SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 174.6.12 132] महाकवि पुष्परन्त विरचित महापुराण धत्ता-संखपतिदसणु वडवाणलजालाकेसरु ।। बेलापुंछचलु मणिगणणहु सीहु व भासुरु ॥6॥ हेला-गंभीरो सरमेरउ' गीढमयरमुद्दो ॥ मारुइणा तुरंतेणं लंधिओ समुद्दो॥छ।। भवणंतरालि बिक्खायएण दीह जलगिहिसरजायएण । तिसिहरगिरिणाले उद्धरिउ पायारकण्णियापरियरित। छुहधवलट्टालविउलदलु लच्छीमंजीररावमुहलु । देउलहंसावलिपरियरिउ कणयालयकेसरपिंजरित। कामिणिमुहरसमयरंदरम जसपरिमलपूरियगयणदिसु । रावणरवियरवियसाविया देवाहं वि भल्लङ भावियउं। विरियकोसु' सुभुयंगपिउ कह णिउणे विहिणा णिम्मविउ । णहि जंतु जंतु मारुइभसलु संपत्तउ तं लंकाकमलु ।। घत्ता-जोयवि कुसुमसरु पारीयणु असेसु वि खुखउ । कंपइ णीससइ हसइ व बहुणेहणिबद्धउ ॥7॥ 10 घत्ता-शंख-पंक्ति ही जिसके दांत हैं, वडवानल की ज्वाला जिसकी अयाल है, जो बेलारूपी पुंछ से चंचल है, जिसके मणिगण रूपी नख हैं, ऐसा जो सिंह की तरह भरस्वर है। जो गंभीर और जल की मर्यादा वाला है, जिसने मकर मुद्रा स्थापित कर रखी है, ऐसे समुद्र का हनुमान् ने शीघ्र उल्लंघन किया। * भुवनांतराल में विख्यात, लम्बे समुद्र के जल से उत्पन्न त्रिकूट पर्वत रूपी नाल के द्वारा जो उद्धत है, प्राकार रूपी कणिका से घिरा हुआ है, चूने की सफेद अट्टालिकाओं के विपुल दल वाला है, लक्ष्मी के नपरों के शब्दों से मुखर है, देबकुल रूपी हंसावली से घिरा हुआ है, स्वर्णालय रूपी केशर से पिंजरित है, कामिनियों के मुख रस रूपी मकरंद के रस से सहित है, यश रूपी परिमल से जिसने गगन और दिशाओं को भर दिया है, जो रावण रूपी रवि की किरणों से विकसित है, जो देवों के लिए भला और रुचिकर है, जिसका कोश विस्तृत है, जो भुजंगों (चिह्नों) के लिए प्रिय है, किस निपुण विधाता ने उसकी रचना की है, ऐसे उस लंका रूपी कमल में, आकाश मार्ग से जाता-जाता हनुमान रूपी भ्रमर जा पहुंचा। __ घत्ता--उस कामदेव को देखकर समस्त नारीजन क्षुब्ध हो उठा, अत्यधिक स्नेह से निबद्ध वह कांपने लगता है, निःश्वास लेता है और हँसता है। (7) 1.AP समेरुउ; K सर मेरउ but records ap: अपवा समेरड समर्यादा; T सरमेरउ अलमर्यादः, अथबा समेरउ समर्यादा, 2. AP गाढमयरसदो। 3. A णिसियर। 4A पाया। 5.AP "हंसाबलिपंडुरस; K पछुरिज इप्यपि पाठः 6.A कणयायलफेसरि 1 7.A विस्थारिय' ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy