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________________ [171 10 71.6.10] महाकइ-पुपफपत-बिरहपउ महापुराण सत्त वि पायालई थरहरंति उम्मग्गलग्ग सायर तरंति।। विसहर भयरसवस विसु मुयंति कुंचियकर दिसकरि कुक्करंति। दित्तई णखत्तइ हलवलंति झुल्लतइं णहि एक्कहिं मिलति । घत्ता-वाइत्तयसहसमुच्छलेण संखोहणु जायज तेल्लोक्कहु ।। कि जाणडं गहि तडि तडयडिय पडिउ बिंबु समियकहु अक्कहु ॥5 हेला--ता भुवणुत्तुरडिणिवडणे कि हुओ णिघोसो॥ ___ आहासई दसाणणो गाढजायरोसो ।।छ।। भायर कि सुम्मइ घोरु गाउ कि उड्डइ धूलीरयणिहाउ । दीसइ महिमंडलु महिहरेहि णह्यलु संछण्णउं णयरेहि। ता विहसिवि पभणइ कुगयण्णु अववरिउं देव पडियक्षसेण्णु । हा हरि आढत्तउ जंबुएहि वइवसु जीवहिं जीवियचुएहि। सेरिहु मयमत्ततुरंगमेहि पक्खिवइ खलियउ उरजंगमेहिं । कि तुज्झु वि उप्परि एंति सत्तु किं तुहुं वि समिच्छहि परकलत्तु । लइ ठक्कर दीसइ विहिबिहाणु भिडु एवहिं पीडिवि रणि किया। 'भणिउंदसाणणेण जीवतें मई पंचाणणेण। 10 में लगे हुए वे उसमें बहने लगे। सांप भय के कारण विष उगल रहे थे । अपनी सूंड टेड़ी कर दिग्गज चिंघाड़ रहे थे। चमकते नक्षत्र आकाश से गिर रहे थे। आंदोलित वे आकाश में एक हो रहे थे। धत्ता-वाद्यों के शब्दों के उठने से तीनों लोकों में संक्षोभ फल गया । क्या जाने आकाश में बिजली तड़तड़ा कर गिरी अथवा चद्र सहित सूर्य का बिम्ब गिर पड़ा! (6) जिसे अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ है, ऐसा रावण पूछता है क्या एक दूसरे पर स्थित भवनों के गिरने का यह निर्घोष हुआ है ? हे भाइयो, यह घोर नाद क्यों सुना जाता है ? धूल का यह समूह क्यों उड़ रहा है । महीमंडल महीधरों से और आकाशतलनभचरों से क्यों आच्छन्न है ? तब कुभकर्ण हँसकर कहता हैहे देव, शत्रु की सेना आ पहुंची है। खेद है कि हरिणों ने सिंह को आक्रांत क्रिया है और यम को जीवन से च्युत जीवों ने । मदमत्त अश्वों द्वारा महिष घेर लिया गया है। सांपों ने गरुड़ को स्खलित कर दिया है । क्या तुम्हारे ऊपर भी शत्रु आ सकता है ? क्या तुम भी परस्त्री की इच्छा करते हो ? लो विधि का विधान पूरा होता दिखाई दे रहा है ! लो अब युद्ध में कृपाण को पीड़ित कर भिड़ो ! यह सुनकर रावण ने कहा-मुल सिंह के जीते जी शत्रु रूपी मग मिलकर क्या कर लेंगे। 3. AP रणतू रई। 4. P भीरहुं । 5. A चुक्करति; P कुक्कुर्वति ।। (6) 1. A 'तकारिणि वडणे; P *सुदिणिवळणे। 2. A महियलेहि; P महियरेहि । ३. A मयमतु। 4. हुंति । 5. लूकह।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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