीचा मुख करते हुए कहा हे मारीच, जो नव वृक्षों के फलों के रस से आई हो, जहाँ क्रीड़ा करते हुए पक्षियों का सुन्दर शब्द हो और जहाँ इसकी देह को सूर्य की किरण न लगे ऐसे वन में कहीं इस पुत्री
(7) 1. A तार वि; P तासु वि । 2. A 'मुहबराउ। 3. A मारीपउ वृत्त । 4.A गरुमारि । 5. A णिसुणतें मारियएण। 6. P भरिए धीरयण् ।
(8) I. A मुम मुय । 2. A बाहप्पवाह" । 3. A पल्लिज्जाद।
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70.9.5]
महाका-पुष्फपंत-धिरइयज महापुराण
[51
10
अह एयइ काई जियंतियाइ कुरइ णियतायकयंतियाइ। गिरिदारणीइ कि गिरिणईइ हो हो कि एयइ दुम्मईई। आलिहिउंपत्त मच्छरकराल' रावणदेहुब्भव' एह बाल । बहुदुक्खजोणि बंधुहं असीय सुविसुद्धवस णामेण सीय। इय भासिवि मंजूसहि णिहित्त सहुँ रयणहिं वरराईवणेत्त। दहगीवजीवरक्षणकएणणिय णिविस" णहि मारीयएण। चंपय चवचंदणच्यज्झिा बहि मिहिलाणयरुज्जाणज्झि। धत्ता-मंजूसई सहुं छणयंदमुहि सरिसरणिज्झरसीयलि॥ ण रहुवइसिरिलयकंदसिरि णिक्खय सुय धरणीयलि ॥8॥
9 गउ विज्जापुरिसुणहतरेण तिखें महि दारिय लंगलेण । आरामुछित्तधुरंधरेण मंजूस दिट्ठ पामरणरेण । वणवालहु अप्पिय तेण णीय' रायालउ राएं विट्ठ सीय । वाइवि व इयरु बुज्झिय विणीय णियपियहि दिण्ण पडिवण्ण धीय ।
वनइ परमेसरि दिव्वदेह णं बीयायंदहु तणिय रेह । को छोड़ना । अथवा अपने पिता का अन्त करने वाली या अपने पिता के लिए यम के समान इस कन्या के जीने से क्या ? पहाड़ को ही चीरने वाली पहाड़ी नदी से क्या? हो-हो, इस दुर्मति कन्या से क्या? पत्र लिखा गया कि ईर्ष्या से भयंकर यह बाला रावण की देह से उत्पन्न हुई है । बन्धुजनों के लिए दुःख की कारण, संताप देने वाली, अच्छे वंश वाली इसका नाम सीता है। ऐसा कह कर उत्तम कमलों के नेत्रों वाली उसे रत्तों के साथ मंजूषा में रख दिया गया। और रावण के जीव की रक्षा करने वाला मारीन पल भर में उसे आकाश में ले गया। मिथिला नगरी के बाहर चंपक, धवल, चंदन, आम्र वृक्षों से गहन उद्यान के मध्य में ।
घत्ता-उसने नदी, तालाब, निर्झर से ठण्डे धरती तल पर पूर्ण चन्द्रमा के समान मुख वाली उस कन्या को मंजूषा के साथ इस प्रकार रख दिया मानो राम की लक्ष्मी रूपी लता के अंकुर की शोभा हो।
(9) विद्यापुरुष (मारीच ) आकाश मार्ग से चला गया। एक किसान ने अपने तीखे हल से धरती को फाड़ा। और हल के आरा के मुख से धरती को फाड़ने में निपुण किसान ने उस मंजूषा को देखा। उसने वह मंजूषा वनपाल को दी, वह उसे राज्यालय ले गया। राजा ने उसे देखा, वृत्तान्त को पढ़कर उसने अपनी पत्नी को वह विनीत कन्या दी और उसने भी उसे स्वीकार कर लिया। वह दिव्य देह वाली परमेश्वरी दिन-दूनी रात चौगुनी इस प्रकार बढ़ने लगी मानो द्वितीया के 4. P अच्छर। 5. P रावण° 6.A णिवसे । 7. AP धयचंदण।
(9) 1. A सीय । 2. AP रायालइ । 3. AP बीयाईदह ।
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52]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
ललिय महाकपयपउत्ति णं गुणसमग्ग सोहग्गथत्ति लायणवत्त' णं जलहिवेल रिग्रहणं समुति धत्ता - जसवेल्लि व अट्ठमराहवहु अमरदिण्णकुसुमंजलि ॥ पुरि वडिय जणयणरिदस्य रामण रामहं णाई कलि ||9||
पयकमलहं रत्तत्तणु जि होइ गुंफलं पुणु' गूढत्तणु जि चारु जंघाबलेण जायउ अजेउ णालोइउ जाणु संधिठाणु ऊरूयलचितइ हयसरीर कडियलु गरुत्तणगुणणिहाणु गंभीरम णाहिहि णवर होउ पत्तलउं उपरु सिंगारु करइ
णं मयणभावविरणाणजुत्ति । गं णारिरूवविरयणसमति' । सुरहिय णं चंपय कुसुममाल । क्खणणं वायरणबित्ति ।
10
(70.9.6
इयरह कह रंगु वहति जोइ । इयरह कह मारइतिजगु माह । इयरह कह वग्गइ कामएउ | इयरह कह संधइ कुसुमबाणु । इयरह कह जालंधरियसार । इयरह कह गरुयहं महइ माणु । इयरह कह णिवडिउ तहि जि लोउ । इयर कह मुणिपतत्तु हरइ ।
10
चन्द्रमा की देह हो । मानो महाकवि के पद की सुन्दर युक्ति हो । मानो गुण की समग्रता हो । सौभाग्य की सीमा हो । मानो नारी रूप के रचने की समाप्ति हो । मानो सौन्दर्य की पिटारी हो । मानो सुगंधित चम्पक कुसुमों की माला हो । मानो स्थिर हुई सत्पुरुष की कीर्ति हो । मानो अनेक लक्षणों वाली व्याकरण की वृत्ति हो ।
घत्ता -- मानो आठवें बलभद्र के यश की बेल हो । मानो देवताओं द्वारा दी गई कुसुमाञ्जलि हो । इस प्रकार जनक राजा की वह कन्या नगर में बड़ी हो गई, राम और रावण की कलह
समान ।
(10)
उसके चरण कमलों में रक्तता है, नहीं तो मुनि उसे देखने में राग धारण क्यों करते हैं ? उसकी एड़ियों में अत्यन्त सुन्दर गूढ़ता है, नहीं तो कामदेव तीनों लोकों को कैसे मारता है ? वह जंघाबल से अजेय है, नहीं तो कामदेव इतना इतराता क्यों है ? उस्तल की चिन्ता से वह क्षीण शरीर हो गई अन्यथा वह कदली की तरह (तुच्छ ) क्यों है ?
उसकी कमर गुरुता के गुण का खजाना है। नहीं तो बड़े लोगों का मान क्यों धारण करती है ? उसकी नाभि में केवल गंभीरता है, नहीं तो उसमें लोक क्यों गिरता है ? उसका पतला उदर उसकी शोभा को बढ़ाता है, नहीं तो वह मुनियों की पात्रता का हरण क्यों करती है ? उस मुग्धा
4 A समयि । 5. A लायण्णवण्ण । 6. P सुरहिय णवचंपय । 7. P सुप्युरिस | 8 A णं रामहं रावण कलि P रावणरामहं णाई कलि ।
( 10 ) 1. A गुप्फहूं; P गुप्पहं । 2. A omits पुणु । 3. A अण्णुद्दि P जं तुहुं । 4 AP गरुयत ।
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70. 11.9]
महाकह-पुष्पवंत-विरश्य महापुरागु
सकयत्थर मुद्धिहि मज्झु खीणु बलियाहि तीहिं सोहइ कुमारि - रोमावलिमग्गु मनोहर
घत्ता
इयर कह दंसण विरहि रोणु । यह कह तियहारि । कष्णहि केरउ संघइ ॥
इह कह सिणिसिरिसिहरु मयरकेउ आसंघइ (110)
11
देविहि थण रइरस पुण्णकुंभ
भुय मयणपासकास गणम कंधरु बंधुरु" रेहाहि सहइ लंबउ बिबाहरु हइ चक्खु दिदित्ति जित्तवत्तियाई मुससिजोहर दिस धवल' थाइ लोहं विदीहतणु जि जुत्त भालु भिद्धिदु व वरिठ्ठ Line लाउ कुलित्तु वहइ
इयरह पुणु' कामतिसाणिसुंभ । इयरह कह मण बंधणु जि भणमि । इयरह कह कंबु रसंतु कहइ । इयरह' कह तग्गहणेण सोक्खु इयरह कह विद्वई मोतियाई । इयरह कह ससि झिज्जंतु जाइ" । इयरह कह पत्तई जणमणंतु । इयरह कह तहु मयणास' दिछु । इयरह कह मानव वंदु वहइ ।
[53
10
5
का क्षीण मध्य भाग सफल है, नहीं तो उसके देखने से विरही दुबला क्यों हो जाता है ? उस कुमारी की त्रिवलि शोभित होती है, नहीं तो वह त्रिभुवन के लिए सुन्दर कैसे होती ?
धत्ता - उस कन्या की रोमावली का मार्ग सुन्दर और सराहयीय है, अन्यथा उसके स्तन पहाड़ की चोटी पर कामदेव किस प्रकार आश्रय ग्रहण करता ?
रूपी
5. A मुहि । 6. AP कह विरहें विरहि ।
(11) 1.AP कह। 2. A कंबुरु 3. A कंठ रसंतु । 4. A इह रहूं। 5. A घवलि । 6. AP खिज्जंतु । 7. AP मयणासु । 8 A कुडिलंतु । 9. P माणविदु ।
(11)
देवी के स्तन काम रूपी रस के पूर्ण कुंभ थे, नहीं तो वे काम रूपी तृष्णा का नाश करने वाले कैसे होते? उसके बाहुओं को मैं कामदेव के पाश के समान मानता हूँ, नहीं तो मैं कहता हूँ कि फिर वे देव मन को बाँधने वाले कैसे हैं ? उसके कंधे सुन्दर हैं जो रेखाओं से शोभित हैं, नहीं तो शंख बोलता हुआ इस बात को कैसे कहता है ? उसके लाल-लाल ओंठ नेत्रों का हरण करते हैं, नहीं तो फिर उनको ग्रहण करने में सुख कैसे होता है ? मोती दाँतों की दीप्ति के द्वारा जीते जाकर फेंक दिये गये हैं, नहीं तो वे इस प्रकार विद्व कैसे होते ? मुख रूपी चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से दिशाएँ धवल हो गई हैं, नहीं तो चन्द्रमा दिन-दिन क्षीण क्यों होता है ? उसके लोचनों की दीर्घता उपयुक्त ही है, नहीं तो वे जनों तक कैसे पहुँचते हैं ? उसका भाल भी आधे चन्द्रमा के समान श्रेष्ठ है, नहीं तो वह मद का नाश करने वाला कैसा होता, उसका केशकलाप कुटिलता को धारण करता है, नहीं तो वह मानो सिंह को कैसे मारता ?
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54]
महाकवि पुष्परन्त विरचित महापुराण
[70. 11. 10 पत्ता–जहिं दीसइ तहि जि सुहावणिय सीय काई वण्णिज्जइ ॥ 10 रक्खेवि जण्णु जणयहु तणउ रामें धुवु परिणिज्जइ ||1||
12 ता कुलजयलच्छिसुहावहेण पेसिय णियतणुरुह दस रहेण । बलणाहें समचं महाबलेण परिवारिय चउरंगें बलेण । गय' ससुरणयरु सुर सणर तसिय । चलवलिय मयर मयरहरल्हसिय। भड रह करि तुरिय' तुरंग चलिय दसदसिवह एक्कहिं णाई मिलिय। घर आयह मामें कुसलु कयउ प्रंगणि" जयमंगलु तूरु हयउ। गय कइवय दियह मणोरहेहि हा पहु वेहाविउ पसुवहेहिं। चलपंचवण्णधयधुवमाणु मंडउ णिहित्त जोयणपमाणु । दिज्जइ दीणहूं आहारदाणु घिप्पइ कंपतहं मृगह प्राणु । खज्जइ मासु वि किज्जइ विहाणु महुं मिट्ठलं पिज्जइ सोमपाणु। इय णिबत्तिज कउ रित्तिएहि । भणु को ण वि खद्धउ सोत्तिएहि। 10 हिसाबमावासवे
अण्णहि वासरि जयजयरवेण ।
पत्ता-इस प्रकार वह जहाँ दिखाई देती है, वहीं सुहावनी है, उसका वर्णन किस प्रकार किया जाए। जनक के यज्ञ की रक्षा करते हुए, राम की रक्षा करते हुए, उसका परिणय किया जाएगा।
(12) तब कुल लक्ष्मी से सुन्दर दशरथ ने अपने पुत्रों को भेज दिया। सेनापति महाबल के साथ चतुरंग सेना से घिरे हुए वे ससुर के नगर गए। मनुष्यों सहित देवता त्रस्त हो उठे । समुद्र से च्युत मगर चंचल हो उठे। योद्धा, रथ, हाथी, घोड़े चल पड़े मानो दसों दिशा-पथ एक साथ मिल गए हों। घर पर आए हुए उनका (राम, लक्ष्मण) का ससुर ने अभिवादन किया। प्रांगण में जय मंगल और तूर्य बजा दिये गए। इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। लेकिन अफसोस है कि राजा पशु वधों से प्रवंचित हुआ। उसने चंचल पचरंगे ध्वजों से आन्दोलित एक योजन प्रमाण का मंडल बनाया, दीनों को आहार दान दिया जाने लगा। कौपते हुए पशुओं के प्राण आहूत किए जाते हैं । इस प्रकार मांस खाया जाता है, और विधान किया जाता है। पुरोहितों ने इस प्रकार के यज्ञ का विधान किया है, बताइए ब्राह्मणों के द्वारा कौन नहीं ठगा गया कि वे जो हिंसा और पाप के आश्रय का धर्म बताते हैं। दूसरे दिन जय-जय शब्द के साथ।
10. A परणिज्ज।
(12) 1. ATN 2. A सुरसैष्ण तसिय; Pसुर सजर तसिय। 3. AP करि रह । 4.A तुरय । 5. आयट । 6 AP पंगणि। 1. A मंगलतूस; P मंगलतरु। 8. AP मणोहरेहि। 9. AP मिगहं पाणु 10.Afणवित्ति।
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70.13. 13] महाका-पुष्फयंत-बिरहयउ महापुराणु
{55 यत्ता-धणुकोडिचडावियधणगुणहु"दरिसियवइरिविरामहु ।। णियधीय सीय णवकमलमुहि जणएं दिण्णी रामहु ।।12।।
13 वइदेहि धरिय करि हलहरेण णं विजुल धवले जलहरेण । णं तियणसिरि परमप्पएण णं णायबित्ति पालियपएण।' णं चंदें वियसिय कुसुममाल' गोविदें णं सिरि सारणाल । दुव्यारवइरिवारणभुएण
सहुं सीयइ सहुँ केकयसुएण। अच्छइ दासरहि सुहेण जाम पिउणा णियद्य उ पहिउ ताम। आणिउ विणीयपुरि सीरधारि सकलत्त सभाउ दुहावहारि । अहिसिविवि जिणपडिमउ घएहि दहियहि दुद्धहि धारापएहि । णिव्वत्तिय जिणपुज्जा महेश सिसुणहें तूसिबि दस रहेण। अवराउ सत्त कण्णाजतासु निगड मुलगारागान। सोलह तह महिलच्छीहरास अलिकुवलयकज्जलसामलासु । गंभीरधीरसाहसधणाह
रइयउ विवाहु दोहं मि जणाहं । कोणाह्यतुरई रसमसंति' मिहुणाई मिलतइंदर हसति। संमाणवसई सयणई गडंति पिसुणई चिंतासायरि पद्धति ।
पत्ता---शत्रुओं को अंत दिखाने वाले तथा धनुष की कोटि पर सपन शब्द के साथ डोरी चढ़ाने वाले राम को जनक ने नव कमल के मुखवाली अपनी कन्या दे दी।
(13) राम ने सीता का पाणिग्रहण कर लिया मानो धवल मेघ ने बिजली को पकड़ लिया हो, मानो परमात्मा ने त्रिभुवन की लक्ष्मी को ग्रहण कर लिया हो, मानो प्रजा के पालन करने वाले राजा ने न्यायवृत्ति को पकड़ लिया हो, मानो चन्द्रमा ने पुष्पमाला को विकसित किया हो, मानो गोविन्द ने लक्ष्मी के कमल को पकड़ लिया हो। तब दुर्वारशत्र ओं से निवारण करने वाली भुजाओं वाले, कैकेयी के पुत्र और सीता के साथ, लक्ष्मण के साथ राजा राम जब सुख से रहते थे, तो पिता ने एक अपना दूत भेजा और दुःख का हरण करने वाले श्रीराम को पत्नी सहित अयोध्या बुलवा लिया। धी, दही, दूध की धाराओं से जिन भगवान् की प्रतिमा का अभिषेक कर महान् पुत्र स्नेह से संतुष्ट होकर राजा दशरथ ने जिनेन्द्र की पूजा की। हाथ में मूसल अस्त्र को धारण करने वाले राम को और भी सात कन्याएँ दी गई, तथा भ्रमर नील कमल और कज्जल के समान श्यामल तथा धरती की लक्ष्मी को धारण करने वाले लक्ष्मण को सोलह कन्याएँ दी गईं। और इस प्रकार गंभीर, धीर, साहस रूपी धन वाले उन दोनों का विवाह किया गया। दंड से आहत नगाड़े बजने लगे, मिथुन जोड़े मिलने लगे, कुछ-कुछ और मुस्कराने लगे। सम्मान के वशीभूत होकर स्वजन लोग नृत्य करने लगे, दुष्ट लोग चिता रूपी सागर में पड़ गये। 11A दाणगुणः धणुगुणहु ।
(13) 1.A पालिपवएण। 2. Pकूमयमाल । 3. AP पिहिउ।4P धारवाह। 5.A समसंमति।
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56]
महाकनि पुष्पदन्त विवित महापुराण
काणीणहुं दीणहुं बेसियहुं दिष्णई दाणई लोयहुं ॥ तहि समइ पराइज' महुसमउ णं विवाहु अवलोयहुं 111311
14
घता
अहिणवसाहार मन तपत्त बिंतु ।
[70. 13. 14
अंकुरफुरंतु ' पल्लवचलंतु । दावंतु णीलसेवालतीरु' । अवरु वि दीहत्तणु वासरासु । मोक्ख दुग्गुणभोक्ख सिद्धि ।
सोहइ वसंतु जग पइसरंतु कार व धारहि सचंतु णिधि दसद्विपट्ठवंतु सारंतु सुवाविहि वारिचीरु खरकिरणपयाउ' वि णेलरासु परंतु असोय पत्तरिद्धि बउलहु वउ सुच्छायचं" करंतु तिलयहु दलतिलयविलासु देतु वल्लकामुयवम्मई हणंतु माणिणिहि माणगिरि जज्जरंतु उत्तंग दियह गमंतु" । मंदारकुसुमरयमहमहंतु " धत्ता --- कानीन, दीन, देशी लोगों को दान दिया गया । ठीक उसी समय बसंत का समय आ पहुँचा । मानो उस विवाह को देखने के लिए ही ऐसा हो रहा है ।
रमणा हिला सविन्भ भतृ ।
(14)
जग में प्रवेश करता हुआ बसंत शोभित होता है. अभिनव सहकार वृक्षों से महकता हुआ कलाली की तरह मधु धाराओं से बहता हुआ, हेमन्त की प्रभुता को नष्ट करता हुआ, अपने चिह्न को दसों दिशाओं में भेजता हुआ, नवाकुरों से चमकता हुआ, पल्लवों से हिलता हुआ, वापिकाओं के जल रूपी चीर को हटाता हुआ, उनके नीले शैवालों के तीरों को दिखाता हुआ, सूर्य के तीक्ष्ण किरण प्रताप को और दिनों के लम्बेपन को दिखाता हुआ, अशोक के पत्तों की वृद्धि करता हुआ, मोक्ष (अर्जुन) वृक्ष की दुष्ट फागुन से मुक्ति की सिद्धि को प्रगट करता हुआ, मौलश्री के शरीर
कांतिमय बनाता हुआ, वन लक्ष्मी के मोस रूपी आंसुओं को पोंछता हुआ, तिलक वृक्षों के पत्तों को तिलक की शोभा देता हुआ, लता रूपी कामिनियों में रस उत्पन्न करता हुआ, प्रियों के कामुक आहत करता हुआ, कनेर के फूलों की धूल को धूसरित करता हुआ, मानिनियों के मान रूपी पहाड़ों को जर्जर करता हुआ, घूमते हुए भ्रमरों की आवलि से गुनगुन करता हुआ, उत्तम वृक्ष विशेषों पर दिनों को बिताता हुआ, मंदार कुसुमों की धूल से महकता हुआ, रमण की अभिलाषा के विलास को उत्पन्न करता हुआ, वसंत आ पहुँचा ।
15
चिछह ओसासुय' हरंतु । वेल्लीकामिणियहं रसु जणंतु । कणयारफुल्लरय वूसरंतु' । हिंडिरमसलावलिगुमुगुमंतु ।
5
10
6. AP पराइयज ।
(14) 1. A फुरंत 2 A "लसंतु । 3- AP °सेवालणीरु । 4. AP पाउ दिनेसरासु । 5. A सच्छायउ । 6. AP ओसंसुप 7. AP कणियार । 8. AP उत्तुंगमड्डि । 9 AP add after this: मज्जंतपक्खिकुलचुमुचुमंतु K writes it but strikes it off. 10. AP read this line as: रमणा हिमाल विब्भम भमंतु (A: रमणीहि विलासविन्भमि भमंतु ), मायंदकुसुमर महमहंतु ।
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70. 15.11]
महाकइ-पुस्फयंत विरहयज महापुरा
घत्ता - जो मोर्णे चिरु संचरइ वणि सो संपइ महुसेविरु ॥
कोइल" पुण वि पुण वि लवइ मत्तउ कोण पलाविरु ||14||
15
वज्जइ वीणा पिज्जइ पाणं
गिज्जव महरं सत्तसरालं परिमलपउरं पोसियरामं rasia छवियारे सुपर' दवणयविरइय गेहे संधइ कामो कुसुमखुरपं अणिज्जइ रूसति पियल्ली सरजलकेलीसित्तसरीरो तिम्म पण इणिसुमक डिल्लो कुवलयमालाताडपल लियउ इच्छामाणिकता कतो"
पिचित्त साहणं । दढपेम्मं पसरइ असरालं । बज्झइ फुल्लियमल्लियदामं । णेवर कलरवणच्चियमोरे । पुप्फत्थरणे भमियदुरेहे । णास तावसतवमाहप्पं । दाविज्जइ कंदप्पसुहेल्ली ।
विमुक्ककुंकुमणीरो । दिट्ठावयववूढरसिल्लो® । फुल्लला सदुमिहि पज्जलिय । एव वियंभइ जाम वसंतो
[57
5
10
पत्ता- जो अभी तक वन में बहुत समय से मौन था, वह कोकिल इस समय मधु का सेवन करने लगा और बार-बार सुन्दर आलाप करने लगा। इस दुनिया में मतवाला कौन नहीं प्रलाप करता ?
(15)
वीणा बजने लगती है । मदिरापान किया जाने लगता है। प्रियजनों के चित्तों को साधा जाता है। सप्त स्वरों में मधुर गाया जाता है। अपर्याप्त दीर्घ प्रेम फैलने लगता है। परिमल से प्रचुर स्त्रियों का पोषण करने वाली खिली हुई मल्लिका की माला बांधी जाने लगती है। जिसमें सुगंधित द्रव्यों के समुच्चय का छिड़काव किया गया है, और नूपुरों के समान शब्द वाले मयूर नृत्य कर रहे हैं, जिसमें भ्रमर घूम रहे हैं ऐसे द्रवण लताओं से रहित घर में। पर प्रेमी जनों के द्वारा सोया जाता है। रूठी हुई प्यारी को मनाया जाता है, और उसे काम पीड़ा पुष्प - शय्या का सुख दिखाया जाता है। जिसमें सरोवर की जलक्रीड़ा से शरीर सींचा गया है, जिसमें यन्त्रों से छोड़ा गया केशर मिश्रित पानी है, जिसमें प्रणयिनी स्त्रियों के सूक्ष्म कटिवस्त्र गीले हो गये है, जो दिखाई देनेवाले अवयवों से बढ़े हुए वृक्षों वाला है, जो कुबलय मालाओं के मारे जाने की क्रीड़ा से युक्त है, जो खिले हुए पलाशों के वृक्षों से जल रहा है, जिसमें पति-पत्नी अपनी इच्छाओं को मना रहे हैं, ऐसा वसन्त बढ़ने लगता है ।
11. A कोकिलु ।
( 15 ) 1. A गंधकुडंनय " 1 2. AP जेउर 13. A सुपय । 4. P खुहत्यं । 5. A णिम्मिय; P तिमि 16. P वयवसु बुड्ढरसिल्लो। 7. A ललिओ । 8. A दुमेहिणं जलिओ P "दुमेह णं जलियउ । 9. A इच्छिय; P इच्छए ।
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581
[70. 15.12
महाकवि पुष्पयन्त विरचित महापुराण घत्ता–ता दसरहपयपंकय णविवि विहसिवि रामें वुच्चइ ।।
संताणकमागय तुह णयरि वाणारसि कि मुच्चइ 1115॥
16
णासिज्जइ कि सो कासिदेस सुणि ताय रायसत्थोवएसु । गुरुगय णियगय णिव दुविह बुद्धि बुद्धीइ पंचविह मंतसिद्धि । दीसंति जाइ सछिद्दवेरि
सानंतराति साहति तरि । विहुरे वि हु अणिहालियदिसेण उच्छाहसत्ति पुणु पोरिसेण । पहुसत्ति कोसदंडेहि देव
एयइ विणु महियल बहइ केव । जाणेवा अवर अलवलाह
चत्तारि उवाय धरत्तिणाह। बोल्लिज्जइ पहिलारउ जि सामु पियश्यण जीवजणियाहिराम। बीयउ पुणु सीकिज्जंति किच्च संमाणिवि वइरिविरत्त भिच्च । घत्ता-ते थद्ध लुद्ध अवमाणणिहि भीरु कहंति विवक्खहु ।।
णियरायहु केर दुच्चरिउ वियलियपह परिरक्खहु ।।16।।
10
उवदाणु वि हरि करि हेम रयण दिज्जइ जइ लब्भइ को वि सयणु ।
अवयारु देसपुरगामडहणु सो दंडु भणति वरारिमहणु ।
घता-तो दशरथ के चरण-कमलों को नमस्कार कर राम ने कहा-आपके द्वारा कुल परम्परा से प्राप्त नगरी क्यों छोड़ी जाती है ?
(16) उस काशी देश को क्यों छोड़ा जाय ? हे आदरणीय, राजनीति-शास्त्र का उपदेश सुनिए। हे राजन्, बुद्धि दो प्रकार की होती है, एक गुरु की और दूसरी स्वयं की। बुद्धि से पांच प्रकार के मंत्रों की सिद्धि होती है। जिस बुद्धि से बैरी छिद्रपूर्ण दिखाई देता है, विद्वान् उसकी साधना करते हैं । संकट के समय भी किंकर्तव्यमूढ़ता से रहित पौरुष के द्वारा उत्साह शक्ति सिद्ध होती है। हे देव, कोष और दंड से प्रभु की शक्ति सिद्ध होती है, इसके बिना धरतीतल की रक्षा कैसे की जा सकती है ? और भी, हे पृथ्वी के स्वामी, जिनसे लाभ प्राप्त नहीं किया गया है, ऐसे चार उपायों को जानना चाहिए ! पहला उपाय साम कहा जाता है, प्रिय बचनवाला जो जीवों के लिए अत्यन्त सुन्दर लगता है। दूसरे भेद उपाय को स्वीकार करना चाहिए । इसके द्वारा शत्रुओं से विरक्त लोगों का सम्मान करके उसका भेदन करना चाहिए।
पत्ता-ये लोभी और जड़ होते हैं, अपमान ही इनकी निधि है । ये डरपोक होते हैं, ये रक्षा करनेवाले अपने राजा और विपक्ष का दुश्चरित बता देते हैं।
हाथी, अश्व, स्वर्ण, रत्न का दान करना चाहिए। यदि कोई स्वजन मिल जाता है, तो अवश्य देना चाहिए। और देश, पुर, ग्राम को जलानेवाला अपकार भी करना चाहिए, उसे श्रेष्ठ
(16) 1. A कोसु दंडेहि । 2 A जाणेब्या; ? जाणेव । 3. AP रित्तिणाह। 4. A विडिय। (17) 1. AP हेमु ।
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70. 18.2] महाकह-पृष्फयंत-विरणयज महापुराणु
159 जिप्पंति हरिस मय कोह काम रिउमाण लोह दुकम्मधाम। जउ बक्खाणिउ इंदियजएण संधि वि मित्तत्तणसंगएण । सावहि णिरवहि इच्छंति के वि पट्टणई वत्थु वाहणई लेवि। विग्गहु बिरइज्जइ दोसदु? दोसेण होइ बंधु वि अणि? ! आसणु गुरु कहइ असक्ककालि अवरोहि बिउलि रातरालि । जाणु वि सलाहु परिवारपोसि किज्जइ वज्जियदुंदुहिणिघोसि। जा किर विम्गहसंधाणवित्ति। तं दोहीअरणु ण का वि भंति । जहिं ण वहइ णियकरहत्थियारु असरणि रिउसेव वि कि ण चारु । 10 परवइ अमच्चु जणठाणु दंडु धणु दुग्गु मित्त संगामचंडु । सत्त वि पयईउ हवंति जेण उज्जउं णउ मुच्चइ ताय तेण। पत्ता-तं णिसुणिवि जणसंतावहर ताएं चावविहसिय ॥ गंजलहर बे वि धवल कसण सुय वाणारसि पेसिय ।।17।।
18 णियतायपसायपसण्णभाव सविणय पणमंत' विमुक्कगाव ।
देहच्छविदूसियरवियरोह जुवरायत्तणसिरिलद्धसोह। शत्र ओं का नाश करनेवाला दंड कहते हैं । हर्ष, मद, क्रोध और काम रूपी और दुष्कर्मों के आश्रय लोभ और मान रूपी अन्तरंग शत्र ओं को जीतना चाहिए। इन्द्रियों की विजय से जीत का बखान किया जाता है, और मित्रत्व की संगति के साथ संधि भी करनी चाहिए। कितने ही लोग अवधि पूर्वक या बिना अवधि के नगर वस्तु और वाहन लेकर संधि की इच्छा करते हैं। दोषों से सहित दुष्ट के साथ विग्रह करना चाहिए क्योंकि दोष के कारण बन्धु भी अनिष्ट होता है । गुरु असंभव काल में दुर्गाश्रय की बात कहते हैं, और विशाल परिवार का पोषण करनेवाले बजते हुए नगाड़ों के घोष के साथ गमन करना ही सराहनीय है, तथा जो युद्ध और संधि की संधान वृत्ति है, उसे द्वैधीकरण कहा जाता है, इसमें जरा भी भ्रान्ति नहीं और यदि अपने हाथ में हथियार नहीं रहता है.तो अशरण की उम अवस्था में शत्र की सेवा करना क्या अच्छा नहीं है? राजा, अमात्य, जनस्थान, दंड, धन, दुर्ग और संग्राम में प्रचंड मित्र-ये सात प्रकृत्तियाँ होती हैं । हे पिता, उससे उद्यम नष्ट नहीं होता।
पत्ता-यह सुनकर लोगों के संताप को दूर करने वाले पिता दशरथ ने धनुष से शोभित दोनों पुत्रों को वाराणसी भेज दिया। मानो वे दोनों काले और सफेद मेघ हों।
(18) अपने पिता के प्रसाद से प्रसन्न, गर्वरहित ये दोनों प्रणाम करते हैं, जिन्होंने अपने शरीर की कांति से सूर्य के किरणसमूह को दूषित कर दिया है, और जो युवराज की लक्ष्मी से शोभा 2.A दोहीकरण, P दोहीअरुणु । 3. A दुग्ग मित्त । 4. जलहर धवल वे वि फसण ।
(18) I A पणवंत; P गवंत; K records ap; यवत। 2. A भूसिय"
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60]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
सुरमहिहर उत्तगसिंग' । विज्जिज्जमाण चलचामरेहिं । पेल्लिज्जमाण कामिणिचणेहि । सुंदर सुबला केवकर्याहिं पुत्त । रमणीयसहित यंत । वाणारसि बिणि दि बीर पत्त । दहिदो वह सिकलसुप्पलेहि । पइति णयरि णं कामवाण ॥
मणिeउडपट्टालिंगियंग सेविज्माण परखेरेहिं जोइज्माण जणवयजणे ह अलिकसणपीय णिवसणणिउत्त दियहि बंधु ते जंत जंत पहचाइय गय सुहजणणपत धयमालातोरणमंगलेहिं णणणायरियहिंदी समाण पत्ता - जणु बोल्लइ दरजे कंची कलाव गुप्पंतु "पहि
कवि मेल्लइ कोतल फुल्लदामु का विणजुयलउं विहलु गणि' कवि दाइ कंकणु का विहारु पत' कवि परिहाणु धरइ
इह ससहरु आवद्द || पुरणारीयणु" भ्रात्रई ॥18॥
19
णीसस का वि जोयंति रामु हा एउ ण लक्खणणहहिं वणिउं । कवि ऊरुलु' कवि मुहबियारु । कविकट्ठदिट्टि जोयंति मरइ ।
[70. 18.3
S
को प्राप्त हैं, जिनके दिव्य शरीर मनि-मुक्ताओं की पदावली से आलिंगित हैं, जो मानो ऊँचे शिखरों वाले सुमेरू पर्वत के समान हैं, ऐसे वे मनुष्य और विद्याधरों द्वारा सेवित चंचल चामरों से हवा किये जाते हुए, जनपद लोगों के द्वारा देखे जाते हुए कामिनिजनों के द्वारा प्रेरित किए जाते हुए जो भ्रमर के समान काले और पीले कपड़े पहने हुए थे – ऐसे सुबला और कैकयी के पुत्र अत्यन्त सुन्दर थे । इस प्रकार दिन-दिन जागते हुए रमणीक प्रदेशों में विश्राम करते हुए वे पूज्य पिता के द्वारा दिये गये वाहनों वाले तथा पथ पर हाथियों को प्रेरित करते हुए वे दोनों वीर वारासी नगरी पहुँचे । ध्वजमालाओं, तोरणों, मंगलों, दधि और दुर्वाओं और श्वेत. कलश पर रखे गए कमलों के साथ अनेक नागरिकाओं द्वारा देखे गए वे दोनों नगरी में ऐसे प्रविष्ट हुए जैसे कामवाण हों ।
10
धत्ता- लोगों ने कहा- यह दशरथ के सबसे बड़े बेटे हैं, जो अपने भाई के साथ आए हैं, तब अपनी करधनियों को छोड़ती हुई, पुर की स्त्रियाँ पथ पर दौड़ने लगतीं ।
3. P सुप्पहा । 4. AP उत्तुंग । 5. P रवणीय" । 9. A पयसंति | 10 A एहु सहोयर 11. A गुप्पंति पहे।
(19)
कोई अपनी चोटी से फूलों की माला छोड़ देती है, कोई राम को देखती हुई निःश्वास लेने लगती है । किसी ने अपने स्वनस्थल को फलहीन समझा और कहा कि इनको लक्ष्मण के नखों ने घायल नहीं किया 1 कोई कंगन दिखाती है, कोई हार। कोई उरुतल दिखाती तो कोई मुखबिंबावर कोई अपनी खिसकती हुई धोती धारण नहीं कर पाती। कोई कष्ट दृष्टि से देखती हुई मर रही
(19) 1 A मुणिउं 12. A हो। 3. AP उरयतु। 4 A पयलंतु का वि
6. P वाराणसि । 7. P धीर 8 A दहिर्वाह । 12. AP पुरे णारी" ।
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70, 20.4]
पुस-महापुरा
कवि सिंच पेम्मले भूमि जड़ इच्छ कह व धरित्तिसामि दारें भत्तारुण जाहुं देइ मणि का वि विरइ चंदवण णं तो जोयमि उब्भिवि करग्ग कर मउलिवि सण कर वि पोमु कवि उरु पहि विडिउ ण वेइ जोयंति रायसुयज्यलतोंडु
पत्ता - कवि विसिवि बोल्लह चंदमुहि सीयइ काई व उत्थउं ॥ जेणेह लद्धरं 'पइरयणु दरिसियकामात्य
in
अodes बुत्त जाहि माइ वयणें बहुणेहपवत्तणेण
जइ एहु ण इच्छद विउलरमणि इय पुररमणीयणजूरणेण
कवि चित एवहि घरु ण जामि। तो जियमि माइ सच्चजं भणामि । पायारु किं पि अंतरु करेइ । तलहत्थि ण जाया मज्झु णयण । गच्छंतु सुह्य सुसारमग्न । आवेसमि जावहि सुवइ पोमु । कवि भिक्खाचारिहि भिक्ख देइ । अत्तर्हि घल्लइ कूरपिंडु |
20
सम्गेज्जसु गाहहु तणइ पाइ । हरि आणहि महु दूयत्तणेण । तो मार मारु मरालगमणि । सज्जनहं मणो रहपुरणेण ।
[61
है । कोई प्रेमजल से धरती को सिंचित करती है। कोई सोचती है कि मैं अब घर नहीं जाऊँगी, और कहती है कि है माँ, धरती के स्वामी यह यदि किसी प्रकार मुझे चाहते हैं तभी मैं जीवित रह सकती हूँ। सच कहती हूँ, पति किसी महिला को जाने नहीं देता और परकोटे पर कोई आड़ कर देता है । कोई चन्द्रमुखी भी अपने मन में अफसोस करती है कि हथेली में मेरे नेत्र क्यों नहीं हैं, नहीं तो दो हाथ ऊँचे करके मैं देख लेती। शुभ श्रेष्ठ मार्ग में जाते हुए उन दोनों सुभगों को हाथ ऊँबे करके देख लेती हैं। कोई अपने हाथ को बन्द कर राम से संकेत करती हैं कि जब कमल मुकुलित हो जायेंगें, तब मैं आऊँगी। कोई पथ पर गिरे हुए अपने नूपुरों को नहीं जान पाती। कोई भिक्षा मांगने वाले को भिक्षा देती है, लेकिन उन दोनों राजपुत्रों के मुखों को देखती हुई भात का समूह दूसरी जगह डाल देती है।
10
घत्ता - कोई चन्द्रमुखी हँस कर कहती हैं कि सीतादेवी ने ऐसा कौन-सा व्रत किया है कि जिससे उन्होंने कामदेव की अवस्था को प्रकट करने वाला पति रत्न प्राप्त किया ।
5. A मणि सविसूर कवि चंद" P मणि सुविसू रद्द कवि चंद° 6 AP हलि हत्यि ण 7. A गच्छंत; P गच्छति । 8. AP अहिंसा धल्लई 9. AP पय रथणु ।
(20)
एक और ने कहा- हे माँ, तुम जाओ और स्वामी के पैरों से लगो । अत्यन्त स्नेह से भरपूर वचनों के द्वारा राम को यहाँ ले आओ । यदि यह इस विशाल रमणी को नहीं चाहता तो उम हंस की चाल वाली को कामदैत्य मार डालेगा। इस प्रकार नगर की स्त्रियों को पीड़ा उत्पन्न करते हुए तथा सज्जनों के मनोरथों को पूरा करने वाले ये दोनों भाई, दधि, अक्षत और निर्माल्य को
5
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62]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
दहिब हुसेभर' नि पियवय कि विवि पाहुडेण fafa सुहिसंबंधपयासणेण किवि हें कि विभुबलि घित्त
भार पड्डु बेवि । कि विदुवणेण रणुभदेण । किवि वसिकय वित्तविहसणेण । वणवाल' चंड मंडलिय जित्त ।
पत्ता - मयरहरहु मनु दूसणु जिणहु अमयहु विसु कि सीसइ ॥ गुणवंतहं दस रहतगुरुहहं दुज्जणु को वि ण दीसह || 201
अच्छति बेविते तेत्यु जाव वरकणय वीढसंणिहिपाउ अत्याणि सिउ सामदेह करचालियाई चमरई पडंति पाढय पढति तहि गड गडति गिज्जति गेय सरठाण लग्ग पडिहारहि अणिबद्धरं चवंतु विष्णप्पइ भष्णइ जीय देव
21
एतहि लंकहि दवयणु ताव । सीहासगिरायाहिराउ । अवइण्णु महिहि णं काममेहु । कप्पूरपउरधू लिउ घुषंति । वाइत्तताल तेत्यु जि घडति' । णच्वंति असेस विदेसिमग्ग' | यिमिज्जइ लोउ वियारवंतु। अमर वि कति कमकमलसेव ।
[70.20. 5
5
10
3
ग्रहण कर राजदरबार में प्रविष्ट हुए। कुछ को प्रिय वचनों से, कुछ को उपहारों से, कुछ को रण से, कुछ को उत्कट दुर्वचनों से, कुछ-कुछ को अच्छे संबंधों के प्रकाशन से, कुछ को वृत्तियों के भूषण से, इस प्रकार उन्होंने लोगों को वश में किया। कुछ को स्नेह से, कुछ को बाहुबल से पराजित किया। इस प्रकार उन्होंने वनपाल और प्रचंड मांडलिक राजाओं को जीत लिया।
( 20 ) | AP सिद्धस्य क्खयसेसाउ 12. A बलवाल ।
( 21 ) 1 AP जवकणय 2. AP चलति । 3. A घुलंति । 4. A देसमग्ग । 5. P जणवइ ।
पत्ता- समुद्र में मल, जिन भगवान् में दूषण और अमृत में विष नहीं होता । इसी प्रकार गुणवान दशरथपुत्रों को कोई भी व्यक्ति दुर्जन दिखाई नहीं दिया।
(21)
नगरी में, जिसने सुन्दर स्वर्ण अग्रभाग पर बैठा था । श्याम था, मानो धरती पर काम मेघ उत्पन्न कर्पूर से प्रचुर धूल उस पर गिरती थी ।
जब वे दोनों इस प्रकार वहाँ रह रहे थे। तब यहाँ लंका पीठ पर अपना पैर रखा है, ऐसा राजाधिराज रावण सिंहासन के शरीर सिंहासन पर बैठा हुआ वह ऐसा मालूम हो रहा हुआ हो। हाथों से चलाये गए चमर उस पर गिरते थे। पाठक चारण पढ़ते, नट नाचते, वाद्यों का ताल भी वहाँ रचा जा रहा था, स्वर और ताल से युक्त गीत गाये जा रहे थे, और सब लोग देशी करें से नाच रहे थे, प्रतिहारियों के द्वारा अंट-शंट बोल कर, विकार युक्त लोग नियंत्रित किए जा रहे थे। यह निवेदन और कथन किया जा रहा था है देव, आप जीवित रहें । देवगण भी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं ।
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[63
70. 21.9]
महाका-पुप्फयत-बिरायड महापुराण पत्ता-दसकंधरु दुद्धरु धरियधर सेयविहूसियदिसबहु ।।
जहिं अच्छइ भरध रत्तिवई' पुप्फयंतसंकावहु ।।2111
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभब्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयतविरइए महाकव्वे सीयाविवाहकल्लाणं णाम
सत्तरिमो परिच्छेओ समतो।। 70 ।।
पत्ता सेज से दिशापथों को विभूषित करनेवाला धरती को धारण करनेवाला रावण जहाँ था, वहीं सूर्य और चन्द्रमा के भय को उत्पन्न करनेवाले भारत में धरती के अधिपति राम भी थे।
सठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा बिरचित एवं महाभब्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का सीता-विवाह
पाल्याण नाम का सत्तरवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
6.Aधीरयकरु। 7.AP°धरित्तिवह।
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एकहत्तरिमो संधि
णरसिरकरखंडणु' कहिं तं भंडणु एम भणंतु जि संचरइ ॥ तहिं विप्पियगारउ आयउ णारउ अत्थागंतरि पइसरइ ।। घ्र वकं ॥ छ।
5
उद्धाबद्धपिंगजडमंडलु पोमरायरयणमयकमंडलु। तारतुसारहारपंडुरतणु' णं ससहरु णावइ सारयघणु । विमलफलिहमणिवलयालंकिउ णं जसुपुरिसरूवु विहिणा किउं। दीसइ एतउ रायहु केर रणकायरभडभयई जणेरडं। कडियलणिहियहेममयमेहलु। हसणु भसणु सबसणु सकलुसु खलु । सोत्तरीयउववीयउरुज्जलु हिंडणसीलु समीहियकलयलु । कयदेवंगवत्यकोवीणउ जुजा अपेच्छमाणु णिरु झोणउ । दिट्ठउ रावणेण पडिदत्तिइ वइसारिउ आसणि गुरुभत्तिइ।
इकहत्तरवीं संधि
10
वह लड़ाई कहा है कि जिसमें मनुष्यों के सिर, हाथों का खंडन होता है, इस प्रकार कहता हुआ जो विचरता रहता है, ऐसा लोगों का अप्रिय करने वाला नारद बहाँ आता है, और दरबार के भीतर प्रवेश करता है।
11
जिसने अपने पीले जटा समूह को ऊपर बांध रखा है, जिसका कमंडलु पद्मराज मणियों से बना है, जिसका शरीर स्वच्छ हिमकण के द्वार के समान सफेद है, मानो चन्द्रमा हो या दीय मेघ । स्वच्छ स्फटिक मणि के बलय से अंकित वह ऐसा मालूम होता है, मानो उसके पुरुष रूप की विधाता ने स्वयं रचना की है, आता हुआ वह ऐसा दिखाई देता है कि जैसे राजा के रण में कायर योद्धाओं के लिए भय उत्पन्न करने वाला हो। उसके कटितल में स्वर्णमेखला थी। जो बहुत हँसता बोलता, ईर्ष्या से युक्त और युद्ध में आसक्ति रखनेवाला था। उत्तरीय को पहने हुए उसका वक्षस्थल उज्जवल था। घूमते हुए, और युद्ध की इच्छा रखते हुए, उसकी कौपीन वस्त्रों की बनी हुई थी। जो युद्ध न होने से अत्यन्त क्षीण हो गया था। रावण ने उसे देखा और
(1) 1, 1 AP परकरसिर 1 2. A बोल्ला णार; P आइउ णारउ । 3. P उद्धाबद्ध पिंगु जडमंडलु। 4.Pपंडर15.A जसरून परिस विहिणा। 6.A एतहो; P एत। 1. Pा । 8. AP बसणु । 9A° उरग्जलु । 10. A रामणेण ।
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71. 2. 10]
महाकपुरकस- चिरइयउ महापुराणु
पुच्छिउ पहुणा परमणसूलउ तं सुणिवि संगामपियारज
कहि बस को महु पडिकूल । आहास दहगीवहु णारउ ।
धत्ता - सुरगिरिसिरि णिवस महिहि ण विलसई संबद वणयहु तणउं धणु ॥ सिद्दिण पावइ सयमहु भावड़ णावइ तुज् ञिभीयमणु ॥ ॥ ॥ ॥
सिहि णं करइ तुहारडं भाणसु मेरिज णेरियदिस ता संभइ रयणायक जं गज्जड़ तं जडु वाउ बाइ किर तुह णीसासें चंदु सूरु किर तुह घरदीवउ
सुरु गरुख जगु तुह बी दसरतण मुसलहलपहरणु परबलपबलसलिलवडया मुहु लक्खणु सुड लक्खविक्खेवणु are horror विणउं
2
डहु बद्दवसु वद्दरिहिं तुहुं वइवसु । जाव ण तुज्झु पयाज वियंभइ । तुहुं जि एक्कु तइलोक्कि महाभडु | बइ फणिवर तुह फणिपायें । सीहु वराउ वसउ वणि सावज । पर पई जिणिवि एक्कु जसु ईहह । दूरमुक्कपररमणीपरहृणु । जासु भाइ रणरसवियसियमुहु । अण्णु वि 'जासु परपणत्थणु । तासु रूवि थिउ विहिणे उष्णजं ।
165
5
10
स्वागत किया। गुरु भक्ति के साथ आसन पर बैठाया। राजा ने दूसरों के मन के लिए शूल के समान उससे पूछा- यह बात बताइए कि कौन मेरे प्रतिकूल है ? यह सुनकर जिसे संग्राम प्यारा है, ऐसा नारद रावण से कहता है.
पत्ता - यद्यपि इन्द्र सुमेरु पर्वत के शिखर पर रहता है, वह धरती पर शोभित नहीं होता । वह कुबेर का धन संचित करता है, फिर भी रात को उसे नींद नहीं आती। ऐसा मालूम होता है जैसे तुमसे भीत मन उसे अच्छा नहीं लगता ।
(2)
आग तुम्हारे यहाँ मानो रसोइये का काम करती है। यम दग्ध हो जाए, तुम शत्रुओं के लिए यम हो, नैऋत्य नैऋत्य दिशा को रोकता है तब तक कि जब तक तुम्हारा प्रताप नहीं फैलता । समुद्रो गरजता है वह मूर्ख है, क्यों कि तीनों लोकों में एक तुम्हीं महासुभट हो। तुम्हारे, निश्वास से हवा चलती है । तुम्हारे नागपाश में नागराज बंध जाते हैं। सूर्य और चन्द्रमा तुम्हारे घर
दीपक हैं। सिंह बेचारा बन में निवास करता है और श्वापद भी । देवताओं और मनुष्यों सहित खग और जग तुमसे डरता है, लेकिन एक आदमी ऐसा है कि जो तुम्हें जीतने की इच्छा रखता है । दशरथ का बेटा, हाथ में मूसल का हथियार रखनेवाला, पररमणी का परिहार करनेवाला ( राम ) और जिसका भाई शत्र ु सेना के प्रबल पानी में बडत्राग्नि के समान है, और जिसका मुख वीर रस से विकसित है ऐसा लक्ष्मण लाखों योद्धाओं को क्षुब्ध करने वाला है, और भी जिसे राजा जनक ने अपनी विशाल पीन स्तनों वाली बाला प्रदान की हैं, जिसके रूप में विधाता का नैपुण्य स्थित है ।
(2) 1 AP परियदेसि। 2. AP हि । 3 AP पोणपीवरथणु। 4. AP ताहि ।
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66]
71.2.11
महाकषि-पुष्पदन्त निरचित महापुराण पत्ता--सा तुज्झु जि जोग्गी लयललियंगी हिप्पइ मड्डइ किंकरहं ।।
सुरसरि झसमुद्दहु होइ समुद्दहु गउ जम्मि वि पंकयसरह ।।2।।
टयर
विष्फुरियाणणु णं पंचाणणु तं णिसुणिवि पडिलब दसाणणु ।
र करिकरभय खल बलपवल' चवल दसरहस्य । रामसामगयसा
मारांम मुहड तुमुल भूगोयर। हरमि परिणि गुणमणिसंचयखणि अहिणवहरिणणयण मयणावणि । पभणइ णारयरिसि कि गावे रावण- विहले वीरपलावें। सरह सीह को दणि संघारइ काल कयंत बे वि को मारह। चंद सूर को खलइ णहंगणि हरि बल को णिहणइ समरंगणि। केसरिकेसछदा को छिप्पइ जाणइ केण पराहिव हिप्पइ । चवइ राउ विरइयअवराहह बालह वाणारसिपुरिणाहह" ।
सिरकमलई खंडेसमि जइयहूं तुई वि तेत्थु आवेसहि तइयहुं। 10 पत्ता--तेलोक्कभयंकरु' वरिखयंकरु धणुगुणटंकारु जि झुणइ ।।
खेयरउरदारणि महुं सरधोरणि रणि रामहु वम्मई लुणछ ।3।। घत्ता-वह स्त्री लता के समान सुन्दरता अंग वाली तुम्हारे योग्य है। अपने चातुर्य से उसे बलपूर्वक किंकरों से छीन लीजिए। क्यों कि गंगा नदी मछलियों से भरे समुद्र की होती है, बह जन्म भर तलाबों की नहीं होती।
जिसका मुख चमक रहा है, ऐसे शेर के समान वह रावण यह सुनकर बोला—मैं धीर, मर्यादा से हीन हाथी के सूंड़ के समान भुजाओं वाले दुष्ट बलवान, चंचल दशरथ के बेटे राम और श्यामल लक्ष्मण को, जो हाथी के समान श्याम हैं, ऐसे सुभटों को तुमुल-युद्ध में मारूँगा और मैं गुणों और मणियों के संचय की खान अभिनव हरिणियों के समान नेत्र-दाली कामदेव की भूमि, उसका अपहरण करूंगा। नारद मुनि कहते हैंहे रावण, गर्व से विह्वल प्रलाप से क्या ? क्यों कि वन में श्वापद और सिंह का संहार कौन कर सकता है ? काल और कृतान्त को कौन मार सकता है? सूर्य और चन्द्र को आकाश के प्रांगण से कोन स्खलित कर सकता है ? युद्ध के प्रांगण में राम और लक्ष्मण को कौन छ सकता है ? हे राजन्, जानकी का कौन अपहरण कर सकता है? तब राजा कहता है-अपराध करनेवाले वाराणसी नगरी के राजा उन दोनों बालकों के सिरकमलों को जब मैं काढूंगा, हे मुनि तब आप वहाँ आना।
घत्ता-फिर तीनों लोकों में भयंकर शत्रुओं का नाश करनेवाला रावण धनुष की टंकार करता है। और कहता है-विद्याधरों के बक्षस्थलों को चीरने वाली मेरी बाणों की परम्परा युद्ध में राम के कवच को छिन्न-भिन्न करेगी। 5 AP मंडइ 16. P ससमूहह ।
(3) 1. AP रणपबल। 2. रामण। 3.A केसरसक; P°केसरसा। 4. AP कि! 5. AP घिप्पइ। 6. AP वाराणस"। 7.A तइलोक।
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71.5.2]
महाकइ-पुरफयंत-विरइयउ महापुराण
[67
5
ता परियाणवि कलहळु कारण अबसें होसइ एत्थु महारण । गउ णारउ णियमणि संतुटुउ वीसपाणि मंतणइ पइट्ठउ । दुट्ठ अणि? विसिठ्ठ ण सिट्ठउ मंतिउ' मंतु सबुद्धिइ दिट्ठउ । तणुलायण्णवण्णजलवाहिणि हिप्पइ रहुकुलणाहु गेहिणि । मारिज्जति भाइ ते भीसण भणु मारीयय भणइ बिहीसण । तं णिसुणिवि मारीए वुत्त परवहुरमणु णरिंद अजुत्तउं। परवहुरमणु धम्मणिल्लूरणु परवहुरमणु सयणसयजूरणु । परवहुरमणु कित्तिविद्ध सणु परवहुरमणु विमलकुलदूसणु । परवहुरमणु पराहबमारउं परवहुरमणु णरयपइसारउं। पत्ता-परयारु सुविट्टलु दुक्खहं पोट्टलु दुग्गमु दुज्जसपरिया॥ बहुभवसंसारणु सिवगइवारणु पावासवविहिवासघर ।।4।।
5 दुत्तरमोहमहणवि
धू परवर मणु करइ जो मूढउ । तुहुं धई बहुसत्थत्यवियाणउ अण्णु वि सयलहि पुहइहि राणउ ।
10
तब इस कलह के कारण को जानकर कि अब अवश्य ही महायुद्ध होगा, नारद अपने मन में संतुष्ट होकर चला गया और रावण भी परामर्श के लिए महल में प्रविष्ट हुआ। उसने यह दुष्ट अनिष्ट बात विद्वान् मंत्री से नहीं कही, अपनी बुद्धि से ही इस बात का विचार किया कि शरीर के सौन्दर्य और वर्ण की नदी रघुकुलनाथ की गृहणी का हरण किया जाए, उन भयंकर भाइयों को मार दिया जाए । यह मारीच से कहो । तब विभीषण कहता है । यह सुनकर मारीच बोला, हे राजन्, परवधू से रमण करना अनुचित है, परवधू का रमण धर्म का नाश करने वाला होता है, परवधू का रमण आत्मीय जनों को संताप पहुंचाने वाला होता है। परवधू का रमण कीर्ति का नाश करने वाला होता है। परवधू का रमण पवित्र कुल को दोष लगाने वाला है। परवधू का रमण दूसरों का अपकार करने वाला है, परवधू का रमण नरक में प्रवेश कराने वाला है।
धत्ता-परस्त्री अत्यन्त नीच दुःख की पोटली होती है। दुर्गम और खोटे यश की समूह है, अनेक लोकों में घुमानेवाली एवं मोक्षगति का निवारण करनेवाली और पापाश्रय विधि का वासघर होती है।
जो मूर्ख व्यक्ति परवधू से रमण करता है, वह नहीं तरने योग्य मोह रूपी महासमुद्र में जा गिरता है। तुम अनेक शास्त्रार्थों को जानने वाले हो, और फिर सकल धरती के राजा हो। जो
(4) 1. A परितच 1 2. AP वइट्ठउ । 3. AP वसिद्धउ । 4. AP मंतिए। (5) I.AP सई।
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महाकवि पुष्पात विरचित महापुराण
[71.5.3 जो पडिकूलु होइ सो हम्मइ परवड पुणु सिविणि विण रम्मइ । भणइ दसाणणु जणसामण्णहं . जणएं जाणिवि दिण्णी अण्णहं। थीयणसारी णयणपियारी चपयगोरी हिययवियारी। सेलसिहरसंचालणचंडहिंसा अवरुंडमि जब भुयदंडहिं । तो सकयत्थु महारउं जीविउ तो मई णरभवफल संप्राविउ । जइ तहि तं मुहकमलु ण चुंबमि तो अप्पाण काई विडंबमि ।
कम्मणिबंधणेण णिक्काजें कि महुँ माहियलेण कि रज्ज। धत्ता-हरिणच्छिहि वत्तइ सुइसुहमेत्तई' उप्पाइउ मणि कलमलउ॥
10 रइकायरु कंपइ पुणु पुणु जपइ दहमुहु विरविसंठुलउ ।। 5 ।।
मुज्झिवि अंतरंगु दहगीय वाय विणिग्गय मुहि मारीयह। कामदाणसंताणहिं भगउ जा तुहं महिवइ सीयहि लग्गउ । तो वि मयणु मग्गं माणेवउ रत्तविरत्तचित्तु जाणेव । तं जाणिज्जइ विविहपयारे विडगुरुभासिएण सुयसारें।
अंसयदेसिजाइपरइत्यहु इंगियसत्तभावरसगुत्थहु। तुम्हारे प्रतिकूल है, उसे तुम्हें मारना चाहिए । लेकिन परवधू का रमण तुम्हें स्वप्न में भी नहीं करना चाहिए। तब दशानन कहता है--जनक ने जान-बूझकर (मुझे छोड़कर) किसी अन्य जनसामान्य को जानकी दे दी है। स्त्रीजन में श्रेष्ठ नेत्रों के लिए प्यारी, चंपक के समान गोरी, हृदय को चूर कर देने वाली ऐसी उसका, मैं (रावण) पर्वत शिखरों के संचालन से प्रचंड अपने भुजदंडों के द्वारा यदि उसका आलिंगन करता हूँ तो मनुष्य जीवन पाने का फल पा लेता हूँ। इसलिए यदि उसका मुखकमल मैं नहीं चूमता तो मैं अपने को बिडम्बित क्यों करता हूँ ? बेकार कर्म (निष्प्रयोजन) से क्या ? मेरे राज्य से क्या और धरती से क्या?
पत्ता-कानों के लिए सुख को मात्रा के समान उस मृगनयनी के वार्तामात्र से मेरे मन में हलचल मच गई है। रति में कायर रावण विरह से अस्त-व्यस्त होकर काँप उठता है, और बारबार कहता है।
(6)
तब रावण का मन जानकर मारीच के मुंह से यह बात निकली--काम के वाणों की परम्परा से नष्ट हुए हे राजन्, यदि तुम सोता से लग गए हो तब भी तुम्हें कामदेव के मार्ग से उसे मानना चाहिए । रागी विरागी चित को जानना चाहिए । तथा काम्य-शास्त्र में कामाचार्य द्वारा कहे गए विविध प्रकार के इंगितों, सात भावों और रसों से परिपूर्ण हसादि देसी तथा जाति भेदों वाले स्त्रीसमूह में कामिनी को जानना चाहिए। इस प्रकार जो धरती पर कामिनियों को जानता 2. A सावष्णहं 3. AP हिपयपियारी। 4 AP omit सा; A अवरुडिवि। 5. AP संपाबित। 6. A णिपकज्जें। 7. A रायमूह ।
161 1. APमाणियउP जाणेच। 3. A जाईपयो : P जाइपयइत्यउ। 4.A "रसगुरुपर ।
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71-7.5]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण कामिणीउ जो महियलि जाणइ सो लंकाहिव रइसुहं माणइ । भई मंद लय हंसि चउत्थी चउविह महिलाजाइ पसत्थी। भद्द भणमि सवंगसुरूविणि मंद थूलगुरुपेढालत्थणि'। लय दीहरतणु लय जिह पत्तल खुज्जी णारि मरालि समासल । रिसिविज्जाहरजक्खपिसायहं अंस होंति रमणीसंघायहं । तावसि उज्जुब भुभुलभोली खेयरि महराकुसुमरसाली।
जक्विणि धणकणलोहपरबस अडण पिसल्ली भणिय सतामस । घत्ता-मारसि भिगि रिट्टिणि ससि धयरविणि महिसि खरी मयरि विजुवइ ।।
सत्तें दीसते" रइसइकतें वसुविह् कह्यि णिसुणि णिवइ ।। 6 ।।
10
वच्छत्थलु थणकलसहि पेल्लइ सारसि पिययमसंगु ण मेल्लइ। मिगि णियबंधवदाणे मण्णइ तज्जिय तसइ गेउ आयण्णइ । पत्तहंडक्खिणि वायसरव रिणि ठाणु मुयइ रणभइरव । ससि णिम्मीलियच्छि दुहभायण णिग्घिण परहरगासालोयण ।
धयरटुिणि सररुहसरकीलिणि महिसि कराल रोसरसवालिणि। है, हे लकाराज, वह रति सुख को मानता है । भद्रा, मंदा, लता और चौथी हंसा यह चार प्रकार की महिलाजाति प्रशस्त मानी गई है। भद्रा को मैं कहता हूँ कि वह सर्वांग सुन्दर होती है, जबकि मंदा अत्यन्त मोटो और भारी चौड़े स्तनों वाली होती है। लता लंबे शरीरपाली एवं लता के समान पतली होती है । हंसा नारी कुबड़ी और थुलथुल. (मांसल) होती है । ऋषियों, विद्याधरों, यक्षों और पिशाचों को जो रमणीय समूह है. वह हंसा होती है । तापसी नारी सीधी और स्वभाव से भोली होती है। विद्याधरी मदिरा और कुसुमों में आसक्त होती है। यक्षिणी धन-धान्य के लोभ के अधीन होती है, और पिशाचिनी घूमने वाली और तामस भाव से मुक्त कही जाती है ।
घत्ता-सारसी, मृगी, रिष्टणी, शशि, धृतराष्ट्रणी, महीषी, खरी और मयूरी युवतियां भी होती हैं । इस प्रकार कामदेव की आठ प्रकार की युबतियाँ कही गई हैं। हे राजन् उन्हें सुनिए ।
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इनमें सारसी प्रिय के बक्षस्थल को अपने स्तनरूपी कलशों से प्रेरित करती है और प्रियतम के संग को नहीं छोड़ती। मुगी अपने भाइयों के दान के द्वारा संतुष्ट होती है। डॉटने पर प्रस्त होती है। और गीत सुनती रहती है। रिष्टणी पुत्र रूपी भांड से दुःखी कौवे के समान स्वर वाली, रण से भयंकर अपने स्थान को छोड़ देती है । शशि अपनी आँखें बंद किए हुए दुःख की भाजन होती है। दूसरों के घर पर भोजन करने वाली होती है। धृतराष्ट्रणी कमलों के तालाबों में क्रीड़ा 5. P adds after this : णरवर मंदा णिणि णिबिणि 6. Pमाणि घुलगुरुपोढविलासिणि । 7. AP add after this : णउ सेविजजइ सा वि यलक्खणि 18. AP भुभुरभोली; T भंभुर। 9AP रिट्रिणि। 10.AP दीसलें।
(7) 1A मृगि णिवबंधय ।
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70]
महाकवि पुरुपवत
खरि खेल्लति हसइ कहक हसय मरि मासासिणि दढगाहिणि सुणि देसी णिहिलदेसाहिय ससहावें लंपडि खरभासिणि धत्ता - अब्बु
विरचित महापुराण
सहइ पायपहरु विघल्लिउ करु । कयसाहस कुकम्मणिव्वाहिणि । इह मालवण होइ इच्छयसिव | वाणारसि संभव वणवासिणि ।
जा कामिणि मंथरगामिणि सा पहिलउं जि द ह । free trafia रहर संविधि पच्छइ सरकीलणु' करई || 7 ||
सिंधु पुणु पियगेयहुरप्पइ मायाबहुलु भाउ कोसलियह afafs" दंतणहछेहु सक्कइ ललियालावें लाडि लइज्जइ कालिंगी उवया पउंजइ' सोरट्टिय आउंबणी अवर महारट्ठी जर सीसइ
8
प्राणु' वि दक्षिणु वि दयहु अप्पद । भइ रइगुणेण सिंघलियहि । अंधिणि ब्भिररयहु चमक्कई । उडि रमण विष्णाणे भिज्जइ । रक्ख सुक्रुक् वि रंजइ । गुज्जरि णिच्चसयज्जहु लट्ठी 1 ता तहि धुतत्तणु पर दीसह ।
[71.7-6
10
5
करने वाली होती है। महिषी अपने भयंकर क्रोध रस का निर्वाह करने वाली होती है। खरी खिलखिलाती है, और ठहाका मार कर हंसती है। मारे गए हाथ और पैरों के प्रहार को भी वह सहती है। मयरी मांस खाने वाली मजबूत पकड़ वाली अत्यन्त साहसी तथा कुक्रमों का निर्वाह करने वाली होती है । हे अखिल देशों के राजा, देसी स्त्री को सुनिये । मालवी स्त्री अपना मतलब चाहने वाली होती है। स्वभाव से लंपट और अत्यन्त कर्कशबोलने वाली होती है। बनारस की स्त्रियां क्रीड़ा को चाहने वाली होती हैं ।
धत्ता-अर्बुद की जो स्त्री है, वह मंदगामिनी होती है, और सबसे पहले आदमी का धन हरण करने वाली होती है । और दिन की मर्यादा मानकर रतिसुख का संधान कर बाद में काम कीड़ा करती है ।।
(8)
सिंधु देश की स्त्री अपने घर में प्रसन्न रहती है । और अपने प्राण और धन दोनों ही अपने पति को अर्पित कर देती है। कौशल देश की स्त्री का भाव अत्यन्त मायावी होता है। सिंहल देश की स्त्री को रति गुण से ही पाया जाता है। द्रविड़ देश की स्त्री दांतों और नखों के क्षत को सहन कर सकती है । आन्ध्र देश की स्त्री परिपूर्ण रति से चौंक उठती है । मधुर आलाप से गुजरात की स्त्री शरमा जाती है। उड़ीसा की स्त्री का भेदन रमण-विज्ञान से ही किया जा सकता है। कलिंग देश की स्त्री उपचार का प्रयोग करती है। राक्षस, पुण्यात्मा और रूखे किसी का भी रंजन करती है । सौराष्ट्र देश की स्त्री चुम्बन से संतुष्ट होती है। गुजरात की स्त्री नित्य अपने काम में निपुण
2. AP मुणि। 3. A अच्छए। 4. AP सुरयकील ।
( 8 ) 1 AP संधवि 2 A पिमणेह P पियगेहहु । 3. AP पाणु 4 P घणेण । 5. AP दिविति । 6. AP अंणि 7. AP पवज्जइ । 8. AP सुक्ख । 9. P रुक्ख ।
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71.9.6]
महाकइ-मुष्यंत विरइयउ महापुराण
कोकणयहि इकाई त्रि दिज्ज दरिसियहरिसियत्रम् महलीलउ करइ किपि चंगउं ववसायउं हिमवंती विमंतबीक्खरु मज्जएसणारीड कलालउ
धत्ता - संसयजुत्तहं जाइहि सत्तहं सयलहं पयइणिवासु हि ।। गिरिसरिहरठाणं अमरविमाण
सावितिविह णरजम्मि विज्झइ पित्तपrs रूसइ खणि खणि गोरी बुद्धिवंत पिंगल उष्णय सिहिणवरंग' मुणेज्जसु सीयलु गंधु सेज' पंगुरणउं सिभपयइ सामल वण्णुज्जल
तोतिं पाडलिउत्तियाउ करणालउ । पारियत पुरिसाइड |
जाणइ जेण" पड गायहि वरु । होति राय सयदल सोमालउ ।
9
मय रहरहं तेलोक्कु जिह् ॥8॥
पित्तभिमारुयहिं णिरुज्जइ । संतोसेवी धुत्त दिणिदिनि । भउएं किज्जइ सारइनिभल" | सीलु तहि आलिंग देज्जसु । सीयलु" ताहि जि सुरयारुणचं | अहिणव वायलीकंदल कोमल ।
[71
होती है। और यदि मराठी स्त्री के बारे में कहा जाये तो उसमें केवल धूर्तता ही दिखाई देती है । कोंकण देश की स्त्री को यदि कुछ दिया जाये तो वह उसका विचार करती हुई दुबली होती जाती है। जो हर्षित होकर कामदेव की कीड़ा का प्रदर्शन करती है, ऐसी पाटलीपुत्र की स्त्री अपने स्तन के ऊपर स्तन रखने वाली होती है। पारियात्र देश को स्त्री पुरुष के प्रतिकूल कुछ भी अच्छा या बुरा व्यवसाय करती है । हिमवंत देश की स्त्री मंत्र के बीजाक्षरों को जानती है। इससे पति उसके पैरों पर गिरता है । हे राजन्, मध्यदेश की स्त्रियाँ कलायुक्त होती हैं, और कमल के समान कोमल होती है।
10
पता- सैकड़ों देशों से युक्त सभी सातों जातियों की प्रकृति का निवास इनमें उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार पहाड़, नदी, धरती के स्थान, अमर विमानों और समुद्रों का त्रिलोक में होता है।
(9)
उस स्त्री को भी मनुष्य जन्म में तीन प्रकार से रचा गया है, कफ और बात के द्वारा उसे अवरुद्ध किया गया है। पित्त प्रकृति वाली स्त्री क्षण-क्षण में क्रुद्ध होती है। उसे प्रतिदिन धूर्तता से संतुष्ट करना चाहिए। गौरी, बुद्धिमती, पीले नख वालो को कोमलता के साथ रति से विह्वल बनाना चाहिए। उन्नत स्तनों और श्रेष्ठ अंग वाली को समझना चाहिए और उसे धीरे-धीरे आलिंगन देना चाहिए। जो शीतलगंध, स्वेतपट और शीतल हो उसे सुरति का आरोहण देना चाहिए। कफ प्रकृतिवाली श्यामल और उजले रंग को होती है, तथा नये केले के पत्ते के
10. A भिज्ञ
11 AP जेहि । 12. AP मज्झदेस" | 13. AP महि" ।
( 9 ) 1.AP विबज्झइ 2. AP रहवेंभल । 3. AP उण्य 4. A सीख। 5. AP सीयलु सीमलु सुरयाहरणउं ।
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72] महाकवि पुष्पवन्त घिरचित महापुराण
[71.9.7 दिदुइ दोसि णिरुत्तउ चुक्कइ पुणु जम्मि वि ण संमुह ढुक्कइ । सच्चे विणएं दाणे घिप्पड़
इयरह पुणु तहि अंगु ण छिप्पइ । रइजल पोंभल मउ सोणीयलु णिप्पडियंध चारु तणुपरिमलु । आयंबिरणह सोहियकमकर सुंदरि साहारणसुरयायर।
10 कसण फरूस मरुपमइ विलासिणि बहु अहारु लेइ बहुभासिणि। पत्ता--करकहिणपहारहिं सद्दगहीरहि पयडउं पडु विडु जइ रमद ।। परिभमणपरिक्वहि कालकडक्खहि ता कामग्गि ताहि समइ ।।9।।
10 जहिं एयइइ पथइइ फुड भिण्णी सा तोंतडिय दोहि संकिणी। जिह पयइउ' तिह बिहिं बिहिं जायई अंसयसत्तई मई विण्णायई। जाइउ देसिउ तिह मई बुद्धउ । भाउ दुबिहु अविसुद्ध विसुद्धउ । पहिलारउ सवत्तिसहवासें वयपरिणामें दीहपवासें। आसंकइ चामीयरलोहें
अवरेहि वि कारणसंदोहें। वह असुद्धभाउ णारीयणु तेण वि वेयारिज्जइ जडयणु। आलोयंतहं संमुहूं जोय
मुहं वियसावई' करयल ढोबइ। समान कोमल होती है। दोष दिखाई देने पर वह चुप-चाप हो जाती है। फिर जन्म भर सामने नहीं आती। फिर सत्य, विनय और दान से ही वह ग्रहण की जाती है। दूसरी तरह से शरीर का स्पर्श नहीं किया जा सकता । वह रति जल से प्रचुर होती है। उसका स्वर्णिम तल कोमल होता है। और उसका शरीर रूपी सौरभ दुर्गन्धरहित होता है। उसके नख लाल होते हैं। काम करती हुई शोभित होती है, ऐसी वह सामान्य सुरति में आदर रखने वाली होती है। कृष्ण कठोर और विलासिनी होती है । वात प्रकृति वाली बहुत खाती है और बहुत बोलती है।
घता-- चतुर, प्रेमी उससे हाथ के कठिन प्रहारों और गंभीर शब्दों के द्वारा, रूप से उसे रमण करता है। आलिंगन, चुम्बन आदि तथा कठोर बाटाक्षों के द्वारा वह उसकी कामाग्नि को शांत करता है।
(10) जहाँ प्रकृति-प्रकृति से स्त्री भिन्न होती है, दोनों से संकीर्ण वह मिश्रित होती है। जिस प्रकार की प्रकृति होती है, उसी प्रकार दो-दो प्रकार के भेद होते हैं । इस प्रकार हंस आदि और सात्विक स्त्रियों को मैंने जान लिया। देसी जाति को भी मैंने उसी प्रकार जान लिया 1 भाव भी दो प्रकार के होते हैं। विशुद्ध और अविशुद्ध । पहला भाव अपनी पत्नी के सहवास से होता है। दूसरे (अविशुद्ध भाव) को बय के परिणाम, दीर्घ प्रवास, स्वर्ण लोभ और दुसरे कारण समूह से नारीजन धारण करती हैं। इनसे भी मूर्खजन विकार को प्राप्त होते हैं । वह देखनेवालों के सामने देखता है, मुख का विकास करता है, और करतल उस पर रख देता है। हे देव, ऐसे भी नारीजन 6. APT पिप्पडियम्म; K णिपडियंध but records a p: णिप्पडियम इति पाठे संस्काररहितः । 1.AP भवण 18. A तो।।
(10) 1 A पइओ। 2. P जणुउ । 3. AP सवित्ति” 4. AP °पयासें । 5. AP अवरेण । 6. AP जडमणु। 1. AP विहसावइ ।
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71. 11. 10]
सो वि देव विसहि पालिज्जइ मंदु तिक् तिक्खर पत्त पत्ता - भल्लाउं शिवसणु रयण विहसणु जो णु णारिहि हरइ मणु ॥ तं" पुणु पिएं पिडीहूएं मयणहुया से उहृद्द तणु 10 ||
महाकपुष्कपंत विरइयउ महापुराण
ताहि दूचि का वि पेसिज्ज इ इंगिएहि देहुभव लिंगहि भुक्खड़ भग्गी अण्णहु लग्गी गणकं णिद्दालस मत्ती रुट्टी गिट्ठर कट्टपलाबिगि सीय' विसेसि परकुलउत्ती तोचि जाउ चंदहि सुदेहिहि ता पेसिय सा" राएं तेतहि ग गयणंगणेण सा खेयरि जोयइ' चित्तकूडु णंदणवणु
बुद्धिs संकिण्णत्तणु णिज्जइ । सुद्धभाव तिहि भेयहि जुत्तद ।
||
ताइ भावसंभव जाणिज्जइ ।
haणणे हसणे पसंग srifs कमखल संसग्गी । सुहसोयाउर परगयचित्ती । एही उ सेविज्जइ भाविणि । एक्क वि एत्यु जुत्ति गउ जुत्ती । मणअवहृणु करउ वह देहिहि । तं वाणारसिपुरवरु जेत्तहि । पंडुभवणावलि जोवि पुरि । णं महिमहिलहि केर जोब्बणु ।
1
[73
10
5
9. P तें पुणु । 10. AP दहई ।
( 11 ) 1 सीलविसेसि 2. AP राएं सा । 3. AP वाराणस° 14. AP जोइय ।
10
का चतुर लोगों को पालन करना चाहिए और उसे बुद्धि से संकीर्ण भाव की ओर ले जाना चाहिए। मंद, तीक्ष्ण और तीक्ष्णतर - शुद्धभाव इन तीन भेदों से युक्त कहा गया है।
धत्ता -- सुंदर निवसन, रत्नभूषण और यौवन नारी का मन हरता है । फिर उसे प्रिय के दूत के निकट होने पर कामदेव को आग जलाने लगती है।
( 11 )
इसलिए वहाँ पर किसी दूतो को भेजना चाहिए। उसके द्वारा संकेतों, शरीर से उत्पन्न चिह्नों, किए गए स्नेह और अस्नेह के प्रसंगों के द्वारा उसके भावों की उत्पत्ति को जानना चाहिए। भूख से मग्न, किसी दूसरे से लगी हुई, धन की लालची, दुष्टों का संसर्ग करनेवाली, गमन की आंकाक्षा रखने वाली, निद्रा से आलसी, मतवाली, सुधीजनों के लिए शोकातुर, दूसरे में चित लगाने वाली, रूठी हुई, निष्ठुर और कठोर भाषण करने वाली स्त्री का सेवन नहीं करना चाहिए। सीता विशेष रूप से श्रेष्ठ कुल की पुत्री है। उसके संबंध में यह एक भी युक्तियुक्त नहीं है । तव भी हे चन्द्रनखे, तुम जाओ और सीतादेवी के मन का अपहरण करो। तब राजा ने उसे वहाँ भेजा जहाँ श्रेष्ठ वाराणसी नगरी थी। आकाश के प्रागंण से वह देवी वहाँ गई, और सफेद घरों की पंक्तियों वाली उस नगरी को देखकर वह चित्रकूट और नंदन बन को इस प्रकार देखती है, मानो धरती रूपी महिला का यौवन हो ।
8. A
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74]
[71. 11.11
महाकवि पुष्पदन्त धिरमित महापुराण घता-महधारहि सित्तउं णावइ मत्तउं मलयाणिलसंचालिउ ।
णवतरुवरसाहहिं पसरियबाहहिं णं णच्चंतु णिहालिउ ॥1॥
12
रुक्खमूलरोहियधरायल कुसुमधूलिधुमरियणहयलं । फीलमाणसाहामयालय __ गयणलग्गतालीतमालयं । बिल्लचिल्लवेइल्लसदलं हरिणदंतदरमलियर्कदलं'। सच्छविचछुलुच्छलियजलकणं अयरुदेवदास्यहि घणघणं । विडविणिहसणुग्गमियड्डयवहं सुरहिधूमवासियदिसामुह । परिघुलंतककेल्लिपल्लवं पबणचलियमहिलुलियमहुलवं । बालबेल्लिविलएहिं णवणवं कीरकुररकारंडकलरव । अलयवलयविललंत अलिउल विविहकीलणावासपविउलं।
केयईर उक्खुसियमाणबं रमियखयरजक्खिददाणव । घत्ता-तहिं पयडियभावइ बहुरसदाबइ सिसुमाणिणिमणमोहणइ ।।
जण'इच्छियकोमलि बरवण्णुज्जलि णाइ कवि सुकइहि तणइ ॥12॥ पत्ता-मधु की धाराओं से सींचा गया एकदम मतवाला जो मानो मलयपवन के द्वारा संचालित हो, वह नववृक्षवरों की शाखाओं से मानो बाहें फैलाकर नाचता हुआ दिखाई दिया।।
(12) जहाँ भूमितल' वृक्षों की जड़ों से अवरुद्ध है, आकाशतल कुसुमधूलि से धूसरित है, जो खेलते हुए वानरों का घर है. जिसमें ताड़ी और तमाल वृक्ष आकाश को छू रहे हैं, बिल्व चिंचा और बेल के पत्तों से जो युक्त है, अगुरू और देवदारू वृक्षों से जो आच्छादित है, जिसमें वृक्षों के संघर्ष से अग्नि उत्पन्न हो रही है, जिसमें सुरभित धूप से दिशामुख सुवासित हैं; जो अशोक वृक्ष के पत्रों से व्याप्त है, हवा के चलने के कारण जिसमें बसंत लता धरतीतल पर लुठित है । बाल लताओं के घरों के द्वारा, जिसमें कीर, कुरद और कारंड पक्षियों का नब कलरब हो रहा है। बालों के समह के समान जिसमें भ्रमर मंडरा रहे हैं, जो विविध क्रीड़ाघरों से प्रचुर है, जिसमें मनुष्य केतकी पुष्पों को रज से लिप्त हैं, जिसमें विद्याधर, यज्ञेन्द्र और दानवेन्द्र क्रीड़ा करते हैं ।
पत्ता-सुकवि के काव्य की तरह जो भावों को प्रगट करने वाला है, अनेक रसों को प्रदशित करने वाला है। शिशु माननियों के मन को मोहने वाला है, जो जनों की इच्छाओं की तरह कोमल है। (जिसमें लोगों के द्वारा कोयल को चाहा जाता है), जो श्रेष्ठ रंगों से उज्ज्वल है, ऐसे उस नंदन वन में।
(12) 1.A सोहिय । 2. AP षड्ढमाणहितालतालयं। 3. P"दरदरिय: 4.AP "धूप। 5. A "कारंडकुलरवं । 6.A "रख उक्खुसिय" ।
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71. 13. 12]
महाकष- पुष्कयंत विरइय महापुराण
13
उम्गयचंदणि उरगयचंदण उण्णयवंदणि कयजिणदण' । लोहियकंदइ सुहितरुकंदा' गुरुमाइंदइ जियमाइंदा । मोय करइमोया' फुल्लासोयइ वियलियसोया । लग्गपियाले पिपियाला ' कीलासेले धीर व सेला" । खगरावाले बहुरावाला सरकमलाले गुरुकमलाला । महयरगीए मणहरगी " छायसी ते सहुं सीयइ" | बहुपुहरुहि पुहइसमेया सिवए सिवढोइयरिउमेया । aftaarat कामियकामा लक्खगरामड़ लक्खणरामा । पंदववणि छुट्टा फेसरबरवहिणिड दिट्ठा । सउरेह की लार गहियणबल्ल फुल्ल मंजरिरय । घत्ता--कयकिसलयकण्णउ कुसुमरवण्णउ णं देवि वणवासिणिउ" ।। दुमसाहंदोलणि उववणकीलणि लग्गज रायविलासिणिउ ॥ 13 ॥
[75
10
(13)
जिसमें चंदन वृक्ष उगे हुए हैं, ऐसे उस वन में राम और लक्ष्मण के हृदय में चंदन संलग्न है। जिसमें रक्त चंदन के वृक्ष उन्मत हैं, ऐसे वन में जिनेन्द्र की वंदना करते हैं। जिसमें रक्तकंद वृक्ष हैं, ऐसे वन में वे (राम और लक्ष्मण) मित्र रूपी वृक्षों के लिए मेघ के समान है। जिसमें प्रचुर आम वृक्ष हैं, ऐसे वन में जो चन्द्रमा और लक्ष्मी को जीतने वाले हैं। जिसमें कदली वृक्ष बढ़ रहे हैं, ऐसे बन में जो रति क्रीड़ा करने वाले हैं। जिसमें अशोक वृक्ष विकसित हैं, ऐसे जो शोक से रहित हैं, जिसमें अचार वृक्ष आकाश को छूते हैं, ऐसे उस वन में वे दोनों नित्य अपनी प्रियाओं से युक्त हैं। क्रीड़ा वन में जो पर्वत के समान धीर हैं, पक्षियों के कलरव से युक्त वन में जो गुरु के चरणों को चाहने वाले हैं, भ्रमरों के मधुर गीत वाले वन में, मधुर ग्रीवा (सीता के साथ) छाया से शीतल बन में (सीता के साथ ) प्रचुर महीवृक्षों वाले वन में, पृथ्वी ( लक्ष्मण की पत्नी का नाम) के साथ सुखद वन में वे पशुओं को शत्रुओं का मांस देने वाले हैं। जिसमें अमल और प्रचुर जल है ऐसे वन में जो वांछित अर्थों को भोगने वाले हैं; जो सारसों से रमणीय है, ऐसे नंदन वन में राम और लक्ष्मण शीघ्र प्रविष्ट हुए। अपने हाथों में नई पुष्प मंजरी धारण करने वाले और अन्तःपुर के साथ कोड़ा करने वाले वे दोनों रावण की बहिन द्वारा देख लिए गए।
पत्ता - जिसने किसलयों के कर्ण फूल धारण कर रखे हैं, जो पुष्पों से ऐसी सुन्दर है मानो वनवासिनी देवी हो, वे राजवनिताएँ वृक्षों की शाखाओं के आन्दोलन वाली उपवन क्रीड़ा में रत हो गई ।।
(13) 1. AP चंद | 2. AP बंदणे । 3. AP कंदए । 4. AP मायंदए। 5. AP मोयए । 6. P सोया। 7. P विवाले। 8. P वीर व T बीर वसेला वशा इसा ययोस्ती दशेलो। 9 AP गी। 10. A गया। 11 AP छाहीं 12. A सीया । 13. AP पर्यारक्कीमए । 14. A
सेला छाहिय
उदवण ।
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761
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[71.14.1
14
काइ वि जणणयणहं रुच्चंतिइ मोरें सहूं सहासु णच्चंतिइ । सोहइ कमलु दुवासिहि धरियउं णालंतालिपिछविच्छृरियउं। णाई कंडु रइणाहहु केरउ दावइ सुरणरह्यिवियारउ । काइ बिसाउं वि स चमकई गइलीलाविलासि मोचक्कर काहि वि छप्पउ लंग्गज करयलि जडु अप्पउं मण्णइ थिउ सयदलि । काहि वि णियड णं ओलग्गइ एणउ दोहकडविखउ मगइ। काइ वि उप्पलु सवणि णिहित्तउं कुम्माणउं ण णयहि जित्त। कुवलयकिकिणिमालाजुत्तउं काइ वि बद्ध वेल्लिकाटिसुत्तउं। काइ वि जाइवि मड्डइ धरियउ कुसुमरएण' रामु पिंजरिउ । संशारादगं गया . . . देगा" य मोहन पां सारयधणु। जाइहुल्लु अण्णइ तहु ढोइउं अपणइ सरसु वयणु संजोइडं। जाइवंत कि जाइ भणिज्जइ जा महुयरसएहिं माणिज्जइ।
तो वि भडारी सीसें बज्झइ अपकज्जि जणु सयलु वि मुज्झइ । पत्ता-सव्वंगहि सुरहिउ बरमरुवउ पिउ रुणुरुटेप्पिणु धुडिय॥
मोग्गरउ मुएप्पिणु अंगु धुणेप्पिणु तासुप्परि" महुयरि चडिय ।।14।।
स
लोगों के नेत्रों को प्रिय लगती हुई, मयूर के साथ एवं हंसी के साथ नाचती हुई किसी के द्वारा अपने दोनों पावत्र भागों में धारण किया गया नाल (मृणाल के) के अंत में मधुकर रूपी पख से शोभित कमल ऐसा मालम होता है, मानो सूर नर के हृदय को विदारित करने वाले कामदेव का तीर दिखाई दे रहा हो । किसी के साथ हंस चलता है, परन्तु वह उसकी गति लीला विलास में चूक जाता है । किसी की हथेली से भ्रमर आ लगा। वह मूर्ख समझता है कि मैं कमल दल पर आ बैठा हूँ। मृग किसी के निकट आकर उसकी सेवा करता है, और उसका दीर्घ कटाक्ष माँगता है। किसी के द्वारा कानों पर रखा गया कमल मुरझा गया है, मानो उसके नेत्रों के द्वारा जीत लिया गया हो। किसी ने कुबलय रूपी किंकिणी माला से युक्त लता रूपी कटिसूत्र बांध लिया। किसी ने जबर्दस्ती राग को पकड़ लिया और पुष्प पराग से उन्हें पीला कर दिया, मानो संध्या राग ने चन्द्रमा को पीला कर दिया हो या मानो उसी से शारदीय मेघ शोभित हो। किसी ने जाती पुष्प दे दिया। दूसरी ने सरस मुखश्री की ओर देखा जो (जाती पुष्पों) सैकड़ों मधुकरों के द्वारा भोगा जाता है, उसे जाति वाला (उत्तम जाति का ) क्यों कहते हैं । तो भी आदरणीया वह उसे सिर से बांधती है । अपने काम में सभी लोग मोहित होते हैं।
घत्ता-मोगर पुष्प को छोड़कर अपने शरीर को फड़फड़ा कर तथा रोकर धूर्त मधुकरी सर्वांग-सुरक्षित प्रिय मरुबक पुष्प पर चढ़ गई।
AP दुदाराहि । 2.P दावइण सूर। 3. AP समउं हंसु चम्मक्कइ। 4. को माण तं जयणहि। 5. P मंथइ र मत्थर but corrects it to मड्डइ। 6. AP तेण जि । 7.A वृत्तलिया । 8.AP जासुपरि।
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[17
5
21. 15. 15)
महाका-पुरफयंत-बिरइयउ महापुराणु
15 का वि कुंदकुसुमई णियदंतहिं जोयइ दप्पणि समउ फुरतहिं। बउल परिक्खइ णियतणुगंधे बिंबीहलु अहरहु संबंधे। कवि फुल्लिउ साहारु णिरिक्खाइ बाली हरिसाहारणु कंखइ। जंपमाणु णवकलियइ मत्तउ घरसंतागंभुणइस इसउ। धरिउ ताइ रूसिवि मणदूसउ अग्गिवण्णु जायउ मुहि पूसउ। का वि उच्छुकरयल सुहकारिणि । णावद विसमसरासणधारिणि । का वि फुल्लमालउ संचार सह सरपंतिउणं दक्खालइ। का वि पलासपसूयई वीणाइ केकयतणयहु पाहुडु आणइ । णिजई रत्तई कुडिलई तिखई। णाइ वसंतमईदहु णक्खई। काइ वि कोइल कसण णिरिक्खिय पुच्छिय अवरइ विहसिवि अक्खिय। संपहि एह वि बोल्लणसीली जणविरहाणलधूमें काली। एयहि सद्द, महुरु महुरउ पुसु दोहि मि हम्मइ पवसिउ माणुसु ।
जइ महुँ लक्खणु अज्जु रमेसइ ता हलि कलपलवि" सुहृ देसइ। धत्ता-लयमंडव माणिवि कील समाणिवि कामभोयसंपण्णरइ ।।
Q' करिव करिणिहि सहुं णियपरिणिहि सरि पइसति णराहिवइ ।।15।।
10
... (15)
कोई दर्पण में चमकते हुए अपने दांतों के साथ कुद पुष्पों को देखती है। अपनी देहगंध से मौलश्री पप की ओर अधरों के संबंध से बिम्बाफल की परीक्षा करती है। कोई फले हए सहकार वृक्ष को देखती है, और बाला वासुदेव के साथ बाइयुद्ध चाहती है । नवकलियों से मतवाला और बोलता हुआ निष्कपट शुक वियोग दुःख को कुछ भी नहीं मानता। मन को कुपित करनेवाले उसे उसने कसकर पकड़ लिया, इसीसे वह (शुक) मुख में (चोंच में) लाल रंग का हो गया। कोई शुभ करनेवाली, हाथ में इक्षुदंड लिये हुए ऐसी प्रतीत होती है, मानो विधम धनुष को धारण किये हुए हो। कोई पुष्पमाला का इस प्रकार संचार करती है, मानो कामदेव तीरों की पंक्तियाँ दिखा रहा हो। कोई पलाश पुष्पों को इकट्ठा करती है, और लक्ष्मण के लिए उपहार में देती है । स्निग्ध लाल कटिल और तीखे वे ऐसे मालम होते थे, मानो बसंत रूपी सिंह को नख हो कोई काली कोयल को देखती है और पूछती है। दूसरी हराकर उत्तर देती है कि लोगों के विरहानल के धुएँ से काली यह इस समय भी बोल रही है । इसका मीठा शब्द, मधुर शुक दोनों ही प्रवासियों के मानस को आहत करते हैं। यदि आज मुझ से लक्ष्मण रमण करता है तो कोयल का यह प्रलाप मुझे सुख देता है।
पत्ता लतामंडप का उपभोग कर क्रीडा को मानकर जिसने कामभोग में अपनी रति पर्ण कर ली है ऐसा राजा अपनी हथिनियों के साथ सरोवर में इस प्रकार प्रवेश करता है, मानो कविवर अपनी स्त्रियों के साथ प्रवेश कर रहा हो।।
(15) 1A बबलु । 2. Krrecord a p: अबवा हरियासायण चुम्बनम् । 2. AP मुहि जायउ । 3.AP Q विममसरसरा" 4. A °धोरिणि। 5.AP संचालह। 6. AP सर। 7.A केकइसणयह P केइयतणयह । 8. A अच्छिय अंबद्द विहसिय अक्खिय; P अन्छिय अबरइ विहसिवि अविषय। 9.P एह जि । 10. AP बोलण। 11. AP मड़। 12.A कललवियर्ड। 13. P omits णं ।
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781
महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण
[71.16.1 16 सीयापंजलिपाणियसित्तहु पं दप्पणयलि पुण्णपवित्तहु ।। कीमत्र राहु नमिलीलप्पल सोहइ णं छणचंदडु मयमलु। कसणे हरिणा का वि महासह सित्ती णं मेहेण वणासइ। णं रोमावलिअंकुर मेल्लई। मुहकमलेण णाई पप्फुल्लइ। कवि घणथणफलसंपय दावइ सुंदरि वेरिल अणंगहु णावइ । सिनिय सिंचिय हसइ सलीलडं उच्छलतकप्पूरकणाल। काहि वि पियकरजलविच्छलियहि सत्तजाल तुटलं कंचलियहि । अल्लउ' परिहणु दलिउ विहाविउ लज्जइ सलिलि अंगु रिहक्काविउं । काइ वि महुमहकतिइ कालिउ रत्त७ सयदलु कण्हु' णिहालिउँ । सहियहु दसिवि कहिविर वियप्पिङ कण्णालग्गइ काइ विपि । 10 सिंचहि ललिय एह पोमावइ विरहिणि जेण भडारा जीवइ । कुंकुमपिंडउ एपहि पल्लहि एह देव बच्छयलें पेल्लहि। पत्ता-तं सुणिवि कुमार माणवसारें एक्क धरिय चीरंचलइ ।। __ अण्णेक्कहि जंतें दरविहस्तें मुक्कउं सलिलु थणत्थलइ ॥ 16 ।। 15
(16) सीता की अंजलियों के पानी से सींचा गया नील कमल पुण्य से पवित्र राम के उर पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो दर्पणतल में मृग से लांछित पूर्ण चन्द्र शोभित हो । श्याम नारायण (लक्ष्मण) ने किसी महासती को इस प्रकार सींच दिया, मानो मेघ ने वनस्पती को सींच दिया हो, मानो वह (नाभि का) रोमावली रूपी अंकुर को छोड़ रहा हो, मानो वह मुखकमल से खिल गई हो। कोई सघन स्तन रूपी फलसंपदा को दिखाती है, जैसे कामदेव की सुन्दर लता हो । बार-बार सींचे जाने पर वह, जिसमें कपूर के कण उछल रहे हैं, ऐसे लीलापूर्वक हँसती है। प्रिय के हाथों से नहलाई गयी किसी की चोली का सूत्र जाल टूट जाता है, शिथिल गीला वस्त्र गिर जाता है, वह लजा जाती है, और पानी में अपना अंग छिपाती है। कोई लक्ष्मण की कान्ति से श्याम रक्त कमल को काला देखती है, सखियों को दिखाकर अपना विचार बताती है । कोई कानों से लगकर कहती है, हे ललिते ! इसे सींचो यह पद्मावती है। जिससे यह आदरणीया विरहिणी जीवित रह सके । इसे केशर का लेप दो। हे देव, इसे वक्षस्थल पर दबाओ।
धत्ता-यह सुनकर मानवश्रेष्ठ कुमार ने एक को वस्त्र के अंचल से पकड़ लिया तया एक और दूसरी के स्तनों पर थोड़ा-थोड़ा मुसकाते हुए उसने जलयंत्र से जल छोड़ा।
(16) I. AP पाणियपंजलि"। 2. A छणयंदहु; P छणईदहु। 3. AP पफुल्लइ । 4. AP पुलए; K records a p: पुलएं 5. A पहसिउ; ल्हसिन । 6. AF किण्ह। 7. A कहव। 8. AP एहसलिय । 9. A जेम भडारा गीवह।
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71. 17. 14]
महाकद-युष्फत-विरइयज महापुराणु
179
[19
17 तं' हाराबलि तिम्मिवि पडियउं विहिणा कि णउ तेत्यु जि जडियउं। कहि लब्भइ पियसंगै आयउं काहि विमणि उच्छल्ल जायउं । काइ वि बल्लहहत्थ गलस्थिय देहतावहय ते ज्जि समस्थिय । णहणिवडत धरिय धवलामल तोयबिंदु णावइ मुत्ताहल। का वि णियंबिणि णाहहु णासइ वणि णिम्मज्जइ दूरहु दीसइ। सरि परिघोलिरु सहज पंडुरु पाणियछल्लि व कड्ढइ अबरु । का वि उरत्थलि चडिय उविदह णावइ विज्जुल अहिणवकंदहु। पति परामिपि अलका हारु ण तुट्टउ अवलोइय थण । कवि हियउल्लइ विभिय मंतइ अलयहं अलिहिं मि अंतरु चितइ। का वि ण इच्छइ जलपक्खालणु" कज्जलतिलयात्तपक्खालणु । उड्डइ अतरि करइंदीवरु। तह णवणालु'" च थिउ घारासरु ।
चवलरहल्लिजलोल्लियकेली एम करेप्पिणु चिरु जलकेली। पत्ता-सरि हाइवि णिग्गय णावइ दिग्गय थणयलघुलियहारमणिहिं ।।
पयलियरसधारहु तलि साहारहु सहुँ णिसण्णु णियपणइहिं ।। 17।।
10
हारावली को गीला करता हुआ वह उसके ऊपर गिरा, विधाता ने उसे क्यों नहीं जड़ दिया। इसने प्रिय का संग कैसे प्राप्त कर लिया ? किसी के मन में यह उत्सुकता पैदा हई। किसी ने कंठ में स्थित देह के ताप को दूर करने वाले प्रिय के उन्हीं हाथों का समर्थन किया। किसी ने आकाश से गिरते हुए धवल और अमल जलबिन्दुओं को इस प्रकार धारण कर लिया जैसे मोती हों। कोई नितम्बिनी अपने स्वामी से भाग जाती है, और जल में डूबकर दूर दिखाई देती है। सरोवर में हिलते हुए सूक्ष्म और सफेद वस्त्र को वह पानी की छाल की तरह निकालती है। कोई लक्ष्मण के वक्षःस्थल पर चढ़ी हुई ऐसी प्रतीत होती है, मानो अभिनव मेष की बिजली हो । कमलिनी के पत्र पर जलकणों को देखकर वह अपने स्तन देखती है कि कहीं हार तो नहीं टूट गया। कोई अपने मन में विस्मित होकर विचार करती है और भ्रमर तथा बालों के अंतर को सोचती है। कोई काजल, तिलक और पत्र-रचना का प्रक्षालन करने वाले जलप्रक्षालन को नहीं चाहती। किसी का कर रूपी कमल पानी के भीतर है, चंचल लहरों और जल से आई है। ऐसी जलक्रीड़ा चिरकाल तक कर
घत्ता--जल में नहाकर वे इस प्रकार निकले मानो दिग्गज हों। जिनके स्तनतलों पर हारमणि व्याप्त हैं, ऐसी प्रणयिनियों के साथ रस की धारा से प्रगलित उत्तम आम्र वृक्ष के नीचे जब वे बैठे हुए थे।
(17) 1 APण। 2. P णिम्मिवि । 3. AP उन्धुल्लडं। 4. P°हरिय। 5. AP "तावहर। 6. Pणहणियांत । 7.P पंडरु । 8. AP तुट्ठछ । 9.A जलपध्वालणु | 10. AP°णालु पवित। 11. P पणयललिय।
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80]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
18
विज्जाहरि तारुण्णें लज्जिय । सा चंदहितेत्यु आवेष्पिणु । afa संकइ तिल उल्लउ देती । एएं णं महुं हासउ दिज्जइ । ia aisa gणिय संक्रिय । जूर कि प प हेप्णुि । उब सिगोरितिलोत्तम रंभ' । पुरिसहं वम्महल्लि व ढुक्की । दुक्करु रामणु' जोइवि जीवइ । रिद्धि विद्धि तहु तहु जि धरिती । धष्ण पुष्णवंतु जग राहउ ।
ras सीयसुरू' णिज्जिय तहि अवसर कंचुई होएप्पिणु जोय' सीय पसा हिज्जती भालयलहु कलंकु परि किज्जइ काविण बंधइ मोतियकंठिय कावि कोइ पत्त, लिहेपिणु चितइ यरिमाणणिसुंभहं रूसीयाए वि गुरुक्की हाहाह पिसाब जासु एह कुलहरि कुलउत्ती for होस" जितमहाहउ छत्ता -- जरधव लियकेसह कंपिरसीसइ मायारूयें भावियरं ॥
मणहणवियहइ" खेयरिवुड्ढइ " तरुणीयणु पसावियउ ॥18 ॥
19
ताहि एक्क भइ तृवरणी हलि हलि कंचुई काई णियच्छसि
[71. 18. 1
काहुं किं कारण अवणी 1 fiffer इब अच्छसि ।
10
(18)
उस अवसर पर सीता के रूप से जैसे पराजित हो कर तथा तारुण्य से लज्जित विश्वाधरी वह चन्द्रनखा वहाँ आकर सीता को प्रसाधित होते हुए देखती है। कोई तिलक देते हुए शंका करती है कि इससे (तिलक देने से ) मुझे लज्जा आती है। कोई उसे मोतियों का कंठा नहीं बाँधती । 'द्वारा आहत उसके कण्ठ को देखकर निश्चल हो जाती हैं। कोई गाल पर पत्ररचना लिखकर प्रभा प्रभा को देखकर पीड़ित हो उठती है। वह विद्याधरी चन्द्रनखा विचार करती है कि मान को नष्ट करने वाली उर्वशी गौरी तिलोत्तमा रंभा आदि के रूप से सीता देवी महान् है, और यह पुरुषों के लिए, काम की मल्लिका के समान आई है। हा हा ह्त भाग्य प्रजापति, तुमने क्या किया ? इसको देखकर रावण का जीवित रहना कठिन है, जिसकी ऐसी कुलपुत्री कुलगृहणी है, उसी की ऋद्धि, वृद्धि और धरती है। निश्चय हो वह महायुद्ध का विजेता होगा। राघव विश्व में धन्य और पुष्यवंत हैं ।
धत्ता - बुढ़ापे से जिसके केश धवल हैं, जिसका सिर कांप रहा है, जो मन चुराने में चतुर है, ऐसी उस विद्याधरी वृद्धा ने मायावी रूप बना लिया और उसने तरुणी जन को हँसाया । (19)
उस अवसर पर वहाँ एक राजरानी कहती है कि तू कौन है, और यहाँ किसलिए आई है, हे कंचुकी तू क्या देखती ? बोल-बोल लिखित हुए के समान क्यों है ? यह सुनकर वह मायाविनी
( 18 ) 1. सीयारू वें; P सीयासुरूवें। 2. A चंदणचि । 3. P जोइय । 4. AP कंठु । 5. AP पिह्नवी यि । 6. AP हिप पिहेष्पिणु। 7. A उन्भसिगोरी P उब्बसिमीणी । 8. AP किपरं । 9 A रावण । 10. A कुलहर । 11. A होस तहि जि महाजन | 12. A °विसढहे । 13. P खेरवुड
( 19 ) 1 A णिरदण्णी; P शिव रण्णी ।
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11. 20, 2] महाका-पु-फयंत-बिरइयउ महापुराणु
[81 तं णिसुणिवि बोल्लइ मायारी ह मायरि वणवालहु केरी। तुम्हिहि परभवि जं व चिष्णउं जेणेहडं जायउ लायण्णउं । लखा जेण णाह हलहररि जेण लच्छि एहो सवसुंधरि। तं मझु वि उवइसह वइत्तणु साहमि सवसा' हं वि जुवइत्तणु। ता तं सीयइ झत्ति दुगुछिउं महिलत्तणु कि किज्जइ कुच्छिउँ । रयसलवासरि चंडालत्तणु णउ पावइ णियवंसपहुत्तणु । अपणहि कुलि कत्थइ उप्पज्जइ वड्दती अण्णेण जि णिज्जइ। सयणधिमओयवसेण रुयंती बहलबाहबिंदुयई मुयंती। मंतिकज्जि' गउ कासु वि भावइ जा जीवइ ता परवस" जीवइ। दहउ दुठ्ठ दुगंध दुरासउ. आंधु बहिरु वाहिल्लु अभास ।
असहणु अणु कुडिलु जाणेश्वउं जो भत्तारु सो ज्जि माणेश्वउ। घत्ता–जइ सई चक्केसरु अब सुरेसरु तो वि अण्णु णरु जणणसमु ।। चितेव्वर णारिहि कुलगुणधारिहि णउ लंघेश्वज गोत्तकम् ।। 19॥ 15
20 विहवत्तणि पुणु सिरु मुंडेव्वळ अप्पउं तवचरणे दंडेब्वउ'। सख पिउ अभ्यासिसुर खखइसृप पइ' पुणु पोढत्तणि ।
- -- ---.. ... .. कहती है कि मैं वनपाल की माँ हूँ। तुम लोगों ने दूसरे जन्म में जो व्रत ग्रहण किया था, और जिसके लिए तुम लोगों को यह सौन्दर्य मिला, जिससे तुमने बलभद्र और नारायण जैसे पतियों को प्राप्त किया और जिससे इस भूमि सहित लक्ष्मी को प्राप्त किया है, उस नत का उपदेश तुम मसे दो. जिससे मैं इस स्वतंत्र यवतीत्वकोपा सके। तब सीता देवी ने उसे शीघ्र डॉटा कि कत्सित महिलापन से क्या करना। रजस्वला के दिनों में उसे चंडालत्व प्राप्त होता है, और वह वंश की प्रभुता को नहीं पा सकती। किसी कुल में उत्पन्न होती है, और बड़ी होने पर किसी दूसरे कुल के द्वारा जाई जाती है, स्वजनों के वियोग के वश से रोती हुई तथा प्रचुर वाष्प बिंदुओं को बहाती हुई । मंत्रणा के समय वह (नारी) किसी को अच्छी नहीं लगती। वह जब तक जीती है, तब तक परवश जीती है। चाहे वह दुर्भग दुष्ट दुर्गन्ध और दुराशयी, अंधा बहा रोगी और गूंगा, असहनशील, निर्धन और कुटिल जाना जाए जो पति है, उसे पति ही माना जाना चाहिए।
___ घसा-यदि वह स्वयं चक्रवर्ती हो अथवा इन्द्र, तो भी कुलगुणों को धारण करने वाली स्त्रियों के द्वारा पर पुरुषों को पिता के समान माना जाना चाहिए। उन्हें अपने गोत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
(20) विधवापन में उन्हें अपना सिर मुंडवा लेना चाहिए, और स्वयं तपश्चरण से दंडित करना चाहिए। अत्यन्त बचपन में पिता रक्षा करता है, प्रौढ़ काल में स्त्री की रक्षा पति करता है, 2. P भासइ । 3. AP वउ । 4. AP रामसामि' 5. A मंतकज्जि। 6. P परवसि ।।
(20) 1. A डंडेवउ । 2. A अच्छतसिसुत्तणि । 3. AP तिय । 4. AP पुणु पइ ।
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82]
महाकवि पुष्पवन्तविरचित महापुराण तिरुहू तिह
परसहिंडण सणाहा रहु afses वुड्ढयालि भिडि किज्जर जिणवरिदभासिज तउ रिसाव अट्टियपंजरु जहिं इंदियई पण इच्छियकामई
कर कपि विकुलविप्पिउ जिह । महिल ण मुच्चई कारागारहु | उ महिलत्तणु किं मग्गिं । तं मग्गिज्जइ जहि उ संभउ । तं मग जहिं ण कलेवरु । जहिं सुब्बंति ण जारहं णामई ।
तं
सुणिव वुद्धहि मउलिउं मुहं । भर' सीलु को खंडइ सीयहि । एह विप्पु गुणवंतहि । पासहि हिँडिदि वर मरेब्वजं । ह्यरि चंचलगय गयणगणइ ॥ for afणयरणिम्मलि कणयधरायलि लंकाहिवघरगणइ" ||20||
मज्जिद मोक्खमहासुहुं हियवउं भिण्णउं तक्खणि एयहि जाणियतच्चहि सच्चहि संतहि हि मई घुत्तिइकाई करेव्वर्ड पत्ता - इय चितिवि सुंदरि णिवसें
[71.20, 3
21
विवि ताइ विष्णविउ दसासहु । जसपसरणयर' जगपंकथरवि । जद ठाणाउ चलई धरणीयलु ।
5
10
अंजणसाम लच्छिविलासहु देव दियंतदतियंतच्छविप' इच्छइ सा जई सिहि सीयलु उसी प्रकार वृद्धापन में पुत्र रक्षा करता है, जिससे कि वह कुल के लिए अप्रिय कुछ भी नहीं कर सके। दूसरों के अधीन घूमने वाली महिला स्वजनों के आभार रूपी कारागार से नहीं छूट पाती । वृद्धा, तुने बुढ़ापे में भाग्यहीन महिलापन क्यों माँगा ? इस महिलापन में आग लगे । जिनेन्द्र के द्वारा बताए गए तप को करना चाहिए और वह मांगना चाहिए कि जिसमें फिर जन्म न हो, वह माँगना चाहिए कि जहाँ रक्त रस को धारण करने वाला अस्थिपंजर से युक्त शरीर न हो, जहाँ इन्द्रियाँ कामनाओं की इच्छा करने वाली नहीं है, जहाँ जारों का नाम सुनाई नहीं देता -- ऐसे उस मोक्ष रूपी महासुख को माँगना चाहिए। यह सुनकर वृद्धा का मुख मैला हो गया । उसका हृदय तत्काल विदीर्ण हो गया। वह सोचती है कि सीता के शील का खंडन कौन कर सकता है ? जहाँ तत्त्व को जानने वाली सच्ची शांत और गुणवती सीता देवी का यह विकल्प है, वहाँ मेरे द्वारा क्या धूर्तता की जाएगी ! मैं केवल बंधनों में पड़कर भ्रमण कर मर जाऊँगी ।
धत्ता - यह विचार कर वह चंचल सुन्दरी विद्याधरी एक पल में आकाश के माँगन से गई और मणि किरणों से निर्मल, स्वर्ण धरातल वाले लंकानरेश के प्रांगण में जा पहुँची ।
(21)
अंजन की तरह श्याम, लक्ष्मी के
विलास दशानन को प्रणाम कर उसने निवेदन कियाहे दिग्गज के दाँतों की छवि के समान यश के प्रसारण करने वाले तथा विश्व रूपी पंकज के रवि है वेब, यदि आग शीतल हो जाए तो वह आपको चाह सकती है। यदि धरणी-तल अपने
5. A बुडि 6. A भगद; T भर चिन्तयति । 7. 4 धुलें। 8. P णिविसें । 9. AP अंगण । ( 21 ) 1A दंत हो छषि । 2. A पसरणजगवणपंकय": P पसरणपर 3 A इच्छा पई ज सा; P इच्छ प सा जइ ।
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71.21.4]
महाका-पुप्फयंत-विरइया महापुराणु जइणियमेण वसंति ण सायर जई पडंति सिसिरयर' दिवायर । जइ जिणु राएं दोसें छिज्जद तो पईसीय खगिद रमिज्जइ। तं णिसुणिवि दहवयणे बुन्चद अवसु वि वसि किज्जइ जं रुच्चइ। किं विसभइयइ फणिमणि मुच्चइ अलसह सिरि दूरेण पबच्चइ। . सुहिसयणत्तणु पुरिसपहुत्तणु गिरिमसिणत्तणु सइहि सइत्तणु । दूरयरत्थु सुणंतहं चंग पासि असेसु वि दरिसियभंगउं। हरमि सीय कि पउरपलावें ता सा पुणु' वि कहइ सम्भावें।
दहमुह एउ अजुत्तु अकित्तणु इय बोलति संति मंतित्तणु। पत्ता-चंदणहि णिवारिवि असिबरु धारिवि सुरसमरओहि असंकियउ॥
भरहदणरेसरु सुरकरिकरकर रावणु" पुप्फयंति थियउ ।।21।।
इय महापुराणे तिमिहापुरिसगुणालंकारे महाभध्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकब्बे णारयआगमणं रावणमणखोहणं
णाम एकहत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो।। 71 ॥ स्थान से चलित हो जाए, यदि समुद्र नियमित रूप से न रहे, यदि चन्द्रमा और सूर्य गिर पड़ें, यदि जिन भगवान राग-द्वेष से छिन्न हो जाएं, तो हे देव, सीता देवी आपके साथ रम सकती है। यह सुनकर रावण कहता है-जो अच्छा लगता है, ऐसे अवश को भी वश में किया जाता है। क्या विष के भय से नागमणि को छोड़ दिया जाता है? आलसी व्यक्ति से लक्ष्मी दूर रहती है । सुधियों का स्वजनत्व, पुरुषों की प्रभुता, पहाड़ की रम्यता और सती का सतीत्व दूरस्थ होने के कारण सुनने में अच्छा लगता है, निकट होने पर उनकी अशेष खामियाँ प्रकट हो जाती हैं । मैं सीता का अपहरण करूँगा । अत्यधिक प्रलाप से क्या ? तब वह पुनः सद्भाव से उससे कहती है--'"हे दशमुख, यह अयुक्त और अशोभनीय है ।" ऐमी मंत्रणा देती हुई
पत्ता-चन्द्रनखा का प्रतिकार कर, असिवर अपने हाथ में लेकर देवों के युद्धों में अशंकित, भारत का अर्ध चक्रवर्ती और ऐरावत की सूड़ की तरह बाहुवाला रावण अपने पुष्पक में बैठ गया।
वेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदंत द्वारा विरचत, महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का रावण-मन-क्षोभन नाम का
इकहत्तरवा परिच्छेद समाप्त हुआ।
4. A ससिरयर। 5. A पय। 6. AP गिरिहि महत्तणु। 7. AP कहइ पुणे वि। 8.P अखप्तणु। 9.A समरेहिं असं"; P समरउहे असं । 10. P रामणु। |1. AP रामणखोहणं ।
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दुसत्तरिमो संधि
सर्ल मारीयएण पह मुक्कदेसजइसंजमु ।। पुष्फविमाणे थिउ गउ सीयहरणकयउज्जमु ॥ध्र वकं ।।
कामबाणोहविद्धण मुद्धण णो कि पि आलोइयं ता विमाणं विमाणे णहे राइणा तेण संचोइयं । तारयाऊरियायाससंकासबद्ध ज्जलुल्लोवयं कटाविसदसवटारगंगागासागयं । चारुचंदक्कभाभारि माणिक्कसमुक्कझुबुक्कयं' वाउधुव्वतकेऊलयालोलगाइण्णदिच्चक्कयं । तुंगसिंगगणिभिण्णणीलब्भसच्छंबुधारोल्लियं बोमपोमायरे हसवतम्मि पोमं व पप्फुल्लियं । दिण्णधूर्व रयक्खं गवक्खंतलंबतभिगंचिय'
बहत्तरवीं संधि
जिसने मुनि के एकदेश संयम (अणुवत) को छोड़ दिया है, तथा जिसने सीता के अपहरण का उद्यम किया है, ऐसा स्वामी रावण, पुष्पक विमान में बैठकर मारीच के साथ गया।
कामबाणों के समूह से आबद्ध उस मुर्ख ने कुछ भी नहीं देखा। उस राजा ने निःसीम आकाश में अपना विमान चला दिया। जिसमें तारकों से भरित आकाश के समान उज्ज्वल वितान बँधा हुआ है, स्वर्ण घंटाओं की प्रसरित होती हुई टंकार से जिसने दिग्गजों को संत्रस्त कर दिया है, जो सुन्दर स्वर्ण-आभा को धारण करता है, जो माणिक्यों से निर्मित गुच्छों से युक्त है, जिसने पवन से आंदोलित ध्वज रूपी लताओं के हिलने से दिग्मंडल को आच्छादित कर दिया है, जो ऊँचे शिखरों के समूह से उद्भिन्न नीले मेघों के स्वच्छ जल की धारा से आर्द्र है, जो आकाश रूपी सरोवर में कमल की तरह खिला हुआ है, जिसे धूप दी गई है, जिससे धूल नष्ट हो चुकी है, जिसके गवाच्छों के निकट भ्रमर समूह लगा हुआ है । पक्षी, सिंह, सारंग और मातंगों
(1) 1. P"विवाणे । 2. P सीयाहरण । 3. AP माणिक्फणिमुक्क । 4. A हसवतम्मि 1 5.P च पुप्फुल्लियं । 6. AP गवक्खंतलागत।
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72.2. 6]
महाकपुर फत-विरइयउ महापुराणू
पक्खि से हीर सारंगमा यंगर विकण्णरूकियं । बद्धसोहिल्लकप्पंधिवुद्ध यपत्तावलीतोरणं इंदणी सुकलं असीसुसी सुणिव्वारणं । तेयवंतं हुम्मिल्लकं तिल्ल दिव्वत्य सोहावहं अम्मर्पि पलितं व सत्तच्चिणा रंजियासावहं । कित्तिवेल्ली फुल्लं व सेयं दसासालिया माणियं जायवेयं कुधीरेण वीरेण " वाणारसी आणियं । धत्ता - दिउ तेत्थु वणु अण्क्क वि सीयहि जोव्वणु ॥ रावण चितव विहि समसंजोयवियखणु ॥ ॥ ॥
ares froगलु व दीस णिम्मलभरियस रु वणु दीसह संचरंतकमलु वराह वाह ar aes काला लिंगियउं व दीसइ अलय तिलय सहिउ
2
यह जो मण मणगलु ! सीहि जणु णिरु महुरसरु । सीहि जोन्वणु वर मुहकमलु । हिजो विहरणं । सोहि जोव्वणु सालिंगियउं । यह जो विलीसहिउ ।
[85
20
के उत्कीर्ण रूपों से जो अंकित है, जिसमें कल्पवृक्षों से उत्पन्न पत्रावलियों का बंधा हुआ तोरण शोभित है, जो इन्द्रनील मणियों की किरणों से काला है, जो सूर्य और चन्द्रमा की किरणों का निवारण करने वाला है, जो तेज से युक्त है, जो आकाश में चमकने वाले क्रांति से युक्त प्रहरणों की शोभा को धारण करने वाला है; स्वर्ण से पीला, अग्नि के द्वारा प्रदोप्त के समान जो दिशापथों को रंजित करने वाला है, कीर्ति रूपी लता के फूल के समान जो दशानन रूपी भ्रमर के द्वारा मान्य है, ऐसे उस वेगशाली विमान को खोटी बुद्धि वाला वह रावण वाराणसी ले आया । घसा - उसने वहीं वन देखा तथा एक ओर सीता का यौवन देखा रावण, श्रम और संयोग में विचक्षण विधाता का चिंतन करता है ।
7. A सीहीर । B. AP "घिबुम्भूय । 9 Pomits सुसीयं । 10. A धीरेण । ( 2 ) 1.A मणिणीलगलू |
(2)
जिसमें नील मयूर नाच रहा है, वन ऐसा दिखाई देता है, सीता का यौवन मन रूपी मत्स्य के लिए लोहे के कांटे वाला है। वन निर्मल भरे हुए सरोवरों वाला दिखाई देता है, सीता का यौवन मधुर स्वर वाला दिखाई देता है। वन प्रवह्नशील जल वाला दिखाई देता है, सीता का यौवन श्रेष्ठ मुखकमल वाला है। बन सुर लजागृहों वाला दिखाई देता है, सीता का यौवन बिम्बाधरों वाला है। वन भ्रमरों से आलिगित दिखाई देता है, सीता का यौवन लक्ष्मी से आलिंगित है। वन प्रचुर तिलक वृक्षों से युक्त दिखाई देता है, सीता का यौवन बलभद्र के लिए
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86]
[72. 2.7
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण वणु दीसइ फुल्लासोयतरु सीहि जोधणु परसोययरु। वणु दीसइ दुग्गउं कंचुइहिं सीयहि जोवणु घरकंचुइहि । वणु दीसइ तरुकोलंतकइ सीयहि जोवणु वणंति कह। वणु दीसह मूलणिरुद्धरसु सीयहि जोन्वणु कयमयणरसु । वणु दीसइ वढियधवलवलि सीयहि हारावलि धवलवलि । हियउल्लउं कामसरहिं भरिलं लंकालंकारें संभरिउ।। घत्ता–इय एयहि तणउ णरु माणइ जो णउ' जोवणु ।।
मंदिरु परिहरिवि रिसि होइवि सो पइसउ वणु ।। 2 ।।
अहो कयस्थो भुवणंतरे हली महेलिया जस्स घरम्मि मेहली। पलोयए लोयणएहि संमुहं मुहेण मल्हति विउंचए मुहं । हरामि' एयं कवडेण संपयं करेइ मंती महिणाहसंपर्य। उयार मारीयय होहि तं मओ । खुरेहि सिहि जवेण तम्मओ। कुकम्मए मंतिवरो णिवेसिओ विचितए हा विहिणा णिवे सिओ। जसो ण जाओ भवणंतमेरो कहं परस्थीरमणे तमे रओ।
भणामि कि सिंभजरे पयं पियं दुलंघमेयं पहुणा पयंपियं । सुखदाया है। वन खिले हुए अशोक वृक्ष के समान दिखाई देता है, सीता का यौवन दूसरों के लिए खेद उत्पन्न करने वाला है। वन साँपों से दुर्गम दिखाई देता है, सीता का यौवन गृहकंचुकी से युक्त है। जिसके वृक्षों पर वानर क्रीड़ा करते हैं वन ऐसा दिखाई देता है, सीता के यौवन का वर्णन कवि करते हैं। जिसने अपने मूल भाग में जल को अवरुद्ध कर रखा है, वन ऐसा दिखाई देता है, सीता का यौवन कामदेव के रस को बढ़ाने वाला है । जिसमें धव और लवली-लता (चन्दन लता) बढ़ रही है, वन ऐसा दिखाई देता है। सीता की धवल हारावली गले में बँधी हुई है। रावण का मानस कामदेव के तीरों से भरा हुआ था, उसे याद आया--
पत्ता–यहाँ इसके यौवन का जिसने भोग नहीं किया, घर छोड़कर और मुनि होकर उसने वन में प्रवेश किया।
अरे, भुवन में बलभद्र ही कृतार्थ है कि जिसके घर में मैथिली (सीता) गृहिणी है। राम नेत्रों के द्वारा सामने देखते हैं , उसके हर्षित मुख से मुख चूमते हैं। इस समय मैं कपट से इसका अपहरण करता हूँ। मंत्री राजा की संपदा करता है। हे उदार मारीच, तुम मूग वन जाओ। खुरों और सींगों के द्वारा वेष से उसके अनुरूप बन जाओ । इस प्रकार विचित्र कुमार्ग में निवेशित वह सोचता है-खेद है कि विधाता ने राजा को भवनांत तक सीमित श्वेत यश नहीं दिया, स्त्रीरमण रूपी अंधकार में वह कैसे रत हुआ ? लेकिन मैं क्या कहूँ, उसने कफ-ज्वर में दूध पी लिया है, प्रभु के द्वारा कहा गया यह अलंध्य पदार्थ है। उस समय विषाद से विकृतअंग वह एक क्षण में 2.A घरु । 3. P °णिबद्धरसु । 4.A वल्लियधवल। 5. APण वि।
(3) 1. P लोयहिं । 2.A विओवए; P विउबए। 3. AP हरेमि। 4.A रमणतमेरउ।
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72.4.61
महाकइ-पुप्फयंत-विरइयड महापुराण तओ विसाएण वियारियंगओ खणेण होऊण मओ तहिं गओ। णिसण्णिया जत्थ धरासुया सई पिए मणो जोइ समप्पिओ सई। कुरंगओ बालतणंकुरासओ सुयाहिरामकियरामरासओ। णियच्छिओ दिटिमको रवण्णओ विचित्तपिछोहमऊरवण्णओ। महीरुहाए भणियं हिया सये इमं मह लोयणलोलणासयं ।
रिद हे राम पुलिंदकायरं रएण गंतुं धरिऊण कायरं। अणेयमाणिक्कमयं मयं महं कुलीण दे देहि णियच्छिमों महं ।' घत्ता-णिसुणिवि प्रियवयणु' सो रामें दीसइ केहउ ।।
सावज चित्तलउ चलु मणु काउरिसहं जेहउ ।।3।।
पविरलपएहि लघंतु महि लहु धावइ पावइ दासरहि । थोवंतरि मणहरु जाइ जवि कह कह व करंगुलि छित्तु ण वि। पहु पाणि पसारइ किर धरइ मायामउ मउ अमाइ सरइ। दुरंतरि णियतणु दक्खवाइ
खेलइ दरिसावइ मंदगइ। णवदूवाकंदकवलु' भरइ तरुवरकिसलयपल्लव चरह ।
कच्छंतरि सच्छसलिलु पियइ वकियगलु पच्छाउहुँणियइ। मग होकर वहाँ गया कि जहाँ पृथ्वीपुत्री सती सीता देवी बैठी हुई थी। उस सती ने अपने प्रिय में मन समर्पित कर रखा था। बाल तृणों को खाने वाला तथा जिसने सुनने में मधुर राम शब्द का उच्चारण किया है, ऐसा देखने में कोमल' और सुन्दर बह मृग देखा गया कि विचित्र पूछ समूह से मयूर के रंग का था। सीता ने स्वयं कहा—यह मग मेरे नेत्रों के लिए खेलने का साधन है। हे राजन्, हे राम, शरों के द्वारा आहत और अधीर उसे (मृग को) वेग से जाकर और पकड़कर लाओ और अनेक मणिक्यों से युक्त उस महान् मृग को, हे कुलीन दे दो, मैं उसे देखेंगी।"
- घत्ता--प्रिय के वचन सुनकर राम के लिए वह मृग इस प्रकार दिखाई दिया जैसे कापुरुष लोगों का चंचल मन हो।
अपने प्रविरल पैरों से धरती को लांघता हुआ वह शीघ्र दौड़ता है, राम को पाता है। वह सुन्दर थोड़ी दूर तक बेग से जाते हैं, किसी प्रकार हाथ की अंगुली से उसे छू भर नहीं पाते। स्वामी (राम) हाथ फैलाते और उसे पकड़ते हैं, वह मायामय मृग आगे बढ़ जाता है, दूरी पर अपना शरीर दिखाता है, फिर मंद गति दिखाता है, और क्रीड़ा करता है। नई दूब की जड़ों के कौर को खाता है, तरुवरों के किसलय पल्लवों को खाता है, बन के मध्य में स्वच्छ जल पोता है, टेढ़ी गर्दन और पीछे मुंह करके देखता है । जिनके फल तोतों को चोंचों के आघातों से गिर रहे 5. A जाइ । 6. A लोयणलोयणासयं । 7. A रएण तुगं। 8.1 णियत्थियामहं पश्याम्यहं. पश्यामि तेगः (उत्सवः?)। 9. AP पियवयण ।।
(4) 1. AP कमलु । 2. AP तरुवरपल्लवकिसलय । 3. AP पच्छामुहूं ।
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881
[72.5.6
महाकवि पुष्पदन्त शिरचित महापुराण सयचंन्धायपरियलियफलि खणि दीसइ चंपयचयतलि। खणि वेल्लिणिहेलणि पइसरह अण्णण्णपएसहि अवयरइ। ओहच्छई' अइकोड्डावणउ लइ माणमि णयण सुहावणउ । इय चिंतिवि राहत संचरइ पसु पुणु धरणास तासु करइ। धरिओ वि करग्गह पीसह कदि देसायणु कादि णीसरइ। णि ६इयहु किं करि चडइ णि हि कहि कवडहरिणु कहिं बंधविहि । घत्ता---गज गयणुल्ल लिउ मिगु णं कुवाईहत्थहु रसु॥
थिउ दसरहतणउ समणीससंतु विभियवसु ।।4।।
भयणभूमिआयासगामिणो' मंतिणा वि कहियं ससामिणो। देवदेव जयलच्छिसंगमो वंचिओ रहूरायपुंगमो। ता ससक्क तेल्लोक्क'रामणो' राम एव रूवेण रावणो । कासकुसुमसंकासवेहो। चावधारि णं सरयमेहओ। कसणवाससोहियणियंनओ हत्थणिहियमणिमयसिलिबओ ।
झत्ति जणयतणयासमीवयं आगओ कयाणंगभावयं'। हैं ऐसे चंपक और आम्रवृक्ष के नीचे एक पल में दिखाई देता है, एक क्षण में लताघरों में प्रवेश कर जाता है, तथा दूसरे-दूसरे प्रदेशों में अवतरित होता है। अत्यन्त कुतुहल उत्पन्न करने वाला वह लो यह बैठा है, लो नेत्रों के लिए सुहावने लगने वाले इसे मैं मानता हूँ। यह विचार कर राम संचरण करते हैं । मृग उनमें पकड़ जाने की आशा उत्पन्न करता है। पकड़े जाने पर भी वह हाथ की पकड़ से छूट जाता है। कहाँ वेश्याजन और कहाँ दरिद्रों की रति ? भाग्यहीन के हाथ क्या निधि चढ़ती है ? कहाँ कपटमृग और कहाँ उसके पकड़ने की विधि ?
घसा-आकाश में उछलता हुआ मृग चला गया, मानो कुवादी के हाथ से पारद चला गया हो। विस्मय से विस्मित राम, श्रम से श्वास लेते हुए रह गए।
(5) ___ मंत्री ने नक्षत्रों की भूमि, आकाश से जाने वाले अपने स्वामी से कहा- हे देव विजय और लक्ष्मी के संगम रघुराजश्रेष्ठ को वंचित कर लिया गया है। तब इन्द्र सहित तीनों लोकों को रुलाने वाला रावण ही राम बन गया। कांस पुष्प के समान उज्ज्वल शरीर वाला धनुषधारी, जैसे शरद मेघ हो, मृग चर्म से उसका नितम्ब भाग शोभित था। जिसने अपने हाथ में मणिमय तीर धारण कर रखे थे, ऐसा वह (रावण) शीघ्र ही जनक तनया सीता देवी के पास आया। शत्रुओं के मान को नष्ट करने की शक्ति वाले उस दुश्चरित्र ने काम की अभिलाषा से 4. AP 'परिगलिय। 5. P°चूययलि 1 6. P पवेसहि । 1. P इहु अच्छइ। 8. A णिदबहु कहि करि; P णिइवह करि कहिं।
(5) 1. A गमणभूमि'; T भनणभूमि | 2, A वणि वइ रहवंसपुगमो; P बणि पठ्ठ रहुक्सगमो। 3. A ससंक°14. Pइलोषक 15. AP रावणो 16.A "सिलंबओ। 7.A तावयं
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72.6.8]
189
महाका-पुफ्फर्यत-विरापत महापुराणु वइरिमाणणि महणसत्तिणा भासियं कुसीलेणणं तिणा । दूरय पिमणपवणवेयय पंचवण्णमाणिक्कतेययं । आणियं मए हरिणपोययं कुणसु देवि कीलाविणोयये। ता सईइ अवलोइओ मओ णं सुसहो दुक्खसंचओ। विप्फुरंततणुकिरणमालओ विरसिहि व वित्थिण्णजालओ। विभियावलायाणमाणिया रयणिगमणचिंधेण भाणिया । घत्ता-पिए जरदिवसमरु अत्थंगउ दीसई रत्तउ ॥
जरजुण्णु बि तिजगि भणु अत्थहु को णासत्तउ ।।5।।
10
6
उशिऊण इंदियसमं सबिमाणं सिक्यिासमं । सव्वत्थ वि भई सियं तीए तेणं दसियं । बुद्ध कि पि णवं च णं णहु खलरइये चंचणं । तं धरणीयलरूढिया अमुणंती आरूढिया । उववणवासविणिग्गयं अप्पाणं हरिवरगयं । दहवयणेण विलासिणा रिउकित्तीयविलासिणा। तीए पुरओ दावियं वइयालियसहावियं ।
सा तुरियं लंकं णिया बम्मधणुगुणकण्णिया । पूर्ण इस प्रकार कथन किया-मन और पवन के समान वेग वाला, पाँच प्रकार के माणिक्यों से तेजस्वी हरिण का बच्चा दूर होते हुए भी मैं ले आया है। हे देवी, तुम क्रीडा-विनोद करो। तब सीता देवी ने उस हरिण को देखा। मानो असह्य दुःख का संचय हो। शरीर की विस्फुरित किरणमाला से युक्त यह विरह की ज्वाला की तरह विस्तीर्ण ज्वाला वाला था। राक्षस चिह्न धारण करने वाले रावण ने, विस्मित और मायापुरुष को नहीं जाननेवाली सीता से कहा :
घत्ता हे प्रिये, बूढ़ा सूर्य भी अस्त होता हुआ रक्त दिखाई देता है। बताओ तीनों लोकों में जरा से जीर्ण होने पर भी कोन है जो अर्थ में आसक्त नहीं होता!
(6) इन्द्रियों की थकान को दूर कर उसने शिविका के समान अपना विमान, जो सर्वत्र भद्र और श्रीसंपन्न था, सीता देवी को दिखाया। उसने समझा कि यह कोई अपूर्व विमान है, न कि कोई दुष्ट के द्वारा रचित प्रवंचना है। इस प्रकार, नहीं जानती हुई धरतीतल पर प्रसिद्ध यह उपवन वास के बाहर स्थित, अश्वों पर आरूढ़ उस विमान पर चढ़ गई। शत्रु की कीति से क्रीड़ा करने वाले विलासी रावण ने उसे सामने वैतालिकों के द्वारा वणित लंका दिखाई। कामदेव के धनुष की डोरी की कणिका उस सीता को वह लंका ले गया। सारसों के जोड़े द्वारा मान्य 8. A कुसी-लेण मंतिया । 9. दूरियं । 10. A भासिया।
(6) 1. A भद्दासियं । 2. P तहु खल। 3. AP पुरउं । 4. P वम्मह ।
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[72.6.9
10
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण क्षारमा सामाणिणि संणिहिया णंदणवणि। माणवाहिराम गओ दूरमुक्करामंगओ। पयडीक्रयससरीरओ भूहरभेइसरीरओ।
इर भुवणयले विस्सुओ रक्ख केउ महिवइसुओ। पत्ता-कालउ दहबयणु णवमेहु व दुह्यरु सीयइ॥
पियविरहाउरइ दिट्ठउ कंठट्ठियजीयइ ।।6।।
चित्तें मउलते मउलियउं लोयणजुयलंसुउः पयलियउं। आपंडुरत्तु गंडस्थलइ विलसिउ विलसिइ विरहाणलइ। कढकढकढंति ससहरपहई अंगई लामण्णवारिवहई। का दिसि केणाणिय केंव कहिं को पावइ.एवहिं रामु जहि । इय चितवंति मोहेण हर परपुरिसु णिहालिवि मुच्छ गय । पइवय परपइवयभंगभय णं पवणे पाडिय ललिय लय। भत्तारविओयविसंतुलिय' विहिबस सिलसंकडि पक्खलिय। णं कामभल्लि महियलि पडिय णं बाउल्लिय कंचणघडिय। सुहिसंयरणपसरियवेयणियः सा जइ वि थक्क णिच्चेयणिय।
परिहाणु ण तो बि ताहि ढलइ चल जारदिट्ठि कहिं परिघुलइ। 10 जल वाले नंदन वन में वह ठहरा दी गई। तब मनुष्य शरीर की रमणीयता को प्राप्त, राम के वेष को जिसने दूर फेंक दिया है, जिसके पास भूधरों का भेदन करने वाली नदी के समान वेग है, जिसने अपना शरीर (रूप) प्रगट कर दिया है, जो राक्षस की ध्वजाबाले राजपुत्र के रूप में प्रसिद्ध है
पत्ता-काले रावण को प्रिय बिरह से आतुर एवं कंठस्थित प्राणोंवाली सीता देवी ने इस प्रकार देखा जैसे नवमेध को देखा हो।
चित्त के मुकुलित होने पर नेत्र युगल भी बन्द हो गए, आँसू प्रगलित होने लगे। गालों पर सफेदी शोभित हो उठी। विरह की ज्वाला के प्रदीप्त होने पर, चन्द्रमा-सी प्रभा वाले सौन्दर्य जल को धारण करने वाले उसके अंग कड़कड़ाने लगे। यह कौन दिशा है, किसके द्वारा यहाँ लाई गई हूँ, किस प्रकार, कहाँ ? कौन मुझे वहाँ प्राप्त कराएगा कि जहाँ राम हैं ? इस प्रकार विचार करती हुई वह मोह से आहत हो उठो । परपुरुष को देखकर, दूसरे के पति द्वारा व्रत भंग से भयभीत पतिव्रता वह मूर्छा को प्राप्त हुई, मानो पवन ने सुन्दर लता को गिरा दिया हो । अपने पति के वियोग से अस्त-व्यस्त वह भाग्य के वश से शिलासंकट स्थान पर इस प्रकार स्खलित हो गई, मानो काम की मल्लिका धरती पर गिर पड़ी हो। फिर भी उसका परिधान (साड़ी) नहीं खिसका । चंचल जार की दृष्टि कहाँ ठहरती ? 5. AP इह ।
(7) 1. P जुउ अंसुय । 2. A आपसरस्थु । 3. AP का दिस । 4. A विसंतुलिया 1 5. A सुहिसुबरण ; P सुहिसुमरण ।
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72. 8. 12]
महाक - पुफ्फयंत विरइम महत्पुराणु
पत्ता - दढणिवसणु सहि सुहड करासि ण वियट्टइ ॥ मरण समावडिइ परियरिविहि विहिं वि ण फिट्टइ ॥17॥
४
परदारलुद्ध ठुक्कंतु खलु रावण' कि आणिय परजुवइ वणु णाई करइ साहुचरणु अलि कण्णा सण्णउ हणुरुणइ इच्छइ दससिरु पररमणिसुहं
सो विणिवहु उब्वेश्य उ दुज्जसु महु महणिहु महहि जइ हंसावलि लवइ व लोयपिय मालहि माथि एहतिय अंबड लोहियपल्लव ललिउ चंद पुणु बिसहर दक्खनइ रामाणीरमणकम्मरिङ
6. AP परिय रवि हि ।
कि लज्जइ कहि मि गामकमलु । तरु चुयसिहं एहिं रुवइ । हा पत्तजं णारिरयणमरण । पद एवं अजुत्तु णाई भणइ । कणइल्लउ वत्रिवि जाइ मुहं । कोइलु' विलवंतु व आइयउ । इदेहि भडारा रमहि तइ । मई जेही तेरी' कित्ति सिय । माणासहि लंकाउरिहि सिय । णं णिवअण्णायसिहि जलिउ । पडववखबाणमाणु' व थवइ । खरिदें' मणु मड्ड' धरिउ ।
( 8 ) 1P रमण | 2. A से सो। 3. 4 कोकिलु । 4. A तेही कित्ति ।
91
धत्ता- स्त्री के दृढ़ वस्त्रों को सुभट का हाथ रूपी खड्ग नहीं काट सकता, मृत्यु आ जाने पर भी विधाता उसके कटिबंध को नहीं तोड़ सकता ।
(8)
परस्त्री का लोभी दुष्ट रावण वहाँ आ पहुँचता है। क्या गाँव के कुसे को कहीं भी लाज आती है ? हे रावण, तू दूसरे की युवती को क्यों लाया ? जैसे वृक्ष अपनी गिरती उष्ण आंसुओं से यह रो रहा है । वन मानो अपनी शाखाएँ उठाता है ( और खेद व्यक्त करता है) कि नारी रत्न की मृत्यु आ पहुँची । कानों के समीप आकर भ्रमर गुनगुनाता है और मानो कहता है कि स्वामी, यह अयुक्त है। रावण परस्त्री के स्मरण सुख को चाहता है, (यह सोचकर ) शुक मुँह टेड़ा करके चला जाता है, मानो वह भी राजा से उद्विग्न है। कोयल भी विलाप करती हुई वहाँ आई ( और बोली ) : यदि तुम मेरे समान अपना दुर्यश ही चाहते हो तो आदरणीया वैदेही से रमण करना। हंसावली मानो कहती है कि तुम्हारी कीर्ति मेरे समान श्वेत और लोक प्रिय है, इस स्त्री का उपभोग कर तुम इसे मेला मत करो और न ही लंकापुरी की लक्ष्मी का नाश करो। अपने लाल-लाल पल्लवों से सुन्दर आम्रवृक्ष ऐसा मालूम होता है मानो वह नृप के अन्याय की अग्नि में जल गया हो | चंदन वृक्ष विषवरों को दिखाता है, और प्रतिपक्ष के मान को स्थापित करता है । जिसे रामभार्या के साथ रमण कर्म की शीघ्रता है ऐसे अपने मन को विद्याधर ने शीघ्र ही बलपूर्वक रोका ।
5. पविषमाणमाणु व 6 AP खर्यादाएं 7 A मंड
5
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
घत्ता - परवस परमसइ जइ छिवमि करें थणु पेल्लियि ॥ अंबरयारिणिय तो' जाड़ विज्ञ मंहं मेल्लिवि ॥ 8 ॥
9
झावि पंककरिहि
जीवrag भावहु कह वितिह ता तरलइ तारइ णाइणिइ अविरल अंबर अंबालियइ मंद कप्पूरपूरपरिमलजलई' सीहि अंगगि रमति किह णियपत्थियपेमणकारिणिहि दहमुहदाइणि कालणिह उट्टिय परणरणिट्ठरहियय
पत्ता- हा रसप हा लक्खण कहिं पई पेच्छमि 11
आसु दिष्णु विज्जारिहि । म इच्छ सुंदर अज्जु जिह् । चंपयमालइ मंदाइणिइ । मयमत्त मल्हणसीलियइ । रहद' चंद चंदिणिइ । पल्हत्थियाई हिमसीयलई । fret रहुब अंगाई हि । लहु विज्जिय चामरधारिणिहि । संकिय णं खयजलण सिह । संचित हा हउं कि ण मय ।
दावहि तव मुहं जावज्जु जि मरवि' ण गच्छमि ॥9॥
[72. 8. 13
5
לי
10
धत्ता - यदि मैं परमसती परवश सीता के स्तनों को हाथ से दबाकर छूता हूँ, सो आकाशगामिनी विद्या मुझे छोड़कर चली जाएगी ।
(9)
अपने मन में यह विचार कर उसने कमल के समान हाथों वाली विद्याधरियों के लिए आदेश दिया --- उसे इस प्रकार जिलाओ और मनाओ कि वह आज किसी प्रकार मुझे चाहने लगे । तब तरला, तारा, नागिनी, चंपकमाला, मंदाकिनी अविपुला, मदमत्त प्रसन्न स्वभाव वाली अंबा अंबालिका, प्रिय स्वभाव वाली नन्दा नंदिनी, रति से सुन्दर चन्दा और चांदनी के द्वारा छोड़ा गया कपूर के पूर से सुवामित, हिम के समान ठण्डा जल सीता देवी के अंगों पर इस प्रकार कीड़ा करता है, जैसे राम का अंग हो। अपने राजा की आज्ञा मानने वाली चामरधारिणी दासियों ने जब हवा की तो, रावण के वध को करने वाली वह काल के समान प्रलय की आग की ज्वाला की तरह जल उठी। परपुरुष के लिए कठोरहृदय सीता अपने मन में सोचती है - मैं मर क्यों नहीं गई ?
धत्ता - हे रघुवंश के स्वामी (राम) हे लक्ष्मण, मैं तुम्हें कहाँ देखूं, मेरे मरने तक तुम अपना मुँह दिखा दो ।
8. Patजाइ बिज्जू ।
(9) 1. A कह व 1 2. AP अमलोहय अंब वालियए । 3. AP रुइदद्द 4. AP कप्पूरपजर' । 5. A पई कहि पेच्छमि । 6. AP मरेवि ।
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72. 11. 2]
महाक - पुष्कवंत - विरद्रयउ महापुराण
उपासिहि थियउ नियच्छिउ संदेहु उ पुरि एह कवण किं जमणयरि जसु तलबरु जमु किर भणइ जणु जसु इंदु विसंगरि थरह इ जम वाराई तराणरु सुवद जसु अग्गइ ण्डइ सरासइ वि जसु पंगणि मेहहि दिष्णु छडु सो एहि कहि एडु पई भत्ता समिच्छहि माइ तुहुं
घत्ता -
10
- सामिणि राणियहं णीसेसहं होइवि अच्छहि ॥ महए वित्तणयहु परमेसरि पट्ट परिच्छहि ॥ 10 ॥
7
11
कि किज्जद हरिणु अधीरमइ, किं किज्जइ दीवर तुच्छछवि
पुणु खयरपुरंधिः पुच्छियउ । णिवु कालउ जमु किंवा मणुउ । तावेक्क पंप तहि खयरि । जसु देइ णिच्च वइसवणु धणु । जसु मारुड घरकयारु हरइ । दिनकरिउ णामें मउ मुयइ । कुसुमंजलि घिवइ वणासइ वि । 'जसु को वि णत्थि पडिमल्लु भड्डु । रावणामें तिहुवणजिइ । अणुर्भुजहि इच्छिकामसुतुं ।
जइ लग्भइ सीह किसोरु' पइ । जर अंधारु figas रवि ।
[93
10.
(10)
उसने चारों ओर स्त्रियों को बैठे हुए देखा, फिर विद्याधरियों से पूछा- बताओ - बताओ मुझे संदेह उत्पन्न हो गया है कि यह राजा काल है या यम या कि मनुष्य ? यह कोई नगरी है .या यमनगरी ? तब एक विद्याधरी उससे कहती है— लोग यम को जिसका तलवर (कोतवाल) बताते हैं, कुबेर जिसे नित्य प्रति धन देता है, युद्ध में इन्द्र भी जिससे थर-थर काँपता है, पवन जिसके घर का कचरा निकालता है. अग्नि जिसके कपड़े धोती है, जिसके नाम से दिग्गज समूह मद छोड़ता है, सरस्वती जिसके आगे नाचती है और वनस्पतियाँ कुसुमांजलियाँ बरसाती हैं, मेघ जिसके आंगन में छिड़काव करता है, विश्व में जिसका प्रति योद्धा दूसरा कोई नहीं है, यह इस लंका का स्वामी है । त्रिभुवन के विजेता उसका नाम रावण है। हे आदरणीया, तुम उसे अपना पति मान लो और अभिलषित काम सुखों का भोग करो ।
धत्ता — निःशेष रानियों की स्वामिनी होकर रहो। हे परमेश्वरी, तुम महादेवी के पद को स्वीकार करो ।
(0)
अधीरमति उस हरिण से क्या करना यदि किशोर सिंह के रूप में पति मिलता है ? तुच्छ प्रकाशवाले दीपक से क्या यदि सूर्य अन्धकार को नष्ट कर देता है ? बहाँ कौए से क्या,
( 10 ) 1. AP जयरि° । 2. A घर कथारु 1 3. AP बत्थई । 4. A omite this foot 5. A इछ काम । 6. A महविहि तण; P महएबीए पत्तणहु । 7. A पड़
( 11 ) 1. A सी किसोर ।
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941
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
P
कि किज्जइ वाइसु जइ गरुलु" किं किज्जइ खरु जइ दुद्धरह किं किज्जइपिप्पलु सन्नसलिउ कि किज्जइ राह मुद्धि तइ ता सीयइ उत्तर मणि थविउ जहि कंकु राय व गणि जहि गुणवंतु वि दोसिल्ल समु
उस पसिय विउसजणि धत्ता - पेय तण मुहं विसाव इस चितिवि हियइ मोणव्बउ
सुपसण्णु होइ बहुबाहुबलु । पाविज्जर कंधरु सिंधुरहु । जइ दोसइ सुरतरुवरु' फलिउ । रावण महिलत्तणु होइ जइ । yas अण्णाणिइ कि लविउ । एरंडु कप्परुक्खु व भणिउ । तहि जे विरयति वयणविरमु । fotoes बुद्धि को मुखयणिः । को जगि चुंविवि ॥ थिय अवलंबिवि ॥ 11 ॥
[72, 11.3
12
जयजसरामहु रामहु तणिय जहुँ- पेसियले सहुं
तो पुणु जिणवरिदु सरण एतहि जक्खाहिवरक्खियउं पहरणपरिपाल रखियॐ
उहालहि खयरविसरिसु^
5
10
सुविदत्त सुहावणिय 1 तहुँ' आहारपविति महुं । संत्रज्ज सल्लेगम पहवंतु रंतु णिरिक्खियजं । पण दहगी अक्खिय उप्पण्णड चक्कु जणियहरिसु ।
जहाँ बहुत बाहुबल वाला गरुड़ प्रसन्न होता है? उस गधे से क्या यदि दुर्धर महागज का कंधा प्राप्त होता है ( बैठने के लिए ) ? काँपते हुए पीपल के पत्ते से क्या जहाँ कल्पवृक्ष फला हुआ दिखाई देता हो ? हे मुग्धे, राम से क्या यदि रावण का पतीत्व प्राप्त होता है ? (यह सुनकर ) सीता ने उत्तर अपने मन में रख लिया। ( उसने सोचा ) इस अज्ञानी ने क्या कहें ? जहाँ बगले को राज हंस समझा जाता है, एरंड को कल्पवृक्ष कहा जाता है, जहाँ दोषी व्यक्ति ही गुणवान है, ऐसे स्थान पर जो लोग अपने शब्दों के विराम की रचना करते हैं, उन पंडितों की विद्वत्सभा में प्रशंसा की जाती है । मूर्खजनों में अपनी बुद्धि कौन बर्बाद करता हैं ?
धत्ता- कौन व्यक्ति विश्व में प्रेत के मुख को चूम कर उसे विकसित कर सकता है, अपने मन में यह विचार कर वह मौन का सहारा लेकर स्थित हो गई ।
5
(12)
जय और यश से सुन्दर राम की सुहावनी वार्ता, जब में प्रेषित लेखपत्र द्वारा सुनूंगीतभी मैं आहार ग्रहण करूंगी (अर्थात् भोजन ग्रहण करूंगी) नहीं तो मेरे लिए जिनवर की शरण है, मैं संलेखना मरण को प्राप्त होऊँगी । यहाँ पर आयुधों की रक्षा करने वाले ने कुबेर के द्वारा रक्षित चमकता हुआ चक्ररत्न देखा। उसने प्रणाम कर रावण से कहा - आयुधशाला
प्रलयकाल के सूर्य के समान तथा हर्ष उत्पन्न करने वाला वक उत्पन्न हुआ है । इससे राजा 2. AP वायसु । 3. P गर। 4. AP सुरखरतरु। 5. AP रामें । 6. AP विजयणि । 7. A मुखमणि । 8 A थिउ ।
(12) 1 AP जय लक्ष्खणराम तणिय 2. AP जइहूं। 3. AP तइयहुं । 4. K records a आरकिय इति पाठे आरैः क्षितं प्राप्तं अराणां वा निवास: S, AP खररवि° ।
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12. 12. 11]
195
महाकइ-पुष्यंत-चिरइयउ महापुराण ता णिवह हियउं रोमंचियउं तं जाइवि' कुसुमहि अंचियउं । णिवमंतिहिं इय बोल्लिड वयणु एंवहि कहि चुक्कइ दहवयणु। संभूयउं भवणि चक्करयणु आणिउं अण्णेक्कु वि मिगणयणु । जंतं कलत्तु रामह तणउं अप्पिज्जउ धणचक्कलथणउं । उप्पाउणयरि भीयह हवइ तं णिणिविणहरिंद लवइ । उप्पण्णु चक्कु सीयागमणि किं तुम्हडं अज्ज वि भंति मणि । घता-छिदिवि अरिसिरई असिकंपावियदेवासुरु ॥
भरहह हउं जि पहु सिरिपुप्फयंतभाभासुरु ।।12।।
10
इय महापुराणे तिसद्विमहापरिसगुणालंकारे महाभव्यभरहाणुमण्णिए
महाक इपुप्फयंतविरइए महाकव्वे सीयाहरणं णाम
दुसत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो ।।72॥ रावण का हृदय रोमांचित हो उठा और उसने जाकर फूलों से उसकी अर्चा की। राजा के मंत्रियों ने यह शब्द कहे-हे दशवदन, तुम इस समय क्यों चूकते हो। तुम्हारे घर में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है । और एक और जो मृमायिनो तुम ले आएं हो वह राम की पत्नी है। घन गोल स्तनों वाली उसे तुम वापस कर दो। नगर में भीषण उत्पात होगा। यह सुनकर विद्याधर राजा कहता है कि सीता के आगमन से ही चक्ररत्न की प्राप्ति हुई है। क्या आप लोगों के मन में आज भी भ्रांति है?
पत्ता-मैं शत्रु का सिर काटूंगा? अपनी तलवार से देव और असुरों को पाने वाला तथा सूर्य और चन्द्रमा के समान में ही भरत क्षेत्र का स्वामी हूँ।
प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का
सीताहरण नाम का बहत्तरवा परिच्छेद समाप्त हवा ।
6.AP महिवहवउ । 7.A जोइवि। 8. AP सुवह पडिवज्जइ दह। 9. AP भवणि वि। 10P अप्पिज्जद्द । 11. AP यहछ। 12. AP छिदमि। 13. AP बहसरिो ।
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तिसत्तरिमो - संधि
मायारच किं माणिक्कमउ जो रहु सीहहु णंदुउ ॥ महं णाar' भावइ सो हरिणु चंदहु सरणु पट्ठउ ॥ वकं ।
Ι
दुबई- एहि रामसामि भृगपच्छइ' गउ दूरंतरं वणे ॥ एतहि णीय सीय दहचयणें एतहि सोउ परियणे ॥ छ ॥ एतहि दिति' अत्यइरिसाणु संपत्तउ लहु अत्यमि भाणु । णरतिरियणयणपसरण हरंतु चकलहं ततवणु करंतु । णं दिसइ लड्उ रइरसणिहाउ णं णिउ रावणपया' । णं रद्द समुद्धे रयणसंगु णं महिइ गिलिउ रइरहर हंगु# । देउ वि वारुणिसंगेण पडद इय भणंतु पक्खिउलु रडइ ।
तिहत्तरवीं संधि
5
वह माणिक्यमय हरिण क्या मायावी था कि जो राम रूपी सिंह से नष्ट हो गया ? वह हरिण मुझे चन्द्रमा की शरण में गया हुआ अच्छा लगता है।
(1)
दुवई - यहाँ स्वामी राम मृग के पीछे वन में दूर तक चले गये। यहाँ सीता दशमुख के द्वारा ले जाई गई और यहाँ स्वजनों में शोक बढ़ गया ।
यहाँ दिन का अन्त होने पर अस्तंगत सूर्य शीघ्र ही मनुष्यों और तिर्यंचों के नेत्र- प्रसार का हरण करता हुआ, चक्रवाल कुल के लिए शरीर संताप करता हुआ, अस्तगिरि के शिखर पर इस प्रकार पहुँच गया मानो दिशा ने (पश्चिम दिशा ने) रति-रस के निधान को ले लिया हो, मानो रावण का प्रताप नष्ट हो गया हो, मानो समुद्र ने रत्न का ( सूर्य का ) साथ कर लिया हो, मानो धरती ने रति के रथ चक्र को निगल लिया हो । देव (सूर्य) भी वारुणी (सुरा,
(1) 1. AP भाव णावह 2. AP मिंग। 3 A दियंति; K दिणंति, corrects it to दियंति but has a gloss दिनस्यान्ते । 4. AP पिट्टिउ । 5. AP रामणभूय । 6. A रवि रहौं ।
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73.2.9]
महाकइ- पुष्कर्यत विरइयउ महापुराणु
गच्छंतु अहोमुहु तिमिरमंथु राम कत्तु इह हित्तु जेण गज अत्यवहु कंदो जुरु
णं दाव णरयहु तणउ पंथु । जाएसइ सो सम्मेण एण । करसहस्रेण वि णउ धरिउ सूरु ।
चत्ता - विडंतु जंतु हेट्ठामुहउ रवि किं एक्कु भणिज्जइ ॥ जगलच्छी मंदिरणिग्गयहिं मंददि को रक्खिज्जइ || 1 ||
2
दुवई - माणवभवणभरहखे त्तोवरि वियरणगमियवासरो ॥ सीयारामलक्खणाणंदु व जामत्थमिओ' दिणेसरो । छ || झारायको भचीरु' । farasबिओज' अइअसहमाण । मलिय कमलु णं ताहि तुंडु | तारयिण णाव तुट्ट हारु । तरिरि समरि भिडिउ । परिपालियखतु व रायउतु । सोहर णावर दहवयणु बीउ ।
पच्छाइयलयलायासतीरु
सिरि परिहइ रंडिज्जमाण सिसुससि भग्गज णं वलयखंड विक्कि पत्तु दियतपारु गय णिसि उययाकरिहि चडिउ उग्गंउ उष्णई पहरेण पत्तु fares restar उमसीड
[97
10
5
पश्चिम दिशा) के संग पड़ जाते हैं, मानो पक्षिकुल यह कह कर चिल्ला रहा है, अंधकार का नाश करने वाला (सूर्य) अधोमुख जाता हुआ नरक के पक्ष को दिखा रहा है। यहाँ जिसने राम की पत्नी का अपहरण किया है, वह भी इसी मार्ग से जाएगा । कमलों को खिलाने वाला सूर्य अस्त को प्राप्त हो गया, हजार किरणों के द्वारा भी वह नहीं पकड़ा जा सका ।
घता पतित होता हुआ और अधोमुख जाता हुआ क्या अकेला सूर्य ही है ? विश्व में लक्ष्मी के घर से निकले हुए मंद व्यक्तियों से किसकी रक्षा की जा सकती है ?
(2)
मानव जाति के घर भग्तक्षेत्र के ऊपर, जो विचरण कर अपना दिन बिताता है, ऐसा सूर्य सीता, राम और लक्ष्मण के आनन्द के समान जब अस्त को प्राप्त होता है, तो आकाश की लक्ष्मी विधवा होती हुई, समस्त आकाश रूपी तीर को आच्छादित करने वाली वह संध्या मानो राग रूपी वस्त्रको पहिन लेती है । दिनपति के वियोग को नहीं सहन करती हुई, उसने बाल चन्द्र को इस प्रकार खंडित कर दिया मानो अपना बलयखंड ही खंडित कर दिया हो । कमल मुकुलित हो गया, भानो उसका मुख ही मुरझा गया हो। जो इधर-उधर विकीर्ण होकर दिगंत पर्वत पहुँच चुका है, ऐसा तारागण मानो उसका टूटा हुआ हार है। रात्रि व्यतीत हो गई । उदयाचलरूपी महागज पर चढ़ा हुआ वह (सूर्य) अंधकार रूपी शत्रु राजा से युद्ध में भिड़ गया। जिसने क्षात्र धर्म का परिपालन किया है, ऐसे राजपुत्र के समान जो एक प्रहर ( प्रहार )
(2) 1. AP आमत्थमिउ फेसरों । 2. A संसाराएं । 3 A विओ। 4. AP णं भग्गर । 5. APT विविण्ण उ पत्तदियंतरालु ।
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981
महाकषि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
{73. 2. 10 सीयाविरहहुयासचंडू णं तियसाणीकरघुसिणुपिंडु। 10 णं दिसकामिणिसिरि' रत्तु फुल्लु णं खयररायतणुरुहिरतल्लु । धत्ता-हयसीयर्ड' कयरण्णागमणु अइरत्तउ सउहाइयउ।।।
दीहरपहरीणे राहविण रवि परवाह व जोइयउ ।।2।।
मुगाई-- -पुखिकर ण तेत्थु णियपरियणु बालमरालगामिणो ।।
कहि सा सीय भणसु भो लक्खण सइगणरयणसामिणी ।।छ।। तं णिसुणिवि भायरु कहइ एंब जावहिं तुई गउ मृगमगि देव । जावहिं हउं अच्छिउ सरवरंति तावहिं जि ण दिट्टी उबवणंति। विण्णवइ एंब भिच्चयण सव्व कंदइ उब्भियकरु गलियगत्रु । 5 एंवहिं जाणइ दीसइ जियंति जइ तो' तुहं पुण्णाहिउ ण भंति। तं णिसुणिवि मुच्छिउ पडिउ रामु जलसिंचिज उडिउ खामखाम् ।
सीयलु विसु विसु व ण संति जणइ हरियंदणु सिहिकुलु अंगु छगइ । में उन्नति को प्राप्त हो गया । जिसने पद्म सीय कमलों को शीत (राम और सीता) को विघटित कर दिया है, ऐसा दिनकर दूसरे दशमुख के समान शोभित होता है। मानो वह सीता देवी की विरह रूपी ज्वाला से प्रचण्ड है, मानो इन्द्राणी के हाथों में केशर का पिण्ड है, मानो दिशा रूपी कामिनी के सिर पर रक्तपुष्प है, मानो विद्याधर राजा के शरीर के रक्त का तालाब है।
पत्ता लम्बे रास्ते से थके राघव ने सूर्य को रावण के समान देखा जो शीत दूर करने वाला (सीता का अपहरण करनेवाला) युद्ध के लिए आगमन करनेवाला, अत्यन्त रक्त (अनुरक्त) और सामने दौड़ता हुआ है।
(3) दुबई-राम ने वहाँ अपने परिजनों से पूछा-हे लक्ष्मण, बताओ बाल-हंस के समान गतिवाली तथा सतीत्व गुणरूपी रत्नों की स्वामिनी वह सीता बताओ कहाँ है ?
यह सुनकर भाई ने इस प्रकार कहा-हे देव, जब तुम हरिण के मार्ग पर गए थे, और जब मैं सरोवर में या, तब वह उपवन में दिखाई नहीं दी। समस्त भृत्यजन भी निवेदन करते हैं,
और दोनों हाथ उठाकर गलितगर्व रुदन करते हैं कि यदि इस समय जानकी जीवित दिखाई देती हैं, तो तुम पुण्यशाली हो। इसमें भ्रांति नहीं। यह सुनकर राम मूछित होकर गिर पड़े। पानी छिड़कने पर अत्यन्त दुर्बल वह उठे । शीतल जल भी विष की तरह उन्हें शांति उत्पन्न नहीं करता, हरिचन्दन भी अग्निकुल की तरह शरीर को जलाता। कमल भी सूर्य के साथ अपनी 6. A दिसिकामिणिकररस्तु फल्लु । 7. AP हिय । ४. सविहायउ; P सनहाइउ । 9. P पहरेण । 10.AP परिवारु वि जोइ।
(3) I. A सयंगुण । 2. AP गउ तुटु भिग 1 3. A सरवणंति । 4. Pत।
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73.4.10]
[99
महाकइ-पुपफयंत-विरइयउ महापुराणु णलिणु बि सूरहु सयणत्तु बहइ सयणीयलि चित्तउ देहु डहइ । पियविरहु जलद्दई सिहि व जलइ चमराणिलु तासु सहाउ" धुलइ। वत्ता-रया व रिविकाससककाचकव्वासउ ।।
विणु सीयइ भावइ राबहु णाडउ णाडयपासउ ।।३।।
10
5
दुवई-जलि थलि गामि गामि पुरि घरि घरि गिरिकंदरणिवासए॥
जोयह कहि मि घरिणि जइ जाणह बहुदुग्गमपवेसए ॥छ।। अवियाणिउं जगि को फहद कासु पेसिय किंकर दससु वि दिसासु । सई का णणि रहुवइ हिंडमाणु पुच्छइ वणि मिगई अयाणमाणु। रे हंस हम सा हंसगमण
पई दिदठी कत्थइ विउलरमण । चंग चिम्मक्कहुँ सिक्खिओ सि महं अकहंतु जि खलक गओ सि । रे कुंजर तुह कुंभत्थलाई
णं मह महिलाइ थणत्थलाई। सारिक्ख लइयउं एउ काई भणु कंतइ कहि" दिण्णई पयाई। सारंग कहहि महु जणयधीय णयहिं उबजीविय पई मि सोय ।
अलि घरिणिकेसणिद्धत्तचोर णिसि सररहदलकयबंधणार। 10 स्वजनता प्रकट करता है, शयनतल पर रखा गया भी वह देह को जलाता है। जल से गीले वस्त्र भी प्रियविरह की आग के समान जलाते हैं, और नवरों की हवा उनकी सहायक हो जाती है।
घत्ता---गीत का स्वर शत्रु के द्वारा छोड़े गए शर के समान मालूम होता है, और काव्यशरीर का मांसभक्षक होता है । बिना सीता के राम को नाटक, नाटक-बंधन के समान लगता है।
दुवई-- जल थल ग्राम ग्राम-पुर घर-घर और जिनमें प्रवेश -दुर्गम है, ऐसे गिरि-कंदरा के निवासों में कहीं भी देखो, यदि गृहिणी वहाँ मिल जाए।
अविज्ञात को विश्व में कौन किस से कहता है ? इसलिए दसों दिशाओं में अनुचरों को भेज दिया जाए ! राम स्वयं कानन में अज्ञानी की तरह भ्रमण करते हुए पशु-पक्षियों से पूछते हैं - हे हंस, तुने उस विपुल रमण करने वाली हंसगामिनी को देखा है ? तुने सुंदर चलना सीख लिया है । हे दुष्ट, मुझसे कहे बिना तुम कहाँ चले गए थे ? रे गज, ये तुम्हारे कुंभस्थल हैं, मेरी पत्नी के स्तनस्थल नहीं है । तुमने यह समानता क्यों ग्रहण की ? बताओ कांता ने किस ओर पग दिए हैं ? हे मग, तुम बताओ कि जनक की बेटी, मेरी सीता के नेत्रों से तुम उपजीवित हुए थे ? मेरी गृहिणी के केशों की स्निग्धता को चराने वाले तथा रात्रि में कमल दल में अपना बन्धन करनेवाले हे भ्रमर, तुम मेरी 5. A विरहवलद्दइ । 6. A सहासु ।
(4) I. A-जोवहु । 2.A वणमिगई। 3. A कत्यवि । 4. P चिमक्कहं । 5. Aणं महु महिलहि घणणषलाई16.A किं ।
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1001
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[73.4.11 ण वियाणहि कतहि तणिय वत्त रेणीलगीव घणरामवत्तः । णचंति दिद भणु कहि मि देवि इयरह कहि णच्चहि भाउ लेवि ।
रे कीर ण लज्जहि जंपमाणु जइ दिटुउं पई मुखहि पमाणु । घत्ता--णिरु विरहें शीणउ दासरहि देविहि अज्जु जि सुच्चहि ।।
णीसेसजीवसंतावहर मेह दूअउ तुहं वच्चहि ।।4।।
दुबई-अइउक्कठिएण धरणीसें सज्जणदिग्णजीययं ।।
__ता दिनै मयच्छिथणकुकुमपिंजरू उत्तरीययं ॥छ॥ दीसइ वसग्गविलंबमाणु णं रिउ गयगयणंगणणिवाणु । णं दावइ कंतहि तणिय बट्ट इह दहमुहमारीयई पयट्ट । णं उबिभय सीयइस इवडाय तं लेप्पिणु किंकर शत्ति आय । आलिंगिउं रामें णीससेवि पुणु बाहुल्लई णयण ई पुसे वि। जंपिउं णिय सुंदरि खेयरेहि मायाविएहिं रणदुद्धरेहि । सहुं लक्खणेण संदेहि छूटु जामच्छड़ पर किंकज्जमूह । ताबायउ ठूयउ दसरहासु ते चित्तु पत्तु आलिहिउ तासु। उच्चाइवि तं सहसा सिरेण इय वाइउं देवें हलहरेण ।
10 कांता का समाचार नहीं जानते ? हे सुन्दर स्मरणीय पूंछवाले मयूर बताओ, क्या तुमने देवी को कैसे नृत्य करते हुए देखा? अन्यथा तुम उसका भाव ग्रहण कर कसे नाच रहे हो? हे शुक, तू बोलता हुआ लजाता नहीं है, क्या तु मेरी पत्नी का पता जानता है ?
पत्ता-पवित्र देवी के विरह में राम आज भी अत्यन्त क्षीण है। निःशेषजीवसतापहर हे मेघ, तुम दूत हो तुम बताओ।
दुवई -अत्यन्त उत्कंठित धरणीश (राम) ने सज्जनों को जीवन देने वाला, मृगाक्षी (सीता)के स्तनकेशर से पीला उत्तरीय देखा।
बाँस के अग्न भाग पर अवलम्बित वह ऐसा दिखाई देता है, मानो शत्रु के आकाश-प्रांगण
ने का चिन्ह हो। मानो वह कांता का मार्ग बता रहा हो कि दशमख रावण के द्वारा वह यहाँ से ले जाई गई है। मानो सीता के सतीत्व की पताका उठी हुई हो । उसे अनुचर लेकर शीघ्र आए । राम ने नि:श्वास लेकर उसका आलिंगन किया और फिर बाँहों से अपने नेत्रों को पोंछ फर कहा-मायावी और अत्यन्त दुर्धर विद्याधरों द्वारा सोता ले जाई गई है । इस प्रकार जब राम लक्ष्मण के साथ संदेह में किंकर्तव्यविमूढ़ थे, तभी शीघ्र दशरथ राजा का दूत आया, और उसने उनका लिखा हुआ पत्र (सामने) रख दिया। उसे सहसा उठाकर देव बलभद्र राम 7.A वणरावमत्त; Pघगराम्पत्त; Tणराबमत्त अतिशमेन रमणीयपिच्छ । 8. AP दूर ।
(5) J. AP "पिजरि। 2. A णं रिज गयणगणि णिज्जमाण। 3. AP "मारीवय । 4. P रणि दुद्धरेहि।
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73, 6, 11]
[101
महाका-पृष्फयंत-विरइयर महापुराणु दसरहु जिगचरणंभोयभसलु उवइसइ सुयह णियदेहकुसलु ।
मई दिवडं सिविणउं यविलासु हिय राहुं" रोहिणि ससहासु । पत्ता-एक्कल्लउ ससि पहलि भमइ अवलोइवि अवहारि ।।
वज्जरिउं पहाइ पुरोहियह तेण चि मज्म वियारिज 1511
दुवई--जो दिट्ठ विज्ञप्पु सो रावणुजा णिति १ई विलोइया ।।
रोहिणि तुहिणकिरणविच्छोइय सा तुह सुविओइया ॥छ।। परमत्थें जाणसु राय सीय अज्जु जि खरिदें घरहु णीय । जा हिप्पइ सा' पुणरवि णिरुत्त ता किज्जइ णियदेहहु पयत्त । जे चक्कवट्टि पालइ सजीव भरहंतरालि छप्पण्ण दीव । तहि सायरि लंकादीबु अस्थि ___ अण्णु वि तिकडु गिरि मणिगभत्थि । पुरि लेक राउ दहवयणु णाम णिय तेण सीय रामाहिराम । आयण्णिवि विसरिसविसम बत्त । ते बे वि भरह सत्तुहण पत्त। हिंसंततुरय गज्जेतणाय
सामंत सुहड दसदिसिहि आय। आवेप्पिणु तणयासोक्खहेंउ ससुरेण णिहालिउ रामएउ। 10
दुम्मणु जोइवि रिउमणेण गलगजिउ तेत्थु जणदणेण। ने सिरे से उसे पढ़ा- "जिनबर के चरणकमलों का भ्रमर राजा दशरथ पुत्रों को अपनी देह की कुशलता का आदेश करता है। मैंने स्वप्न में देखा कि राहु द्वारा चन्द्रमा की हतविलास रोहिणी का अपहरण किया गया है।
घत्ता-अकेला चन्द्रमा आकाश में परिभ्रमण करता है, यह देखकर मैंने समझ लिया और सवेरे पुरोहित से कहा । उसने मुझे बताया
तुमने जो राह देखा है, वह रावण है और जो तुमने रात्रि में चन्द्रमा से वियुक्त रोहिणी को देखा है, वह तुम्हारे पुत्र से वियुक्त सीता है।
हे राजन्, तुम इसे परमार्थ जानो कि आज ही वह विद्याधर के द्वारा घर ले जाई गई है। यदि उसे फिर से वापस लाना है तो निश्चय ही अपनी देह से प्रयत्न करना चाहिए। चक्रवर्ती जो भरतक्षेत्र में जीव सहित छप्पन द्वीपों का परिपालन करता है उसके समुद्र में लंका द्वीप है। और भी त्रिकूट मणि किरण आदि द्वीप हैं । लंका नगरी में राजा रावण है, उसके द्वारा स्त्रियों में सुन्दर सीता का अपहरण किया गया है । यह असमान विषतुल्य बात सुनकर भरत और शत्रुघ्न दोनों वहाँ पहुँचे। हिनहिनाते हुएघाड़े, गरजते हुए हाथी, सामंत और सुभट दसों दिशाओं से आये। पुत्रो के सुख के कारणभूत राम देव से ससुर ने भी आकर भेंट की। उन्हें दुर्मन देखकर शत्र का मर्दन करनेवाला लक्ष्मण एकदम परज उठा।
5. AP जिणकमलंभोय। 6.A राहें।7. AP विधारिमर्ड।
(6) 1. A सो। 2. A जो। 3. उद्धयकेसरु ।
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102]
[73, 6. 12
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण पत्ता-रिजजरकुरंगु महु आवड हउँ हरि उद्ध यकेसरु ॥
___ जइ दुडु दिविगोयरि पडइ तो मारमि लंकेसरु ॥6॥
दुवई–सीयागुणविसेससंभरणचुयंसुयसित्तवसुमई ।।
उम्मोहिउ विओयविसधारित कह व णिवेहि महिवई छ।। पियविपओयकरमणिमण जांवच्छइ सेज्जायलि णिसपणु । तावाय बेणि खग विमलदेह णं रामसासथिरकरणमेह। गं सीयामग्गपयासदीव बेणि वि पणवेप्पिणु थिय समीव। 5 संमाणिय हरिणा संणिसण्ण सुहिसणरुहरोमंचभिषण । बोल्लाविय बेण्णि वि दिव्वकाय कहुं तुम्हइ कि किर एत्थु आय। तं णिमुणिवि भासइ जेठ्ठ खयरु खगदाहिणसे दिहि अस्थि णयरु । णामें किलिकिल कलहंससहिय जहि विविवास चोरारिरहिय। तहि महु' बलिदु माणियपियंगु तहु धण पियंगसुंदरि पियंगु । 10 सामल सलोण उडुणिणहालि तहि पढममुत्त णामेण वालि । हउं लहुयारउ सुग्गीउदेव अणवरउ करमि णियपियरसेव । धत्ता-ता तेत्थु मरतें पुरि पिउणा वालि रज्जि वइसारिउ ।
हउं जुवराणउ कउ मइ जणणि" दाइएण णीसारित ।। 7॥ घत्ता–श मुझे बूढ़े हरिण की तरह प्रतीत होता है। मैं, जिसकी अयाल ऊपर उठी हुई है, ऐसा सिंह हूँ। यदि वह लंकेश्वर मेरी निगाह में पड़ता है, तो मैं उसे मार डालूंगा।
सीता के गुण विशेष के स्मरण से गिरे हुए आंसुओं से जिन्होंने धरती को सिंचित कर दिया है, ऐसे वियोग के विष से व्याकुल महीपति राम को राजाओं ने किसी प्रकार समझाया ।
प्रिया के वियोग के कीचड़ में निमग्न राम जब अपनी सेज पर बैठे हुए थे, तब पवित्र शरीर विद्याधर ऐसे आए मानो राम रूपी धान्य को स्थिर करने के लिए मेघ हों, मानो सीता के मार्ग को प्रकाशित करने वाले दीप हों। दोनों प्रणाम करके वहाँ पास में बैठ गए । बठे हुए उनका लक्ष्मण ने सम्मान किया । सुधि और दर्शन से उत्पन्न रोमांचित दिव्य शरीर वाले उन दोनों से लक्ष्मण ने पूछा--कहाँ से किसलिए आए? यह सुनकर बड़ा विद्याधर कहता है-विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणो में एक नगर है, जो नाम से किल-किल कलहंसों से सहित है। जहां चारों ओर शत्रुओं से रहित विविध आवास घर हैं, वहाँ जिसने प्रियंगु को माना है, ऐसा मेरा राजा बलि है। उसकी पत्नी प्रियंगु सुंदरी प्रियंगु के समान सुन्दर श्यामल और नक्षत्र पंक्ति के समान नखों वाली है। उसका पहला पुत्र बालि नाम का है, और मैं छोटा सुग्रीव देव हूँ। मैंने अनवरत रूप से पिता की सेवा की है।
पत्ता-पिता ने मरते समय बालि को राजगद्दी पर बैठा दिया, और मैं युवराज बना दिया गया । मुझे भाई ने निकाल दिया ।
पई। 2 P has ता before पिय13. P°णिसण | 4. A पहुँ। 5. AP पियंगुसुंदरि। 6. A जणेण ।
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73.8, 15]
महाकइ पुम्फत विषय महापुराण
8
विज्जाहरु णामें अस्थि पवणु तहु अंजण मणरंजणवियार
दुबई - सुणि रायाहिराय हे हलहर मणिमयसिहरमंदिरे ॥ तित्थु जि रययसिहरि खगसेढिहि खणरुइकंतपुरवरे ॥ छ ॥ लीलाणिहि वैयविजित्तपवणु । महवि बूटसिंगारभार । ...हे व गविभ महासईहि । जगि बुच्चइ एह जि मयरकेउ । एए दिणी बिज्जापरिक्ख । today for उडवाउ गयगण ससि दिवसयरु जाम । अमेr मिलिवि खपरेहिं वुत्तू | वाले महु दिण्णउं जज्रवरज्जु" । आसंकिवि तें सहुंण किउ रणु वि। संमेयजिणा सिद्ध ।
ड्ड सहाय गह पंड पहु भडु विज्जाणिकेउ एक्कहिंदिणि कोक्कवि खयरलक्ख गिरिसिहरि णिवेसिउ एक्कु पाउ दीga पसारि गयउ ताम पुणु रूबु धरिउ तसरेणुमेस्
विहायसाहस अभेज्जु
कालें तें तं हित्तु पुणु वि गय श्रेणि विजण माणवकचूड
घत्ता - तसथावरजीवहं दय करिवि धम्मि थवेष्पिणु अप्पर ।। तहि देहिदेह दुहणासयरु बंदिउ जिणु परमप्पउ || 8 |
[103
5
10
15
(8)
दुबई -- हे राजाधिराज, हे हलधर सुनिए, वहाँ ही विजया पर्वत की विद्याधर श्रेणी के मणिमय शिखर मंदिर वाले विद्याधर विद्युत्कांत नगर में पवन नाम का विद्याधर है । अपने वेग से पवन को जीतने वाले उसकी लीलाओं की निधि और मनोरंजन के विचार से युक्त श्रृंगारभार धारण करने वाली अंजना नाम की महादेवी थी । गजगामिनी उस महासती के गर्भ से उत्पन्न यह मेरा सहचर है-चतुर पंडित और भटविद्या निकेत । विश्व में इसे कामदेव कहा जाता है। एक दिन एक लाख विद्याधरों को बुलाकर इसने विद्याओं की परीक्षा दी। पहाड़ के शिखर पर इसने एक पैर रखा और दूसरा उद्दंड पैर आधा लम्बा फैलाया। वह वहाँ तक गया, जहाँ तक आकाश के आँगन में सूर्य और चन्द्रमा हैं । फिर उसने अपना रूप दूसरेणु तथा अणु वरावर यनाया। विद्याधरों से मिलकर उसका अमेय स्वभाव और साहस देखकर बालि ने मुझे युवराज पद दे दिया। लेकिन समय बीतने पर उसने अपहरण कर लिया। आशंकित होकर हमने उसके साथ युद्ध नहीं किया। हम दोनों, जिसके शिखर माणिक्य के हैं ऐसे, सिद्धकूट समेदजिनालय गये ।
घत्ता --- वहाँ सस्थावर जीवों की दया कर और अपने आपको धर्म में स्थापित कर शरीरधारियों के शरीर के दुःखों का नाश करने वाले परमात्मा जिनदेव वंदना की ।
( 8 ) IA रमणिगणदित्तमंदिरे P रमणियसियमंदिरे 1 2 Padds वि after अक्कु । 3. A जुजविरज्जु; P जुजवरज्जु ।
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104]
महाकवि पुष्पम् विरचित महापुराण
9
दुबई -- जय देविदचंदखर्यारदफणिदणरिदपुज्जिया ॥ जय णिट्ठवियदुकम्मट्ठट्ठारह दोसवज्जिया || छ णमिद्दा ण भुक्खा |
ओण रोओ।
भोसुख
ण तव्हाण सोओ चावं ण वेरी
ण कार्य ण चेलं ण विदा ण थोत्तं हिंसाइ सग्गो गोभूमिदा ण चग्मुत्तरीयं " उरे णत्थि सप्पो पसूणतयाल सिरे णत्थि गंगा भवाणी ण देहे
पुराण कामी fort मtratऊ
ताणं ण मारी। सीसं सिहाल | मुद्दावित्त" । सोंडालमग्गो' ।
ण वेओ पमाणं । जोवीयं ।
मणे णत्थि दप्पो । करे णत्थि सूलं । जागोवियंगा" |
रई पोसणेहे" |
तुम मज्झ सामी । भवभोहिसेऊ ।
घत्ता - जय परमणिरंजण जणसरण" बीयराय जोईसर ||
[73.9. 1
जल पत्थर पाणि धम्भु गउ तुहुं जि धम्मु परमेसर ||9||
5
10
15
(9)
देवेन्द्र चन्द्र विद्याधरेन्द्र नागेन्द्र और नरेन्द्रों के द्वारा पूज्य, आपकी जय हो । जिन्होंने आठों दुष्कर्मों का नाश कर दिया है, और जो अठारह दोषों से रहित हैं, ऐसे आपकी जय हो ।
त भोगों में आकांक्षा है, न नींद है, और न भूख, न तृष्णा है, और न शोक, न राग है, और न रोग । न चाप है, और न शत्रु है, न त्राण है, और न मारी। न शरीर है, और न वस्त्र है और न जटायुक्त सिर है, न निन्दा है और न स्तुति, न पवित्र मुद्रा है । न हिंसादि से स्वर्ग है, न सुरा मार्ग है, न गी और भूमि का दान है, न वेदों का प्रमाण है, न चर्म का उत्तरीय (मृगछाला) है और न यज्ञोपवीत है । उसपर सर्प नहीं है. मन में दर्प नहीं है, पशु-पशुओं का अन्त करने वाला शूल हाथ में नहीं है । न सिर पर गंगा है, न जटाओं में गुप्त अंग है। न देह में भवानी है और न स्नेह में रति हैं, और न त्रिपुर शत्रु हैं, न कामी हैं । हे देव, आप मेरे स्वामी हैं। जिनदेव ही मोक्ष के कारण हैं, भवरूपी समुद्र के सेतु हैं।
घत्ता - हे परम निरंजन जनशरण, आपकी जय हो । हे वीतराग ज्योतीश्वर, आपकी जय हो, जल, पत्थर और पानी में धर्म नहीं है । हे परमेश्वर, धर्म आप ही हैं ।
( 9 ) 1. AP ° पुज्जिय । 2. AP " वज्जिय । 3. AP पाओ। 4. AP तावं । 5. A ण कार्य सुचेलं; P कामे सुचेलं । 6. AP ण मुद्दा ण विसं । 7. Aण सो जष्णमग्गो 8. APण वेउप्पमाणं । 9. A सुत्तरीयं । 10. P जग्गोवियंगा। 11. AP साहे । 12. P जगसरण ।
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73.10.14] माहाकइ-पृष्फयंत-विरहया महापुराणु
[105 10 दुवई—दिणयरु हरइ तिमिरु सलिल वितिस खगवइ विसवियंभियं ।।
जिण तुह वंसणेण खणि णासह गुरुदुरियं णिसुंभियं ।।छ।। इय वैदिवि जिणवरु सेस लेवि खण एक्कु जाम तहि थक्क बे वि। ता तेयवंतु णं विजुदंड
णं सुरवरसरिडिंडीरपिंडु। वियडजडजूड़ विवरीयवाणि मणिरयणकमंडलु दंडपाणि । खणखणियमणियगणियक्खसुत्तु कोवीणकणयकडिसुतजुत्त । ससहरु व विसाहारूढमत्त असुरसुरसमरसंणि हियचित्त । सोत्तरियफुरियउववीयवंतु ता दिट्ठउ गारउ गयणि एंतु। अरहंतु णवेप्पिणु सुहृणिविठ्ठ। अम्हहि संभासणु करिवि दि४ । तुहुं जाणहि णिसुयसुयंगरिद्धि पुच्छिउ पावेसहुं किह सरिद्धि। 10 मुहं कइ संकइ वालि कासु को देसइ कुलरज्जावयासु। तादाणवमाणवरणरएण बिहसेप्पिणु बोल्लिऊ णारएण। घत्ता–भो खेयरपहु भूगोयरु वि धुउ तिजगुतमु भावहि ।। सेवहि रामह पणपंकयइं जइ तो कुलसिरि पावहि ।। 10II
(10) दिनकर अंधकार को नष्ट करता है, जल प्यास को और गरुण विष के फैलाव को। हे जिन, तुम्हारे दर्शन मात्र से भारी पाप एक क्षण में चूर-चूर हो जाते हैं।
इस प्रकार जिनवर की वन्दना कर निर्माल्य लेकर जैसे वे दोनों एक क्षण के लिए ठहरे कि इतने में तेज से युक्त मानो विद्युत दंड हो, मानो देव-गंगा का फेन समूह हो, बिकट जटाजूट वाला, विपरीत वाणी वाला, जिसका कमंडलु मणि और रत्नों का है, जो हाथ में दण्ड लिये हुए है, जो खनखनाता हुआ, मणियों का अक्षसूत्र जप रहा है, कोपीन और कनक कटिसूत्र से युक्त जो विशाखा नक्षत्र में रूव चन्द्रमा के समान पादुकाओं पर आरूढ़ है, जो असुर और सुरों के युद्ध में समाहित चित्त है, जिसके उत्तरीय पर यज्ञोपवीत चमक रहा है, ऐसे नारद को आकाश में आते हुए देखा। अरहंत को प्रणाम करके वह सुख से बैठ गए। हम लोगों ने संभाषण करने के लिए उनसे भेंट की और पूछा--आप निश्रत और श्न तांग की ऋद्धि को जानते हैं, हम अपनी ऋद्धि कब प्राप्त करेंगे ? बालि किससे मुख देवा रखता है और आशंका करता है ? कुलराज्य का आलिंगन कौन देगा? तब दानवों और मानवों के युद्ध में रत नारद ने हँस कर कहा
पत्ता हे विद्याधर स्वामी, भूगोचर (मनुष्य) भी विजय में उत्तम होते हैं । यदि तुम राम के चरणकमल चाहते हो, और सेवा करते हो, तो कुललक्ष्मी प्राप्त कर सकते हो।
(10) 1. AP विज्जदछ । 2. AP मणिरइय' । 3. A गलियक्ष" । 4. A सहु। 5. V विहसेविणु।
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106]
महाकवि पुष्पवन्त मिरचित महापुराण
11
दुवई - अष्णु वि हरिणणयण णियपणइणि तासु दसासराइणा || विरसियअमरडमडिडिमरवरिउबहुतासदाइणा ॥ छ ॥
जो दाव कंतहि तणिय यत्ति । तिह रामहु होसइ परमबंधु । सो देस तु सुग्गीव रज्जु । जलयग्गिसिंगसंणियिपाय । संभासिय तोसिय माहवेण । जंपिउ णवजलहरणीसणेण । मा झिज्जहि सज्जण कुमुयचंद । हरं आण ि सीयहि तणिय वत ।
दुखेण ण याणइ दिमहु रन्ति सो जाणमि जिह भमरहु सुगंधु लभ मणोज्जकज्जेण' कज्जु सुगवि आया एत्थु राय से शहर पुज्जिय राहण पेण
भो दसरहणंदण णंद गंद णियरामालोयणकयपयत्त
घत्ता- सुरंगी बहु मुहं पप्फुल्लियउं' मित्तवयणु पडिवण्णउं ॥ अहिणाणु ले अंगुत्थलउं रामें हणुयहु दिण्णउं ||
[73. 11. 1
12
दुबई- -ता गविडं पयाई हलहेइहि वदलणलिणणिहमुहो || उल्ललिओ' हे पण इव चलगइ पवणतणुरुहो |छ ।
5
10
(11)
और भी विशेष रूप से बजाए गए अमरों के लिए भयानक डिंडिम के शब्द से शत्रु के लिए अत्यधिक त्रास देने वाला राजा दशानन उनकी मृगनयनी प्रणयिनी को ले गया है । वह दुःख के कारण दिन रात नहीं जानती। जो पत्नी की वार्ता को बताएगा, मैं जानता हूँ, कि भ्रमर के लिए सुगन्ध की तरह वह राम का परम बंधु होगा। मनोश काम से ही मनोज्ञ कार्य प्राप्त किया जाता है। हे सुग्रीव, वे तुम्हें राज्य दे देंगे। यह सुनकर, हे राजन्, हम लोग यहाँ आये हैं। मेघों के अन शिखरों पर चरण रखने वाले उन विद्याधरों का राम ने सम्मान किया। लक्ष्मण ने बात कर उन्हें संतुष्ट किया 1 आदेश चाहने वाले तथा नवमेघ के समान शब्द वाले हनुमान् ने कहा- हे दशरथपुत्र, तुम प्रसन्न होओ, तुम प्रसन्न होओ। हे सज्जन कुमुदचन्द्र तुम क्षीण मत होभो, अपनी स्त्री के अवलोकन का जिसमें प्रयत्न है, ऐसी सीता संबंधी वार्ता में ले आऊंगा ।
(11) 1 A कज्जाण कज्जू । 2. P तुम्हहं । 3. A पफुस्लियर्ज P पहुल्लियई । (12) 1. I has गड before उल्ललिभो ।
पत्ता - सुग्रीव का मुख खिल गया। उसने मित्र का बचन स्वीकार कर लिया । राम ने पहिचान का लेख और अंगूठी हनुमान के लिए दे दी।
(12)
तब नवदल वाले कमल के समान मुख वाले हनुमान् ने राम के चरणों में प्रणाम किया । पवनगति वह पवनपुत्र आकाश मार्ग से पवन की तरह उड़ गया ।
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73. 13. 2]
महाकह- पुप्फयंत बिरइयज महापुराण
तओ तेण जंतेण दिट्ठो समुद्दो जलुम्म्मणिममबोहित्थवंदो झोफत सिप्पीसमूहो दिसा हुक्कणक्कुग्गयंत करालो पवालंकुरुक्केर राहिल्लरूहो सुभीस असोस' असे संबुवासो सोसंग 'गत्तणालीढारखी" करिदो व्व गाढं गहीरं रसंतो गरिदो व्व धीरो" समज्जायवंतो गिरिदो व्व रेहंतमाणिक्कमोहो
पत्ता - गंभीरु घोर आवत्तहरु लोलाइ जि आसंघिउ ' ॥ संसारु व परमजिणेसरिण मायरु हणुए लंघिउ " ||12||
13
पधावंत कल्लोलमालारउद्दो । अथाहं भपब्भारसंकेतचंदो । हुक्खत्तमुत्तालो भाणुरोहो । चलुपिच्छपत्त्यवेला विसालो" । पगज्जतमज्जतमायंगजूहो । विडिंदु व्व पीयाह कियासो। अलंकारओ कूलकीत जक्खो । अहिंदो व पायालमूले विसंतो । रिसिदो व अंतोमलं णिग्गहंतो । सुरिदो व देवासिओ दिण्णसोहो ।
दुवई - खेयरिचरणधुरिणमसिणारुण रयणसिलायला मलो ॥ दीस हि तिकडु गिरि दरितरुवियसिय कुसुमपरिमलो । छ । ।
[107
10
5
उस समय उसने जाते हुए समुद्र को देखा जो दौड़ती हुई लहरमाला से भयंकर था । जहाज समूह जल में डूब उतरा रहे थे । अथाह जल के प्रवाह से चन्द्रमा आशंकित हो रहा था । मत्स्यों के आघात से सीपी समूह फूट रहे थे। आकाश में उछलते हुए मोती किरणों को रोक रहे थे । दिशाओं में प्राप्त मगरों से निकले हुए मध्य भाग से जो भयंकर था, जो ऊपर जाते और पीछे हटते हुए तटों से विशाल था, जिसका तट प्रवाल के अंकुरों के समूह से शोभित था, जिसमें गरजते हुए गज समूह डूब उतरा रहे थे । जो अत्यंत भीषण अशेष जल का घर था । जो faडेन्द्र ( कामुक ) की तरह, पीताधर (अधरों का पान करने वाला, घरा तक व्याप्त रहने वाला), किता ( दिशा आच्छादित करनेवाला, आशा को आच्छादित करनेवाला ) था । जिसने नदियों के साथ ऊंचाई के द्वारा नक्षत्रों को छू लिया था, जो अलंकृत था, जिसके तट पर यक्ष कीड़ाकर रहे थे, करीन्द्र के समान जो पातालभूल में प्रवेश कर रहा था, नरेंद्र के समान जो धीर और मर्यादा वाला था, ऋषीन्द्र की तरह जो अन्तर्मन को नाश करने वाला था, गिरीन्द्र की तरह जिसमें माणिक्य किरणें चमक रही थीं, जो सुरेन्द्र के समान देवाश्रित और शोभायुक्त
था ।
छत्ता -- गंभीर भयंकर आवर्ती को धारण करने वाले समुद्र को हनुमान् ने उसी प्रकार पार कर लिया, जिस प्रकार परम जिनेश्वर संसार को पार कर लेते हैं ।
(13)
वहाँ विद्याधरियों के चरणों की केशर से चिकने और लाल रत्नशिलातल की तरह स्वच्छ तथा जिसमें घाटियों के वृक्षों के विकसित कुसुमों का परिमल है ऐसा त्रिकूट पर्वत दिखाई दिया ।
2. A सुप्फाल । 3. P चलपत्" । 4. असेसो । 5. AP रखो। 6. AP वीरो। 7. AP आसंघियत । 8. AP लंघियज ।
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108]
{73.13.3
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
अंतरत्तपत्तीतंबु गुरुसिहरा लिंगियसूरबिनु । वेलापक्खल बिसट्टबु fire दरिसेवियणियंबु । इणिउरवहिरिदियंतु णच्चियजविखणिरसभावधंतु । करिमयकद्दमखुप्तहरिणु गुमुगुमियभमिरछच्चरणसरण | हितकालाहलकुडंब" खेल्लं तस रहस रहस सिलिंबु । उलउलफणिउलाढत्तसमरु चमरीमयचालियचारुचमरु | हरिकु जरकलहकलालबंतु' चयरत्तलित्तमोत्तियफुरंतु । दुमणियरगलियमहुवारिभु सबरीपरियंदणसुतडिंभु । ह्यमुकिलिकिचियसद्दरम् नहि पयई घत्ता - णावर णिउणइ महिकामिणिइ एइ समापरिछंदहु' | गिरिणियकरु उम्भिवि णियि तहि दाविय लंक सुरिदहु ||13|1
।
14
दुवई - परिहादारतोरणट्टालयधयजयलच्छ्रिसंगमा ॥ लंकारि दिट्टु हणुमंतें' मणिपायादुग्गमा ॥छ faत्यारे व हियलोयणाई । दीहतें बारह जोयणाई बत्तीस विसालई गोउराई मोत्तियमरगयघडियई घराइं ।
5
10
जो लटकते हुए रक्त पत्र समूह से लाल था, जिसके गुरु शिखर पर सूर्य अवलंबित था, तटों के प्रस्खलन से जिसमें शंख टूट चुके थे, जिसके तट किन्नरियों के द्वारा सेवित थे, नागिनों के नूपुरों से जहाँ दिगंत बहरा था, जो नृत्य करती हुई यक्षिणियों के रस भाव से युक्त था, जहाँ गजों के मदजल की कीचड़ में हरिण निमग्न हो रहे थे, जो गुम-गुम करते भ्रमणशील भ्रमरों की शरण था, जिसमें कोल भीलों के कुटुम्ब घूम रहे थे, जिसमें शरभ के बच्चे हर्ष पूर्वक कीड़ा कर रहे थे, जिसमें नकुल कुल और नागकुल में युद्ध प्रारम्भ होने जा रहा था, जिसमें चमरीजहाँ मृगों के द्वारा सुन्दर चमर चलाए जा रहे थे, जो सिहों और गजों के युद्ध से रक्त रंजित था, रक्त में गिरते हुए मोती चमक रहे थे, जो वृक्षसमूह से झरते मधुजल से आर्द्र था। जिसमें भीलनियों के द्वारा आंदोलित बच्चे सो गए थे, जो अश्वों के सुरति शब्द से सुन्दर था, जो पर्वतों से दुर्गम और विद्याधरों के लिए गम्य था ।
पत्ता - मानो निपुण धरती रूपी कामिनी द्वारा गिरि रूपी अपना हाथ उठाकर उस पर स्थित लंका नगरी देवेन्द्र के लिए दिखाई जा रही हो कि स्वर्ग का प्रतिबिम्ब आ रहा है।
(14)
परिखाओं, द्वारों, तोरणों, नाट्य-गृहों और विजयलक्ष्मी का जिसमें संगम है, ऐसी मणियों के प्रकारों से दुर्गम लंका नगरी हनुमान् ने देखी । लम्बाई में जो बारह योजन थी, और विस्तार हृदय को आकर्षित करने वाली नौ योजन । उसमें बड़े-बड़े बत्तीस गोपुर थे। मोतियों और पन्नों से विजड़ित घर थे। जहाँ कर्पूर की धूल, धूल के रूप में व्याप्त थी जहाँ कल्पवृक्ष; वृक्ष थे,
(13) 1. AP भूमि' | 2. AP हिंडतकोल 2 1 3. AP संछादयत रुदल सूरचिबु। 4. A "किलाल15. AP महाविभु । 6. AP मुहि । 7. पदि । (14) 1. AP हणवतें ।
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73.15.2]
महाकइ पुष्कवंत- विरइपज महापुराण
जहि घुल रेणु कप्पूर रेणु arraणु वेल्लि व णायवेल्लि जरु विरहजरुर जि णउ अस्थि अण्णु घरु सिरिवरु चोर" वि चित्तचोर चउ णववउ रूवु विणिरु सुरुबु रिणु तिलरिणु बंधणु पेम्मबंधु काfमणि खगामिणि अलिवमालु दीa वि जलति माणिक्कदीव Trenगुणु धम्म अहिंसधम्म विष्णमि भूमिवि भोयभूमि
सुरतरुतरु णु वि कामधेणु । र रइरणु भल्लि वि मयणभल्लि । बहुवष्णचित्तु' णउ चाउवण्णु । बज्झति केस रोवंति मोर रिसि खीणदेहु बम्म विरूवु । जलु चंदकतजलद सुगंधु । धूमुवि कालागरुघूम कालु । जीव वि वसंति जहि भव्यजीव । फलु पुण्णफलु जि कम्मुवि सुकम्मु । सामिव दहमुहु खयरायसामि ।
धत्ता - एनक्कल जो गुण संभरइ सो तह अंतु ण पेक्खइ ।। जगसुंदरतु' लंकहि तणउं कवणु कईसरु अक्खद्द ||14|1
[109
15
दुबई – कलरवु रुरुतमाणिणिमुहमंडणू जणमणिटुओ ॥ छडणरुवधारिता पावणि रावणभवणि पइटुओ || ||
5
10
15
और कामधेनुएँ धेनुऐं श्रीं । जहाँ नखत्रण (प्रण और वन ) वन थे। जहाँ रति युद्ध था, दूसरा युद्ध नहीं था । जहाँ कानमल्लिका महिला थी, दूसरी मल्लिका नहीं थी। ज्वर भी विरह ज्वर था, दूसरा ज्वर नहीं था। जहाँ अनेक रंगों का चित्त था, परन्तु चतुवर्ण्य नहीं था; जहाँ घर लक्ष्मी का घर था, और चोर भी चितचोर थे; जहाँ केश बाँधे जाते थे, और मयूर आवाज करते थे । जहाँ उम्र नई उम्र थी और रूप भी स्वरूप था । जहाँ ऋण तिलॠण था, और बंधन प्रेम-बँधा था जहाँ जल चन्द्रकांत मणि का जल था और दलों में सुगन्ध थी । जहाँ कामितियाँ विद्याधर कामिनियाँ थीं । भ्रमरों का कलकल शब्द था, काला गुरु- काला धूम था। माणिक्य केही माणिक्य के दीप जलते थे, जिनगुण ही गुण थे । अहिंसा धर्म ही धर्म था । जहाँ पुण्यफल ही फल था और सुकर्म ही कर्म था। क्या वर्णन करूं, वह भूमि भोगभूमि थी और उसका स्वामी विद्याधर स्वामी रावण था ।
घत्ता- जो उसके एक-एक गुण को याद करता है, वह उसके अन्त को नहीं देख पाता । लंका के विश्व सौन्दर्य का कौन कवीश्वर वर्णन कर सकता है ?
(15)
जिसका शब्द सुन्दर है, जो गुनगुनाती हुई मानिनियों के मुख का मंडन है, जो जनमन के लिए इष्ट है, ऐसे अमर का रूप बनाकर हनुमान् ने रावण के भवन में प्रवेश किया ।
2. AP विरहरु णउ 3 A बहुवष्णु चित्तु गउ वाउवष्णु P बहुवण्णु वित्तु उ वाउवष्णु। 4. AP चोर विचित्तचोरु। 5. A णिरुवु । 6. A गुण जिणगुण । 7. AP जगि सुंदरतु ।
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110]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित महापुराण
चक्केसरु वरलक्खण पसत्थु गिरिसिहासिक गोलमेहु चामरवीति णिहितचरणु विज्जिज्जइ चलचमरीरुहेहि गाइरहि दोसइ णवकप्पदुमफलेहिं मउग्रयणमहियललिहेहि चितड़ मारुइ उब्विण्णचित्त '
Tags दहमुहु सीहा सणत्थू | पण्णा रचावपमाणदेहु । बलवंतकालु बलहीणसरणु । वणिज्जइ वरबंदिण मुहेहि । सलहिज्जइ सुरण र सेब एहि । माणससरवररतुप्पलेहि । पण विज्जइ सुरइस णिहि । हा एण विहित परकलत्त ।
पत्ता - एसज्ज एवं एवड्डु कुलु तो वि कयाउं' सकलंकणु ॥ सुवर्णाभिगारहु खप्परु दिण्णजं ढंकणु ||| 5 ||
[73. 15. 3
5
10
16
दुवई - पुणु विसवणपूरकत्थूरियपरिमलगण कुसलओ ॥ दहमुह देहि सीयमाणासहि णं गुमुगुमइ मसलओ' छ। सो सइंजि कामु णं कामबाणु तरुणीबिबाहरि ढुक्कमाणु । कोमलकरयलवारिज्जमागु चमराणिलेण पेरिज्जमाणु जुयल णाहिमंडल घुलंतु पिछह कवोलपत्त' दलंतु ।
5
उसने उत्तम लक्षणों से युक्त चक्रेश्वर दशमुख को सिंहासन पर बैठे हुए देखा | मानो नीलमेघ पर्वतशिखर पर आश्रित हो । उसका शरीर पन्द्रह धनुष प्रमाण था । स्वर्णपीठ पर अपने पैर रखे हुए था। वह बलवानों के लिए काल था और बलहीनों के लिए आश्रयदाता था । चमरी गाय के बालों से जिसे हवा की जाती है, श्रेष्ठ चारण मुखों के द्वारा जिसका वर्णन किया जाता है, सरगम भावों से जो गाया जाता है, सुर-नर सेवकों के द्वारा जिसकी प्रशंसा की जाती है, नव कल्पवृक्षों के फलों और मानसरोवर के रक्त कमलों के साथ जिसके दर्शन किए जाते हैं, जिनके मुकुटों के अग्र भाग से भूमि तल लिखित है ऐसे इन्द्र-समूह द्वारा जिसे प्रणाम किया जाता है, हनुमान् अपने मन में उद्विग्न होकर सोचता है-खेद है कि फिर भी इसने परस्त्री का अपहरण किया ।
पत्ता - यह ऐश्वर्य, इतना बड़ा कुल, फिर इसने उसे क्यों कलंकित कर दिया ? हा हंत, विधाता ने स्वर्णभिंगार को ढाँकने के लिए खप्पर दिया (या खप्पर का ढक्कन दिया ) |
( 15 ) 1. A ओविष्ण" । 2.AP विहित्तउं। 3. P कयं सकलंकणु । (16) 1 P सलुओ 2 A बिवाहर"। 3 A कवोलि ।
(16)
फिर जो राजा के कानों में पूरित कस्तूरी के परिमल को ग्रहण करने में कुशल था, ऐसा वह भ्रमर मानो गुन-गुना रहा था कि हे रावण, तुम सीता दे दो, अपना नाश मत करो।
वह भ्रमर (हनुमान् ) स्वयं कामदेव और कामवाण था, युवतियों के विम्बाधरों पर पहुँचता हुआ, कोमल हथेलियों के द्वारा हटाया जाता हुआ, चमरों की हवा से प्रेरित होता हुआ, स्तन युगल और नाभिमंडल में प्रवेश करता हुआ, अपने पंखों से कपोलों की पत्ररचना को दलित
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73.17.7]
[111
महाका-युष्फयंत-विरार महापुराणु कुद्धिलालयपंतिउ दरमसंतु मुहकमलवाससासहु' चलंतु। थिउ दारि सहइ णं इंदणीलु थिउ भालि गहियवरतिलयलीलु । थिउ उरि धियाहरकिणंक गाई घिउ मणि सरसरपुंखु ब सुहाई। थिउ कामूलि णं मम्मणाई बोल्लइ मणियाई घणघणाई। थिउ उरूयलि सइइ सुराहि “पं.किकिणि कामिणिमेहलाहि । घत्ता-सो महुयरु बम्महु कि भणमि णारिहिं वयणई चुंबई ॥
जाइवि खरिदहु रयणमइ कुंडलकमलि विलंबइ।।16।।
10
दुबई-बुझिवि णयणवयणतणुलिंगहि सीयारइवसं गयं ।।
दहबयणं विमुक्कणीसासरुहाणलतावियंगयं ।।छ।। गउ अलि पुरपच्छिमगोउरगु आरूबउ झोयइ' वणु समग्गु। दिट्टी वणसिरि सहुं खेयरोहिं सीय वि परिवारिय खेयरीहिं। वणु देइ ससाहिहि रामविरहु सीयहि पुणु बट्टइ रामविरह। वणि लोह्यिाउ पत्तावलीउ सीयहि पुसियउ पत्तावलीउ।
वणि पमयई फलसारं गयाई सीयहि झीणई सारंगयाई। करता हुआ, टेढ़ी केश पंक्तियों को बिदलित कस्ता हुआ, मुख रूपी कमल की सुगंधित हवा से उड़ता हुआ द्वार पर स्थित वह इस प्रकार शोभित था, मानो इन्द्र नीलमणि शोभित हो । भाल पर स्थित होकर वह श्रेष्ट तिलक की शोभा धारण कर रहा था । उर पर स्थित होकर वह प्रिय के प्रहार के चिह्न के समान शोभित था । मन पर स्थित वह कामदेव के तीर के पंख के समान शोभित हो रहा था । कानों के मूल में स्थित होकर मानो वह व्यक्त घन-घन काम वचन बोल रहा था। किसी सुन्दरी के उस्तल पर स्थित होकर ऐसे शब्द कर रहा था, मानो कामिनी की करधनी की किंकिणो हो ?
धत्ता–कामदेव के उस भ्रमर को क्या कहुँ ? वह स्त्रियों के मुखों को चूमता है, वह विद्याधर राजा के कुण्डल रूपी कमल पर जाकर बैठता है।
नेत्र मुख और शरीर के चिह्नों से यह जानकर कि रावण सीता के प्रति प्रेम के वशीभूत है, और उसका शरीर छोड़े गए निःश्वासों से उत्पन्न आग से संतप्त है।
भ्रमर चला गया और नगर के पश्चिमी गोपुर के अग्र भाग पर स्थित होकर समग्र वन को देखता रहा। विद्याधरियों के साथ उसने वनश्री को देखा। और सीता को भी विद्याधरियों से घिरा हुआ। वन अपनी शाखाओं के द्वारा स्त्रियों को विशेष एकान्त देता है, परन्तु सीता के लिए केवल राम का विरह है। वन में लाल-लाल पत्रावलियाँ थीं, परन्तु सीता की पत्रावलि (पत्ररचना) पुछ चुकी थी। वन में प्रमद (वानर) श्रेष्ठ फल पर है, लेकिन सीता के श्रेष्ठ 4. AP °सासवासह । 5. AP हारि। 6. A भाइ ? जाइ। 2. AP विहाइ। 8. AP मणियार व प्रण। 9.AP वत्तई।
(17) 1 P जोइय । 2. Pझीणाई।
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112]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
173. 17.8 वणि एत्तहि तेतहि वाल्लवलय सीयहि थिय पसिडिल बाहुबलय । वणि खेल्लइ हरिसिज्जइ वि हंसु सीयहि वट्टइ जीवियविहंसु । वणि दिसमुहि सोहइ लग्गु तिलउ सीयहि पिडालु णिल्लुहियतिलउ। 10 वणि तरुवंदई रूढजणाई सीहि णयणई विगयंजणाई । बणि साहारु जि मारइ पियत्थि सीयहि साहारुण को वि अस्थि । भडसत्ति व बलविहडणविसण्ण जाहि अच्छइ परमेसरि णिसण्ण। तं' सीसवितलु खगभमरु आउ णं वइदेहीजीवियहु आउ। पत्ता-पडिबिंबिउ दहहिं वि पयणहहिं आसण्णउ परिघोलइ ।। 15 सो छप्पउसीयहि कमकमल पसरियपत्तहि लोलइ॥171
18 दुवई-सीयासावभाउ' णं भीसणु णं हुयवहु समिद्धओ॥ - असरिससुहडचक्कचूडामणि पावणि मणि विरुद्धओछ। सीयहि केरस दुचरित्तरहिउ तणुचिधु पलोइवि रामकहिउँ । णियहियवइ चितह अंजणेउ परणारिदेहसंतावहेउ । मरु मारमि अज्जु जि रणि दसासु गलि लायमि कालकियंतपासु। 5 पइवय पीरय पइबद्धपणय वाणारसि पावमि जणयतणय ।
अंग क्षीण हैं। वन में यहाँ-वहाँ लतामंडल है, परन्तु सीता का बाहुबलय शिथिल है। दन में हंस से क्रीड़ा-इर्ष किया जाता है, परन्तु सीता के जीवन का विध्वंश है । वन में दिशामुख में तिलक वृक्ष लगा हुआ शोभा देता है, सीता के ललाट से तिलक पुछ गया है। बन के वृक्ष, जनों से अधिष्ठित हैं, परन्तु सीता के नेत्र अंजन से रहित हैं। वन में प्रियार्थी को सहकार (आमवृक्ष) ही मारता है, परन्तु सीता के लिए कोई भी आधार (सहारा) नहीं है। जहाँ परमेश्वरी सीता देवी बल के विघटन से उदास मठशक्ति की तरह बैठी हुई हैं वह विद्याधर रूपी भ्रमर (हनुमान्) वहाँ शिशिपा वृक्ष के नीचे आया मानो वैदेही का जीवन ही आया हो।
पत्ता-बैठा हुआ वह भ्रमर दसों चरणों में प्रतिबिंबित होकर भ्रमण करता है। वह सीता के चरणकमलों में अपने पंख फैलाये घूमता है।
(18) असामान्य सुभटों का चक्रचूड़ामणि हनुमान् अपने मन में इस प्रकार विरुद्ध हो उठा, मानो सीता का शाप भाव होया मानो आग समद्धलो उठी हो।
राम के द्वारा कहे गए, सीता के दुश्चरित्र से रहित शरीर चिह्न को देखकर, परस्त्रियों के लिए संताप का कारण हनुमान् अपने मन में विचार करता है-मैं आज युद्ध में रावण को मार डालता हूँ, और उसे काल रूपी यम के पाश में डाल देता हूँ तथा पतिव्रता निष्पाप, अपने पति में
3.AP णिलागि। 4.P तें।
(18) 1. AP °भाव । 2. A दुचरित्तु । 3. AP देहु सताव 14. परु। 5. AP कालकयंत ।
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73. 19.3]
महाका-पृष्फवंत-विरदय महापुराण
[113
णं णं हउँ दूयउ राहवेण पट्टविउ मझु किं आवेण । किंकरु पहुवयणुल्लंघणेण णिदिज्जइ हियकारि विजणेण । अक्खमि भत्तारहु तणिय बत्त मा मरउ महोसह चारणेत्त। इय चितिवि अवसरु मगमाणु । जा णिहुयंगउ थिउ कुसुमबाणु। 10 अथमिउ सूरु ता उइउ चंदु -णं सीहि दुहवल्लरिहि कंदु। आपंडु गंडमंडलि घुलंतु
तहु तेउ डहइ अग्गि व जलंतु । अरुणच्छवि णं रामणहु कुद्ध णहसरि णं सियसररुहु विउद्ध । अहवा लइ ससहरु कि णं चारु णहसिरिकरदप्पणु अमॅयसारु । मिगमुद्दइ' मुहिउ कतिपिंड पियलेहह केरउ णं करंडु। मेहलियहि णं संतोसकारि खेयरणाहह" णं पाणहारि। घत्ता-जणलोयणणियरणिवासघरु सुहणिहि अमयकलालउ । ससि सीय" वि रामणतणु डहइ ण खयसिहिसिहमेल उ॥18॥
19 दुबई-ण सहइ हसद रसइ परु पुच्छइ माणिणिविसयसंगह।
कइ दोसणिवहु गुण पयडइ अहणिसु करइ संकह ॥छ।।
सिरु धुणइ कणइ णीसासु मुयह सयणयलि पडइ अलिय जि सुयइ। बद्धप्रणय सीता को वाराणसी ले जाता हूँ । परन्तु नहीं नहीं। मैं दूत हूँ। क्या मुझे युद्ध के लिए • भेजा गया है ? भला करने वाले अनुचर की भी प्रभु की आज्ञा के उल्लंघन के कारण लोगों के द्वारा निन्दा की जाती है। इसलिए में पानी की बात कहता हूँ। जिससे सुन्दर नेत्रों वाली वह महासती मरे नहीं। यह सोचकर अवसर की प्रतीक्षा करता हुआ कामदेव हनुमान् जब तक अपना शरीर छिपाकर बैठता है तबतक सूर्यास्त हो गया और चन्द्रमा का उदय हो गया, मानो वह सीता देवी की दुःखरूपी लता का अंकुर हो । एकदम सफेद गंड मंडल पर व्याप्त होता हुआ उसका तेज सीता को अग्नि के समान जलाता है । अरुण छबि वह ऐसा लगता मानो के प्रति ऋद्ध हो, मानो आकाश रूपी नदी में श्वेत कमल खिला हुआ हो, अथवा लो चन्द्रमा सन्दर क्यों न हो, अमत श्रेष्ठ वह आकाशरूपी लक्ष्मी के हाथ का दर्पण है, मगमुद्रा (हरिण लांछनी से मुद्रित मानो वह कांति का पिंड है, अथवा प्रियलेख का पिटारा है मानो मैथिली के लिए संतोषकारी है, मानो विद्याधर राजा के लिए प्राणहारी है।
पत्ता-जनों के नेत्रों के समूह का निवासगृह सुखनिधि अमृत कलाओं का घर, चन्द्रमा और सीता भी रावण के शरीर को इस प्रकार जलाती है कि मानो क्षय काल की अग्नि की ज्वालाओं का समूह हो ।
(19) उसे (रावण को) कुछ भी सहन नहीं होता । वह हंसता है, बोलता है, दूसरों से पूछता है, अपना दोष-समह छिपाता है, गुणों को प्रकट करता है, और मानिनी स्त्रियों के विषय से संगत समीचीन क्रियाओं को करता रहता है।
अपना सिर पीटता है, क्रन्दन करता है, नि:श्वास छोड़ता है, शयनतल पर गिर पड़ता है, 6.A सीयाह । 7. A मुग। 8. AP णं खेयरणाहहु । 9.A सीउ; P सीयल ।
(19) I. A तसइ ण हसइ सरह पर।
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1141 महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[73. 19.4 परिभमइ रमइणउ कहि मिठाणि __ पियमित्तभवणि उज्जाणि जाणि। णायण गेउ मणोज्जवज्जु ण पजंजइ कि पि वि रायकज्ज । 5 णउ पहाइ ण परिहई दिव्वु वत्थु । णज लोयइ विविहाहारि हत्थु।
ज बंधइ णियसिरि कुसुमदासु णत मण्णाइ खगकामिणिहि काम् । ण विलेवणु सुरहिउ अंगि देइ विरहाउरु णउ अप्प विवेइ । ण भूसइ तणु णउ महइ भोउ णउ रुच्चइ तहु एक्कु वि विणोउ । जाहिं जाइ तहिं जि सो सीय णियई बारिज्जइ ढुक्की केण णियह। 10 अंधारए दिसंमुहउं घडिउं सीयहि मुहं पेक्नइ दिसहि जडिउं । पाणिउं वि पियइ सो तहि ससोउ परवसु बट्टा वीसचगी। करदीवदित्तु उठवणहिं चलिउ पियविरहहुयासें णाई जलिउ।। घत्ता–जहिं अच्छद्द णियडपरिट्टि र अंजणतणुरुहु बालउ ।। तहिं दहमुहु रइसूहु कहि लहइ वम्महु जहि पउिकूलउ ॥19।।
20 दुवई-अह अणुकूलु होउ मयरद्धउ सीयहि सीलदूसणं ।।
किज्जड कहि मि बप्प खज्जोएं कि रवियरविडसणंछ।। थिउ सीयहि पुरज खगिंदु केमणियमरणभवित्तिहि जोउ जेम।
मागर सत्ता दिनद विपत् पिष्ट तो ति ण कि संवरहि चित्त । और झूठ-मूठ सो जाता है, परिभ्रमण करता है, किसी एक स्थान पर रमण नहीं करता, प्रिय मित्र, भवन, उद्यान और यान में वह न गेय सुनता है, और न मनोज्ञ वाक्य और न कुछ भी राजकाज करता है। न नहाता है, न दिव्य वस्त्र पहिनता है और न विविध आहारों को अपने हाथ से लेता है। अपने सिर पर पुष्पमाला नहीं बांधता, विद्याधर स्त्रियों के साथ काम सुख नहीं माता । सुरभित विलेपन अपने शरीर पर नहीं देता। विरह से व्याकुल वह स्वयं को नहीं जानता। शरीर पर भूषण नहीं पहनता और न भोग को महत्त्व देता है । उसे एक भी विनोद अच्छा नहीं लगता है । वह जहाँ भी जाता है, उसे वहीं सीता देवी दिखाई देती है। आई हुई नियति का निवारण कौन कर सकता है ? अन्धकार में भी वह सीता का मुख सामने गढ़ा हुआ देखता है, उसे दशों दिशाओं में जड़ा हुआ देखता है । यह पानी भी पीता है तो वह ससीय (शीत सहित, सीता सहित) होता है। इस प्रकार रावण परवश हो उठा था। हाथ के दिए से दीप्त वह उपवन में इस प्रकार चला मानो प्रिय विरह की ज्वाला में जल गया हो।
घत्ता-जहाँ पर अंजना का पुत्र बालक हनुमान् निकट बैठा हुआ है, वहां रावण रति सुख कैसे प्राप्त कर सकता है कि जहाँ विधाता ही उसके प्रतिकूल है।
(20)
अथवा कामदेव अनुकूल भी हो, तो क्या सीता देवी का शील-दूषण हो सकता है? हे सुभट, क्या खद्योत के द्वारा सूर्य किरणों का आभूषण किया जा सकता है ? ' सीता देवी के सम्मुख विद्याधरराज इस प्रकार स्थित था, जैसे अपनी मरण-भवितव्यता के सामने जीव बैठा हो । वह (रावण) कहता है : यद्यपि आज सातवाँ दिन समाप्त हो गया है, 2. A दिव्वषत्यु । 3. AP देहि । 4.A णिडि परि ।
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[115
5
73. 21.3]
महाका-पुप्फयंत-विरइयट महापुराण वित्यिषणु मयरहरु कवणु तरइ तिमिगिलतग्गिलगिलियंगु मरइ। दुग्गमु तिकूडु गिरि कवणु चडइ कक्करि सयसक्कर होवि पड़ा। पायालपरिह जणणियसंक भूगोयरु पइसह कवणु लंक। जइ चिंतहि कुलु तो तुहुँ जि कासु पोसिय जणएं जणक्यपयासुः । जइ चितहि परिह तो सलग्घु हउँ उत्तमु भुवणत्तइ महग्घु । जइ चिंतहि एवहिं रामपेम्मु तो तहु दंसणि तुह' अण्णु जम्मु। जइ चिंतहि सिरि तो हउं जिराउ कि लगउ तुझु सइत्तवाउ। हलि वीणालाविणि मणविमद्दि महएवि महारी होहि भहि । घत्ता हलि सीय महारइ खग्गजलि आहंडलु वि णिमज्जइ ।।
आलिंगहि मई सुललियभुयहिं राम किं किर किज्जइ ॥201।
10
दुवई-करिसिररत्तलित्तमोत्तियणियरंचियकेसरालओ ।।
संतइ सीहि सीय ससहरमुहि किं रम्मइ सियालओ॥छ।। अमर उ स रामु लक्खणु हयासु दसरहु वि महारउ ताम दासु। कि किज्जइ चरणविहूसणत्तु जइ लभइ हलि चूडामणित्तु ।
किंकरमहिलहि किं तणुगुणेण किं पाउयाहि मणिमंडणेण । हे प्रिये, तुम अपने चित्त का संवरण क्यों नहीं करती ? विस्तीर्ण समुद्र का संवरण कौन कर सकता है ? तिमिगल मत्स्य को खानेवाले तग्गिल मत्स्य के द्वारा गिलितशरीर वह मर जाएगा। त्रिकूट पर्वत दुर्गम है, उस पर कौन चढ़ सकता है ? गिरि रूपी दाँत पर पड़कर सौ टुकड़े हो जाएगा। पाताल की खाई लोगों को शंका उत्पन्न करने वाली है, कौन भूगोचर (मन्ष्य) लेका में प्रवेश कर सकता है ? यदि तुम अपने कुल की चिन्ता करती हो तो तुम किस की हो? जनपद में यह बात प्रकाशित है कि जन ने तुम्हारा पोषण किया है। यदि तुम अपना पराभव सोचती हो तो मैं तीनों भुवनों में श्लाघनीय उत्तम और आदरणीय है। यदि इस समय तुम राम के प्रेम के विषय में सोचती हो उसके दर्शन में तुम्हारा दूसरा जन्म हो जाएगा। यदि तुम लक्ष्मी का विचार करती हो तो मैं भी राजा हूँ। हे वीणा के समान बोलने वाली, मन का विमर्दन करनेवाली भद्रे, तुम मेरी महादेवी हो जाओं।
घत्ता---हे सीता देखो, मेरी तलवार के पानी में इन्द्र भी डूब जाता है। अपनी सुन्दर भुजाओं से मेरा आलिंगन करो, राम से क्या लेना-देना।
(21) हाथियों के सिर के रक्त से लथ-पथ मोतियों के समूह से जिसका अयाल अंचित है, ऐसे सिंह के विद्यमान रहते हुए, हे चन्द्रमुखी, क्या शृगाल से रमण किया जाएगा?
हताश राम और लक्ष्मण तो रहे, दशरथ भी हमारा दास है। हे सीते, जब चूड़ामणित्व प्राप्त होता है तो पैरों के आभूषण से क्या प्रयोजन ? और फिर दास की स्त्री के शरीर गुण से क्या,
(20) I. A "संगिल" । 2. AP जणधए पयासु । 3. AP हलि अण्णु । (21) I. AP कि किर गुणेण ।
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116]]
महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण
[73.21.6 महु दासि वि तुहुं महएवि होहि लच्छिहि एंतिहि कोप्परु म देहि । उरयलु मेरउं लालउ बिसत्थु मा मुसलकिणंकिउ होउ हत्थु । अणुवसहुँ एहि महुं पंजलीइ मा सलिलु बहहि फणिनुंभलीइ। महु खग्गवायलंछणहरेण
खंडें रहुबइसिरखप्परेण । मा बहउ विणेउरु चरणजुयलु करमरि कालायसलोहणियलु । 10 थिय सइ णियपिययमलीणचित्त उत्तरु ण देति पहुणा पउत्त। घत्ता-पई सोइ अज्जु तिलु तिलु करमि भूयहं देमि दिसाबलि ॥
पर पच्छइ दूसह होइ महुं विरहजलणजालावलि ॥21॥
22.
दुवई--ता मंदोयरीइ दिण्णुतरु जंपसि सुयणगरहियं ।।
किं तियसिंदवंदकंदावण रावण जुत्तिविरहियं ॥छ।। हा पुरिस हुँति सयल वि णिहीण घरघरिणि जेइ वि उव्वसिसमाण । कामेण तइ वि ते खयह जंति परधरदासिहि लग्गिवि मरंति। कहिं काइहि रत्तउ रायहंसु कहिं खरि कहिं सुरकरिहत्थफंसु। 5 कहिं भूगोयरि कहि खेयरिंदु
हा मयणजोगपरिणाणि मंदु । पादुकाओं के मणि विभूषणों से क्या ? मेरी दासी होते हुए भी तु मेरी महादेवी बन । आती हई लक्ष्मी को हाथ मत दे। तुम विश्वस्त हो मेरे उर का लालन करो। तुम्हारा हाथ मूसलों के चिह्नों से अंकित न हो, तुम मेरी अंजलि में आकर निवास करो, नाग के शिरोभूषण पर पानी मत डालो । मेरी तलवार के आघात के चिह्न को धारण करने वाले खंडित राम के सिररूपी खप्पर के साथ, नपुर से रहित हे दासी, अपने पैरों को कालायस लौह श्रृखला से युक्त मत कर । अपने प्रियतम में लीन चिह्न वह सती चुपचाप रह गई । उत्तर न देने पर राजा (रावण) ने कहा
धत्ता--हे सीता, आज मैं तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा और भूतों को दिशाबलि छिटकवा दूंगा । फिर बाद में मेरी विरहाग्नि-ज्वाला असह्य हो उठेगी।
(22) तब मन्दोदरी ने उत्तर दिया, हे इन्द्र को कंपानेवाले रावण, तुम सज्जनों के द्वारा निंदनीय और युक्ति से विरहित यह क्या कहते हो
हत, सभी पुरुष नीच होते हैं । यद्यपि उनकी घरवाली उर्वशी के समान भी हो, फिर भी वे काम के द्वारा क्षय को प्राप्त होते हैं, और दूसरे के घर की दासी के लिए मरते हैं । क्या हंस कभी कौए की स्त्री में अनुरक्त होता है ? क्या कहीं ऐरावत की संड गधी का स्पर्श करती है ? कहाँ मनुष्यनी, और कहाँ विद्याधर राजा? तुम कामशास्त्र के परिज्ञान में मंद हो। जिसने अन्धकार समूह को ध्वस्त कर दिया है, ऐसा चन्द्रमा जैसे गंगा में दिखाई देता है, वैसा ही नगर की जलवाहिनी में भी । कामुक लोग जो भी दुश्चरित्र करते हैं, वे महिलाओं में कुछ भी अन्तर 2. P मुसलु किणकिउ ।
(22) 1. A परियाणि; P परिमाणि।
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[117
73.23.7]
महाका-पुरफयंस-विरइयज महापुराण दीसइ विद्ध सियतिमिरवंदुः जिह' गंगहि तिह वालहि चंदु । महिलंतह पर ण मुणति कि पि कामुय करंति दुरितु जंपि। जा णियघरु गउ लज्जिवि दसासु मयसुय ढुक्की जाणइहि पासु। अवलोइय सीयाएवि ताइ
णं जलहिवेल ससहरकलाइ । 10 णं विउसमईइ 'सुकइत्तलील
णस ज्जि ताइ सुविसुद्धसील। ओलक्खिय पयजुयलंछणेण
जा चिरु घल्लिय णिदिय जणेण। मंजूसइ सहुँ कत्थइ वर्णति
सरिसरसीयलसिंचियदियंति । धत्ता-हा अघडि' घडिज विहायएण इंदीवरदलणयणहु॥ ___ आणिय सा मेरी एह सुय कालरत्ति दहवयणहु ।। 2211
23 दुवई-जणणसुयाहिलासणियवइखयचिंतामउलियच्छिया ।
मेइणियलि दड त्ति णिवडिय मंदोयरि दुस्सहदुक्खमुच्छिया ॥छ।। पच्छाइय कामिणिकरयलेहि सिंचिय सुबंधसीयलजलेहि । विज्जिय पडिचमरुक्खेवरहि आसासिय चंदणलेवहिं। कह कह व देवि सज्जीव जाय भणु कासु अवच्छल होइ माय । मुहकुहरहु वियलिय महुर वाय हा सीय पुत्ति तुहं महुँ जि जाय।
हा विलसि किं" विहिणा खलेण बोलीणु जम्मु दुक्कियफलेण। नहीं करते । रावण तब लज्जित हो कर अपने घर चला गया। मंदोदरी सीता देवी के पास पहुंची। उसने सीता देवी को इस तरह देखा मानो चन्द्रमा की कला ने समुद्र को देखा हो, मानो विद्वान् की मति ने सुकवित्व की लीला को देखा हो, मानो उसी ने (सुकवित्व की कोड़ा ने) सुविशुद्धशील व्यक्ति को देखा हो। दोनों पैरों के चिह्नों से उसने (मन्दोदरी ने) पहिचान लिया कि लोगों द्वारा निदित जिसे पहिले मंजूषा के साथ नदी सरोवर से शीतल और सिंचित बन के भीतर कहीं फेंक दिया था (यह वही है)।
घत्ता-हा, विधाता ने अघटित को घटित कर दिया। उसने मेरी वह पुत्री ला दी जो नील कमल के समान नेत्र वाले रावण के लिए काल रात्रि के समान है।
(23) पुत्री की अभिलाषा और अपने पति के विनाश की चिन्ता से जिसकी आँखें मुकुलित हैं, ऐसी मन्दोदरी असह्य दुःख से मूच्छित होकर धरती तल पर शीघ्र गिर पड़ी।
बाद में कामिनियों के करतलों और सुगंधित शीतल जलों से सिंची जाने, प्रतिचमरों के उत्क्षेपों से हवा किए जाने पर और चंदन के लेपों से वह देवी 'किसी प्रकार से होश में आई। उसके मुखविवर से मधुर वाणी निकली-हे सीता पुत्री, तू मुझसे उत्पन्न हुई थी। हा, दुष्ट विधाता ने क्या किया ! दुष्कृत के फल से तुम्हारा जन्म बीत गया। पिता का चित्त तुम पर अनु. 2. A तिमिरचदु। 3: P omits जिह । 4. P सुकइत्तणेण । 5. P adds after this : णं जिणवरधम्म अहिंसगेण । 6, P adds after this :. | सुरसरीइ मय रहरलील । 1. P अयडिज।।
(23) 1.A जगणि! 2. A omits दुस्सह । 3. AP विजिय। 4.Aण वच्छल । 5. AP विहिणा कि6. A योलोम्मि P बोली जम्मि।
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118]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित महापुराण
तुझुप्पार रत्तउतार्याच इ सोयभावणिम्मोयणाई पेच्छिवि सीयाइ सदुक्ख रुण्ण पत्ता - आण्ण थिइ विहवत्तणइ एंतउं सीयइ जोइउं" || मेल्लिवि रामणगेहिणिहि हारु व खीरु पधाइ " ||23||
हारिणिहित्त । बाहुलकणोल्लई' लोयणाई । मंदोafterणीसरिउ थण्ण" |
[73. 23. 8
24
दुवई -- णिम्मलसीलसलिलभरवाहिणि णिच्छह' निययदेहएः ॥ जाणइ' तेण सीयदुद्धोहें जिणडिम' व रेहए |छ । तं कि सीयलु रहव असंगि विडंतु दुद्ध सिमिसिमइ अंगि । खगवइकंत पुणरवि पन्नुत्तु मा इच्छहि पुत्ति पुलत्थपुत्तु । हजं जणणि तुहारउ' जणणु एहु ता सीयहि रोमंचियउ देहु । तपश्वयगुणदिण्णछाइ सच्चउं तुहं मेरी माय माइ | सच्च दहमुह महु होइ बप्पु णासिवि 'तहु केरख दुब्वियप्पु । मई सहि रामहु पासि ताम कुडिमेल्लिकि जाइ ण जीउ जाम । जणी पबोल्लिउ रामरामि कुरु भो पुत्ति मज्झखामि । आहारें अंगु अगंगधामु अंगे होते पण मिल रामु ।
10
5
10
रक्त है। हा, विधाता ने तुम्हें दुःखों के भीतर डाल दिया। इस प्रकार शोकभाव के कारण जिनका आमोद (हर्ष ) चला गया है, ऐसे तथा वाष्प- कणों से आर्द्र नेत्रों, तथा मन्दोदरी के स्तनों से रिसते दूध को देखकर सीता देवी फूट-फूट कर रो पड़ी ।
पत्ता- वैधव्य के निकट होने पर आते हुए दूध को सीता देवी ने इस प्रकार देखा, मानो स्तन को छोड़ कर दूध मंदोदरी के हार के समान दौड़ा ।
(24)
निर्मल शील रूपी जल के भार की वाहिनी अपने ही शरीर में निस्पृह सीता उस शीतल दुग्ध प्रवाह से जिन प्रतिमा के समान शोभित थी।
राम का संगम न होने के कारण गिरता हुआ भी वह शीतल दूध शरीर पर रिम झिम ध्वनि कर रहा था ( शरीर की उष्णता के कारण ) । विद्याधर की पत्नी मंदोदरी ने पुनः कहाहे पुत्री तुम रावण को मत चाहो, मैं तुम्हारी माँ हूँ, और यह तुम्हारा पिता है । तब सीता का शरीर पुलकित हो उठा। वह बोली- जिसने पतिव्रत गुण को आश्रय दिया है, ऐसी हे आदरणीया, क्या सचमुच तू मेरी माँ है ? सचमुच दशमुख मेरा पिता होता है, तो उसके दुर्विकल्प को नष्ट कर तुम मुझे तब तक राम के पास भिजवा दो, जब तक जीव इस शरीर को छोड़ कर नहीं जाता । माता मंदोदरी बोली- हे मध्यक्षीण रामपत्नी, मेरी पुत्री, तुम भोजन करो, आहार से ही शरीर 7. AP बाबुकोल्लई । 8 A सुदुक्खरुण्णु; P सदुखु रुष्णु । 9 AP षष्णु। 10. P जोइयजं । 11. P पधाविरं । ( 24 ) 1. AP छ । 2 A जिया । 3. AP सित तेज दुद्धोहें। 3. A जिणएडिबिच । 4. A तुहारी ।
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13.25.8] महाका-पुप्फयंत-दिरइयउ महापुराण
[119 इय भणिवि देवि गय णियणिवासु हियवउ हरिसिउं अंजणसुयासु। महिवइभिच्चहं घल्लिवि रउद्द चेयण चप्पंति महंत णिद्द । समरंगणि णिज्जियअरिवरेण लहुं धरिउ वाणरायारु तेण । पत्ता--विहिपहाणाह निरुणरसमाहि मलिणहि मइलियवस्थहि ।। सो सीयहि रामविओइयहि गंडयलासियहत्यहि ।।24।।
25 दुवई-लक्खणु पेक्षमाणु भारहियहि सणियं पयई देतओ॥
ढुक्कइ कइरिंदु तहि णियडइ कइगुण अणुसरतओ॥छ।। पत्तलबट्ट लयरतंबकण्णु णवकणयकंजकिंजक्कवण्णु । सिहिविप्फुलिंगचलपिंगलच्छु णीरोमभउहु लंबंतपुच्छु । ससिकंतिवंततिकखग्गदंतु कयकरजुयलंजलि बुक्करंतु। अवलोइज देविइ पमउ एंतु थिउ अग्गई पयपंकय णमंतु। तेणंबहि दाविउ दइयणेहु सहु अंगुत्थलियइ चित्तु लेहु ।
परमेसरि मई रंजियमणासु परियाणहि पुत्तु पहंजणासु। कामदेव का धाम बनता है। शरीर होने पर राम फिर से मिल सकते हैं । यह कहकर देवी अपने निवास स्थान पर गई। पवन-अंजना के पुत्र का हृदय प्रसन्न हो उठा। महापति (रावण) के अनुचरों को भयंकर नींद देकर और उनकी महान चेतना शक्ति को चांपते हुए, समर-प्रांगण में शत्रुओं को जीतने वाले हनुमान ने शीघ्र वानर का रूप धारण कर लिया।
घत्ता—जिसने स्नान नहीं किया है, जो भोजन से अत्यन्त रहित है, जो मलिन है, जिसके वस्त्र मैले हैं, जो राम से वियुक्त है, जिसका हाथ गंड-स्थल पर आश्रित है, ऐसी सीता
(25) भारती (सीता और कवि की बाणी) के लक्षणों को देखते हुए और धीरे-धीरे पथ (पद और चरण) देते हुए वह कपीन्द्र हनुमान् कई गुण (कविगुण, कपिगुण) का अनुसरण करते हुए उनके निकट पहुंचा।
जिसके कान पतले और एकदम लाल और गोल हैं, जो नव स्वर्ण कमल के पराग के समान रंग वाला है । आग के स्फुलिंग के समान जिसकी पीली आँखें हैं, जिसकी भौहें बिना रोम की है,
और जिसकी पूछ लम्बी है, जिसके आगे के दांत तीखे चन्द्रमा की कांति के समान हैं, जिसने दोनों हाथों से अंजलि बाँध रखी है, जो बुक्कार कर रहा है, ऐसे बंदर को देवी ने आते हुए देखा। चरणकमलों को प्रणाम करता हुआ, वह आगे आकर स्थित हो गया। उसने सीता के लिए पति के प्रेम को बताया और अंगूठी के साथ लेख रख दिया । वह बोला- हे परमेश्वरी, तुम मुझे मन को रंजित करने वाले प्रभंजन का पुत्र, राम का दूत समझो। मेरा नाम हमुमान् है। मैं श्रेष्ठ 5.P रामविल इयहि ।
(25) 1. A सणियह। 2. A टुक्क। 3. P पुछु। 4.AP ससिकंतकति । 5. A ते तहिं। 6 AP दाथिय ।
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122]
महाकवि पुष्पधन्त विरचित महापुराण
दूरस्थ विगाढ देवि खेम् मणवासिणि दहरह रायसुम्हि "
नियकुसलवत्त हुई कहमि रामु । लइ सब्बु चारु सरयंदजोहि । पत्ता - धीरी होज्जसु हलि जणयसुए भइरणरंगि भिडेप्णुि ।। dear हुं महुं बंधविण दससिरसी खुडेष्पिणु ॥ 271
[73. 27. 13
28
तूसेप्पणु सीयइ अदुईउ कइ पुच्छिउ लंघियविउलखयलु विष्णविय देवि लइ भत्तु पाणु तं तासु वषणु पडिवष्णु ताइ सोयासुंदरिहि खगोयरीइ अइरावयलीलागामिणीहि पहत्थियाई तत्तई जलाई freकुलु विडइणुि हृयासु" तिलमुक्के तेल्लें मुक्क केस
दुवई - अणुदिणु लच्छिणाहु पदं सुमरइ तसिय कुरंग लोयणे ।। झावि जिगसामि णिवसिज्जसु कइवय दियह परयणे ॥ ताकर अंगुलियहि अंगुलीउ । तेण वि अभिख वित्तंलु सयलु । विणु तेण ण थक्क यत्राणु । पावणि सूरुाम पहाइ । उवयरिजं चारु मंदोयरी३ । मज्जणउं भरिडं खगकामिणीहि । कि तावियाई जह णिम्मलाई । कहखमः विवक्खहि जनियतासु । वि तिलसंबंध हि वि वेस' ।
15
5
10
देवी, मेरा प्रगाढ़ आलिंगन है। मैं राम अपनी कुशलवार्ता कहता हूँ । मन में बसने वाली हे दशरथ राज की बधू, शरद की चांदनी में सब सुन्दर होगा ?
धत्ता -- हे जनकसुते, तुम्हें धैर्य धारण करना होगा, योद्धाओं के युद्धरंग में भिड़कर, रावण का सिर काटकर, मेरे भाई के द्वारा लाई जाओगी ।
(28)
हे त्रसित हरिण के समान नेत्र वाली, लक्ष्मण तुम्हें दिन-रात याद करता है, त्रिजगस्वामी का ध्यान कर कुछ दिन तुम शत्रुजनों में निवास करो ।
तब सीता ने संतुष्ट होकर, उस अद्वितीय अंगूठी को अपनी अंगुली में पहिन लिया और विशाल आकाशतल को पार करने वाले वानर से पूछा। उसने भी समस्त वृतांत कह सुनाया । उसने निवेदन किया- हे देवी, भोजन जल ग्रहण करो, उसके बिना मनुष्य के प्राण नहीं ठहरते । उसने उसका वचन स्वीकार कर लिया । सबेरे सूर्योदय होने पर हनुमान् चला गया । विद्याधरी मंदोदरी ने सीता सुन्दरी का सुन्दर उपकार किया। एरावत को चाल से चलने वाली विद्याधर सुन्दरियों ने स्नान कराया। गर्म जल निकाला गया । यदि वह निर्मल है तो जन को गर्म क्यों किया गया ? निर्दय अग्नि अपने कुल को भी जला देती है, तो फिर वह नाम उत्पन्न करने वाले विपक्ष को कैसे क्षमा कर सकता है ? तिन मुक्त तेल से उसने बाल खोले। बिना स्नेह संबंध के 14. A 15 A जुह
( 28 ) 1 A सुअर | 2. A परवणे; P परियणं । 3. P सेपि । 4. AP मणुअपाशु । 5. AP add after this : आहारे अंग अगंगधा, अंगें होतें पुणु मिलइ रामु । 6. A यासु । 7. AP सेस ।
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[123
73.29. 11]
महाका-पुप्फयंत-विरइयड महापुराण किं पुणु धम्मिल्लय कुडिलभाव हरिणीलणोल ह्यभमरगाव । धत्ता-सण्हई चोक्खई ससहरसियइं राहवजससंकासई ।।
दीहरई सुविउलई सुहयरई देविहि दिण्णई वासइं28।।
29
दुवई-थिय परिहिवि मयच्छि ण पसाहणु गेण्हइ पियविओइया ।।
___ताव रसोइ सक्न तहि आणिय मंदोरि पराइया ॥छ।। वंदिइ जिणि मणि समसुहपपट्टि आसीण भडारी रयणपट्टि । कलहोयथालकच्चोलपत्त णं धरणिवीठिणक्खत्त पत्त। उपहुण्हउं दिण्णउं पढमपेज णं दाविउ दहमुहि विरहवेत। णं तिक्खु मिठु मलदोसणासु णं भासिउ परमजिणेसरासु। पुणु दिग्णई णाणासालणाई णं दहमुहरइआसालणाई। आणेप्पिणु घल्लिउ दीह कर पं दहमहि" सीयाभाव कुरु । होइयई ससूवई रसबहाई णं दहमुहि सीयारइवहाई। उपणिय घियधार महासुर्यध दहमु हि सीयादिट्टि व सुअंध।
णिण्णेहवंतु णिरु मंदु तक्कु णं दहमुहि सीयामणवियक्कु । सुधिजन से भी द्वेष हो जाता है, फिर कुटिल स्वभाव वाली चोटी के बारे में क्या कहना ? हरि और नील के समान नीली वह, भ्रमर के गर्व को नष्ट करने वाली थी।
__घत्ता-सूक्ष्म, उत्तम चन्द्रमा की तरह श्वेत, राम के यश की तरह लम्बे, विपुल और शुभतर वस्त्र सीता देवी के लिए दिए गएँ।
(29) वह मगनयनी वस्त्र पहिनकर बैठ गई। प्रिय से वियुक्त होने के कारण देह प्रसाधन ग्रहण नहीं करतो। इतने में वहाँ सब प्रकार की रसोई ला दी गई । मंदोदरी भी वहां पहुंची।
अपने सम और शुभ प्रवृत्ति वाले मन में जिनदेव की वंदना कर आदरणीया सीता रत्नपट्ट पर आसीन हो गई । स्वर्ण के थाल और कटोरी पात्र ऐसे लग रहे थे, मानो धरती पर नक्षत्र प्राप्त हुए हैं। पहले गर्म-गर्म पेय दिया गया, मानो रावण के लिए विरह वेग दिखाया गया हो, जो मानो तीखा, मीठा और मल दोष का नाश करने वाला था। मानो जिनेश्वर का कथन था। फिर उन्हें तरह-तरह के शालन दिए गए. जो मानो रावण के लिए रति को आशा दिखाने वाले थे। लाकर खूब भात दिया गया मानों रावण के मुख में दुष्ट सीता का भाव हो । रसदार सुन्दर दाल दी गई, मानो रावण के मुख में सीता की रति का प्रवाह हो । अत्यन्त सुगंधित घी की धारा लाई गई, जो मानो दशमुख में सीता की अत्यन्स- सुगन्धित रसदृष्टि हो । स्नेह (चिकनाई) से रहित, अत्यन्त कोमल तक (मट्ठा) दिया गया मानों दशमुख में सीता का विमुक्त मन हो। 8. A दोहयर।
(29) 1. A परिहवि । 2. AP पराणिया। 3. AP दिवि जिण मणि। 4. AP चित्त । 5. A दहमुह । 6. A पढगब्बु ।
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1241
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[73. 29, 12 उवाणिउ माहिमु दहि गब्बु णं दहमुहि सीयामाणगठबु । उपणिउ बहुविह धोराइपाणु णं दहमुहरमणहु कोसपाणु। अइसरम भक्तई चक्खियाई णं दहमुहि सर सई भक्खियाई। पाइकत्र व धमत्तापवाण. भायण मुराबीरास:
15 अच्चविप पुण मुद्धहि बिहाइ पाणि उं दिष्णउं दहमुहहु णाइ। घता---पूत्रफलेण सचुण्णएण पसगुणेण समग्गउ ।।
तंबोलराउ रामु व सइहि छज्जइ अहरविलग्गज ।।29।।
20
दुबई--इय भुजेवि भोज्जु भूमीसुय सीलगुणबुवाहिणी ॥
थिग णंदणवणंति सीसवतलि' सीरहरस्स रोहिणी ॥छ।। एत्तहि हणुमं विपत तित्थु अच्छइ दुग्गंतरि रामु जेत्थु । हा सीय सीय सकलुणु कणंतु णियकरयलेण उरु सिरु हणंतु । जोल्लाबिल मारुइ ते वायत्थु । मउडग्गचडावियउयहत्यु। भणु कि दिट्टर मिसुरिणणेत्तु कि णउ कुमार मेरगं कलत्तु।
कि मुच्छिउणिवडइ जीवचत्तु किं भहुं विरहें पंचत्तु पत्तु । भैस का गाढ़ा दही लाया गया, मानो दशमुख में सीता का मान गर्व हो । अनेक प्रकार का बेरादि का पानी लाया गया, जो मानो दशमुख के रमण के कुसुम्भ रंग का पान था । इस प्रकार अत्यधिक सरस खाद्य पदार्थों को उसने चखा मानो दशमुख में कामानुबद्ध वचन स्वयं खा लिए गए हों। कवि के काव्य के समान जिसमें मात्रा का प्रमाण किया गया था। फिर मुग्धा के लिए आचमन हेतु दिया गया पानी ऐसा शोभा देता था, मानो देशमुख के लिए पानी दिया गया हो।
घत्ता-चूने से सहित पत्र (पात्र, पान) के गुण और सुपाड़ी से समग्र अधरों पर लगा हुआ ताम्बूल राग उस सती के लिए राम के समान शोभित होता था।
(30) शीन जन की नदी पृथ्वी-सुता श्रीराम की पत्नी सीता इस प्रकार भोजन कर नंदन वन में शिशपा वृक्ष के नीले जैठ गई ।
__ इधर हनुमान् भी वहाँ पहुँचा जहाँ दुर्ग के भीतर राम थे। हा सोते हा सीते कहकर करुण रुदन करते हुए तथा अपने हाथ से उर और सिर पीटते हुए उन्होंने, जिसने अपने दोनों हाथ मुकुट के अग्र भाग पर बड़ा रखे हैं ऐसे कृतार्थ हनुमान् से पूछा--हे कुमार बताओ तुमने शिशुमृगनयनी मेरी स्त्री को देखा या नहीं ? मेरे विरह में मूच्छित पड़ी है, या कि त्यक्त जीवन वह मृत्यु को प्राप्त हो गई है ? यह सुनकर हनुमान ने कहा-हे देव मैंने जानकी को जीवित देखा है। कलिकृतांत रावण को सोना देवो से सकाम बचा कहते हुए देखा है। प्रिय कहती हुई तथा देवी के मन की
7. P कोरामाणु । 8.A कदमत्तावाणु; P कयमत्तापमाणु। 9. AP अचवियां ।
(30) !. Pजी सवयलि । 2.4 हणवतु । 3. A श्यं : । 4. A उपमहत्यु ।
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73. 30.9]
महाकइ-फयंत विरइयउ महापुराण
तं णिसुणिवि हणुएं उत्तु एव दिउ रावणणं कलिकयंतु दिट्ठी मंदोयरि पिउ चवंति अवरु वि दिउं आरामतु
दिट्ठी जाणइ जीवंत देव । सोहि सकामयणाई देंतु । देवहि हिउल्लउं संथवंति । उपण चक्कु पहाफुरंतु ।
घत्ता - सिरिमंतु सरूवु' वि दहवयणु सीयहि मणु णासंघइ ॥ भरहुपरिगामियतेयणिहि पुप्फयंत' को लंघइ ||30|
इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महा भव्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे सुग्गीवहणुनंतकुमारागमणं सीयादंसणं णाम तिसत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो ||73 ||
[125
संस्तुति करती हुई मंदोदरी देवी को देखा है। और मैंने देखा है-ओं ही मह प्रचा 'धमकता उत्पन्न हुआ चक्र |
सठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदंत द्वारा विरचित एवं महाभस्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का सुग्रीवहनुमान् कुमारागमन-सीतादर्शन नाम तेहत्तर
परिच्छेद समाप्त हुआ ।
10
धत्ता - श्रीसम्पन्न एवं रूपवान् होकर भी रावण सीता के मन का आश्रय नहीं पा सका । भारत के ऊपर जाने वाले तेजनिधि सूर्य चन्द्र का उल्लंघन कौन कर सकता है ?
5. AP महाफ़रंतु । 6. AP सुरू | 7. P पुकतु । 8. A हुणवंत कुमारगमणं णाम वित्तरिमो ।
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चउहत्तरिमो संधि
परहु ण देइ मणु अवसें मउलइ सकलंकहो।। फुल्लइ पउमिणिय करफंसे कहिं मि मियंकहो ।।ध्र वकं ।।
हेला–सीयादेवि देव दीहुण्ह णीससंती।।
सुंअरइ तुह पयाई भत्तारभत्तिवंती॥छ।। सिरि व उविदह सरि व समुहहु। मेत्ति व णेहह. मोरि व मेह्ह । भमरि व पोमहु संति व सामहु। करिणि व पीलुहि करहि व पीलुहि। विउसि व छेयहु हरिणि व गेयहु। णववणकतहु
जेंब वसंतहु। सुअरइ कोइल धीरत्ते इल। जिणगुण' जाणइ तिह तुह जाणइ।
चहत्तरवीं संधि
(कमलिनी सीता) दूसरे के लिए मन नहीं देतो। वह संकलक (चन्द्रमा और रावण) से अवश्य ही मुकुलित होती है। क्या चन्द्रमा के करस्पर्श से कमलिनो कभी भी खिल सकती है।
हे देव, लम्बे और उष्ण उच्छ्वास लेती हुई तथा पति के प्रति भक्ति से ओत-प्रोत सीता देवी तुम्हारे चरणों को याद करती हैं, जिस प्रकार लक्ष्मी उपेन्द्र की, जिस प्रकार नदी समुद्र की, जिस प्रकार मंत्री स्नेह की, मयूर मेघ को, भ्रमरी कमल की, जिस प्रकार शान्ति साम को, जिस प्रकार हथिनी हाथी की, जिस प्रकार ऊंटनी पील वृक्ष की, जिस प्रकार विदुषी चतुर व्यक्ति की, हरिणी गेय की तथा कोयल नवीन वन से मनोहर वसन्त की याद करती है, धैर्य से जिस प्रकार बह इला और जिन गुण को जानती है, उसी प्रकार जानकी तुम्हें जानती है।
(1) 1. A मयंकह । 2 P adds after this : महि व हिंदहु, सइ व सुरिबहु । 3. A मित्तय । 4. A सोमहु । 5. AP हिरि व सुसीलहि । 6. APणवबहुकंतहु । 7. AP read a as b and basur
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74.2.6]
महाइ-फयंत विरइयउ महापुराणु
खंतिमाणी 1
तुह सा राणी
भव्वहं रुच्चइ लक्खणचित
वरविवित्ति" व
समसंपत्ति व
कुलहरजुत्तिव
णिरु परलोइणि
सा आणिज्जइ
घत्ता
विमुच ।
बहुजसवंत' ।
धम्मपवित्ति व ।
साहसथत्ति व ।'
जिणवरभात " ।
तुह सुहदाइणि ।
रिउ मारिज्जइ ।
- विरहहुयासह पियवत्तइ सुइवहक्क || वियसि रामदुमु णं सित्तव अभियझलक्क " || 2
[127
15
20
2
' तु सुविहरहरु । विरहावsणिवडणधरणतरु । दण्णेव्व सव् समत्तु तहि । सिरिणाहें जोइड भुयजुवलु ।
हेला - गाढालिंगिऊण रामेण पवनपुत्तो ॥ सीयासंगमो व हरिणेव' वृत्तो छ सुह समु किं भण्ण अवरु णरु तुहु मुहं मणकमलहु दिवसयरु जलु चलु यलु तु गम्भु जहिं तहि अवसर रूसिवि अतुलबलु तुम्हारी वह रानी आर्थिका के समान है, वह भव्यों को अच्छी लगती है, एक क्षण के लिए नहीं छोड़ी जाती; जो अत्यधिक जस (जसादि प्रत्थय, यश) वाली, लक्खन की चिन्ता (व्याकरण की चिन्ता, लक्ष्मण की चिंता ) के द्वारा श्रेष्ठ कवि की वृत्ति के समान है। जो धर्म की पवित्रता के समान, समता रूपी सम्पत्ति के समान, साहस की स्थिरता के समान, कुलगृह की युक्ति के समान, जिनवर की भक्ति के समान है, जो पर की आलोचना करने वाली है, और तुम्हें सुख देने वाली है, ऐसी उसे लाया जाए और शत्रु को मारा जाए ।
8. A जसवंति। 9. AP फइ । 10. AP add after this : सज्जणमेत्ति व 11. AP अमय । ( 2 ) 1. AP हरिसेण एम कुत्तो। 2. AP में 'अणसुय । 3. A धरणि ।
5
पत्ता- रामरूपी जो वृक्ष विरह की आग में जल चुका था, कर्ण-पथ पर प्राप्त प्रिया की वार्ता से वह इस प्रकार विकसित हो गया मानो अमृत की धारा से सिंचित हो । (2) पवनपुत्र का प्रगाढ़ आलिंगन लेकर राम ने मानो हर्ष के द्वारा ही अपना सीता-संगम व्यक्त कर दिया |
हे अंजनापुत्र, दूसरा तुम्हारे समान क्यों कहा जाता है ! तुम सुधीजनों का संकट दूर करने वाले हो। तुम मेरे मन रूपी कमल के लिए दिवाकर हो, विरह की आपत्ति में पड़ने वाले को बचाने के लिए आधार वृक्ष हो । जहाँ जल स्थल और आकाश तुम्हारे लिए गम्य हैं वहाँ मैं कहता हूँ कि सारा काम समाप्त है। उस अवसर क्रोध करते हुए लक्ष्मण ने अपना अतुल-बल
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1281
[74.2.7
महाकवि पुष्पवमा विरचित महापुराण बलएबहु पायपोमु णवइ
कोवारुणच्छु लक्खणु चवइ । मई रवियरदारियतिमिरबलि हणवंतु णेइ.जइ गयणयलि । जइ सायरु सलिलु दुग्गु कमई जइ लंकाणयरिणियडि यवइ । तो कुंडलमंडियगंडयलु
तोडेप्पिणु दहमुहसिरकमलु। तुह गेहिणि देमि समेइणिय णच्चावमि विड्डर डाइणिय । घत्ता-दे आएसु महुँ सरा करउ गमणु साहेज्ज ॥
कताहरणरुहु फेडमि अज्जु जि क्याणिज्जउं ।।211
___ 10
हेला--ता सीराउहेण उवसाभिओ अणंतो ।।
णं केसरिकिसोरओ रोस विप्फुरंतो ॥छ।। भडयणु णिहिलु वि ओसारियउ पचंगु मंतु भवयारियउ। मउवाउ' अवाउ सहाउ धणु मंतिउ महुं किंबदरिहि बलु कवणु । आरंभ कम्मफलसिद्धि किह किह दइवु हबइ भणु मुणि जिह । तं णिसुणिवि मंगलेण कहिड णिव णिसुणि मंतु विगईरहिउ ।। दुग्गामिउ बलवंतु वि विज्रह खगराउ तिखंडधराहिवइ ।
जइ सीय देह रणि णन्भिाइ तो भल्लां मह मणि आवडइ। बाहुबल देखा । वह राम के चरणकमला में प्रणाम करता है, और क्रोध से लाल आँखों वाला लक्ष्मण कहता है यदि हनुमान्, जिसने सूर्य की किरणों से अंधकार की शक्ति विदारित की है, ऐसे आकाश में मुझे ले जाए, समुद्र जल और दुर्ग का उलंघन करवा सके; यदि लंका नगरी के निकट स्थापित कर सके तो मैं कुंडलों से मंडित गंडतल वाले दशमुख के सिरकमल को तोड़ कर भूमि सहित सीता देवी को लाकर दे दूं। तथा भयानक डाइनी नचाऊँ।
घत्ता-आप आदेश दें ! कामदेव हनुमान् गमन में सहायता करें तो मैं कान्ताहरण के कलंक को आज ही नेस्तनाबूद कर दूं।
तब श्रीराम ने लक्ष्मण को इस प्रकार प्रशान्त किया कि मानो क्रोध से स्फुरित सिंह-किशोर हो।
समस्त योद्धा समूह को हटा दिया गया और पंचाग मंत्र का विचार किया गया । उपाय सहित उपाय सहाय और धन में मेरा क्या मंत्र है ? शत्र ओं को सेना कितनी है ? आरंभ और कर्मफल सिद्धि किस प्रकार हाती है, देव किस प्रकार होता है ? मुझे बताओ, जिस प्रकार तुमने विचार किया है। यह सुनकर मंगल ने कहा-हे राजन्, अन्यथा नहीं होने वाला मंत्र सुनिए । विद्याधर राजा, तीन खंड धरती का स्वामी है । दुर्गाश्रित बलवान और विजयी है। यदि वह सीता वे देता है और युद्ध में नहीं लड़ता तो यह बात मेरे मन के लिए अच्छी लगतो है । इसका उपहास करते 4. A माह ? माहड़। 5. " हणुबतु । 6. डाबर भयानकं संग्रामो वा; विटर इति पाठेऽप्पयमेवार्थः । 7.AP स! 8. AP कंताहरण रहो।
(3) I. A सउवायउ चाउ राहाउ बलु। 2. AP महु वइरिहिं कवण बलु ।
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74.4.8]
[129
महाका-पृष्फपंत-विरश्यउ महापुराणु तं' विहसिवि सुग्गीवें भगिउं पई रावणजीविउं कि गणिउं । हणुवंतु सहाउ हडं वि पबलु हरि पुण्णवंतु चालइ अचलु। विज्जउ पहरणई वि चितियइं होहिति मंतविहिमंतियई । हलहर तुई राणउ देव जहिं परिव पसंसिउ काई तहिं । धुउ लक्षणहत्थें रिउ मरइ णिद्दइवहु दुग्गु काई करइ । भो मंगल मा कि पि वि भणहि तह चक्कु कालचक्कु व गणहि । पत्ता-तेण जि तासु सिरु छिदेव्वउं रणि गोविद ।।
दिणयरि उग्गमिइ किं पयडिज्जइ चंदें।।3।।
15
हेला-उत्तं राममामिणा जइ अहं महतो॥
____ लच्छीदरमा हिओ पररपुण्णवंतो ।।८।। णियदूउ तो वि तहु पट्ठवमि उप्पिच्छु समत्थु व णिवमि । णिय सो कि देइ ण देइ बहु पेक्खहुं कि बोस्लइ पुहइपहु। भणु कवणु वओहरविहिकुसलु जिणवरचरणारविंदभसलु। सुग्गीउ कहइ रिउछिदणहु जेठ्ठहु दससंदणणंदणहु । गुणवंत अस्थि णर धरणियर ते जंति ण खे ण होति खयर।
सुकुलीणु अदीणु दीणसरणु अग्गि व सोहु व नसहफुरणु । हुए सुग्रीव ने कहा-तुमने रावण के जीवन को क्या समझा? हनुमान सहायक हैं और मैं भी प्रबल हूँ। लक्ष्मण पुण्यवान हैं, वह अचल को चलित कर देते हैं। मंत्र विधि से आराधित, चितित प्रहरण और विद्याएँ भी प्राप्त हो जाएँगी। हे हलधर, जहाँ आप राजा है वहाँ इसने प्रतिपक्ष की प्रशंसा क्यों की। निश्चय ही लक्ष्मण के हाथ से शत्रु मरेगा। देवहीन व्यक्ति का दुर्ग क्या करेगा? हे मंगल, तुम कुछ भी मत कहो, उसके चक्र को तुम कालचक्र समझो।
पत्ता-युद्ध में लक्ष्मण के द्वारा, उसी से उसके सिर का छेदन किया जाएगा! दिनकर के उदय होने पर चन्द्रमा के द्वारा क्या प्रगट किया जाएगा?
तब स्वामी राम बोले- यद्यपि हम महान् है, लक्ष्मी गृह से प्रसाधित हैं और प्रचूर पुण्य से
तो भी उसके पास मैं अपना दूत भेजता हूँ। फिर सैन्यसहित समर्थ उसे मारता हूँ। ले जाई गई वधू को वह देता है, या नहीं ? हम देखें राजा क्या कहता है ? बताओ दूतविधि में कौन कुशल है ? जिनवर के चरण-कमलों का भ्रमर सुग्रीव शत्रु का नाश करने वाले बेठे दशरथ-पुत्र राम से कहता है-हे राजन्, धरणीचर (मनुष्य) गुणवान हैं, परन्तु वे आकाश में नहीं चल सकते क्यों कि वे विद्याधर नहीं है । सुकुलीन अदीन और दोनों के लिए शरण तथा अग्नि और
3. AP ता । 4. Pमंत तिहि । 5. A५ । 6. P तासु जि सिछ ।
(4) 1. AP जइ वि अहं। 2. AP कि सो। 3.A णरवरणियर।
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130] महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण
[74. 4.9 एविकल्लज मल्लउ सेल्लवहि रणि सरजालंचियसदिसवहि। सहउ सूरूउ गंभीरु थिरु
पडिवण्णसूरु तेयंसि णिरु। णि छुरहं वि उप्प इयपणउ यिमियमहुरक्ख रजपणउ। किं वण्णमि सहयरु अप्पणउ दूयत्तजोमगु अजणतणउ । ता रामें सेचियणेहरसु
पुरिसुण्णउ पोरिसकणयकसु। सुगीउ बंधु बुद्धिइ गहिउ विज्जाहररायत्तणि णिहिउ । पत्ता-बंधिवि पट्ट सिरि हणुवंतु कियउ सेणावइ ।।
15 जोत्तिउ दूयभरि पुणु सो ज्जि धवलु णिह्यावइ ।।।
5 हेला-दिण्णा राहवेण हगुयस्स खयरंगया' ।।
रविगयविजयकुमुयपवणवेयया सहाया ।।छ। गस्यारइ मंतिकज्जि थविउ बलह - मारुइ सिक्खविउ। जाएग्जसु भवणु विहीसणहु परिपालियखत्तियसासणहु । बोब्लेज्जसु मिट्ठउ कि पि तिह अप्पावइ सीयाएवि जिह। जइ सामें देइ ण दहवयणु तो पुणु भणु दंडु चंडवयणु । अम्हहुँ' विवरोक्खइ आवडिय ललियंग चित्तवित्तिहि चडिय । अण्णाणे रइरहसेण णिय
भण्णइ अप्पिज्जा रामपिय । सिंह के समान जो असह्य कांतिबाला है, तथा भालों से युक्त सरजाल से जिसमें दिशाओं सहित पथ आच्छादित है ऐसे रण में जो अकेला ही भला है : जो गंभीर, सुभग, सुन्दर और स्थिर तथा स्वीकार की गई वस्तु में शूरवीर, अत्यन्त तेजस्वी, अत्यन्त निष्ठुर, लोगों में प्रणय उत्पन्न करने वाला, हित मित मधुर वाणी बोलने वाला है, ऐसे अपने सहचर का क्या वर्णन करूं? हनुमान दूतत्व के योग्य है। जिसमें स्नेह रस संचित है, जो पुरुषों में उन्नत है, जो पौरुष रूपी स्वर्ण को कसने वाला है, ऐसे सुग्रीव बंधु को राम ने बुद्धि से ग्रहण कर लिया, और विद्याधर राजा के पद पर उसे स्थापित कर दिया।
___घत्ता–सिर पर पट्ट बाँध हनुमान को सेनापति बना दिया । आपत्तियों को नष्ट करने वाले और श्रेष्ठ उसी को फिर से इतकार्य में जोत दिया।
राम ने रविगति, विजय, कुमुद तथा पवनवेग आदि विद्याधर हनुमान के साथ कर दिए।
राम ने हनुमान को महान् मंत्री कार्य में स्थापित किया और उसे सीख दी-तुम क्षत्रिय शासन का परिपालन करने वाले विभीषण के घर जाना और उससे मीठा-मीठा कुछ इस प्रकार बोलना कि जिससे वह सीता देवी सौंप दे। यदि रावण साम से सीता देवी को नहीं सौंपता, तो दंड प्रचंड वचन कहना कि हमारे परोक्ष में तुम आए और चित्तवृत्ति पर चढ़ी हुई सुन्दरी को रति के हर्ष से अन्याय पूर्वक ले गए। तुमसे कहा जाता कि राम की प्रिया अर्पित कर दो। लक्ष्मण 4. AP एक्कल्लउ । 5. AP विहित
(5) 1. AP सयरराया। 2. AP रविग 1 3. कुमुयबलवेयया । 4. AP बलभद्दे । 5. A भुवणु। 6AP चंडदंडववणु। 1.A भम्हई।
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[131
74.6.11]
महाका-पुप्फयंत-विरइयउ महापुराणु गोवदमुक्कगुणभागणाह दारियसरीरु सह ससयणहिं।। सोणियजलसित्तछत्तसहिउ" मा होहि कयंतणयपहिउ ।। घत्ता-बोल्लिज लक्खणिण सृय" सीय वसुंधरि ढोयवि।।
जइ दहमुह जियइ. तो जीवड किंकर होइबि ।।5।।
10
हेला-अहया जइ ण देइ तो आइ' किं जियंतो॥
मई कुद्धण हणुय णउ ह्णइ के कयंतो छ।। तेलोक्कचक्करावणह
इय जाइवि साहहि रावणहु । जइ तिणि वि एयउ बेडु णउ तो तासु मह वि किर संधि कउ। जइ जुज्झइ तो कालाणलहु जइ णास इ तो पुणु काणणहु । पेसमि दहगीउ ण दूय जइ
रहुवइपयजुधलु ण णवमि तइ । तो हलि हरि जयकारिबि चलिउ तणुभूसणमणियरसंवलिउ। तारावलिहारावलिउरहि
उत्तु गहि तुंगपयोहरहि। पविमलपसण्णदिसवांणयहि चंदक्कमोहरणयणियहि । आहंडलघणुउप्परियणहि
रंजियविज्जाहरगणमणहि । 10 णहलच्छिहि उवरि देंतु पयई पडिसुहडही संजणंतु भयई। के द्वारा डोरी से छोड़े गए तीरों के द्वारा विदारित शरीर के रक्त रूपी जल से सिक्त छत्र से सहित तुम अपने जनों के साथ यम नगर के अतिथि मत बनो।
घत्ता-लक्ष्मण ने कहा-सीता और धरती को लेकर यदि रावण जीवित रहता है, तो वह अनुचर होकर ही जीवित रह सकता है।
अथवा यदि वह सीता देवी को नहीं देता तो क्या जीवित रह सकेगा? मेरे शुद्ध होने पर हनुमान् किस कृतान्त को नहीं मारता?
बिलोक चक्र को सताने वाले रावण से तुम इस प्रकार कहना। यदि वह वे तीनों चीजें ना. श्री और भमि नहीं देता. तो उससे मेरी क्या संधि यदि वह लड़ता है.तो मैं उसे कालान नल में, और यदि भागता है तो फिर कानन में नहीं भेज द तो हे दत, मैं श्रीराम के चरणयुगल को नमस्कार नहीं करूँगा। तब वह लक्ष्मण-राम की जय बोलकर चल पड़ा, शरीर के आभूषणों की मणि-किरणों से घिरा हुआ। जिसके उर पर तारावलियों की हारावलि है, जो ऊँची और विशाल पयोधर वाली है, अत्यन्त विमल और प्रसन्न दिशारूपी मुख वाली है, चन्द्रमा
और सूर्य के मनोहर नेत्रों वाली है, जिसका इन्द्रधनुष का स्तरीय वस्त्र है, और जो विद्याधर समूह के मन को रंजित करने वाली है, ऐसी आकाश रूपी लक्ष्मी के ऊपर पैर रखता हुआ शत्र योद्धाओं को भय उत्पन्न करता हुआ। RAलियंगि । 9.A सह सज्जणेहि। 10. Pomitsछत्त। 1. A सिय: Pसीय ।
(6) 1. P कि आइ। 2. AP हरि हलि । 3. AP 'सुहबहुं णं जणंतु ।
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174.6.12
132]
महाकवि पुष्परन्त विरचित महापुराण धत्ता-संखपतिदसणु वडवाणलजालाकेसरु ।।
बेलापुंछचलु मणिगणणहु सीहु व भासुरु ॥6॥
हेला-गंभीरो सरमेरउ' गीढमयरमुद्दो ॥
मारुइणा तुरंतेणं लंधिओ समुद्दो॥छ।। भवणंतरालि बिक्खायएण दीह जलगिहिसरजायएण । तिसिहरगिरिणाले उद्धरिउ पायारकण्णियापरियरित। छुहधवलट्टालविउलदलु लच्छीमंजीररावमुहलु । देउलहंसावलिपरियरिउ कणयालयकेसरपिंजरित। कामिणिमुहरसमयरंदरम जसपरिमलपूरियगयणदिसु । रावणरवियरवियसाविया देवाहं वि भल्लङ भावियउं। विरियकोसु' सुभुयंगपिउ कह णिउणे विहिणा णिम्मविउ । णहि जंतु जंतु मारुइभसलु संपत्तउ तं लंकाकमलु ।। घत्ता-जोयवि कुसुमसरु पारीयणु असेसु वि खुखउ ।
कंपइ णीससइ हसइ व बहुणेहणिबद्धउ ॥7॥
10
घत्ता-शंख-पंक्ति ही जिसके दांत हैं, वडवानल की ज्वाला जिसकी अयाल है, जो बेलारूपी पुंछ से चंचल है, जिसके मणिगण रूपी नख हैं, ऐसा जो सिंह की तरह भरस्वर है।
जो गंभीर और जल की मर्यादा वाला है, जिसने मकर मुद्रा स्थापित कर रखी है, ऐसे समुद्र का हनुमान् ने शीघ्र उल्लंघन किया।
* भुवनांतराल में विख्यात, लम्बे समुद्र के जल से उत्पन्न त्रिकूट पर्वत रूपी नाल के द्वारा जो उद्धत है, प्राकार रूपी कणिका से घिरा हुआ है, चूने की सफेद अट्टालिकाओं के विपुल दल वाला है, लक्ष्मी के नपरों के शब्दों से मुखर है, देबकुल रूपी हंसावली से घिरा हुआ है, स्वर्णालय रूपी केशर से पिंजरित है, कामिनियों के मुख रस रूपी मकरंद के रस से सहित है, यश रूपी परिमल से जिसने गगन और दिशाओं को भर दिया है, जो रावण रूपी रवि की किरणों से विकसित है, जो देवों के लिए भला और रुचिकर है, जिसका कोश विस्तृत है, जो भुजंगों (चिह्नों) के लिए प्रिय है, किस निपुण विधाता ने उसकी रचना की है, ऐसे उस लंका रूपी कमल में, आकाश मार्ग से जाता-जाता हनुमान रूपी भ्रमर जा पहुंचा।
__ घत्ता--उस कामदेव को देखकर समस्त नारीजन क्षुब्ध हो उठा, अत्यधिक स्नेह से निबद्ध वह कांपने लगता है, निःश्वास लेता है और हँसता है।
(7) 1.AP समेरुउ; K सर मेरउ but records ap: अपवा समेरड समर्यादा; T सरमेरउ अलमर्यादः, अथबा समेरउ समर्यादा, 2. AP गाढमयरसदो। 3. A णिसियर। 4A पाया। 5.AP "हंसाबलिपंडुरस; K पछुरिज इप्यपि पाठः 6.A कणयायलफेसरि 1 7.A विस्थारिय' ।
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74.8.15]
महाका-पुष्फयंत-चिरइया महापुराण
[133
5
हेला--कंदप्पं सुरूविणं णिएघि चित्तचोरं॥
का वि सकंकणं चारुहारदोरं ॥छ।। कवि जोयइ दिठ्ठिय मजलियइ गुरुयणि' सलज्जदरमउलियइ ! कवि चलिय कडक्खहि विवलियइ कवि वियसियाइ कवि विलुलियइ । काहि वि गय तुट्टिवि मेहलिय कवि मुच्छिय धरणीयलि घुलिय ।
लि पुलिया काहि बि रइजलझलक्क झलिय' कवि उरग्रलु पहणइ" झिंदुलिय। काइ वि थणजुयलउं पायडिउं काहि विपरिहाणु मत्ति पडिङ । क वि भणइ एहु' हलि दूउ जहिं केह उ सो होही रामु तहिं । सइ सीय भडारी वज्जमिय
ण सइत्तणवित्ति अइक्कमिय। हलि एह वि पेच्छिवि पुरिसवरु जह कह व महारचं एइ घरु। पायग्गे जइ थणग्गु छिवह
तंबोलु वि जइ उप्परि घिवइ । तो हङ सकयत्थी जगि जुवइ के वि पेम्मपरव्वस मूढमइ। अप्पाणु परु वि ण सच्चवइ' हा मुइय" मुइय जणवउ पवई। घत्ता--कामु हरंतु मणु पुरखरणारीसंधायहु ॥
बलश्यउच्छुधणु गउ भवणु विहीसणरायहु ।।४।।
10
चितचोर सुन्दर कामदेव को देखकर, कोई अपना कंगन और सुन्दर हारदोर देती है।
कोई मुकुलित दृष्टि से देखती है, और गुरु जनों में लज्जा से थोड़ा मुकुलित करती है, कोई चंचल कटाक्षों से वक्र होती है, कोई विकसित करती है, कोई चंचल करती हैं; किसी की कटिमेखला टूट गई। कोई मूछित होकर धरती पर गिर गई। किसी की रतिजल की धारा बह निकली। कोई कामविह्वल हो अपने उर तल को पीटती है। किसी ने अपने स्तनयुगल को प्रकट कर दिया। किसी का परिधान शीघ्र गिर पड़ा। कोई कहती है, "हे सखी, जहाँ ऐसा दूत है, वहाँ राम कैसे होंगे? सती सीता देवी बन की बनी है, उनकी सतीत्व वृत्ति अतिक्रांत नहीं हो सकी। हे सखी, यह पुरुषवर देखने के लिए यदि किसी प्रकार मेरे घर आता है, और पैर के अग्र भाग से मेरे स्तन के अग्रभाग को छूता है, और यदि पान भी मेरे ऊपर फेंकता है, तो मैं विश्व में कृतार्थ युवती हूँगी। कोई महमति प्रेम के वशीभूत हो जाती है। वह अपने पराए को नहीं जानती। जनपद चिल्लाता है, "वह भरी मरी"।
घत्ता-इस प्रकार पुरवर के नारी समूह के मन का हरण करता हुआ मुड़े हुए ईख के धनुष वाला कामदेव विभीषण राजा के घर जा पहुंचा।
(8) 1.AP का वि हु देइ । 2. P सीरुहार । 3. A गुरुयण । 4. Pविवालियह 1 5. AP गलिय। 6. A पहरः। 7. हलि एहु । 8. AP सकियस्थी। 9. A सभरइ। 10. AP मुयइ मुयइ ।
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134]
महाकषि पुष्पदन्त चिरचित महापुराण
[74.9.1
5
हेला-णि यकुलकुमुयससहरो मुणियरायणाओ॥
आओ तेण मपिणओ अंजणंगजाओ ॥छ।। रयणुज्जलु आसणु घल्लियउं मणहारि समंजसु बोल्लियउं । पाहुणयवित्ति णिस्सेस' कय पुच्छिउ कहिं अच्छिय कहि वि गय । कि किज्जइ कि किड आगमणु तं णिसुणिवि पभणइ रहरमणु। गुणवंतु भत्तिभाउन्भवउ' णयवंतु संतु महुरुल्लवड।। पई जेहउ माणुसु जासु धरि कि सो लग्गइ परघरिणिकरि । लइ एत्थु विहीसण दोसु ण वि कालिंदिसलिलणिहदेहछवि । पत्थहि पउलथि देउ तरुणि पायालि म णिवडउ णिस्करुणि। धत्ता-गिरि गिरिययसरिसु गोप्पउ' जासु रयणायरु॥ तें सहूं कवणु रणु किं करइ गब्बु तुह भायरु 119।।
10 हला-दिवाधिक पलपल ॥
णहयरणाहमउडि मा पडउ पलयभारी छ।।
10
(9)
अपने कुल रूपी कुमुद के चन्द्र, राजन्याय को जाननेवाले, अंजना के शरीर से उत्पन्न, आए हुए हनुमान् का उसने आदर किया।
उसे रलों से उज्ज्वल आसन दिया तथा सुन्दर और उचित बात की। समस्त आतिथ्य वति पूरी की। उसने पूछा-कहाँ थे और कहाँ गए थे, क्या किया जाए, किसलिए आपने आगमन किया? यह सुनकर कामदेव बोला--तुम जैसा गुणवान् भक्तिभाव से उत्पन्न न्यायवान् शांत मधरभाषी मनुष्य जिसके घर में है ? वह दूसरे की स्त्री के हाथ से क्यों लगता है ? लो विभीषण, यहाँ दोष भी नहीं है, तुम प्रार्थना करो कि यमुना नदी के जल के समान देहछविवाला रावण युवती को दे दे (सीता वापरा कर दे) और वह व्यर्थ ही पाताल लोक में न जाए।
पत्ता--पहाड़ जिसे गेंद के समान है, समुद्र जिसे गौपद के समान है, उसके साथ कैसा युद्ध ? तुम्हारा भाई क्यों व्यर्थ अहंकार करता है ?
(10)
जिसने अदृष्ट कष्ट झेल लिये हैं, ऐसी राम की नारी को वापस कर दो। विद्याधर राजा के मुकुट के अग्रभाग पर प्रलयमारी न पड़े।
(9) 1. AP णीसेस । 2 A भाउत्तमउ ! 3. A पहलच्छि देव । 4. P गोप्पन घ जाम् । 5. A करइ तुहारउभायर।
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74. 11. 2]
महाकइ पुफयंत विरइयज महापुर
अज्ज दा चउरासीलवखधराय रहे आहुट्ट ताज गणेय रहे अज्ज विखुम्भंति ण नृबबलई' अज्ज वि अप्पावहि सीय तुहं मा उज्झउ लंक सतोरणिय सरधोरण गोविंदहुतणिय मा रिट्ठ रिट्ठलोहि रसउ रायागुणता भासिय मज्झत्थु महत्यु सच्चवयणु पड़ मेल्लिवि को विबुहाहवइ
विपदुई खणउहि । कोडिउ पण्णास भयंकरहूं । बलवंतहुं बहुपहरणकरहं । दुल्लंघई पडिवलपंघलाई । मा पइस बंधन जमहु मुहं । मा विडउ उयरवियारणिय । दुद्धरधणुगुणरवझणझणिय | मा कालकियतु मासु गसउ । पई चारु चारु उवएसियउं । पई मेल्लिवि को सुपुरिसरयणु । को जागइ एही कज्जगद्द ।
धत्ता - इय संसिवि सुयणु पोरिस कंप विसुरिद गंपि विहीसणेण दाविउ हणवंतु खगिदहु ||10
11
हेला - विऊणं दसासणं तरुणिहिययहारी || आसीणो वरासणे कुसुमबाणधारी ॥
135
5
10
15
राम आज भी कुपित न हों, आज भी लक्ष्मण रूपी समुद्र क्षुब्ध न हो, पचास करोड़ चौरासी लाख भयंकर मनुष्यों की तथा साढ़े तीन करोड़ विद्याधरों की बलवान् एवं अनेक आयुध हाथ में लिये शत्रुसैन्य के लिए विघ्न स्वरूप और दुर्लक्ष्य शत्रुसैन्य आज भी क्षुब्ध न हो। आज भी तुम सीता अर्पित कर दो। हे बन्धु, तुम यम के मुख में प्रवेश मत करो। तोरणों सहित अपनी लंका मत जलाओ । उदार विचारणीय दुर्धर धनुष की डोरी के शब्दों से झन झन झरती लक्ष्मण के तीरों की पंक्ति उसके ऊपर न पड़े। कौआ रावण के मांस के लिए न चिल्लाए, काल कृतान्त मांस न खाए। इस पर राजा का छोटा भाई (विभीषण) बोला- तुमने अत्यन्त सुन्दर उपदेश दिया। तुम्हें छोड़कर महार्थवाला और सत्यवादी मध्यस्थ और कौन सुपुरुषरत्न हो सकता है? तुम्हें छोड़कर और कौन बुधाधिपति हो सकता है ? इस कार्य गति को भला और कौन जान सकता है ?
पत्ता--- इस प्रकार सज्जन की प्रशंसा कर विभीषण ने हनुमान् को अपने पौरुष से सुरेन्द्र को कंपित करने वाले विद्याधर राजा रावण से जाकर मिलवाया।
(11)
दशानन को प्रणाम कर तरुणियों के हृदय का अपहरण करने वाला कामदेव हनुमान् श्रेष्ठ आसन पर जाकर बैठ गया ।
( 10 ) 1.P विबल 2. P कालकयंतु । 3. AP हणुमंतु ।
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13811
महाकषि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
114. 13.6 पुरि मग्गउ लगउ मज्झु रणि कि अच्छइ तहिं हिंडंतु बणि । तं णिसुणिवि सुट्ट दुर्गछियउं दूएण राउणिभंछियउ। णउ हसिउं देव पई मणियां केसवपिउंणायण्णिय। सृय' सीय वसुधरि देइ जइ परमत्थें इच्छइ संधि तह । सो लिह्यिउं तुह रू वि पुसइम णियभायहु उवरोहें सहइ । 10 हरि केव वि अम्हइ उवसमहूं लंकार अंय अइक्कमहुँ । घसा-मुइ मुइ एह तया" सुहिणेहें" कहइ कइद्धउ॥
रावण वह्इ पाई रणरंगि जणद्दणु कुद्धउ ||13||
14
हेला-ताव णिकुंभ कभ खरदूसणा विरुद्धा ।।
- हणुहणुसद्ददारुणा मारणावलुद्धा ॥छ।। कोवारुणणयण भणंति भंड गोवाल बाल देवमूह जड़। मयरद्धय धुवु लज्जइ रहिउ कि झंखहि णं जरेण गहिउ । खज्जोएं कि रवि डंकियउ कि सायरु गरले पंकियउ। कि भमरें गरुड झडणियउ कि दहमुह अण्णे चंपियन । जेणेहर्ड बोल्लहि मुक्ख तुहं फोडिज्जइ तेरउ दुट्ट मुहं ।
5
युद्ध कर ले और नगरी माँग ले । वह वन में व्यर्थ क्यों घूम रहा है ? यह सुनकर उसे अत्यन्त घृणा हुई। उसने राजा की भत्र्सना की कि मैंने तुम से हँसी नहीं की, जैसा कि तुमने मान लिया है। तुमने अभी लक्ष्मण का कहना नहीं सुना–यदि वह वास्तव में संधि चाहता है तो श्री, सीता
और धरती दे वह तुम्हारे लिखित रूप को भी मिटा देता लेकिन अपने भाई के अनुरोध पर लक्ष्मण को हम लोगों ने किसी प्रकार शान्त कर रखा है और लंका नगरी पर आक्रमण नहीं किया ।
घत्ता-'तुम इस स्त्री को छोड़ दो, छोड़ दो', हनुमान् कहता है-'हे रावण क्रुद्ध लक्ष्मण तुम्हें युद्ध में मार डालेगा।
(14) इतने में निकुंभ कुभ और खरदूषण विरुद्ध हो गए। मारने के लोभी वे मारो-मारो शब्द से कठोर हो रहे थे।
__क्रोध से लाल-लाल आँखों वाले भट कहते हैं-हे गोपालबाल, वसमूढ़ और जड़ कामदेव (हनुमान्), निश्चित रूप से तुम लज्जा से रहित हो, बुढ़ापे से ग्रस्त तुम क्या कहते हो? क्या खद्योत सूर्य को ढाँक सका है? क्या समुद्र विष से पंकिल हुआ है ? क्या भ्रमर गरुड़ को झपट सका है ? क्या रावण दुसरे के द्वारा चांपा जा सकता है ? तुम मूर्ख हो । जिसने यह कहा है- हे दुष्ट, तेरा 4. AP कहिं अन्छइ 1 5. P सुखदुगु" । 6. A जणहसिउ । 7. AP सिय। 8. AP लुहइ । 9. A दियभई। 10. AP तिय। 11. सृहिणिहे।
(14) I. हणणस । 2. AP गफलें। 3. AP चप्पियउ।
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[139
74. 15. 8]
महाका-पुष्फयंस-बिरइयउ महापुराण तुहु एक्कु सहाउ बीय पिसुणु सुग्मीउ बालिपावियबसण। ते लक्खण राम दसाणणहु जइ कमि पति पंचाणणहु । तो हरिणा इव चुक्कंति कहिं वाएण जंति गिरिवर वि जहि । तहिं पत्तलु दलु पई कि थविउं जइ पयजुयलउ देवहु णविउं । तो रामहु तुम्हहं तं सरणु णं तो आय एवहि मरणु । पत्ता-हणुएं बोल्लिउं रणु घरि बोल्लंतहं चंगउं ।।
भडकलयलकलहि पइसंतहि कंपइ अंगउं ।।4।।
10
15
हेला-धणुजुत्ता भडा वि मज्जति जेम मेहा ॥
तेमण ते भिडंति वरिसंति सवणदेहा ।।छ।। चिरु रिक्खपंतिसंणिहणहहि रत्तउ हयगीउ सयंपहहि । सरु ससरि तिविढें समरि हउ मुउ सत्तमणरयहु णवर गउ। निड् सो तिह ता दि अर्णमाला लायामरकड्ढियरुहिररसु । दहवयण मरेसहि आयणि रइ कि ण करहि मेरइ वयणि । सीहा इव कुडिलचडुलणहर ता उठ्ठिय खग हलमुसलकर । गज्जंतु एंतु तिणसमु गणिउ मारुइणा सुहडसत्थु भणिउ।
मुख फोड़ दिया जाना चाहिए। तुम्हारा एक ही सहायक है, और उधर बालि से दुःख पाने वाला सुग्रीव चुगलखोर है। वे राम और लक्ष्मण यदि दशानन की चपेट में पड़ते हैं, तो सिंह से मृगों की तरह किस प्रकार बच सकते हैं ? जहाँ हवा से बड़े-बड़े पेड़ गिर जाते हैं वहाँ पत्तों और दलों को क्या स्थापित किया गया ? यदि तुमने देव के चरण-कमलों को नमन किया है, तो राम ही तुम्हारे लिए शरण है, नहीं तो तुम लोगों का इस समय मरण आ गया।
घत्ता-हनुमान ने कहा कि घर में युद्ध की बात करते हुए अच्छा लगता है । योद्धाओं की कल-कल में प्रवेश करने वालों का शरीर कांप जाता है।
(15) धनुषों से युक्त सुभट भी मेघों की तरह गरजते हैं लेकिन वे उस प्रकार सप्रण देह (व्रण सहित शरीर, सजल शरीर) नहीं भिड़ते, सजल मेध की तरह बरसते हैं । बहुत प्राचीन समय में नक्षत्र पंक्ति के समान नखों वाली स्वयंप्रभा में अनुरक्त अश्वग्रीव कोलाहल से युक्त यट में त्रिपष्ठ के द्वारा मारा गया था और मरकर सीधे सातवें मरक में गया था। जिस प्रकार वह उसी प्रकार काम के वशीभूत होकर लक्ष्मण के तीरों से जिसका रक्त रूपी रस खींचा गया है, ऐसे तुम दशपदन युद्ध में मरोगे । तुम मेरे बनन में प्रेम क्यों नहीं करते ? तब कुटिल और चंचल नखों वाले सिंहों के समान, हल और मूसल हाथ में लेकर विद्याधर उठे। गरजकर आते हुए उन्हें, उसने तिनके के बराबर समझा। हनुमान् ने सुभट-समूह से कहा-~पास आते हुए
115) 1. °चवल; P°चटुल।
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पासणण
140] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[14. 15.9 दक्कह सयलहं सीसई खुडमि तडिदंडु व पहुउपार पडमि । ता भासिउ मग्गपयासणेण अंतरि पइसेवि विहीसणेण । हम्मइ ण दुउ जपउ विरसु जाणेसहुँ पोरिसु कणयकसु । असिसकडि धणुगुण रवमुहलि रिउहक्कारणमारणतुमुलि ।
पत्ता---राएं भासियउं मा मेरउ विहि विहरेज्जसु ।। . राल्बलक्खणहं संदेसउ एम कहेज्जसु ।। 15॥
16 हेला-सरणं सुरवरस्स' पइसरइ जइ वि काम।
तो बि अहं हणामि सह किंकरहिं रामं ॥ छ।। धुवु पावमि भुक्खिउ कालकलि- तिलमेत्तई खंडइं देमि बति । लक्खणहु सुलक्खणु अवहरमि बंदिग्गहि पहइदेवि धरमि । णयरिउ मंदिरणिज्जियससिउ गेण्हिवि कोसलवाणारसिउ । भडरुहिरमहासमुद्दि तरमि सुग्गीवहु गीवभंगु करमि। खलणीलहु णीलउं सिरु लुणमि कुमुबहु कुमुयप्पएसु वणमि । दसरहदसप्राण इ. पिट्ठयमि जणयहु जिउ जमपुरि पठ्ठवमि कुदहु कुदाहई अट्ठियई
जाणेज्जसु एवहिं णिट्ठियई। तुम सबके मैं सिर काट लूगा और विद्युद् दंड की तरह स्वामी के ऊपर गिरूँगा। तब भीतर प्रवेश करते हुए मार्ग का प्रकाशन करने वाले विभीषण ने कहा-बुरा बोलने वाला भी दूत मारा नहीं जाता, पौरुष को स्वर्ण की तरह दल कर जाना जाएगा। तलवारों से व्याप्त धनुष और डोरियों के शब्द से मुखर शत्रु ओं की हुंकार और प्रहारों से संकुल (युद्ध में)।
__ पत्ता-राजा ने कहा कि मेरे कर्त्तव्य को गोपनीय मत रखो। राम और लक्ष्मण से मेरा सन्देश इस प्रकार कहना---
(16) यदि वामदेव (हनुमान्) देवेन्द्र को भी शरण में चला जाए तो भी मैं अनुचरों के साथ राम का वध करूँगा । मैं निश्चित रूप से भूखे काल रूपी यम को प्राप्त करूँगा। और तिल के बराबर टकड़े कर उसे बलि दूंगा। लक्ष्मण की सुलक्षणा का अपहरण करूंगा और पृथ्वीदेवी को बंदी
घर में रखगा। अपने भवनों से चन्द्रमा को जीतने वाली अयोध्या और वाराणसी नगरियों को • ग्रहण कर, योद्धाओं के रक्त के महासमुद्र में तिरा दूंगा। सुग्रीव की ग्रीवा भंग करूंगा। दुष्ट नील
के नीले सिर काटूगा। कुमुद को नाभि प्रदेश में आघात पहुँचाऊँगा । दशरथ के दसों प्राणों को नष्ट कर देगा। और जनक के प्राणों को यमपुर भेज दूंगा। कुद की फुद से आहत हड्डियों को तुम इस समय नष्ट हुआ जानो । मैं नल की जांघों रूपी मलिका से बसा निकाल गा । और 2. AP बि रहेज्ज।
(16) }. AP सुरव इस्स । 2. Pहणेभि । 3. P कानु कलि । 4, AP देवि। 5.A हिवि ने वि 6. AP वाराणसिध । 7.A "पाण विणिट्ठयमि; P°पाण वि णिवमि ।
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74.16. 17]
1141
10
महाकइ-पुष्फयंत-विरहयउ महापुराणु कढमि जंघाणलवस णलहु ढोइवि' शुहियह ढंढरउलहु। हणुमंत तुज्झु हणु गिद्ध जिह भक्खंति हणमि संगामि तिह। जज्जाहि मित्त" मोक्कल्लिउ ता पाव णि णयलि चल्लियज। ताचित पइट्ठ विहीसणहु को चुक्कइ कम्म भोसणहु। परमेसरु अद्धधरतिवर
मारेव्बउ लक्खणेण णिवइ । तहु दुम्मणु मुहूं अवलोइयां अप्प पहुणा पोमाइयउं। पत्ता-सभरह एतु खल महु ते कुमुणियदप्पहा ।।
पुष्फयंत गयणे कि" संमुहुंथंति विडप्पह ।।16।।
15
इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाभव्यभरहाणुमपिणए
महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे हणुमंतयगमणं ।
णाम चउहत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो ।।74|| भूखे मूल-कुल को दूका है हनुगम् सुग साझामको , मैं तुम्हें संग्राम में इस प्रकार मारूँगा, कि जिससे गिद्ध खा सकें। हे मित्र जाओ-जाओ, मैंने छोड़ दिया। हनुमान् आकाश-मार्ग में उड़कर चला गया। तब विभीषण को चिन्ता उत्पन्न हुई कि भीषण कर्म से कोई नहीं बच सकता। परमेश्वर अर्धचक्रवर्ती हैं, राजा लक्ष्मण के द्वारा मारा जाएगा। रावण ने विभीषण का उदास मुख देखा, और स्वयं की खूब प्रशंसा की।
पता-भरत के साथ आते हुए वे दुष्ट क्या मेरे सम्मुख उसी प्रकार ठहर सकते हैं, जिस प्रकार आकाश में धरती पर ज्ञातदर्प राहु के सामने चन्द्रमा।
राठ महापुरुषों के गुणानकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदंत द्वारा _ विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का हनुमान् दूत
गमन नाम का चहुंत्तरयां परिच्छेद समाप्त हुआ 117411
8. APणेय वि। 9. A हणबंत । 10. Pमित तुहं मोक्कलिउ) 11. A कम्मविहीसणह। 12. AP कुमुणि कंदप्पहो; T कंदप्पही कामस्य । 13. A कह समूह धंति; Pकि सम्म थति । 14. AP यकजे।
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पंचहत्तरिलो संधि
पवणंजयसुयह समागमणि गं हरि हरिहि समावडिउ ।। रहुबइआएसें कुइयमणु लक्खणु वालिहि अन्भिडिउ ।।ध्र वक।।
हणएण णवेप्पिणु भणिउ रामु भो यिसुणि भडारा हितरामु। दहवयणु ण इच्छइ संधि देव पर गज्जइ जिह बीहंति देव । सामह णामें जो वेउ सामु सो णायण्णइ वण्णेण सामु । तं णिसुणिवि रोमंचिउ उविदु गलगज्जइ हसियमुहारबिंदु। रणि मारमि दससिरु कुंभयण्णु वणि' लोहिउ दामि कुंभयण्णु । असिधारइ दारमि कुंभिकुंभु दलवट्टमि झ त्ति णिकुंभु कुभु । जीवावहाहं खरदूसणाहं दारमि* उरु रहुवइदूसणाई। पहरंति केम हत्थप्पहत्य' मई मुक्कसरावलि छिण्णहत्य । मारीयउ मारिहि देमि गासु मउ णिम्मउ रणि कासु वि खगासु।
पचहत्तरवीं संधि
पवनंजयपुत्र के आगमन पर, राम के आदेश से कुपितमन लक्ष्मण बालि से इस प्रकार भिड़ गया मानो सिंह सिंह पर टूट पड़ा हो ।
हनुमान ने प्रणाम कर राम से कहा-हे आदरणीय देव, सुनिए, सीता का अपहरण करने वाला रावण संधि नहीं चाहता, केवल इस प्रकार गरजता है कि देवता डर जाते हैं। वर्ण से श्याम वह साम नाम के वेद को नहीं सुनता । यह सुनकर लक्ष्मण रोमांचित हो उठे। जिसका मुखरूपी कमल हँसता हुआ है ऐसा वह गरज उठता है-मैं युद्ध में रावण और कुभकर्ण को मारूँगा। कुभकर्ण को धावों से लाल दिखाऊँगा। तलवार की धार से हाथी के गंडस्थल को फाड़ दूंगा । शीन निकुभ और कुंभ (कुंभकर्ण के पुत्र) को चूर-चूर कर दूंगा जीवों का अपहरण करनेवाले, राम के लिए दूषण, खरदूषण के उर को फाड़ दूंगा। मेरे द्वारा मुक्त वाणावली से छिन्नहस्त हस्त और प्रहस्त किस प्रकार आक्रमण करेंगे । मारीच को महामारी का कौर बना
(1) 1. A वणलोहिउ । 2. AF जीवावहारु। 3. A दामि कयरहुँ'; T उरु महान्वक्षस्थलं था। 4. AP हत्यावहत्य।
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75. 2. 9]
J143
महाका-पृष्फयंत-विरइयउ महापुराण विद्ध समि इंदइइंदजालु अरिपुरु पलित्तु लग्गाग्गिजालु। पेच्छेसहुं कइवयवासरेहि परबलु पच्छाइउ महु सरेहि । धत्ता--मई कुद्ध राहव सो जियइ जो तुह पयपंकय णवइ ।
तह देव पयावपसरतसिउ' रवि विणिरंतरु णउ तव ।।1।।
15
तहि अवसरि आय वालिदूउ तें वुत्तु देव अविलंघधामा 'खेयरचुडामणिघडियपाउ" अण्णु वि विण्णवइ पहुल्लकत्तु । तो णिद्धाडहि सुग्गीव हणुय णिवडत कवि तिणधारि पडइ गरुएं सहुं जायइ विग्गहेण तुह विरहखीण गुणवंत संत दासरहि पजपइ लंक जाय
वइसारिउ कज्जालाब हूउ' । सीयास इवल्लह णिसुणि राम। अटुंगु णवइ तुह वालिराउ । जइ इच्छहि मेरउं किंकरत्तु। रणभरु सहति किं वालतणुय । णम्गोहविलंबिरुः ऊद्ध चडइ । विहडिज्जइ होणपरिणहेण । मारेप्पिणु रामणु हरमि कत। महुँ समउ खगाहिउ एउ ताव ।
कर छोड़गा? युद्ध में किसी भी विद्याधर के मद को निर्मद कर दूंगा? इन्द्रजीत के इन्द्रजाल को ध्वस्त कर दूगा। जिसमें अग्निज्वाला लगी हुई है, ऐसे शत्रु पुर को जला दूंगा। देखू गा कि मेरे तीर कितने दिनों में शत्रु सेना को आच्छादित करते हैं।
घत्ता-~मरे क्रुद्ध होने पर, हे राम, बही जीवित रहता है, जो तुम्हारे चरण-कमलों को प्रणाम करता है । हे देव, तुम्हारे प्रताप के प्रसार से त्रस्त सूर्य भी निरन्तर नहीं तपता।
उसी अवसर पर बालि का दूत आया। उसे बैठाया और कार्य संबंधी बातचीत हुई। उसने कहा-जिनका तेज अतिलंघनीय है, ऐसे सीता सती के स्वामी हे राम सुनिए । जिसका चरण विद्याधरों के चूड़ामणियों पर आरोपित है, ऐसा बालि राजा तुम्हें आठों अंगों से प्रणाम करता है, और प्रफुल्लमुख वह निवेदन करता है कि यदि तुम मुझे अनुचर बनाना चाहते हो तो सुग्रीव
और हनुमान को निकाल दो। वे छोटे-छोटे तिनके क्या युद्ध भार उठा सकेंगे ? कुए में गिरता हुआ तिनके को पकड़कर उसी में गिरता है। वट वृक्ष के तने का अवलम्बन लेने वाला ऊपर चढ़ता है । शक्तिशाली से विग्रह होने पर शनि का साथ लेने से (व्यक्ति) विघटन को प्राप्त होता है । तुम विरह से क्षीण गुणवान् और संत हो । मैं रावण को मार कर कान्ता को ले आऊंगा। इस पर राम उस दूत से कहते हैं—जब तक लंका है (मैं लंका में हूँ) तब तक यह विद्याधर राजा 5. A विवंसिवि। 6. A इंदई इंदजालु; P इंदहो इंदजालु । 7. A पयाषइसरतसित। 8. APणदि ।
(2) 1. AP भूउ । 2. A सो वृत्त । 3. A अविलंबधाम । 4. A 'चूलामणि" | 5. AP पिठ्ठपाउ । 6. A तणुवारि; P तणधारि। 7.Pणगोहि। 8. A वीण।
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144]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
मयगिल्लगल्लु' मित्तत्तहेउ पच्छद्द" जं इच्छइ तं जि करमि
रिवर'" महामेहक्खु देउ ।
अणात सुक्क काई सरमि ।
घत्ता-लइ" इच्छउं केर महुतणिय कुंजरू ढोइवि गिरिसरिसु ।। इभासिवि राएं पेसियउ सहुं तहु दूएं णिवपुरिसु ||2||
3
किलकिलिपुरु पत्तउ दिट्टु बालि मंतें पत्तु भो सच्छचित्त तुति राय सुद्ध मणेण जेणाह्वस्बंधइ भग्गएण महुं भीएं उ' fafaधि वासु कंडण होइ पंडुरिय रेह जुज्झेसइ सीरि सिलिम्मुहेहि मग्गणउ धम्म गुणु मुवि जाइ इय चितिवि बोल्लिउ रायमंति देसड़ खयराहि असिपहारु
[75. 2. 10
10
तेयाहिउ णं चंडसुमालि । करि ढोइवि करि पहुसमरं जत्त । ता भइ वालि संधु अणेण । कायरणरमग्गविलग्गएण । हा रामें पोसिउ पक्खु तासु । गूढ
रिवित्ति एह ।
उत्तु वि जाणिज्जइ बुहेहि । सुग्गीवहु हणुयहु उवरि थाइ । भण्णइ ण देइ सो तुज्झु दंति । तोडेसइ पर्छ सुग्गीहरु ।
मेरे साथ है। मिश्रा के लिए वह नई से नीले इच्छा करेगा वह मैं करूँगा । इस समय मैं उसके उपकार की क्या याद करूँ ।.
5
10
महामेघनाथ का गज दे। बाद में जो वह
पत्ता-लो गिरि के समान हाथी को लाकर मेरी आज्ञा को चाहो, यह कह कर राजा राम ने उस दूत के साथ अपना आदमी भेजा ।
(3)
वह किल-किल नगर पहुँचा। उसने बालि से भेंट की। तेज से अधिक वह मानो सूर्य हो । मंत्री बोला- हे स्वच्छ चित्त तुम हाथी देकर राजा (राम) के साथ यात्रा करो, शुद्ध मन से राजा संतुष्ट होंगे। तब उसके द्वारा संस्तुत बालि बोला- संग्राम को धुरी से भागे हुए कायर मनुष्यों के मार्ग का अनुसरण करने वाले जिसने मुझसे डर कर किष्किंधा में निवास किया, राम ने उसके पक्ष का समर्थन किया । खुजली में सफेद रेखा होती है। जो मन से गूढ़ होते हैं, उनकी यही वृत्ति होती है। बलभद्र तीरों से लड़ेंगे। जो अनुक्त है, वह भी पंडितों के द्वारा जाना जाएगा । मग्गपड ( याचक और तीर ) धम्म (धर्म और धनुष ) गुण (गुण और डोरी) को छोड़कर जाएगा तथा सुग्रीव और हनुमान् के ऊपर स्थिर होगा। इस प्रकार के कथन को सुनकर राजमंत्री कहता है कि वह तुम्हें गजवर नहीं देगा. विद्याधर राजा असि प्रहार करेगा, वह तुम्हारे सुग्रीव हार को (सुग्रीव को धारण करने वाले अच्छी ग्रीवा धारण करने वाले ) ।
9. A गिल्ला गिल्ल भित्तत्त। 10. AP करिवस वि महा 11. P पेच्छ 12. A लइ छ; P सई
इन्छ ।
( 3 ) 1. P पुरि। 2 A बंधें । 3. A क्रिउ । 4. P पंडुरिव 5. A मणवूडहं केरी; P मणमूडहं फेरी । 6. A अणुउसि ।
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75. 4. 13]
[145
महाका-पुप्फपत-विरतपउ महापुराण भत्ता-ता सत्ति वओहरु णीसरिउ आविवि कण्णविवरक्खरउ ॥
आहासइ बलणारायणहं रिउदुम्क्यणपरंपरउ ।।3।।
ता चिताविडमणि रामर
लिहि अण्प् वि वायवेउ । एक्कु जि रवि अण्णु जि गिंभयालु एक्कु जि तमु अण्णु जि मेहजालु । एक्कु जि हरि अण्णु जि पक्खरालु एक्कु जि जमु अण्ण जि पुण्णकालु । एक्कु जि विसि अण्णु जि सविसदिष्टि एक्कु जि सणि अण्णु जि तहि मि विट्ठि । एक्कु जि दहमुहु दुद्धरु विरुद्ध अपणेवकु तहिं जि बलिपुत्तु कुद्ध । मित्तयणु खीणु बलवंत सतु पाणिठ्ठ सुठ्ठ हित्तउ कलत्तु । विरइज्जइ एवहि कवणु मंतु पउ कुसलकारि एक्कु वि जियतु । ता विहसिवि बोल्लइ वासुएउ कि दीव जिणंति दिणेसतेउ। केसरिकिसोरु कि मग छिवंति ते जगि जियंति जे पई णवंति । असमंजसु सज्जणपाणहारि परमेसर पच्छा कोवकारि।
10 सुहडत्ताणंदियसुरवरालि
अच्छउ रावणु ता हणमि वालि। पत्ता-मई कुइइ रणंगणि ओत्थरिए भीक महागिरिकंदरहु ।।
मा चितहि राहव किं पि तुई सूर जति जममंदिरहु ।।4।। पत्ता-सब शीघ्र ही दूत निकला और आकर उसने कानों को विपरीत लगने वाले अक्षरों से युक्त शत्रु की दुर्जन शब्द-परंपरा राम और लक्ष्मण से कहीं।
तब रामदेव ने अपने मन में विचार किया कि एक तो आग है, और फिर वायु का वेग ; एक तो रवि और फिर ग्रीष्मकाल । एक तो अंधकार और फिर मेघजाल; एक तो अश्व और दूसरा कवच पहिने हुए; एक तो यम है और दूसरे पूर्ण आयु; फिर एक तो सांप और विष सहित दष्टि; एक तो शनि और दूसरे वह आंधी वर्षा है । एक तो दुर्धर रावण विरुद्ध है, और दूसरे बलिपुत्र (बालि) ऋद्ध है । मित्रजन दुर्बल है, शत्रु बलवान् है। प्राणों के लिए इष्ट कलत्र का अपहरण कर लिया गया है। इस समय कोन-सा मंत्र करना चाहिए? जीतने वाला और कुशल करने वाला एक भी नहीं है। तब लक्ष्मण हंसते हुए बोले-दीपक क्या दिनकर के तेज को जीत सकते हैं ? सिंह के बच्चे को क्या मुग छू सकते हैं ? वे ही जग में जी सकते हैं कि जो तुम्हारे चरणों में प्रणाम करते हैं। सज्जनों के प्राणों का अपहरण करने वाला और बाद में पश्चात्ताप करने वाला वह अनुचित है । हे परमेश्वर रावण तो रहे, पहिले मैं अपने सुभटत्व से सुरवर श्रेणी को आनंदित करने वाले बालि को ही मारूंगा।
धत्ता-युद्ध के प्रागंण में कुल होकर मेरे उछलने पर, डरपोंक गिरिवर की गुफाओं में और देव यम के घर में जाते हैं । हे राम, आप कुछ भी चिंता मत करिए। 7. Pायण्णिवि कण्णविराबरत; T सुइविवर' श्रोत्रानिष्ट ।
(4) 1. P एक्क वि 1 2. A विसु ! 3. AP मिग । 4. A सुरवभालि ! 5.4 कुछ; P एम।
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महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[75. 3.1
ता पहुणा पेसिउ तक्खणेण सुग्गीउ चलिउ सह लक्खणेण । साहण पहि' उप्पहि णहिण मान गया मायनस पनि जान । हरि खुरखयरययभाणुदित्ति रह चक्कधारदारियधरित्ति। चूरियभयंग चलविवलियंग भयकंपिय दिसमायंग तुंग। थिउ सिबिरु धरेप्पिणु दुग्णमागु उब्बेइउ सससारंगवणु। आसोसियाई सरिसरजलाई णिल्लूरियाई णबदुमदलाई। सिरणलिणारोहियणियकरण अक्खि उ वालिहि केण बि चरेण । दुखरदीहरसुडालसोंडु
रामें तुम्हुप्परि पहिउ दंडु। पडिबलु गयणयल विलग्गतालि आवासिउ खहरवणंतरालि । पत्ता-सुग्गीवें सेविउ सीरधरु लद्धउ सहयह चक्कवइ ।।
तं णिसुणिवि रूसिवि सण्णहिवि णिग्गउ वालि खगाहिवइ ।।5।।
गंभीरतूरकोलाहलाई अभिट्टई कयरणकलयलाई ववियलियपिच्छिललोहियाई
सुग्गीयवालिखेयरबलाई। सरपसरपिहियपिहुणहयलाई। पय घुलियंतावलिरोहियाई।
तब प्रभु राम ने तत्काल आदेश दिया। सुग्रीव लक्ष्मण के साथ चला। सेना पथ उत्पथ और आकाश में नहीं समा सकी। मद के वशीभूत होकर गजघटा प्रसन्नता पूर्वक जा रही थी। खुरों से आहत धूल से जिन्होंने सूर्य को दीप्ति को आच्छादित कर दिया है ऐसे अश्व थे। चक्र की धारा से धरती को फाड़ देने वाले रथ थे। विकल अंग वाले सांप चूर-चूर हो गए। ऊँचे दिग्गज भय से कांप उठे। दुर्गमार्ग को ग्रहण कर शिविर ठहर गया। शश और हरिण समूह उद्विग्न हो उठा । नदियों और सरोवरों का जल सूख गया। नव द्रुम के पत्ते नोच दिए गए। सिरकमल पर अपने हाथों को आरोपित (लगाते) करते हुए किसी एक चर ने बालि से कहा--राम ने दुर्धर और दीर्घ गजों से प्रचंड सैन्य तुम्हारे ऊपर भेजा है। जिसमें आकाश के अग्र भाग में ताड़वृक्ष लगे हुए हैं. ऐसे खदिर वन के भीतर शत्रुसैन्य ठहरा हुआ है।
__ छत्ता--सुग्रीव ने राम की सेवा अंगीकार कर ली है और चक्रवर्ती लक्ष्मण को सहचर के रूप में प्राप्त कर लिया है --यह सुनकर ऋद्ध विद्याधर राजा बालि तैयार होकर निकला।
(6)
गंभीर तुर्यों का कोलाहल होने लगा। नुग्रीव और बालि विद्याधरों के सैन्य भिड़ गए। युद्ध का कोलाहल होने लगा। तीरों के प्रभार से दोनों ने विशाल आकाशतल आच्छादित कर दिया। दोनों सैन्य घावों से रिसते गाड़े खून से लाल हो गए। दोनों पैरों में व्याप्त आंतों से
(5) 1,P उपहि पहि! 2. AP णं णहि विलग साहणसुकित्ति । 3. AP पलवलियअंग । 4. P जन्वेया। 5. AP दोहरदुद्धर। 6.AP सणिहिति ।
(6) I. A आभिट्राई । 2.A'विहलिय" ।
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75.7.3]
महाकइ-पत-विरइय महापुराण
सोडियरहाशे प्रधिरार्द लुयदळगुडाई हयगय डाई खयपेविखराई गयपक्खराई
तुट्टच्छ्रराई बहुमच्छराई पिराई पहरणपराई ता तहि रणंति पीणियकयंति ints चंदु रिद्धी इंदु तें भणिउं भाइ रे रे अराइ पहुमाणद' खल दुनिय
घत्ता - मेल्लेपणु" सेव महुतणिय बंधुणिबंध" तिलरिणइं ॥ पइसरिवि सरणु भूगोयरहं जीवेसहि भणु कइ दिई ||6||
मा पावहि आहविपाणणासु तं वयणु सुगिवि सुग्गी चवइ तो लक्ख भूगोre frहत्तु
आसियणहाई तासियगहाई । ताडिया' पाडियभडाई | चुयहरिवराई कंपियधराई । मरणिच्छिराई खणमुच्छिराई । मणिम्भराई ह्यभयभराई । सामंतकति वेयालवंति । footoलिपुरिंदु धाउ खगिंदु | विज्जाहराई मेल्लिविसजाइ । वज्जियगुणड्ड' सुग्गीव संद"
7
जज्जाहि पाव किfoकधवासु । पई फेडिवि जइ मइ णाहि थवइ । अह तो पई पिष्फलु पउत्तु' ।
1147
5
10
अवरुद्ध हो उठे । रथ मुड़ने लगे, ध्वज फटने लगे। दोनों आकाश में व्याप्त हो गए और ग्रहों को पीड़ित करने लगे । छिन्न हो गए हैं दृढ़ लगाम जिनके ऐसे घोड़ों और हाथियों की घटाओं वाले दोनों दल त्रस्त हो उठे । योद्धा गिरने लगे। दर्शक नाश को प्राप्त होने लगे। कवच गिरने लगे । श्रेष्ठ अश्व च्युत होने लगे। दोनों सैन्य धरती कंपाने लगे, अप्सराओं को संतुष्ट करने लगे । दोनों मत्सर से भरे हुए थे। दोनों मरण की इच्छा कर रहे थे, दोनों क्षण-क्षण में मूर्च्छा को प्राप्त हो रहे थे, दोनों शत्रु को प्ररंचित करने वाले थे, दोनों प्रहरणों में तत्पर थे। दोनों मद से परिपूर्ण थे। जिसने कृतांत को प्रसन्न किया है, जो सामंतों से कांत और वैतालों से युक्त है, ऐसे उस युद्ध के बीच, कांति से युक्त चन्द्रमा और ऋद्धि से युक्त इन्द्र के समान किलकिलपुर का राजा विद्याधरेन्द्र बालि दौड़ा। उसने भाई से कहा – रे शत्रु, विद्याधरों और अपनी जाति को छोड़कर, स्वामी के मान से दग्ध दुष्ट दुविदग्ध गुण ऋद्धि से शून्य हे सुग्रीव,
घता -- मेरी सेवा, बंधु के संबंध और स्नेह के ऋण को छोड़कर, तथा मनुष्यों की सेवा में प्रवेश कर बता तू कितने दिन जीवित रहेगा ?
(7)
युद्ध में अपने प्राणों का नाश मत कर। हे पाप, किष्किंधा नगरी चला जा । यह वचन सुनकर सुग्रीव कहता है - यदि तुम्हें नष्ट कर, मुझे स्थापित नहीं करता तो लक्ष्मण निश्चित रूप से भूगोचर है, नहीं तो तुमने निष्फल कथन किया। फिर वे दोनों विद्याबल से एक 3. AP फाडिया मोडियरहाई । 4. AP तासिय' । 5. A पेक्खराई। 6. A हियभय । 7. A दड् । 8. A दुब्बियड्छु । 9 A गुणड़। 10. A संडु | 11. मेल्लिवि सेवर । 12. AP बघुनिबद्धई । (7) 1.A णिस्तु
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148]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
175.7.4 ते बे वि लम्ग विज्जाबलेण पुणु हृयवहेण पुणु पुणु जलेण। पुणु तरुवरेण पुणु मारुएण' पुणु फणिणा पुणु विणयासुएण। जुज्झिय बेगिण वि पुणु भणइ जेठ्ठ मई कुछइ रक्खइ कवणु इठ्ठ। ता भासइ तहिं राहवकणिछु तुहूं ण मुणहि सिट्ठ अणि? विठ्ठ । हउँ विठ्ठ देउ दसरहकुमारु हउँ विछ सदुट्टियकुठारु। णउ दिण्ण हत्थि रे देहि घाय तुह एव्वहिं कुद्धा रामपाय । धत्ता-जइ जिणवर सुमरिवि संतमणु चरहि सुदुद्धरु तवचरणु ॥ 10
तो चुक्कइ महु रणि वइरि तुहूं जइ पइसहि रामह सरणु ।।१।।
ता हसिउ पवलेण बलिरायपुत्तेण संगामपारंभपन्भारजुत्तेण । भूयररिंदस्स किं तस्स फिर थामु तुहं गणिउ जगि केण अण्णेक्कु सो रामु । जई अस्थि सामत्थु ता मेरुगिरितुंगु मई जिणिवि रणरंगि अवहरहि मायंगु । अक्खिवसि कि मुक्ख पक्षिदवरपक्ख किं कुणसि मई कुइइ सुग्गीवि परिरक्ख' रत्तोवलित्तेहिं दरिसियपहारेहि गुणधम्ममुक्केहि यम्मावहारेहि । मारणकइच्छेहि दुज्जणसमाणेहि ताबे वि उत्थरिय विप्फुरियबाणेहिं । कोडीसरत्तेणं णिव्बूढगावाई। छिपणाई चावाइं जमभउहभावाइं।
दूसरे से भिड़ गए। फिर आग से, फिर जल से, फिर तरुवर से, फिर पवन से, फिर नाग से, फिर गहड़ से दोनों लड़े । फिर बड़ा भाई बोला-मेरे क्रुद्ध होने पर तुझे कौन इष्ट बचा सकता है ? तब राम का अनुज लक्ष्मण कहता है-तू नहीं जानता कि लक्ष्मी का इष्ट और तुम्हारे लिए अनिष्ट विष्णु (नारायण) है । मैं विष्णु देव दशरथ-कुमार हूँ 1 मैं विष्णु (गरुड़) हूँ, दुष्टों के लिए अस्थिकुठार हूँ । तूने हाथी नहीं दिया। इस समय राम के चरण तुझ पर क्रुद्ध हैं।
पत्ता-यदि तू जिनवर का स्मरण कर शांत मन हो अत्यन्त दुर्धर तप का आचरण करता है और राम को शरण जाता है, तभी तू शत्रुयुद्ध में मुझसे बच सकता है।
(8) इस पर संग्राम के प्रारंभ का प्रभार उठाने में संलग्न बलि राजा का पुत्र बालि हंस पड़ा। उस भचर (मनुष्य) राजा की क्या शक्ति ? तुम्हें और एक उस राम को जग में कौन गिनता है? यदि तझ में सामर्थ्य है तो युद्ध में मुझे जीतकर, सुमेरू पर्वत के समान ऊँचे महागज का अपहरण कर ले। हे मुर्ख,तू विद्याधर पक्ष पर आक्षेप क्यों करता है ? सुग्रीव के प्रति मेरे कुपित होने पर त उसकी रक्षा क्यों करता है? तब वे दोनों मान से अनुरंजित, प्रहार को प्रकाशित करने वाले, गुण धर्म से रहित, भर्म का छेदन करनेवाले, मारने की इच्छा रखने वाले, विस्फरित बाणों से युद्ध के लिए उछल पड़े। लक्ष्मण ने यम के समान भाव वाले और गर्व का निर्वाह करने 2.AP मारुषेण 1 3. AP दोण्णि । 4. AP णो दिण्णु ।
(8) 1. बालेण। 2. A अक्खबसि । 3.A परपक्खु; P परख । 4.A कोडीसरुत्तेहि ।
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75.9.5] महाका-पुस्फयंत-विरपर महापुराण
[149 अण्णाई गहियाई अण्णाई मक्काइं चिधाई रुह द्धयंदेहि लुक्काई। धावंत वेवंत सरभिण्ण हिलिहिलिय अंतावलीखलिय महिनीढि रुलघुलिय' । गयघायकडयडिय रह पडियजोत्तार भड भीम थिय बे वि संगामकत्तार। 10 अभिट्ट ते बालि लक्षण महावीर थिरहत्थ सुसमत्थ सुरगिरिवराधीर' । तडिदंडसरलेहि तरले हिं खग्गेहिं संचरणपइसरणणीसरणमग्गेहि। खणखणखणतेहिं उग्गयफुलिंगेहि जिमिजिगियधारापरज्जियपयंगेहिं । पत्ता-रणसरवरि यमुहफेणजलि सोणियधाराणालचलु॥
असिचंचु लक्षणलवखणिण तोडिउ वालिहिं सिरकमलु ॥४।। 15
फोडिवि रणि वइरिहि सिरफरोडि किलिकिलिपुरेण' सहं नामकोडि। दिण्णी सुग्गीवखगाहिवासु एवड्ड फुरणु भणु भुवणि कासु। मेल्लेप्पिणु लक्खणु लच्छिधामु सुपसपणु महाजसु जासु रामु । गहियई णियकुलचिंधई व राइ सीहासणछत्तई चामराई।
पुरवरि घरि मंडलि णिहिय भिच्च बहुबुद्धिवंत णिभिच्च सञ्च। वाले धनुषों को छिन्न-भिन्न कर दिया। दूसरे धनुष छोड़ दिये गये, दूसरे ग्रहण कर लिये गये। पताकाएँ रौद्र अर्धचन्द्र वाणों से लुप्त हो गयीं। तीरों से छिन्न-भिन्न होकर वे दौड़ते-काँपते हुए मूर्चिछत हो गये। आतें खिसक गयीं और महीपीठ पर व्याप्त हो गयीं। गदाओं के आघात से कड़कड़ाते हुए रथ और सारथि गिरने लगे। भयंकर युद्ध करने वाले दोनों योद्धा स्थित थे। स्थिर हाथ, समर्थ, ऐरावत के समान धीर, बालि और लक्ष्मण दोनों महावीर भिड़ गए । विद्युद्-दंड की तरह सरल
और तरल, संचरण प्रविशन और निःसरण के मार्गों से युक्त, खन-खन-खन करती हुई, चिनगारियां उड़ाती हुई, जिग-जिग चमकती हुई धारा से सूर्य को पराजित करती हुई तलवारों से वे दोनों भिड़ गए।
पत्ता–जिसमें घोड़ों के मुखों का फेन रूपी जल है, ऐसे युद्ध रूपी सरोवर में रक्तधारा रूपी कमलदंड से चंचल, बालि के सिर रूपी कमल को लक्ष्मण रूपी सारस ने तलवार रूपी धोंच से तोड़ दिया।
(9) युद्ध में शत्रओं के सिर के कपाल तोड़कर उस (लक्ष्मण) ने किलकिलिपुर नगर के साथ करोड़ों गाँव विद्याधर राजा सुग्रीव को दिए । बताओ इतना बड़ा शौर्य लक्ष्मण को छोड़कर किसका है कि जिसके ऊपर लक्ष्मीधाम, महायशस्वी राम प्रसन्न हैं ? सुग्रीव ने अपने कुल के श्रेष्ठ चिह्न सिंहासन छत्र और चमर ग्रहण कर लिए। नगर और घर में अत्यन्त बुद्धिमान, सच्चे और विश्वसनीय अनुचरों को स्थापित कर दिया। महामेघ गज पर आरूढ़ होकर राजाओं 5. AP दवयंदेहि। 6. A मुक्काई। 7. AP हय लिय। 8. AP कतार । 9.A "धराधोर। 10. A संवरण" 1 11. A पराजिय' । 12 AP असिधाराचंचुइ लक्षणेण ।
(9) 1. P किलिगिलि । 2. A मन्नेप्पिणु। 3. P लच्छिवासु । 4. A चडाई।
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150]
10
महाकवि पुष्पवात विरचित महापुराण
[75.9.6 आमहिदि महाधणवारणिदु
सहं सुग्गीवेण परिंदचंदु । संपत्तु जणद्दणु पुण वि तेत्यु णिवसइ वर्णति बलहद्द, जेत्यु । तह पायपणइ सीसे करेवि लक्खणु सुग्गीव चवंति बे वि। पता–महिरूढउ वारियसूरकरु कामिणिवेल्लिविलासधरु ।। तुहं देव पयावहुयासणिण हेलइ दड्डउ वालितरु ।।9।।
10 ता पिसुणमरणसंतोसिएण
मेल्लिवितं उववणु ववसिएण । जित्ताहवेण सहुं माहवेण
सुग्गी- हणुवें राहवेण। किविकधपुरहु दिपणउं पयाणु संघट्टउं' पहि जाणेण जाणु ।। महिणहयराहं रिउरोहिणीउ चलियउ.चउदह अक्खोहिणीउ। मंडलिय मिलिय वियलियसगव्ध' दिस पत्तहिं छत्तहि छइय सव्व । गह दीसह णउ छायउ धएहि
हरिचरणपयधूलीरएहिं।। करताडिय गज्जइ गमणभेरि
भडहियवइ वड्ढइ वइरिखेरि। उण्णिद्दिय रामणगिलणमारि गोविंद कडक्खाइ लच्छिणारि। करिमयचिखिल्लदहि णिमण्णु संदणसंदाणिउ बहइ सेण्णु।
में श्रेष्ठ लक्ष्मण सुग्रीव के साथ वहां पहुंचे जहाँ बन के भीतर राम थे। सिर से उनके पैरों में प्रणाम कर लक्ष्मण और सुग्रीव दोनों ने कहा
पत्ता-धरती पर प्रसिद्ध, सूरकर (सूर्य किरण,शूरवीरों के हाथ) का प्रतिकार करनेवाला, स्त्रियों रूपी लताओं का विलास धारण करने वाला बालि रूपी वृक्ष, है देव, तुम्हारे प्रताप रूपी आग से खेल-खेल में जल गया।
(10) तब दुष्ट के मरण से संतुष्ट और उद्यमी राम ने उस उपनन को छोड़ दिया। युद्धों को जीतने वाले माधव, सुग्रीव और हनुमान् के साथ राम ने किकिधा नगर के लिए प्रयाण किया। रास्ते में यान से यान टकरा गए । मनुष्यों और विद्याधरों की शत्रु को रोंधने वाली चौदह अक्षी. हिणी सेनाएँ चली । अपना गर्व छोड़कर वे मिल गए । पत्रों और छत्रों से सभी दिशाएँ आच्छादित हो गई। वजों और घोड़ों के परों से आहत धूलिरज से आच्छादित आकाश दिखाई नहीं देता। हाथों से आहत रणभेरियां बज उठी। योद्धा के हृदय में शत्रु का क्रोध बढ़ने लगा । रावण को निगलने वाली मारि जाग उठी । लक्ष्मी रूपी नारी लक्ष्मण पर कटाक्ष फेंकने लगी। हाथियों के मद के कीचड़ में निमग्न रथ को रथ से बांधकर सैन्य खींचने लगा।
5. P महाधणुया रणिदु।
(10) 1, AP संघट्टि। 2. A पहु। 3. AP °सुगन्ध । 4. AP 'दहि । 5. A संदणि संदाणिए; P संदणसंवाणिए।
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[151
75 11.13]
महाक-पृष्फर्यत-विरहयउ महापुरागु पत्ता-हरिणीले कुदें परियरिउ खगसारंगविराइयउ ।।
किक्किधसिहरि णियवंसधरु रामें रामु व जोइयउ ॥1011
11
पइसंतहि हलहरकेसवेहि
अवरेहि मि बहुभूगोयरेहि । जहि णिवसइ सो सुग्गीउ ख्यरु अवलोइउ तं किक्किधणयरु । तोरणदुवारि सुपसत्थियाउ
दहिअषयमंगलहत्थियाउ। णरचित्तसारधणसामिणीउ
बोल्लंति परोप्परु कामिणी । हलि धवलउ कालउ कवणु रामु बिहिं रूवहि किं' थिउ देउ कामु। 5 कि एहु जि एहु ण एहु एहु
दीसह वण्णंतरभिषणदेहु । बररूबालुद्धई जुजियाई
अच्चंतपलोयणरंजियाई। जणवयणयणई कसणई सियाई णं हरिबलतणुछायंकियाई। घर आया कहि लभंति इट्ट
णियमंदिर पडिवत्तीइ दिद। सिरपणमणण्हाणविलेवणेहि
देवंगहि णिसणभूसणेहिं । 10 अविचितियसाहसकित्सिनण्ट
भावें ममाणिय रामकण्ह । सुग्गी- बेगिण वि सामिसाल
खलबलगलथल्लणबाहुडाल"। तहि दियह जंति किर कइ वि जाव संपत्तउ वासारत्तु तांय ।
पत्ता-किष्किधा पहाड़ को राम ने (अपने) समान देखा जो हरि नील (लक्ष्मण और नील, इन्द्रनील मणि) और कुंद (कुंद, पुष्प विशेष) से घिरे हुए खग, सारंग (विद्याधर और धनुष, पक्षी और हरिण) से शोभित तथा नियवंश (कुटुम्ब, वासों) को धारण करने वाला था।
प्रवेश करते हुए बलभद्र और नारायण तथा दूसरे-दूसरे अनेक मनुष्यों ने, उस किष्किधा नगर को देखा जहाँ विद्याधर सुग्रीव निवास करता था। तोरण बाले दरवाजों पर, अत्यन्त प्रशस्त, जिनके हाथों में दही अक्षत और मंगल द्रव्य हैं, ऐसी मनुष्यों के चित्त रूपी श्रेष्ठ धन की स्वामिनी स्त्रियां आपस में बातचीत करने लगीं। हे सखी, राम कौन हैं, गोरे या काले ? क्या कामदेव ही दो रूपों में स्थित हो गया है ? क्या यही है ? यह नहीं यह हैं। अलग-अलग वर्ण से भिन्न शरीर दिखाई देते हैं। सुन्दर रूप के लोभी और भखे, अत्यन्त देखने से रंजित, लोगों के मुख काले और सफेद हो गए। सच है कि राम और लक्ष्मण के शरीर की कांति से साथ अंकित हो घर आये हुए इष्ट जन कहाँ मिलते हैं ? इसलिए उन्होंने गौरव के साथ उन्हें देखा । सिरों के प्रणामों, स्नानों और विलेपनों, दिव्य वसनों और आभूषणों से सुग्रीव द्वारा अचिंतनीय साहस और कीर्ति के प्यासे, दुष्ट सेना की गर्दनिया देने वाले हाथों रूपी डालों वाले दोनों स्वामीश्रेष्ठों का सम्मान किया गया। जब तक वहाँ उनके कुछ दिन बीतते हैं, तब तक वर्षा ऋतु आ गई।
(11) 1. सबहलाहरेहिं । 2. A प्रणमाणिणीउ । 3.A हरि। 4. A थिउ किउ देर । 5. A पहु। 6. मल्लत्य।
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15211
[75. 11. 14
महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण घत्ता---घणगयवरि तडिकच्छंकियइ चडिउ धरेप्पिणु इंदधणु ।।
वरिसंतु सरहिं पाउसणिवइ णं गिमें सहुं करइ रणु ॥1॥
15
12
कायउलइं तरुघरि संठियाई हंसई सरमुयणुक्कंठियाई। सरवर सेजाया तुच्छणलिण दिसभाय वि णवकसणभमलिण । णचंति मोर मज्जति कंक पंथिय वहति मणि गमणसंक । चल चायय तहादसति उमरीश पल- विति पवसियपियाउ दुहसल्लियाउ महमयिउ जाइउ फुल्लियाउ। दिसपसरियकेय इकुसुमरेणु
चिक्खिल्लें' तोसिय किद्धि करेणु । परिसते देवें भरिउ देसु
जल थलु संजायउं णिव्विसेसु । एक्कहिं मिलियाई दिसाणणाई पप्फुल्लकयंबई काणणाई। अवलोइवि रामु विसायगत्यु थिउ णियकओलि संणिहियहत्थु । घत्ता–घणु गज्जउ विज्जु वि बिप्फुरउ पडउ सिहंडि वि मूढमइ ।। विणु सीयइ पावसु" राहवह भणु कि ह्यिवइ करद्द रह ।।12।।
13 पुणु सरउ पवण्णु सचंदहासु
बाणासणकयरिद्धीपयासु। विमलासउ कुवलयभेयकारि बहुबंधुजीवदोसावहारि'।
पत्ता-बिजली रूपी कच्छा (वरत्र, रस्सी) से अंकित मेघरूपी गज पर आरूढ इन्द्रधनुष लेकर पावस रूपी राजा मानों तीरों से बरसता हुआ ग्रीष्म के साथ युद्ध कर रहा है।
(12)
काककूल वृक्ष रूपी धरों में बैठ गए। हंस सरोवरों को छोड़ने के लिए उत्सुक हो उठे। सरो- . वर कमलों से हीन हो गए। दिशाएँ भी काले बादलों से मलिन हो गईं। मयूर नाचते हैं, बगुले डबकियाँ लगाते हैं। प्यास से व्याकुल चंचल चातक चिल्लाने लगे और मेघों का पानी पीने लगे। प्रेषितपतिकाएँ दुःख से पीड़ित हो उठौं । जुही की लताएँ महकने लगीं। केतकी कुसुम पराग दिशाओं में प्रसरित होने लगा। गज और सुअर कीचड़ से प्रसन्न हो उठे। मेघराज के बरसने पर देश (जल से भर गया। जल और स्थल निर्विशेष हो गए। दिशाओं के मुख एकाकार हो गए। काननों में कदम्ब के पुष्प खिल गए । विषादग्रस्त राम उसे देखकर अपने गाल पर हाथ रखकर बैठ गए।
पत्ता-मेघ गरजी, बिजली चमकी और मुहमति मोर नाच उठा । बताओ वह पावस राम के हृदय में सीता के बिना कैसे प्रेम उत्पन्न कर सकता है ?
(13) फिर चन्द्रमा की कांति के साथ शरद् ऋतु रावण के समान आ गई जो मानो रावण के समान, वाणासन (वृक्ष विशेष, धनुष) की ऋद्धि को प्रकाशित करनेवाली, विमल आशयवाली, कुवलय (कमल, पृथ्वीमंडल का) भेदन करनेवाली, अनेक बंधु जीवों के दोषों का अपहरण करने
(12) 1. A सरसुअणु । 2. A विसभीय वि णं कसण"। 3. AP दिसि परिउ । 4. Aपिखल्ले । 5.AP कलंबई । 6. P पाउसु ।
(13) 1 PA "जीवबंधु।
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[153
75. 13. 14]
महाका-पृष्फयंत-विरइया महापुराण परिसंतावियपोमंतरंगु
णं रावणु दावियदुक्खसंगु । णउ रुच्चइ रामहु वट्टमाणु
पियविरहिउ किच्छे धरइ प्राणु । ता सुग्गीवें वुत्तउ पहाणु
केसव णिज्झायहि मंतझाणु । मेलावहि सीयारामकामु
ता जाइवि सीयारामधामु। वसुसयसंखा वर" दुणिरिक्त वउदिसहि णिजिवि देहरक्ख । दरवीर कोनकालाजहत्य
उच्चारिवि थुइमंगल पसत्य । कयरयणकिरणपरिहवविसुज्ज" सिंवघोसमहामुणिपडिमपुज्ज । पडिविज्जावारणि पज्जणिज्ज
कण्हें साहिय पण्णत्ति विज्ज । संमेयमहीहरि सिद्धखेत्ति
सुग्गीवें हणुवेण वि पवित्ति । गुरुयणविहीइ आराह्यिाउ
णाणाविहविज्जउ साहियाउ । पत्ता-अण्णेहि अण्णहि गिरिसिहरि" भरहि भरेण पसिद्धियत ।।
पणवंतिउ आयउ देवयउ पुप्फयंतरुइरिद्धियउ ।।13।।
10
इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाभव्यभरहाणुमण्णिए
महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे वालिणिहणण' रामलक्खणविज्जासाहणं णाम पंचहत्तरिमो
परिच्छेओ समत्तो ।।75॥ वाली, पद्म (कमल, राम) के अंतरंग को संतापदायक और दुःख का साथ दिखाने वाली थी। वर्तमान शरदऋतु राम के लिए अच्छी नहीं लगती। प्रिया से विरहित वह बड़ी कठिनाई से प्राण धारण करते हैं। तब सुग्रीव ने प्रधान (राम) से कहा-हे राम, मंत्र का ध्यान करिए 1 वह सीता और राम की कामना को मिलवा देगा। तब पृथ्वी में आराम स्थान पर जाकर, आठ सौ दुर्दर्शनीय देह बाले, भाले और तलवार लिये हुए श्रेष्ठ बीर रक्षकों को चारों दिशाओं में नियुक्त कर, प्रशस्त स्तुति मंगल का उच्चारण कर, जिसने रत्नकिरणों से सूर्य का पराभव किया है ऐसे शिवघोष महामुनि की प्रतिमा की पूजा की तथा प्रतिविद्या का निवारण करने वाली पूजनीय प्रज्ञप्ति विद्या को लक्ष्मण ने सिद्ध कर लिया। पवित्र सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर पर सुग्रीव और हनुमान ने भी गुरूजनों की विधि से आराधित नाना प्रकार की विद्याएँ सिद्ध कीं।
पत्ता भरतक्षेत्र के अद्वितीय गिरिशिखर पर दूसरों ने स्मरण (आराधना) से विद्याएं सिद्ध की। सूर्य और चन्द्रमा की कांति से समृद्ध देवियाँ प्रणाम करती हुई आईं।
सठ महापुरुषों के गुणालंकारों से मुक्त इस महापुराण में, महाकवि पुष्पदंत द्वारा विचारित तथा महापम्प भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का वालि-निधन एवं राम-लक्ष्मण-विधा-साधन नाम का पचहत्तरवां
परिच्छेद समाप्त हुआ।
2.AP पाणु । 3. AP घर । 4. AP परिहवियसुज्ज । 5. AP विज्जा । 6.A गिरिवरहे। 7.Pालिणिहणं ।
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छहत्तरिमो संधि
राहवलक्खर्णाह जयजयघोसेण जयाण ।। उप्परि दहमुहह आरूसिवि दिण्णु पयाणउं ।। ५. .
मलयमंजरी'- उदुिओ रउद्दो विविहतूरसहो भगवइरिधीरो' 11
चलियतहमा सुन्याहगाणं कलयलो गहोरो॥छ।। संचल्लंति रामि महि कंपइ । धरभरणामउ ण फणिवइ जंपइ ! गयपयकुडिय कुहिणि मयपके दुग्गम भावइ कमजणसंके। रह रहंगगइदारियविसहर
महिहर दलिय मलिय मय वणयर । पवणवसेण बलिय विलुलियधय हृयमुहणसलिलपसमियरय । वरभडथडचुण्णीकयमहिरुह
सेण्णाउण्ण सगयणासामुह । सोसिय सरि सर णिसुढिय जलयर असिविप्फुरणगसिय ससिदिणयर। 10
छिहत्तरवीं संधि
राम और लक्ष्मण ने अय-जय घोष के साथ दशमुख पर कुद्ध होकर जयशील प्रस्थान किया।
जिसने शत्रु का धर्य नष्ट कर दिया है, ऐसा विविध सूर्यों का शब्द तथा चलती हुई सेनाओं और अश्व-वाहनों का गंभीर कल-कल हुआ।
राम के चलने पर सेना काप उठती है। धरा के भार से नमित नागपति कुछ नहीं बोलता । हाथी के पैरों से क्षुब्ध मार्ग लोगों को शंका उत्पन्न करने वाली मद-पंक से दुर्गम प्रतीत होता है। रथों के चक्रों की गति से विषधर कुचले गए। पहाड़ चूर हो गए । मृग और वनघर मर्दित हो गए। हवा के कारण ध्वज मुड़ गए और फट गए । घोड़ों के मुख के फेन रूपी जल से धूल शांत हो गई। श्रेष्ठ योद्धाओं की घटाओं से महोरह (वृक्ष) चूर्ण-चूर्ण हो गए। आकाश सहित दिशाओं के मुख सेना से अपरित हो गए। नदियों और सरोवरों का पानी सूख गया। जल
(1) 1. AP मलयमंजरी णाम । 2. AP "वरिवोरो। 3 P has कयपसाहणार्ण before चलिए; Kgives कयपसाहणाणं in margin and in second hand | 4. A संचल्लतरामें। 4. AP खुखिय'; K gives खुहिता दाasp 6. AP चलिय ।
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[155
76.2.9]
महाका-पुषफर्यत-विरइया महापुराण रसिय भएण णाई रयणायर
थिय देविद विसंतुल कायर। देसु विलंघिवि रणरहसुब्भडु ___ खंधावारु धरिवि जलणिहितडु। आवासिज संचारिमभवहिं कंताकतहि रइरसरमणहि । असियसियारुणपीयलहरियहिं सोहइ बहुद्सहिं वित्थरियहिं । घत्ता-सिमिरु' सुहावण परतरुणीसोहाखंडणु'।
मेइणिकामिणिहि णं पंचवण्णु" तणुमंडणु' ।।1।।
भलयमंजरी–रयणकतिकतं मयरकेउवतं विजयलच्छिवास ।।
सायरस्स णीरं णं विमुक्कमेरं रोहिउँ दसासं ॥छ।। गज्जित परबलु दुखरु दिट्ठ चारएहिं दहवयणहु सिट्ठउ । हणुमंतेण तरुणिकमणाएं
सहुं णियभायरेण सुग्गीवें। रामु रामरमणीउ रमाहरु
खग्गपसायिसयलवसुंधरु । अच्छइ सायरतीरि णिसण्णउ अज्जु कल्लि हुक्कइ आसण्णउ। सारमा अहिबरनहरणीन तंगिवि विष्णवइ विहीसणु। विणवियंसु बरखयरपडत्तणु
भुवणभायणिम्मलजस कित्तणु। फार लच्छि देव वि परि किंकर कवणु गणु तुह किर पायड णर। घर नष्ट हो गए। तलवारों के विस्फुरण से चन्द्रमा और दिनकर ग्रस्त हो गए । समुद्र मानों भय से चिल्ला रहा था। देवेन्द्र ठगा हुआ और कायर रह गया। युद्ध के उत्साह से उद्भट उसने देश का उल्लंघन कर समुद्र के तट पर पड़ाव डाला। चलते हुए घरों में उन्हें ठहराया गया, कांताओं से सुन्दर, रतिरस से रमण, काले सफेद अरुण पीले और हरे अनेक विस्तृत तम्बुओं से वह शोभित था।
धत्ता-शत्रु-स्त्रियों के सौभाग्य का खंडन करनेवाला वह सुहावना शिविर ऐसा प्रतीत होता था मानो - रती रूपी कामिनी का पचरंगा शरीरमंडन हो।
(2) रत्नों की कांति से सुन्दर, मकरध्वज़ों से युक्त, विजय रूपी लक्ष्मी के निवास, सागर का जल ऐसा ज्ञात होता है मानों मर्यादाहीन रावण को अवरुद्ध कर दिया गया हो।
शत्रु-सैन्य गरजा, वह कठोर दिखाई दिया, दूतों ने जाकर रावण से कहा—स्त्रियों के लिए सुन्दर लक्ष्मी को धारण करने वाले तथा अपने खड्ग से समस्त वसुधरा को सिद्ध करने वाले राम हनुमान्, अपने छोटे भाई और सुग्रीव के साथ समुद्र के किनारे ठहरे हुए हैं । आज या कल में वह निकट आ जाएंगे। यह सुनकर अभिनव मेघ के समान स्वर वाला सज्जन विभीषण निवेदन करता है—एक तो विनमि वंश, श्रेष्ठ विद्याधर, संपूर्ण पृथिवी पर निर्मल कीसि, प्रचुर लक्ष्मी, घर में देव अनुचर, फिर वे प्राकृत नर तुम्हारा क्या ग्रहण कर पाते हैं ? आते या न आते हुए उनका 7. AP सिबिरु. 8. AP खंडण । 9. A पंचजण्णु | 10. AP मंडण ।
(2) 1. A रोहिजो । 2. A रमणीयरमाहरु । 3, AP विणमिवसुंधर । 4. A भवणभाविणिम्मल'; P भुवणमा णिम्मलु । 5. A बर किंकर।
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156]
महाकवि पुष्पदन्स विरचित महापुराण
[76. 2. 10 एंतु ण एंतु" होंतु बलदप्पिय
संगरि तुह कहवालझडप्पिय। 10 णिहिल जति तिमिरु व दिवसयरहु पई होंतें कहि दिहि रिउणियरह। एक्कु जि दोसुर णवर परमेसर जं पई वाहिय परणारिहि कर। घत्ता-पूरइ तित्ति ण वि रइ यसरइ वंछइ संगह।
परवहुरत्तमणु परि वडइ दिणेहि णियंगहु ।। 211
मलयमंजरी—मयणबणियचित्तो परप्रधिरत्तो मरइ साणुअंधो॥
पडद्द गरयरंधे सत्तमे तमंधे बद्धकम्मबंधो ॥छ।। विमहरसुरणरविरइयसे वह
धीरहु वसुसंखाबलएवहु । हरिवाहिणिविज्जारवाहहु
भीमगयाहलमुमलसणाहहु 1 बज्जावत्तसरासणहत्यह
दिज्ज परिणि देव काकुत्यहु। चक्कपसूइ ण चंगउं दावइ
लक्खणु वासुएउ महं भावइ । अण्णहु किविकधेसु ण रप्पइ अण्णहु कि रणि वालि समप्पइ। अण्णहु मारुइकिधरु आवइ
किं पण्णत्तिविज्ज परिधावई। अण्णहु पंचयण्णु कि वज्जइ
अपणु एव कि लच्छिइ छम्जइ। अण्णे धरणिधेणु किह बज्झइ गारूडविज्ज ग अण्णहु सिज्झइ। 10 बल खंडित हो जाएगा। युद्ध में तुम्हारी तलवार से वे आहत होंगे। वे तुम से उसी प्रकार चले जाएँगे जिस प्रकार सूर्य से अन्धकार हट जाता है, आपके होते हुए शत्रसमूह में धीरज कहाँ ? हे परेमश्यर, परन्तु केवल एक दोष है कि तुमने परस्त्री का हाथ जो पकड़ा।
घत्ता-तृप्ति पूरी नहीं होती और रति प्रसारित होती है, संग्रह की वांछा करती है। इस प्रकार परस्त्री में अनुरक्त मन अपने ही शरीर के अंगों पर पड़ता है।
काम में आसक्त चित्त और परस्त्री में रक्त, पुत्र-कलत्रादि से सहित जिसने कर्म बांधा है ऐसा मनुष्य तमांध नामक सातवें नरक में जाता है। विषधर-सुर और मनुष्यों के द्वारा जिनकी सेवा की जाती है। ऐसे धीर आठवें बलदेव लक्ष्मण-सेना और विद्याधर, सेना का संचालन करने वाले भयंकर गदा, हल और मसलों से सनाथ, जिनके हाथ में वज्रावर्त वनुष है ऐसे राम को, हे देव, उनकी गृहिणी दे दीजिए। चक्र की प्रभूति (उत्पत्ति) मुझे अच्छी नहीं लगती । लक्ष्मण और वासुदेव मुझे अच्छे लगते हैं। किष्किधा का राजा किसी दूसरे से अनुराग नहीं करता। क्या युद्ध में बालि किसी दूसरे के लिए समर्पण करता? हनुमान् क्या किसी दूसरे के घर आता है और क्या प्रज्ञप्ति विद्या दौड़ती है ? किसी दूसरे से पांचजन्य बजता है ? लक्ष्मी से क्या कोई दूसरा शोभित होता है ? किसी दूसरे के द्वारा धरती रूपो धेनु क्या बांधी जाती है ? गारुड़ विद्या किसी दूसरे के लिए सिद्ध नहीं हो सकती। परबधू इह लोक और परलोक में पराभव करने वाली होती 6. यंतु | 7.AP णबर दोसू ।
(3) I. A णरघरंधे । 2. A °विज्जाहर। 3. A विजह । 4. AP देव परिणि । 5. A अण्णु वि। 6. A परिहावद।
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76. 4. 12)
महाक इ- पुप्फयंत विरश्य महापुराणु
बहु इह पर परिवारी केवलिभासिउ देव ण चुक्कइ
अणु वि जाणइ धूय' तुहारी । फेरि बलहुँ गाणि
घत्ता - जंपइ दवयणु भो' जाहि जाहि जइ भीयउ ॥ पूर आणि भडु कुंभयण्णु महू बीउ || ||
4
मलय मंजरी --रे विहीसणुत्तं किं तए अजुत्तं मुयसु महिणिवासं ॥ हीदी सो चरणघुलियकेसो जाहि रामपासं ॥ छ ॥
पुणु परिवाडि ण जाणमि एण मिसेण देत पहविमलई तणुसीय दंत मलु फिट्टइ पण तुट्ठा मु छेउ णिहालि बंधुसणे हद्दु मंतिमईहि मंतु अवलोइज एवं रहंगु खगिदणिसुंभउं हा रावण जियंतु ण पेक्खमि ains faara असहायहं इय चितंतुणिसिहिणीसरियड
।
जा' ण समिच्छइ सा गउ माणमि । खुमि रामलक्खसि रकमलाई । far सीयs महु किं ण पयट्टइ' । कसणाणणु गं गब्भिणिउररुहु । णिमाज बंधव गउ यिगेहहु । भायरेण मणु णिच्छइ ढोइन । जाय पाइ कुलीरहु डिभउं परहु जति णियकुलसिरि रक्खमि । सप्पएसु" भल्ला रङ रायहं । दिट्ठ समुह तेण जलभरिय |
[157
5
10
है। और फिर जानकी तुम्हारी कन्या है। हे देव, केवलज्ञानी का कहा हुआ कभी चूकता नहीं । जब तक तुम्हारी नियति नहीं पहुँचती, तब तक आप बलभद्र के लिए सीता देवी सौंप दें ।
धत्ता---तब रावण कहता है---अरे तुम डर गए हो तो जाओ जाओ, युद्ध में मेरा दूसरा योद्धा कुम्भकर्ण काम में आएगा !
(4)
रे विभीषण तूने अनुचित बात क्यों कहीं ? तू इस धरती का निवास छोड़ दे। हीन दीन वेश में पैरों तक अपने केश फैलाए हुए तू राम के पास जा ।
मैं क्या फिर परिपाटी नहीं जानता ? जो स्त्री मुझे नहीं चाहती, उसे मैं नहीं मानता । इस बहाने दांतों की प्रभा से विमल राम और लक्ष्मण के सिर-कमलों को काट लूंगा। तृण की सीक से दांतों का मल नष्ट हो जाएगा। बिना सीना के मेरा क्या नहीं होगा। तब प्रणाम करता हुआ विभीषण अपना मुख नीचा करके रह गया। गर्भिणी के उरोजों की तरह उसका मुख काला हो गया। उसने भाई के प्रेम का अन्त पा लिया। भाई निकलकर अपने घर चला गया। मंत्रियों की बुद्धि से उसने मंत्र का अवलोकन किया कि भाई ने निश्चित रूप से अपना मन दे दिया है। हा रावण, मैं तुम्हें जीवित नहीं देखूंगा। फिर भी दूसरे के यहाँ जाती हुई अपनी कुल लक्ष्मी की रक्षा करूंगा। विपक्ष के बलवान होने पर असहाय राजाओं का उसमें प्रवेश कर लेना अच्छा है । यह विचार करते हुए वह रात्रि में निकला, और उसने जल से भरा हुआ समुद्र देखा ।
7. P धी । 8 A हो जाहि ।
1
( 4 ) 1.A मह णिवासं । 2 AP पुणु किं 1 3 A परिवाडि 4 A जो। 5. A तणे सीए । 6. AP दसहं | 7 A इट्ठई। 8 A बंधमणेहहु 9 A एहू 10 A जोयउ । 11. P सप्पवेसु ।
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158]
[76.4.13
महाकाल मान विरभित महापुराण पत्ता--झिज्झइ चंदु जइ तो सायरजलु ओहट्टइ ॥
पडिवण्ण गुरुहुं आवइकालि ण फिट्टइ ।।4।।
मलयमंजरी-जइ वि णिच्चवको देहए ससको तो वि एस चंदो।।
सायरस्स छुट्टो माणसे पइट्टो कतियाइ रुंदो॥छ।। हउ पुणु खलु चुक्कत मज्जायहि बंधुवइरि कि जायउ मायहि । इय जूरंतु जाम णहि वच्चइ
ता रामहु विसारि संसुच्चइ। देव विहीसणु दसणु भगइ
तुह चरणारविंदु ओलग्गइ।। पेक्ख पेक्खु णहि आयउ वट्टा जिह पडिवण्णु णेहु गोहट्टइ। तिह हरि करि तुहुं बेणि विपत्थिय तेण दसासवित्ति अवहत्थिय । ता रामें सुग्गीवहु पेसणु
दिग्णउं आणहु तुरिउ विहीसणु । गय ते तहि सो वि सुपरिक्खि: णिरु णिभिच्च भिच्चु ओलक्खिउ। आणेप्पिणु दाविउ हलधारिहिं पणविस दाणविंदकुलवइरिहि । 10 ते संमाणिउ रावणभायरु
कित संभासणु सहरिसु सायरु । घत्ता-चित्तु चित्ति मिलिउ जगि पर वि बंधु हियगारउ ॥
बंधु जि पर हवइ जो णिच्चु जि वड्ढियवइरउ ॥ १॥ धत्ता–यदि चन्द्रमा क्षीण होता है, तो समुद्र का जल कम होता है। बड़े लोगों को स्वीकृति (शरण) आपत्तिकाल में नष्ट नहीं होती।
(5) यद्यपि यह हमेशा वक्र रहता है, इसके शरीर में शशांक है फिर भी यह चन्द्र है, सागर का इष्ट, मानस में प्रविष्ट और कांति से सुन्दर।
परन्तु मैं दुष्ट हूँ। मर्यादा से चूका हुआ, एक ही मां से पैदा हआ मैं भाई का शत्र कैसे हुआ? इस प्रकार पीड़ित होता हुआ जब वह आकाश में जा रहा था कि इतने में दूत राम के लिए सूचना देता है हे देव, विभीषण आपके दर्शन चाहता है, वह आपके चरणों से आ लगा है। देखिए देखिए वह आकाश में आया हुआ है। जिस प्रकार स्वीकार किया प्रेम कम नहीं होता, उसी प्रकार लक्ष्मण और आप दोनों को उसकी प्रार्थना स्वीकार हो। उसने रावण की वृत्ति का तिरस्कार किया है । तब राम ने सुग्रीव के लिए आदेश दिया कि विभीषण को शीघ्र ले आओ। वे लोग वहाँ गए और उन्होंने उसकी खूब परीक्षा ली और उसे अत्यंत निर्भीक व्यक्ति पाया। लाकर, उन्होंने राम से उसकी भेंट करवाई। उसने दानवेन्द्र कुल के शत्र को प्रणाम किया। उन्होंने (राम ने) भी शत्रु के भाई का स्वागत किया तथा हर्ष और स्नेह के साथ उससे बातचीत की।
धत्ता-वित्त से चित्त मिल गया। दुनिया में हित करने वाला पराया भी अपना बंधु हो हो जाता है, और नित्य शत्रुता बढ़ाने वाला भाई भी दुश्मन हो जाता है। 12 A सापरु बलु । 13. P adds dि after कालि ।
(5) AP करि हरि! 2. AP तहि जि सो।
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76. 6. 14]
महाका-पुष्फयंत-विरायड महापुराणु
[159
[159
मलयमंजरी-पुरिससोरखगाही अहियवेहवाही लिव्वदुक्खल्लि ॥
कुणइ कह वि आयं सुण्णरण्णजायं ओसहं सुहेल्लि॥छ।। रावणरज्जमाणु वित्थिण्ण
रामें तासु तिदायइ दिपणउ । गय क इवय वासर तहिं जइयहुं हणुएं बुत्तु हलाउहु सइयहुं । दे आएसु" देव णउ थक्कमि
एवहिं लंकाहि संमुह दुनि भीमें वाणररूवें वड्ढाम
डहमि घरई भडभंडणु' कढमि । भंजामि बणाईलवलिदललंबई
फलणवियंगई पल्लवतंबई। ता दसरहसुएण परबलहर
अरिकरिदतघद्रदीहरकर। कामरूबधर णावइ सुरवर
तासु सहाय दिपण विज्जाहर। वाणरविज्जइ वाणर होइवि
सयल वि गय लकासारे जोइदि। 10 गयण बिलग्गदेह गिरिपहरण
बुक्करंत बग्गिय मग्गियरण। पुंछवलयवलइयतरुवरसिल
चरणचारचालियधरणीयल । छिब्बरणास दीहदंताणण
पिंगलणयण छोहमीसाबण। धाइय पत्त दसासहु पट्टणु
मारुइणा जोइउ णंदणवण ।
तीव्र दुखरूपी लता अहितकर देहव्याधि है, पुरुष के सुख को नष्ट करनेवाली, इसकी शून्य वन में सुखद यह औषधि किसी प्रकार करो।
रावण राज्य का मान विस्तृत है । राम ने तीन बार उसे वचन दिया है। जब (वहाँ रहते हुए) कई दिन बीत गए तब हनुमान् ने राम से कहा-हे देव, आदेश दोजिए, मैं नहीं ठहर सकता। इस समय मैं लंका के सम्मुख जाऊंगा। भयंकर वानर रूप में अपने को बढ़ाऊंगा, घरों को जलाऊँगा । योद्धा रूपी वर्तनों को निकालंगा। लवली लता से अवलंबित फलों से सकी हुई शाखाओं वाले पल्लवों से लाल-लाल वनों को नष्ट करूँगा। उस अवसर पर राग ने शत्रुबल का अपहरण करने वाले, शत्रु-गजों के दाँतों से अपने लम्बे दाँत घिसने वाले, यथेच्छ रूप धारण करने वाले, जैसे देव हों ऐसे विद्याधर उसकी सहायता के लिए दिए। सभी विद्याधर वानर-विद्या से बानर होकर, लंका को लक्ष्य बनाकर गए। उनके शरीर आकाश से लगे हुए थे। गिरि प्रहरण करते, बुक्कार करते हुए, क्रुद्ध और युद्ध करते हुए, अपनी पूंछों से तरुवर और चट्टानों को मोड़ते हुए, पैरों के संचार से धरती को प्रकंपित करते हुए, चिपटो नाक और लम्बे दाँतों वाले, पीले नेत्रों वाले और क्रोध से एकदम भयंकर वे दौड़े और रावण-नगर पहुँच गए। हनुमान् ने नंदनवन को देखा।
(6) 1.A देववाही। 2.A दुखमल्ली; P दुक्खवेल्लि। 3. AP कहि वि। 4. A सुहेल्ली। 9. AP तास वि वाय। 6.Pदेहाए। 7.P भडण । 8.A जिल्लदललंबई: P लवत्रिदलवंतई। 9. P करिकत। 10 AP छिविर ।
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160]
[76.6. 15
महाकषि पुष्पदन्त विरचित महापुराण घसा-हरिकररुहवणि आलग्गसुरहिणवचंदणु ॥
वणु महु आवडइ णं लच्छिहि केरउ जोवणु ।।6।।
15
14
मलयमंजरी-रूढबालकंदं देवदारुमंदं सूरकिरणवारं ।।
जणियमयण सारंग॥छ।। इंदसरासणेण घणखलमिव णीलतमाल णिद्धयं । वण मंजणसुएण लंगूले चाहि वि दिसहि रुद्धयं ।। 1।। सुरकरिसोंडचंडभुयदंडवलेण' चलेण पैल्लियं । मोडियमहिरुहोहसंघट्टणचुयचंदण रसोल्लियं ।।2। 'करमरकडहकुडयकडयडरवउड्डावियविहंगयं । भग्गण वल्लफुल्लपल्लवदलगयगु मुगमियभिगयं ॥३॥ 'णिविडवडालिवंदणुम्मूलणविहडावियरसायलं । णिग्गयसविसफरुसफुक्कारभयंकरसमणिफणिउल ।।4।। चूरियचारचूयचयचिचिणिसमिलवलौलवंगयं"। 'पायाह्यपलोट्टचंपयचयदलवष्टियकुरंगयं ॥5॥
दलिगलयाणितामणि सिगावपरर हसुतं ! पत्ता-(वह कहता है) मुझे यह नंदन बन लक्ष्मी के यौवन के समान दिखाई देता है कि जो विष्णु के नाखूनों से व्रणित है (जो हाथी के नखों से व्रणित है) और जिसमें सुरभित चंदन (चंदनवृक्ष) लगा हुआ है।
(7) जो छोटी-छोटी जड़ों से अवरुद्ध था, देवदारु वृक्षों से पूर्ण, सूर्य की किरणों का निवारक, कुसुमों से आवासित, दिव्य मिथुनों का निवास और काम के श्रेष्ठतत्त्वों से अधिष्ठित था; नील तमाल वृक्षों से कांतियुक्त वह ऐसा लगता था मानो इन्द्रधनुष से युक्त मेघ समूह हो । उस वन को अंजनी के पुत्र ने अपनी पूंछ से चारों ओर से अवरुद्ध कर लिया। ऐरावत हाथी की संड के समान भजदंड के चंचल बल से उसे प्रेरित किया। मोड़े गए वृक्षों के समूह के संघर्ष से उत्पन्न च्युत चंदन रस से जो आई हो उठा; जहाँ करमर कटभ और कुटज वृक्षों पर होने बाले कटकट शब्द से पक्षी उड़ा दिए गए हैं, छिन्न नव पुष्प और लताओं के दलों पर भ्रमर गुनगुना रहे हैं, जिसमें सघन वट वृक्षावलि एवं रक्त चंदन वृक्षों के उन्मूलन से पृथ्वीतल विधटित हो गया है, जिसमें निकलती हुई अपने विष की कठोर फूत्कार से मणि सहित नागकुल भयंकर हो उठा है, जिसमें अचार, आम्र, चव, चिचिणी और शाल्मलिफली और लवंग लताएँ चूरित हो चुकी हैं, पैरों के प्रहार से धरती पर गिरे हुए चम्पक वृक्षों के समूह से हरिण समूह पिचल गया है, दलित लतानिवासों में जहाँ सुरों और विद्याधरों का रति सुख नष्ट
(1) 1.AP छहसुसभुय"। 2. A करमरकुत्यकडय; P करमरकुहरकुस्यकलय' । 3. AP कायस्सरहा। 4. Aणिवडियडालि'; Pणिवस्वगलि"। 5. AP "रसालयं। 6. AP "पपिपिपिणि । 7.AP'चंपसरयदल। 8. P बढिय।
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76.8.2]
महाफास्पष्फपंस-विरइयउ महापुराणु सुरुढिणकरतलप्पमुसुमूरियकोलागिरिगुहामुहं" ।।6।। पविमल मणिसिलायसूत्थल्लणदिग्गयजक्खकतयं । सरवाबोणिबद्धविद्ध सिबकीलासलिलजंतय ।।7।।
यविधिण्णमाहिसाहाचुयबहमहुबिंदुतंबयं"। पडियकवित्थभकिणरकरवीणालगतुंबयं ॥४॥ दूरुद्धरियविडविमूलुज्झियविवरणिलीणसावयं । पंडिरवतसियरसियविधियाणणवाणरविरइयावय।। ।।9।। खंडियतुगमड्ड सिहरुड्डियहसविमुक्कसदयं । णिवडियणालिएरसालामलफलमालाविमयं ।। : 00 घल्लियसुक्करुक्खसंघट्टसमुग्गयजलणजालयं । दढपियंगुपिगउच्छलियफुलिंगपलित्ततमालतालयं ।।।1।। मुक्कतिसूलसेल्लसरधोरणि सवलभिडिमालयं । धाइयभिडिभंगभीसावणभिडिउज्जाणबालयं ।।।2।। पत्ता-विज्जाणिम्मियहिं अइभीमहि मायारहि ।।
पावणि वेदियउ रावणणंदणवणरक्खहि ।।7।।
मलयमंजरी-संगरम्मि कुद्धा पमयएहि रुद्धा दूरवीरमाणा॥
मारिया अणेया जित्तहरिणवेया रक्खसा पलाणा ॥छ।।
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होचका है, जहाँ अत्यन्त कठोर प्रहारों से क्रीड़ागिरि के गुहामुखों को चूर-चूर कर दिया गया है, जो विशाल मणिमय चट्टानों पर उछलसे दिग्गजों और यक्षों से सुन्दर है, जिसमें सरोवर और वापियों में लगे हुए क्रीड़ा सलिल यंत्र ध्वस्त हो चुके हैं, जो आहत बड़े-बड़े वक्षों की शाखाओं से च्युत प्रचुर मधु बिंदुओं से तान है, जहाँ गिरते हुए कपित्थों (कैथ) से भग्न किन्नरों के कर में वीणा की तुम्बी लगी हुई है, जहाँ दूर तक उखड़े हुए वृक्षों की जड़ों से नीचे गिरे हुए विवरों में पक्षी-शायक लीन हैं, जहाँ प्रतिशब्द से त्रस्त और चिल्लाते हए विकसित-मुख वानर चक्कर काट रहे हैं, जो खंडित ऊँची और मदित शिखर से उडते लए इंसों के द्वारा मुक्त शब्दों से युक्त है, जो गिरे हुए नारियलों की शाखाफल-मालाओं से विदित है, जहां दग्ध प्रियंगु लता के उछलते हुए पीले स्फुलिंगों से तमाल और ताल वृक्ष प्रदीप्त हैं। जो छोडे गए त्रिशल सेल, तीरपंक्ति, सवल और गोफनी से युक्त है, जिसमें दौड़कर भृकुटि भंग से भयावह उद्यानपालों से भिड़त हो गई है।
पत्ता--विद्यानिमित अत्यन्त भयंकर मायावी राक्षसों और रावण के नन्दन वन के रक्षकों द्वारा हनुमान् घेर लिया गया।
(8) युद्ध में क्रुद्ध, वानरों द्वारा अवरुद्ध, वीरता का दर्प करनेवाले, हरिण का वेग जीतने
9. A खरतलप्प | 10. P ornits बहु । 11. AP रसियतसिय । 12. A सिहरुट्टिय | 13.AP omit तमाल । 14. A °भिडमालयं । 15 AP अभीयहि ।
(8) I.A एम एहि रुद्धा।
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162]
महाकवि पुष्पवन्त विच महापुराण
अवर वि आया मायाणिसियर कुडिल बद्धगच्छर इच्छिय कलि गुंजापुंजरत्तणेतुब्भड दीदी जीहावललालिर ताहे रणगणि दावियमंडहिं सरपुर्खाह भमरेहि' व मंडिय जिह वेल्लिउ हि अंतई छिपाई जिह तालई तिह रिजसीसई जिह उज्जाणहु णट्टई चक्कई जिह सर तिह विद्ध सिय रिउसर घरि घरि चडिय जलंतहि पुछहिं दड्ढई णायरभवणसहासई
ass तर्कपणकर | जलियजलणजाला केसावलि । दाढाचंडतुंड पललंपड | परबलबोलिर हूलिर सूलिर । लग्गा बलिमुह गिरिसिलबंडहिं । जिह्वणि तर ति ते रणि खंडिय । जिह पत्त सिंह पत्तई भिण्णई । पाडिया धरणीयलि भीरुई । तिह रिजरवरि भगई चक्कई । लंकारि पट्टा वाणर । णीसारियउ जणु पिंगच्छहि ।
जालाहार व ब्राहामीसई ।
[76. 8. 3
घत्ता - लग्गउ वरिपुरि हुयवहु हणुवंतें वित्तउ ।। राहको सहि णं दुष्णयतणेण पलित्तर ||४||
5
10
15
वाले अनेक राक्षस मारे गए और अनेक भाग खड़े हुए। दूसरे मायावी निशाचर लकुटि-मुसुंडीकोंत से काँपते हुए हाथवाले, कुटिल मत्सर से भरे हुए, लड़ाई की इच्छा रखनेवाले, जिनकी केशावली आग की ज्वालावली से जल रही थी, जो गुंजाफल के समान लाल-लाल नेत्रों से उद्भट थे, दाँतों से प्रचंड मुखवाले, मांस के लंपट, लम्बी-लम्बी लपलपाती हुई जीभवाले, शत्रु सेना में चक्कर देने वाले, शूल वाले और हूलने वाले थे । तत्र युद्ध के प्रांगण में उनके धड़ों को गिराने वाले पहाड़ के शिलाखंडों से सहित वे वानर भिड़ गए। भ्रमरों के समान तीरपुंखों से वे शोभित हो उठे । जिस प्रकार वन में वृक्ष खंडित हो जाते हैं. उसी प्रकार वे युद्ध में खंडित हो गए। जिस प्रकार लताएँ, उसी प्रकार उनको आंतें छिन्न-भिन्न हो गई। जिस प्रकार पत्ते उसी प्रकार उनके वाहन नष्ट हो गए। जिस प्रकार ताड़ वृक्ष के फल, उसी प्रकार शत्रु के भयंकर सिर धरती पर गिरने लगे। जिस प्रकार उद्यान से पशु-पक्षी भाग जाते हैं, उसी प्रकार मात्रओं के श्रेष्ठ रथों के चक्र टूट गए। जिस प्रकार सरोवर उसी प्रकार शत्र ु नष्ट हो गए। वानर लंका नगरी में घुस गए। अपनी जलती हुई पूंछों से वे घर-घर पर चढ़ गए। पीली आंखों वाले उन्होंने आग निकाली और चिल्लाहट से भरे हजारों नागर भवनों को भस्म कर दिया, ज्वालमाला की तरह ।
पत्ता- हनुमान् के द्वारा प्रक्षिप्त आग शत्रुनगरी में जा लगी मानो राघव की कोष रूपी आग अन्यायरूपी ऋण से जल उठी हो ।
2. AP 'तरम्भर 3 AP जीवीह। 4. अमरिहिं णं; P भमरहिण 5 AP एम्बई K पत्त and gloss वाहनानि । 6. A रिज रहे रहे; P रिटं रहवरे ।
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16.9.14]
महाका-पुष्कर्षत-विरइयउ महापुराण
[163
मलयमंजरी-छइयकेउसोहो गयणचारुरोहो अणियलोयवसणो॥
चडइ गयणि धूमो रावणस्स भीमो दुज्जसो व्व कसणी ।।छ।। धूमंतरि जालोलिउ जलियर णं णवमेहमज्झि विज्जुलियउ। पुणु वि ताउ सोहंति पईहउ गं चामीयरतरुवरसाहउ। संदाणियसीमंतिणिदेह
सिहिणा पसरियाउ णं बाहउ। घरसिरकलसु वलंत छित्तउ । सरिउणिवासु व पउसिवि घित्तउ । सह्यरु छंदगामि णउ मुणियउ घउ परिघोलमाणु कि हुणियउ । उग्गु ण सज्जणपक्खु विहावइ उड्ढगामि किह' पर संतावइ । गमणे जासु होइ काली गइ तहु किर कि लङभइ सुद्धी मइ । वरमंदिरजडियई माणिक्कई डहइ अछेयपहापइरिक्कई ।। तेयवंतू' परते ण इच्छद
सई जि पहत्तणु विहबहु वंछ। डझंतहि चंदणकप्पूरहि
पउरसुरहिंपरिमल वित्थारहिं । रयभमरई उक्कोइयमयणई वासियाई सयलई दिसवयणई। जिणवरवेस णिसेहकयत्थई दड्ढ़ई मउदेवंगई वत्थई।
10
(9) रावण के भयंकर अपयश की तरह काला धुओं आकाश में चढ़ता है। छादितकेतुशोभ (ध्वज की शोभा को आच्छादित करने वाला, ग्रह विशेष को तिरस्कृत करने वाला), धएं के भीतर ज्वालावली इस प्रकार जल उठी मानो नवमेघ के भीतर बिजली चमक उठी हो। फिर वह लम्बी ज्वाला इस प्रकार शोभित होती थी मानो स्वर्ण-वृक्ष की शाखा हो । स्त्रियों के शरीर को पकड़ने वाली आग ऐसी मालूम होती थी, मानो उसने अपनी बाँह फैला दी हो। जलती हुई उससे गंडकलश गिर पडा मानो उसने अपने शत्र. (जल) के निवास रूप (घड़े) को जला कर फेंक दिया हो। उसने स्वच्छंदगामी अपने मित्र (वायु) को भी कुछ नहीं समझा | क्या (वायु से) आंदोलित ध्वज को इसलिए होम दिया? उग्र सज्जन पक्ष भी अच्छा नहीं लगता। उर्ध्वगामी होते हुए भी वह, दूसरों को क्यों सताती है ? जिसके चलने में गति काली हो जाती है, उससे शुभ गति किस प्रकार पाई जा सकती है ? वह निरन्तर प्रभा से परिपूर्ण श्रेष्ठ प्रासादों में विजडित माणिक्यों को भस्म करने लगी। जो तेजवाला होता है वह दूसरे के तेज को नहीं चाहता। वैभव की प्रभुता वह स्वयं चाहता है। प्रचुर सुरभि परिमल विस्तारवाले, जलते हुए चंदनकपूर से युक्त, भ्रमरों से व्याप्त काम-कुतूहल उत्पन्न करनेवाले समस्त दिशा-मुख सुवासित हो उठे। जिनवर के देष (दिगम्बरत्व) का निषेध करने वाले मृदु कोमल वस्त्र जल गए।
(9) 1.Pचारुणहो। 2. चंरतP बलवते, bnt K बलतें ज्वलता । 3. A कि परु । 4 AP कहिं । 5.A परवल पेक्षिवि णावह थक्कई। 6. P परिथक्कई। 7.P सेयमंत। 8.A रइभवणई। 9.A जिणवरभवणगिसेह' P जिणवरवेमाणिवेस। 10. Pसरियई।
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1641
महाकवि पुष्पयत विरचित महापुराग
[76.9. 19 पत्ता-घरदुवारु जलइ वरपोमरायविप्फुरियां ॥ जालापल्लवेहि णं दीसइ तोरणु भरिव ||2||
10 मलयमंजरी-दहमुहस्स कम्मं मुक्कणायधम्म जाणिउं व कुस्रो॥
नक्कालाणजालं मगह णं विसालं सि हि सिहासमिजो॥छ।। होमदम्बरासिउ सपत्तर
तिलजवघयकप्पासहि तित्तउ'। हुरुहुरंतु णं संति पघोसई
दिज्जउ रामहु सीय महासइ। होउ' संधि जीवउ महिमाणणु भुजउ लच्छि अविग्ध दसाणणु। एत्तहि अग्गिजाल पवियंभइ एत्तहि वाणरविंदु णिसुंभइ। माय ण पुत्तहंडु संमगइ
जणु हल्लोहलिहुन कहिं णिग्गइ । भवणारोहणु करिवि अभग्गउ णं वइसागर जोयहु लग्गउ। केत्तिय लंकाउरि मई दड्ढी णं विरेण कामिणि दुवियड्ढी। बाहिरपुरवरु एम डहेप्पिणु कित्तिमणिसियरणियरु बहेप्पिणु। 10 चलिउ पडीवज पावणि तेत्तहि णिवसइ ससिबिरु' राह जेत्तहि।
पत्ता-उत्तम पराग मणि से विस्फुरित गृहद्वार जल गया। ज्वाला रूपी पल्लवों से वह ऐसा प्रतीत होता था मानो तोरण बँधा हुआ हो।
(10)
क्रुद्ध अग्नि ने रावण के धर्म और न्याय से मुक्त कर्म को जान लिया। शिखामों से समृद्ध वह मानो विशाल उत्कट बाणज्वाला छोड़ रही थी।
तिल जौ घृत और कपास से परिपूर्ण होम द्रव्य-राशि प्राप्त हो गई जो मानो हुहुर-हुहुर कर शांति घोषित करती है कि महासती सीता राम को दी जाए और संधि हो जाए। मही को मानने वाला वह दशानन जीवित रहे और अविघ्न भाव से धरती का उपभोग करे। यहाँ अग्निजाल बढ़ रहा था। यहाँ वानर समूह नाच कर रहा था। मां अपने पत्र रूपी वर्तन का आलिंगन नहीं करती। लोग हडबडा कर कहीं भी चले जा रहे थे। भवनों का आरोखण कर अभग्न आग मानो यह देखने लगी कि मैंने कितनी लंका नगरी जलाई है। मानो विट ने व्यभिचारिणी कामिनी को देखा हो। बाहर पुरवर को इस प्रकार जलाकर तथा कृत्रिम (मायावी) निशाचर समूह को नष्ट कर हनुमान् वापस चला जहाँ पर शिविर सहित राम ठहरे हुए थे। -. ..
(10) I.A सित्तउ । 2. दिजहो। 3. A होइ। 4. A अविषु। 5. AP सामगह । 6. A चलित 17.A ससिवस; P ससिवह ।
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76,10. 12]
महाका-पुष्फपत-बिरइया महापुरागु
[165
घत्ता-भरहें लक्खणेण सह सीरपाणि अवलोइउ ॥
तेणंजणहि सुउ सियपुप्फयंतु पोमाइउ ।। 10॥
इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाभब्वभरहाणु मष्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकवे गंदणवणमोडणं लंकाडाह
णाम सहारिलो परिभो समतो ।।
पत्ता-भरत ने लक्ष्मण के साथ राम को देखा। उन्होंने सूर्य और चन्द्रमा के समान अंजनापुत्र (हनुमान्) की प्रशंसा की।
सठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभध्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में नंदन-वन मोड़ने
और लंकादाह नाम का छिहत्तरवा परिसछेद समाप्त हुआ।
8. Pomits लगाया।
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सत्तहत्तरिमो संधि
वणु भजिविः पुरवरु णिड्डहिवि हणुइ णियत्तइ जयसिरिकामें 14 जज विदि स्वयरवद पमिछाउ एम विहोसणु रामें ॥ध्र वका
हेला-सो तेलोक्ककंटओ' सहइ कि पराणं ।
धणुगुणरववियंभियं विलसियं सराणं ॥छ। ता भणइ विहीसणु भयणिरीतु जइ गिरिवरकंदरि वसई सीहु । तो करि कुरंग कि तहि चरंति कायर तह गंधेण जि मरंति। महिवई कहि जइ होंतु देव जीवंत एंति तो भिच्च केंव। तें जाणिउं" तुहुं वालिहि कयंतु रइवइसुग्गीवसहायवंतु। जसु भाइ अणंतु अणंतधामु
सो विज्जइ विणु कहिं जिणमि रामु। इय चितिवि होइवि सुइसरीरु इंदइ णियरक्ख' करेवि धीरु। 10 आइच्चपायमहिहरि दसासु थिरु विरएप्पिणु अट्ठोववासु। अच्छइ विज्जासाहणपयत्तु
णेरंतरु झाणारूढचित्तु। सतहत्तरवीं संधि
बन को भग्न कर, पुरवर को जलाकर हनुमान के निवृत्त होने पर, विजयश्री की कामना रखने वाले राम ने विभीषण से इस प्रकार पूछा कि विद्याधर आज भी क्यों नहीं आया?
त्रिलोक के लिए कंटक स्वरूप वह दूसरों (शत्रुओं) के तीरों सहित धनुष-प्रत्यंचा के शब्द से विकसित चेष्टा को क्या सहन कर सकता है ? तब निष्पह विभीषण कहता है, कि यदि भय से निरीह सिंह गिरिवर की गुफा में निवास करता है तो क्या हाथी और हरिण वहाँ विचरण कर सकते हैं ? वे कायर तो उसकी गंध से ही मर जाते हैं । हे देव, यदि राजा लंका में है तो अनुचर जीवित कैसे लौट सकते हैं ? उसने जान लिया कि तुम बालि के लिए यम हो, तथा हनुमान् और सुग्रीव तुम्हारे सहायक हैं। जिसका भाई लक्ष्मण अनंतधाम है ऐसे उस राम को मैं विद्या के बिना कैसे जीत सकता है। यह विचार कर तथा पवित्र शरीर होकर, बीर इन्द्रजीत को रक्षक बनाकर रावण आदित्यपाद पर्वत पर आठ उपवास कर विद्याओं की सिद्धि में प्रयत्नशील तथा
(1) L P भुजिवि । 2. हणुणियत्तइ । 3. तिल्लोक्क; P तइलोक्क" 1. 4. A तहि किम चरति। 5. AP बइ महिवइ. लकहि होंतु । 6. P तो जाणि। 7. AP णियरवणु करिवि । 8. P 'साहणि ।
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[167
77.2. 10]
महाका-पुप्फयंत-चिरइयर महापुराणु तं णिसुणियि आत्ताहवेण विज्जाहर पेसिय राहवेण। धाइय ते दुखर विरघकारि
लमुसलसवालतिसूलधारि। घत्ता–णहि जाइवि दिणयरचरणगिरि मायावाणरेहि कयराबहिं ।।
वेदिउ विस व जलहरहि गज्जणसीलहिं दरिसियचावहि ।।।।
15
2
हेला-धोरणीलवण्णया छण्णगयणभाया ।।
आहूया घणाघणा सुक्कधीरणाया' ॥छ।। वाओलिवुलिबलधयारु'
गडगडियः पडिय पाहाणफारु । णिवडिय तष्डि फोडिय गिरिखयालु बरिसाविउ तक्खणि मेहजालु। जलु' थलु महियलु जलभरिउ सयलु पइ ढोइउ आयसबलयणियलु । दरिसिउ मंदोयरिकेसगाहु
भडु कुंभयष्णु फणिबद्धबाहु। बंधवसिरकमलई तोडियाई
बच्छयलई विउलई फाडियाई। कुखउ दसासु झाणाउ ढलिउ
कहि चंदहासु पभणंतु चलिउ। इंदछणा कहिउँ खगेसरासु
परमेसर खगमायाविलास । णीसेसु वियंभिउ एह ताव
तुहं णिययणियमपन्भठ्ठ जाव। 10 ध्यान में निरन्तर आरूढ़चित्त होकर स्थित है । यह सुनकर युद्ध को प्रारंभ करने वाले राघव ने विद्याधर भेजे । विघ्न करने वाले एवं मूसल, तलवार और त्रिशूल धारण किए हुए दुर्धर विद्याधर दौड़े गये।
धत्ता--आकाश में जाकर कोलाहल करते हुए मायावी वानरों ने आदिवापाद गिरि को उसी प्रकार घेर लिया जिस प्रकार इन्द्रधनुष का प्रदर्शन करते हुए गर्जनशील मेघों के द्वारा विध्याचल घेर लिया जाता है।
भयंकर और नीले रंगवाले आकाश भांग को आच्छादित करने वाले, धीर शब्द करते हुए वे धनीभूत मेघ हो गए।
चक्रवात की धूल से जिसमें बहल अंधकार है, ऐसे पत्थरों (ओलों) से प्रचुर मेघ गडगडा कर बरसने लगे। बिजली गिरी और विघटित हो गई। मेघ ने तत्क्षण मेघजाल की वर्षा की। जल थल महीयल समस्त जल से भर गए। मंदोदरी के परों में लोहे की शृखला डाल दी। फिर दिखाया मंदोदरी के बालों का पकड़ा जाना और कुम्भकर्ण के हाथों को साँपों से बांधा जाना । भाईयों के तोड़े गए सिरकमल और फाड़े गए विशाल वक्षस्थल । (यह देखकर) दशानन ऋद्ध हो उठा। ध्यान से टल गया। चन्द्रहास कहाँ है ? यह कहता हुआ चला। इन्द्रजीत ने विद्याधर राजा से कहा-हे परमेश्वर, यह विद्याधरों को माया का विलास है । यह समस्त फैलाव (माया का) तब तक के लिए है जब तक तुम अपने नियम से भ्रष्ट नहीं होते। तब राजा ने 9. A सबाणतिसूला
(2) 1. AP'वीर। 2. P वाउधूलियत्रहलं । 3. गयघडिय' । 4. P मोहजालु । 5. A जलथलणहपल अलभरिय ।
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168]
महानि पन्त विरमित महापरण
[77.2.11 सा राएं विज्जादेवयाउ
णिज्झाइयाउ णिहियावयाउ। आयाउ' ताउ पंजलियराउ
पेसणु महंति पणमियसिराउ । धत्ता-भणु दसकंधर धरणिधर हरहुं जीउ अरिवरहु सणामहे ।।
अम्हइं बलवंतहं हरिबलहं तसर्जु णवर रणि लक्खणरामहुं ।।211
हेला-ता भणिय महेसिणा जाह जाह तुम्हे ।।
णिय भयजुयसहायया संगरम्मि अम्हे ।।छ।। सक्कहुं सीरिहि लच्छीहरासु कि वसणि दीणु भण्णइ परासु । एत्तहि इंदइ अभिडिउ ताह मायावियाहं साहामया। आवट्टर लोदृश् जायमण्णु संघट्टइ फुट्टइ वइरिसेण्णु । दरमलइ थोट्टदुग्घोट्टथट्ट'
सूडइ विसट्ट पडिभडमरट्ट। परिखलइ वलइ हगु भणइ हणइ
उल्ललिवि मिलइ रिउसिरई लुणइ । रुभइ थंभइ तरवारिधार णिणइ' विहुणइ पवरासवार । सीसक्कइ फोडइ तडयडत्ति मुसुमूरइ छत्तई कसमसंति । असिवरई खलंतई खणखणंति कडियलकिकिणित झुणुझुणंति । 10
पइसरइ तरह कीलालवारि पडिवक्खहु पाडइ पलयमारि'। (रावण) ने आपत्तियों का नाश करनेवाली विद्याओं का ध्यान किया। अंजलियां बांधे हए वे विद्याएँ आईं, और सिर से प्रणाम करती हुईं आज्ञा की प्रशंसा करने लगी (मांगने लगी)।
__पत्ता- हम लोग केवल प्रसिद्ध लक्ष्मण और राम की सेनाओं से युद्ध में डरते हैं । हे राजन्, बताओ किस महाशत्र के जीव का अपहरण करूँ?
तब दशानन ने कहा, तुम लोग जाओ-जाओ। अपनी दोनों भुजाएँ हैं, जिनकी सहायता से संग्राम में मैं ऐसा हूँ। क्या संकट में लक्ष्मी को धारण करने वाले लक्ष्मण और राम से दीन वचन कहे जाएँ ? यहाँ इन्द्रजीत उन मायावी वानरों से चिढ़ गया। ऋख वह शत्रुसेना को घुमाता है, चूर-चूर करता है, उससे भिड़ता है और नष्ट कर देता है, समर्थ और दुर्धर छटा को कचल देता है। विशिष्ट शत्रुसेना के गर्व का नाश कर देता है। परिस्खलित होता, मुड़ता, मारोमारो कहकर मारता, उछलकर मिल जाता और शत्र ओं के सिर काट डालता। तलवार की धार को रोक देता और स्तंभित कर देता। प्रबल घुड़सवारों को नष्ट कर चूर-चूर कर देता। तड़-तड़ कर शिरस्त्राणों को तोड़ देता। कसमसाते छत्रों को चूर-चूर कर देता। गिरती हुई तलवारें खनखनाने लगती हैं, कटितलों की किकिगियो रुनझुन करने लगती हैं। वह रक्त के जल में प्रवेश करता और तिर जाता। शत्रु-पक्ष पर प्रलय मारि मचा देता। अपने गर्व का निर्वाह 6.A वणदेवयाउ । 7. P आइयउ । 8. P तसहुं धरणे सहुँ लक्खण' ।
(3) 1. A 'दुग्धट्ट । 2. AP साडइ। 3. AP पडिखलइ। 4. णिहणइ। 5. AP खलखलंति । 6.AP किकिणियउ मणरुणप्ति । 1.A पश्यमारि ।
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1169
17.4.12]]
महाका-पृष्फर्षत-विरइयठ महापुराण इंदइ णिरस्थ कयबूढगव
आयासयलि गय पमय सम्व । घत्ताविहरि वि धीरु अविसण्णमणु ण चलइ कि पि सुहडहंकारहु ।।
लंकेसरु लंकहि गंपि थिउ खंधु समोड्डिवि. गुरुरणभारहु ॥3॥
हेला कयरिउविग्यविम्भमा कमियगगणभाया' ।।
आया राममंदिरं विविहवयरराया । छ। ता इच्छियणियणाहसिवेणं हणुमंतें सुग्गीवणिवेणं । गिरिसंमेयसिहरसिद्धाओ अणिमाइहिं रिद्धिहि रिद्धाओ। विज्जाओ परसाहणियाओ केसरिखगवइवाहिणियाओ। दिण्णाओ दुल्लंघबलाणं बीराण' गोविंदबलाणं। पण्णत्तीए रइयं जाणं
रयणमयं मणहारि विमाणं। कुडकोडिसंघट्टियचंद
दिवं' कइवयजोयणरुंदं । भित्तिणिरूवियचित्ति' सुरूव' बद्धसिणिद्धचिंधचंदोवं। रणझणंतमणिकिकिणिजाल हेममयं तोरणसोहालं। णाणाबिहदुवाररमणीयं । पारंभियसुरसुंदरिगीयं । आयण्णियपरखयालो
अवदायि । करने वाला इन्द्रजीत निरस्त्र हो उठा। सारे वानर आकाश-तल में चले गए।
घत्ता संकट में भी धीर, अविषण्णमन वह अपने सुभट होने के अहंकार से जरा भी विचलित नहीं होता। लंकेश्वर लंका में जाकर स्थित हो गया, अपने कंधों पर भारी रण-भार को उठाने के लिए।
10
जिन्होंने शत्र ओं में विघ्न का विभ्रम उत्पन्न किया है और आकाश भाग का उल्संघन किया है ऐसे विविध विद्याधर राजा राम के घर आए।
अपने स्वामी का कल्याण चाहने वाले हनुमान और सुग्रीव राजा ने, समेदशिखर पर्वत पर सिद्ध की गई अणिमादि ऋद्धियों से संपन्न एवं दूसरों को सिद्ध करनेवाली सिंहवाहिनी गरुड़ वाहिनी आदि विद्याएँ अलंघनीय बलवाले वीर लक्ष्मण और राम को दे दी। प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा यान और रत्नमय सुन्दर विमान रचा गया जिसकी शिखरपंक्ति चन्द्रमा से संघर्षत थी। वह दिव्य और कितने ही योजन विशाल था। जो दिवालों पर बनाए गए चित्रों से सुन्दर था, जिसमें सिनग्ध ध्वज चंदोबा बंधा हआ था, मणियों की किकिणियों का सुन्दर जाल जिसमें रुनझुन-रुनझुन कर रहा था, जो स्वर्णमय तोरणों से सुन्दर था, नाना प्रकार के द्वारों से जो शोभनशील था, जिसमें सुन्दर देवगीत प्रारंभ किए गए थे, ऐसे उस विमान में मनुष्यों और विद्याधरों के आशीर्वादों को सुननेवाले तथा अक्षत दही दूध से अंचित सिर वाले राम, 8. A पवय। 9, ण विसण्णमणु। 10. AP समोडिवि ।
(4) I. AP गयण 2. AP सिहरि सिद्धामओ। 3. AP धीराणं । 4. A दियवा का। 5. A भित्तणिरूचिय। 6. AP चित्तसरुवं । 7.AP रुणरणत।
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170]
महाकवि पुरुपरन्त विरचित महापुराण
[77. 4. 13
तत्यारूढो देवो रामो
हरि हरिसिल्लो अंजणसामो! दरिसिययमुसलंकुसपासं भूगोयरसेण्णं णीसेस। चलियं गगणे खयराणीयं
सामिकज्जि परिछेइयजीयं । णाणहरणविहूसियदेहं
गयवरदंतवियारियमेहं। धत्ता-संदाणिय णहि ससिदिवसयर पेल्लापेल्लि जाय" खगरायहं ।।
घयछत्तचलंतहं चामरहं हरिकरिरहवरभासंघायहं ।।4।।
15
हेला–णवणित्तिससंणिहे णयले चलंतं ।।
मयगलमयजले बलं दीसए वहतं ।।छ।। करिछाहिहिं जलकरिवर विलग्ग जलणर णरवरपडिविबभग्ग । धावति मयर पल गिलणकाम झस सुसुमार गंभीरथाम । सीमंतिणिपडिरूबई णियंति
जलदेवयाउ सीसई धुणंति। उज्जलमोत्तियभायणधरेहि
पवणुद्ध यचलवीईकरेहि। गज्जइ समुह बाहरइ णाइ
मरुपियंगु भयवसु व थाइ। सायरु लंधिवि परिहरिवि संक वेढिय विज्जाहरणिवर्हि लंक।
किउ कलयलु रणपडहई हयाई भीरहुं चित्तई विहडिवि गयाई। लक्ष्मण तथा प्रसन्न हनुमान् आरूढ़ हो गए। जिसमें घोड़ों, मसलों, अंकुशों और पासों का प्रदर्शन किया गया है ऐसा मनुष्यों का निःशेष सैन्य चला। आकाश में स्वामी राम के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाली, नाना अस्त्रों से अलंकृत शरीर वाली और गजवरों के दाँतों से मेघों को विदीर्ण करने वाली विद्याधरों की सेना चली।
___घत्ता-आकाश, सूर्य, चन्द्रमा स्थित रह गए । विद्याधर राजाओं के चलते ही ध्वजों, छत्रों, चामरों, घोड़ों, हाथियों, रथवरों और योद्धाओं से संघात से रेलपेल मच गई।
(5) नव कृपाण की तरह कातिवाले आकाश में चलता हुआ तथा मदगज के मदजल में बहता हुमा सैन्य दिखाई दे रहा था।
गजों के प्रतिबिम्बों से जलगज लग गए। जलमानुष नरवरों के प्रतिबिम्ब से भग्न हो गए। मांस खाने की इच्छा से मगर दौड़ रहे थे। मत्स्य और शिशुमार गंभीर शक्तिवाले थे। स्त्रियों के प्रतिबिम्बों को देखकर जलदेवियां अपना सिर धुनने लगतीं। उज्जवल भोती रूपी पात्रों कोधारण करने वाले तथा हवा से कंपित चंचल लहरों रूपी हाथों से समुद्र गरज रहा था, मानो उसे निमंत्रण दे रहा हो। हवा से प्रकंपित शरीर वह ऐसा लगता जैसे भयभीत हो । शंका छोड़कर, समुद्र को पार कर, विद्याधर राजाओं ने लंकानगर को घेर लिया। उन्होंने कोलाहल किया और युद्ध के नगाड़े बजवा दिए । कायरों के चित्त भग्न हो गए । सातों पाताल थर्रा उठे। उन्मार्ग
8. Pomits हरि। 9.A°णहससि । 10. AP पेल्लावेल्लि । 11.P जाइ।
(5) I. मयरावले जले; Pमय रायलजले । 2. Aगलिण' ।
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[171
10
71.6.10]
महाकइ-पुपफपत-बिरहपउ महापुराण सत्त वि पायालई थरहरंति उम्मग्गलग्ग सायर तरंति।। विसहर भयरसवस विसु मुयंति कुंचियकर दिसकरि कुक्करंति। दित्तई णखत्तइ हलवलंति झुल्लतइं णहि एक्कहिं मिलति । घत्ता-वाइत्तयसहसमुच्छलेण संखोहणु जायज तेल्लोक्कहु ।।
कि जाणडं गहि तडि तडयडिय पडिउ बिंबु समियकहु अक्कहु ॥5
हेला--ता भुवणुत्तुरडिणिवडणे कि हुओ णिघोसो॥
___ आहासई दसाणणो गाढजायरोसो ।।छ।। भायर कि सुम्मइ घोरु गाउ कि उड्डइ धूलीरयणिहाउ । दीसइ महिमंडलु महिहरेहि णह्यलु संछण्णउं णयरेहि। ता विहसिवि पभणइ कुगयण्णु अववरिउं देव पडियक्षसेण्णु । हा हरि आढत्तउ जंबुएहि वइवसु जीवहिं जीवियचुएहि। सेरिहु मयमत्ततुरंगमेहि
पक्खिवइ खलियउ उरजंगमेहिं । कि तुज्झु वि उप्परि एंति सत्तु किं तुहुं वि समिच्छहि परकलत्तु । लइ ठक्कर दीसइ विहिबिहाणु भिडु एवहिं पीडिवि रणि किया। 'भणिउंदसाणणेण जीवतें मई पंचाणणेण।
10 में लगे हुए वे उसमें बहने लगे। सांप भय के कारण विष उगल रहे थे । अपनी सूंड टेड़ी कर दिग्गज चिंघाड़ रहे थे। चमकते नक्षत्र आकाश से गिर रहे थे। आंदोलित वे आकाश में एक हो रहे थे।
धत्ता-वाद्यों के शब्दों के उठने से तीनों लोकों में संक्षोभ फल गया । क्या जाने आकाश में बिजली तड़तड़ा कर गिरी अथवा चद्र सहित सूर्य का बिम्ब गिर पड़ा!
(6) जिसे अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ है, ऐसा रावण पूछता है क्या एक दूसरे पर स्थित भवनों के गिरने का यह निर्घोष हुआ है ?
हे भाइयो, यह घोर नाद क्यों सुना जाता है ? धूल का यह समूह क्यों उड़ रहा है । महीमंडल महीधरों से और आकाशतलनभचरों से क्यों आच्छन्न है ? तब कुभकर्ण हँसकर कहता हैहे देव, शत्रु की सेना आ पहुंची है। खेद है कि हरिणों ने सिंह को आक्रांत क्रिया है और यम को जीवन से च्युत जीवों ने । मदमत्त अश्वों द्वारा महिष घेर लिया गया है। सांपों ने गरुड़ को स्खलित कर दिया है । क्या तुम्हारे ऊपर भी शत्रु आ सकता है ? क्या तुम भी परस्त्री की इच्छा करते हो ? लो विधि का विधान पूरा होता दिखाई दे रहा है ! लो अब युद्ध में कृपाण को पीड़ित कर भिड़ो ! यह सुनकर रावण ने कहा-मुल सिंह के जीते जी शत्रु रूपी मग मिलकर क्या कर लेंगे। 3. AP रणतू रई। 4. P भीरहुं । 5. A चुक्करति; P कुक्कुर्वति ।।
(6) 1. A 'तकारिणि वडणे; P *सुदिणिवळणे। 2. A महियलेहि; P महियरेहि । ३. A मयमतु। 4. हुंति । 5. लूकह।
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172]
महाकवि पुष्पदन्त मिरवित महापुराण
[77.6.11 अरिहरिण मिलेप्पिणु कि करंति असिणहरझडप्पिय धुउ मरंति.। धवा पावउ भुक्खिय पलयमारि पहणाविय लहुं संणाहभेरि । घत्ता-विरसंतई गरकरयलयई तूरई गाइ कहति दसासहु ।।
राहवहु सीय णउ दिण्ण पई कि उक्कंठिउ वइवसवासहु ।।611
हेला—कंचणकवयसोहिओ णवतमालवण्णो ।।
संझारायराइओ णं घणो रवण्णो ॥छ।। संणज्झमाणु रिउतासणेण
भडु सोहइ दिवसरासणेण। असिविज्जुइ विमलइ विप्फुरंतु जीविययरु जीवणु जणहु दितु । भडु को वि णिहालइ वाणपत्तु लइ एयहु एवहि रिउ जि पत्तु। भड़ को विपलोवइ तोणजम्म ण रणसिरिऊरूजुयलु' रम्मु । भडु को वि मुयइ संणाभारु कि कासु वि रुच्चइ लोहसार। कासु वि पइसरइ । पुलइयान सो अवणुि व सुयणसंगि। कि धणुणा कयवहुसंझएण
चरणेण वि आहबवकएण। भड़ को वि भणइ हउं कोतवाहु कोते वाहमि रिउरुहिरवाहु। 10
मायंगभु णिहिकु भुजेव हर्ष फोडमि अज्जु गयाइ तेव। मेरी तलवार रूपी नख के मपट्टे में पड़कर वह निश्चित रूप से नाश को प्राप्त हो जाएगा। भूखी महामारी तृप्ति को प्राप्त होगी। उसने शीध्र प्रस्थान की रणभेरी बजवा दी।
पत्ता--मनुष्यों के हाथों से आहत और बजते हुए तूर्य मानो रावण से कह रहे हैं कि तुमने राम की सीता नहीं दी, तुम यम के निवास के लिए उत्कंठित क्यों हो?
(7) स्वर्णकवच से शोभित नव-तमाल वृक्ष के समान वर्णवाला रावण ऐसा लगता था मानो संध्याराग से शोभिन सुन्दर वन हो । शत्रु को त्रास देनेवाले दिव्य धनुष से तैयार होता हुआ वह सुभट शोभित हो रहा था। विमल तलवार रूपी बिजली से चमकता हुआ तथा मेघ की तरह जीवन (पासवृत्ति और जल) देता हुआ कोई योद्धा बाणपुख देखता है कि लो इससे अभी शत्रु प्राप्त हुआ। कोई सुमट तरकस युग्म को इस प्रकार देखता है मानो रणलक्ष्मी का सुन्दर उरुयुगल हो। कोई योद्धा कवचभार को छोड़ देता है। क्या किसी को भी लोहभार अच्छा लगता है ? किसी के पुलकिस शरीर में वह (कवच) प्रवेश नहीं करता, सुजन का संग होने पर वह दुष्ट की तरह नष्ट हो जाता है । बहु (बहुत, बवू) की आशंका करने वाले धनुष से क्या? युद्ध में वक्र चलने वाले परण से क्या ? कोई सुभट कहता है कि मैं कोंत धारण करता हूँ, कोत से मैं शत्रु के रूधिर को प्रवाहित करूंगा। निधियों के घड़ों की तरह मैं आज गदा से गजकुभों को फोड़गा। कोई सुभट 6.AJणयर 17.A धुउ; PUT K घa and gloss तृप्तिम् ।
(1) 1. P "उजुयरम्मु । 2. AP लोहमारु 1 3. A थाहमि। 4. A °थाह। 5. A कुंभणिहि ।
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77. 8. 10]
महाकर पुष्कवंत-विरहयत महापुराणु
दक्खामि थूलई मोत्तियाई । णिणिवरण मेल्लावणसमत्थु ।
घता - दहवयणहु णिच्च विरत्तियहि को वि भणइ हियवउं संतावमि ॥ अrर सियहि सीयहि तणिय तणु राव रत्तकुषु भइ रावमि ॥17॥
भडुको वि भइ महिषत्तिया इं" अवरु यि करिरयण देमि हत्थ
8
हेला – आरूढा महासवारवाहिया तुरंगा ।। कचणसारिसज्जिया चोहया मयंगा ॥ छ ॥ विवि जाण पाणसंकर्ड । बद्ध सभउभिउभिइरवं ।
भत कासवारयं । चित्तत्तणं बरंतरं । पलयकालकालग्गिसंहि णं कयंतरायस्य सासणं रहियणहयलं पिहियमहियलं जायं च पडिहड गोंदलं ।
पवणपह्यविलंबियायरडं सयङचक्क चिक्करणपडिर
विप्फुरंत करवालधारयं
पणवतुणवझल्लरिमहासर चलियधूलि म इलियदिसासुहं इंदचंदणादतासणं'
for बलं बहलकलयलं दुमुदुमंत रणसमद्दल
[173
15
5
10
कहता है-धरती पर पड़े हुए स्थूल मोतियों को मैं आज दिखाऊँगा और फिर मैं अपने राजा के ऋण को छुड़ाने में समर्थं गजरत्नों को दूंगा ।
घता कोई कहता है – नित्य विरक्त (विशेष रूप से रक्त) रावण के हृदय को मैं सताऊँगा और अरसिक ( अरक्त) सीता के शरीर को राघव के लाल कुसुंभ रंग से रंजित करूँगा ।
(8)
महान् अश्वारोहियों द्वारा संचालित अश्व चल पड़े (आरूढ़ हो गए ) । स्वर्ण की काठी से सज्जित हाथी प्रेरित कर दिये गए। जिसमें हवा से आहत ध्वजपट अवलंबित है, जो विविध मानों और जंपानों से व्याप्त है, जिसमें गाड़ियों के चकों के चिक्कार का प्रतिशब्द हो रहा है, जो बद्धशेष योद्धाओं की कुटियों से भयंकर है, जिसमें तलवारों की धाराएं विस्फुरित हैं, मारोमारो कहते हुए अश्वारोही पहुँच रहे हैं, जिसमें प्रणव तुणव व झल्लरी का महाशब्द हो रहा है, जिसमें चित्र-विचित्र छत्रों से आकाश आच्छादित है, जिसमें उड़ती हुई धूल से दिशामुख मैले हैं, जो प्रलयकाल की कालाग्नि के समान है, जो इन्द्र, चन्द्र और नागेन्द्र के लिए त्रास दायक है मानो यमराज का शासन हो, जिसमें अत्यन्त कोलाहल हो रहा है, जिसने आकाशतल को आच्छादित कर लिया है और पृथ्वी को ढक लिया है, जिसमें युद्ध के मृदंग डम-डम बज रहे हैं, जिसमें प्रतिभटों की तुमुल हर्षध्वनि हो रही है। तलवारों के आघात से जहाँ सिर छिन्न हो चुके
6. P महिपत्तिया ।
( 8 ) 1. P सारसज्जिया 2. AP पह्यपविलंबिय° । 3. A पवण्यणय । 4. AP दणुवतासणं । 5. P गासणं । 6. A मंदलं ।
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174]
[77.8.11
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण खगधायविच्छिण्णसीसयं हुंकरतभूभंगभीसयं कोंतकोडिसंघट्टपेल्लियं
वणगलंतकीलालरेल्लियं। विचलियतगुप्तचरणय
ह्यगयाराणीदिण्णकरणयं । धत्ता-विराहवरामणमय सीयाकारणि अमरिसपुण्णई॥
अभिट्टई गिरितरुवरकरई मायावाणरणिसियरसेपणइं॥॥
15
9
हेला-झसमुग्गरमुसंविहि णिहयरवरंगं॥
जायं दंडसंजुर्य दूरमुक्कभंग ॥छ।। रहिएहि रहिय तुरएहि तुरय रणि रुद्ध एंत दुरएहिं दुरय। पायालहिं बरपायाल खलिय कमसंचालेण धरित्ति दलिय। हरिखुरखणित्तखउ णं मरंतु उट्ठिउ धूलीरउ पय धरंतु । आयासचडिउ' गं पुह इप्राणु' संताविर तें पिहिउ भाणु। चवलेण सुद्धवंसहु कएण
णिवडतु णिवारिउ णं धएण। दोसइ पंडुरु* कविलंगु केव
छत्तारविदि मयरंदु जेव।
हैं, जो हुंकार करते हुए भूभ्रमों से भयंकर है, जो कोत परम्परा के संघट से प्रेरित है, जिसमें घावों से रिसते रक्त की धाराएँ हैं, जहाँ गिरी हुई आँतों में पैर उलझ रहे हैं, तथा अश्व और गजों के आसनों पर शस्त्र रखे हुए हैं ऐसा सैन्य निकल पड़ा।
पत्ता-जिन्होंने राघव और रावण के चरणों में प्रणाम किया है, जो अमर्ष से भरी हुई थीं, गिरि तथा तरूबर जिनके हाथों में हैं, ऐसी मायावी वानरों और राक्षसों की सेनाएँ सीता के कारण युद्ध में भिड़ गई।
झस, मुद्गर और मुसंढि शस्त्रों के द्वारा जिसमें थेष्ठ मनुष्यों के अंग आहत हुए हैं तथा जो विघटन से मुक्त है, ऐसा दंडयुक्त युद्ध हुआ।
रथिकों (सारथियों) से रथिक, तुरगों से तुरंग और गजों से गज आते हुए अवरुद्ध कर लिए गए। पैदल सैनिकों के द्वारा पैदल सैनिक स्खलित (पराजित) कर दिए गए। परों के संचालन से धरती दलित हो गई। घोड़ों के खुरों रूपी खनित्रों द्वारा खोदा गया धूल समूह पैरों से लगता हुआ उठा मानो आकाश में जाते हुए पृथ्वी के प्राण हों। संतापकारी होने से उस धूल ने सूर्य को ढक लिया। शुद्ध वंश के कारण, चंचल ध्वज ने (अपने ऊपर) जमती हुई धूल का निवारण किया। सफेद और कपिल अंगवाली वह ऐसी लगती है जैसे छत्रों रूपी अरविन्दों का
7. P भीमयं 1 8. AP विलियंत। 9. P गयसिणी।
(9) 1. A झसमुसलमुसुडिहिं णिहिय । 2. A रहएहिं । 3. AP यंत। 4. AP संचारेण । 5. A णं खउ मरंतु। 6. AP आयासि बडिउ । 7. AP पाणु । 8. A संताउ करंतु विणिहिउ भाणु; Pसंताव करतें पिहिउ पाणु19. Pपंडुर।
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77.10.5] महाकह-पृष्फयंत-विराज महापुराण
[175 खुप्पइ" मयथिपिरि करिकवोल भणु कोण विलग्गइ दाणसीलि। महुयरु पडिवक्खीहुयज तासु किं पिच्छे फेडइ चियदिसासु।
10 जंपाणि गवक्खहिं पइसरंतु
पररमणिथणथलि मंद: थंतु । रउ" भावइ महणं बीउ जारु तें छाइउ दहमुहबहुवियाहा। असिसलिलि णिलीणु ण' पंकु होई चमराणिलेण उल्ललिवि जाइ। मउडग्गि पडतु जि कुडलासु धावइ मेहु व रविमंडलासु । मइलइ मंडलियह उरपएसु ढकइ सियहारावलिविलासु। 15 घत्ता–रयमेलज' मइलिबि भुवणयलु कलिकालेण समाणउ॥ करिगिरिवणणिज्जरवियलियहि सोणियजलवाहिणियहि लीणउ ।।9।।
10 हेला-जा कोट्ट पलोट्टियं कवडवाणणेरेहिं ।।
ता रविकित्ति णिग्गओ सहुँ' सकिकरहिं ।।छ।। तओ तेण भूमीससेणाहिवेणं पिसक्कासणुम्मुक्कजीयारवेणं । रहत्थेण सामत्थधत्थाहिएणं तमोह व्व सारंगबिबंकिएणं ।
विहिज्जतकंधच्छिर छिण्णमुडं रसालुखभेरुंडखजंतरंड । मकरंद हो। वह मद से गीले हाथी के गंडस्थल पर जम जाती है। बताओ दानशील व्यक्ति से कौन नहीं लगता ? भ्रमर उस धूल का प्रतिपक्षी (शत्रु) हो गया । क्या वह अपने पंख से दिशामुख में व्याप्त उसे हटाता है ? जंपानों और गवाक्षों से प्रवेश करता, शत्रुओं की रमणियों के स्तनतलों पर धीरे स्थित होता हुआ रज (धूल) मुझे ऐसा लगता है मानो दूसरा जार हो । उसने रावण की पत्नी के विकार को आच्छादित कर लिया। तलवार रूपी जल में लीन बह पंक नहीं होता। चमर को हवा से शिथिल होकर वह चला जाता है। मुकुटों के अग्रभाग पर पड़ता हुआ रज, कुडलों पर इस प्रकार जाता है जैसे सूर्यमंडल पर मेघ जा रहा हो (उसे आच्छादित करने के लिए)। मंडलीक राजाओं के उरप्रदेशों को मैला करता है, उनकी श्वेत हारावलि के विलास को आच्छादित करता है।
घत्ता इस प्रकार रज समूह, कलिकाल के समान भुवनतल को मैला कर, हाथी रूपी पर्वत के वन-निर्झरों (त्रण रूपी झरनों, बन के झरनों) से विगलित रक्त रूपी जल की नदी में लीन हो गया।
(10) जब मायावी वानरों ने दुर्ग को ध्वस्त कर दिया तो (रावण का) सेनापति अर्ककीर्ति अपने अनुचरों के साथ निकला। तब रथ पर स्थित उसने, जिसमें भूपतियों के सेनाधिपति हैं, जिसमें धनुषों की प्रत्येचा का शब्द किया जा रहा है, जिसमें कंधे और सिर छिन्न हो रहे हैं, मुंड कट चुके हैं, रस के लोभी भेरुण्ड पक्षी धड़ खा रहे हैं, जो झूलती हुई बातों से झरते हुए रक्त से आरक्त 10. P मा खुप्पइ। |1. P करिकणेलि। 12. A को विण लग्गह। 13. A मंदु। 14. A ण भावा । 15.Pण मह। 16.A वहमुहमुहथियारु। 17.AP | 18. "गिरिवरणिकार।
(10) 1. AP सह । 2. A धम्माहिएणं । 3. सारंगचिंधकएणं । 4.A णनिहरं । 5. A तुर्ड।
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176]
महाकवि पुष्पदन्त दिवस महापुराणा
[77. 10.6 ललंततवेढतथिप्पतरसं सदप्पं खुरप्पोहछिज्जतछत्त। भिडंत पडतं सारत्तणेतं समुन्भूयपासेयधाराहि सित्तं । गइंदुग्गदंतग्गभिज्जंतगत्तं दिसासु विसंतं वसातुप्पलितं । गयाघट्टणुट्टग्मिजालापलित्तं थिरत्तेण साहारियासारमितं । समप्पंतइच्छ सरुभिण्णवच्छे महाघायमुच्छाविणिम्मीलियच्छं। 10 विरुज्झतजुज्झतपाइक्कचंड सकोदंडकंड कय खंडखंड। वराहिंदमाणेहिं बाणेहिं रुद्ध रणे रामएवस्य सेण्णं णिरुद्ध' घत्ता-तहुपरबलु किमिणु ब ओसरिखं मग्गणवंदु धुलतउ पेक्खइ ।।
आवरणु करइ तणु संबरइ णवउ कलत्तु व अप्पउं रक्खइ ।।101
11
हेला–ता विज्जाहराहिवो पउरकोवपुण्णो' ।।
संणद्धो महाभडो अवि य कुंभयण्णो ॥छ।। पहु कुंभु णिकुंभु अमेयसत्ति इंदइ इंदाउहु इंदकित्ति। इंदीवरलोयणु इंदवम्मु
इयदेहु सूरु दुम्मूहु अगम्म। महवंतु महामह बहमुहक्न बलकेड महाबलु धूमचक्खु । है, जो दर्प सहित है, जिसमें खुरपों के समूह से छत्र उखाड़ दिए गए हैं, जो लड़ती और पड़ती
जिसके नेत्र रक्त से लाल हैं, जो निकली हई प्रस्वेदधारा से सिंचित है, जिसमें शरीर गजेन्द्रों के निकले हुए दाँतों के अग्रभाग से भेद दिए गए हैं। दिशाओं में प्रवेश करती हुई, जो चर्षी रूपी वी से लिप्त है, जो गदाओं के संघर्ष से उत्पन्न आग से प्रदीप्त है, जिसने अपनी स्थिरता से धेष्ठ मित्रों को धैर्य बँधाया है, जो समर्पण की इच्छा कर रही है, जिसके वक्ष तीरों से घायल हैं, महान् आघातों की मूर्छा से जिनकी आँखें बंद हो गई हैं। जो विरद और संघर्षरत पैदल सैनिकों से प्रचंड है, ऐसी सेना को धनुष और वाण सहित उसी प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जिस प्रकार चन्द्रमा अंधकार समूह को नष्ट कर देता है। श्रेष्ठ नागों के आकार के तीरों से उसने राम देव की सेना को अवरुद्ध कर दिया।
घत्ता-उसका शत्रुसैन्य कृपण की तरह, मम्गणविंद (वाणों का समूह, याचकों का समूह) को व्याप्त देखकर हट गया। वह नववधू की तरह आवरण करती है और शरीर को ढकती है। अपनी रक्षा करती है।
तब प्रचुर कोप से पूर्ण विद्याधर राजा रावण तैयार हुआ और महासुभट कुभकर्ण भी।
प्रभु कुंभ और अप्रमेय शक्ति निकुभ, इन्द्रजीत, इन्द्रायुध, इन्द्रकीर्ति, इंदीवर लोचन, इन्द्रवर्मा, इतदेह, सूर दुर्मुख, अगम्य महवंत, महामधु, बुधमुख, बलकेतु, महाबल, धूम्रचक्षु, 6. A खुरुप्पेहि; P खुरुप्पोह। 7. AP °घट्टशुत्थगि । 8. A राहिंडमाणेहिं । 9. A विरुवं । 10. AP किविणु।
(11) I. A पवर' । 2. P इंदधम्मु । 3. P अमम्मु । 4. P महवंतु ।
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77. 12. 2]
महाकइ पुष्फल-विरहय महापुराणु
संणञ्झइ भडयणु रणसमत्थु । परसासाहारहु किर पद्ध केण वि धरियउ गुणवंतु धम्मु । परलो महइ वायरणु जेव । रिउकणकंड कड्ढि मुसलु । मीणा इव बण्णि रमति इट्टु | थिउ धरिवि गाई णहभायछंदु" । hr विहलु गहि सविक्कमेण । सोहइ णं संग रसिरिहि" हाय ।
खदसणु मज हृत्थष्पहत्य असिधेणु व केण वि दणिबद्ध रणदिखहि याविदिट्ठरम्म संघ समाणसर कोडि केव केण विचितिविणियनृबहु' कुसलु केण वि असिवाणि णायण दिट्ठ केण वि दरिसाविउ अद्धयंदु संगामखेत्तकरणुज्जमेण he fa गहिउ फणिपासु सारु
LP
घत्ता - मायंगतुरंगविमाणधय रहवरवाहणदूसंचारें ॥
5. A सादृश्यं; T
संगद्ध कूद्ध जयलुद्ध भड उब्भड णिग्गय णयरबारें ॥11॥
12
हेला - अमरसमरभरुवही थिर किणं कखंधी' ॥ कुलधवलो धुरंधरो वइरिबाहुबंधो ॥ छ ॥
[177
10
15
खरदूषण, मंद, हस्त, प्रहस्त आदि युद्ध में समर्थ योद्धाजन तैयार होने लगे। किसी ने असि को धेनु की तरह मजबूती से पकड़ लिया था और उसका प्रयोग परसासाहार ( दूसरों की मांसों के आहार, परशस्याहार दूसरों के धान्य के आहार ) के लिए किया। किसी ने रणदीक्षा में स्थित होकर दृष्टिरम्य डोरी सहित धनुष ( गुण सहित धर्म ) धारण कर लिया। वह वैयाकरण के समान बाण कोटि (स्वर कोटि) को साधता है और व्याकरण के समान शत्रु ( उत्तर वर्ण) का लोप चाहता है। किसी ने अपने राजा की कुशलता का विचार कर, शत्रु रूपी hat को कूटने वाले मूसल को निकाल लिया। किसी ने तलवार के पानी में मत्स्यों की तरह रमण करते हुए अपने दोनों इष्ट नेत्रों को देखा। किसी ने अर्धेन्दु को बताया, जो ऐसा लगता था मानो आकाश भाग ने ही अर्धचन्द्र धारण कर रखा हो । युद्ध के क्षेत्र में उद्यम करने के लिए किसी सुभट ने अपने पराक्रम के साथ हल ग्रहण कर लिया। किसी ने श्रेष्ठ नागपाश ले लिया जो मानो युद्धलक्ष्मी के हार की तरह शोभित था ।
घत्ता - हाथी, घोड़ा, विमान-ध्वज और रथ श्रेष्ठ वाहनों से, जिसमें चलना मुश्किल है ऐसे नगरद्वार से क्रुद्ध संनद्ध और जय के लोभी वे उद्भट सुभट निकले ।
(12)
जो देवयुद्ध का भार उठाने में समर्थ है, जिसका कंधा स्थिर और घर्षण चिह्नों से युक्त है, जो कुल धवल है, धुरंधर है, जो शत्रुओं के बाहुओं को बाँधने वाला है, जो रत्नों से निर्मित
णिच । 6. AP पद्दद्ध। 7. AP विहु । 8. AP पहुभाइ चंदु; K महभायचंदु but gloss भामचंदु नभोभागसादृश्यं । 9 P हिउ बिक्कमेण । 10. AP लइयउ । 11. A संगरि । (12) 1. AP fire
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178] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[27.12.3 रयणगिरमा विराजियभीगरों
विक्कमक्कमियमविलयगिरिसायरो। पवणवइसवणजमवरुणवलभंजणो
असुरसुरखयरफणितरुणिमणरंजणो। गरलतमपडलकालिदिजलसामलो
सुरहिमयणाहिउच्छलियतणुपरिमलो। कोवगुरुजलणजालोलिजालिय दिसो
सरल रत्तच्छिविच्छोहणिज्जियविसो। वीरपरिहवपरोः रइयरणपरियरो
__ मुक्कगुणरावधणुदंडमंडियकरो। णिहिलजगगिलणकालो व दुक्को सयं
छत्तछण्णो महंतो जणंतो भयं। कढिणभुयफलिहसयलिदकंपावणो
कसणघणकारिवरारूढओ रावणो। असमपरविसमसाहसणिही णिग्गओ
विमलकमलाहिसेयस्स णं दिग्गओ। हरिकरिकमाया हल्लिया मेइणी
रणहिरलंपड़ी णच्चिया डाइणी। कुलिसकुडिलंकुरारावलीराइयं
धगधगतं पुरो चक्कमुद्धाइयं। निशाचर-ध्वजों से भयंकर है, जिसने अपने विक्रम से महीवलय, गिरि और समुद्र को आक्रांत किया है जो पवन, वैश्रवण, यम और वरुण के वल का नाश करने वाला है; जो असुर, सुर, विद्याघर, नाग और तरुणियों के मन का रंजन करने वाला है, जो विष, तमपटल और यमुना के जल के समान श्याम है, कस्तुरीमृग के समान जिसके शरीर से परिमल उछलता है, जिसने क्रोध रूपी ज्वालावलि से दिशाओं को जला दिया है, अपनी सरल और लाल आँखों की कांति से जिसने वृषभ को विजित कर लिया है, जो वीरों के पराभव में तत्पर है, जिसने युद्ध का परिकर बना रखा है, छोड़ी गई प्रत्यंचा के शब्द वाले धनुषदंड से जिसका कर शोभित है, ऐसा महान् छत्रों से आच्छादित, भय पैदा करता हुआ, अपने वाहुफलकों के द्वारा शैलेन्द्र को कैंपाने वाला, काले मेघ के समान महागज पर बैठा हुआ रावण समस्त विश्व को निगलने वाले काल के समान स्वयं वहाँ आ पहुँचा । असम और शत्रु के लिए विषम साहस की निधिवाला वह इस प्रकार निकला मानो विमल कमला (लक्ष्मी) के अभिषेक के लिए दिग्गज निकला हो । नारायण के हाथी से आहत धरती हिल उठी । युद्ध के रक्त को लालची डायन नाच उठी। उसने कुटिल वनांकुरों के समान आराओं की आवली से शोभित तथा धक-धक करता हुआ चक्र सामने उठा लिया। 2. Pधिकमास्कमिय। 3. AP धीर । 4.A गलिण।
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77. 13. 12]
महाक - पुष्कत विरइयज महापुराणु
पत्ता -- फेडियमुहवडघुयध्यवडहं दावियद्सह्गय घडघायहं ।। दलट्टियरिवरभडधडहं मुसुमूरियसामंतणिहायहं |12||
13
हेला - विज्जाबलरउद्दहं जायगारवाणं ॥ वाहिय रहविमद्दहं सद्दरजरवाणं ||छ ||
जयकारियराहव रावणाहं समुह गया सपसाणा सं असिणिहसणसिहिजालउ जलंति' णीवंति ताई वणरुहजलेण मुक्कु पिपिफारु गंडयल विलग्गज बाणपुंखु केण वि गणंगणि देवि करणु लो आरोहु बिद्धकोह अरिणरकरघल्लिय लउडिदंड " मणिजडिय पडिय मंडलियमउड
घत्ता- - जिन्होंने मुखपटों और उड़ते हुए दुःसह गज समूह को द्रवित कर दिया है, जिन्होंने दिया है और सामंत समूह को कुचल दिया है.
जयलच्छ्रिरमणरंजियमणाहं । अंत कराहणाहं । गुडपवखरपल्लाई जलति । hrfa सिवि वि छलेण । लग्गउ" णं गथवर गिरिहि मोरु । दोसइ णं छप्पउ दाणकंखु 1 afriratna fre थविवि' चरणु । छुरिय" पणिवि धित्तु जोहु । चूरिय संदण संगामचंड' । उच्छलिय रयणकरणियर पथड ।
[179
5
10
ध्वजपटों को नष्ट कर दिया है, जिन्होंने अश्ववरों और योद्धा समुह को चकनाचूर कर
(13)
जो विद्याबल से भयंकर हैं, जिन्हें गौरव उत्पन्न हुआ है, जो हाँके गए रथों से विमंदित हैं, जो शब्द करते हुए वाणों से भयंकर हैं,
जिन्होंने राम और रावण का जय-जयकार किया है, जिनका मन विजयलक्ष्मी के साथ रमण करने से रंजित हैं, आमने-सामने आई हुई, प्रसाधनों से युक्त युद्ध करती हुई ऐसी दोनों सेनाओं के तलवारों से उत्पन्न अग्निज्वालाएँ जलने लगती हैं, गजों और अश्वों के कवच जलने लगते हैं। उन्हें घावों से निकलते हुए रक्तजल से शांत किया जा रहा था। किसी ने छल से युद्ध में प्रवेश कर विशाल पुंख वाला तीक्ष्ण शंकु छोड़ा जो इस तरह लग रहा था, मानो गजराज रूपी पर्वत पर मयूर हो। गंडतल पर लगा हुआ तीर पुख ऐसा प्रतीत होता था, मानो दान (मदजल) का आकांक्षी भ्रमर हो। किसी ने आकाश के प्रांगण में करण (आसन) देकर हाथी के कुंभपीठ पर अपना दृढ़ पैर स्थापित कर तथा लौटकर आरोहण करने वाले बद्ध
ध योद्धा को कमर की छुरी से प्रहार कर नष्ट कर दिया। शत्रु मनुष्यों द्वारा फेंके गए लकुटिदंडों ने युद्ध में प्रचंड स्यंदनों को चूर-चूर कर दिया। मणियों से विजटित मांडलीक राजाओं के मुकुट गिर गए। रत्नों का किरण समूह प्रकट रूप में उछल पड़ा। किसी के द्वारा
( 13 ) 1A चलति । 2. A पिच्छ भारु 1 3. A उग्गज । 4. A देवि । 5A करि छुरिय 6. P° दंडि । 7. P " चंडि ।
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17B] महाकवि पुष्पदन्स विरचित महापुराण
[77.12.3 रयणणिम्मवियरयणियरधयभीयरो
विक्कमक्कमियमहिवलयगिरिसायरो। पवणवइस वणजमवरुणवलभंजणो
असुरसुरखयरफणितरुणिमणरजणो। गरलतमपडलकालिदिजलसामलो
सुरहिमयणाहिउच्छलियतणुपरिमलो। कोवगुरुजलणडालोलिजालियदिसो
सरलरसच्छिविच्छोहणिज्जियविसो। वीरपरिहृवपरो रइयरणपरियरो
मुक्कगुणरावधणुदंडमंडियवारो। णिहिल जगगिलणकालो ब्ब ढुक्को सय
छत्तछण्णा महंती जणता भयं। कविणभुयफलिहसलिंदकपावणो
कसणधणकरिवरारुढओ रावणो। असमपरविसमसाहसणिही जिग्गओ
विमलकमलाहिसेयस्स णं दिग्गओ। हरिकरिकमाया हल्लिया मेइणी
रणरुहिरलंपड़ी णच्चिया डाइणी। कुलिसकुडिलंकुरारावलीराइयं
धगधगतं पुरो चक्कमुद्धाइयं । निशाचर-ध्वजों से भयंकर है, जिसने अपने विक्रम से महीवलय, गिरि और समुद्र को आक्रांत किया है। जो पवन, वैश्रवण, यम और वरुण के वल का नाश करने वाला है; जो असुर, सुर, विद्याघर, नाग और तरुणियों के मन का रंजन करने वाला है, जो विघ, तमपटल और यमुना के जल के समान श्याम है, कस्तूरीमृग के समान जिसके शरीर से परिमल उछलता है, जिसने क्रोध रूपी ज्वालावलि से दिशाओं को जला दिया है, अपनी सरल और लाल आँखों की कांति से जिसने वृषभ को विजित कर लिया है, जो वीरों के पराभव में तत्पर है, जिसने युद्ध का परिकर बना रखा है, छोड़ी गई प्रत्यंचा के शब्द वाले धनुषदंड से जिसका कर शोभित है, ऐसा महान् छत्रों से आच्छादित, भय पैदा करता हुआ, अपने चाइफलकों के द्वारा शैलेन्द्र को कॅपाने वाला, काले मेघ के समान महागज पर बैठा हुआ रावण समस्त विश्व को निगलने वाले काल के समान स्वयं वहाँ आ पहुँचा । असम और शत्रु के लिए विषम साहस की निधिवाला वह इस प्रकार निकला मानोविमल कमला (लक्ष्मी) के अभिषेक के लिए दिग्गज निकलाहो।नारायण के हाथी से आहत धरती हिल उठी । युद्ध के रक्त को लालची डायन नाच उठी। उसने कुटिल वांकुरों के समान आराओं को आवलो से शोभित तथा धक-धक करता हुआ चक्र सामने उठा लिया। 2. P धिक्कमाक्कमिय। 3. AP धोर'। 4.Aगलिण।
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[179
17.13.12]
महाकइ-पुप्फयंत-विर इयज महापुराणु घत्ता–फेडियमुहवडधुयधयवहं दाबियदूसहगयघडघायहं ।।
दलवट्टिमहरिवरभडथडहं मुसुमूरियसामंतणिहायहं ।।12।।
13
हेला-विज्जाबलरउद्दहं जायगारवाणं ।
वाटिरहविमद्दहं सद्दरउरवाणं ॥छ।। जयकारियराहवरावणाहं
जयलच्छिरमणरंजियमणाहं । समुहागयाहं सपसाहणासं
जुझंतहं दोहं मि साहणाह। असिणिहसणसिहिजालउ जलंति' मुडपक्खरपल्लाणई जलति । 5 णीवंति ताई वणरुहजलेण
केण वि पइसिवि आहवि छलेण । परिमुक्कसंकुपिटुपिछफारु
लग्गउ णं गयवरगिरिहि मोर। मंडयलि विलग्गउ बाणपुंखु
दीसइ णं छप्पउ दाणकखु । केण वि गयणंगणि देवि करणु ककिकुंभवीदि थिरु थविधि' चरण । होट्टिविजारोहु पिबद्धको
कडिछुरियइ पणिवि चित्तु जोहु। 10 अरिणरकरघल्लिय लउडिदंड चूरिय संदण संगामचंड' ।
माणिजडिय पडिय मंडलियमउड उच्छलिय रयणकरणियर पयड।
घत्ता--जिन्होंने मुखपटों और उड़ते हुए ध्वजपटों को नष्ट कर दिया है, जिन्होंने दुःसह गज समूह को द्रवित कर दिया है, जिन्होंने अश्ववरों और योद्धा-समूह को चकनाचूर कर दिया है और सामंत-समूह को कुचल दिया है,
जो विद्याबल से भयंकर हैं, जिन्हें गौरव उत्सन्न हुआ है, जो हाँके गए रथों से विदित हैं, जो शब्द करते हुए वाणों से भयंकर हैं,
जिन्होंने राम और रावण का जय-जयकार किया है, जिनका मन विजयलक्ष्मी के साथ रमण करने से रंजित है, आमने-सामने आई हई, प्रसाधनों से युक्त युद्ध करती हई ऐसी दोनों सेनाओं के तलवारों से उत्पन्न अग्नि ज्वालाएं जलने लगती हैं. गजों और अश्वों के कवच जलने लगते हैं। उन्हें घावों से निकलते हुए रक्तजल से शांत किया जा रहा था। किसी ने छल से युद्ध में प्रवेश कर विशाल पुख बाला तीक्ष्ण शंकु छोड़ा जो इस तरह लग रहा था, मानो गजराज रूपी पर्वत पर मयूर हो। गंडतल पर लगा हुआ तीर पु ख ऐसा प्रतीत होता था, मानो दान (मदज़ल) का आकांक्षी भ्रमर हो। किसी ने आकाश के प्रांगण में करण (आसन) देकर हाथी के कुंभपीठ पर अपना दृढ़ पैर स्थापित कर, तथा लौटकर, आरोहण करने वाले बद्धक्रोध योद्धा को कमर की छुरी से प्रहार कर नष्ट कर दिया। शत्र-मनष्यों द्वारा फेंके गए लकुदिदंडों ने युद्ध में प्रचंड स्यंदनों को चूर-चूर कर दिया । मणियों से विजटित मांडलीक राजाओं के मुकुट गिर गए । रत्नों का किरण समूह प्रकट रूप में उछल पड़ा। किसी के द्वारा
(13) 1. A चलति। 2. A पिच्छभाह। 3. A उग्गज । 4. A देवि । 5. A करि रियइ । 6.P डि।7.P °चडि।
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180]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[77.13.13 केण वि कासु वि पविमुट्ठियां सीसक्के सहुँ सिरु चुण्णु कयउं । गउ वियलियासु कंकालसिद्ध कासु वि लोहियरसु रसिवि गिद्ध । उड्डेप्पिणु वच्चइ गयणमगु णं पोरिस वण्णइ गपि सग। तहि अवसरि बहुतत्तिल्लएहि जायवि कयजणमणसल्लएहिं । पत्ता-णिउ णिग्गउ भरहवाहिवइ चारहि रामह कहिउ वियारिवि ।।
थिउ ता रणदिक्खहि दास रहि पुप्फयंतु जिणबरु जयकारिवि ॥13॥
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभन्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे राहवरावणबलसंणहणं
णाम सत्तहत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो ।।77॥ किसी का वच्चमुष्टि से आहत शिरस्त्राण से सहित सिर चूर-चूर कर दिया गया। बेचारा कापालिक निराश होकर चला गया। किसी के रम्पत रूपी रसास्वाद देकर पीप उड़कर आकाशमार्ग में जा रहा था, मानो स्वर्ग में जाकर उसके पौरुष का वर्णन करने जा रहा हो। उस अवसर पर अत्यन्त चिंतायुक्त और जिन्होंने जन-मानस में शल्य पैदा कर दी है, ऐसे चरों ने जाकर,
पत्ता-राम से विचार कर कहा कि भारत का अर्धचक्रवर्ती राजा (युद्ध के लिए) निकल पड़ा है, तब राम भी पुष्पदंत जिनवर को जयकार कर रणदीक्षा में स्थित हो गए।
इस प्रकार, प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में, महाकवि पुष्पदंत वारा रचित तथा महाभव्य भरत द्वारा अनुमत इस महाकाव्य का राघव-रावण
'बल-सहनन नामक सतहत्तरवा परिच्छेद समाप्त हुआ।
8. A बत्तिस्सएहि । 9. A उभयबसभिडणं; P उभपबलाभिडणं ।
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अत्तरिम संधि
for कालाल जोइयभुयबलु विष्फुरंतु मच्छर डिउ ॥ महिकरिणिय
पसरियविग्गहु कण्हु दसासहु अभिडिउ ॥ ध ुकं ।
1
नियंति ।
आणियाई कवयई रहुरायहु
दुबई – पहय गहीर भेरि सिरिरमणीमाणियदेहलक्खणा ॥ संणति हणुव सुग्गीव महापहरामलक्खणा ॥ छ ॥ माणिक्कंसुजालविण्णासई चंदकवचंदियसंका सई । उ विसंति रोमंचियकायहु । रिउसरीर बंधणई व तुट्टइ । उरि संगा दिष्णु सिरिवच्छतु । फुट्टिवि गउ सयदलु णं दुज्जणु ।
बाहुजुलु पुलएण विसट्टइ आवरो लहरिसपच्छ माइण सीयहि मणिणं रावणू
अठहत्तरवीं संधि
शत्रु-योद्धाओं के लिए कालानल, जिसने अपना बाहुबल देखा है ऐसा तथा विस्फुरित होता हुआ लक्ष्मण मत्सर से भर उठा। धरती रूपी गृहिणी के लिए आग्रह करने वाला और युद्ध का विस्तार करने वाला वह रावण से भिड़ गया।
5
(1)
युद्ध की भेरि बजा दी गई। जिनके शरीर-लक्षण लक्ष्मी रूपी रमणी से मान्य हैं, ऐसे महाप्रभु राम, लक्ष्मण, हनुमान् और सुग्रीव तैयार होने लगे । माणिक्यों के किरणजाल से दिरचित, मयूरपंख की चन्द्रिका के आकार वाले कवच रघुराज के लिए दिए गए। वे रोमांचित शरीर में प्रवेश नहीं करते। रोमांच से उनका भुजयुगल विकसित होता है, और शत्रु के शरीरबंधन की तरह विघटित हो जाता है । युद्ध के शब्द से उत्पन्न हर्ष को धारण करने वाले लक्ष्मण के वक्ष पर कवच पहिना दिया गया। वह उसमें उसी प्रकार नहीं समाता जिस प्रकार सीता के मन में रावण नहीं समाता । वह सैकड़ों टुकड़ों में उसी प्रकार फट गया जैसे दल के साथ दुर्जन ।
आह्नि रोल 4. A फट्टिवि 15. P
(1) A महिपरिणिकग्गहु 2 A महपहु । 3.
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182]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
(78. 1. 10 सुगीवह गोयह रणभरधर णिहिय करंति काई किर परणर। 10 संणज्झंतु काई सो सुच्चइ हणुबंतु वि धम्म जहिं वुच्चइ । तहि" जगु विधिवि मारिवि मेल्लइ अंगउ' अंगई वइरिहि सल्लइ। दहियदोव्वसिद्धत्थयमीसित सीमंतिणिकरघित्तउ सेसउ । विरसिउ जुज्झडिडिमाडबरु बहिरिउ तेण विवरु दिसि अंबरु । मत्ति विजयपवइ सई माहउ अंजणगिरिकरिवरि थिउ राहउ। 15 बलिपुत्तें तहु बलविस्थिण्णी विज्ज पहरणावरणि" दिइण्णी। घत्ता-सइ का वि पजपइ कि पि ण कंपइ पिययम परबलु णिट्ठव हि ।।
हणु करिकुंभयलई हिमकणधवलई मोत्तियाई महु पट्टवहि ||11
2
दुवई--का वि पुरंधि भणइ कि बहुवें अणुदिणु हिययजूरणं ॥
णियसिरपंकएण' पिय फेडहि गरवइपियविसुरणं ॥छ।। का वि भणइ एत्तडसं करेज्जसु पउपच्छामुहं णाह म देज्जसु । गयपडियागयपयपरिठवणे महइ कइंदु ण भडु भयगमणे।
का वि भणइ ज मईथणमंडिउं तं गयदंतहं संमुहूं उड्डि । सुग्रीव की गर्दन पर युद्धभार की धुरी रख दी गई। शत्रु जन क्या कर सकते थे ? कवच पहनता हुआ वह क्या खेद करता है ? जहाँ हनुमान् को कामदेव कहा जाता है वहाँ वह विश्व को वेध कर और मारकर ही छोड़ता है । अंगद शत्रुओं के अंगों को पीड़ित करता है। दही दूध और तिलों से मिश्रित तथा सीमंतिनियों के हाथों के द्वारा शेष (निमल्यि) छोड़ा गया था। युद्ध के नगाड़ों का विस्तार बज उठा। उससे दिशा अंबर और विवर भर उठे। मतवाले विजयपर्वत गज पर स्वयं माधव (लक्ष्मण) और अंजनगिरि गजराज पर राम बैठ गए। बलिपुत्र (सुग्रीव) के द्वारा उनके लिए बल का विस्तार करने वाली और प्रहारों का आवरण करने वाली विद्या दे दी गई।
पत्ता-कोई एक सती कहती है, वह बिल्कुल भी नहीं काँपती कि, हे प्रियतम, शत्र सेना को नष्ट कर दो। हाथियों के गंडस्थलों को मारो और हिमकणों के समान धवल मोती मुझे भेजो।
(2)
कोई इन्द्राणी कहती है. बहुत से क्या, हे प्रिय, प्रतिदिन का पीड़ित होना और राजा राम की प्रिया का विसूरना अपना सिरकमल देकर तुम नष्ट कर दो।
___कोई कहती है. इतना करना, हे स्वामी, कि अपना पैर पीछे मत देना क्योंकि गत और प्रत्यागत पद (चरण, छंद) की स्थापना से कवीन्द्र शोभित होता है। भयपूर्वक (आगे-पीछे) गमन से सुभट शोभित नहीं होता। कोई कहती है कि मैंने जोस्तन मंडित कियावह हाथी दांतों के सामने
6. A जगु तहि17. A अंगउवंगई। 8.A राहत। 9. A माह। 10. A घरणि विदिणी।
(2) 1 AP सि रकप्पिएण 1 2. A रिणविसूरणं । 3. A णं गय" ।
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183
78. 3. 4]
महाका-पुष्रुपंत-विरइयउ महापुराण कि बच्छयल पाहणदेसह पणु आलिंगण सहुं' महु देसह का वि भणइ रणि म करि णियत्तणु सुरिज्जई पहुभुमिणियत्तणु। कि पुणु महिमंडलु वित्थिण्ण इच्छियचायभोयसंपण्णउं । देज्जसु पस्थिवचितणिवार खग्गसलिलु वइरिहि तिसगारउं। का वि भणइ पिययम पेयालइ बसतु रिउसीसकावालइ । हां दीवउ बोहेस मि जइयहं ।
ओवाइउ" मह पूरइ तइयतुं । का वि भणइ पडिएण वि पिंडें महिवि पिसल्ला उमराह खं हैं। कासु वि सिद्धहु आणइ थंभिवि पासि धरिज्जसु' वायइ रुभिवि । पई मुए वि हर गडिय रइच्छइ तं परिपुच्छिवि आवमि पच्छइ । घसा-सुहवत्तहु वंछहि माह ण पेच्छहि चंडहि वेयालालियहि ।।
कयतुट्टिपरिग्गड परकंठग्गहु खम्गलट्ठिपुण्णालियहि ।।2।।
10
15
दुबई-तुह एवं सुवंसयं पिययम पणविणं विणीयं ।।
सज्जीयं सरासणं समरि हरउ बइरिजीयं ॥छ।। जंदणवणु व णीलतालद्धउं ण रवेसे णं सई मयरद्धउ ।
दीसइ गीसरंतु रइयाहङ अंजणगिरिकरिवरि थिउ राहङ । उड़ गया। हे स्वामी, क्या वक्षतल बढ़ेगा और मुझे फिर से आलिंगन सुख देगा? कोई कहती है कि तुम युद्ध में पलायन नहीं करना । तुम स्वामी के भूमि के दान की याद करना । इच्छित त्याग और भोग से संपन्न विस्तीर्ण महीमडल से क्या? तुम राजा (राम) की चिंता का निवारण करने बाला तथा शत्र ओं की प्यास बढ़ाने वाला अपना खड़गजल देना । कोई कहती है-हे प्रियतम, जब मैं प्रेतालय में शत्र के सिर के कपाल (खापर) में चर्ची रूपी घी से दीप जलाऊँगी तभी मेरी याचना पूरी होगी। कोई कहती है कि पड़े हुए शरीर से भी मांसखंड से पिशाच की पूजा कर, किसी भी सिद्ध की आज्ञा से उसे स्तंभित कर, व्यंतर को वायु से रोककर अपने पास रखना। तुम्हारी मृत्यु होने पर रतिकामना से प्रबंचित मैं बाद में उससे (तुम्हारी बात) पूछने के लिए आऊँगी।
पत्ता हे स्वामी, सुभगत्व चाहते हो तुम प्रचंड वेग से चलाई गई खड्गलता रूपी वेश्या के तुष्टिपरिग्रह को करनेवाले शत्र के कंठग्रह को नहीं देखते ?
(3) हे प्रियतम, तुम्हारा यह सुवंश में जन्मा नमनशील विनीत सज्जित धनुष युद्ध में शत्र का जीवहरण कर ले।
नील और ताल वृक्षों से युक्त नंदन बन के समान वह (राम) ऐसे लगते हैं मानो मनुष्य रूप में स्वयं कामदेव हों । संग्राम रचनेवाले राम अंजनगिरि गजराज पर बैठकर निकलते हुए ऐसे 4. P आलिंगणु सहूं 5. A सुमरिज्जइ । 6. उववायउ। 7. AP विज्जसु । 8. A आइवि ।
(3) 1. A पबियं ।
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महाकषि पुष्पवम्त विरचित महापुराण
178. 3.5
184]
णं णवजसहरसिहरि ससंकर' णं अइरावइ इंदु असंकउ । णं जसु तिजगसिपिंडुरतणु धम्मालोयलीणु णं मुणिमणु । कयसरसोहउ' णाई मरालउ सुरपहाहरु णाइ मरालउ । सीयाकंखउ विरहुण्हें हर दाणालित्तपाणि णं दिग्गउ। एतहि लक्खणु रोसवियंभिउ णं रणसिरिणच्चणकरु उभिउ । लच्छीललणालोलणलोहिउ पंचवण्णगरुडद्धयसोहिउ । विजयमहीहरि कुंजरि चडियउ कालसलोणउ जणि आवडियउ। मेहहु उवरि मेहु णं थक्कउ रिउहुं णाई जमद्यउ दुक्कउ । यत्ता-बोइयमायंगई चलियतुरंगई वाहिवरहई भयंकरई ।।
संणिहियविमाणई जरजपाणइं रोसुद्धाइयकिकरई ।।3।।
01
दुबई-लग्गई रामरामणाणंदई बलई रुसाविसालई' ॥छ।
परमुहकुहरमुक्कहुंकारुद्दीवियबाणजालइ ॥छ।। मुक्कमुसलहलपट्टिससेल्लइ पसरियपाणिधरियधम्मेल्लई। दिखाई देते हैं, मानो नव जलधर के शिखर पर चन्द्रमा हो। माना ऐरावत महागज पर निशंक इन्द्र बैठा हो। मानो त्रैलोक्य के शिखर को शुभ्रतन कर देने वाला यश हो । मानो धर्मालोक में लीन मूनि का मन हो। जिसने सरोवर की शोभा बढ़ाई है मानो ऐसा हंस हो । मानो सूर्य की प्रभा का हरण करने वाला मेघ हो । विरह की ज्वाला से आहत सीता की आकांक्षा हो । जिसकी संड मदजल से लिप्त है, मानो ऐसा दिग्गज हो । दूसरी ओर क्रोध से विज भित लक्ष्मण था । मानो रणधी का नाचता हुआ हाथ उठा हो, जो लक्ष्मी रूपी ललना के अवलोकन का लोभी है, और पंचरंग गरुडध्वज से शोभित है, जो विजयपर्वत गज पर चढ़ा हुआ ऐसा लगता है जैसे काल के समान लोगों के बीच में आ गया हो। मानो मेघ के ऊपर मेघ स्थित हो, शत्रु ओं के ऊपर मानो यमदूत आ पहुँचा हो।
धत्ता-गजे प्रेरित किये गये, घोड़े चला दिये गये, भयंकर रथ हाँक दिये गये, विमान जपान तैयार किये गये। अनुचर क्रोधित हो दौड़ पड़े।
14)
राम और रावण को आनंद देने बाली, क्रोध से विशाल, मनुष्यों के मुख रूपी कुहर से मुक्त हंकार से जिसमें वाणों की ज्वाला उद्दीपित है, ऐसी दोनों सेनाएं भिड़ गईं। मूसल, हल, पट्टिस और सेल छोड़े जाने लगे। फैले हुए हाथों से चोटियाँ पकड़ी जाने लगीं । जो कटे हुए हाथ सिर, उर 2. AP मयंका । 3. AP आसंकउ । 4.A कयरिसोहउ। 5.AP वियाला 6. A खजणं उहालउ; P खज विरह उन्हाउ। 7. Aadds after this अण्णेसंत रामु ण णिगाउ K also has this line but scores it off. 8. दाणविलित्त । 9. AP "विषाणाई।
(4) 1P रोसविसालई।
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10
78.5.4] महाकह-पुष्फयंत-बिरहज महापुराणु
185 लुयकरसिरउरजण्हुयजुत्तइ माणगणविच्छेइयछत्तई। कलिकेलासवाससंतासई वइरिविलासहासणिण्णासइ । मायाभावगाववित्थारई
हुयवहवरुणपवणसंचारइ। किलिकिलिरवसोसियकीलालाइ दिसविदिसुट्टउमावेयालइ। मिलियदलियपक्कलपाइक्कई वसकद्दमणिमण्णरहवाकई। अंतमिलतथंतकायउलाई
वालपूलणीलियधरणियलइ । तणुवियलंतसेयसित्तंगई पविखपक्खमरुयसमसंगई। मयगलमलणमलियधयसंडई हित्तारोहजोहकोवंडई। सुरहरविणचित्तखरिदइ खम्गकंपकंपावियचंदई । घत्ता-- --असिदंडु लएप्पिणु देहि भणेपिणु परवलि परिसरकइ वियडु ।। फरपत्तधिहत्यउ को वि समत्थउ जुज्झभिक्ख' मग्गइ सुहडु 14॥
5 दुवई- महा करेहि गहएहि हि विडंकरसई ।।
कोक्कइ मासगासरसियाइपिसायई गयणि जंतइ ॥छ।। को वि सुहडु मुउ करिदंतेतरि णावइ सुत्तउ णियजसपंजरि।
को वि सुहडु अद्धिदें मंडिउ भूयहिं रुद्द व णिविसु ण छेडिउ । और जानुओं से युक्त है, जहाँ तीर समूह से छत्र काट दिए गए हैं, जो यम और शंकर को संत्रास देने वाली है, जो शत्रुओं के विलास और हास का नाश करने वाली, मायाभाव और गर्व का विस्तार करनेवाली, अग्नि पवन और वरुण के पथ पर संचार करनेवाली, किलकिल शब्द से रक्त का शोषण करनेवाली है, जिसमें दिशा-विदिशा में उग्र वैताल उठ रहे हैं, जिसमें समर्थ सैनिक मिलकर एक दूसरे को चकनाचूर कर रहे हैं, जहाँ रथचक्र चर्बी की कीचड़ में निमग्न हो रहे हैं, जहाँ काककुल आँतों से मिलकर स्थित हैं, जहाँ धरणोतल केश समूह से नीला है, शरीर से विगलित स्वेद से जो गीला हो गया है, पक्षियों के पंखों की हवा से जहाँ श्रम संगम दूर हो गया है, जिसमें मदमाते गजों के मदजल से ध्वज समूह मलिन हो गए हैं, जिसमें योद्धाओं के चढ़े हए धनुष छीन लिये गए हैं, जिसमें देवविमानों के पतन से विद्याधर राजा मुग्ध हो रहे हैं, जहाँ खड्ग के कंप से चन्द्रमा प्रकंपित है (ऐसी उस युद्धभूमि में)
घत्ता–कोई विकट सुभट तलवार रूपी दंड लेकर 'दो' यह कहकर शत्रुसेना में घूमता है, धनुष हाथ में लिये हुए कोई समर्थ सुभट युद्ध की भीख मांग रहा है।
(5) कोई सुभट, कटे हुए हाथों पैरों के होने पर भी हुंकार करता हुआ मांस के कौर का आस्वाद लेने वाले आकाश में जाते हुए पिशाचों को ललकारता है। कोई सुभट हाथी के दांतों के भीतर मरा हुआ ऐसा प्रतीत होता है मानो वह अपने यश रूपी पिंजड़े में सोया हआ हो। कोई सुभट अद्धन्दु से मंडित भूतों के द्वारा रुद्र के समान, एक पल के लिए भी नहीं छोड़ा गया। 2. दिसिविदिसुट्टियउग्ग" | 3. P "पल' | 4. P 'गल चलणमलिय'। 5.AP फरपत्त । 6. मगह जुल्मभिक्खइ।
(5) 1 P सुभड़। 2. A खंजिउ ।
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186]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराम
[18. 5.5 को वि सुहडु सिरु पडिउ ण चितइ असिवरु अरिवरकंठलु' घत्तइ। को वि सुहड रत्तद्दहि पहायउ सत्तु सिरत्यु णिएप्पिणु आयउ । कायरोसिणाहणहिरण पहरणु दीवु धरिवि उत्तिण्णउ । को वि सुहड़ परिवत्यिसाहउ णं पारोहएहि जग्गोहउ । रिजवाणहिं उच्चाइउ वट्टा पंखुत्तिण्णरुहिरु सिव चट्टइ। कासु वि सुहडडु गुजर ण रक्खइ कण्णालग्गु गिद्ध णं अक्खइ। पई समुडु' पत्थिवरिणि छूढउ लोहिउ णाइ कलंतरि' बूढउ । देहमासु वायसहं विहित्तउ उत्तमपुरिसह" एउ जि जुत्तउ । कासु वि अंगि रहंगु पइट्ठउ अन्भगब्भि रविबिबु व दिट्ठउ । पत्ता-सवहेणोसारिवि" अवर णिवारिवि जुझि वि मड्डु देह छिवइ ।
___ कासु वि सुरकामिणि लीलागामिणि माल सयंवरि सई घिवइ ।।5।। 15
दुवई-जायइ संगरम्मि वरखयरकवालचुए बसारसे ।।
__ गरकंकालमहुरवीणासरगाइयरामसाहसे ॥छ।। कोई सुभट अपने पड़े हुए शिर की चिता नहीं करता और तलवार को प्रबल शत्र के कंठ पर दे मारता है। कोई सुभट रक्त के सरोवर में नहा गया और शिरस्थ शत्रु को देखकर आ गया । कायरता के दोष के कारण मैं खंडित नहीं हुआ, (यह सोचकर) प्रहरण का दीप लेकर वह उत्तीर्ण हो गया। कोई सुभट अपनी चढ़ी हुई बाहों से ऐसा लगता है, मानो तनों से युक्त वट वृक्ष हो । शत्रुओं के वाणों के द्वारा ऊँचा किया गया वह विद्यमान है। उसके पंखों से रिसते रक्त को शिवा (सियारिन) चाँट रही है। गीध किसी भी सुभट के रहस्य को सुरक्षित नहीं रखता मानो इसीलिए कानों से लगकर वह कहता है, तुम्हारा सिर राजा के ऋण में चुक गया है। रक्त मानो व्याज में रख लिया गया है, देह का मांस कौओं में विभक्त कर दिया गया है। उत्तम पुरुषों के लिए यही उपयुक्त है। किसी के शरीर में चक्र घुस गया है, जो मेघों के बीच सूर्य बिम्ब के समान दिखाई देता है।
घत्ता-कोई देवी शपथ पूर्वक दूसरी देवी को हटाकर युद्ध में भी बलपूर्वक शरीर को छुती है। तथा लीलागामिनी वह देवकामिनी स्वयं किसी (योद्धा) को स्वयंवर में माला हालती है।
जिसमें नरकंकालों की मधुर वीणा के स्वरों में राम के साहस का गान किया गया है, तथा जिसमें वर विद्याधरों के कपाल से व्युत चर्बी का रस है3. A संघ but gloss रुद्र इव। 4. AP अरिवरणिय रह। 5. A बण्णविहिण्णउ । 6. A °सोहउ। 7.A पंखुत्तिष्णु P पुंखुत्तिण्णु | 8.A समुद्छ। 9. AP कलंतक। 10. AP उसिम । 11.A सरबहेण । 12. P अवरउ बारिवि।
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78.7.5] महाका-पुष्फयंत-बिरइया महापुराण
1187 णवर जयसिरिहरो अरिहरिणहरिबरो। कुलकमलदिणयरो अणयजणभययरो। रणियगुणधणुरयो जणियखलपरिहवो। अमियअमरिसवसो तिजगपसरियजसो। सयणकसणियदिसो फणि व विसरिसविसो। कुइयवइवसणिहो सिहि व विलसियसिहो। थरहरियमहियलो धयपिहियणह्यलो। करकलियपहरणो पवरबलजियरणो।
दढकठिणथिरकरो' पडिसुहडमयहो। पत्ता-तिहुयणरावणु रूसिवि रावणु धाइउ रामहु संमुहु किह ।।
णयमेहु व मेहहु सीह व सीहह दिसहत्यिहि दिसहत्थि जिह ।।6।। दुवई-ता करिकरसमाणकरकढियगुणधणुदंउमंडलो' ।।
कणयपिसक्कप खरुइ- रंजियमाणिमयकण्णकुंडलो ॥छ।। उक्खयदुक्खलक्खतरुकंदहु इंदइ इंदसरिसु गोविंदहु । विडविचिधु किक्किधणिवासहु वालिकंठकदलजमपासह । णि बहु णियकुलभवणपईवहु भिडियउ कुंभयण्णु सुग्गीवहु ।
ऐसे उस युद्ध के होने पर केवल जयश्री का धारण करने वाला, शत्रु रूपी हरिणों के लिए सिंह, कुल कमलों के लिए दिवाकर, अविनीतजनों के लिए भयंकर धनुष और प्रत्यंचा को ध्वनित करनेवाला, अमित अमर्ष के वशीभूत, त्रिजग में प्रसारित यश वाला, अपने शरीर से दिशाओं को काला करने वाला, नाग के समान असमान्य विष (देष) वाला, ऋद्ध यम के सदृश, आग के समान विलसित शिखा वाला, महीतल को थरथराने वाला, ध्वज से नभ तल को ढकने वाला, हाथ में हथियार धारण करने वाला, प्रबल बल से शत्रु को रण में जीतने वाला, दृढ़ और स्थूल बाहों वाला, शत्रु-योद्धा का मद हरने वाला,
पत्ता-त्रिभुवन का संतापदायक रावण ऋद्ध होकर राम के सम्मुख इस प्रकार दौड़ा जैसे नवमेघ मेघ के ऊपर, सिंह सिंह के ऊपर और दिग्गज दिग्गज के ऊपर दौड़ता है।
तब हाथी की सूंड के समान हाथ से जिसने प्रत्यंचा और धनुष मंडल खींचा है, तथा स्वर्ण बाणों को पुखकांति से जिसके मणिमय कर्णकुंडल रंजित हैं, ऐसा इन्द्रजीत, इन्द्र के समान जिसने सैकड़ों दुःख रूपी वृक्षों को उखाड़ डाला है ऐसे लक्ष्मण से, वृक्षध्वजी किष्किधा-निवासी बालि के केठ रूपी प्ररोह (अंकुर) के लिए यम-पाश के समान, स्निग्ध और अपने कुल रूपी भवन के प्रदीप सुग्रीव से कुंभकर्ण भिड़ गया। मही और महीधर के संचालन में बलवान् वीर
(6) [ AP रणियधणुगुणरयो। 2. A थियकरो। (7) I. A °मंडणो। 2. P 'पुंछरुइ
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188]
178.7.6
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण महिमहिहरचालण बलवंत रणि रविकित्ति वीरहणुवंतहु । खरकिरण ब तमतिमिरणिहायह णलिण केउ लग्गउ खररायहु । अंगयभडु आहंडलकेउहि णावइ मुणिवरिंदु शसकेहि। इंदवम्मु कुमुयह दूसीलहु ___ कयबहुदूसणु दूसणु णीलहु । "संदणचलणवलणसंफेडहिं लउडिघायजज्जरियकिरीहि । दंतिदंतसंघट्टणघोरहि
सेलसिलायलपित्तपहारहि। सव्वलमुसलकुलिसझसकोंतहि भिडि वालकरवालफुरतहि । धत्ता-रयछइयद्वियंतहि भडसासंतहिं जुज्जंतिहि खयरामरहि ॥
संचूरियमउडहि णिवडियसयहिं महि मंडिय धयचामरहिं॥
10
दुवई–ता लंकाहिवेण हलहेइहि रिछसुपिछसज्जिया।।
एक्क दुवीस तीस पण्णास सरा सहसा विसज्जिया ॥छ।। धरियलोह तेण हि अनुय दन्ना तेण जि ने मोकालज्जय। चित्तविचित्त तेण ते चलयर पहुणवंत तेण ते णपर। धम्मविभुक्क तेण ते ह्यपर रोसवसिल्ल तेण ते दुद्धर।
तिक्ख तेण ते वम्मुल्लूरण सहल तेण से आसापूरण। हत्तुमान से युद्ध में अर्ककोति, अंधकार के समूह खरराज से सूर्य की किरण की तरह नलिनकेतु भिड़ गया । इन्द्रकेतु से भट अंगद भिड़ गया जैसे कामदेव से मुनिवरेन्द्र भिड़ जाता है । इन्द्रवर्मा दुशील कुमुद से, अनेक दूषण करने वाले दूषण से नील(भिड़ गया)। रथचक्रों के चलने और मुड़ने के धक्कों, लकुटियों के आघातों, जर्जर मुकुटों, हाथियों के दांतों के संघटनों से भयंकर, शैल शिलातलों पर दिए गए प्रहारों, सब्वलों, मूसलों, कुलिसों, झसों और कोंतों से, चमकते हुए भिदिपालों और करवालों से,
धत्ता-धूल से दिगंतों को आच्छादित करने वाले, युद्ध करते हुए, विद्याधरों और अमरों से संचूरित मुकुटों से, गिरे हुए रथों और ध्वज-चामरों से धरती मंडित हो गई।
तब रावण ने राम पर रीछ के बालों के मुख से सज्जित एक दो बीस तीस और पचास तौर सहसा छोड़े। बे धरियलोह (लोभ धारण करने वाले, लोहा धारण करने वाले थे इसीलिए वे गुणच्युत (गुण, डोरी से च्युत) थे। वे ऋजुक (सीधे) थे इसीलिए मोक्ष के लिए उद्यत थे। चित्र-विचित्र थे इसलिए चंचल थे। पेहण (पंख) से सहित थे, इसीलिए नभचर थे । धर्म से विमुक्त थे, इसीलिए पर को आहत करने वाले थे। क्रोध के वशीभूत थे, इसीलिए कठोर थे। तीखे (पैने) थे इसलिए मर्म का उच्छेद करने वाले थे। सफल थे, इस आशा को पूरा करने वाले 3. A लीलह । 4. A सणचलण" । 5. AP 'करवाल मुयंतहिं । 6. A अजिमाहिति ।
(8) 1. A हलएवहि । 2. A °सूपुंछ । 3. A तीसवीस । 4. मोक्खजुय ।
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189
8. 9. 11]
महाका-पुष्फयंत-बिरहपज महापुराणु रयगय तेण जि ते पलचक्खिर पहियजोह तेण जि जयखिर । दीहायार णाय णं आया
पत्तदाण' जिह सयगुण जाया। एत णहंतें महंत भयंकर जिगिजिगंत पडिबक्खखयंकर । बाहि बाण हाणिवि काकुत्थें रावणु विहसिवि भणिउ समत्थे। घता-णियपरिणिहि अग्गइ सयणसमग्गइ घरि बाणासणु गुणिउंजिह ॥
भडरुहिररसारुणि आदि दारुणि को विधइ दहवयण तिह ।।8।।
10
दुवई-हो हो जाहि जाहि तुहु णासहि धणुसिक्वाविवजिओ॥
मा णिवडहि करालि कालाणलि लक्षणसरि परज्जिओ।।छ।। कहिं विवि मुट्ठि कहिं चावलट्ठि। कहिं बद्ध ठाणु कहिं णिहिउ बाणु। धणुवेयणाणु
बुजाहि पहाणु। गुरुगेहु मंपि
अण्णवउ कि पि। पुणु देहि जुज्म महुं तुहं सुसज्छु। सीयावहार
जज्जाहि जार। तहिं रणवमालि सुहडंतरालि। खरकरपवठ्ठ दहो? रुटु ।
णिववियदुछु इंदाइ पइट्ठ। थे। रजगत (वेगवाले) थे, इसीलिए मांस खाने वाले थे । योद्धाओं को मारने वाले थे, इसीलिए विजय के आकांक्षी थे। लम्बे आकार वाले वे मानो सांप हों, पात्रदान की तरह सौ गुने हो गए। आकापा के मध्य से आते हुए, महान् भयंकर चमकते हुए और प्रतिपक्ष के लिए भयंकर बाणों को बाणों से आहत कर, समर्थ राम ने रावण से हँसकर कहा--
घत्तारे रावण, स्वजनों से परिपूर्ण अपने घर में गृहिणी के सम्मुख जिस तरह तुमने धनुष को समझा है, भटों के रक्त रस से अरुण दारुण युद्ध में उस प्रकार कौन विद्ध करता है ?
हो हो रे रावण, तू जा-जा। धनुर्वेद शिक्षा से रहित तु जा-जा। लक्ष्मण के तीरों से पराजित तु कराल कालाग्नि में मत पड़।
कहाँ दृष्टि-मुष्टि, और कहाँ धनुर्यष्टि ? कहाँ लक्ष्य बांधा और कहाँ बाण रखा ? धनुर्वेद के ज्ञान को किसी प्रधान गुरु के घर जाकर कुछ और सीख लो। फिर युद्ध करो। मेरे लिए तुम समाध्य हो । सीता का अपहरण करने वाले रे जार, तू जा-जा। तब वहाँ युद्ध के कोलाहल से पूर्ण सभटों के बीच, खरकरों से स्पष्ट होठ चबाता हुआ, क्रुद्ध तथा दुष्टों का नाश करने वाला 5. PA पतवाणु।
(9) 1. P किह । 2. A बुजिम। 3. A अण्णमउ; P अण्णविउ। 4. P reads this line as: जज्बाहि जार, सोयाबहार। 5.पठ्ठ ।
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190]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[78.9.11
20
ता कुद्धएण
धूमद्धएण। णं जलियजाल
णं विज्जुमाल । चलज
वरिसियसरेण। कयआइयेण
तहु रावेण । धगधगधगंति
उम्मुक्क सत्ति। वच्छयलि खुत्त रत्तावलिस। णं रत्त वेस
मुच्छाविसेस। पसवणु' कुणंति हियवउं लुणेति । पत्ता-जं इंदइ जित्तउ कोवपमित्तउ तं दहमुहूं णं खयजलणु ।। ओत्यरिउ समरहिं णाणासत्यहिं दुज्जयपडिबलपडिखलणु 1914
10 दुवई—पभणइ गत्थि एण इंदइणा तुह णिहएण रणजओ' ।।
भो भो राम राम मई पहरहि संचोयहि महागओ॥छ।। हो हो एप सुडु लwिs गुलशामिति लिइ अति कड्डिज्जइ । तुहं वेहाविउ ताराकतें
अण्णु वि मुक्खएण हणुवंतें। हउँ देविदेण' विणउ छिप्पमि तुम्हहि माणुसेहि कि जिप्पमि । जाहि जाहि जा बंधवगत्तई णउ णिबडंति खुरुप्पविहत्तई। जाहि जाहि जा चक्कु ण मेल्लमि तुह सिरकमलु ण लुंचिबि घल्लमि।
दप्पुब्भडभडवंदविमदें तं णिसुणेवि पवुत्तु वलहद्दे । इन्द्रजीत प्रविष्ट हुआ। तव धूमध्वजी क्रुद्ध युद्ध करने वाले राम ने उस पर धक-धक करती हुई शक्ति छोड़ी जो मानो चलती हुई ज्वाला अथवा विद्युन्माला हो। रक्त से लिप्त वह वक्षस्थल पर जाकर इस प्रकार लगी, मानो लाल (परिधान में) वेश्या हो या मूछ विशेष हो, क्षरण करती हई या हृदय को काटती हुई।
पत्ता-जब इन्द्रजीत जीत लिया गया, तब क्रोध से प्रदीप्त, अपने समर्थ नाना शास्त्रों से अजेय प्रतिपक्ष को स्खलित करने वाला वह दशमुख उछल पड़ा, मानो दुष्ट जन उछला हो।
(10) रावण कहता है तुम्हारे द्वारा इस इन्द्रजीत के मारे जाने से युद्ध विजय नहीं है। अरे राम मुझ पर प्रहार करो। अपना महागज आगे बढ़ाओ। हो हो, उसे लज्जित होना ही चाहिए, कुलस्वामी पर इसके द्वारा भला कैसे तलवार निकाली जाएगी? तारापति सुग्रीव और मूर्ख हनुमान के द्वारा तुम प्रवंचित किए गए हो। मैं देव-देवेन्द्र के द्वारा भी स्पृश्य नहीं किया जा सकता, तुम जैसे मनुष्यों द्वारा तो कैसे जीता जाऊँगा ? जब तक खरपों से विभक्त होकर भाइयों के शरीर नहीं गिरते, जाओ-जाओ, मैं चक्र नहीं छोड़ता और तुम्हारे सिरकमल को काटकर नहीं फेंकता। यह सुनकर, दर्प से उद्भट भटसमूह का 6. A पविमुक्क। 7. AP पसरणु ।
1101 1. AP रणजओ। 2. P मुक्कएण13.Aदेबि णविउ छिप्पमि । 4. AP विहरति ।
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78. 11.8)
महाका-पुष्फर्यत-विरहबर महापुराणु
[191
10
परमणीयणसिहरणिरिक्षण मरु मरु खल अयाण दुवियरखण। कि सीहेण सरहु दारिज्जा पई मि काई लक्खणु मारिज्जइ । रूवविसेसपरज्जियमेण इ. जामि जामि जइ अण्पहि जाणइ । जामि जामि जइ सेव समिच्छहि महुं पयपंकय पणविवि अच्छहि । चत्ता-पई रणहि मारिवि भिच्च बियारिवि ढोइवि लक विहीसणहु ।।
बोल्लिउ" पालेसमि हउँ जाएसमि सहुं सीयइ सणिहेलणहु 11 011
11
दुबई–ता दसकंधरेण मणिकुंडलमंडियगंडएसयं ।।
छिणं असिसुवाइ णवणिसियइ सीयाएविसीसयं ।।छ।। रूसिवि रामहु अगाइ चित्तज' पुणु सखारु खलखुद्दे वृत्तउ । लइ लइ राहव घरिणि तुहारी एह ण होइ कया वि महारी। मुय पिय पाच्छांव मुच्छिउ रहुवइ करपहरण णिवडिउ ण विहाव। सित्तउ हिमसीयलजलधारहि आसासिल चमरिरहसमीरहि। कह व कह व संजाउ सचेयणु कण्णामुहणिहित्तथिरलोयणु। ताव विहीसणेण विण्णत्तउं सीयामरणु ण देव' णिरुत्तउं ।
विमर्दन करने वाले बलभद्र ने कहा-रे दूसरों की स्त्रियों के स्तन के अग्रभाग को घूरने वाले अपंडित अज्ञानी दुष्ट मर-मर, क्या सिंह के द्वारा शरभ विदीर्ण किया जाएगा? तुम्हारे द्वारा तो भला क्या लक्ष्मण मारा जाएगा? अपने रूप विशेष से मेनका को पराजित करने वाली जानकी यदि तुम दे दो तो मैं जाता हूँ। मैं जाता हूँ, जाता हूँ, यदि तुम मेरी सेवा करना मान लेते हो और मेरे चरणकमलों को प्रणाम करके बने रहते हो।
__घत्ता-तुम्हें रणमुख में मारकर, भृत्य का विचार कर, विभीषण को लंका देकर, मैं अपने कहे हुए का पालन करूँगा और सीता देवी के साथ अपने घर जाऊँगा।
तब, मणिकुंडल से मंडित है गंडदेश जिसका ऐसे दशानन ने सीता देवी का सिर छुरी से काट दिया और ऋज होकर राम के आगे डाल दिया और फिर उस दुष्ट छुद्र ने कहा-रे राघव, ले-से अपनी गृहिणी, यह कभी भी हमारी नहीं होगी। अपनी प्रिया को मरा हुआ देखकर राम मूठित हो गए। उनके हाथ से शस्त्र गिर गया परन्तु वह नहीं जान सके । हिम से शीतल जल धारा से सिक्त वह चामरों की हवाओं से आश्वस्त हुए। वह किसी प्रकार बड़ी कठिनाई से सतन हुए। उन्होंने अपने स्थिर नेत्र कन्या के मुख पर कर लिए। इतने में विभीषण ने कहा-हे 5. P परविंद। 6. A सिहेण । 7. AP पाव। 8.A'परिज्जिय° 9.A रणमुहि । 10. AP बोलिट।
(11) 1. AP दहकधरण। 2. AP असिसुया, मायामयसीयाएषि । 3.P वित्तउ। 4. AP सीययजस। 5. AP कंतामुह 16. A°णित 7.AP हो।
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192] महाकवि पुष्पवात विचित महापुराण
[78. 11.9 बयरिवेश दिट्ठतुहथाएं इंदियालु दरिसाधित भाएं। ता दहमुहेण भाइ दुम्बोल्लिउ पई पियवंसुम्मूलिवि घल्लिउ । विणु अब्भासबसेण सरासइ गोत्तकलिइ लच्छि ध्र बु"णास एउण चितिउ कुलविबसण दुम्मुह दुट्ठ कट्ठ दुइंसण । परह मिलेर का किर लहलं पई अप्पाण अप्पणु खद्धउं । घत्ता–आरुट्ठ करिवरि चलपसरियकरि जो आसंघइ बालतणु ।। महिहरु मेल्लेप्पिणु महि लंघेप्पिणु मरई मणुउ सो मूढमणु 1111 15
12 दुवई-मइ कुद्ध ण रामु कि रक्खइ भडहणहणरवालए॥
भाइय आउ जइ सक्कहि भिडु इह समरकालए॥छ।। तं णिसुणेप्पिणु पह पणवेप्पिणु । णवधणणीसणु भणइ विहीसणु। जइ पिउ जंपहि सीय समपहि। णिवणयजुत्तड दसरहपुत्तहु। होसि सहोयर तो तुहुं भाय। सामि महारउ सयणपियारउ। पण तो लज्जमि मउ पडिवज्जमि। तुम सुहित्तणु दुजसकित्तणु ।
होइ असारें इ8 जारें। देव, यह निश्चित रूप से सीता का मरण नहीं है। तुम्हारे घात के देखनेवाले मेरे भाई में यह इन्द्र जाल दिखाया है। तब रावण ने अपने भाई (विभीषण) से कहा- तुमने अपने देश की जड़ को उखाड़ कर डाल दिया । अभ्यास के बिना सरस्वती और गोत्र की कलह से लक्ष्मी मिश्चित रूप से नष्ट हो जाती है। रे कुल के विध्वंसक दुष्ट दुर्मुख कठोर एवं दुदर्शनीय, तूने इसका विचार नहीं किया? दूसरों से मिलकर आखिर तूने क्या पा लिया? तूने अपने को अपने से खाया?
पत्ता-चंचल और प्रसरित सूंड वाले हाथी के कुल होने पर, जो पर्वत छोड़कर और धरती का उल्लंघन कर बालतृण का आसरा लेता है, मूढमन वह व्यक्ति मारा जाता है।
(12) मेरे ऋद्ध होने पर जिसमें भटों का मारो-मारो शब्द हो रहा है, ऐसे समरकाल में क्या राम तुम्हें बचा सकता है ? हे भाई आओ और जहाँ तक हो सके यहाँ से युद्ध करो। यह सुनकर और प्रभु को प्रणाम कर नषधन के समान शब्द वाला विभीषण कहता है यदि तुम प्रिय कहते हो तो सीता को राजाके न्याय से युक्त दशरथपुत्र राम को सौंप दो। तभी तुम मेरे सगे भाई हो। तभी मेरे स्वामी और स्वजनप्रिय हो, नहीं तो मैं अपने को लज्जित मानता हूँ और अपयश के कीर्तन तुम्हारे स्वजनत्व को स्वीकार नहीं करता। असार इष्ट मित्र रहे, जिसमें धड़ घूम रहे हैं । पता8. AP इंदजालु । 9. A पई णियकुलु उम्मूलिवि। 10. AP धुउ। 11.A add after this : एवमेव ममउ संतास; K writes the linc but scores it off. 12-AP वहरिहिं। 13. A आसाइ।
(12) 1.हउँ ।
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78.13.4]
महाका-पुप्फर्यत-दिराम महापुराणु भमियकबंधइणिवडियचिंधइ। महिचुयलुयभुइ ता तहिं संजुइ । कयवीराहवि मेइणिराहवि । बहदाराहवि लग्गउ राहवि। भोसणु रावणु परभारावणु। रंजियसुरसह बे वि महारह । रणभरधुरखम बे वि सविक्कम । पडिहरि हलहर धवलियकुलहर । बेवि महाजसणं आसीविस । फणिकालाणण णं पंचाणण।
हिमसमतमतणु आयड्ढियधणु। पत्ता-कंपावियजलथल छाइयणयल रणि मेलावियअमरयण ॥ सहरिस गलगज्जिय खयभयवज्जिय णा दिसागय कुइयमण ।। 1 21
13 दुवइ-रावण राम बे वि जुज्झति सुरोसवसा महाभडा ।।
छुडु छुडु ढुक्क मुक्क बाणावलि छुडु छुडु छिष्ण वयवडा ॥छ।। छुडु छुडु गाणाजाणई भिषणई छुड़ छुड धवलई छत्तई छिण्णई।
छुडु' णरमंडखंडमंडिय महि छुड़ गय घट्टिय लोट्टिय' सारहि । काएं गिर रही हैं, धरती पर कटी हुई भुजाएं पड़ी हुई हैं, ऐसे उस युद्ध में-जिसने वीरों का आह्वान किया है, जो धरती की शोभा की रक्षा करने वाले हैं, जिन्होंने अनेक द्वारों की रक्षा की है, ऐसे राम के साथ रावण लग गया (भिड़ गया) 1 रावण भीषण था, शत्रुओं को मारने वाला था। वे दोनों महारथी सुर सभा को रंजित करने वाले थे। दोनों रणभार उठाने में सक्षम और पराक्रम से सहित थे। रावण और राम जैसे धवल मंदराचल हों। दोनों ही महायशस्वी मानो सांप हों। नाग जैसे काले मुखबाले थे। मानो सिंह थे। हिम और अंधकार के समान शरीर वाले अपने धनुष ताने हुए
पत्ता-जिन्होंने जल-थल को कंपा दिया है, आकाश थल को आच्छादित कर दिया है, और युद्ध में देवों को इकट्ठा किया है, ऐसे वे दोनों स्वाभिमान से गरजते से हुए, क्षय भाव से रहित जैसे कुपितमन दिग्गज थे।
(13) अत्यन्त क्रोध के वशीभूत होकर महाभट राम और रावण आपस में युद्ध करते हैं। वे शीघ्र ही बढ़े और बाणावली छोड़ी। शीघ्र ध्वज छिन्न हो गए । शीघ्र नाना यान छिन्न-भिन्न हो गए। धवल छत्र कट गए। शीघ्र धरती मनुष्यों के धड़ों के खंडों से पट गई। शीघ्र ही रय चकनाचूर 2. P आसाविस । 3. AP हिमतमसमतणु । 4. P मेल्लाविय
(13) I. AP सरोस 2. AP छा गर । 3. A लुटिय' ।
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194]
महाकवि पुष्पवन्त विरचित महापुराण
संदण मुसुमूरिवि घल्लिय छड छुड रामु धामु जा दावइ tara जुज्झि वावरइ सहोमरु This frसुणि देव सीराउ राम राम रामामणहारण हर्जन
कटोरकिपल
जीवमि जाम वइरिमारणविहि ताव एउ पई पविच्छुरियउं
पडिमयगल' मायंगहि पेल्लिय । जान खगिंदु रहेंगु विहावइ । तावंतरि पठ्ठे दामोयरु । वीर पउम चुंबियपमा मुह । सुबलासुर अरिविदवियारण । भाइ तुम पविरोलियपरबलु | afr" रयणियविधणिव तरुसिहि । सई करेण किं पहरणु धरियजं ।
धत्ता — रक्खियकुलगिरिपरि हउं तेरउ हरि मुइ मुइ मई आलद्धजन || पविखरसरणहरहिं अविरलपहरहिं दारमि दहमुह मत्तगज ॥13॥
14
दुबई --ता रामेण कण्डु मोक्कल्लिउ' बोल्लिउ तेण दहमुहो || रे अपवित्त धुत्त परणारीरत म थाहि समुहो || छ
विहिदुव्विलसिउं तुहुं वि महीसरु कुई तुह दहमुह हव
ओसरु ओसरु मा संधहि सरु । राहवरायपायराईवरं ।
(78. 13. 5
S
10
कर फेंक दिए गए। मदगजों के द्वारा प्रतिमदगज पीछे धकेल दिए गए। शीघ्र जब तक राम अपने धाम को दिखाते हैं और जब तक विद्याधरेन्द्र रावण चक्र दिखाता है। और जब राम युद्धव्यापार करते हैं, तब तक सहोदर लक्ष्मण वहाँ प्रविष्ट हुआ। उसने कहा- हे देव, लक्ष्मी का मुख चूमने वाले वीर पद्म (राम) श्री राघव, हे राम-राम, ललनाओं (स्त्रियों) के मन को हरण करने वाले, सुबला के सुत, शत्रु समूह का नाश करने वाले हे राम, विशाल और कठोर करतल वालाशत्रुबल का मंथन करने वाला मैं तुम्हारा भाई जब तक जीवित हूँ तब तक शत्रुओं के लिए मारणविधि एवं निशाचर-ध्वजी नृप रूपी वृक्षों के लिए आग हूँ। तो फिर अपनी प्रभा से विच्छुरित यह अस्त्र भला आपने अपने हाथ में क्यों धारण किया ?
घत्ता - जिसने कुल रूपी गिरि की घाटी की रक्षा को है, ऐसा मैं तुम्हारा सिंह हूँ । आलब्धजय, तुम मुझे छोड़ो-छोड़ो, वज्र और तीव्र तीर रूपी नखों और अविरल प्रहारों से मत्तगज दश मुख का विदारण मैं करूँगा ।
4. AP पडिमयंग 5. A देव णिसुणि 6. AP कठोर° 7. A परितोलिय । 8 A जण रय । ( 14 ) 1 A मोकलियउ ।
(14)
तब राम ने लक्ष्मण को मुक्त कर दिया। उसने रावण से कहा- रे अपवित्र धूर्त, परस्त्री में रत, तू मेरे सम्मुख मत ठहर । भाग्य से दुर्विलसित तू भी महीश्वर है। हट जा हट जा, तू शरसंधान मत कर। राजा राघव के नखों से प्रदीप्त चरणकमल तुझ पर क्रुद्ध हैं। आज तेरी
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10
15
78. 15.5] महाका-पुष्फयंस-विरहपत महापुराण
[195 अज्जु तुज्झु परमाउसु पुण्णउं जिह तृयरयणु कुसील ण दिण्णउं। मई मुक्काई दसास णियच्छहि तिह एवहिं पहरणई पडिच्छहि । कयसमरेण गहियरिउजीवें तं णिसुणेवि वुत्तु वहगी।। तल्लरजलि कइलासु'वि जलयरु अदुमगामि एरंडु वि तरुवरु । खलसुग्गीयरामणलहणुयहं तारकुंदकुमुयह खगमणुयहं । एयह मज्झि तुहं मि भडु भण्णहि तेण बप्प मइं रणि अवगण्णहि । मुइ मुइ तेरउ आउहु केहउं महु मयंगमसयंतर जेहउं । भण विक्रीस जज्झसमत्थहं पह मेल्लेसह मायासत्थई। चिंतहि तुहं पण्णत्ति जणदण लहु करि मायावाहण पहरण । घत्ता-तं तेम करेप्पिणु भुय विहुणेप्पिणु अभिट्टउ दहमुहहु हरि। कइयणवयणुत्तिहि महणपवित्तिहि गाइ समुह सुरसिहरि ।। 14॥
15 दुवई-बेण्णि वि पीयवास बेण्णि वि णीसंजणगरलसामया ।।
दोहि मि 'कुलिसकपकसंकुसवस चोइय मत्तसामया ॥छ।।
बे वि कुद्ध बद्धठाण मुक्क तेहि दिव्व बाण। रामणेण मुक्कु णाउ लक्खणेण पक्खिराउ।
रावणेण अधयारु लक्खणेण मुक्क सूरु । परम आयु पूर्ण हुई। रे कुशील, जिस प्रकार तू ने स्त्रीरत्न को नहीं दिया उसी प्रकार रे दशमुख, मेरे द्वारा छोड़े गए प्रहरणों को देख और उन्हें स्वीकार कर। यह सुनकर युद्ध करने वाले, तथा जिसने शत्र के प्राण ग्रहण किए हैं, ऐसे दशानन ने कहा-छोटे तालाब में कछुआ भी कैलाश है ! बिना पेड़ के गाँव में एरंड भी वृक्षवर है। दुष्ट सुग्रीव, राम, नल और हनुमान्, तारकुंद, कुमुद तथा विद्याधर मनुष्यों के मध्य तुम भी भट कहलाते हो ! इसीलिए युद्ध में तुम मेरी उपेक्षा कर रहे हो । छोड़ो-छोड़ो, तुम्हारे आयुध में उतना ही अंतर है जितना कि हाथी और मशक में। विभीषण कहता है-स्वामी, युद्ध में समर्थ यह रावण मायावी अस्त्र छोड़ेगा। हे लक्ष्मण, तुम प्रज्ञप्ति विद्या का चितन करो, तुम शीघ्र ही मायावी अस्त्र ले लो।
घत्ता-तब उस प्रकार कर, अपनी भुजाओं को ठोक कर, लक्ष्मण दशमुख से भिड़ गया जैसे स्वरश्रेष्ठ कविजनों की उक्तियों से तथा मंथनप्रवृत्त देवपर्वत (सुमेरु) समुद्र से भिड़ जाता है।
(15) दोनों के पीले वस्त्र थे। दोनों हो नीलांजना और गरल की तरह श्याम थे। दोनों ने ही घष के कठोर अंकुश से वशीभूत मतवाले श्याम गज प्रेरित किए।
वे दोनों ही बद्धलक्ष्य थे। दोनों ने दिव्य बाण छोड़े। रावण ने नागबाण छोड़ा, लक्ष्मण ने गरुड़गज तीर छोड़ा । रावण ने अंधकार बाण छोड़ा, लक्ष्मण ने सूर्यबाण। रावण ने 2. AP तिपरयणु । 3. AP बुत्तउ । 4. A किकलासु; T किकलासु परेवकः (१) अथवा किकालसु कुरुविलः (?); K records ap: अथवा किकलासु कुरुविल जीवं न तु गजमत्स्यादयः, 5.P मयंगसमयंतरू।
(15) I.A कुलिसचमकसंकुस'
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196] महाकवि पुष्पवरत विरचित महापुराण
178.15.6 रावणेण मेरु चंड लक्खणेण वज्जदंडु । रावणेण बाबा मेमा रिही। रावणेण वारिवाह लक्खणेण गंधवाहु । रावणेण चिच्चिजाल लक्खणेण मेहमाल । राबणेण दंति दीहु लक्खणेण मुक्क सीह। रावणेण रक्खसिंदु लक्षणेण खेजविंदु । रावणेण रत्तिणाहु लक्खणेण मुक्क राहु। रावणेण मुक्कु रुक्खु लक्खणेण दुण्णिरिक्खु ।
पज्जलंतु जायवेउ दिग्गयग्गलग्गतेउ। घता-सुरसमरसमत्थें विज्जासत्थे जेण जेण रावणु हणइ ।। पंडिवक्खोहूएं भासुररूतं तं लकखणु णिल्लुणइ ।।१३।।
16 दुवई-ता धगधगधगंतु खयजलणु वखेयरलच्छिमाणणो॥
___ खणि बहुरूविणीइ बहुरूवहिं उद्धाइउ दसाणणो ॥छ।। गयवरि गयवरि हयदरि हयवरि रहवरि रहरि परवरि परवरि। नेगरि अभिडंति पवरामरि छत्ति विमाणि जाणि धइ चामरि । चउहं मि पासहिं भडु भीसावणु' जलि थलि महियलि पहलि रावणु। 5
वीसपाणिपरिभामियपहरणु तिणयणगलतमालसंणिहतणु।। प्रचंड मेरुबाण छोड़ा, लक्ष्मण ने वनदंड। रावण ने शीघ्र अश्वबाण छोड़ा, लक्ष्मण ने प्रचंड महिष बाण। रावण ने मेघबाण छोड़ा, लक्ष्मण ने पवनबाण। रावण ने अग्निबाण, लक्ष्मण ने मेघमाल । रावण ने दीर्घगज छोड़ा, लक्ष्मण ने सिंहबाण । रावण ने राक्षसेन्द्र, लक्षमण ने क्षेमवद । रावण ने कामबाण छोड़ा, लक्ष्मण ने राहु बाण । रावण ने रूक्ष बाण छोड़ा, लक्ष्मण भी, जिसका तेज दिग्गजों के अग्र भाग को लग रहा है ऐसा, अग्निबाण छोड़ा।
पत्ता-देव-युद्ध में समर्थ जिस-जिस विद्याशस्त्र से रावण आक्रमण करता, उसके प्रतिपक्षीभूत तथा भास्वर रूप उस-उस बाण से लक्ष्मण उसे नष्ट कर देता।
(16) तब प्रलयाग्नि के समान धक-धक करता हुआ लक्ष्मी का अभिमानी, विद्याधर रावण क्षण-क्षण में बहुरूपिणी विद्या के साथ दौड़ा।
गजवर-गजवर पर, अश्ववर अश्ववर पर, रथवर रथवर पर, नरवर नरबर पर, खेचरप्रवर अमर, छत्र विमान यान ध्वज और चामरों पर जा भिड़े। चारों ओर भयंकर योद्धा रावण पल में जल, थल, महीतल और नभतल में था। अपने बीसों हाथों से अस्त्रों को घुमाता हुआ, शिवकण्ठ और तमाल के समान शरीर वाला, गुंजाफलों के समान अरुण नेत्रवाला, मारो-मारो 2. A सेरिहासु; T सेरिहेसु ।
(16) 1. AP धगधगंतु । 2. AP°वणीए । 3. A पउरामरि; P पउरपबरामरि । 4. P भीसामणु ।
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78. 17.3]
महाका-पुत्फयंत- दियउ महापुराणु
197 गुंजापुंजसरिसणयणारुणु । हणु हणु हणु भणंतु रणदारुणु । अग्गइ पच्छइ चंचलु धाव मणहु वि पासिज वेएं पावइ । गयकुभयलई पायहि पेल्लइ झ ति दंत उम्मूलिवि पल्लइ। परिभमंतकरिवरकर वंचइ हिस्खई गेज्जावलिय णिलुचई । 10 सारिउ कसमसंति मुसुमूरइ अंतरसेणासणिय वियारइ। विलुलियकण्णचमर अच्छोडइ कच्छोलंबिय घंटिय तोडइ । असिणा दारह मारइ मयगल घिवइ णहंगणि चलमुत्ताहल। पत्ता-भीमाहवचंडहिं" दवभुयदंडहिं त्रप्पिवि हुंकरेवि धरह। करि रोहइ जोहइ करणहि मोहइ दसणविहिष्णु" विणीसरह ।।16।। 15
17 दुवई-फोडिवि सवारसीसक्कई सिरई सकवयगत्तई॥
शिदिवि पक्खराउ हय मारिवि परियाणई विहित्तई छ।। गयणयलि लग्गेवि कहकहरवं हसिवि बहुरूविगी रामकेसवहं गय तसिवि । ता' रक्खधयलक्खणा गुलुगुलंतेहिं रिउदुज्जया लोहदढमढियदंतेहि।
णवजलहरेहि व जललव मुयंतेहिं चलकण्णतालेहिं सुरगिरिमहंतेहिं । कहता हमा, युद्ध में भयंकर रावण चंचल हो आगे पीछे दौड़ता है। मन से भी अधिक वेग से वह जाता है। गजकुंभ-स्थलों को वह पैर से पेल देता है, शीघ्र ही हाथी के दांतों को उखाड़ देता है, घूमते हुए करिवरों को संडों से वंचित करता है, ग्रीवा से क्षुद्र घंटिका रूपी नक्षत्रों को तोड़ लेता है। कसमसाते हुए गज-पर्याणों को मसल डालता है। सेना के भीतर स्थित लोगों को विदीर्ण कर देता है। चंचल कर्ण रूपी चमरों को छिटक देता है। कच्छा (झूल) से लटकती हुई घंटियों को तोड़ डालता है। सलवार से हाथियों को विदारित कर मार डालता है और मुक्ताफलों को आकाश में बिखेर देता है।
घत्ता-भीमयुद्ध में प्रचंड दृढ़ भुजदंडों से चाँपकर और हुंकार कर वह हाथी को पकइता है, उसे रोकता है, देखता है, आवर्तन आदि घेष्टाओं से उसे मोहित करता है और दांतों से विभक्त होने पर भी उनमें से निकल आता है।
(17) अश्वारोहियों के शिरस्त्राणों, सिरों और कवच सहित शरीरों को नष्ट कर, कवधों को काटकर, अश्वों को आहत कर, उनके पर्याणकों को विभक्त कर देता है। आकाशतल से लगकर कहकहाकर हंसता है। इस प्रकार बह अनेक रूपों में राम लक्ष्मण को प्रस्त करके चला । तब राक्षस-ध्वजियों के समान लक्षणवाले, शत्रु के लिए अजेय वे दोनों, जिनके दांत लोहे से खूब मढ़े हुए हैं, जो मेघों के समान जलकण छोड़ रहे हैं, जो चंचल कर्णतालों से युक्त हैं, जो सुमेर 5. PA घावइ । 6. A 'करि वचइ । 7. AP. रिवखें। 8. AP घंटउ । 9. A भीमाह । 10. P विहित।
(17) 1. AP तोडिवि। 2.बिहतई। 3. A ताररक्षय :P तो रक्सनयं । 4. P गलिय।
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198]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
"झणझणियमणिकिंकिणी सोहमाणेहिं अणवरयकरडयलपरिगलियवाणेहि' । सोवण्णसारीणिबद्ध, सचिधेहि करणासियागहियगयणाहुगंधेहिं । दंतग्गभिण्णग्गखग रहतुरंगेह
बेवि थिय रायणि मायामयं गेहिं ।
ता मुक्कदहमुहिण पच्छश्य हमाय विसविसम गुरुविसहरायार णाराय । तप्पंजरे छूट' तेणारिविद्दवणु अलिकसणु हणवसणु बीभवणु सिरिरमणु । पुणु पहणावरणि मणि विज्ज संभरिवि सरणियरु जज्जरिवि हुंकरिवि णीसरिवि । जा बीरु उत्थरिवि चप्परिवि पइसरइ स रहंगु तहिं ताम धरणीसरी सरइ | घत्ता — णवचंदणचच्चि कुसुमहिं मंचिउ रमणाराकिरणोहदलु ॥
गं रावणलच्छिहि कमलदलच्छिहि करयलाउ विडिउ कमलु ||17||
18
दुबई— रूसंतेण तेण महुमणमहासुहडे णिलोइयं ॥
तं कुडिलयर चडुलतडिवलयणिहं गयणे पधाइयं ॥ छ ॥ ता दिट्ठ णहि एंतु सहसति विडंतु । धाराकराले हिं करवालसूले हिं' । क्षसमुसलसेल्लेहि वावत्यमरहिं ।
[78. 17. 6
5
पर्वत की तरह महान हैं, जो झन झन करती हुई मणि रूपी किंकणियों से शोभित हैं, जिनके गंडस्थल से अनवरत मदजल झुर रहा है, जिनके स्वर्ण-पर्याणों पर ऊंचे ध्वज बँधे हुए हैं, कानों के कारण भ्रमर जिन महागजों से गंध ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं, जिनके दाँतों के अग्र भागों से विद्याधरों के रथ और अश्व भग्न हैं, ऐसे मायागजों से आकाश में स्थित हो गए। तब उस रावण द्वारा मुक्त, विशाल विषधर आकारवाले, विष से विषम तीर आकाश में आच्छादित हो गए । उस तीरपंजर में शीघ्र ही जब शत्रु का विदारक, भ्रमर की तरह श्याम, दुःख का नाश करने वाला भयंकर वीर लक्ष्मण, फिर अपने मन में प्रहरणावरणी विद्या का स्मरण कर, शरसमूह को जर्जर कर, हुंकार कर निकलकर उछलकर चापकर प्रवेश करता है तब वह धरणीश्वर रावण च का ध्यान करता है।
घत्ता - नय चंदन से चचित, फूलों से अंचित, रत्नों की आराओं के किरणसमूह के दल वाला चक्र इस प्रकार गिर पड़ा मानो कमलदल के समान आँखों वाली रावण की लक्ष्मी के करतल से कमल गिर पड़ा हो ।
(18)
क्रुद्ध होते हुए रावण ने उसे महासुभट लक्ष्मण में नियोजित किया । कुटिलतर और चंचल विद्युद्वलय के समान वह चक्र आकाश में दौड़ा ।
तब वह आकाश में आता हुआ और सहसा गिरता हुआ देखा गया । धाराओं से कराल करवालों और शूलों, इसों, मूसलों, सेलों बावल्लों और भालों से तथा शत्रुजनों के लिए कृतांत 5. AP वणुरुणिय। 6. A अणव रयपरिगलियकरडयलदाणेहिं । 7. A दंतरिगणिधिष्णग 18, A दहवण । 9. P छट्टु । 10. 4 धीभवणु ।
(18) 1. A करवालवाले हि । 2. A मुसलसल्ले हि ।
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[199
78. 19.1]
महाकर-पुष्पार्वत-विरदय महापुराण अरिणरकर्यतेहि
कंपहिं कोंतेहिं। कयकाहपरवेण
गवएं गवक्खेण। कुमुएण कुदेण
चर्दै महिदेण'। सत्तुहणभरहेण
णीलेण सरहेण। सुग्गीवणामेण
हणुवेण रामेण । पडिखलिउ गउ बलिउ अमरत्थु संचलिउ । रणसिरिहि कुंडलु व णवरविहि मंडलु व। जसवल्लरीदनुव
भुयजुयलतरु फलु । माणिक्कगणडिउ लक्खणहु करि चडि। घत्ता-जं चक्कसमिद्धा कण्हें लड तं णारउ णहि पच्चियउ' ।
आणदरसोल्लिउ सिरिथणपेल्लिउ राउ रामु रोमंचियउ || 18।।
10
19
दुवई-णिवडिय कुसुमविछि कउ कलयलु हरिसिय उरयसुरगरा ॥
भामिदि चक्क भणिज गोविदें विसरिस णिसुणि दससिरा ।।छ।। संदण तुरंग मयमुइयभिंग। करि गलियगंड मेइणि तिखंड। असि चंदहासु लंकाणि वासु । ससहरसमाणु पुप्फयविमाणु ।
वइदेहि देहि मा खयहु जाहि । कंपनों और कोंतों के साथ लक्ष्मण का पक्ष लेने वाले गवय, गवाक्ष, कुमुद, कुंद, चन्द्र, महेन्द्र, शत्रुघ्न, भरत, सरथ, नील, सुग्रीव, हनुमान् और राम के द्वारा वह चक्र प्रतिस्खलित नहीं हुआ, वह मुड़ गया। अमरशस्त्र (चक्र) चल पड़ा। रणलक्ष्मी के कुंडल के समान, नव रविमंडल के समान, यशरूपी लतादल के समान, बाहुयुगल के तरुफल के समान, माणिक्यसमूह से विजड़ित वह चक्र लक्ष्मण के हाथ पर चढ़ गया ।
घसा-जन चक्र की समृद्धि को लक्ष्मण ने धारण कर लिया तो आकाश में नारद नृत्य कर उठे । आनंदरस से उलित तथा लक्ष्मी के स्तनों से प्रेरित राजा राम भी रोमांचित हो उठे।
(19) कुसुमवृष्टि होने लगी। कल-कल होने लगा। नाग, सुर और मनुष्य हर्षित हुए । चक्र घुमाते हुए गोविंद ने कहा-रे दशमुख, यह विशेष बात सुन ! स्यंदन, तुरंग, मद से मुदित भ्रमर जिस पर है ऐसा गलितगंड हाथो, त्रिखंड धरती, चन्द्रहास कृपाण, लंका निवास, चन्द्रमा के समान पुष्पक विमान और वैदेही दे दो, विनाश को प्राप्त मत होओ, राम को संतुष्ट करो, उनके चरणों में प्रणाम करो। तेज रहित अपनी पत्नी के साथ जीवित रहो। तब ओंठ चाबते 3. A मयदेण । 4. A aruits this foot. 5.A णहवडिउ। 6. AP चक्क 1 7. AA णघिउ । 8. A रामु रार। 9. AP रोमंघिउ ।
(19) 1. PA "मुइयसिंग। 2. P ससहरू।
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200]
महाकवि पुष्पकम्त विरचित महापुराण
178. 19.8
10
तूसबहि रामु करि' पयपणामु। जीवहि अतेउ कंतासमेउ। दट्टाहरेण
असिवरकरेण । असमंजसेण
अमरिसवसेण। ता भणि तेण णिसियरधएण। पाइक्कतणय णिम्मुक्कविणय। तुम्हई वराय कि मज्झु राय। णियजीवधरण सुग्गीवसरणु। पइसरहु जद्द बि णुव्वरह तइ वि। विगयावलेव देव वि अदेव। भडभिडणसंगि महुं जुज्झरंगि। किं गणिज रामु तुहुं हीणथामु। जजाहि रंक मगंतु लंक। लज्जहि ण केव हिय सीय जेव। अवराउ तेव
परिचत्तसेव'। रामाणियाउ
रायाणियाउ। लेसमिछलेण णियभुयबलेण.। इय भणिवि भीमु दुल्लंधधामु। आबद्धको
मेल्लरु सरोहु। आइड्ढचाउ
रायाहिराउ। जा उगभाउ वीसद्धगीउ । ता तक्खणेण तहिं लक्खणेण। णं खयययंगु
मुक्कउ रहंगु। आयउ तुरंतु
धारापुरंतु। हुए, हाथ में तलवार लिए हुए, उस निशाचरध्वजी ने कहा-जो दुविनीत मानवपुत्र है क्या बह तुम्हारा.बेचारा (राम) हमारा राजा होगा? अपना जीवधारण करने वाला यदि वह सुग्रीव की भी शरण में जाएं तो भी उसका उद्धार नहीं हो सकता। देव और अदेव भी, भटों की जिसमें भिड़त है, ऐसे युद्धरंग में अहंकार शून्य हो जाते हैं, हीनशक्ति तुम्हें और राम को मैं क्या गिन? रे दरिद्र जा-जा, लंका मांगते हए तो शर्म नहीं आती। रे सेवा का परित्याग करने वाले, जिस प्रकार सीता को अपहृत किया गया है, उसी प्रकार दूसरी भी रानियों को मैं अपने भुजबल और छल से ग्रहण करूँगा। यह कहकर भयंकर, राजाधिराज अलंध्यधाम रावण क्रोध से भरकर धनुष तानकर उन भाव से शर समूह छोड़ता है। तब उसी क्षण लक्ष्मण ने क्षयकाल के सूर्य के समान चक्र छोड़ दिया। धाराओं से स्फुरित होता हुआ वह तुरंत आया। 3. फयपय । 4. A गउ उव्वरह तइ वि; Pणउ उखुरहो तइ वि। 5. Padds after this : पिण्णटणामु, संगामकामु। 6. A तुई दिण्णधामु, 7. A परचिण्णसेव । 8. Pाब। 9.AP भावनाउ। 10. AP
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1201
78.20.9]
महाकह-पुप्फयंत विरचिया महापुराणु अरितावणेण
तं रावणेण। भुयखलिउ जइ वि बलि मड्ड तइ वि। वच्छयाल लग्गु को किरण भग्गु ।
णिवसिरिपमत्तु परणारिरत्तु । घत्ता-दहवयणह केरउ दुहुई जणेरउ तिक्खइ धारइ सल्लियउं ।। परपरिणीमंदिर हियत असुंदर चक्क फाडिवि घल्लियां ।। 19॥
20 दुवई–ता दहबयणि पडिइ पडियई सुरकुसुमई सिरि उविदहो ।।
हउ दुंदुहि गहोरु जउ घोसिउ पसरिय दिहि सुरिंदहो ॥छ।। । ता सुहडेहि दिछु रणमहियलु' वणवियन्नियलोयिजलजंजलु । भग्ग रहंग रहहि परिवाहि म पगहि वंसविरहियहिं। चामर पडिय हंस णं मारिय घुलिय जोह पडिजोहवियारिय । मोडियदंडई छत्तइंधवलई दिदुई णाइ अणालई कमलई। छिण्णगुणई महिलुलियइं चाबई णं खलचित्तई भंगुरभाव।। धम्मगुणज्झिय सुद्धिइ जुत्ता बाण रिसिव्व मोक्खं संपत्ता। दाणवंत मत्थयखणणुज्जय' यावइ पिसुण' सर्ट णिरु दुज्जय।
शत्रुओं को सताने वाले रावण ने यद्यपि बलपूर्वक (पकड़ना चाहा) तब भी भुजाओं से स्खलित होकर उसके वक्षस्थल से जा लगा। उससे कौन भग्न नहीं होता? राज्यलक्ष्मी से प्रमत्त, परस्त्री में अनुरक्त,
घत्ता–दुःखों का जनक, परस्त्रियों का घर स्वरूप, तीखे शल्यों से भेदा गया, रावण का असुन्दर चित्त चक्र ने फाड़कर डाल दिया ।
(20)
रावण के धरती पर पड़ते ही लक्ष्मण के सिर पर दिव्य पुष्पों की वृष्टि होने लगी। गंभीर दुंदुभि बज उठी । जय घोषित होने लगी। देवेन्द्र का भाग्य प्रसारित होने लगा। .
उस समय योद्धाओं ने युद्धभूमि को देखा जो घावों से रिसते रक्त रूपी जल का तालाब था। रथों रथिकों, बांसों से रहित फटे हुए ध्वजारों के साथ चक्र भग्न हो गए। चामर गिर गए, मानो हंस मारे गए । विदारित योद्धा और प्रतियोद्धा पड़े हुए थे। टूटे हुए दंडों वाले धवल छत्र ऐसे लगते थे मानो विना मृणाल के कमल हों। डोर कटे धनुष धरती पर पड़े हुए थे मानो भंगुर भाव वाले दुष्टों के चित्त हों। धर्म गुण से रहित तथा शुद्धि से युक्त ऋषि की तरह बाण मक्ति पा गये थे। अंकुश से युक्त गज ऐसे प्रतीत होते थे, मानो अत्यन्त दुर्जेय दुष्ट हों ।
10. A वलवंड; P वलियंडु ।
(20) | A रणि महियन । 2. AP मोक्खु णं पत्ता। 3.A "मंथय'। 4.Aपिसुणसत्थु ।
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202]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
कुडिल लोहणिम्मिय पडिअंकुस खलिई विडियाइं पल्लाणइं दिgi franate कंकाल'
मकतलक डिसुत्तई' पत्ता - भडभाल विणिहिय जाइवि" यचम्म
दिट्ठातुर जंत तोडियकुस । दिई बिडियाई जंपाणदं । मासमासु लेंऩई वेयालई । दिट्ठई दसदिलासु पवित्तरं । विहिणा लिहियई अचलई भविष्वक्खरई ॥ संदणरम्मह" कावालिउ वायइ वरई ||20||
21
दुबई - पडिवारणविसाणजुयपेल्लियघल्लियमत्तवारणे' ॥ होही रिउ मरणु हरिहृत्यें सीयाकारणे रणे ॥ छ ॥
[78. 20. 10
१७
तहि हितहि विहिविच्छोइय
काइ पिउ सरसयणि पसुतउ काइ कि पिलियं तहिं रुद्ध खंड खंड' हुउ मुड गोलक्खि उ उज्जएण' पडिएण महाहवि का विभागइ हलि जूर' महु मणु
रिणिहिणियणियपियथम जोइय । दिट्ठउ णं णलच्छिहि रसउ । दिट्ठउ णं जमसंकलबद्ध | काइ वि पि पयखंडे लक्खिउ' । कवि अंगुलियउ भंजइ राहवि । लक्खणेण महु रंडा लक्खणु ।
15
5
कुटिल, लोह से निर्मित प्रति-अंकुश तथा तर्जक ( कोड़ा) तोड़कर जाते हुए अश्वों को देखा । पल्या स्खलित होकर गिर पड़े। जंपानों को विघटित होते हुए देखा । राजाओं के कपोल कंकाल दिखाई दिए। मांस का कौर खाते हुए बेताल देखे । कटक, मुकुट, कुंडल और कटिसूत्र दसों दिशाओं में बिखरे हुए देखे ।
पत्ता- विधाता के द्वारा लिखे गए देखने में सुन्दर, चर्म रहित, भटों के भालों पर स्थित, भवितव्यता के अचल श्रेष्ठ अक्षर जाकर, कापालिक पढ़ता है ।
(21)
गजों के दंतयुगल से आहत और पतित है मत्तगज जिसमें ऐसे उस युद्ध में, सीता के कारण लक्ष्मण के हाथों शत्रुओं की मृत्यु हो गई ।
वहाँ भ्रमण करती हुई गृहिणियाँ विधाता के द्वारा वियुक्त अपने-अपने प्रियतमों को देखने लगीं। किसी ने प्रिय को शरशैया पर सोते हुए इस प्रकार देखा मानो, वह युद्ध - लक्ष्मी में अनुरक्त हो । किसी ने कटे हुए आंत्रजाल से रुद्ध प्रिय को इस प्रकार देखा मानो यम की सांकलों से बंधा हुआ हो। किसी के द्वारा खंड-खंड हुआ, मरा हुआ और नहीं पहिचाना गया प्रिय पड़े हुए सरल पाखंड के द्वारा महायुद्ध में पहिचाना गया। कोई प्रिय की अंगूठी को तोड़ती है। कोई कहती है - हे सखी, मेरा मन ( यह देखकर ) पीड़ित होता है कि मुझे लक्ष्मण द्वारा वैधव्य के लक्षण 5. A विहलिया। 6. A "कवाल । 7. AP कुंडल | 8. P भडसाल। 9. A जोइवि । 10. AP दंसणरम्मई ।
( 21 ) 1. A पेल्सिवि । 2. P हरिअयें। 3 AP सरसयणइ सुत्तर 14 P खंडखंड। 5. P लविखयउ । 6. A उज्जुए। 7. A रई ।
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10
15
78. 22. 8] मानारदमयंत-विसापड महापुराण
1203 पायडियउ एवहिं कि किज्जइ वर णियणाहें समउं मरिज्जइ । का वि भणइ णिणियह ण याणिय पहुणा गोत्तमारि कहिं आणिय । डज्मउसीय सुविप्पियगारिणि खलदइवें संजोइय वइरिणि । का वि भणइ उठधसि पिउ मेल्ल हि रंभि तिलोत्तमि कि पि म बोल्लहि । कण्णावरु इहु णाहु महारउ अत्थक्कइकिह होइ तुहारउ। कासु वि सिवपयगमणविसेसें समरदिक्ख दक्खालिय सोसें। पत्ता-ता तहि मंदोपरि देवि किसोयरि थण अंसुयधारहि धुवइ ।। णिवडिय गुणजलसरि खगपरमेसरि हा हा पिय भणंति रुयइ॥2॥
22 दुबई-हा केलाससेलसंचालण हा दुज्जयपरक्कमा ||
हा हा अमरसमरडिडिमहर हा रिणारिविक्कमा ।।।। हा भत्तार हार मणरंजण' हा भालयलतिलय णयणंजण। हा मुहसररुहरसरयमहुयर हा रमणीयणणिलय मणोहर । हा सहन सुरहियसिरसेहर हा रिउरमणीकरकंकणहर । हा थणकलसविहूसणपल्लव हा हा हिययहारि णिच्चं णव । हा करफंसजणि यरोमंचुय 'आलिंगणकीलाभूसियभुय ।
पेसलवयणविहियसंभासण' हा माणसिणिमाणबिणासण । प्रगट किए गए। अच्छा है, इस समय प्रिय स्वामी के साथ मरा जाए। कोई कहती है-मैं अपनी नियति नहीं जानती, प्रिय यह गोत्रमारि कहाँ से ले आये। अत्यन्त बरा करने वाली सीता देवी में आग लगे, दुष्ट विधाता ने उस वैरिन का संयोग कराया । कोई कहती है-हे प्रिय, उर्वशी को छोड़ दो, रंभा और तिलोत्तमा के विषय में भी कुछ मत बोलो। कन्या का वर, यह मेरा स्वामी है, इस समय यह तुम्हारा कैसे हो सकता है ? शिवपदगमन विशेष (शिवा के पर के गमन विशेष, मोक्ष पद पर गमन विशेष वाले) सिर के द्वारा किसी की समर दीक्षा दिखाई जा रही थी।
- घत्ता-उस अवसर पर वहाँ कृशोदरी देवी मंदोदरी अपने स्तनों को अश्रुधारा से धोती है। गिरी हुई गुणजल रूपी नदी वह विद्याधर परमेश्वरी हा प्रिय हा प्रिय कह कर रो उठती है।
(22) हा, कैलाश पर्वत का संचालन करने वाले, हा सिंह के समान पराक्रमवाले, हा स्वामी, हा सुंदर मनरंजन, हा भालतल के तिलक, आँखों के अंजन, हा सुख रूपी कमल के गुनगुनाते भ्रमर, हा सुन्दर रमणीजनों के घर, हा सुभग सुरभित शिरशेखर, हा शत्रुस्त्रियों के कंगन का हरण करने वाले, हा स्तनरूपी कलश के अलंकरण पल्लव, हा हा हृदय हरण करने वाले नित्य नव, हा करस्पर्श से रोमांच उत्पन्न करने वाले, हा आलिंगन की क्रीड़ा से भूषितबाहु, हा हा कुशल वचनों से संभाषण करने वाले और मनस्विनियों के मान का विनाश करने वाले, हा पंचेन्द्रिय 8. A पहु। 9. A अच्छा कह थि; P अथकए किह ।
(22) 1. P जणरंजण। 2. A बहसरह) 3. AP रमणीमण° 4. A हालिगण। 5. AP विहियवपण।
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204] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[78.22.9 हा पंचेंदियविसयसुहावह हा पिय पूरियसयणमणोरह। हा लंकाहिव खेपरसामिय देव गंधमायणगिरिगामिय । हा मंदरकंदरकयमंदिर
दिव्वपोमसरपोमिंदिदिर"। पई विणु जोग दसास जी जिज्जइ तं परदुक्खसमूह सहिज्जइ । हा पिययम भणंतु सोयाउरु । कंदइ णिरवसेसु अंतेउरु । धत्ता-ता णियकुलभूसणु ढुक्कु विहीसणु तहिं तक्खणि सुबिसण्णमइ। जगकाणणमाणणु भडपंचाणणु जहि णिवडिउ लंकाहिवइ ।।22॥ 15
23 दुवई-अप्पउ रयणकिरण विष्फुरियइ छुरियइ हणइ जावहिं॥ " जीविउ विद्दवंतु कयसंतिहिं मंतिहि धरिउ तावहिं ॥छ।। हा हा कयउं कामु मइं भीसणु णियतणु पहणिवि रुयइ विहीसणु। अज्जु सरासइ सत्थु ण सुयरइ अज्जु कित्ति दस दिसहि ण वियरइ । जयसिरि पत्त अज्जु विह्वत्तणु मयउ अज्जु पहु सत्तिपवत्तणु । अज्जु इंदु भयवसहु म गच्छउ अज्जु चंदु सहुँ कतिइ अच्छउ । अज्जु तिश्वु णहि तवउ दिणेसरु अज्जु सुयउ णिच्चितु फणीसरु । अज्जु जलणु जालउ वित्थारउ वइवसु अज्जु सइच्छई मार।
णेरिउ अज्जु रिछु आवाहन दिक्करिउलु मा कासु वि बीहड । विषयों के लिए सुखावह, हा प्रिय स्वजनों का मनोरथ पूरा करने वाले, हा लकानरेश, विद्याधरों के स्वामी, हा गंधमदन पर्वतगामी देव, हा मंदराचल की कंदरा में गृह बनानेवाले, हा दिव्य पम सरोवर की पपिनी के भ्रमर दशमुख, यदि तुम्हारे बिना जग में जिया जाता है तो परम दुःख समूह को सहन करना है। हा प्रियतम कहता हुआ शोक से व्याकुल समूचा अन्तःपुर क्रंदन करता है।
घत्ता- इतने में विषण्णमति, अपने कुल का आभूषण विभीषण तत्काल वहां पहुंचा कि जहाँ मनुष्य रूपी मानस का मान्य भदसिंह लंकाराज पड़ा हुआ था।
23 रत्नकिरणों से चमकती हुई छुरी से जब तक वह अपने को मारता है, तब तक जीवन का नाश करने में तत्पर उसे शांति स्थापित करनेवाले मंत्रियों ने पकड़ लिया। अपने शरीर को पीटते हए विभीषण रोता है-मैंने अत्यन्त बुरा कर्म किया। आज सरस्वती शास्त्र की याद नहीं करती, आज कीर्ति दसों दिशाओं में विचरण नहीं करती, विजयश्री आज वैधव्य को प्राप्त हो गई। शक्ति का प्रवर्तन करने वाला स्वामी आज चला गया। आज इन्द्र भय को प्राप्त न हो, आज चन्द्रमा अपनी कांति के साथ रहे, आज सूर्य आकाश में खूब तपे, आज नागराज खूब सोए, आज आग ज्वाला का विस्तार करे। यम आज स्वेच्छा से लोगों को मारे। नैऋत्य आज रोछ पर सबारी करे। दिग्गज कुल अब किसी से न डरे । आज वरुण अपनी प्रशंसा कर ले। आज पवन 6.A पोमदिविर।
(23) 1.A विरिया । 2. AP अज्जु पत्त । 3. A जालाविस्थारउ ।
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[205
10
78. 24. 10]
महाका-पुष्फपंत-विरइयउ महापुराणु अज्जु वरुणु अप्पाणु पसंसउ अज्जु बाउ उववणइं विसउ । अज्जु कुबेरु कोसु मा ढोबउ अज्जु कामु अप्पाणउं जोवउ । भायर पड़ गइ णारयठाणहु' अज्जु णयरि णदउ ईसाणहु । घत्ता-पई मुइ धरणीसर खगपरमेसर सुरवर जयदुंदुहि रसउ ।।
तृय राहवचंदहु स्य गोविदहु अज्जु णिरंकुस' उरि वसउ ।।23।।
दुवई-अज्जु मिलंतु मच्छ मंदाइणि वहउ ससंकपंडुरा॥
पई मुइ खेयरिंद कह' होसइ सा णवघुसिणपिंजरा॥छ।। णजपा साज गायिहि पण हिनहिन परियणदिहि । रामु ण कुद्ध कुद्ध जगभक्खउ लक्खणु ण भिडिउ भिडिउ कुलक्खउ। चक्कु ण मुक्कु मुक्कु जमसासणु तं णउ लग्गउ लग्गु हुयासणु । वन्छु ण भिष्णु भिषणु धरणीयलु रुहिरु ण गलिउ गलिउ सज्जणबलु । तुहं णउ पडिउ पडिउ कामिणिगणु तुहं ण मुओ सि मुउ विहलियजणु। चेट्टण भग्ग भग्ग लंकारि दिट्ठि ण सुण्ण मुण्ण मंदोयरि । हा भायर किण किन णिवारिउ कि मई तण वयण अवहेरिउ।
लक्खण राम काई णउ मण्णिय किं सुग्गीव हणुव अवगणिय। उपवनों का ध्वंस कर ले । आज कुबेर कोश को धारण करे। आज काम अपने को देख ले। हे भाई, तुम्हारे नरक-स्थान पर जाने पर ईशान आज नगर में आनन्द मना ले |
पत्ता हे धरणीश्वर विद्याधरेश्वर, तुम्हारे मरने पर देववर अपनी जय डुगडुगी बजा लें । स्त्री (सीता) राघवचन्द्र के और लक्ष्मी लक्ष्मण के उर में निवास कर लें।
10
आज मत्स्यों से मिलती हुई गंगा नदी चन्द्रमा की तरह सफेद होकर बहे । वह तुम्हारे बिना हे खेचरेन्द्र, नव-केशर से पिंजरित कैसे होगी?
वह नारद नहीं आया, नाश का विधाता आया था। सीता का अपहरण नहीं किया गया, परिजनों के भाग्य का अपहरण किया गया। राम क्रुद्ध नहीं हुए, जग-भक्षक क्रुद्ध हुए। लक्ष्मण नहीं लड़ा, कूल-क्षय ही लड़ा। चक्र नहीं छोड़ा गया, यम-शासन ही छोड़ा गया । वह नहीं लगा वरन् हताशन ही लगा। भाई भन्न नहीं हुआ, धरणीतल भग्न हो गया। रक्त नहीं गला, सज्जन-बल गल गया । तुम नहीं गिरे, कामिनीजन गिरा । तुम नहीं मरे, समस्त दिकलित जन मर गया। तुम्हारी चेष्टा भग्न नहीं हुई, लंकापुरी भग्न हो गई। दृष्टि सूनी नहीं हुई, मंदोदरी सूनी हो गई। है भाई, तुमने मेरे मना किए हुए को क्यों नहीं माना ? तुमने मेरे वचनों की अवहेलना क्यों की? तुमने राम और लक्ष्मण को क्यों नहीं माना ? तुमने सुग्रीव और हनुमान् का अपमान क्यों किया? 4.A विहजउ । 5. A णारयगमणहु । 6. A सुरवह। 7. AP तिय । 8. AP सिय 9.A गिरकुसि ।
(24) 1.A कहि । 2. A आउ णाद। 3.A णिहित ।
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2061 महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण
[78.24.11 दुज्जसकारिणि णयगुणवंतह किंण दिण्ण पणइणि मगंतहं । किह कुलिसु नि घुणेहि विच्छिण्णउं तुझ वि मरणु केव संपण्णउं। हा पहं विणु मई काइं जियतें हा ह कवलिउ कि ण कयंतें। धत्ता–कायर मभी साव अभउ परोसिवि विजयसंखु पूरिवि लहु ।। तामायउ लक्षणु राउ वियक्खणु सुग्गीउवि हणुएण्ण सहुँ ।।2411 15
25 दुवई-भासिउ राहवेण दहमुह तुई सोयहि कि बिहीसणा।।
मासु खगिंदवंदवंदारय विरइयपायपेसणा' ॥छ।। विलसियचंदसुरणवखत्तइ एयह को समाणु भुयणत्तइ । एक्कु जि णवर दासु दमियारिहि जं अहिलासु गयउ परिणारिहि । जई ण वि किउ जिणधम्मुवएसणु वारिवि करुण रुवंतु विहीसणु । रामाएसें जगकंपावणु
उहि जहिं उच्चाइउ रावणु। होइ सुरिंदु वि गयगुणसारउ परयारेण सव्वु लहुयारउ । कंचणमइ विमाणि संणिहियउ पेयभूसणायारु वि विहियउ ।
उउिभय कालिखंभ सुहसुंभइणं मसाणघरकरणारंभइ । न्याय गुण से उचित मांगते हुए भी उन्हें अपयश करने वाली प्रणयिनी (सीता) क्यों नहीं दी? क्या वध भी धनों से क्षय को प्राप्त होता है ? तुम्हारा भी मरण किस प्रकार हो गया ? हा तुम्हारे बिना मेरे जीवित रहने से क्या ! हा मुझे कृतांत ने कवलित क्यों नहीं कर लिया?
पत्ता-कातरों को अभय बचन देकर, अभय की घोषणा कर शीघ्र विजय शंख बजाकर तब तक राजा लक्ष्मण और विचक्षण सुग्रीव भी हनुमान के साथ आ गये।
(25) राधव ने कहा- हे विभीषण, तुम उस रावण के लिए अफसोस क्यों करते हो, जिसकी खगेन्द्रचूद रूपी चारण चरणसेवा करते रहे हैं।
चन्द्र, सूर्य और नक्षत्रों से विलसित इस भुवनत्रय में इसके समान कौन है ? शत्रुओं का दमन करने वाले उसका एकमात्र दोष है (और वह यह) कि उसकी इच्छा परस्त्री में हुई और उसने जिनधर्म के उपदेश को नहीं माना। इस प्रकार करुण विलाप करते हुए विभीषण को मनाकर, राम के आदेश से विश्व को कैपाने वाले रावण को चार लोगों ने उठा लिया। चाहे गुणगण से श्रेष्ठ सुरेन्द्र ही क्यों न हो, परस्त्री के कारण सबको हलका होना पड़ता है। उसे स्वर्णमय विमान में रखा गया। उसके शव का शृंगाराचार किया गया। केले के खम्भे उठा लिए गए। सुख का नाश करने वाले मरघट-गृह का निर्माण प्रारम्भ हुआ। उसके ऊपर वर्ण विचित्र दुःखरूपी लता के
4.Aणिय 15.AP केम मरण। 6. P राम् ।
(25) 1. A .विरझ्याणिञ्चपेसणा। 2. A जेहि ण किउ; P बा हि किउ । 3. AP कलुण । 4,A हलुभारउ।
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78. 26.8]
महाकइ पुप्फवंत-विरहमत महापुरान
धरियई उप्पर वण्णविचित्तइं पविलंबियउ पडायउ दीहउ पसरिय चंदोवय णं खलयण' बासलिलधारहिं वरसंति व
त्ता - हवं कट्ठे घडियउ चम्में मढियउ परकरताडणु जं सहमि । " एवं सुजुत्तरं पडहें वुत्तरं तं दसासु महिवइ महमि ||25| 1
दुक्खवेल्लिपसाई व छत । णावर सोयमहातरुसाहउ । थिय बंधव काला णं णवधण । तुरहं दहभिण्णा रसंति व ।
26
दुबई एमहिं तेण मुक्कु किं वज्जमि वज्जमि परणरिदहं । खणरामचंदग्गीवहं णील महिंदकुंदहं ॥ छा ।
रत्तणं विरहग्गे तत्तउ बहु कालाउ तुरुतुरियउ भइ संखु अणा ण णीवमि वंसु भणइ हजं काणणि पइसभि डझ मद्दलु कूरें गज्जइ कलहं मज्झिणिवेसिउ उत्तमु
णं स्यंति वित्यारियवत्तउ । सद्द मुयंति जीउ णं तुरियउ । परसासाऊरिज' किं जीवमि । छिद्दवंतु मुइ सामिण विरसमि । पहुमरणि व भोयणि उ लज्जइ । परकल त्तहरणे णासिउ कमु ।
5. A युज्जण । 6. A र्त एउ ण जुत्त
[207
10
13
पत्तों के समान छत्र रख दिए गए। लम्बी पताकाएँ लटका दी गई। जैसे वे लोकरूपी महावृक्ष की शाखाएँ हों। चंदोवा दुष्टजनों की तरह फैला दिया गया। बंधुजन इस प्रकार स्थित थे, मानो वाष्पजल ( अश्रु ) धाराओं से बरसते हुए काले नवघन हों । दुःख से आहत के समान तुर्य बज रहे थे ।
5
घत्ता — काठ का बना तथा चमड़े से मढ़ा गया में जो दूसरों के हाथ का ताड़न सहता हूँ, यह ठीक नहीं है - मानो यह पटई ने कहा, मैं रावण महीपति की पूजा करता हूँ ।
( 26 ) 1.P किए। 2. Pomits वज्जमि । 3. P " सासाकरि ।
(26)
इस समय मैं उसके द्वारा छोड़ दिया गया हूँ, अब क्या बजूं ? मैं शत्रु राजाओं लक्ष्मण, रामचन्द्र, सुग्रीव, नील, महेन्द्र और कुंद को छोड़ देता हूँ ।
वह लाल था, मानो विरहाग्नि से संतप्त हो। मानो अपना मुँह फैलाकर रो रहा हो । बहुत से वाद्य तुरतुर छोड़ते हैं, मानो जल्दी-जल्दी अपने प्राण छोड़ रहे हों। शंख कहता है कि मैं अनाथ जीवित नहीं रहूँगा। दूसरे के प्रश्वासों से अनूरित होकर क्या जीवित रहूँ ? बंश (बाँसुरी) कहती है कि मैं कानन में प्रवेश करूँगी। छिद्रों सहित होते हुए भी, मैं स्वामी के मरने पर नहीं बजूंगी ! मर्दन ( मृदंग ) में आग लगे, यह दुष्टता से गरजता है। स्वामी के मरने पर भी भोजन से लत नहीं होता। उस श्रेष्ठ को लकड़ियों के बीच रख दिया गया । परस्त्री के हरण से उसका कुलद्रुम नष्ट हो गया। आग दे दी गई। ज्वालाओं से अग्नि टेढ़ी जाती है, मानो
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208]
महाकवि पुष्पद विरचित महापुराण
दिणु हुया सिहालिउ कइ पण कढिज्जर लग्गउ
efeoदेहु छिवहूं णं संकइ । पहुउपरि चडंतु णं भग्गज ।
धत्ता - जो सीमासावें' नियमणकोवें दूसविरहें जालियउ ॥ सोराउ हुया पेपलासें जालकरगें लालियर || 2611
27
तासु सरीरु तेण उवजीविउ जं जाभुवि तं तासु जि छज्जइ हाइविसयहिं दिष्णउं पाणिउं एत्यंतर असोयवणि पइसिवि अंगण लील विही सहि पणविवि जणवसुंधरिधी यहि आणिय मिलिय' देवि बलहद्दछु हेमसिद्धि गाव रससिद्धहु
दुबई – आणिदि भुख परिचूडामांग सज्यं समुगाओ ॥ तहु सत्तच्चि सत्तधाऊहरु झत्ति धग त्ति लगाओ ॥ छ ॥ बइरिविडणुकालें लद्धउ तिहुयणकंटज जलणें खद्धउ || तो विण पोरिसेण जगु दीविउ । करवरणि किं उरु जुज्जइ । दुत्थि बंधुविदु संमाणिउ । रामाए देवि पसंसिदि । अंजणेय किणरेसिहि । केस विजउ समासिउ सीयहि । अमरतरंगिण णाइ ससुद्दहु । केवलणारिद्धि णं बुद्धहु ।
7B. 26.9
10
5
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रावण के शरीर को छूने में सकुचाती है, मानो पवन के द्वारा वह खींची जाने लगी, मानो प्रभु (रावण) के ऊपर चढ़ती हुई नष्ट हो गयी ।
यत्ता - सीता के शाप अपने मन के कोप और असह्य विरह से जो जला दिया गया या वह राजा (रावण) प्रेत मांस खानेवाले अनल के द्वारा ज्वाला रूपी कराय से छू लिया गया।
(27)
यह जानकर कि नरेन्द्र-चूड़ामणि (रावण) मर चुका है, समस्त शरीर से निकलती हुई सात धातुओं का हरण करनेवाली आग उसे शीघ्र ही धक् करके लग गई ।
शत्रुओं के विघटन करनेवाले को काल ने ले लिया। त्रिभुवन के कंटक को आग ने खा लिया। उसके शरीर को उसी ने आश्रय दिया, फिर भी पौरुष से विश्व आलोकित नहीं हुआ । जिसका जो है उसको वही शोभा देता है। गैर के पैर में क्या घुंघरू बांधा जाता है ? स्नान कर स्वजनों ने पानी दिया और दुःस्थित बंधुजनों को समाश्वस्त किया। इसी बीच अशोक वन में प्रवेश कर राम के आदेश से देवी की प्रशंसा कर अंग, अंगद, नल, नील, विभीषण, हनुमान् और सुग्रीव ने प्रणाम कर जनक और वसुंधरा की बेटी सीता को संक्षेप में राम की विजय को बताया और वे उसे ले आए। देवी बलभद्र से मिली जैसे गंगा नदी समुद्र से मिली हो, जैसे हेमसिद्धि रससिद्धि से मिली हो, केवलज्ञान सिद्धि मानो पंडित को मिली हो, परमार्थ को जानने वाले
4. A सोमासोएं 5. AP तादियउ। 6. AP करहिं जालियड T सालिड स्पृष्टः ।
( 27 ) 1. AP समगाओ। 2. P ° धाहुहरु । 3 A तो उण 4. A बंधुवन्तु। 5. AP विविधपुरेसहि । 6. AP देखि मिलिय ।
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78. 28.8] महाका-पुस्कयंत-विरहयउ महापुराण
[209 दिव्यवाणि जाणियपरमत्यहु' वरकइमइ णं पंडियसत्थहु । चित्तबुद्धि णं चारुमुणिदहु णं संपुण्णकति छणयंदहु। णं वरमोक्खलच्छि अरहतहु बहुगुणसंपय णं गुणवंतहु । पत्ता--जं दिठ्ठ समाहउ णियपइ राहउ तं सीयहि तणुकंचुइउ ।। 15 पुलएण विसट्टउ उद्ध जि फुट्टउ पिसुणु व सपखंडई गयउ ।।27।
28 दुवई-तोरणविविहदारपायारघरावलिसिहरसोहिए ॥
____ अरिवरपुरि पइट्ट हरिहलहर धयमालापसाहिए ।।छ।। मंदोयरि रुयंति साहारिवि इंदइ सोयविसंठुलु' धीरिदि। बंधव सयण सयल हकारिवि णाय रणरहं संक णीसारिवि। मंति महंतमंति संचारिवि विग्घकारि सयल' विणीसारिवि। पढमजिणाहिसेउ णिवत्तिवि होम विविहदाणाई वत्तिवि। सत्तु मित्तु मज्झत्थु वि चितिवि समइ सव्वसामंत णियंतिवि।
अवणिदविणपुरलोहु विवज्जिवि गह बंभण णेमित्तिय पुज्जिवि । को दिव्यवाणी मिली हो, मानो पंडित समूह को श्रेष्ठ कविमति मिली हो। भव्य मुनियों को मानो चित्तशुद्धि मिली हो । मानो पूर्ण चन्द्र को सम्पूर्ण कान्ति मिली हो । मानो अरहंत को चरम मोक्ष लक्ष्मी मिली हो । मानो गुणवान् को बहुगुण संपत्ति मिली हो।
घत्ता-जब अपने पति राघव को लक्ष्मण के साथ देखा तो सीता की देह पर कंचकी पुलक से विकसित होकर ऊपर-ऊपर फट गयो और दुष्ट की तरह सैंकड़ों खण्डों में विभक्त हो गयी।
(28) जो तोरणों, विविध द्वारों, प्राकारों और गृहावलियों की शिखरों से शोभित है, ध्वजमालाओं से प्रसारित ऐसी लंकानगरी में राम और लक्ष्मण ने प्रवेश किया।
रोती हुई मंदोदरी को ढाढस बँधाकर शोक से अस्त-व्यस्त इन्द्रजीत को धीरन देकर, समस्त स्वजनों और बांधवों को बुलाकर, नागर-नरों की शंका दूर कर, छोटे-बड़े मंत्रियों से मंत्रणा कर, समस्त विध्न करनेवालों को निकाल बाहर कर, सबसे पहिले जिनेन्द्र का अभिषेक कर, होम और विविध दानों का संपादन कर, शत्रु और मित्र में मध्यस्थता के भाव का विचार कर, समस्त सामन्तों को अपने मत में नियन्त्रित कर, धरती, वन और पुर लोक को छोड़कर, ग्रह, ब्राह्मणों और नैमित्तिकों की पूजा कर, प्रवर पुरुषों के परिहास की इच्छा कर, धर्म का पालन
7. APणं जगपरम 18. A णं तिल्लोक्कलन्छि ।
(28) 1. P भोयविसंठलु 1 2.AP वारिवि। 3. AP विग्यकारिणीसेस णिवारिवि। 4.A अणि दविणु पुरलोहः अवणिदविणपरलोहु ।
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210]
महाकवि पंष्पवन्त विरचित महापुराण
पवरपुरिसपरिहास समीहिवि लोयदिणहिमइच्छिका में
पालिविम् अधम्म बीहिषि । रामारामें राएं रामें ।
घत्ता- - पविमगलियंभहि कंचणकुंभहिं हाणिवि पट्टबंधु विहिउ ॥ रणि मारिवि रावण भुवणभयावणु रज्जि विहीसणु संणिहिउ ||28||
29
दुवई - इस को करछ भिडइ' वि भडगोंदल भुवणंगणमरावणं ॥ छज्जइ एम कासु विवहह वि सुहिपडिवण्णपालर्ण ॥ छ ॥ मेल्लिवि पचभु कासु सुयणत्तणु । तं पणिगणकुलुपीवरणु । आई उपपई दुबिचितई । ताई जिजाउहाणनृवधिइं' । ते हयवर ते गयवर रहवर । ते चामीयरभरिय महाणिहि । दहमुहाणुजाय जि समप्पिवि । लक्खणरामहिं दिष्णु पयाणजं ।
एह रूढि एहउं गरुयत्तणु
को देसु सो तं पुरु परियणु ताई आयवत्तई ई ताई वणाई अमरतरुगंधई ते असिकर दुक्करकर किंकर लंकादीउ तं जिसो जलणिहि हिल हियवs aणु व वियम्पियि साहणि तिजगजयाणउं
[78. 28.9
5 पुरिएइसेप्पणुं लवणरामें । 6. P व्हाविवि ।
10
5
कर, अधर्म से डरकर, जिन्होंने लोकहित और दीनहित के अनुकूल काम किया है, तथा स्त्रियों के लिए रमणीय राजा राम ने,
( 29 ) 1.AP भिडेवि भङ : 2. AP "जिव° ।
10
पत्ता - जिनसे पवित्र जल गिर रहा है, ऐसे स्वर्ण कलशों से स्नान कराकर, पट्ट बांध दिया। युद्ध में भुवन भयंकर रावण को मारकर राज्य पर विभीषण को प्रतिष्ठित कर दिया ।
(29)
ऐसा और कौन है जो योद्धाओं के कोलाहल में लड़ता है और विश्व के प्रांगण को रावण रहित करता है ! ऐसा और किसे शोभा देता है जो सज्जनों को दिए गए वचन का प्रतिपालन करता है ! यह प्रसिद्धि, यह गुरुता और सुजनता राम को छोड़कर और किसके पास है ? वह कोष, देश, वह परिजन और पुर, स्थूल स्तनोंवाला वह वैश्याकुल, वे आतपत्र और बालें, सुविचित्र यान और जंपान, कल्पवृक्षों से सुगंधित वन और राक्षसकुल के वे नृपचित्र, तलवार हाथ में लिये हुए कठोरकर वे अनुचर, वे अश्ववर, गजवर और रथवर, वही लंकाद्वीप और वही समुद्र, स्वर्णों से भरी हुई वे महानिधियों, इन सबको अपने मन में तृण के समान समझकर तथा दशमुख के छोटे भाई को देकर धरती की सिद्धि के लिए राम और लक्ष्मण ने तीनों लोकों को जीतने वाला प्रस्थान किया ।
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[211
78.29. 12]
महाकइ-पुपफयंत-विरइयड महापुराणु पत्ता-ते रामजणद्दण दणुयविमद्दण परिभमंति भुवणयलइ॥
आवाहियचल रह णावइ सभरह पुप्फयंत गयणयलइ ।।2911
इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभयभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकवे रावणणिहणणं' विहीसणपट्टबंधो णाम अट्ठहत्तरिमो परिच्छेओ समत्तो ॥78।।
पत्ता-राक्षसों का दलन करनेवाले वे राम और लक्ष्मण भुवनतल में परिभ्रमण करते हैं, जिन्होंने नंग दचों को रहा है ऐन-दामो सूर्य, चम, दातों सहित, आकाशतल में चल रहे हों।
मेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकषि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का रावण-निधन एवं विभीषण
पट्टबंध नाम का अठहत्तरवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
3.A °णिग्गहणं । 4. AP °पट्टगंधणं ।
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एक्कूणासीमोसं धि
णिगिनि भीमणि पुजा गया। महि हिंडंतु पहु पीठइरि' रामु संपत्तउ ॥ध्र वर्कः।
गिरि सोहइ हरिणा भउ जणंतु गिरि सोहई मत्तमऊरणाउ गिरि सोहइ वरवणवारणेहि गिरि सोहइ उड्डियवाणरेहि गिरि सोहइ णवबाणासणेहि तहिं पुदकोडिसिल दिटु तेहि मंतिहि पउतु भो' धम्मरासि एवहिं जा लक्खणु भुयहि धरइ
पहु सोहइ हरिणा महि जिणंतु। पहु सोहद्द णायमऊरणाउ। पहु सोहइ वारिणिवारणेहि । पहु सोह्इ खगधयवाणरेहि। पहु सोहइ भडबाणासणेहिं। पुज्जिय बंदिय हरिहलहरेहि। उद्धरिय तिविठे एह आसि । तो देव तिखंडधरत्ति हरइ।।
उन्यासीवी संधि
युद्ध में भयंकर दुर्जेय और मदमत्त रावण का वध कर, धरती पर भ्रमण करते हुए प्रभु राम पीठगिरि पर पहुंचे।
गिरि सिंह से भय उत्पन्न करता हुआ शोभित है, राम हरि (लक्ष्मण) के द्वारा धरती जीतते हुए शोभित हैं। गिरि मयूर और नागों से शोभित है, प्रभु (राम) किन्नरों की सुख्यात हृदयध्वनि से शोभित हैं। गिरि उत्तम वनगजों से शोभित है, प्रभु छत्रों (वारि निवारणों) से शोभित हैं। गिरि उछलते हुए बानरों से शोभित है, प्रभु विद्याधरों तथा वानरध्वजों से शोभित हैं। गिरि बाण और आसन वृक्षों से शोभित है, प्रभु (राम) योद्धाओं और धनुषों से शोभित हैं। वहां उन्होंने एक पूर्वकोटि शिला को देखा। राम और लक्ष्मण ने उसकी वंदना और पूजा की। मंत्रियों ने कहा-हे धर्मराशि, यह शिला त्रिपृष्ठ के द्वारा उठाई गई थी। यदि लक्ष्मण इसे अपनी भुजाओं से उठाता है, तो हे देव, यह तीन खण्ड धरती का हरण करने
(1) P पीपलहरि । 2. A उट्टिय3. AP सिलकोडिपुञ्च तहि दिद्रुतेहिं । 4. P omits हरि। 5.Aण धम्मरासि।
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[213
79.2, 10]
महाका-पुष्फयंत-विराज महापुराण तं णिमुणिवि पभणइ रामु एव अज्जु वि तुम्हह मणि भंति केव। जांब वि रणि णिद्दलियउ दसासु जाव वि सिरि दिग्ण विहीसणासु । तांव पि तुम्हहं संदेहबुद्धि लइ किज्जइ सव्वहं हिययसुद्धि। धत्ता–जो अतुलई तुलइ बलवंत वि रिउ विणिवायइ ।।
सो हरि कुलधवलु सिल एह कि ण उच्चायइ ।।1।।
दढकदिणथोरदीहरकरासु विसिवि रामें लच्छीहरास ता भाइवयणतोसियमणेण पविउलभुपचालिय णं धरित्ति गं रामहु केरी विमल कित्ति दोसंति लोयणयणहं सुहाइ उपरि सीरिहि कसणायवत्तु सोहइ सिलग्गु कण्हेण धरिलं उययम्मि अरुणकिरणोहतंबु वीरेहिं वि मुक्कड सीहणाउ
दहवयणवालिजीवियहरासु । आपस दिण्णु णियबंधवासु । उच्चाइय सिल लह लक्खणेण । णावइ तिखंडमहिरायविक्ति । णं णिरु असज्झसाहणसमित्ति'। भदियभुयदंडुद्धरिउ णाइ । णं जयजसवेल्लिहि' तण पत्तु । बहुपोमरायकरजालफुरिउं । उययाचलभाणुहि णाइ बिंबु। सउणंदउ णामें जक्खु आउ।
10
वाला होगा। यह सुनकर राम इस प्रकार कहते हैं-क्या आज भी आप लोगों के मन में भ्रान्ति है ! जब उसने युद्ध में रावण का निर्दलन किया, जबकि विभीषण को लक्ष्मी प्रदान की गई, तब भी तुम लोगों में सन्देह बुद्धि है ! लो आप लोग अपने मन की शुद्धि कर लें।
पत्ता-जो अतुलों को तौल लेता है, जो बलवान् शत्रु को भी मार गिराता है ऐसा वह श्रेष्ठ नारायण लक्ष्मण क्या यह शिला नहीं उठा सकता? |1||
दृढ़, कठिन, स्थूल और दीर्घ हाथोंवाले, रावण और वालि के जीवन का अपहरण करने वाले, लक्ष्मी को धारण करनेवाले अपने भाई लक्ष्मण को राम ने आदेश दिया। तब अपने भाई के वचन से संतुष्ट मन होकर लक्ष्मण ने उस शिला को उठा लिया, मानो वह विशाल भुजाओं से चालित धरती हो, मानो त्रिखण्ड महीराज की वृत्ति हो, मानो राम की विमलकीति हो, मानो अत्यन्त असाध्य साधन का परमोत्कर्ष हो। लोगों के नेत्रों को ऐसी दिखाई देती थी जैसे विष्णु द्वारा बाहुदण्ड से उद्धृत, बलभद्र के ऊपर कृष्ण-आतपत्र (छत्र) शोभित हो । मानो जय और यश रूपी लता का पत्र हो। अनेक पद्मराग मणियों के किरणजाल से स्फरित लक्ष्मण के द्वारा उठाया गया शिलाग्र ऐसा शोभित होता था, मानो उदयाचल के सूर्य का अरुण-किरण-समूह से आरक्त बिम्ब हो। वहाँ वीरों ने सिंहनाद किया, वहाँ सौनन्द नाम का यक्ष आया। उसने चक्रवर्ती के 6. AP पुणरवि सिरि।
(2) 1. A रामु । 2. P घरत्ति । 3. AP सवित्ति । 4. A जसजय' । 5. AP जालजजि ।
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214
[79. 2. 11
महाकवि पुष्पक्षम्स विरचित महापुराण चक्किहि पय वंदिवि वइरितासि तें दिण्णु तासु सउणंदयासि । पत्ता-लक्खणकयथुइहि गरदेवहिं कण्हु पउत्त।
सजलहेमघऽहं अछुत्तरसहसें सित्तउ ।। ३॥
संचलिउ राजा अरितिमिरमाणु अणुगंग पुणु वि दिण्णउं पयाण। कल्लोललुलियमससुनार दियहिं तु सुरसरिसाएं। हयगयवरखंधाइण्णजोह
थिउ काणणि बलु दूसोहसोहु। हरिणा रहु वाहिउ जलहिणीरि पायालमूलपूरणगहीरि।। धणुगुणविमुक्कु सरु सुद्धिवंतु संप्रायउ' मागहु पय णवंतु । तें देवहु दाणवमहणासु
दिपणउ अहिसेउ जपणासु । कुंडलजुयलउं मणिकिरणणीडु ससिकंतु हारु मणहरु किरीडु । तहि होतउ गउ अणुजलहितोरु साहिउ वरतणु पणवियसरीरु । केअरमउडकंकणपवित्तु चूडामणिकंठाहरणजुत्तु। तहिं लहिवि विणिग्गउ गउ तुरंतु सिंधुहि पइसरिवि पहासु जित्तु। 10 संताणमाल सेयायवत्तु
मुप्ताहलदामु मलोत्तु । पालेप्पिणु पुणु परियलियगव्व साहिय वरुणासामेच्छ सव्व । चरणों की वन्दना कर, उसे पात्रुओं को त्रस्त करनेवाली सोनन्दक नाम की तलवार दी।
घत्ता–जिन्होंने लक्ष्मण की स्तुति की है ऐसे लोगों ने उसे नारायण कहा और एकसी आठ सजल स्वर्णकलशों से उसका अभिषेक किया ||2|1
(3) शत्रु रूपी अंधकार के लिए सूर्य वह राजा चला। उसने गंगा के किनारे-किनारे प्रस्थान किया। कुछ ही दिनों में वह, जिसकी लहरों में मत्स्य और शिशुमार उछल रहे हैं ऐसी गंगानदी के द्वार पर पहुँचा। जहाँ योद्धा हाथियों और घोड़ों के कंधों से उतर गये हैं, ऐसा तम्बुओं से शोभित सैन्य कानन में ठहर गया। लक्ष्मण ने पाताललोक तक सम्पूर्ण रूप से गम्भीर समुद्र के जल में रथ को और धनुष की डोरी से मुक्त शुद्धिवंत तीर को चलाया। मागध पर पड़ता हुआ आया। उसने दानवों का नाश करनेवाले देव जनार्दन का अभिषेक किया और कुण्डलयुगल मणि किरणों का घर चन्द्रकान्त हार तथा सुन्दर मुकुट दिया। वहाँ से होता हुआ वह समुद्र के किनारे गया, और प्रणतशरीर बरतनु को सिद्ध किया। केयूर मुकुट तथा कंकणों से पवित्र एवं कण्ठाभरण युक्त चूड़ामणि लेकर वह शीघ निकला और प्रस्थान कर दिया। सिधुनदी में प्रवेशकर प्रभासतीर्थ को जीता। संत्राणमाला, श्वेत आतपत्र, मलसमूह से रहित मुक्तामाला को प्राप्त कर, पश्चिम दिशा के परिगलित-गर्व समस्त म्लेच्छों को सिद्ध कर लिया।
(3) 1.P रामु । 2. AP अणु मग्में। 3.P°सुसुआरु। 4. AP °गयरहखंधा। 5. AP उववणि । 6. बलवूमोह। 7. AP संपाइउ | 8. AP पावेप्पिणु गउ । 9. A परिगलिय ।
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79,4. 12]
[215
महाकइ-पृष्फयंत-विरार महापुराण घत्ता-गउ वेयविगिरि खगसेविज वे वि जिणेप्पिणु ।।
हयमायंगवरखेयरकण्णाउ लएप्पिणु 113।।
पुणु वसिकिउ सुरदिसि मेच्छखंडु महिमंडलि हिंडिवि रायदंड। गय जइयहं दोचालीस वरिस - तइयहं हरि हलहर दिव्यपुरिस । साहिवि तिखंडमेइणि दुगिज्म जयजयसण पइट्ठ उज्म । हरिवीति णिवेसिवि वरजलेहि ह्यतूरहिं गाइयमंगलेहिं। मंडलियहिं णं महहिं गिरिद अहिसित्त रामलखणणरिंद। जहि दिवई सत्थई संचरंति तहि अवसें रणि अरिवर मरंति। जहिं देव वि घरि पेसणु करंति तहिं अवर्से पर भयथरहरंति । को वण्णइ हरिबलएवरिद्धि वाएसिइ दिण्णी कासु सिद्धि। जं विजयतिबिट्ठह तणउ पुष्णु तं एयह दोहि मि समवइण्णु । हो पूरइ वण्णवि काइं एत्यु किं तुच्छबुद्धि जंपमि णिरत्थु । 10 पत्ता-सेविय गोमिणिइ रइलोहइ कोलणसोलइ ।।
रज्जु करत थिय ते बे वि पुरंदरलीलइ ।।4।। पत्ता-वह विजयार्धगिरि गया और उसकी दोनों श्रेणियों को जीतकर, अश्व, गज और उत्तम विद्याधर कन्याओं को लेकर ॥3॥
फिर उसने पूर्व दिशा के म्लेच्छ' खण्ड को वश में किया। भूमिमण्डल में राजदण्ड घुमाकर अब बयालीस वर्ष बीत गए तब राम और लक्ष्मण दोनों महापरुषों ने दहि तीन खण्ड धरती को जीतकर जय-जय शब्द के साथ अयोध्या नगरी में प्रवेश किया। सिंहासन पर बैठाकर, राम लक्ष्मण राजाओं का उत्तमजलों, आहत तुर्यों, गाये गए मंगलों के द्वारा इस प्रकार अभिषेक किया गया, मानो मण्डलित मेघों के द्वारा गिरीन्द्र का अभिषेक किया गया हो। जहां दिव्य शस्त्रों का संचार होता है वहाँ युद्ध में अवश्य शत्रुप्रवर मरते हैं। जहाँ देव गण घर में सेवा करते हैं, वहाँ अवश्य मनुष्य भय से थरथर काँपते हैं। बलभद्र और नारायण की ऋद्धि का वर्णन कौन कर सकता है ? वागेश्वरी द्वारा दी गई सिद्धि किसके पास है ? जो पुण्य विजय और त्रिपुष्ठ का था, वही पुण्य इन दोनों को प्राप्त हुआ था। वर्णन करने से वह क्या यहां पूरा होता है ? मैं तुमछबुद्धि व्यर्थ क्यों कथन करता हूँ !
पत्ता-रति को लोभी क्रीड़ाशील लक्ष्मी के द्वारा सेवित वे दोनों इन्द्र की लीला से राज्य करते हुए रहने लगे।
(4) 1 P रामचंड । 2.Areadsaas band basa in this line| 3.A भउ पर; P भर घर' 4, P एवहं।
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2161
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[79,51
सुमणोहरणामि सयावसंतिः अण्णहि दिणि णंदणवणवणंति । सिरिसिरिहररामणराहिवेहि सिवगुत्तु जिणेसरु दिछ तेहि । वंदेप्पिण पुच्छिउ परमधम्म जिणु कहइ उयारवियारगम्मु । मिच्छत्तासंजम चउकसाय छंडतहं सुहु रायाहिराय। एयहिं ओहट्टइ गाणतेउ ए दुस्सदुद्दमबंधहे। बंधेण कम्मु कम्मेण जम्म जम्मेण दुक्नु सोक्खु वि सुरम्म। इंदियसोखें पुणु पुणु विसालु संपज्जइ जीवहु मोहजालु । मोहें मुज्झइ संसारि भमइ अण्णण्णहि देहि देहि रमइ । णारयतिरिक्खदेवत्तणेहि बहुभयभिषणमणुपत्तहिं । संसरइ मरइ णउ लह्इ बोहि ण कयाइ वि पावइ जिणसमाहि । सम्मतु ण गेण्हइ मंदमूढ
लोइयवेइयसमएहि छूछ। आसंकखविदिगिछवंतु जडु मिच्छादिछि पसंस वेंतु। धत्त... परिदद गिदणिज्ज नहि भत्ताउ ।।
राहब जीवगणु जगि पउरु विहुरु संपत्तउ॥5॥
10
(5)
दूसरे दिन, जिसमें सदा वसंत रहता है ऐसे मनोहर नामक नंदन वन के भीतर उन श्रीविष्णु और श्रीराम (लक्ष्मण और राम) ने शिवगुप्त नामक जिनेश्वर के दर्शन किए। उनकी वन्दना कर उन्होंने परमधर्म पूछा। उदारविचारों से गम्य जिनेश्वर कहते हैं राजाधिराज ! मिथ्यात्व, असंयम और चार कषायों को छोड़नेवालों को सुख होता है। इनसे ज्ञान का तेज कम होता है। ये असह्य और दुर्दम बन्ध के कारण हैं। बन्ध से कम होता है, कर्म से जन्म होता है, जन्म से सुरम्य सुख और दुःख होता है। इन्द्रियसुख से फिर-फिर, जीव को विशाल मोहजाल पैदा होता है। मोह से मूर्छा को प्राप्त होकर संसार में परिभ्रमण करता है। और फिर शरीरधारी अन्य-अन्य शरीरों से रमण करता है। नरक, तिथंच और देवत्व के अनेक भेदों से भिन्न मनुष्य शरीरों में संसरण करता है, मरता है। न तो ज्ञान प्राप्त करता और न कभी समाधि को पाता । मन्द-मुर्ख सम्यकत्व ग्रहण नहीं करता। वह लौकिक और वैदिक मतों से व्याप्त रहता है। आशंका, आकांक्षा और घृणा से युक्त जड़ मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा करता हुआ,
पत्ता-जो भला है उसे छोड़ता है और जो निंदनीय है उसका भक्त बनता है। हे राघव, जीवसमूह जग में प्रचुर दुःख को प्राप्त होता है ।।511
(5) 1. A सयवसति । 2. P ओयार' । 3. A बहुभोम । 4. AP म ।
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79.6. 13)
महाका-पुष्पंत-विरायड महापुराणु
[211
अणुदिणु परिणामह जाइ लोउ खणि आणंदिउ खणि करइ सोउ । खणि खणि अण्णत्तह' जाइ केव सिमिहिउ तेल्लु सिहिभाउ जेव । उम्पत्तिवित्तिपलएहिं गत्थ पेच्यहि अप्पर पोग्गलपयत्यु। पज्जाउ जाइ दब्यु जि पयासु घड मउड सुवण्णहु पत्थि णासु । जं रुच्चइ तं तहिं होउ बप्प णिज्जीवणिरण्णइ कहिं वियप्प | जो मणुयलोइ सी णरिथ सग्गि जो सग्गि ण सो पायालमगि । जो घरि सो किं णीसेसणामि जो गामि ण सो आरामथामि । एवत्थिणस्थिणिब्बूढसच्चु अरहतें साहिउ परमतच्चु। जइ जगि सव्वत्थ वि सब्बु अस्थि तो किं गयणगणि कुसुमु णत्थि । जइ एक्कु जि सयलु जि जगु णियाणि तो कोणारउ को सुरक्मिाणि । को खंडिउ को वरइत्तु थक्कु सामण्णु अमरु को' कवणु समकु। घत्ता--जइ स्वणि खणि जि खउ सईबुद्ध जीवह दिट्ठउ ।।
ता चिरु महिणिहिउ वसुसंचउ केण गविट्ठउ ।।6।।
10
(6) प्रतिदिन लोक परिणमन को प्राप्त होता है, क्षण में आनन्दित होता है और क्षण में शोक को प्राप्त होता है। क्षण-क्षण में वह अन्यत्व को उसी प्रकार प्राप्त होता है जिस प्रकार आग से जलता हुआ तेल अग्नित्व को प्राप्त होता है। उत्पत्ति, वृत्ति (ध्र वत्व) और प्रलय के द्वारा ग्रस्त जीव अपने को (पुद्गल) पदार्थ समझता है। पर्याय होती है और स्पष्ट ही द्रव्य है। घट और मुकुट में मिट्टी और स्वर्ण का नाश नहीं होता। जहाँ जो रुचता है वहीं बेचारा वही होता है : निर्जीव और निरन्वय (जोवन रहित, अन्वय रहित) में विकल्प कहाँ ? जो मनुष्यलोक में है, वह स्वर्गलोक में नहीं है, और जो स्वर्गलोक में है, वह नरकलोक में नहीं है। जो घर में है, क्या वह सर्वपदार्थों में है ? जो ग्राम में है, वह आराम स्थान में नहीं है। इस प्रकार जिसमें अस्ति नास्ति के द्वारा सत्य प्रतिपादित है, ऐसा परमतत्त्व अरहंत के द्वारा कहा गया है। यदि जग में सर्वार्थ भी सब है, तो आकाश के आंगन में कुसुम क्यों नहीं होता? यदि अन्तिम समय, समस्त विश्व एक है, तो कौन नारकीय है और कौन सरविमान में ? कौन खण्डित है और कौन पूर्ण? सामान्य देव कोन और इन्द्र कौन ?
पत्ता—यदि स्वयंबुद्ध द्वारा जीव का क्षण-क्षण में क्षय देखा जाता है तो प्राचीनकाल में धरती में रखे गए धनसंचय की खोज किसने की?
(6) 1. AP अण्णण्णहु । 2. A मरि । 3. AP 'विणिग्णय । 4. AP पीसेसगामि । 5. AP पारामि । 6. AP एक्कु वि सयलु वि। 1. AP सो।
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218]
महाकवि पुष्परत विरचित महापुराण
[79.7.1
जह जाणइ सो किर वासणाइ तो ताइ केम्व खणधसणाइ।
जातु तिहमणु असेस तो किं किर चीवरधरणवेसु । सिविणोवमु जइ णोसेसु सुग्णु तो गुरु ण सीसु णउ' पाउ पुण्णु । जिणपिसुणहु णियवयणु जि कयंतु सिवु णिककलुं णिप्परिणामवंतु। सयलु वि संसारिउ गोरिकंतु णञ्चइ गायइ तो किं महंतु। जो आहवि वदरिहि मलइ माणु धणुगुणि संधिवि अग्गेयबाणु'। पुरु' विद्धउ जेण रइवि ठाणु किं तासु वयणु होसइ पमाणु। विणु बत्तारें सिद्ध तु केत्यु सिद्ध'तें विणु किह मुणइ वत्यु। अप्पउं अंबरि' संजोयमाणु कउलु वि भावइ महु मुक्कणाणु । णिच्चेयणि सुसिरि सिवत्तु थवइ पसुमासु खाई महु सीहु' पिबह। परु मोह्इ सई तमणियरभरिउ इंदियवसु णिदियसाहुचरिउ । णिवडइ रउद्दि घणि घणि तमंधि णारयणहणरवि णरयरंधि । घत्ता-झायहि जिणधवलु अण्णण ण दक्किउ जिप्पद ।।
करयलफंतिहरु पकेण पंकु किं धुप्पइ ॥३॥
10
यदि वह वासना (सूक्ष्म संस्कार) से उसे जानता है तो क्षण में ध्वंस को प्राप्त होनेवाली उससे यह कैसे संभव ? यदि समस्त त्रिभुवन इन्द्रजाल है तो फिर चीवर धारण करनेवाले वेष से क्या? यदि निःशेष वस्तु स्वप्नतुल्य और शून्य है तो न गुरु है और न शिष्य है, और न पापपुण्य है। जिनवचनों के विपरीतजनों का ऐसा अपना ही कथन यम के समान है कि शिव निष्फल और परिणाम रहित है । यदि समस्त संसार गौरीकांत (शिव) मय है तो वह महान् नाचता और गाला क्यों है ? जो युद्ध में शत्रुओं का मानमर्दन करता है, धनुष की डोरी पर आग्नेय बाण का संधान करता है, जिसने स्थान की रचना करने के लिए पुर का विनाश किया, क्या उसका वचन प्रामाणिक हो सकता है ? वक्ता के बिना सिद्धान्त कैसा? सिद्धान्त के बिना वस्तु का विचार कैसा? स्वयं को आकाश में संयुक्त करता हुआ कौल (अभेदवादी वेदान्ती) भी मुझे ज्ञान से रहित दिखाई देता है। अचेतन आकाश में वह शिव की स्थापना करता है, वह पशुमांस खाता है, मधु
और सुरा का पान करता है। दूसरों को मुग्ध करता है, स्वयं अज्ञान-अन्धकार से भरा हुआ है। इन्द्रियों के वशीभूत है, और साधुओं के चरित की निंदा करनेवाला है। वह भयंकर तमान्ध सधन रौद्र नरक में गिरता है, जिसमें नारकियों का 'मारो-मारो' शब्द हो रहा है, ऐसे नरकबिल में।
घत्ता..इसलिए तुम जिनवर का ध्यान करो। दूसरे के द्वारा पाप नहीं जीता जा सकता, करतल की कान्ति का अपहरण करनेवाला पंक, क्या पंक से ही धुल सकता है ? ||711
(7) 1.A णो पाउ । 2. A कि सो महंतु; P कि ती महतु। 3. A भग्गेउ वाणु । 4. P पूरण विद्ध:15. A अंतरिर। 6.A मज्जु। 7.A घणघणरहि णिवडद तमंधि। 8.AP किह पुणह।
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79.9.2]
[219
महासागुम्फयंत-बिरस्पर महापुराणु
जइ काउ सरंतह जाइ गरलु' तइ पावेण जि जणु होइ विमलु । जो सेवइ गुरु पाविठ्ठदुछ
देउ वि णिट्ठरु दह्रोट्ट, रु? । सो सई जि पाय पावहु जि सरणु पइसउ ण लहइ संसारतरणु । सो गुरु जो मित्तु व गणइ सत्तु
सो गुरु जो मायाभावचत्तु । सो गुरु जो मुक्काहरणवत्यु सो गुरु जो महिमागुणमहत्यु सो गरु जो तिणु कंचणु समाणु सो गुरु जो णिरहुप्पण्णणाणु । णिच्चलखमदमसंजमसमेण गुरुरयणु भणिउ एएं कमेण । दूरुझियदुज्जयरायरोसु अरहंतु देउ परिहरियदोसु । तहु धम्मु अहिंसालस्खणिल्लु मयमारउ विप्पु वि होइ भिल्लु। अहवा सो भण्णइ सूणयारु जपणे कहि लब्भइ समगदारु । पत्ता-मेल्लिषि विसयविसु जिणभावे हियवउ भावह ॥
पालिवि जीवदय सग्गापवग्गमुड पावह ।।४।।
तं णिणिवि परिरक्खियमयाई सम्मईसणविप्फुरियएहिं
धरियई.रामें सावयवयाई। अवरेहि मि भव्वपुंडरियएहिं।
यदि कौए का स्मरण करने से पाप जाता है, तो पाप से भी मनुष्य पवित्र हो जाय । जो (व्यक्ति) पापिष्ठ और दुष्ट गुरु की सेवा करता है, तथा निष्ठुर ओठों को चबानेवाले रुष्टं देव की सेवा करता है वह स्वयं पापी है, और पापी की शरण में पहुँचा हुआ संसार से तरण नहीं पा सकता। गुरु वह है जो मित्र और शत्रु को नहीं गिनता (भेद नहीं करता)। गुरु वह है जो माया भाव से रहित है। गुरु वह है जो आभरण बस्तुओं से मुक्त है। गुरु वह है, जो महिमा और गण में महान् हो। गुरु वह है, जो तृण और स्वर्ण में समान है, जिसका ज्ञान अपाप से उत्पन्न आ है। निश्चल, क्षमा, दम, सयम और शम के इसी क्रम से मैंने गुरुरम कहा। जिन्होंने दुर्जेय राग वेष को दर से छोड़ दिया है और जो दोषों से रहित हैं, उनका धर्म अहिंसा लक्षणवाला है। पशुओं को मारनेवाला विष भील होता है अथवा वह हत्यारा (कसाई) कहा जाता है। यज्ञ से कहीं स्वर्गद्वार मिलता है?
धत्ता-विषय रूपी विष को छोड़कर, जिनभाव से आत्मा का ध्यान करो। जीवदया का पालन कर स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) का सुख प्राप्त करो।
(9) यह सुनकर राम ने, जिसमें पशुओं की रक्षा की गई है ऐसा श्रावकव्रत स्वीकार कर लिया। सम्यग्दर्शन से विस्फुरित दूसरे भव्य श्रेष्ठजनों ने भी श्रावकवत ग्रहण किए । लक्ष्मण का हृदय
(8) 1. A गरुनु । 2. A पुछ्दछु । 3. A omits this foot. 4. AP गुणमहिमामहंतु 1 5. A तणकरणसमाणु।
(9) I. P सरिमई।
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220] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[79.9.3 लक्खणहियव दुणियाणसहिउं तेण जि ब्रउ तेण ण कि पि गहिउं। दसरहि मुइ णिहिय णिरूढसयरि सत्तुहण भरह साकेयगयरि। गय भायर वाणारसि तुरंत थिय रज्जु करंत हली अणंत । रामें सुउ जायउ विजयराम सीयहि रूवें णं देउ कामु । अहिमाणणाणविणाणजुत्त अवर वि संजाया सत्त पुत्त । गोविंदहु णदणु पुहइचंदु पुहइहि हूयउ पुहईसबंदु। अण्ण विणं मत्तमहागइंद सुप संभूया जियरिउरिंद। गुणगणरंजियभुवणत्तएहिं परिवारिय पुत्तपउत्तरहिं । घत्ता-थिय भुजंत महि गउ कालु अकलियपरिषत्तउ' ।। एकहि णिसिसमद हरि फणिसयणि पस्त्तउ ।।9।।
0 पेच्छद्द सिविणंतरि पहिं मलिज णगोहु दंतिदंतमादलिउ । कवलेवि' विडप्– तिमिरजूरु कढिवि पायालि णिहित्तु सूरु । पासायसिहरणिवडणु-णियंतु उट्ठिउ महिवइ अंगई धुणंतु । अक्खिउ दुईसणु भायरासु ता भणइ पुरोहिउ ढुक्कु णासु ।
जिह बडतरुवर चूरिउ गएण तिह सिरिवइ भंजेव्वउ गएण' । खोटे निदान से युक्त था। इस कारण उसने कोई व्रत नहीं लिया। दशरथ के मरने पर, जिसमें राजा सगर प्रसिद्ध था, ऐसे साकेतनगर में शत्रन और भरत को स्थापित कर दिया गया। तब दोनों भाई तुरन्त वाराणसी चले गए। राम और लक्ष्मण वहाँ राज्य करते हुए रहने लगे। सीता से राम के विजयराम नाम का पुत्र हुआ, जो रूप में कामदेव था। गौरव, ज्ञान और विज्ञान से युक्त और भी उनके सात पुत्र हुए। रानी पृथ्वी से लक्ष्मण के पृथ्वीचन्द्र पुत्र हुआ जो पृथ्वी में और राजाओं में श्रेष्ठ था। उसके और भी पुत्र उत्पन्न हुए, शत्र राजाओं को जीतनेवाले जो मानो मतवाले महागज थे। इस प्रकार अपने गुणों से भुवनत्रय को रंजित करनेवाले पुत्र और प्रपौत्रों से घिरे हुए
पत्ता-धरती का उपभोग करने लगे। उनका अगणित समय बीत गया। एक रात्रि के के समय लक्ष्मण नागशय्या पर सोए हुए थे।
(10) स्वप्न में वह देखते हैं कि वटवृक्ष हाथी के दांतों के अग्रभाग से दलित और पैरों से कुचला गया है। राहु ने चन्द्रमा को निगल कर और सूर्य को खींचकर पाताललोक में डाल दिया है। इस प्रकार राजा प्रासाद के शिखर का पतन देखता हुआ और अपने अंगों को पीटता हुआ उठा। उसने वह दुःस्वप्न और भाईयों को बताया। उस समय पुरोहित कहता है-नाश आ पहुँचा है। जिस प्रकार गज के द्वारा वटवृक्ष नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया, उसी प्रकार लक्ष्मण रोग से मारे 2 AP 43। 3. A दस रहसुपविहिए। 4. AP वाराणसि। 5. P अवर वि जामा तह सत पुत्त। 6. P. गय। 7.A अहियपरिचत्तउ। 8.A फणिसयणयलि; Pमणिसयणि ।
(10) I. A कवलियउ। 2. P°णियण। 3.A यमेण: Pमएण।
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79. 11.6] महाका-पुष्फयंत-चिरइयड महापुराण
[221 जं अब्भपिसाएं गिलिउ भाणु चप्पिवि पाविउ महिविवरठाणु । तं संचिचिरुसुकयावसाणु परिपुण्णउं वट्टइ आउमाणु। जं णिवडिउं वरधवलहरसिंगु तं ध्र वुपोमामुहपोमभिंगु। माहउ पावेसइ देव मरणु पइसेव्बउ जिणवरचरणसरणु । तवचरणु चरेश्वउं पई रउद्द, लंघेव्वउ भीसणु भवसमुह ।। तं णिणिवि जयभीमाहवेज पुरि अभयघोसु किस राहवेण । अहिसित्तई जिणबिंबई जलेहि दुहिं धवलधारुज्जलेहि। दहिएहि कुंभगल्लत्थिाादि वरकामिणिकरणिम्मत्थिएहि । घत्ता--हवियई पुज्जियइंजिणवरपडिबिबई रामें ।। भत्तिइ वंदियई परिवढियसुहपरिणामें ।।10।।
I पुरु घरु परिहाणु' हिरण्णु धण्णु जो जं मग्गइ तं तासु दिण्णु । संति वि विरयंतहं विहुरहम्म ढुक्कउं चिरसंचिउ घोरकम्मु । पुण्णक्खइ दुक्खु दुपेक्खु देंतु हयपरबलु भुयबलु णिक्खवंतु । कइवयदिणेहि सुहिदिण्णसोउ लच्छीहरंगि संभूउ रोउ। उप्पाइयबंधवहिययसल्लि माहम्मि मासि दिणि अंतिमिल्लि ।
काले कवलिउ महिअद्धराउ णं हित्तउ' कामिणिरइणिहाउ'। जाएँगे। राहु के द्वारा चांपकर निगले गए सूर्य ने जो महाविवर (पाताललोक) में स्थान पाया, वह जिसमें संचित चिरपुण्य का अंत है ऐसे (लक्ष्मण की) आयु के मान का अन्त है, और जो श्रेष्ठ धवलगृह का शिखर गिरा है, उससे लक्ष्मी के मुख रूपी कमल के भ्रमर लक्ष्मण निश्चित रूप मृत्यु को प्राप्त होंगे। हे देव, आप जिनवर के चरण में प्रवेश करेंगे, भयंकर तपश्चरण करेंगे, और भीषण भवसमुद्र को पार करेंगे। यह सुनकर, भयंकर संग्राम वाले राम ने नगर में अभय घोषणा करवा दी । जल से, धवलधाराओं से उज्ज्वल दूध से, तथा उत्तम स्त्रियों के करों से निर्मित दही से,
पत्ता--जिनका शुभ परिणाम बढ़ रहा है. ऐसे राम ने जिनप्रतिमाओं का भक्तिभाव से अभिषेक किया, पूजा और बंदना की |10|
(11) पुर, घर, परिधान, स्वर्ण और धान्य, जिसने जो मांगा वह दिया । शान्ति का विधान करते हुए भी उनको दुःख का घर चिरसंचित घोर कर्म आ पहुँचा। पुण्य का क्षय होने पर कुछ ही दिनों में दुर्दर्शनीय दुःख देता हुआ, शत्रुबल का नाश करनेवाले भुजबल को क्षीण करता हुआ, सुधीजनों को शोक देता हुआ रोग लक्ष्मण के शरीर में उत्पन्न हो गया । जिसने बन्धुओं के हृदय में वेदना उत्पन्न की है ऐसे मात्र माह के अन्तिम दिन, धरती का अर्ध-चक्रवर्ती राजा लक्ष्मण काल के द्वारा कवलित कर लिया गया, मानो कामनियों का रतिसमूह ही छीन लिया गया हो । 4.A मुकिया। 5. AP घुउ। 6. AP जिय'। 7. A दहिएण।
(11) 1, " परिहण । 2. AP 5वें मग्गिउ। 3.A मंतिहि 1 4. AP °रयणिहाउ ।
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222]]
179. 11.7
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण णं णासिउ बंधवसोक्खहेड अच्छोडिउ णं रहुवंसके। णं मोडिउ सुरतरुवरु फलंतु उल्हविउ पयावाणलु जलंतु । रिउसीसणिवेसियपायपंसु उड्डाविउ जगसररायहंसु । जहिं रावणु तहिं सो दुहपएसि । उप्पण्णु च उत्थइ णरयवासि । विहिणा सोसिउ गुणणिहिगहीर सोएण पमुच्छिउ रामु वीरु। सिंचिउ सलिलें माणवमहंतु उम्मुच्छिउ हा भायर भणंतु। घत्ता हा दहमुहणिहण हा लक्षण हा लच्छोहर ।।
हा रयणाहिवद हा वालिहरिणकठीरव ।।11।।
10
12
धाहावइसीय मणोहिरामु एक्कल्लउ छंडिउ काइं रामु । हा' हे देवर महु वेहि वाय पई विणु जीवंतह कवण छाय । पूएप्पिणु दड्ढउं हरिसरीरु अवलंबिउ सीरें हियइ धीर। करयसिरु हाहारउ मुयंतु संबोहिज अंतेउरु रुयंतु । लक्खणसुउ णामें पुहइचंदु सई अहिसिंचिवि किउ कुलि रिदु । सत्तहि जणेहि सीर सुदण समिनिल्य गिरि पदम्भादि ।
लहुयारउ ताहं पग्गि णविउ अजियंजउ मिहिलाणरि थविउ । मानो बन्धुओं के सुख का कारण नष्ट हो गया हो, मानो रघुवंश का ध्वज ही नष्ट हो गया हो, मानो फला हुआ कल्पवृक्ष हो तोड़ दिया गया हो, मानो जलता हुआ प्रतापानल शान्त कर दिया गया हो। जिसने शत्रु के सिर पर अपने चरणों की धूल स्थापित की ऐसा विश्वरूपी सरोवर का वह राजहंस उड़ गया। जहां रावण है, उसी दुःख प्रदेश चौथे नरक में उत्पन्न हुआ । गुणनिधियों से गंभीर, विधाता के द्वारा शोषित राम शोक से मूच्छित हो गए। पानी छिड़कने पर वह मानव-महान्, 'हे भाई कहते हुए मूर्छा से दूर हुए।
घता हा दशमुख का अंत करनेवाले, हा लक्ष्मण, हा लक्ष्मीधर, रत्नाधिपति, हा बालिरूपी हरिण के लिए सिंह ।।1 111
(12) सीता ने चीख कर कहा-तुमने राम को अकेला क्यों छोड़ दिया ? हा देवर, मुझसे बात करो। तुम्हारे बिना जीने में कौन-सी शोभा है ? पूजा करके लक्ष्मण का शरीर जला दिया गया। राम ने अपने मन में धैर्यधारण किया। अपने हाथों सिर पीटते और हा-हा शब्द कर रोते हुए उन्होंने अन्तःपुर को सम्बोधित किया। लक्ष्मण के पुत्र पृथ्वीचंद का अपने हाथ से अभिषेक कर उसे कुल का राजा बनाया। स्थूल बाहुवाले सीतादेवी के सातों पुत्रों ने लक्ष्मी की इच्छा नहीं की। उनमें सबसे छोटा तथा चरणों में नमित अजितंजय मिथिला नगरी का राजा बनाया गया। 5. A क्यासि। 6. A सोहिउ।
(12) I. P हा देवर मह दे देहि वाय । 2. A रेप्पिण।
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79. 13. 12] महाका-पुष्पयंत-विरहया महापुराण
[223 साकेयणयरि सिद्धत्थणामि दणि परिभमंतचलभसलसामि । सीराउहेण भयमोहणासि तवचरण लाइन सिवगुत्तपासि ।
पत्ता-तहिं रामेण सहुं सुग्गीउ वि सुद्धविवेयउ' ।। हणुउ विहीसणु वि पावइयउ जायणिग्वेयउ ।।12।
13 राएं जाएं इसिसीसएण तणयहं तउ लइउ असीसएण । सीयापुहइहिं सुयवइहि पाय आसंघिय भावें चत्तराय। भुवणुट्ठिउ तिढावज्जियाउ जायाउ ताउ तहिं अज्जियाउ । पता नेणिनि णिम्मयिकाम सुयकेवलित्तु हणुयंतु राम । इयर वि संजाया रिद्धिवंत मुणिवर णिठ्ठरतवतावसंत। आहुट्ठसयाई गयाई तासु संवच्छराहं पालियवयासु। पंचहि बरिसेहि विवज्जियाई __ जइयतुं तइयतुं ध्र वुणिज्जियाई। रामें चउकम्मई घाइयाई अमररिं कुसुमाई णिवेइयाई । उप्पण्णउं केवलु विमलणाणु दिट्ठउं तिहुयणु गयणु वि अमाणु। खणि सुरयणु संप्रायउ णवंतु जय गंद बद्ध रहुवइ भणंतु ।
10 धत्ता-एक्कू जि छत्त तह पोमासण चमरई चघलई॥
देवहि णिम्मियई तारातारावइधवलई।।13। साकेत नगर के, भ्रमणशील चंचल भ्रमरों से से श्याम सिद्धार्थ नामक वन में राम ने शिवगुप्त मुनि के पास मद-मोह का नाश करने वाला तपश्चरण ग्रहण कर लिया।
घत्ता-वहाँ राम के साथ शुद्ध विवेको सुग्रीव, हनुमान् और विभीषण ने भी बैराग्य उत्पन्न होने से संन्यास ग्रहण कर लिया ।।12॥
(13) राजा राम के ऋषि-शिष्य होने पर, एक सौ अस्सी पुत्रों ने भी तप ग्रहण कर लिया। सीता और पृथ्वी देवी ने भी श्रुतव्रता आर्यिका के रागशून्य चरणों का भावपूर्वक आश्रय लिया। संसार से विरक्त, तृष्णा से रहित वे दोनों वहीं आर्यिकाएँ बन गईं। कामदेव का नाश करनेवाले हनुमान और राम दोनों श्रुतकेवलित्व को प्राप्त हुए। दूसरे मुनिवर भी निष्ठर तप का आचरण करते हुए ऋद्धियों से पूर्ण हुए। नतों का पालन करते हुए उनके साढ़े तीन सौ वर्ष बीत गए। जब पाँच वर्ष शेष रह गए तब राम ने निश्चित रूप से चार घातिया कर्मों को जीत लिया। देवों ने पुष्पों की वर्षा की । उन्हें पवित्र केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। निःसीम गमन के समान उन्होंने त्रिभुवन को देख लिया। क्षण भर में, प्रणाम करते हुए तथा हे राम आपकी जय हो, आप प्रसन्न हों और बड़े यह कहते हुए देव आए।
पत्ता-उनका एक ही छत्र, कमलासन था । देवों ने ताराओं और चन्द्रमा के समान धवल चंचल चामर निर्मित कर दिए ।।13।। 3. AP सिवोत्त । 4.P अइसुविवेयउ।
(13) 1. AP मुक्कमाय 1 2. AP भवणुय तिहाणिज्जियाउ । 3. AP धुउ। 4. A सयस वि। 5. AP संपाउ16. Aणमंतु। 7.AP धवल।
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224] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
[79.14.1 14 मुसुमूरंतहु भववइरिवम्म
जणवइ साहतहु परमधम्म'। छसयाइं सयद्धविमीसियाई महियलि विहरंतहु तहु गयाई। संमेयसिहरि सो रामभिक्खु हणुवंतें सहुं संपत्तु मोक्खु। अवर वि सुग्गीवविहीसणाइ चारितवंत जे दिव' जोइ । ते सयल भडारा बीयराय अणुदिसणिवासि अहमिद जाय । सा सीय पुहइ सा विमलगत्तु पत्ताउ कप्पि कप्पामरत्तु । लच्छीहरु णरयहु णीसरेवि पायसइ सिवपउ तउ चरैवि । भासंति एव परमत्यवाइ संपय कासु वि णउ समउं जाइ । हरिणा समाण नृवखयणिसीइ के के ज खद्ध महिरक्खसीइ। घत्ता-सुयरह' गुरुवयणु मा लक्षणपंथें वच्चह ।।
भरहरिदयुउ सिरिपुप्फयंतु जिणु अंचह ।।14।। इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभब्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे मुणिसुन्धयतित्थसंभूयहरिसेण*चक्कवट्टिरामबलएवलकखण- वासुदेवरावणपडिवासुदेव'गुणकित्तत्तं णाम एक्कूणासीमो परिच्छेओ
समत्तो।।7911 मुणिसुवयचरियं समत्तं ॥
(14) भवशत्रु के मर्म का छेदन करते हुए, जनपदों में जिनधर्म का कथन करते हुए, और धरतीतल पर विहार करते हुए जब उनके साढ़े छह सौ साल बीत गए, तब मुनि राम सम्मेद शिखर पर हनुमान के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए। और भी सुग्रीव तथा विभीषण, जो चारित्र से संपन्न दिव्य योगी थे, समस्त आदरणीय वीतराग, अनुदिशोत्तर विमान में अहमेन्द्र हुए। पवित्र शरीर वह सीता और सती पृथ्वी कल्पस्वर्ग में कल्पामरत्व को प्राप्त हुईं। लक्ष्मण नरक से निकलकर तप कर शिवपद को प्राप्त करेगा। परमार्थवादी (अध्यात्मवादी) यह कहते हैं कि संपत्ति किसी के भी साथ नहीं जाती। नृपक्षय के लिए निशा के समान भूमिरूपी राक्षसी के द्वारा हरिणों के समान कौन-कौन राजा नहीं खाए गए?
घत्ता-इसलिए गुरुवचनों का स्मरण करो, लक्ष्मण के रास्ते मत जाओ, भरत नरेन्द्र द्वारा संस्तुत श्रीपुष्पदंत जिनबर की अर्चा करो ।।1411
सठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में, महाकवि पुष्पदंत द्वारा विरचित तथा महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का मुनिसुवत तीर्थकर संमूत हरिषेण चक्रवर्ती, राम बलदेव लक्ष्मण वासुदेव, प्रतिवासुदेव
गुणकीर्तन नामक उन्मासीवा परिच्छेद समाप्त हुआ। (14) 1. P परममगु 1 2. AP दिदुजोइ । 3. AP °णिव" 4. A सुमहर; P समरह। 5. A omits हरिसेणचक्कट्टि 6.AP omit 'लक्खण। . AP omit 'रावणपटिवासुदेव ।
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असीतिमो संधि
वियसावियभुवणसरोरुहहो केवलणाणकिरणधरहो । पणवेप्पिणु णमिजिविणपरहो जणमणतिमिरभारहरहो॥ध्र वक।।
दुवई जेण जिया रउद्द चल पंच वि वम्महमुक्कसायया ।।
भवसंसरणकरमावस्येपर विरामः सायया ॥छ।। मुक्क मही णिवसंगया
समसिद्ध तयसंगया। उज्झियजीवसवासणा
विहिया जेण सवासणा। जस्स सुधी पिसुणेहले
सरिसा सहले गेहले। छिण्णं जेणुद्दामयं
आसारइयं दामयं । णिच्चं वणयरकंदरे
जो णिवसह गिरिकंदरे। ण महइ धम्मे मंदयं
इच्छइ सासयम दयं । अस्सीवीं संधि
जिन्होंने भुवनरूपी कमल को विकसित किया है, जो केवलज्ञानरूपी किरण को धारण करनेवाले हैं, जो जन-मन के अन्धकार को दूर करनेवाले हैं ऐसे नमिरूपी दिनकर को प्रणाम कर,
जिन्होंने भयंकर और चंचल, कामदेव के पांचों तोरों को जीत लिया है, और भवसंसरण करानेवाली विषवेग के समान कषायों से विषम नृपसंगत भूमि को छोड़ दिया है, जो शम सिद्धान्त के वशीभूत हैं, जिन्होंने अपने स्वभाव को मृतकभक्षण को छोड़ने के संस्कारवाला बना लिया है, जिसकी शोभना बुद्धि निष्फल दुर्जन और सफल स्नेही जन में समान है, जिसने उधाम आमा द्वारा रचित महान् वचन को तोड़ दिया है, जिसमें कंदमूल खानेवाले भील रहते हैं, ऐसी गिरि-गुफा में जो नित्य निवास करते हैं, जो धर्म में शिथिलता को महत्त्व नहीं देते, जो शाश्वत AU Mass. have, at the beginning of this samdhi, the following staza :
लोके दुर्जनसंकुले इतकुले तृष्णावशे मीरसे सालंकारवचौविचारपतुरं लालित्यलीलाधरे । भरे देवि सरस्वति प्रियतमे काले कसो सांप्रतं
कंयास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पवतं विना ।।। (1)1.Pबहाद।
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226]
[80. 1. 11
महाकषि पुष्पदन्त विरचित महापुराण जम्मि थिए सुइजागए
जम्मजलहिजलजाणए। कि पढ़ति मयमारया
कामंधा सामारया। सइ सम्मि सगारवं
कीस कुणंति बगा रवं। तं गमिऊण णमीसरं
तवसिहिहुयवम्मोसरं। पत्ता-पुणु तासु जि चरिउ कि पि कहमि सज्जणकोऊहलजणणु ।।
कहिए: वेण दिहि विमा मुटु उपदणाणतणु।।
15
दुवई-जंबूदीवि भरहि सुच्छायउ वच्छउ विसउ' बहुधणा॥
तहि कोसंबिणयरि चउदारविलंबियरयणतोरणा॥छ। घरगयमोरहंसआहरणहि कुंकुमपंकपसाहियचरणहि । मणिविक्कयमुत्ताहलहारहि दोसियदंसियचीरवियारहि । लोहहट्टलोहेण णिबद्धहि विक्कमाणणाणारसणिद्धहि । वलयारा-णपडियवलयहि' णिज्दभुयंगसंगकयपुलयहि । विविधयवडुप्परियणचवलहि महिलायणकमणेउरमुहलहि। मंदिरकणयकलसथणवंतहि पविमलपाणियछायाकंतहि ।
लक्ष्मी की इच्छा करते हैं, शास्त्रों के ज्ञाता, तथा जन्म रूपी जलधि के जलयान नमि तीर्थंकर के स्थित होते हुए; पशुओं की हत्या करनेवाले, काम से अन्धे, श्यामा में रत (मिथ्यावृष्टि) लोग क्या पड़ते हैं ? हंस के रहते हुए बगुले भला क्या गौरवपूर्ण शब्द करते हैं ? अत: कामदेव को भस्म करनेवाले उन नमीश्वर को प्रणाम कर,
पत्ता--फिर उन्हीं का कुछ चरित कहता हूँ जो कि सज्जनों के हृदय में कुतूहल उत्पन्न करनेवाला है, जिसके कहने से भाग्य का विस्तार होता है और ज्ञानस्वरूप सुख उत्पन्न होता है ।।
(2) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सुन्दर छायावाला और सम्पन्न वत्स नाम का देश है। उसमें, जिसके चारों द्वारों पर रत्नतोरण लटक रहे हैं ऐसी कौशाम्बी नगरी है, जो गृहस्थित मयूरों
और हंसों रूपी आभरणों से युक्त है, जिसके चरण केशर-पराग से प्रसाधित हैं, जो मणियों द्वारा मेचे गए मोतियों को धारण करनेवाली है, जो दोसिय (कपड़े का व्यापारी, दोषी) व्यक्ति को वस्त्रों का विकार दिखाती है, जो लोह के हाट के लोह (लोहा, लोभ) से निबद्ध है, जो बिकते हए नामा रसों से स्निग्ध है, जिसके वलयाकार बाजार में बलय प्रगट हैं, जो नित्य भुजंगों (भोगी लोग, कामी लोम) के साथ रोमांच करनेवाली है, जो विविध ध्वजपट रूपी उपरितन बस्त्र से चंचल है, जो महिलाजनों के चरणों के नूपुरों से मुखर है, जो मन्दिर के कनक-कलश रूपी स्तनों से युक्त है, जो स्वच्छ जल को छायाकान्ति से युक्त है, जो वंदना किए गए जिनालयों 2.A विगारवं।
(2) 1. APदेसू। 2. A कुंकुमपंकहि सोहिय; P कुंकुमपंकपसोहिय । 3. A वलयारोवण ।
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[227
10
80. 3.7]
महाकइ-परफयंत-चिरइयज महापुराण वंदियधवलजिणालयसेसहि उववणि' णिवडियअलिउलकेसहि। देउलदंतपंतिदावंतिहि
णयरीकामिणीहि गंदंतिहि ।। जणि जाणिउ इक्खाउ पहाणउपस्थिउ णामें णिवसइ राणउ । सइ कलहंसबंसवीणा णि णामेण जि तहु सुंदरि पणइणि । वासपवेसु व पुण्णपसत्यहं सुउ सिद्धत्थु सव्वपुरिसत्यहं । घत्ता-ता गरेण रिदहु विष्णविउ विद्ध सियजणदुच्चरिउ॥
मणहरि णंदणवणि अवयरिउ मुणिवरु णामें आयरिउ ॥2॥
दुवई–ता सहुं सुंदरीइ सहुं तणएं सहुं परिवाररिदिए ।
__ गज परवाह वणंतु बंदिउ मुणि मणवयकायसुद्धिए ॥छ।। राएं भुवणंभोरुहणेसरु पुच्छिउ तच्चु कहइ परमेसरु । अप्पज एक्कु णाणदसणतणु णिज्जरु दुविहु दलियदुक्कियमणु'। जोय तिण्णि गारव असुहिल्लई जीवगईउ तिण्णि मणसल्लई। तिण्णि गुणवय चउ सिक्खावय चउ कसाय कयचउगइसंपय । चउ विण्णासवयई चउ झाण पंच सरीरइंपंचविणाणई।
के निर्माल्य से सहित है, जो उपवन में आते हुए अलिरूपी केशकुलवाली है, जो देवकुल रूपी दांतों की पंक्ति दिखानेवाली है, ऐसी आनन्द करती हुई गरी पी कानी में था कुल का प्रधान पार्थिव नाम का राजा था। उसकी कलहंस और वीणा के समान स्वरवाली सुन्दरी नामकी सती पत्नी थी। पुण्य से प्रशस्त सर्वपुरुषार्थों में अभिनव गृहप्रवेश के समान सिद्धार्थ नाम का पुत्र था।
पत्ता-तब किसी आदमी ने आकर राजा से निवेदन किया-जिन्होंने लोगों के दुश्चरित्र का विध्वंस कर दिया है, ऐसे आचार्य नाम के मुनिवर मनोहर उद्यान में अवतरित हुए हैं।
(3) तब सुन्दरी के साथ, पुत्र के साथ और परिवार की ऋद्धि के साथ, राजा वन में गया। उसने मन-वचन-काय की शुद्धि से मुनिवर की वन्दना की। राजा के द्वारा पूछे जाने पर विश्वरूपी कमल के सूर्य परमेश्वर ने तत्त्व का कथन किया-आत्मा ज्ञान-दर्शनस्वरूप है, दुष्कृत मन का नाश करनेवाली निर्जरा दो प्रकार की है। योग तीन प्रकार का है (मनोयोग, वचनयोग और काययोग)। तीन अशुभ गर्व हैं। जीव की तीन गति हैं (पाणिमुक्त, गोमूत्रिका और लांगलिका)। मन की तीन शल्य हैं। गुणवत तीन हैं। शिक्षाप्रत चार हैं। चार गतियों को प्राप्त करानेवाली चार कषायें हैं। विन्यासबत चार प्रकार के हैं (नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से)। चार ध्यान हैं, पाँच शरीर और पांच ज्ञान हैं। पाँच महाव्रत और पांच आचार हैं। विश्व में श्रेष्ठ 4. A उबवणणिवरिय । 5. A तहु णामें सुदरि पहपणइणि; P तहु णामें सुंदर पियपणइणि। 6. A वासु पवेसु । 7. A मणहर' । 8. P आइरिउ ।
(3) 1. P दुविक्रयगणु । 2. P तिणि वि गुणवय। 3. P पंच बि।
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228]
[80.3.8
महाकवि पुष्पदन्त चित्रित महापुराण पंच महब्बयाई आयारइं पंचाणुव्वयाई जगसारई। समिदीउ पंच रइयगुणछायउ भणियउ पंचवीस वयमायउ । जे लोउत्तमणाह' सिट्ठा
ते पंचत्यिकाय उवट्ठा। भासियाई पंचासवदारई
पंचिदियइं गहीरवियारइं। जीवणिकायभेय छावासय छवई छव्विह लेसासय। तच्चई सत्त सत्त णय संसिय वत्त वि भय रिसिणा उवएसिय। कम्मई अटू अट्र मय कयमल अट्ठ महीउ अट्ठ वितरकुल । णव पयस्थ णव बलणारायण धम्मभेय दह पसमुप्पायण । एयारह सावयगुणठाणई
आरह अंगई सत्थाणहाणई। बारह तब तेरह चारित्तई चोदह पुष्वई मुणिणा बुत्तई। पत्ता-पायालु सग्गु णरयरभुवणु भयवतेण पयासियजं ।
जं कि पि जिणागमि लक्खियउं तं णीसेसु वि भासियउं ।।३।।
दुवई-राएं रायपटु सिद्धत्था भालयले णिवेसिओ ।।
___णिसुणिवि चारु धम्मु अरहंतहु अप्पुणु तवु समासिओ॥छ। लइय दिक्ख जिणवरु पणवेप्पिणु पायपुज्जगुरुपाय णवेप्पिणु । सिद्धत्यु वि घरवयअइसइयउ थिउ सम्मत्तरयचिंचइयज ।
जलगिहिजलवलइयजयसिरिसहि भुंजतेण तेण सयल वि महि । पाँच गणनत हैं। पांच समितियां, जो गुणों को आश्रय देनेवाली हैं, व्रत के हिसाब से पच्चीस कही जाती हैं। लोकोत्तर स्वामी ने जिनका कथन किया है उन पंचास्तिकाय का भी उपदेश उन्होंने क्रिया। पांच आस्रवद्वारों और गम्भीर विचरित पाँच इन्द्रियों का कथन किया। जीवनिकाय के भेद, छह आत्रव, छह द्रव्य और छह प्रकार के लेश्याभाव, सात तत्त्व और सात नयों की प्रशंसा की। महामुनि ने सप्तभय का भी उपदेश किया। कर्म आठ और मल उत्पन्न करनेवाले आठ मद हैं। आठ भूमियां और आठ व्यंतरकुल हैं । नौ पदार्थ हैं । नौ बलभद्र, नौ नारायण हैं । शांति उत्पन्न करनेवाले दस धर्म हैं । श्रावक के ग्यारह गुण और स्थान है। शास्त्रों का समूह बारह अंग वाला है। बारह तप, तेरह प्रकार के चरित्र हैं । चौदह पूर्यों का भी मुनि ने कथन किया।
पत्ता-ज्ञानवान् उन्होंने पाताल, स्वर्ग, नरलोक का प्रकाशन किया। जो कुछ भी जिनागम में लिखा है, उस सबका निःशेष भाव से कथन किया।
राजा ने सिद्धार्थ के भालतल पर राजपट्ट रख दिया और अरहंत का मनोज धर्म सुनकर स्वयं ने तप स्वीकार कर लिया। जिनवर को प्रणाम कर और पूज्यपाद गुरु के चरणों को नमस्कार कर उन्होंने दीक्षा ले ली । सिद्धार्थ भी गृहव्रतों में अतिशय सभ्यदर्शन से शोभित होकर स्थित हो गया । जलनिधि जल तक विस्तृत विजयश्री की सखी धरती का भोग करते हुए उसने 4. A लोयतत्तणाहें। 5. A पायाल ।
(4) 1. A समत्तु रयणु । 2. P जवलइय" ।
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1229
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80.4.20]
महाका-पुर-NिEA महापुराण णिसुय बत्त जिह जणणु जईसरु मुउ संणास णिण्णासियसरु । तणयह विणयपणयविस्थिण्णहु ढोइवि णियकुलसिरि सिरिदिएगहुँ । बग्गुरवेनु गाढु मणहरिणहु किउ तवचरणु हरणु जमकरणहु । तहि जि मणोहरवणि तणुताविउ मुणिवरु गुरु सम्भावें सेवित। सो अप्पाउं जिणभावें रंजइ लद्धउं कालि सुणीरसु भुंजइ। मउणु' करइ अह थोवउं जंप बंधमोक्खु संसारु वियप्पा । विकहउ ण कहद्द ण सुयइ ण सुणइ धम्मझाणु रिसि णिविसु वि म मुयद । जग्गइ इंदियचोरहं एंतहं । सीलदविणु बलि मड्ड हरंतह। रत्तिदिवस उन्भुन्भउ अच्छइ सत्तु वि मित्तु वि सरिसउ पेच्छा। देहि णेहु कि पि वि ण समारइ पुग्वभुत्तु मणि ण सरइ मारइ। मलपविलित्तई अट्टइं अंगई रियई तेणेयारह अंगई। धीरें सच्चु तच्च णिज्झायउं खाइउ दसणु खणि जप्पाइउं । सोलह थिर हियएण धरेप्पिणु जिणजम्मणकारणई चरेप्पिणु। पत्ता-सो अणसणु करिवि पसण्णमइ मुणि पंडियमरणेण मुउ ।
अवराइउ ससहरकरधवलि मणिविमाणि अहमिदु हुउ ।।4।।
15
20
जैसे ही सुना कि कामदेव का नाश करनेवाले योगीश्वर पिता संन्यासपूर्वक को मृत्यु प्राप्त हुए, विनय और प्रणय से विस्तीर्ण पुत्र श्रीदत्त को अपनी कुलश्री देकर उसने तपश्चरण ले लिया, जो मनरूपी हरिण के लिए अत्यंत बागुर का बंध और रोग का हरण करनेवाला था। उसी मनोहर उद्यान में शरीर से संतप्त गुरु की सद्भाव से सेवा की । वह स्वयं को जिनभाव से रंजित करता है, समय से प्राप्त नीरस भोजन करता है, या तो वह मौन रहता है या थोड़ा बोलता है। बन्ध, मोक्ष और संसार का विचार करता है । विकथा न वह कहता है, न सुनता है। वह मुनि एक पल के लिए भी धर्मध्यान नहीं छोड़ता। शील रूपी धन का जबरदस्ती अपहरण करने आते हुए इन्द्रिय रूपी चोरों से जागता रहता है। रात-दिन दोनों हाथ उठाए रहता है, शत्र और मित्र को समानभाव से देखता है। देह में वह नख के बराबर भी समादर नहीं करता। पूर्व में भोगी गई रति और लक्ष्मी को वह बिल्कुल भी याद नहीं करता। मल से निलिप्त आठों अंगों और ग्यारह अंगों को उसने धारण किया है। उस धीर ने सत्य और तत्त्व का ध्यान किया। एक क्षण में उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो गया। जिनजन्म की कारणस्वरूप सोलह स्थिर भावनाओं को हृदय में धारण कर और आचरण कर,
घत्ता-अनशन कर वह प्रसन्नमति मुनि पण्डितमरण से मृत्यु को प्राप्त हुआ। वह चन्द्रकिरणों के समान धवल मणिमय अपराजित विमान में अहमेन्द्र हुआ ।
3. A तवय रणु। 4. AP तबताविउ । 4 AP.मोणु । 6. A णिमिसु । 7. AP मंड1 8. P रणि । 9P वीरें।
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230]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
(80.5.1
दुवई-बरणीहारहारपंडुरयर रयणिपमाणियंगओ।
चिमासाहरलागिहि गयरमणीपसंगओ' ॥छ।। जो णीसासवाउ फयसंखहिं मुयद कहि मि तेत्तीसहिं पक्खहि । माणियअमरालयसिरिहद्दई आउ जासु तेत्तीससमुद्दई। तेत्तियवरिससहासहि भोयणु जो अहिलसइ सोक्खसंपाथणु। सुक्कलेसु मज्झत्यु महाहिज तहु छम्मासकालु जइयहुँ थिउ । सइयहुं घरसिरिसंठियखयरिहि वंगदेसि वरमिहिलाणयरिहि'। इंदाएसें धणएं रइयहु विविहमहामाणिक्कहि खइयहु । विविहहट्टटेंटारमणीयहि विविहमाणिणीयणसंगीयहि । विविहारामहि विविहणिवासहि विविसिहरआलियिायासहि । घत्ता--तहिं विजयराउ णामें नवइ णिवसइ णवणिसियासिकरु॥
छायायरु जणसंतावहरु णं वरिसंतउ अंबुहरु ।।5।।
10
6
दुवई-तहु धरि धरणि' देवि परमेसरि वपिल चारचारिणी ।।
हिरिसिरिकंतिकित्तिदिहिलच्छिहिं सेविय यियहारिणी ॥छ।।
(5)
वह श्रेष्ठ नीहार और हार के समान धवल, एक हाथ प्रमाण देहवाला, प्रतिकार से रहित श्रेष्ठ सुख, रसनिधि और रमणी-प्रसंग से रहित था। वह तेतीस पक्षों में कभी निःश्वास वायु छोड़ता। उसकी आयु अमरालय के कल्याणों को मानने वाली तेतीस सागर प्रमाण थी। तेतीस हजार वर्ष में वह सुख को सम्पादन करनेवाले भोजन की इच्छा करता था। वह शुक्ल लेण्यावाला और मध्यस्थ था। जब उसकी अधिक-से-अधिक आयु छह माह शेष रह गई, तब बंग देश की, जिसके गृह-शिखरों पर विद्यारियाँ स्थित हैं, इन्द्र के आदेश से ६नद के द्वारा रचित, विविध महामाणिक्यों से विजड़ित, विविध हाटों और द्यूतगृहों से रमणीय, विविध मानिनी-जनों द्वारा संगीयमान, विविध उद्यानों, विविध गृहों-शिखरों से जिसके आकाश प्रदेश आलिखित हैं-ऐसी उस मिथिला नगरी में
घत्ता-विजय नामक नवीन तलवार अपने हाथ में लेनेवाला विजयराज नामक राजा था। मानो वह छाया करनेवाला तथा लोगों का संताप दूर करनेवाला बरसता हुआ मेघ हो ।
हे देव, उसके घर में सुन्दर आचरण करनेवाली वप्रिल नाम की परमेश्वरी गृहिणी थी । जो ह्री, श्री, कान्ति, कीर्ति, धृति और लक्ष्मी द्वारा सेवित तथा हृदयहारिणी थी। सुख
(5) 1. AP रमणीयसंगहो । 2. P खसिरि । 3. AP मिहला । 4. P णिवइ । (6) 1. AP परिणि ।
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[231
5
80.7.45
महाका-पुष्फर्मत-विरसमज महापुरानु सुहं सुत्ताइ ताइ अलिमालिउ सिविणइ णिसिहि विरामि णिहालिउ । करि करडयलगलियचुय मयजलु' अणडु खरखुरजुयखयधरयलु । हरि हरिकुलिसकविणणहयगिरि गयकरकलससलिलण्हावियसिरि। पसरिय परिमलमहुयरसबलिय सर कुसुममय मिलिय णविलुलिय । कुवलयदलविलसियकर ससहरु मिहिरु गयणमहीदिसिगयतमहरु । सस भमिर रमिर रइववसिय घड जलभरिय हरियकिसलयचिय। सरवरु सकमलु सरिवह समयरु मणिहरियासणु जियसुरमहिहरु। विसहरभवणु सुमहु सयमहधरु'। रयणणियह पहहयरबियरविड हयवह कणयकविलदीहरसिह । घता-इय जोइवि सिविणय सोलह वि अक्खिउ मुजुइ' णियपइहि ॥
तेण वि देसावहिलोयणिण फलु वियरिउ गयवरगइहि ।।9।।
दुवई—सयलसुरिंदचंदु गुणगणणिहि णिरुवमु णिसुणि सुंदरी ।।
होही तुज्झु पुत्तु गुरुहुँ मि गुरु कामकरिदकेसरी' ॥छ।। हुउ अद्भवरिसु धरि रयणवरिसु।
सरयावयासि भद्दवयमासि । से सोई हई उसने रात्रि के विरामकाल में स्वप्नमाला देखी। जिसके गण्डस्थल से मदजल च रहा है ऐसा हाथी, अपने तीव्र दोनों खुरों से धरतीतल को खोदता हुआ बैल, इन्द्र के वच्न के समान कठोर नखों से गिरि को आहत करनेवाला सिंह, हाथियों की सूड़ों के कलश-जल से अभिषिक्त लक्ष्मी. परिमल और मधकरों से मिश्रित जड़ी हई आकाश में झलती मालाएं, जिसकी किरणें कुमुददलों को विकसित करनेवाली हैं ऐसा चन्द्रमा, आकाश धरती और दिशाओं में अन्धकार को दूर करनेवाला दिनकर, रति के लिए उद्यत एवं क्रीड़ा करता हुआ भ्रमणशील मत्स्य, हरे कोपलों से आच्छादित जल से भरा घड़ा, कमल सहित सरोवर, मगर सहित समुद्र, देवपर्वत को जीतनेवासा रत्नों का सिंहासन, मागभवन, अत्यन्त विशाल इन्द्रभवन, प्रभा से सूर्य की किरणों की विभा को आहत करनेवाला रलसमूह तथा कनक और कपिल रंग की लम्बी ज्वाला वाली आग।
पत्ता-इस प्रकार सोलह स्वप्नों को देखकर उस मुग्धा ने अपने पति से कहा । उसने भी देशावधिज्ञान के लोचन से उस गजगामिनी को फल बताया 11611
हे सुन्दरी सुनो, तुम्हारा पुत्र सकल सुरेन्द्रों के द्वारा वंदनीय, गुणगण की निधि और अनुपम, गुरुओं का गुरु तथा कामरूपी करीन्द्र के लिए सिंह होगा। आधे वर्ष तक घर में रत्नों की वर्षा 2. AP °वस। 3. P ‘मयइलु 1 4. A °सुव्हविसिरि; P 'सुव्हथिय । 5. P 'धियर्यासययरु। 6. P सयमयबरु। 7.A सुखइ। 8.APणियवहि। 9. AP विवरिउ गरबर"।
(7) I. P कालकरिब'। 2. A अवयरिसु। 3. AP अस्सणहु मासि।
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232]
J
महाकवि पुष्पदन्तविरचित महापुराणं ससिधवलपक्खि यहि जिfig fra भवरसि आयामरेहि सुल्लइ हंतु हणिवाणु जोइउ गरेह विभवणि ताव मुणिसुव्वयम्मि भावात" यस लख तयहुं अउन्ह पक्वंतरालि
आणि रिष । जगकुमुमचंदु | संसारणासि । चलचामरेह् । किज दियंतु । वसु अप्पमाणु । पणत्रियसिरेहि । गवमास जाय । पालियवयम्मि | णिवाणपत्ति' । वरिसहं ससं ।
आसाढकण्ह carमरल | दिहि पणि ।
आणंदपुण्णि अइसुरहिवाइ धुंयगंधसलिलि कंती" कंति सुहसंगमेण तेलोक्कणाहु
दुदुहिणिणरह सुरतिकमलि । दहमइ दिति ।
जायउ कमेण । अहमंदराहु | लिहि" तण |
पयपणयधणच
धत्ता - णिउ देवहि मंदरमहिहरहु पुज्जाविहि संमाणियउ ||
[80: 7.5
3
10
15
20
25
पडुपरिमंगलरविण जयजयस हाणियउ ||7|| हुई। जिसमें मेघों को अवकाश है इसे भाद्र माह के कृष्ण पक्ष में अश्विनी नक्षत्र में द्वितीया के दिन, संसार का नाश करनेवाले, विश्वरूपी कुमुद के लिए चन्द्र, जिनेन्द्र गर्भ में स्थित हुए। चंचल वाले आए हुए अमरों से आकाश आन्दोलित हो उठा, दिगन्त आच्छादित हो गया। लोगों ने प्रण सिरों से आकाश से गिरते हुए अप्रमाण धन को देखा। तब तक कि जब तक नौ माह हुए, जिन्होंने व्रत का पालन किया है ऐसे मुनिसुव्रत तीर्थंकर के, संसार भावना से परित्यक्त निर्वाण प्राप्त कर लेने के बाद जब साठ लाख वर्ष बीत गए, तब आषाढ़ माह के, जिसमें देवों का शब्द हो रहा है, जो आनन्द से पूर्ण है, जिसमें दिशामुख प्रसन्न हैं, जिसमें सुरों से अति आत दुभि का निनाद हो रहा है, सुगंधि जल बह रहा है, देवों द्वारा कमल बरसाए जा रहे हैं, जो क्रांति से सुन्दर है, ऐसे दसवीं के दिन, क्रम से शुभ संगम होने पर, त्रिलोक का स्वामी और जिसके चरणों में अहमेन्द्र प्रणत है, वप्पिला को ऐसा पुत्र हुआ ।
पत्ता - देवों के द्वारा उसे मन्दराचल पर्वत पर ले जाया गया, वहाँ पूजाविधि की गई। पटु, पटह और भेरि के मंगल स्वर और जय-जय शब्द के साथ उन्हें अभिषिक्त किया गया ।
4. AP सखिप 5. AP हि णिवडमाणु। 6. A बसे। 7. AP गिब्वाम् । 8. AP गय लेसलश्च । 9. P कंतीसति । 10. AP वप्पिल्लहि ।
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80.9.23
महाका-पुप्फयंत:विरायउ महापुराण
[233
दुबई-पुज्जिवि हविवि भणिज णमिजिणवर गुणमणिरुइरवण्णओ' ।
णाणत्तयसमेउ परमेसरु उज्जलकणयवण्णओ ।।छ।। आणिवि पुणु वि णिहित जणणहु घरि वढिउ जिणु कुमारु हंस व सरि वडिउ तवसंताउ व कामहु वढिउ दाहु व इंदियगामहु। वविउ मेहु व कोवढ्यासहु वड्ढिउ मंतु व भवभयतासहु। वडिउ हेउ व पवरसुहेल्लिहि बढिउ णवकंदु व दयवेल्लिहि । बढिऊ देवदेउ वररूवउ पण्णारधणुदेहु पहूयज। दससहास वरिसहं परमाउसु अड्वाइज्ज ताई कीलावसु । थिउ कुमार कुमरत्तणलीलइ पट्ट, णिबउ वियलियकालइ। वरिसह पंचसहासई खीणई रज्जु करतहु तहु वोलीणई। धत्ता-ता णवघणसमइ पराइयइ सुरधणु जणकोड्डावण ।।
सोहइ उवरित्थु पयोहरहं णं णहसिरिउप्परियणउं 118!|
दुवई--णाच्चियमत्तमोरगलकलरवि पसरियमेहजालए ।।
पथसियपियहि दीहणीसासकहाणलधूमकालए ।।छ।।
पूजा कर स्नान कराकर, गुणरूपी मणियों की कान्ति से रमणीय, तीन ज्ञान से युक्त और उज्ज्वल स्वर्ण वर्णवाले परमेश्वर को नमि जिनवर कहा गया। उन्हें लाकर, फिर से माता के गह में स्थापित कर दिया गया। सरोवर में हंस की तरह कुमार बढ़ने लगा। काम के संताप की तरह वह बढ़ने लगा, इन्द्रिय समूह के दाह के समान वह बढ़ने लगा । कोपरूपी हुताशन के लिए मेघ के समान वह बढ़ने लगा। भवभय के संत्रास के लिए मन्त्र के समान वह बढ़ने लगा। प्रवर सुख क्रीड़ाओं के कारण की तरह यह बढ़ने लगा। दयारूपी लता के नव अंकुर के समान वह बढ़ने लगा। सुन्दर रूपवाले देवाधिदेव बढ़ते गए और पन्द्रह धनुष प्रमाण शरीर वाले हो गए। उनकी परमायु दस हजार वर्ष की थी, उसमें ढाई हजार वर्ष क्रीड़ा में निकल गए । कुमार कौमार्य की लीला में रत हो गए। समय बीतने पर उन्हें पट्ट बाँध दिया गया। पांच हजार वर्ष क्षीण हो गए, राज्य करते हुए उनका (इतना) समय चला गया।
पत्ता-तब नवधन का समय आने पर, मेघों के ऊपर स्थित, लोगों को कुतुहल उत्पन्न करनेवाला इन्द्रधनुष ऐसा शोभित हो रहा था मानो आकाश रूपी लक्ष्मी का उपरितन वस्त्र (दुपट्टा) हो। [811
(9) जिसमें मतवाले मयूर सुन्दर कण्ठ-ध्वनि से नृत्य कर रहे हैं, जिसमें मेघजाल प्रसरित हो रहा है तथा प्रवसतपतिका के लिए जो दीर्घ निःश्वासों से उत्पन्न अग्निघूम का समय है, ऐसे
(8) 1. AP रुहवण्णभो। 2.A आणेपिणू णिहिउ । 3. सणुसंता3 1 4. AP झीणई। (9) I. AP पवसियमुक्कदीह ।
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234 महाकवि पुष्पवरत विरचित महापुराम
[80.9.3 तडिविप्फुरणफुरियपविउलणहि वारिपूरपेल्लियसदिसिवहि । छुडु जि छुडु जि बप्पीहें घोसिउ छुडु जि छुडु जि केयइवणुः वियसि । छुडु जि कयंबगंधु उच्छलियउ छुडु पप्फुल्लउ मालइकलियउ।
5 छुडु पंथियपिययम उक्कंठिय छुडु छुनु बायस वासपरिट्ठिय। हरियतिणंकुरोहदिण्णाउसि वरिसमाणि छुडु पत्तइ पाउसि। लीला करदो इमान बणकोलाविहारि पहु णिग्गज। कडयकिरीडहारकुंडलधर ता थिय सुरवर गहि मउलियकर । विपणवंति पणवंति कयायर णिसुणि णिसुणि भो गुणरयणायर। 10 इह दीवंतरि पुवविदेहइ तहि वच्छावइविजइ सुगेहइ। दविणणिवेयकामुयकामहि णयरिहि "सुहलियसीमसुसीमहि । आयउ त्रम्महबाणकयंत अवराइयहु विमाणहु होतउ । घत्ता-णिज्जियमणु तवसिहितत्ततणु कम्मबंधणिण्णासयरु॥ अवराइउ णामें लोयगुरु तहिं उप्पण्णउ तित्थयरु ॥१॥
10 दुवई--असरिसविसमविरसविससंणिहदुक्कियजलणजलहरा ।।
__ आया तस्स चरणपणवणमण रविससहरसुरासुरा। छ।। काल में जबकि बिजलियों की चमक से विशाल आकाश चमक रहा है और सभी दिशापथ जलप्रवाहों से आपूरित हैं। चातक ने शीघ्र से शीघ्र घोषणा की, शीघ्र से शीघ्र केतकी वन खिल उठा । शीघ्र ही कदम्ब की गन्ध उछल पड़ी, शीघ्र ही मालती की कलियाँ खिल गई। शीघ्र ही पथिक प्रियतम उत्कण्ठित हो उठे। शीघ्र ही वायस घरों के ऊपरी भागों पर स्थित हो गए। जिसने हरे-हरे तिनकों के लिए आयु प्रदान की है ऐसे बरसते हुए पावस के प्राप्त होने पर; जिसने खेल-खेल में चरण के चलाने से गज को प्रेरित किया है ऐसा राजा वन-क्रीड़ा के लिए चला। तब कटक, मुकुट, हार और कुडल को धारण करनेवाले और हाथ जोड़े हुए देव आकाश में स्थित हो गए। किया है आदर जिन्होंने ऐसे वे प्रणाम करते हैं और निवेदन करते हैं. हे गुणरत्नाकर देव, सुनिए, सुनिए। इस द्वीप के पूर्व विदेह में सुन्दर गृहोंवाला वत्सकावती नाम का देश है। जिसमें कामुकों की कामनाएँ धन से निवेदित की जाती है तथा जिसकी सीमा अच्छी तरह फलित है ऐसी सुसीमा नगरी में कामदेव के बाणों के लिए यम के समान तथा अपराजित विमान से होता हुआ
धत्ता-अपने मन को जीतनेवाला, तप की ज्वाला से संतप्त-शरीर, कर्मबन्धन का नाश करनेवाला, अपराजित नामक लोकगुरु तीर्थंकर उत्पन्न हुआ है।
(10) असदृश विषम और विरस विष के समान दुष्कृत रूपी ज्वाला के लिए मेघ के समान, रवि, चन्द्रमा, सुर और असुर उनके चरणों में प्रणमन करने की इच्छा से आए। जिसमें अमर विला2.AP केइयवणु। 3. P कमलगंधु। 4. AP तणंकुरोह। 5. AP °कुडलहर | 6. A सुललिय।
(10) I. AP णरविसहरसुरासुरा ।
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1235
80. 11.2]
महाका-पुष्फयंत-विरायउ महापुराणु अमरविलासिणिणच्चणतंडवि जंपिउ केण वि तह सहमंडवि। संपइ देहिदेहहयमयजरु' जंबूदीवभरहि को जिणवरु। केवलणाणसमुग्गयण यणे भणिउं जिणेण विणासियमयणे। वंगदेसि सुसुभरवसुकविलाह णववणणीलहि गयरिहि मिहिलाहि। उप्पण्णउ अच्छइ जगसंकरु णमिणामंकु भावितित्थंकरु । पवरविमाणहु हिमयरधामहू अवइपणउ अवराइयणामहु । भावाभावई चित्तई जाणइ देवविइण्णई सुक्खई माणइ । धादइसडि दीवि तउचिण्णउं दोहि मि देवत्तणु संपण्ण। पढमि सग्गि सोहम्मि मणोहरि रयणकिरणजालंचियसुरहरि । तं णिसुणेप्पिणु मइमल धोयहूं अम्हई आया तुह पय जोयहुँ। तं हियउल्लइ धरिवि गरेसरू णयरि पइठ्ठ ललियगन्भेसरु । तहु जिणवरहु जम्मसंबंधई सुयरेप्पिणु णियभवई सचिंधई। पत्ता--चितइ वसुहाहिउ णियहियइ बुद्ध सबोहिइ बुद्धः॥ जगि जीउ जहिं जि हुउ तहिं तहिं जि रमइ सकम्मणिबद्धउ ॥10॥
11 दुबई—हिंडइ भवसमुद्दि अण्णाणविलुटियणाणलोयणो ।।
पुत्तकलत्तमित्तवित्तासापासणिरुद्धचेयणो ॥छ।।
15
सिनियों के नृत्य का विस्तार हो रहा है, ऐसे उनके सभा-मण्डप में किसी ने पूछा-"इस समय जम्बद्वीप के भरतक्षेत्र में शरीरधारियों के कामज्वर को नष्ट करनेवाले कौन जिनवर हैं? जिसने कामदेव का नाश कर दिया है ऐसे केवलज्ञान से उत्पन्न नेत्र वाले अपराजित ने कहाबंग देश की पुष्पधूलि से अत्यन्त कपिल, नववन से नीली मिथिला नगरी में उत्पन्न, विश्व के लिए सुख देनेवाले नमि नाम के भावि तीर्थकर हैं। चन्द्रकिरण के समान धामवाले अपराजित नाम के विशाल विमान से अवतीर्ण वह विचित्र भाव-अभावों को जानते हैं, देवों द्वारा प्रदत्त सुखों का भोग करते हैं। धातकीखण्ड द्वीप में दोनों ने तप ग्रहण किया था और दोनों ने प्रथम स्वर्ग सुन्दर सौधर्म के रलकिरणों के जाल से अंचित देवविमान में देवत्व प्राप्त किया था। यह सुनकर हम दोनों अपना मतिमल धोने और तुम्हारे चरणकमल देखने के लिए आए हैं। यह बात अपने हृदय में धारण कर, सुन्दर गर्वेश्वर राजा ने अपनी नगरी में प्रवेश किया। उन जिनवर के संबंधों और चिह्न सहित अपने जन्मान्तरों की याद कर
पत्ता-राजा विचार करता है कि जानकार ही जानकार को सम्बोधित कर सकता है। यह जीव जग में जहाँ भी उत्पन्न होता है, अपने कर्म से निबद्ध होकर वहीं रमण करता है ।
जिसका ज्ञानरूपी नेत्र अज्ञान से बन्द है तथा पुत्र-कलत्र-मित्र और वित्त के आशारूपी
2. AP देहि देउ। 3. AP चितइ। 4. AP 43 । 5. A तहि हिय । 6. P सुमरेप्पिणु ।
(11) 1. A चितासापास।
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2361
महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण
180.11.3 इय आयंतु देउ उम्मोहिउ सारस्सयसुरवरहिः संबोहिउ । तणयहु वरसरीरसुहकारिणि दिग्ण तेण सधराधर धारिणि । सुप्पहणामह पट्ट णिबंधिवि धम्मझाणु हियउल्लइ संधिधि। अमरवराहिसेउ पावेप्पिणु धणु परियण तणु जिह मिल्लेप्पिणु । सुमहिउ सयमहेण महिरूढउ उत्तरकुरुसिवियहि आरूढउ । गउ आसाढमासि घणसामलि अस्सिणिरिक्खि पक्खिससिउज्जलि । दसमइ दिवसि मुहुत्ति पहाणइ फलपविइ चित्तवणुज्जाणइ । लइय दिक्प सिद्धग गलने बदनरमहिमोह मयंतें । मुक्कंबरइ' विलुंचियकेसह पहु आलिगिउ दिक्खावेसइ। लइयएण छ?णुववासें
सहं सुसीलखत्तियहं सहासें। इंदचंदणाइंदणमंसिर
मणपज्जवणाणेण विहूसिउ। वीरणयरि दतहु परणाहहु बीरलच्छिसुपसाहियबाहु। घरि पारणउं कयउं परमेसे सुरकयपंचच्छरियविलासें । पत्ता–णववरिसई दुबरु तउ चरिवि तिणि वि सल्लई वज्जियई। रसगंधफाससुइलोयण पंचिंदियई परज्जियई 111
12 दुवई-बसुहं हिंडिऊण गउ पुण रवि तं दिक्खावणं धणं ।।
कुसुमियफलियल लियतरुसाहाकीलियहसबरहणं ।छ।।
पाश में निरुद्धचेतन यह जीव संसार-समुद्र में भ्रमण करता है यह विचार करते हुए देव मोह से दूर हो गये। लोकांतिक देवों ने आकर उन्हें सम्बोधित किया। श्रेष्ठ शरीर का शभ करनेवाली सधराधर धरती उन्होंने अपने पुत्र के लिए प्रदान कर दी। सुप्रभ नामक पुत्र को पद बाँधकर हृदय में धर्म का संधान कर, देवों द्वारा वर-अभिषेक पाकर, धन और परिजन को तृण की तरह त्यागकर, इन्द्र के द्वारा पूजित धरती पर प्रसिद्ध, उत्तर कुरु शिविका पर आरूढ़ होकर, आषाढ माह के कृष्ण पक्ष की दसवीं के दिन आश्विन नक्षत्र में, फलों से विनम्र चित्र-वन उद्यान में सिद्धों को नमस्कार करते हुए, घर, पुरवर और धरती का मोह छोड़ते हुए प्रभु मुक्ताम्बर (मुक्तवस्त्र) वाली और बिलुचित केशवाली दीक्षा रूपी वेश्या के द्वारा आलिगित किए गए। छठा उपवास ग्रहण करते हुए, एक हजार सुशील क्षत्रियों के साथ, इन्द्र, चन्द्र और नागेन्द्रों के द्वारा वन्दनीय, मनःपर्ययज्ञान से विभूषित, वीर नगर में वीरलक्ष्मी से सुप्रसाधित-बाहु राजा दत्त के घर परमेश्वर ने देवी द्वारा किये गये पांच आश्चर्य विलास के साथ पारणा की।
पत्ता-नौ वर्षों तक दुर्धर तप कर उन्होंने तीन शल्यों को छोड़ दिया । रस, गन्ध, स्पर्श, श्रति और लोचन-पांचों इन्द्रियों को जीत लिया गया ।
धरती पर विहार कर वह पुनः उसी दीक्षा-वन में गए कि जहाँ कुसुमित फलित वृक्षों की 2.AP मा रस्सयसुरेहि । 3. A मुक्क्रबरपविलुचिय° । 4. AP°णायद । 5. AP दुसरु चरिवि तउ ।
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80. 13, 4]
महाक- पुष्कमंत विजय महापुराण
तहि रिसिं तवसंतायें रीणउ मग्गसिरइ सिसिरइ संपत्तइ तइयइ सासिणिदियहि वियालइ उप्पणेण णविणों सुहुमहं अवतरिय दूरई पोग्गलाई पूरियगलियं गई मल्लयमुरयवजणहु तिहुबणु कालु विलक्खि जायपवत्तणु धमाधम् a farsठाणइं ता दसदिसिव हे हि आवंतहि
लमही रुहतलि आसीणउ | fee मियंक रावलिदित्तइ । पिल्लूरियमहंतत मजालद्द । निदुइ देवें केवलणाणें । पञ्चषखाई सुभेगही रहूं । गंधर्वण्णपरिणामवसं गई ।
गण लक्ख गयणं गणु । अप्परं सयणु अयणु चेयणगुणु । बुज्झिते सुद्धप्रमाणडं ।
जय जय जय' मुणिणाह भतहि ।
घता
- पूएप्पिणु वियसियसुरहियहि कुसुमहिं कुसुमसरतिहरु ॥ देवणिकाय गमिउ णमि परमपरिग्गहु परमपरु ।।12।।
13
दुबई – रेहद्द तुज्नु गाह भुवणसयसीहा सण विलासओ ॥ जस्सा होवयम्मि देबिंदु' वि बहसइ गवियसीसम || || दवउ' धणघरतिट्ठावाहि जगु जीवद्द तुह छत्तं छाहिंह। तुह वाय मृगु मंदु वि बुज्झइ ।
पई दिइ पावि वि सुझह
[237
5
10
(12)
शाखाओं पर हंस और मयूर क्रीड़ा कर रहे थे। वहाँ तप के संताप से क्षीण वह ऋषि मौलश्री वृक्ष के नीचे स्थित हो गए। वहाँ मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में संध्या समय महान तमोजाल को नष्ट करने पर, जिसे देवता नमस्कार करते हैं ऐसे उत्पन्न हुए केवलज्ञान के द्वारा देव ने सूक्ष्मतर और अंतरित दूरियां, तथा भेदों से गंभीर प्रत्यक्षों को देख लिया । गंधव और परिणमन के वशीभूत, पूरित और गलितांग पुद्गलों को देख लिया। सकोरा और सुरज बाद्य के समान त्रिभुवन को अवगाहनस्वरूप आकाश को प्रवर्तनमूलक काल को, आत्मा, सशरीर जड़ और चेतन गुण को, धर्म और अधर्म-दोनों गति और ठहराव के कारण को, उन शान्त ने शुद्ध प्रमाण से जान लिया। तब दसों दिशा पथों से आते हुए, 'हे मुनिनाथ आपकी जय हो, जय हो' कहते हुए
पत्ता - चारों निकायों के देवों द्वारा विकसित एवं सुरभित कुसुमों से कामदेव की पीड़ा का हरण करनेवाले प्रशांत परिग्रह, परमपर नमि को पूजा कर, उन्हें नमन किया गया ।
(13)
हे स्वामी, तुम्हारे भुवनत्रय का सिंहासन-बिलास शोभित है कि जिसके नीचे देवेन्द्र भी अपना सिर झुकाकर बैठता है। धन और तृष्णा की व्याधि से दग्ध विश्व तुम्हारे छत्रों की छाया में जीता है। आपको देख लेने पर पापिष्ठ भी शुद्ध हो जाता है। तुम्हारी वाणी से मंद पशु भी
(12) 1 P अंबरसरियई । 2 A सभेय° 3 AP वण्णगंधपर। 4. A दसदिसिषण P दसदिसिवहि हि भवंतहि । 5. Pomits जय ।
( 13 ) 1 A देविंद्र पइसई। 2. A दड्ढयंधणघर" । 3. Ap मिगु ।
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238] महाकवि पुष्पवात विरचित महापुराण
80 135 तुह धम्महु ण लील संपावइ विजुज्जोए' अंगउ दावह। णिग्गुणधम्में केत्ति गज्जइ घणु तुह दुंदुहिरवहु ण लज्जइ। जिण तुह भामंडल वित्थारें लोउ ण धिप्पइ मोहंधारें। तुह चामरहिं चलंतहिं पेल्लिज कम्मरेणु उड्डाविवि धल्लिउ । रंजिय कुसुमविट्ठिरुइरंगें महुअर मत्ता तुजा जि संगें। तुज्झु असोउ सोयणिण्णासणु णंदउ णाह तुहारउ सासणु ।
10 धत्ता-जय जय परमप्पय परमगुरु जम्मि जम्मि तुहं महु सरणु ।।
रिसिचरणमूलि सल्लेहणिण महुं देज्जसु समाहिमरणु ।।13।। दुवई—इय संथुउ जिणिदु देविदाह सेवियघोरकाणणो॥
वगयकामकोहमयमोहमहातवलच्छिमाणणां ॥ देउ एक्कवीसमऊ जिणेसरु उपगउ णं गयणंगणि सरु । सच्चु सधम्म अहम्मु वियार भवसमुद्दि बुड्डतई तारइ। उवसंतई पयपंकयणवियई पियश संमोहिमधियाई : तहु उप्पण्णा पुण्णमणोरह सुष्पहाइ सत्तारह गणहर। पुष्यधरहं पण्णास समेयई चउसयाई ससिदिणयरतेयई। उडुसयाइं बारहसहसालई सिक्खुयरिसिहि समुज्जलसीलई।
पुणु छसयाई बारहसहसालई णाणत्तयवंतहुं सुणिउत्तई । समझ जाता है । मेघ तुम्हारे धर्म (धनुष) की लीला नहीं पा पाता इसीलिए विद्युत् के प्रकाश से अपना शरीर दिखाता है । अपने निर्गुण (डोरी रहित) धनुष से वह कितना. गरजता है ! घन तुम्हारे दुंदुभि के शब्द से लज्जित नहीं होता ? हे जिन, तुम्हारे भामण्डल के विस्तार से लोग मोहान्धकार की गिरफ्त में नहीं पड़ते। तुम्हारे चलते हुए चमरों से प्रेरित कर्मधूलि उड़ाकर फेंक दी जाती है । कुसुमवृष्टि की कांति में रंगे हुए भ्रमर तुम्हारे साथ ही मत्त रहते हैं । तुम्हारा अशोक शोक का नाश करनेवाला है। हे नाथ, तुम्हारा शासन बढ़ता रहे।
घत्ता हे परमात्म आपकी जय हो; हे परमगुरु, जन्म-जन्म में तुम मेरे लिए शरण हो; मुझे मुनिवर के पादमूल में सल्लेखना और समाधिमरण देना।
(11) जिन्होंने घोर कानन का सेवन किया है, जो काम, क्रोध, मद, मोह से रहित और तपरूपी महालक्ष्मी को मानने वाले हैं, ऐसे जिनेन्द्र की देवेन्द्रों ने स्तुति की । इक्कीसवें जिनेश्वर देव मानो आकाश में सूर्य के रूप में उगे । वह धर्म-अधर्म का सच्चा विचार करते हैं, संसार रूपी समुद्र में गिरते हुओं को तारते हैं, प्रिय वचनों से भव्यों को सम्बोधित करते हैं। उनके पुण्य मनोरथ सुप्रभ आदि सत्ररह गणधर हुए । चन्द्र और सूर्य के समान तेजस्वी पूर्वधारी चार सौ पचास थे। बारह हजार छह सौ शील से समुज्जवल शिक्षक मुनि थे। फिर बारह हजार छह सौ तीन ज्ञान के 4. A विज्जाजोएं। 5. AP 'रइरंग; K records a p: रप इति पाठे रजः । 6. P परमपरु ।
(14) 1. P सच्चु सुतच्च सुधम्मु । 2. P संबोहए। 3. AP गणहर सत्तारह ।
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10
80. 15.8] महाका-पुष्फयंत-बिरइया महापुराण
[239 तेत्तिय केवलणाणपहायर मुणिवरिंद तणुविक्किरियायर। पंचसयाई एक्कसहसिल्लई मणपज्जवणाणिहिं णीसल्लई। साहहुँ' सहुं सोण गविट्ठई दोसयाई पग्णास जि दिदुई । जिणवरमग्गि णिवेसियसीसहं एक्कु सहासु महावाईसहं । मंगिणिपमुहहं हयमइमइयह पणचालीससहस' संजइयहं । एक्कु लक्ख सावयहं समासिउ तिउणउ सो सावइहि पयासि । 15 अमर असंख संख खग मृग जाह असहारद्धि वाणज्जई कि तहि । पत्ता-दोसहसई पंचसयायिई महि विहरिवि संवच्छरहं ।। पसुसुरणरखेयरविसहरहं धम्मु कहिवि मलियकरहं ।।144
15 दुबई—णभि संमेयसिहरिसिहरोबरि दूरुझियणियंगओ ॥
- अच्छिउ मासमेत्तु णिरु णिच्चलु पडिमाजोयसंगओ छ।। किरियाछिदणु शाणु रएप्पिणु तिषिण वि अंगई झ त्ति मुएप्पिणु । थियउ अजोइदेहु आसंघिवि पंचमंतकालत लघिवि । रिसिहि सहासे सहुँ णिव्वाणहु गउ परमप्पउ अच्चुयठाणहु । महिमंडलि रविकिरणहिं तत्तइ तहिं वइसाहमासि संपत्तइ । 'कसणचउद्दसिदिवसि समायइ णिसिविरामि छुडु छुडु जि पहायइ।
णिक्कलु जायउ चंदफणिदहि पुज्जिउ देवदेउ देविदाह । धारी नियुक्त थे। केवल जान के धारी भी। विक्रियाधारक मुनिवरेन्द्र भी एक हजार पांच सौ थे। मनःपर्ययज्ञानी साधु बारह सौ पचास थे। शिष्यों को जिनवर के मार्ग में निवेशित करनेवाले एक हजार वादी मुनि थे। मंगिनी को प्रमुख मानकर मतिमद को नाश करने वाली पैतालीस हजार आयिकाएँ थीं । संक्षेप में एक लाख श्रावक, और तीन लाख श्राविकाएं प्रकाशित की गई हैं । अमर असंख्यात थे। तिर्यच (खग मृग) जहाँ संख्यात थे, वहाँ अरहंत की ऋद्धि का क्या वर्णन किया जा सकता है !
पत्ता-दो हजार पाँच सौ वर्षों तक धरती पर विहार कर, हाथ जोड़े हुए पशु सुर नर विद्याधरों और नागवेवों को धर्म कहकर--
(15) अपने शरीर का दूर से परित्याग करने वाले नमि जिनेश सम्मेदशिखर पर एक माह तक प्रतिमा योग में एकदम निश्चल रहे। वहाँ क्रिया-छेदोपस्थापना ध्यान कर तीनों शरीरों का सहसा परित्याग कर. अयोगदेह योग का आश्रय लेकर सिथत हो गए । फिर पंचम कालांतर का अतिक्रमण कर एक हजार मुनियों के साथ, वह परमात्मा अच्युत स्थान निर्वाण चले गए । भूमिमंडल के सूर्य की किरणों से संतप्त होने पर वैशाख माह के आने पर, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन, रात्रि का अन्त होने पर प्रभात में वह निकलंक (निष्पाप) हो गए । चन्द्र, फणेन्द्र और देवेन्द्रों 4. P सीहूं। 4. AP जिणवयमग्नें। 6. AP गयमयमझ्यहं । 7. A पंचसदिसहसई संजयहं । 8. AP मिग ।
(15) I.P.णियगओ। 2. AP पंचमत्त। 3. AP सहासहि। 4.A कसिण।
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240]
10
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराग
[80. 15.9 पहयतूररवपूरिख पहयलु मेवोत्तमुपास कलमलु। उम्भिय धय रयण विच्छिण्णई दीणाणाहहं दाणइंदिण्णई। धरिय चारुचंदोवय चामर णच्चिय धरणिरंगि विविहामर। दरिसंतेहि तेहिं तहि णवरस णवचालीसभावपसरियजस । छत्तीस वि दिठ्ठि पयांतहिं कर चउसट्ठि तेत्यु परिसंतहिं । णच्चिवि विविहणटुरूवें वर सिद्धबेत्तु पणवेप्पिणु सुरवर । समउ सुराहिवेण गय णहयलि अरुण वरुण वइसवण सुणिम्मलि। 15 घत्ता-हरि सुरई समासइ जंतु णहि णियचरिएं मुणियच्छलिण॥
उज्जोइउ भरहु जि णमिजिणिण पुष्फयंतकिरणुज्जलिण ।।15।।
16
दुबई हुइ' णिव्वाणगमणि णमिणाहहु सासयसिवणिवासहो ।।
___अक्खमि चरिउ चक्किजयसेणहु सयलजणाहिरामहो ॥छ।। जंबूदीवि एत्यु सुमहतई मेरुहु उत्तरेण गुणवतई।
ने देवाधिदेव की पूजा की। आहत तूर्यों के शब्दों से आकाश आपूरित हो गया। गाये गये स्तोत्रों की ध्वनि का कल-कल शब्द होने लगा। ध्वज उड़ने लगे। रत्न बिखेर दिए गए। दीन अनाथों को दान दिया गया । सुन्दर चन्द्रमा के समान चामर धारण कर लिए गए। धरती के रंगमंच पर विविध देवों ने नत्य किया। जिनका यश उनचास भावों तक प्रसरित है ऐसे नव रसों का प्रदर्शन करते हुए, छत्तीस दृष्टियों को प्रगट करते हुए, चौसठ हाथों का प्रदर्शन करते हुए, विविध नृत्य रूप से नृत्य कर सुरवर सिद्ध क्षेत्र को प्रणाम कर देववर देवेन्द्र के साथ आकाश मार्ग से चल दिए।
धत्ता-आकाश में जाते हुए हरि देवों से संक्षेप में कहता है कि मुनियों के लिए वत्सल भाव रखने वाले, अपने चरित से सूर्य और चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल नमि जिनेश्वर ने इस भारतवर्ष को आलोकित किया।
(16)
शाश्वत शिव में निवास करने वाले नमिनाथ का निर्वाणगमन होने पर, समस्त जनों के लिए सुन्दर, चक्रवर्ती जयसेन का मैं चरित कहता हूँ। इस जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के उत्तर में गण5. AP Ogfca- 46. 1 6. Ap faffutors 1 7. AP read in place of this line and the three following as follows :
चवर्षदणलवंगधिरायसल कुसुमणिबह णहणियडिय समसल। णाहह पयपणामु बिरयंसहि जयजयजय अरहंत भणंतहि। दिष्ण उरणलघोलिरहारहिं चुडामणिसिहि बलणकुमारहि । मप्पीभावजायतणुसलिहि वंदिवि बेहभप्पु परमेट्रिहि ।
(A विवि पेड भवपरमेठिहि) (16) 1. Aहुँ ।
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f241
80. 17.2]
महाका-पुत्फयंत-बिरहमर महापुराण अस्थि खेत्तु णामें अइरावर्ड जणधणकणगोसंपयअइराव' । बुहमणोज्जु सिरिउरु तहि पट्टणु अमरणयरसोहादल वट्टणु। सहि णा भूवालु वसुंधर अतुलपरक्कम पवरवणुसरु । पउमावइ णामें तहु गेहिणि रण्ण व रविहि ससिहि णं रोहिणि। तहि विओयसोएं णिविण्णउ रज्जु सुविणयंधरि सुइ दिण्णउं । मणहरि वणि धम्ममुणीसपासि लइयउं तउ पावासबविणासि । जिणकहिइ विहिइ सणासु करिवि महसुक्कसरिंग हुउ अमरु मरिवि । भासुरतणु पावियअवहिणाण सोलहसायरजीबियपमाण । अह वच्छाविसइ विलासठाणु कोसंबीपरवरु सुहणिहाणु । तहि विजउ राउ अखलियपयाणु णियतेओहामियसरयमाण । पिय तासु पहकरि सुहणिवास सूहवगुणपूरियदसदिसास । दरकणयवण्ण विच्छिण्णकाय ण सग्गह अच्छर का वि आय। पत्ता-सग्गाउ चवेप्पिण' सो अमरु ताहि गभि अबइण्णउ ।।
परिओसिउ सयलु वि बंधुयण, सत्तुबग्गु अद्दण्णउ 16||
10
दुवई—सोहणदिणि सुरिक्खि णवमासहि पवरोयरविणिग्गओ ।।
पुण जयसेणु णामु तहु विहियउं णियगइविजिदिग्गओ ॥छ।।
वान् महान् ऐरावत क्षेत्र है जो जन-धन-कण और गौसंपदा से अतिक्षय रमणीय है। वहाँ पण्डितों के लिए सुन्दर, श्रीपुर नाम का पट्टन है जो इन्द्रपुरी की शोभा का दलन करनेवाला है। उसमें भूपाल नाम का राजा अतुल पराक्रमी और प्रबल धनुष का धारण करने वाला था । उसकी पद्मावती नाम की गृहिणी थी। वैसे ही, जैसे रवि की रण्णा और चन्द्रमा की रोहिणी । उसके वियोग शोक से विरक्त होकर, उसने अपने पुत्र विनयंधर को राज्य दे दिया। मनोहर बन में धर्ममुनीश्वर के पास, पापाश्रव का नाश करनेवाला तप ग्रहण कर लिया। जिनेन्द्र द्वारा कथित विधि से संन्यास ग्रहण कर, वह मरकर महाशुक्र स्वर्ग में अत्यन्त भास्वर-शरीर देव हुआ। अवधिज्ञान को प्राप्त किया है जिसने ऐसे उसकी सोलह सागर प्रमाण आयु थी। इसके बाद वत्सावती देश में बिलास का स्थान तथा सुख का निधान कौशाम्बीपुर था। उसमें अस्खलित प्रमाण राजा बिजय था जिसने अपने तेज से शरद-सूर्य को तिरस्कृत कर दिया था। उसकी प्रिया प्रभंकरी थी जो सुख की घर और अपने सुभगगुणों से दसों दिशामुखों को पूरित करनेवाली थी। श्रेष्ठ स्वर्ण रंगवाली कान्तशरीर वह ऐसी लगती थी मानो स्वर्ग से कोई अप्सरा आई हो।
घत्ता-बह देव स्वर्ग से चलकर, उसके गर्भ में अवतीर्ण हुआ। समस्त बन्धु गण संतुष्ट हुआ, शत्रुगण खिन्नता को प्राप्त हुआ ।।16।।
एक शोभन दिन और सुन्दर नक्षत्र में नव माह में वह प्रवर उदर से निकला। उसका जय
2. AP गोसपयसा रउं। 3. बहुमणोज्जु । 4. P 'गवर । 5. A गरेसरु। 6.A अंछर। 7. P चएप्पिणु । 8. AP आदण्णउ ।
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242] महाकवि पुष्पवरत विरचित महापुराण
[80. 17.3 णिच्छियतिण्णिसहसवरिसाउसु सवपियारउ णं णवपाउसु। वरइक्खाउवंसणहससहरु बंदिणजणविहंगसुरतरुबरु । कणययवष्णु करसठ्ठि समुण्णउ' सयलकलाकलावसंपुषणउ। रज्जि णिविट्ठहु चक्कुप्पण्णउं रविबिबु व सेवद्द अवइण्ण। परिसाहिय छक्खंड वसुंधर सेव कराविय सुर वि सुदुर । एक्कहिं दिणि सउयलि वसंतें । विज्जुवडणु मयणाउ णियंतें। कारण तें वइरग्गहु पाविउ सन्नु अणिच्चु मणेण परिभाविउ । रज्जु पढमपुत्तहि ण वि मण्णिउं जिह णिवेण तिह तें अवगणि। 10 णिरवसेसु लहुसुयहु समप्पिवि सत्तुमित्तु सममइ संकप्पिवि। केवलिवरयत्तह णिवणेसरु जाउ समीवि साहु परमेसरु । समयइ कयसंणासुत्तमु
हुयउ जयंतदेउ लयसत्तम।
हुयउ जयतदउ घत्ता--संणासमरणि भरहेसरह परसुरवरहिं अहिं ।। पुज्जाविहाणु णिव्वत्तियउं पुष्फयंतसमतेहि" ।।। १॥
15 इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाभब्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकल्वे "णमितित्थयर जयसेणचक्कहर-।। कहंतरं णाम असीतिमो परिच्छेओ समत्तो ।।801
(17) सेन नाम रखा गया । वह अपनी गति से दिगज को जाता पालापा। उसकी निश्चित तीन हजार वर्ष की आयु थी। नवपावस के समान वह सबका प्यारा था। वह श्रेष्ठ इक्ष्वाकुवंश के आकाश का चन्द्रमा था। बन्दीजन रूपी विहंगों के लिए कल्पवृक्ष था। उसका स्वर्ण वर्ण शरीर साठ हाथ ऊँचा था । वह समस्त कला कलाप से पूर्ण था। राज्य में बैठे हुए उसे चक्ररत्न उत्पन्न हुआ, मानो सूर्य बिम्ब ही अवतीर्ण होकर उसकी सेवा कर रहा था। उसने छह खंड धरती सिद्ध की। दुर्धर देवों से उसने सेवा करवाई। एक दिन सौधतल पर बैठे हुए उसने आकाश से बिजली को गिरते हुए देखा । इस कारण से उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने मन में सब कुछ अनित्य समझा। प्रथम पुत्र ने भी राज्य को नहीं माना, जिस प्रकार पिता ने, उस प्रकार पुत्र ने, उसकी अवहेलना की। अपने छोटे पुत्र को समस्त राज्य देकर, शत्रुभित्र में समबुद्धि कर, वह नपसूर्य केवली घरदत्त के पास जाकर, साधु हो गया। सम्मेदशिखर पर उत्तम संन्यास ग्रहण कर वह वैजयन्त अहह्मेन्द्र हुआ।
पत्ता-उस भरतेश्वर के संन्यास-मरण पर सूर्य-चन्द्रमा के समान तेज वाले अनेक नरपतियों और देव-देवेन्द्रों के द्वारा उसका पूजा-विधान किया गया॥17॥
प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का नमि तीर्थकर, चक्रवर्ती जयसेन-फयान्तर नाम अस्सीबा परिच्छेव समाप्त हवा ।
(17)1. A परिससहसाउसु । 2. A समुग्गज । 3.AP उवण्ण। 4.AP बिजुपरणु 1 5. AP बरहत्तहु । 6. AP जयंति देउ । 7. A सयलुत्तमु । 8. AP पुप्फरस । 9. AP णमिणाहणियाणगमणं । 10. Aomits जयसेणचक्कहरकतरं। 11.Pचक्कट्टि।
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NOTES
[The references in these notes are to Samdbis in Raman figures and kadavakas and lines ia Arabic figures. T stands for Tippana of Prabhacandra]
LXVIII
2. 13 wg fear, the sings of (coming) death or fall from heaven
became manifest.
38 fim, (male or teaching of wafax) which kept off or made ineffective the systems of heretic schools.
LXIX
12 हरिहरणोश
जय रामाव, The रामायण is the glorification of the virtues or qualitles of हरि (वासुदेव) and हलधर (लदेव). 40 निव्वाहनि भरमनिय 1 (Poet) want to carry out the wishes of we, my patron. 6a
freng, I possess no material or . 66 fire waw the few, how
facilities for undertaking the task of composing a can I compete with older poets ? 7a w edy, the great poet who wrote on the theme of रामायण had the help of a thousand friends. 8 उम्हह the great poet स्वयं as his name implies, had four mouths. 9a gyffe, the poet ger says that be has only one mouth as against four of g, and that even this mouth is broken (fr). Elsewhere ger calls himself to be uw or refe, and mentions that his face or mouth was 13 geverfiant, on the path, brightened by great poets like y and
; or on the path, i.e., g, built or manifested by the good monkey, ie.,
3. -10 These lines record some strange notions or superstitious beliefs about persons figuring in the रामायण King अंभिक asks [गौतम इन्द्रभूति to explain to him the truth about them. They are: (1) w (w) has ten mouths or faces; (2) his son wife was older in age than his father, or in other words, fm, though a son of, was born before him; (3) was a demon and not a human being; (4) he had twenty eyes and twenty hands and that he worshipped god fee with his heads; (5) was killed by the arrows of tra; (6) the arms of r, i.e. ww, were long and unbending (f); (7) and others were monkeys and not human beings; (8) fefe is still living or is a चिरजीविन् (9) sleeps for six months and feels satiated only by eating one thousand buffalos. Those that are conversant with the Hindu version of the 14 will see that except No. 2, all other beliefs have some sort of support in the various of Hindu 19. About No. 2, I have not come across any support for it. But before we proceed further we have to note a basic difference in the conception of personalities of
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244]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
and you with the Hindus and the Jaibas. 419, according to Hindu version and the Jain version is the elder of the two sons, 44 and 40, of 22€; but 714 who is the eighth
da of the Jaidas, has wbite complexion as against the dark complexion according to Riodus. On the other band, who is the eighth da of the Jaipag, bas dark complexion as against white complexion according to Hindus. Besides FUTU, being a resta with the Jainas, kills at who is a samica with them. Other differences in the two vergions will be noted as we proceed. 110-b All Jain versions known to us say, as here. that u apd eftir are responsible for creating wrong notions about the personalities of (149t. It is clear from this statement that Jain poets, one and all, who tried their bands on the story of 27914, have been acquainted with the versions of cute and wife, and think that they gave an altogether new interpretation of the lives of th and 244.
4. 2-13 These lines mention the तृतीरभद of राम and लक्ष्मण, In the city of रत्नपुर in the weet, there was a king named 909ft. Hie queen, tar by name, gave birth to a son who was called in (who is destined to be cu subsequently). farwy, the son of the king's minister, was a friend of .
5. 5 FRETH vi er ufofit, like a young elephant (HTE, Wu) born of a beautiful she-elephant. A marchant named t h d a son, new by name, by bis wifc dc, This श्रीदत्त was married to कुरदत्ता, daughter of कुबेर. 105 ती संणिहा का कुबेराइवताह what lady (ती, स्त्री) is comparable (संणिहा, संनिमा) toकुबेरदत्ता in beauty! पनघूस carried off this कुबेरयत्ता by force.
8. 4a fere far fer, the two boys, and furt said in deep voice, i.c., full of repentance. These two were destined to be 98 and 19 in their third subsequent birth.
9. 9a 8, rashly, in haste.
10. 45 treffer, the young monkıywand frw. Of these formed a fare on seeing सुप्रभवमवेद and पुरुषोत्तम वामुरेव to enjoy prowess similar to theira.9-10 विजय WBs born in the सनत्कुमार heaven and was called सुपर्णचूल, and चन्द्रभूम was born in the कमभप्रय विमान and was named मणिचूल.
11. 11 reft nu era 743, altbough king MET (TE) was a friend (m) to the whole carth, he was not a seat or soucre (79T, TR) of faults (WTA, 114) like the moon who is a friend of night lotuses (
5 9) and is the maker of night (ar). 12. Note that a (in former birth forre and gatve) is the son of king we of वाराणसी (and not of भयोध्या) by his queen मुबला (and not कोसस्या) and that the day of his birth is फालानकृष्णप्रयोदशी, मघा नक्षत्र (and not मंत्रशुक्ल नवमी); and that लक्ष्मण (in former birth चन्दल and मणिचूल) is the son of केयी (and not of मुमित्रा) and is born on माघ शुक्ल प्रतिपद्, fare . It is only subsequently that king << went over to get as mctioned in 14. 66 below.
16. la जं जुजिवि सग्गडु सयरु गउ, king सनर went to beaven by petforming a sacrifice. According to Jain version of the story of me, there is no mention of this sacrifice. 50 fag i.e. 274.
20. 10 fuerat, i.e., Ferra, the son of morfine and ufafarda. In 22. 36 he is called fanfare.
II
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NOTES
[245
28. 100 T ffor , TTT says that means the ** (94) corn three years old. This is the famous cxplanation of (goat) according to Jajnas.
33. 8-9 These lines mention te, foarte etc., as meritorious acts according to superstitious beliefs; but the poet says that if they secure merit, e bull who touches the body of the cow and the crow that sits on the format tree would be gods.
LXX
1. 11 - ARESH, these two sons of yours are the eighth ** and Tea, as 1 heard in the पुराणs and will occupy a place among the सलाकापुरुषs.
2. This 74 and the two following give the history of the past life of 147. There was in the city of toy a king called it. He renounced the world and practised penance. On seeing a fore he formed a faer that he should have the fortune similar to that feat. He was then born as a god in the atut heaven. King of the city of faves, got somehow displeased with his relatives, quarrelled with them and shifted to निकूटगिरि. There he built the city of लंका. After hirn came तीव and पसागमोब. Hia son was पुलस्ति whose wife मेघलक्ष्मी gave birth to दशग्रीव, He married मन्दोदरी, the daughter of मय.
6. 7- The lide means that had got disturbed in ber meditation on the
H-a, and thought that we, though a feuz, had characteristica (f, FT) of a demoo. 8a-b afpril formed a fun that he should be her father in her next birth, carty her off in the forest and die on her account. This feat becomes a in ber next birth.
B. 10 RET , if she is alive, you (TRIT) will have another daughter. A asked #241 to abandonar as she was destined to bring calamity on the family.
9. 11 रामणरामहं हाई कलि, a source of quarrel between रावण and राम, 12. 3a 97, i.c., fafam, lbe city of 19's father-in-law.
13. 9a भवराज सत्त कण्णाज, Over and above सीता, राम was married to seven other girls, 100 was married to sixteen girls. Note that in the Jain mythology has cight wives and not one.
16. 66 04 (tom:). For this form sec 797 v. 438.
LXXI
1. I #FE WE Lig fw , #15 wanders over the earth finding out places where there is, or has a chance of, a quarrel. This characteristic of art is well-known to Hindu Mythology. Here he is approaching out to start the quarrel.
2. 6b Rafafur farm hear, but one, i.e., 14, desires to obtain fame by conquering you.
S. 69 PENTA F , with my arms, terrific in shaking the mountain peaks, This is a reference to the belief that w shook the far mountain with his arms,
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246)
महाकवि पुरुषवत विरचित महापुराण
6-10. These F**cefer to the description of the characteristics of ladies as mentioned in Tara of TRITT.
11. 70 W ( e), otherwise known as T T,
15. 23 बखलु परिक्खा णि यस गुगंधे, a lady compares the scent of बकुल flower to see if it is similar to the scent of her body, 11a e va fa tant, now in this spring, this (cuckoo) also bas become talkative.
18. 2a कपट होएप्पिण, assuming the form of aचुकिन् or rather चुकिनी an old lady.
20. le Fagaratfor go forgiast. It appears tbat Jainism recommends the shaving of the head by widows.
LXXII
1. 1 year , abandoning the restraint which a householder (derit, aucht, पहस्य) should practise namely सदारसंतोष, रावण now starts in his पुष्पकविमान to carry off सीता against the rules of a Jain householder, for star is not his wife. He is not still aware of the fact that fee is his own daughter. 19 fed etc. saw there the forest and also one more thing. viz., the bloom of youth of them. The next * compares these two in similar terms.
4. A fine description of the movements of an antilop.
5. sa mearga larurut, who wore a blue or dark garment. This called frakt in Hindu as well as in Jain Mythology.
8. 11-12 Those linos Dicap: Ifl (tr) touch this lady who is now helpless but chaste, the lore which enables me to move through the air ( fourt fra) will go away from me. 749 was unwilling to dally with the unwilling er, as in that case he would lose all the prowess be bad.
12. 4-6 These lines mention that may became an * 17 about the time of the arrival of at TT
LXXI
1. 3 guft etc. Three things occurred simultaneously, viz, Te followed the deer in the forest, what was carried off, and the attendents of far were filled with grief on her account.
236-66 It appears that the Jain society recommends the wearing of redcoloured saris for widows, breakiog of bracelets, and not wearing ornaments like a becklace.
5. 9a Acecrding to the Jain version, is still living when #rar was carried off by 9. He saw a dream just at that moment that of art, the consort of the moon, was carried off by ze, which dream indicated that a similar calamity had befallen *1#
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I
NOTES
[247
6. 11a जणदणेण by लक्ष्मध्य,
7. 4a, i, e.,
and
who were frets and not monkeys.
8. 66 is in Jain Mythology the 20th rate and hence he is mentioned as muck (kg) and by its synonyms. Compare 25. 96 below.
10. 3a er af, having taken the , i. e., flowers etc, offered to the deity. When a devotee visits a temple, be takes home with him some portion of the fate or ashes or some article dedicated to the deity.
15. 2, i. e., 1914, 12 yafuureg fer jeg, broken earthen plate is placed as a cover to close the mouth of a golden vessel. fert is wre, known as wrin
Marathi.
22. 122 पपपणेण मन्दोदरी recognised सीता as her daughter by signs or marks on her feet.
24. 136, who was a Prem, assumed the form of a monkey and stood before her. This explains, according to Jain Mythology, the reason for the belief that was a monkey.
26. 8 were af, I shall mention certain very confidentia! bappenings between you and so that you will recognise me to have come from him. This af is supplied in the following lines of this rs and a few lines of the next
28. 10a-b fa fa etc. When tre burns its own race, i. e. irees of wood from which it is born. how can it forgive its enemy, i. e, water? Water is heated by fire on this account.
29. 136 णं दहमुहरमण कोसपाणु, as if सीता swore that she would never dally with w is a www or fest, ordeal, which one solemnly undertakes. Compare 448, संसासमए जलपूरियंजलि विहजिएक्कवरमप्ररं गोरी को सपाणुज्ज व पगहाहिवं मह
research,
LXXIV
16 जोतिर
सोधिन्, हनुमत् was again askedto go to संका as a go, and the poet humourously compares him to a bull (www) that is yoked to a cart a second time. According to Hindu Mythology we was the g of
6. 46 fefter for pars, i. e, f, tar and wwer (quit) as mentioned in 5. 11 above, and 13. 9b below.
8. 15 gry, God of love bears a low made of sugar-cane
15. 36 रसवनी सहि a reference to अन्यधीय the first प्रतिनादेव who made love
to e and was killed by for the first wg of the Jain Mythology.
16. 70, one of the friends of t; b, another friend of g. 9 and 10 mention कुन्छ and नल who are allies of सुमौन.
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248]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण
LXXV
1. 8b f
names of 's followers.
2. 96 geri qara, Let first fr (fr) come with me to 1, 105 करिव महामेहदेव, Let him give me the excellent elephant called मह
3. 76, even though it is not expressly said.
4. 16 fx ferlig og forras, there is already one calamity, viz., fire, and to add to it there comes the gust of wind. 12 t get, when I am angry. 6, 106 fefefefefg, the lord of the fefefeferys. ie., fx. 9. 26, such valour or activity.
afa.
LXXVI
2. 6b fires, will reach this place () today or tomorrow. Ea fanfening, राजण was bom in the विद्याधर race founded by विनमि (विजय) who was the brother of मि.
1
3. 50 वानराम The name of the bow of राम is बचाव 9 पंच the conch of वासुदेव, here of लक्ष्मण 14 कुंभय म बीड, राब says to विभीषण that if विभीषण leaves him, he (w) will have greed to help him.
tu, by a blade of grass one cleanses one's teeth. The form for q
4. Sa is irregular.
6. 10 gift, All Freres assumed the form of monkeys and then visited लंका,
9. 9. fire, the movements of which leave a black passage or smoke, अग्नि is often called धूमध्वज.
LXXVII
2. 86 हा the sword of रामण, 14 सिहं तसg, we are afraid of हरि (w) and (w) who are very strong.
3. 13 fg fire, aw was full of courage (x) even in adversity (fagfe, fast ufa, deze fa).
6. 1 yoga cffed f g fet, Is there a noise of failing of worlds standing one upon the other? There are several s which stand one upon the other and thus form an ath, at, as it is called in Marathi. 66, god of death (4)
9. 5-17 A fine description of the dust raised by the fight.
13. Sa feffer, flames of fire produced from the clashing of swords. 136f, head along with the crown or cap (f).
LXXVII!
who has a dark complexion. 150-8 विजयपर्व and मरि
1. 2. कृष्ण
3
are the names of elephants of a and 7, See also 3. 4b and 3. ita below.
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NOTES
(249
5. lla-b qe % etc. A warrior ways to another warrior, "You bave given your head (an capital) in paying the debt of your master, and are using your blood as ioterest on tbe capital."
8. 3a FITTE a fer portu, the arrows are ftuale, i. c., bave an iton edge or bave greed (ale, *) and therefore they are e, discbargod by bow-string (u) or are destitute of virtues (T).
9. 21 rata, acrived on the scene, 10. [4 a as' fa, 7 sball keep my word,
11. 36 Fet, jarriog words, words mixed with salt as it were. Compare wat भारनिक्षेपणम् .
13. Bb ****, who had a white complexion simiar to that of a white lotus is called परम (प) and पुराणs deseribing his story are called पवरित, पापुराण etc.
14. 8a- Tu etc. The line records two popular sayings that in a small lake & crab is called a 4 although the term means **, while in a place where there are no trees, becomes a big tree. Compare: fent gf #124.
15. 1 af P W Both IT and T wore yellow garments. (n. Hindu mythology कृष्ण is called पीताम्बर,
16. 6a Tarfur, i. e, That, although at according to Jain Mythology had only two arms, still he is called 1797.1 cwic; to ne fillico v Eldu kigialogy
18. 1 TETET, on the great warrior who killed nr. Note there are two sferaretas, viz., 99 and he or .
20. 14 T irforce... farannt, writings about she futurc of warriors which were written on their forehead. 15 wtf (ft), having obtained by begging.
21. 70 f * TEFT, cracking of fingers on some one indicates disrespect for him, të stadt is found in modern Marathi- 1 30 744 16 TT«, this busband of mine bas married me when I was quite youngi so our love is unbroken, Compare : 4: कोमारहरः स एक हि वर.. 23. 4a
79 o ca, today the goddess of learning ( aet) will not remomber of recite the w , owing to the death of rum. T is know for his learning Jo Hindu Mytbology he is the son of a famous sage The who is a Brahmiz.
24.3 गारत गाउ मात्र पासणविहि. It was not मारद who arrived (and induced your midd to carry off ), but it was your destiny bringing death upon you that bad come Note that made up his mind to carry off at on the mischievous advice of me, 12 agfaring for quite fafe , even hard adamant (TU) was bored by insects. Death of T** from the hand of is an unexpected 4 the boring of by insects
25. 1बहमुतुहराम says to विभीषण that he should now take the place of मुख (Trat). 65-125 These lines describe the removal of the dead body of 1 , on a palanquin decked by columns of plantain trees, with umbrella beld over it.
29. 36 a fenfa 735 474 who but T4 so noble ?
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महाकविपुष्पदन्त विरचित महापुराण
LXXIX
2.
116,
sword called सोनन्दक because it was a gift from सौनन्दनस Of the seven gems which a ger as wwf possesses, sword is one and it is called etre as the गr is called कौमोजकी According to Jain Mythology वासुदेवs and बलदेवs have seven and four marks respectively. They are given in the following verses:
250]
असि शंख अनुभव रस्नानि सप्त चक्रेशे रक्षितानि मरुद्गणैः ।। रत्नमाला हल भास्वद्रामस्य भुक्तानं गया । महारानि चत्वारि बबुविविदुः ॥
गुणभद्र उत्तरपुरा-62148-149
पर, he went from that place. Note the use of होत with तहि rather , iv. 355.
3. 80 than net. Compare
6. 106 को भारत को सुरविमान, who will, in that case, be born in bell and who will be bron in heaven ? 12 न यणि आणि जि etc. This is the famous doctrine of अभिकल of the Buddhists. #, by self-enlightened Buddha.
प्र. 6-9 These lines tell us that rम had eight sons विजयराम and others, and लक्ष्मण had several, and others, fom his wife ft.
11. 40 सच्छीहरंगि, in the body of पनीर i. c. लक्ष्मण.
LXXX
9. A fire desription of the Rainy Season.
16. 75 रण व रविद्दि, the name of the sun is or as. T says रनादेवी,
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अंगरेजी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवाद
भयसठवीं सन्धि
(2) 13 आने वाली मृत्यु की सूचना अथवा स्वर्ग से मस्त झेना ।
(9) 3b अनन्ततीर्थ या अनन्तनाथ का शासन (आम्नाय) जिसने अन्य माम्नाबों को निरस्त या प्रभावहीन कर दिया।
उनहत्तरवी सम्धि
बामदेव और बलराम के गुणों की स्तुति के लिए जो रामायण काय वा रामान वासुदेव (लकमग) और हलधर (राम) के गुणों और विशेषताओं का गौरवीकरण है। 4 भरत के द्वारा माकषित में निर्माह करूंगा। मैं (कवि) अपने भाश्रयदाता भरत की इछामों को पूरा करना चाहता है। 68 मेरे पास कुछ भी सामग्री नहीं। मेरे पास साधन और सुविधाएं नहीं है कि यह कार्य पूरा कर सई। 78 कविराज मंचू। (महान् कपि स्वयंभू जिन्होंने हजारों मित्रों की सहायता से राम के इतित पर पाम्य भी रपना की। 8 चतुर्मुख, महाकपि चतुर्मुख जैसा कि स्वयंभू कवि का नाम बतलाया है। तुम यानी भारमतवाला। 9 मेरा एक मह वह भी खंडित है। कवि पुष्पदंत कहता है कि उसका एक ही मुख। जबकि पतुमख के चार मुख थे । इतने पर भी मेरा यह मुख खंडित है । एक अन्य जगह पुष्पदंत ने स्वयं को खंग्केवि कहा है और लिखा है कि उनका मुख पक्र (टेढ़ा) था। 13 सुकवियों द्वारा प्रकाशित मार्ग पर, उस मार्ग पर जिसे चतुर्मुख स्वयंभू जैसे कवियों ने आलोकित किया है। मार्ग यानी सेतु जो बानर यानी हनुमान द्वारा निर्मित है।
(313-10 ये पंक्तियाँ रामायण में आए पात्रों के बारे में विचित्र विश्वासों या धारणामों का वर्णन करती है। राजा |णिक गौतम इन्द्रभूति से पूछता है कि वह इनके बारे में सच बात बताए। ये है(I) रावण वशमुख) के दस मुंह थे।(2) पुत्र इंद्रजित् उम्र में अपने पिता से बड़ा था । दूसरे शब्दों में इन्द्रजित यद्यपि रावण का पुत्र था, परन्तु उससे पहले पैदा हुआ था ।(3) रावण मनुष्य नहीं, रासस या। (4) उसकी बीस अखें और बीस हाथ थे, और यह कि वह शिव की उपासना अपने सिरों से करता था।(5) रावण राम के तीरों से मारा गया । (6) श्रीरमण (लक्ष्मण) के हाथ लंबे और स्थिर पे, शुकते नहीं थे। (7) सुग्रीव बौर दूसरे बन्दर थे, वे मनुष्य नहीं थे । (8) विभीषण बब भी रह रहा है, या वह चिरंजीवी है। (१) कुम्भकर्ण छह माह सोता है और एक बार में से खाकर उसकी भूख शान्त होती है।
जो हिन्दू रामायण से परिचित हैं वे पाएंगे कि क्रमांक 2 को छोड़कर, हिन्दू रामायण का दूसरी धारणामों में काफी कुछ समर्थन है। लेकिन क्रमांक 2 में इस प्रकार का कोई समर्थन मेरे देखने में नहीं
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महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण
आया । परन्तु आगे बढ़ने के पहले यह नोट कर लेना जरूरी है कि जैनों और हिन्दुओं की रामायणों में राम और लक्ष्मण के चरित्रों के बारे में मूलभूत अन्तर यह है कि दशरथ के दो बड़े बेटे थे राम और लक्ष्मण । परन्तु राम का, जो जैनों के आठवें बलभद्र है, रंग गोरा था जबकि हिन्दू परम्परा में वेश्याम वर्ण के ये 1 इसी प्रकार हिन्दू परम्परा के गौर वर्ण लक्ष्मण का, गो जैनों के आठवें वासुदेव हैं, जैन परम्परा के अनुसार रंग श्याम था। इसके सिवा, जैनों के अनुसार वासुदेव होने के कारण लक्ष्मण ने प्रतिवासुदेव रावण का वध किया, राम ने नहीं। रामायण के दोनों वर्णनों की भिन्नत मालूम होती जाएगी जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाएंगे। 11- हमें ज्ञात सभी जैन वर्णन बताते हैं कि व्यास और वाल्मीकि ही, रामायण के पात्रों के बारे में गसत धारणाएँ फैलाने के लिए उत्तरदायी है। इस कथन से यह स्पष्ट है कि सभी जैन कवि, जिन्होंने रामायण के कथानक पर काश्य की रचना का प्रयास किया है, रामायण और व्यास के कथानकों से परिचित है, और वे सोचते हैं कि उन्होंने राम और लक्ष्मण के जीवन को एक दम नया रूप प्रदान किया है।
(4) 2-13 ये पंक्तियां राम और लक्ष्मण के तीसरे भव का वर्णन करती है। मलयदेश में रमपुर नगर है। उसमें प्रजापति नामक राजा था। उसकी रानी कांता ने एक पुत्र को जन्म दिया, उसका नाम चन्द्रचल था (जो आगे चलकर लक्ष्मण के रूप में होने वाला है)। विजय, जो राजा के मंत्री का पूत्र है, चन्द्रचूस का मित्र था।
(5) Sh से सुन्दर हथिनी से जन्मा हापी का बसचा, एक सुन्दर युवा हापी । एक गौतम नामक व्यापारी उसकी पत्नी वैश्रवणा से श्रीदत्त नाम का पुत्र था, श्रीदत्त का विवाह कुवेरदता से हुआ जो कुबेर की कन्या थी 10b कुबेरदस्ता के समान कोन स्त्री थी? कुबेरदत्ता से कौन स्त्री तुलनीय यी सुन्दरता में ? चन्द्रचूल ने बल से कुबेरदत्ता का अपहरण कर लिया।
(8) 4a दोनों पालकों (चन्द्रचूस और विजय) ने गंभीर पनि में कहा--पश्चात्ताप के स्वर में। के पोनों तीसरे भन्म में लक्ष्मण और राम होने वाले है।
(9) 9a तेजी या जल्दी में।
(10)4b छोटे मुनि (चन्द्रचून मोर विजय)। इनमें से बाचूल से, सुप्रभ सदेव और पुरुषोत्तम वासुदेष काभष देखकर यह निदान किया ! में भी उनके समान शक्ति को प्राप्त करू। 9-10 विजय सनरकुगार स्वर्ग में उत्पन्न हुआ जहाँ उसका नाम सुवर्णचल पा । चन्द्रचूस कमलप्रभ विमान में उत्पन्न हुमा और उसका नाम मणिचूल हुआ।
(11) यद्यपि राजा दशरथ पूरी घरती के मित्र थे, लेकिन दोषों के आकर नहीं थे। पन्द्रमा के समान, जो कुभूदिनियों का मित्र होता है और रात्रि का जनक होता है।
(12) नोट कीजिए कि राम (पूर्व जन्म के विजय और स्वर्णचूल) वाराणसी के (अयोध्या के नहीं) राजा दशरथ के पुत्र हैं, जो सुबला रानी से (कोसस्या से नहीं), फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, मघा नक्षत्र (पत्र शुक्ल नवमी नहीं) में हुए और लक्ष्मण (पूर्वजन्म का चन्द्रचूल और मणिचूल) कैकेयी का पुत्र है (मुमित्रा का नहीं) और माघ शुक्ल प्रतिपदा को विशाखा नक्षत्र में उसका जन्म हुआ। यह इसके अनंतरही हुआ कि राजा दशरथ अयोध्या गये जिसका कि 14 (66) में वर्णन है।
(16) 14 राजा सगर यज्ञ करके स्वर्ग पहुंचते हैं। सगर की जो कहानी जैनों में प्रचलित है, उममें यज्ञ का उल्लेख नहीं है । 5b सिसु अर्थात् राम ।
(20) 10 पिंगलु अर्थात् मधुपिंगल-तणपिंगल और अतिथिदेवी का पुत्र ।
(28) नारद अम का अर्थ तीन वर्ष का जौ (यव) करते हैं। जैनों के अनुसार यह अज का प्रसिद्ध अर्थ है।
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अंगरेजी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवाद
[233 (33) 8-9 ये पंक्तियां गोस्पर्श, पिप्पलस्पर्श आदि का वर्णन करती हैं, अन्धविश्वासों के अनुसार । परन्तु कवि का कहना है कि यदि ऐसे लोग पुण्य की योग्यता पाते हैं तो बैल जो गाय का स्पर्श करता है, और कोआ जो पीपल के पेड़ पर बैठता है, दोनों को देव होना चाहिए।
सत्तरवों सन्धि
(1) 11a-b ये तुम्हारे दोनों पुत्र आठवें बलदेव और बासुदेव हैं । जैसा कि मैंने पुराणों में सुना है, ये शलाकापुरुषों में स्थान पाएंगे।
(2) यह कड़क और इसके बाद के दो कड़वकों में रावण की पूर्व जन्मों की कथा कही गई है। नागपुर नगर में नरदेव नाम का राजा था । उसने संसार का त्याग कर तपस्या की । एक विद्याधर को देखकर उसने निदान किया कि उसका भाग्य भी उस विद्याघर के समान हो। वह सौधर्म स्वर्ग में इन्द हमा। विद्याधरों के नगरका राजा सहस्रग्रीव अपने संबंधियों से नाराज हो गया। वह झगड़ा करके, त्रिकूट पर्वत पर चला गया। वहाँ उसने संका नगर का निर्माण किया। उसके बाद शालग्रीव आया, और तब पंचाशग्रीव । उसका पुत्र पुलस्ति था, जिसकी पत्नी मेघलक्ष्मी ने दशग्रीष को जन्म दिया। उसने मंदोदरी से विवाह किया जो मय की कन्या थी।
(6) 7a-b इस पंक्ति का अर्थ है कि मणिक्ती विचलित हो गई जब वह बीजाक्षर मंत्र का ध्यान कर रही थी। उसने सोचा कि राषण यद्यपि विद्याधर है, राक्षस के चिल्ल रखता है। 8a-b मणिपती ने यह निदान किया कि वह अगले जन्म में उसका पिता हो । यह उसे जंगल में ले जाए, और वह उसके कारण मृत्यु क प्राप्त हो । यही मणिवती मगले जन्म में सीता बनती है।
(8) 1b उसके होने पर दूसरी कन्या होगी। यदि रावण जीवित रहता है, तुम्हें (मन्दोदरी को) दूसरी कन्या होगी। मारीच ने सीता के परित्याग की बात कही क्योंकि उसके कारण परिवार पर निश्चित रूप से संकट आएगा।
(9) 11 राम और रावण के बीच कलह का कारण । (12) 3a राम के ससुर का नगर मिपिला ।
(13) 9 राम ने सात दूसरी कन्याओं से विवाह किया, 10 लक्ष्मण ने सोसह दूसरी कन्याओं से विवाह किया । ध्यान दीजिए; जैन पौराणिक परंपरा में राम की एक नहीं, आठ पत्नियां थीं।
(16) 6b जाणेवा (ज्ञातव्या) इस रूप के लिए देखिए हेमचन्द्र iv. 438,
इकहत्तरवों सन्धि
(1) नारद धरती पर परिभ्रमण करते हैं—यह जानने के लिए कि कहीं लड़ाई हो रही है या लड़ाई होने का अवसर है। नारद को यह विशेषता हिंदू पौराणिक परंपरा में ज्ञात है। यहाँ यह लड़ाई कराने के लिए राषण के पास पहुंच रहा है ।
(2) 6 b परन्तु एक अर्थात् राम यश प्राप्त करना चाहते हैं आपको जीतकर ।
(5) 6. अपनी भयंकर भुजाओं से, जो पर्वत-शिखरों को हिला सकती हैं। यह संदर्भ उस विश्वास से संबद्ध है कि रावण ने कैलाश पर्व को हिला दिया था है अपनी भुजाओं से ।
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महाकवि पुष्पयन्स विरचित महापुराण (6-10) यह कड़वक वात्स्यायन कामसूत्र के अनुसार स्त्रियों की विशेषताओं का वर्णन करता है। (11) 7a चन्द्रनखी या फिर शूर्पणखा।
(15) .पण ती बाल की मंश की तुलना करती है कि क्या वह उसकी देह की गंध के समान है। 11 इस वसंत में कोयल भी बातूनी हो गई है।
(18) 29 कंचुकी के रूप को धारण करते हुए। या फिर कंचुकिनी--एक वृक्षा। (20) Ja इससे लगता है कि जैनधर्म भी विधवाओं के सिरों के मुण्डन का अनुमोदन करता है।
बहत्तरपी सन्धि
(1) 1 उन प्रतिबंधों का परित्याग करते हुए, जिनका गृहस्थ को पालन करना चाहिए । जैसे स्वदारसंतोष । रावण अब सीताको पुष्पक विमान में ले जाता है। यह जैन गृहस्थ धर्म के प्रतिकूल है, क्योंकि सीता इसकी पत्नी नहीं है। उसे अभी तक इस तथ्य को जानकारी नहीं है कि सीता उसकी लड़की है । 1a रावण ने देखा कि यहां धन है, और भी एक पीज-सीता के यौवन का पुष्प । अगले कड़वक में इन दोनों की तुलना है।
(4) हिरण की गति का एक सुन्दर चित्रण है।
(5) 5a जो नीले या काले वस्त्र पहनते हों । बलदेव नीलाम्बर कहे जाते हैं, जैन और हिंदूदोनों पुराणों में।
(8) 11-12 इन पंक्तियों का अर्थ है कि यदि में (रावण) इस स्त्री को छूता हूँ, जो असहाय है पर शीम संपन्न है तोबह विद्या जो मुखेमाकागातल में घुमाती है, छोड़ देगी। सीता की इच्छा के विरुद्ध रावण कुछ नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसी स्थिति में विद्या उसे छोड़ देती।
(12) 4-6 ये पंक्तियो बताती हैं कि रावण अपंचक्रवर्ती है ।
तिहत्तरवों सन्धि
(1) 3 तीन पीयें एक साथ हुई–राम ने इन में मृग का पीछा किया, सीता का अपहरण हुआ, और सीता की रक्षा करने वालों को गम्भीर दुख हुआ सीता के अपहरण के कारण ।
(2) 3b-6b ऐसा प्रतीत होता है कि जैन समाज अनुमोदन करता था कि विधवा स्त्री को साल साड़ी पहनना चाहिए, चूपियां फोड़ देना चाहिए और हार वगैरह नहीं पहनना चाहिए ।
(5) 9जन पुराणों के अनुसार, दशरथ जीवित हैं, जब रावण के द्वारा सीता का अपहरण किया जाता है। दशरथ ठीक उसी समय एक स्वप्न देखते हैं कि चन्द्र की प्रेमिका रोहिणी को राहू ले जा रहा है । इससे यह संकेत मिलता है कि राम पर भी इस प्रकार का संकट आना चाहिए।
(6) जनार्दन अर्थात् लक्ष्मण के द्वारा 1
(7-8) 4 सुग्रीव और हनूमत् जो कि जैन विद्या के अनुसार विद्याधर थे, बानर नहीं । हनुमत् बीसवें कामदेव हैं । इसलिए उसका वर्णन मकरकेतु के रूप में है ।
(10) 39 फूल आदि लेकर प्रतिमा को अर्पित किए। जब भक्त मंदिर जाता है, तो वह उसका
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अंगरेजी टिप्पणियो का हिन्दी अनुवाद पौड़ा माग अपने साथ घर ले जाता है, निर्माल्य का.भाग जो प्रतिमा को अर्पित किया जाता है।
(15) 2 जैसे स्वर्णभांड पर खप्पर का ढक्कन दिया जाए। भिगार भूगार झारी के रूप में ज्ञात है। (22) 12a मंदोदरी ने सीता को अपनी कन्या के रूप में पहचान लिया उसके पैरों के चिह्नों से ।
(24).136 हनुमत् ने, जो विद्यापर या, वानर का रूप धारण कर लिया और सीता के सामने खड़ा हो गया । यह इस बात को स्पष्ट करता है कि जैन पुराण विद्या के अनुसार, यही कारण है कि जिससे हनुमान को वानर समझा गया।
(26) 86 मैं आपके और राम के बीच की गुप्त बातें बताऊंगा जिससे आपको विश्वास हो जाएगा कि मैं राम की तरफ से आया है। बाद की पक्तियों में बांभज्ञान के कुछ चिह्न हैं, कुछ दूसरे कड़वक की पंक्तियों में हैं।
(28) 10a-b अब आग अपनी ही जाति को जला देती है, वृक्ष और लकड़ी कि जिनसे उसका जन्म होता है, तब यह अपने शत्रभों को कब अमा करेगी? यही कारण है कि आप जल को गरम करती है।
(29) 135 सीता प्रतिज्ञा करती है कि रावण के साप समय नष्ट नहीं करेगी। कोरापान एक सपथ है, जिसे कोई गंभीरता से लेता है।
पसरवी सन्धि
(4) 16 हनुमान् से दूत बनकर फिर लंका जाने के लिए कहा गया । कवि व्यंग के साथ उसकी बल से तुलना करता है जिसे दुबारा गाड़ी में जोता गया हो । हिन्दू पुराण विधा के अनुसार राम का दूत अंगद था।
(6) 4b अर्थात् श्री, सीता और वसुन्धरा (पृथ्वी)। (४) 15 प्रेम के देवता कामदेव इझुदंड का धनुष रखते हैं ।
(15) 30 अश्वग्रीव का संदर्भ जो पहला वासुदेव है जिसने स्वयंप्रभा से प्रेम किया और जो प्रयम बासुदेव निपृष्ठ के द्वारा मारा गया।
(16) 70 नील सुग्रीव के मित्रों में से एक था । b सुग्रीव का एक अन्य मित्र कुमुद था। कुन्द और नल सुप्रीव के ही नाम है।
पचहत्तरी प्तग्वि
{1) 8 राषण के अनुयायियों के नाम । (2) 9b पहले बासि को लंका थाने दीजिए। 10b वह मुझे महामेघ नाम का हाथी दे। (3) b तथापि दवाव से महीं कहा गया ।
(4) ib एक आपत्ति पहले से है यानी बाग और इसे बढ़ाने के लिए हवा की सहर भा रही है। 12 अब मैं कुछ होता हूँ।
(6) 100 किलकिलपुर का स्वामी यानी वालि । (9) 2 शक्ति का इतना बड़ा विस्तार।
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महाकवि पुष्पहात षिरचित महापुराण
छिहत्तरों सन्धि (2) 66 आजकल में यह लंका पहुंचेगा । रावण विद्याधर जाति में उत्पन्न हुआ था जो नमि के भाई विनमि को प्राप्त हुआ।
(3) राम के धनुष का नाम वजावतं था। 9 लक्ष्मण के के धनुष का नाम पांचजन्य था। 14 रावण विभीषण से कहता है कि यदि विभीषण उसे छोड देता है तो वह (रावण कम्भकर्ण की सहायता लेगा।
(4) 54 तृष की सीक रो पोई अपने दांतों को साफ करता है। तृण के लिए सण, तणु प्रयोग अनियमित है।
(6) 10a सब विद्याधरों ने वानर का रूप बनाया और तब लंका की सैर की। (७) 9a अग्नि जिसकी गति काली धूम्र रेखा का विसर्जन करती है अर्थात् धूम्रध्वज ।
सतहत्तरवों सन्धि
(2) 8b चंदहासु---रावण की तलवार। 14 हम हरि (लक्ष्मण) और बल (राम) से करते हैं। वे बहुत शक्तिशाली हैं।
(3) 13 रावण संकटकाल में भी पूरा धैर्य बनाए रखता था।
(6) I क्या यह एक के कार एफ गिर रहे भुवनों की आवाज है ? ऐसे कितने ही भुवन होते हैं जो एक के ऊपर एक आधारित है जिसे मराठी में उतरंड कहा जाता है। 6b वश्वसु-यम।
(9) 5-17 युद्ध से उठी हुई धूलि का एक सुन्दर चित्रण । (13) 54 तलवारों के परस्पर घर्षण से निकलती हुई चिंगारियाँ। 13 शिरस्त्राण ।
अठहत्तरवों सन्धि
(1) 2 कृष्ण अर्थात् लक्ष्मण जिनका रंग काला है। 1 5a-b विजयपर्वत और अंजनगिरि, लक्ष्मण और राम के हाथियों के नाम हैं।
(5) 118-b एक सैनिक दूसरे सैनिक से कहता है, तुमने अपने स्वामी का ऋण चुकाने में अपना सिर दे दिया है और अपना रक्त उसका व्याज चुकाने में दे रहे हो।
(8) 3a तीर लोह या लोभ धारण करते हैं इसीलिए वे डोरी से ज्युक्त अथवा गुणों से व्युत होते हैं।
(9) 21 दृश्य पर उपस्थित हुआ । (10) 14 मैं अपने शब्दों पर कायम रहूँगा । (11) 3b कटु शब्द खार युक्त । तीखे शब्द ।
(13) 8h राम जिनका रंग गोरा है, साहेद पप के समान । इसलिए वे पद्म कहलाए। उनके चरित का वर्णन करने वाले पुराणचरित कहलाये पमचरित, पद्मपुराण आदि ।
(14) ४a-b यह पंक्ति दो कहा बतों को अंकित करती है-झील में कर्कट भी जलचर कहलाता है यद्यपि इसका अर्थ मगर है। जहां वृक्ष नहीं होते वहाँ एर भी बड़ा पेड़ कहलाता है।
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गया है ।
अंगरेजी टिप्पणियों का हिन्दी अनुवाद
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(15) ] रावण और लक्ष्मण दोनों के पीतवसन हैं। हिन्दू पुराणों में कृष्ण को पीताम्बर कहा
(10) 60 वीसपाणि अर्थात् रावण । यद्यपि जैन पुराणों के अनुसार रावण के वो हाथ हैं फिर भी उसे बीस हाथों वाला कहा जाता । यह हिन्दू पुराणों का प्रभाव है ।
(1811 उस वीर योद्धा पर जिसने मधु को मारा। नोट कीजिए, प्रतिवासुदेव वो हैं-मधू और मधुसूदन ।
(20) 14 योद्धाओं के भविष्य के बारे में लिखते हुए जो कि उनके मस्तिष्क पर लिखा हुआ था । 15 जाइवि – यह उसने मांगकर प्राप्त किया है ।
(21) 76 अंगुलियों को तोड़ना किसी पर उसके प्रति अनादर को सूचित करता है। बोटे मोडणेंयह प्रयोग आधुनिक मराठी में मिलता है। 138 मेरे इस पति ने मुझसे उस समय विवाह किया जब मैं बिलकुल छोटी कन्या थी तुलना कीजिए - 'यः कौमारहरः स एव हि वरः ।
(23) 4a आज सरस्वती करेगी, रावण की मृत्यु के कारण ब्राह्मण थे ।
विद्या की देवी, हिंदूपुराणों के
शास्त्रों को याद नहीं करेगी या उनका वाचन नहीं अनुसार रावण पुलस्त्य का पुत्र था। पुलस्त्य ऋषि
वह तो दुर्दैव था जो तुम्हारे ऊपर मौत लाया था। रावण ने नारद की कपटपूर्ण सलाह से ही सीता भी जीर्ण हो गया। लक्ष्मण के हाथों रावण की
( 24 ) 3a वह नारद नहीं था जो आ पहुंचा, (नारद ने रावण को सीता की प्राप्ति के लिए मड़काया ।) के अपहरण का निश्चय किया था। 12 घुन के द्वारा बा मौत उसी तरह असंभव लगती थी जिस प्रकार धुनों से व का काटा जाना ।
(25) 1 तुम्हें दशमुख का स्थान ग्रहण करना चाहिए। 6b-12b इन पंक्तियों में रावण की शवयात्रा का वर्णन है।
( 29 ) 3b राम के सिवा और कौन उदार है ?
उन्यासीर्वी संधि
(2) 11b तलवार का नाम सोनंदक है, क्योंकि वह सोनंदयक्ष का दान है। अपकी वासुदेव के सात रत्नों में से एक तलवार भी है जिसे सौनन्दक कहते हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गदा को कौमोदकी । जैन पुराणों में बासुदेव और बलदेव के क्रमशः सात और चार चिह्न होते हैं। गुणभद्र के 'उत्तरपुराण' (62148-149) में उनका उल्लेख इस प्रकार है
नसिः शंख धनुश्च वक्तिग्डो गवाभवत् । रत्नानि सप्त चक्रेशे रक्षितानि मतगणैः ॥ रत्नमाला शुलं मास्वानश्व मुशलं गया । महारत्नानि चत्वारि बभूवुर्भाविनिभूतेः ॥
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________________ 258] महाकवि पुष्पवत कृत महापुराण (3) 8a वह उस स्थान से चला गया। ध्यान रखें कि 'तहाँ की अपेक्षा 'सहि' के साथ होतउ' का प्रयोग किया गया है / हेमचन्द्र iv 355 से तुलना करें। (6) 10 b उस स्थिति में कोन नरक में पैदा होगा और कोन स्वर्ग में ? 12 यह घोडदर्शन का क्षणिकवाद सिद्धान्त है / स्वयंभुरा के द्वारा। (8) 6-9 ये पंक्तियां हमें बताती है कि राम के विजय राम आदि आठ पुत्र थे, और लक्ष्मण के उनकी पत्नी पृथिवी से पृथ्वीचन्द्र आदि अनेक पुत्र थे। (11) 4b लच्छीहरंगि अर्थात् लक्ष्मीधर (लक्ष्मण) की देह में / (9) वर्षा ऋतु का सुन्दर वर्णन / (16) 7 b सूर्य की पत्नी का नाम रण यो रमादेवी था।