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________________ 79.9.2] [219 महासागुम्फयंत-बिरस्पर महापुराणु जइ काउ सरंतह जाइ गरलु' तइ पावेण जि जणु होइ विमलु । जो सेवइ गुरु पाविठ्ठदुछ देउ वि णिट्ठरु दह्रोट्ट, रु? । सो सई जि पाय पावहु जि सरणु पइसउ ण लहइ संसारतरणु । सो गुरु जो मित्तु व गणइ सत्तु सो गुरु जो मायाभावचत्तु । सो गुरु जो मुक्काहरणवत्यु सो गुरु जो महिमागुणमहत्यु सो गरु जो तिणु कंचणु समाणु सो गुरु जो णिरहुप्पण्णणाणु । णिच्चलखमदमसंजमसमेण गुरुरयणु भणिउ एएं कमेण । दूरुझियदुज्जयरायरोसु अरहंतु देउ परिहरियदोसु । तहु धम्मु अहिंसालस्खणिल्लु मयमारउ विप्पु वि होइ भिल्लु। अहवा सो भण्णइ सूणयारु जपणे कहि लब्भइ समगदारु । पत्ता-मेल्लिषि विसयविसु जिणभावे हियवउ भावह ॥ पालिवि जीवदय सग्गापवग्गमुड पावह ।।४।। तं णिणिवि परिरक्खियमयाई सम्मईसणविप्फुरियएहिं धरियई.रामें सावयवयाई। अवरेहि मि भव्वपुंडरियएहिं। यदि कौए का स्मरण करने से पाप जाता है, तो पाप से भी मनुष्य पवित्र हो जाय । जो (व्यक्ति) पापिष्ठ और दुष्ट गुरु की सेवा करता है, तथा निष्ठुर ओठों को चबानेवाले रुष्टं देव की सेवा करता है वह स्वयं पापी है, और पापी की शरण में पहुँचा हुआ संसार से तरण नहीं पा सकता। गुरु वह है जो मित्र और शत्रु को नहीं गिनता (भेद नहीं करता)। गुरु वह है जो माया भाव से रहित है। गुरु वह है जो आभरण बस्तुओं से मुक्त है। गुरु वह है, जो महिमा और गण में महान् हो। गुरु वह है, जो तृण और स्वर्ण में समान है, जिसका ज्ञान अपाप से उत्पन्न आ है। निश्चल, क्षमा, दम, सयम और शम के इसी क्रम से मैंने गुरुरम कहा। जिन्होंने दुर्जेय राग वेष को दर से छोड़ दिया है और जो दोषों से रहित हैं, उनका धर्म अहिंसा लक्षणवाला है। पशुओं को मारनेवाला विष भील होता है अथवा वह हत्यारा (कसाई) कहा जाता है। यज्ञ से कहीं स्वर्गद्वार मिलता है? धत्ता-विषय रूपी विष को छोड़कर, जिनभाव से आत्मा का ध्यान करो। जीवदया का पालन कर स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) का सुख प्राप्त करो। (9) यह सुनकर राम ने, जिसमें पशुओं की रक्षा की गई है ऐसा श्रावकव्रत स्वीकार कर लिया। सम्यग्दर्शन से विस्फुरित दूसरे भव्य श्रेष्ठजनों ने भी श्रावकवत ग्रहण किए । लक्ष्मण का हृदय (8) 1. A गरुनु । 2. A पुछ्दछु । 3. A omits this foot. 4. AP गुणमहिमामहंतु 1 5. A तणकरणसमाणु। (9) I. P सरिमई।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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