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________________ 148] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण 175.7.4 ते बे वि लम्ग विज्जाबलेण पुणु हृयवहेण पुणु पुणु जलेण। पुणु तरुवरेण पुणु मारुएण' पुणु फणिणा पुणु विणयासुएण। जुज्झिय बेगिण वि पुणु भणइ जेठ्ठ मई कुछइ रक्खइ कवणु इठ्ठ। ता भासइ तहिं राहवकणिछु तुहूं ण मुणहि सिट्ठ अणि? विठ्ठ । हउँ विठ्ठ देउ दसरहकुमारु हउँ विछ सदुट्टियकुठारु। णउ दिण्ण हत्थि रे देहि घाय तुह एव्वहिं कुद्धा रामपाय । धत्ता-जइ जिणवर सुमरिवि संतमणु चरहि सुदुद्धरु तवचरणु ॥ 10 तो चुक्कइ महु रणि वइरि तुहूं जइ पइसहि रामह सरणु ।।१।। ता हसिउ पवलेण बलिरायपुत्तेण संगामपारंभपन्भारजुत्तेण । भूयररिंदस्स किं तस्स फिर थामु तुहं गणिउ जगि केण अण्णेक्कु सो रामु । जई अस्थि सामत्थु ता मेरुगिरितुंगु मई जिणिवि रणरंगि अवहरहि मायंगु । अक्खिवसि कि मुक्ख पक्षिदवरपक्ख किं कुणसि मई कुइइ सुग्गीवि परिरक्ख' रत्तोवलित्तेहिं दरिसियपहारेहि गुणधम्ममुक्केहि यम्मावहारेहि । मारणकइच्छेहि दुज्जणसमाणेहि ताबे वि उत्थरिय विप्फुरियबाणेहिं । कोडीसरत्तेणं णिव्बूढगावाई। छिपणाई चावाइं जमभउहभावाइं। दूसरे से भिड़ गए। फिर आग से, फिर जल से, फिर तरुवर से, फिर पवन से, फिर नाग से, फिर गहड़ से दोनों लड़े । फिर बड़ा भाई बोला-मेरे क्रुद्ध होने पर तुझे कौन इष्ट बचा सकता है ? तब राम का अनुज लक्ष्मण कहता है-तू नहीं जानता कि लक्ष्मी का इष्ट और तुम्हारे लिए अनिष्ट विष्णु (नारायण) है । मैं विष्णु देव दशरथ-कुमार हूँ 1 मैं विष्णु (गरुड़) हूँ, दुष्टों के लिए अस्थिकुठार हूँ । तूने हाथी नहीं दिया। इस समय राम के चरण तुझ पर क्रुद्ध हैं। पत्ता-यदि तू जिनवर का स्मरण कर शांत मन हो अत्यन्त दुर्धर तप का आचरण करता है और राम को शरण जाता है, तभी तू शत्रुयुद्ध में मुझसे बच सकता है। (8) इस पर संग्राम के प्रारंभ का प्रभार उठाने में संलग्न बलि राजा का पुत्र बालि हंस पड़ा। उस भचर (मनुष्य) राजा की क्या शक्ति ? तुम्हें और एक उस राम को जग में कौन गिनता है? यदि तझ में सामर्थ्य है तो युद्ध में मुझे जीतकर, सुमेरू पर्वत के समान ऊँचे महागज का अपहरण कर ले। हे मुर्ख,तू विद्याधर पक्ष पर आक्षेप क्यों करता है ? सुग्रीव के प्रति मेरे कुपित होने पर त उसकी रक्षा क्यों करता है? तब वे दोनों मान से अनुरंजित, प्रहार को प्रकाशित करने वाले, गुण धर्म से रहित, भर्म का छेदन करनेवाले, मारने की इच्छा रखने वाले, विस्फरित बाणों से युद्ध के लिए उछल पड़े। लक्ष्मण ने यम के समान भाव वाले और गर्व का निर्वाह करने 2.AP मारुषेण 1 3. AP दोण्णि । 4. AP णो दिण्णु । (8) 1. बालेण। 2. A अक्खबसि । 3.A परपक्खु; P परख । 4.A कोडीसरुत्तेहि ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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