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________________ 73.4.10] [99 महाकइ-पुपफयंत-विरइयउ महापुराणु णलिणु बि सूरहु सयणत्तु बहइ सयणीयलि चित्तउ देहु डहइ । पियविरहु जलद्दई सिहि व जलइ चमराणिलु तासु सहाउ" धुलइ। वत्ता-रया व रिविकाससककाचकव्वासउ ।। विणु सीयइ भावइ राबहु णाडउ णाडयपासउ ।।३।। 10 5 दुवई-जलि थलि गामि गामि पुरि घरि घरि गिरिकंदरणिवासए॥ जोयह कहि मि घरिणि जइ जाणह बहुदुग्गमपवेसए ॥छ।। अवियाणिउं जगि को फहद कासु पेसिय किंकर दससु वि दिसासु । सई का णणि रहुवइ हिंडमाणु पुच्छइ वणि मिगई अयाणमाणु। रे हंस हम सा हंसगमण पई दिदठी कत्थइ विउलरमण । चंग चिम्मक्कहुँ सिक्खिओ सि महं अकहंतु जि खलक गओ सि । रे कुंजर तुह कुंभत्थलाई णं मह महिलाइ थणत्थलाई। सारिक्ख लइयउं एउ काई भणु कंतइ कहि" दिण्णई पयाई। सारंग कहहि महु जणयधीय णयहिं उबजीविय पई मि सोय । अलि घरिणिकेसणिद्धत्तचोर णिसि सररहदलकयबंधणार। 10 स्वजनता प्रकट करता है, शयनतल पर रखा गया भी वह देह को जलाता है। जल से गीले वस्त्र भी प्रियविरह की आग के समान जलाते हैं, और नवरों की हवा उनकी सहायक हो जाती है। घत्ता---गीत का स्वर शत्रु के द्वारा छोड़े गए शर के समान मालूम होता है, और काव्यशरीर का मांसभक्षक होता है । बिना सीता के राम को नाटक, नाटक-बंधन के समान लगता है। दुवई-- जल थल ग्राम ग्राम-पुर घर-घर और जिनमें प्रवेश -दुर्गम है, ऐसे गिरि-कंदरा के निवासों में कहीं भी देखो, यदि गृहिणी वहाँ मिल जाए। अविज्ञात को विश्व में कौन किस से कहता है ? इसलिए दसों दिशाओं में अनुचरों को भेज दिया जाए ! राम स्वयं कानन में अज्ञानी की तरह भ्रमण करते हुए पशु-पक्षियों से पूछते हैं - हे हंस, तुने उस विपुल रमण करने वाली हंसगामिनी को देखा है ? तुने सुंदर चलना सीख लिया है । हे दुष्ट, मुझसे कहे बिना तुम कहाँ चले गए थे ? रे गज, ये तुम्हारे कुंभस्थल हैं, मेरी पत्नी के स्तनस्थल नहीं है । तुमने यह समानता क्यों ग्रहण की ? बताओ कांता ने किस ओर पग दिए हैं ? हे मग, तुम बताओ कि जनक की बेटी, मेरी सीता के नेत्रों से तुम उपजीवित हुए थे ? मेरी गृहिणी के केशों की स्निग्धता को चराने वाले तथा रात्रि में कमल दल में अपना बन्धन करनेवाले हे भ्रमर, तुम मेरी 5. A विरहवलद्दइ । 6. A सहासु । (4) I. A-जोवहु । 2.A वणमिगई। 3. A कत्यवि । 4. P चिमक्कहं । 5. Aणं महु महिलहि घणणषलाई16.A किं ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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