________________
अनुवादकीय (प्रथम संस्करण, 1983 से)
महाकवि पुष्पदन्त के 'महापुराण' का यह चौथा खण्ड, बस्तुतः मूल रचना के दूसरे खण्ड का एक अंश है। सन्धि 68 से 80 तक 13 सन्धियों के इस भाग को स्वतन्त्र चौथे खण्ड के रूप में प्रकाशित करने का कारण यह है, कि आम पाठकों को पुष्पदन्त द्वारा विरचित 'रामायण काव्य' स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध हो जाए। 68वीं सन्धि में बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ का चरित है, क्योंकि इन्हीं के तीर्थकाल में राम, लक्ष्मण और रावण, जो क्रमश: आठवें नारायण, वासुदेव और प्रतिवासुदेव हैं, उत्पन्न हुए।
ग्रन्य का अगला खपड़ पाँचवाँ होगा, जिसमें 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ और नौवें नारायण वासुदेव और प्रतिवासुदेव (बलराम, कृष्ण और कंस) का वर्णन है।
प्राचीन भारतीय साहित्य को, विशेषतः प्राकृत और अपभ्रंश के क्षेत्र में उपलब्ध साहित्य को व्यवस्थित करने और अनुपलब्ध साहित्य को प्रकाश में लाने की दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ जो काम कर रहा है वह सचमुच सराहनीय है। इस काम के लिए वह, तब तक सम्मान के साथ जाना और माना जाएगा जबतक यह देश है और उसमें प्राचीन भाषाओं की साहित्य-कृतियों को जानने की उत्सुकता रखनेवाले लोग रहेंगे। जो रहेंगे ही।
इस अवसर का उपयोग करते हुए, मैं ज्ञानपीठ के न्यासधारियों और खासकर उसके अध्यक्ष समाजरत्न साहू श्रेयांस प्रसाद जी तथा प्रबन्ध-न्यासी श्री अशोक जैन से यह अपील करना चाहूँगा (हालाँकि मैंने उन्हें देखा नहीं है, और न उनकी रुचियों की मुझे जानकारी है) कि वे इसके लिए कुछ
अधिक धन की व्यवस्था कर सकें तो अच्छा है। क्योंकि, अभी अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू के रिटमिचरित्र का प्रकाशन नहीं हो सका है। मैं दो साल पहले उसके एक खण्ड (यादवकाण्ड) को सम्पादित करके दे चुका हूँ। परन्तु शायद प्रकाशन बजट की सीमाओं के कारण हर वर्ष उसका प्रकाशन रुक जाया करता है। रिटणेमिचरित यउमचरिउ के बराबर महत्त्वपूर्ण, बल्कि कई बातों में उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसमें समग्र महाभारत की कथा है। पज्मचरिउ का मूल भाग 1960 के आस-पास सम्पादित होकर उपलब्ध था, जबकि रिद्वणेमिचरित अभी-अभी सम्पादन की प्रक्रिया में है। इसके दूसरे काण्ड भी सम्पादित होकर तैयार हैं, लेकिन जबतक पहला काण्ड नहीं छप जाता तबतक दूसरे काण्ड की 'प्रेस कापी' तैयार करने का कोई औचित्य नहीं है। अलावा इसके कुन्दकुन्दाचार्य के, जो जैनों की आध्यात्मिक विचारधारा के पनःप्रवर्तक आचार्यों में महत्त्वपर्ण हैं. ग्रन्धों का वैज्ञानिक सम्पादित संस्करण एक पंखला में उपलब्ध नहीं है। भाषिक दृष्टि से उसका अध्ययन आज तक नहीं हुआ, व्युत्पत्तिमूलक शब्दकोश आदि बातें तो बहुत दूर की हैं। कुन्दकुन्दाचार्य की भाषा अकेली नहीं है, वह उस भाषा से जुड़ी है