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________________ 46] [70.2.9 महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण बद्धउ' णियाणु महु जम्मि होउ एहज मणहरु खेयरविहोउ। सुररमणीरमणविलासमम्गि मुउ उप्पण्णउ सोहम्मसरिंग। इह भरहरिसि' वेयड्वसेलि गयणग्गलग्गमणिमोहमेलि । दाहिणसेढिहि ह्यवइरिजीउ पुरि मेहसिरि पहु सहसमीउ । घत्ता-उववेयउ केण वि कारणिण अंतरंगि णिरु" जायउ ।। कलहणउं करिवि सहूं बंधवहिं सो तिकूडगिरि आयउ ।।2।। लग्गइ अडि दुव्वयणकंडु मउलाविज्जइ सुहि तेण तुडु । कि किज्जह पिसुणणिवासि वासु तहिं गम्मइ जहि कदरणिवासु । तहिं गम्मइ जहिं तरुवरहलाई तहिं गम्मइ जहिं णिज्झरजलाई। तहिं गम्मइ जहि गुणणिरसियाई सुवति' ण खलयणभासियाई। इय चितिवि त्तिवि दुगुसंक काराविय राएं गरि लंक। उप्परिथियमिरिस्थिहि विहाइ चल्लियधयहत्यहि णडइ णाई। ण सण्णइ एहि जि पुणु वि एम कि सग्गे मई जोयतु देव । सिंहरें" of भिदिवि विउलमेह' ससि पावइ कि घरतेयरेह । मिले। वह मरकर देवरमणियों से जिसकी विलास सामग्री भरी हुई है ऐसे सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। इस भारतवर्ष में किरणसमूह से आकाश को छूने वाला विजयाई पर्वत है। उसकी दक्षिण श्रेणी में मेघ शिखर नाम की नगरी में, शत्रु के जीव का हनन करने वाला सहस्रग्रीक नाम का राजा है। घत्ता-किसी कारण से उसके मन में अत्यन्त उद्वेग हो गया, और वह अपने भाइयों से झगड़ा करके त्रिकूट गिरि में आ गया है। चूंकि दुर्वचन रूपी तीर कुअवसर में ( असमय ) जा लगता है और इसलिए मित्र का मुख उससे कुम्हला गया। दुष्टों के घर में क्यों निवास किया जाए? वहाँ जाया जाए जहाँ गुफा में निवास हो, वहां जाया जाए जहाँ तरुवरों के फल हों, वहाँ जाया जाए जहाँ निसरों के जल हों, वहाँ जाय जाए जहाँ गुणों से रहित तथा गुणों का नाश करने वाले दुष्ट जनों के द्वारा कहे गये वचन सुनने को न मिले। यह विचारकर खोटी शंका को मन से निकालकर राजा ने लंका नगरी का निर्माण करवाया। ऊपर स्थित पहाड़ रूपी हाथी के समान चंचल ध्वज रूपो हाथों से वह ऐसी मालम होती थी, जैसे नृत्य कर रही हो । अपनी चेतना के द्वारा (वह सोचती है) कि क्या मैं यहां फिर भी ऐसी ही हैं। स्वर्ग में देवता लोग मुझे क्यों देखते हैं ? शिखर के द्वारा बड़े-बड़े मेघों का भेदन करके सोचती है कि चन्द्रमा उसके घर की. शोभा को क्या पा सकता है ? अपनी पुतलियों 3. A खेयरह हो। 4. A 'रिस' । 5. A 'मजह। 6. AP णिज । (3) 1. AP'वरफलाई। 2. AP सुम्मति। 3. A पावियसक। 4.A'हत्पिर बिहार 5.Aषोयंति 1 6. AP सिहरेहि वि। 7.AP णीलमेह।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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