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________________ 70. 18.2] महाकह-पृष्फयंत-विरणयज महापुराणु 159 जिप्पंति हरिस मय कोह काम रिउमाण लोह दुकम्मधाम। जउ बक्खाणिउ इंदियजएण संधि वि मित्तत्तणसंगएण । सावहि णिरवहि इच्छंति के वि पट्टणई वत्थु वाहणई लेवि। विग्गहु बिरइज्जइ दोसदु? दोसेण होइ बंधु वि अणि? ! आसणु गुरु कहइ असक्ककालि अवरोहि बिउलि रातरालि । जाणु वि सलाहु परिवारपोसि किज्जइ वज्जियदुंदुहिणिघोसि। जा किर विम्गहसंधाणवित्ति। तं दोहीअरणु ण का वि भंति । जहिं ण वहइ णियकरहत्थियारु असरणि रिउसेव वि कि ण चारु । 10 परवइ अमच्चु जणठाणु दंडु धणु दुग्गु मित्त संगामचंडु । सत्त वि पयईउ हवंति जेण उज्जउं णउ मुच्चइ ताय तेण। पत्ता-तं णिसुणिवि जणसंतावहर ताएं चावविहसिय ॥ गंजलहर बे वि धवल कसण सुय वाणारसि पेसिय ।।17।। 18 णियतायपसायपसण्णभाव सविणय पणमंत' विमुक्कगाव । देहच्छविदूसियरवियरोह जुवरायत्तणसिरिलद्धसोह। शत्र ओं का नाश करनेवाला दंड कहते हैं । हर्ष, मद, क्रोध और काम रूपी और दुष्कर्मों के आश्रय लोभ और मान रूपी अन्तरंग शत्र ओं को जीतना चाहिए। इन्द्रियों की विजय से जीत का बखान किया जाता है, और मित्रत्व की संगति के साथ संधि भी करनी चाहिए। कितने ही लोग अवधि पूर्वक या बिना अवधि के नगर वस्तु और वाहन लेकर संधि की इच्छा करते हैं। दोषों से सहित दुष्ट के साथ विग्रह करना चाहिए क्योंकि दोष के कारण बन्धु भी अनिष्ट होता है । गुरु असंभव काल में दुर्गाश्रय की बात कहते हैं, और विशाल परिवार का पोषण करनेवाले बजते हुए नगाड़ों के घोष के साथ गमन करना ही सराहनीय है, तथा जो युद्ध और संधि की संधान वृत्ति है, उसे द्वैधीकरण कहा जाता है, इसमें जरा भी भ्रान्ति नहीं और यदि अपने हाथ में हथियार नहीं रहता है.तो अशरण की उम अवस्था में शत्र की सेवा करना क्या अच्छा नहीं है? राजा, अमात्य, जनस्थान, दंड, धन, दुर्ग और संग्राम में प्रचंड मित्र-ये सात प्रकृत्तियाँ होती हैं । हे पिता, उससे उद्यम नष्ट नहीं होता। पत्ता-यह सुनकर लोगों के संताप को दूर करने वाले पिता दशरथ ने धनुष से शोभित दोनों पुत्रों को वाराणसी भेज दिया। मानो वे दोनों काले और सफेद मेघ हों। (18) अपने पिता के प्रसाद से प्रसन्न, गर्वरहित ये दोनों प्रणाम करते हैं, जिन्होंने अपने शरीर की कांति से सूर्य के किरणसमूह को दूषित कर दिया है, और जो युवराज की लक्ष्मी से शोभा 2.A दोहीकरण, P दोहीअरुणु । 3. A दुग्ग मित्त । 4. जलहर धवल वे वि फसण । (18) I A पणवंत; P गवंत; K records ap; यवत। 2. A भूसिय"
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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