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महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण
सीता का वास्तविक चरित्र तब शुरू होता है जब नारद मुनि के उकसाने पर रावण सीता के अपहरण की योजना बनाता है। सबसे पहले पन्द्रनमा दूती बनकर सीता के पास आती है। उसे देखकर वह विद्याधरी कहती है कि रूप में सीता के सामने उवंशी और रंभा भी कुछ नहीं हैं । चन्द्रनखा राम को पुण्यवान मानती है। पूछने पर वह स्वयं को धनपान की मां बताती है । वह जानना चाहती है कि उन्होंने पूर्व जन्म में कौन-सा प्रत किया जिससे इतनी सुन्दर हुई, वह भी उस स्वाधीन यौवन को साधेगी। सीता उससे कहती हैतुम नारीत्व क्यों चाहती हो ? रजस्वला होने पर वह चंडाल के समान है। वह अपने कुटुम्ब का स्वामित्व प्राप्त नहीं कर सकती। किसी कुल में पैदा होती है और बसी होने पर किसी दूसरे कुल में ले जाई जाती है। स्वजनों के वियोग पर रोती है, आँसू बहाती है। मंत्रणा के समय किसी को अच्छी नहीं लगती। जब तक जीती है पराधीन जीती है। दुभंग, दुष्ट, दुर्गध, दुराशय, अंधा, बहरा, रोगी, गूंगा, क्रोधी, निर्धन, कुटिल असा भी पति मिलता है नारी को उसी को मानना होता है। दूसरे का पति कितना ही बड़ा हो, वह पिता के समान है। विधवा होने पर मुड मटा कर तप करना पड़ता है। बचपन में पिता रक्षा करता है, जवानी में पति रक्षा करता है, बुढ़ापे में बेटा रक्षा करता है, ताकि वह कोई खोटा काम न कर । भोजन और सोने में उसे दूसरे के अधीन रहना पड़ता है। इसलिए तुम महिलापन को क्यों मांगती हो? गह सुनकर पन्द्रनखा अपनासा मह लेकर रावण के पास जाकर कहती है-सीता अपने व्रत से नहीं टल सकती। भले ही घरती अपने स्थान से हिग जाए । रावण के अपहरण करने पर सीता मूछित हो जाती है, स्वर्णपुत्तलिका की तरह यह धरती पर पड़ी है । सुधीजनों की याद से उसकी वेदना दुगुनी बढ़ जाती है। सीता यद्यपि निश्चेतन हो जाती है फिर भी उसका वस्त्र नहीं हसता। जार की चंचल दष्टि आखिर कहां ठहरेगी? कवि कहता है कि सती और सुभट के मजबूती से बंधे हुए वस्त्र (परिफर) हाथ से नहीं छूटते । मोत का अवसर आ जाने पर भी दोनों का परिकर बन्ध नहीं छूटता
"वाणिवसगु सहि सुहगह करासि ग बिपट्टा ।
मरणि सभावडिह परियारविहि विहि विग फिट्टा ॥" 72/7 रावण उसको इसलिए नहीं छूता क्योंकि उसे अपनी विद्या के चले जाने का डर है।
दूत्तियों द्वारा रावण की प्रशंसा किये जाने पर, सीता उन्हें मूर्ख समझकर चुप रहती है। रावण को चक्ररत्न की प्राप्ति होने पर भी सीसा हरती नहीं। राम की खबर मिलने तक वह भोजन छोड़ देती है। हनुमान अब उनसे राम का सन्देश कहते हैं तो वह समझती है कि उसे भोजन कराने के लिए शत्रु का यह कूट-कपटजाल है । लेकिन हनुमान के गूढ़ अभिज्ञान वचन सुनकर वह विश्वास कर लेती है कि यह रामदत है, और भोजन कर लेती है। वह मंदोदरी से कहती है कि उसके जीते-जी उसे राम के पास भेज दिया जाए। अंत में तपश्चरण कर वह सोलहवें स्वर्ग जाती है।
भरत और लक्मण-यद्यपि पुष्पदन्त ने प्रस्तावना में कहा है, कि इसमें (उनकी रामकथा में) राम का पश और लक्ष्मण का पौरुष है। परन्तु लक्ष्मण के चरित्र का पूर्ण विकास नहीं हो सका है। इसी प्रकार कवि राम और रावण के युद्ध को अनेक रसभाव का उत्पादक और भक्ति से भरे मरत के चरित्र का कारण मानता है, परन्तु उसमें भरत का चरित्र कहीं नहीं दिखाई देता । फिर पुष्पदन्त द्वारा रामकथा में राम का वनवास है ही नहीं। राम लक्ष्मण के साथ अपने पूर्वजों को पुनः अपने आधिपत्य में लेने के लिए जाते हैं, जहां नारद के कहने पर रावण सीता का अपहरण करता है। इसकी सूचना दशरथ राम को भेज देते हैं। परंपरागत रामकथा के जिन प्रसंगों को पष्पदन्त ने विस्तार दिया है. वे, सीता अपना हनुमान के गुणों का विस्तार, कपटी सुग्रीवराज का मरण, तारा का उद्धार, लवण-समुद्र का संतरण और राक्षस वंश का विनाश ।