SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1229 10 80.4.20] महाका-पुर-NिEA महापुराण णिसुय बत्त जिह जणणु जईसरु मुउ संणास णिण्णासियसरु । तणयह विणयपणयविस्थिण्णहु ढोइवि णियकुलसिरि सिरिदिएगहुँ । बग्गुरवेनु गाढु मणहरिणहु किउ तवचरणु हरणु जमकरणहु । तहि जि मणोहरवणि तणुताविउ मुणिवरु गुरु सम्भावें सेवित। सो अप्पाउं जिणभावें रंजइ लद्धउं कालि सुणीरसु भुंजइ। मउणु' करइ अह थोवउं जंप बंधमोक्खु संसारु वियप्पा । विकहउ ण कहद्द ण सुयइ ण सुणइ धम्मझाणु रिसि णिविसु वि म मुयद । जग्गइ इंदियचोरहं एंतहं । सीलदविणु बलि मड्ड हरंतह। रत्तिदिवस उन्भुन्भउ अच्छइ सत्तु वि मित्तु वि सरिसउ पेच्छा। देहि णेहु कि पि वि ण समारइ पुग्वभुत्तु मणि ण सरइ मारइ। मलपविलित्तई अट्टइं अंगई रियई तेणेयारह अंगई। धीरें सच्चु तच्च णिज्झायउं खाइउ दसणु खणि जप्पाइउं । सोलह थिर हियएण धरेप्पिणु जिणजम्मणकारणई चरेप्पिणु। पत्ता-सो अणसणु करिवि पसण्णमइ मुणि पंडियमरणेण मुउ । अवराइउ ससहरकरधवलि मणिविमाणि अहमिदु हुउ ।।4।। 15 20 जैसे ही सुना कि कामदेव का नाश करनेवाले योगीश्वर पिता संन्यासपूर्वक को मृत्यु प्राप्त हुए, विनय और प्रणय से विस्तीर्ण पुत्र श्रीदत्त को अपनी कुलश्री देकर उसने तपश्चरण ले लिया, जो मनरूपी हरिण के लिए अत्यंत बागुर का बंध और रोग का हरण करनेवाला था। उसी मनोहर उद्यान में शरीर से संतप्त गुरु की सद्भाव से सेवा की । वह स्वयं को जिनभाव से रंजित करता है, समय से प्राप्त नीरस भोजन करता है, या तो वह मौन रहता है या थोड़ा बोलता है। बन्ध, मोक्ष और संसार का विचार करता है । विकथा न वह कहता है, न सुनता है। वह मुनि एक पल के लिए भी धर्मध्यान नहीं छोड़ता। शील रूपी धन का जबरदस्ती अपहरण करने आते हुए इन्द्रिय रूपी चोरों से जागता रहता है। रात-दिन दोनों हाथ उठाए रहता है, शत्र और मित्र को समानभाव से देखता है। देह में वह नख के बराबर भी समादर नहीं करता। पूर्व में भोगी गई रति और लक्ष्मी को वह बिल्कुल भी याद नहीं करता। मल से निलिप्त आठों अंगों और ग्यारह अंगों को उसने धारण किया है। उस धीर ने सत्य और तत्त्व का ध्यान किया। एक क्षण में उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो गया। जिनजन्म की कारणस्वरूप सोलह स्थिर भावनाओं को हृदय में धारण कर और आचरण कर, घत्ता-अनशन कर वह प्रसन्नमति मुनि पण्डितमरण से मृत्यु को प्राप्त हुआ। वह चन्द्रकिरणों के समान धवल मणिमय अपराजित विमान में अहमेन्द्र हुआ । 3. A तवय रणु। 4. AP तबताविउ । 4 AP.मोणु । 6. A णिमिसु । 7. AP मंड1 8. P रणि । 9P वीरें।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy