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________________ [25 69.16.6] महाका-पुपफर्यत-विरइयड महापुराण ता राएं पेसिय दूयवर गय ते बहुपाहुडलेहकर। उज्झहि दसरहहु णिवे इसउ' आलिहियवं पण्ण वाइयउं । जो रक्खइ अद्धर परमकृय लहु दिज्जइणं पच्चक्ख सृय । णामेण सीय वेल्लहलभुय किर कहु उवमिज्जइ जणयसुय । तं बुद्धिविसारए मणिउं इहलि पति का शुगडं । कउकरणु' णिहालणु रक्खणु वि लइ रक्खउ राहउ लक्खणु वि। पत्ता-कारावय होआयार हुणिय पसु वि देवत्तणु ।। जेण लहति गरिंद तं करि जण्णपवत्तणु [11:।। ___10 16 जं जंजिवि' सग्गहु सयरु गउ सहुँ सयणहिं तणयहिं मुक्करउ । तं नव रक्खिज्जइ किज्जइ वि भावें वित्थारहु णिज्जइ वि। जगि धम्ममूलु वेउ जि कहिउ सो जेहिं महापुरिसहिं गहिउ । ते हंति देव दिवंगधर लहु पेसहि कुलसरहंसवर । रक्खेवि जण्णु सा घणथणिया सिसु परिणउ सुय' जणयहु तणिया। ता अइसयमइणा ईरियां पई बप्प असच्चु वियारियउं । जो अनेक उपहार और लेख हाथ में लेकर गये। अयोध्या में उन्होंने दशरथ से निवेदन किया और लिखे.हुए पत्र को पढ़ा : “जो महान् क्रिया वाले यज्ञ की रक्षा करता है, उसे मैं प्रत्यक्ष लक्ष्मी के समान कोमल भुजा बाली सीता नाम की कन्या दूमा।" जनक की कन्या की उपमा किससे दी जा सकती है ! तब राजा से बुद्धिविशारद ने कहा--"यज्ञ करना, उसकी देखभाल करना या रक्षा करना इस लोक और परलोक में सुन्दर कहा गया है । तो लक्ष्मण और राम यज्ञ की रक्षा करें।" पत्ता यज्ञ कराने वाले होता जन और उसमें होमे गए पशु, जिससे देवत्व पाते हैं, हे राजन्, उस यज्ञ का प्रवर्तन कीजिए। (16) जिस प्रकार राजा सगर यज्ञ करके स्वजनों और पुत्रों के साथ पाप से रहित होकर स्वर्ग गया, उसी प्रकार, हे राजन्, यज्ञ की रक्षा की जानी चाहिए। उसका विस्तार करना चाहिए। विश्व में धर्म का मल वेद को माना गया है, और उसे जिन महापरुषों ने स्वीकार किय दिव्य शरीर धारण करने वाले देवता होते हैं, इसलिए शीघ्र ही अपने कुल रूपी सरोवर के श्रेष्ठ हंसों (राम, लक्ष्मण) को भेज दीजिए । यज्ञ की रक्षा करके सघन स्तनों बाली जनक को उस कन्या से बालक राम विवाह करें। तब अतिशपबुद्धि मंत्री ने कहा-"भोले-भाले तुमने यह 3. A पाहड लेवि कर। 4,P णिबेविय। 5. A अदर परमरूअ; P अक्षर परमकिय। 6. AP सिय । 7. P करुणु। 8. A कारावय होपारहणिय; P कारावयहोआयारि। (16) ]. A जुजवि; Pइंजेवि। 2. AP णिव। 3.A कज्जइव। 4. A णिज्जइव। 5A महिउ 6.P परण।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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