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________________ 68. 8.6] महाका-पुष्कयंत-विरापत महापुराण {जिवि पुणु तेत्थाउ गउ कयसुहिविजउ । खरतवतावें तत्ताहो। सुविरत्ताहो। णव झीणई णिम्मच्छरई संवच्छरई। आयउ पुणु तं तरुगहणु वम्महमहणु। दिवखारिक्खि पश्खि कहिए मासें सहिए। णवमीदिणि चंपयह तलि थिउ धरणिय लि। पोसहजुयलें गलियमलु हूयउ सयलु। केवलविमलु अणंतयरु सुरखोह्यरु। पत्ता-कोमलकरयलघत्तियहिं" कुसुमहिं चित्तलंतु गयणंगणु ।। णं चित्तवड्डु पसारियड जलि पलि महियलि माइ ण सुरयणु ।।7।। 20 सहसक्खें विरइउ समवसरणु उवविठ्ठ भडारउ तिजगसरणु । चर अचरु असेसु वि जणहु कहइ तहिंपसु वि चारु चारित्त, वहइ। जाया देवहु रिसिवित्तिअरुह अट्टारह गणहर मल्लिपमुह । दहदोअंगई रिसि जे धरंति पंचसयई ताहं वि वज्जरंति। सिधुपहं सहासह एक्कास तत्तिय केवलि ओहीविहीसा | वइकिरियह दुसहस दोसयाई भुवर्णतपसिद्धिहि संगयाई। उन्हें मिला, उसे उन्होंने उसी प्रकार ग्रहण कर लिया। जिन्होंने सुधियों की विजय की है, ऐसे वह, वहाँ से भोजन करके चले गए। अत्यन्त प्रखर तप से संतप्त, और अत्यन्त विरक्त उनके ईया से रहित नौ साल व्यतीत हो गए। फिर कामदेव का मंथन करने वाले वह वृक्षों से गहन उसी वन में आए । वैशाख कृष्णा नौवीं के दिन श्रवण नक्षत्र में चंपक वृक्ष के नीचे धरणी-तल पर बैठ गए। दो प्रोषधोपवासों से नष्टमल वह सम्पूर्ण अनन्तानन्त देवों को क्षोभ करनेवाले केवलज्ञान से पवित्र हो गए। घत्ता-कोमल हाथों से फेंके गए पुष्पों के द्वारा आकाश के प्रांगण को चित्रित करता हआ देव समूह धरती, जल और थल में नहीं समा सका, मानो चित्रपट फैला दिया गया हो। ।।7।। देवेन्द्र ने समवसरण की रचना की। त्रिजग की शरण आदरणीय उसमें बैठे। वह चरअचर अशेष जन से कहते हैं, वहाँ पशु भी सुन्दर चरित्र का आचरण करता है। देव के मुनि वृत्ति वाले योग्य मल्लि प्रमुख अठारह गणधर थे। जो बारह अंगों को धारण करते हैं वे पाँच सौ कहे जाते हैं। शिक्षक इक्कीस हज़ार थे, और इतने ही केवलज्ञानी थे। अवधिज्ञान के ईश और विक्रिया-ऋद्धि को धारण करनेवाले दो हजार दो सौ थे। भुवनान्तर में प्रसिद्धि को प्राप्त, तथा 'अपने नय से परमतों का विध्वंस करनेवाले, वादी मुनि बारह सौ थे। सूक्ष्म सोपराय का नाश 10. A सुहविजयो। 11. तसयहो। 12. A सुविरत्त यहो। 13. AP'घल्लियहि । 14. AP चित्तवटु । 15. APणहयलि। (8) 1. A ओहीविमोस। - - - - ..
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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