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________________ 192] महाकवि पुष्पवात विचित महापुराण [78. 11.9 बयरिवेश दिट्ठतुहथाएं इंदियालु दरिसाधित भाएं। ता दहमुहेण भाइ दुम्बोल्लिउ पई पियवंसुम्मूलिवि घल्लिउ । विणु अब्भासबसेण सरासइ गोत्तकलिइ लच्छि ध्र बु"णास एउण चितिउ कुलविबसण दुम्मुह दुट्ठ कट्ठ दुइंसण । परह मिलेर का किर लहलं पई अप्पाण अप्पणु खद्धउं । घत्ता–आरुट्ठ करिवरि चलपसरियकरि जो आसंघइ बालतणु ।। महिहरु मेल्लेप्पिणु महि लंघेप्पिणु मरई मणुउ सो मूढमणु 1111 15 12 दुवई-मइ कुद्ध ण रामु कि रक्खइ भडहणहणरवालए॥ भाइय आउ जइ सक्कहि भिडु इह समरकालए॥छ।। तं णिसुणेप्पिणु पह पणवेप्पिणु । णवधणणीसणु भणइ विहीसणु। जइ पिउ जंपहि सीय समपहि। णिवणयजुत्तड दसरहपुत्तहु। होसि सहोयर तो तुहुं भाय। सामि महारउ सयणपियारउ। पण तो लज्जमि मउ पडिवज्जमि। तुम सुहित्तणु दुजसकित्तणु । होइ असारें इ8 जारें। देव, यह निश्चित रूप से सीता का मरण नहीं है। तुम्हारे घात के देखनेवाले मेरे भाई में यह इन्द्र जाल दिखाया है। तब रावण ने अपने भाई (विभीषण) से कहा- तुमने अपने देश की जड़ को उखाड़ कर डाल दिया । अभ्यास के बिना सरस्वती और गोत्र की कलह से लक्ष्मी मिश्चित रूप से नष्ट हो जाती है। रे कुल के विध्वंसक दुष्ट दुर्मुख कठोर एवं दुदर्शनीय, तूने इसका विचार नहीं किया? दूसरों से मिलकर आखिर तूने क्या पा लिया? तूने अपने को अपने से खाया? पत्ता-चंचल और प्रसरित सूंड वाले हाथी के कुल होने पर, जो पर्वत छोड़कर और धरती का उल्लंघन कर बालतृण का आसरा लेता है, मूढमन वह व्यक्ति मारा जाता है। (12) मेरे ऋद्ध होने पर जिसमें भटों का मारो-मारो शब्द हो रहा है, ऐसे समरकाल में क्या राम तुम्हें बचा सकता है ? हे भाई आओ और जहाँ तक हो सके यहाँ से युद्ध करो। यह सुनकर और प्रभु को प्रणाम कर नषधन के समान शब्द वाला विभीषण कहता है यदि तुम प्रिय कहते हो तो सीता को राजाके न्याय से युक्त दशरथपुत्र राम को सौंप दो। तभी तुम मेरे सगे भाई हो। तभी मेरे स्वामी और स्वजनप्रिय हो, नहीं तो मैं अपने को लज्जित मानता हूँ और अपयश के कीर्तन तुम्हारे स्वजनत्व को स्वीकार नहीं करता। असार इष्ट मित्र रहे, जिसमें धड़ घूम रहे हैं । पता8. AP इंदजालु । 9. A पई णियकुलु उम्मूलिवि। 10. AP धुउ। 11.A add after this : एवमेव ममउ संतास; K writes the linc but scores it off. 12-AP वहरिहिं। 13. A आसाइ। (12) 1.हउँ ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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